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________________ निर्युक्तिपंचक १७४. जिस कथा में पापकर्मों के अशुभविपाकों का कथन हो, वह निवेदनी कथा है । उसके चार विकल्प हैं १. इहलोककृत कर्म - बंधन - इहलोक में वेदनीय । २. इहलोककृत कर्म बंधन ३. परलोककृत कर्म बंधन ४ परलोककृत कर्म बंधन परलोक में वेदनीय । इहलोक में वेदनीय । परलोक में वेदनीय । कर्मों का भी प्रचुर अशुभ परिणामों का कथन होता है, वह ८८ १७५. जहां अल्प प्रमादकृत निवेदनी कथा का सार है । १७६. सिद्धि देवलोक, सुकुल में उत्पत्ति-यह संवेग का कारण है । 1 तथा कुमानुषत्व निर्वेद का कारण है । १७७. शिष्य को सबसे पहले आक्षेपणी कथा कहनी चाहिए। जब स्व सिद्धान्त का पूरा ज्ञान हो जाए तब विक्षेपणी कथा कहनी चाहिए । १७८. आक्षेपणी कथा से प्रेरित जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं । विक्षेपणी कथा से सम्यक्त्व का लाभ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । इस कथा से मंदमति जीव गाढतर मिथ्यात्व को भी प्राप्त हो सकता है । १७९ जिन सूत्रों तथा काव्यों में तथा लौकिक ग्रन्थों - रामायण आदि में, यज्ञ आदि क्रियाओं में तथा सामयिक ग्रन्थों-तरंगवती आदि में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का कथन किया जाता है वह मिश्रकथा है । १८०. स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चोरकथा, जनपदकथा, नटकथा, नृत्यकथा, जल्लकथा ( डोर पर करतब दिखाने वाले की कथा ) तथा मल्लकथा -- ये विकथा के प्रकार हैं । नरक, तिर्यञ्चयोनि १८१. ये कथाएं ही प्रज्ञापक- प्ररूपक तथा श्रोता की अपेक्षा से अकथा कथा वा विकथा होती हैं । १८२. मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जो अज्ञानी प्रज्ञापक कथा कहता है वह विकथा है, ऐसा तीर्थंकरों ने प्रवचन में कहा है । वह अज्ञानी लिंगस्थ - द्रव्य मुनि भी हो सकता है। और गृहस्य भी । । १८३. तप, संयम आदि गुणों के धारक, चारित्ररत श्रमण संसारस्थ प्राणियों के लिए जो हितकर तथा परमार्थ का उपदेश देते हैं, वही प्रवचन में 'कथा' कही गयी है । १८४. जो संयमी मुनि प्रमाद तथा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कथा कहता है, वह विकथा है - ऐसा तीर्थंकर आदि धीर पुरुषों ने प्रवचन में कहा है। १८५. जिस कथा को सुनकर श्रोता के मन में श्रृंगार रस की भावना उत्तेजित होती है, मोहजनित उद्रेक होता है, कामाग्नि प्रज्वलित होती है, श्रमण ऐसी कथा न कहे। १८६. श्रमण को तप, नियम और वैराग्य से संयुक्त कथा कहनी चाहिए, जिसको सुनकर मनुष्य संवेग और निर्वेद को प्राप्त कर सके। १८७. महान् अर्धवाली कथा को भी इस प्रकार कहना चाहिए कि उसको सुनने वाले को परिक्लेश न हो क्योंकि अति विस्तार से कही जाने वाली कथा का भावार्थ नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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