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________________ २९५ आचारांग निर्युक्ति १००. वे अनगारवादी - अपने आपको अनगार कहने वाले पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं । इसलिए वे निर्गुण हैं, गृहस्थ तुल्य हैं । वे अपने आपको निर्दोष मानते हैं इसलिए मलिन - कलुषित हृदय वाले हैं । वे विरति संयम से घृणा करते हैं, इसलिए मलिनतर हैं । १०१. कुछ व्यक्ति स्वयं पृथ्वीकाय का वध करते हैं, कुछ दूसरों से उसका वध करवाते हैं और कुछ वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं । १०२. जो पृथ्वीकाय का समारंभ - व्यापादन करता वह अन्य व्यापादन करता है । जो अकारण या सकारण पृथ्वी के जीवों का व्यापादन अदृश्य जीवों का भी व्यापादन करता है । १०३. पृथ्वी की हिंसा करने वाला व्यक्ति उस पृथ्वी के आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर, पर्याप्त या अपर्याप्त अनेक जीवों का हनन करता है । १०४,१०५. यह जानकर जो मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के व्यापादन से मन, वचन और काया से, कृत-कारित तथा अनुमति से यावज्जीवन के लिए उपरत होते हैं, वे तीन गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से युक्त, संयत, यतना करने वाले तथा सुविहित होते हैं । वे वास्तविक अनगार होते हैं । १०६. जितने द्वार (प्रतिपादन के विषय) पृथ्वीकायिक के लिए कहे गये हैं, उतने ही द्वार अकायिक जीवों के लिए हैं । भेद केवल इन पांच विषयों में है - विधान (प्ररूपणा ), परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । १०७,१०८. अप्काय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म समूचे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । बादर अप्कायिक जीव पांच प्रकार के हैं१. शुद्धोदक, ' २. अवश्याय (ओस ), ३. हिम, ४. महिका, ५. हरतनु' । जीवनिकाय का भी करता है वह दृश्य या १०९ बादर अप्कायिक पर्याप्तक जीवों का परिमाण है- संवर्तित लोक प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि प्रमाण । शेष तीनों - बादर अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्तक तथा सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक- पृथक् पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश प्रदेश राशि परिमाण जितने हैं ।" ११०. जैसे तत्काल उत्पन्न ( सप्ताह पर्यन्त ) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही सारे अकायिक जीव भी सचेतन होते हैं । यही अप्कायिक जीवों की उपमा है । १. तालाब, समुद्र, नदी आदि का पानी । २. गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिका । (आटी पृ २७ ) ३. वर्षा तथा शरद ऋतु में हरिताकुंरों पर स्थित जलबिन्दु | ४. विशेष यह है बादर पृथ्वीकाय पर्याप्तक जीवों से बादर अप्काय पर्याप्तक जीव Jain Education International असंख्येय गुना अधिक हैं । बादर पृथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से बादर अप्कायिक अपर्याप्तक जीव असंख्येय गुना अधिक हैं । सूक्ष्म पृथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म अकायिक अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । सूक्ष्म पृथ्वीकाय पर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म अकाय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । आटी पृ २७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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