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________________ नियुक्तिपंचक ५२. क्षेत्र अपाय का उदाहरण है-दशाह वर्ग का दूसरे क्षेत्र में अपक्रमण । काल अपाय में द्वैपायन ऋषि और भाव अपाय में क्षपक मेंढकी का उदाहरण ज्ञातव्य है। ५३. शैक्ष और अशैक्ष-दोनों प्रकार के मुनियों में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करने और उनके स्थिरीकरण हेतु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपाय का निदर्शन किया जा रहा है। ५४. विशिष्ट प्रयोजन से गृहीत द्रव्य का प्रयोजन की निवृत्ति हो जाने पर त्याग कर देना चाहिए । इसी प्रकार अकल्याणकारी क्षेत्र का परित्याग कर देना चाहिए । भविष्य में अनिष्ट की संभावना हो तो बारह वर्ष पहले ही उस स्थान को छोड़ देना चाहिए। यह क्षेत्र अपाय है । क्रोध आदि अप्रशस्त भावों का परित्याग करना भाव अपाय है। ५५. जो वादी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की दृष्टि से आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं उनके लिए सुख-दुःख, संसार और मोक्ष का सर्वथा अभाव हो जायेगा। ५६. एकान्त नित्यवाद के पक्ष में सुख-दुःख का प्रयोग घटित नहीं होता। इसी प्रकार एकान्त उच्छेदवाद में भी सुख-दुःख की कल्पना संगत नहीं बैठती। ५७. उपाय के भी चार प्रकार होते हैं-द्रव्य उपाय, क्षेत्र उपाय, काल उपाय और भाव उपाय। द्रव्य उपाय में प्रथम अर्थात् लोकिक है-धातुवाद । उसमें सुवर्ण आदि धातुओं को विशेष प्रयोग से शुद्ध करना होता है । लांगल (हल), कुलिका आदि द्वारा क्षेत्र की शुद्धि करना क्षेत्र उपाय है। ५८, नालिका आदि साधनों से काल का ज्ञान किया जाता है, यह काल उपाय है। भाव उपाय में बुद्धिमान् अभयकुमार का निदर्शन है। चोर को पकड़ने के लिए अभयकुमार नर्तक द्वारा खेल दिखाने से पूर्व जनता को वृद्धकुमारी का कथानक कहता है।' ५९. आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुपलब्ध है फिर भी सुख-दुःख आदि हेतुओं द्वारा उसके अस्तित्व का बोध होता है। ६०,६१. जिस प्रकार देवदत्त नामक व्यक्ति की घोड़े से हाथी पर, ग्राम से नगर में, वर्षा ऋत से शरद ऋतु में और उदय भाव से उपशम भाव में संक्रांति होती है उसी प्रकार सत जीव का द्रव्य. क्षेत्र. काल और भाव आदि में संक्रमण होता है । इस अपेक्षा से भी जीव का अस्तित्व प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से साधा जाता है। ६२. सत जीव का द्रव्य आदि में संक्रमण होता है। इस अपेक्षा से ही आत्मा के परोक्ष होने पर भी उसकी परिणमनशीलता प्रत्यक्षतः सिद्ध होती है। ६३. स्थापना कर्म के उदाहरण में दो दृष्टांत हैं-पौंडरीक तथा मालाकार। एक मालाकार मार्ग में शारीरिक बाधा से पीड़ित हो गया। उसने मलोत्सर्ग कर करंडक में संगहीत पुष्प उस पर डाल दिए । लोगों ने कारण पूछा तो वह बोला-मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि यहां हिंगुशिव नामक व्यन्तर देव प्रगट हुआ है । उसकी पूजा करने के लिए मैंने ऐसा किया है।' १. देखें-परि० ६, कथा सं० ४ । ३. देखें-सूयगडो २॥१॥ २. देखें-परि०६, कथा सं० ५। ४. देखें-परि० ६, कथा सं० ७ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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