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________________ परिशिष्ट ६ ४७९ साध्वी मृगावती को उपालम्भ देते हुए कहा-'उत्तम कुल में पैदा होकर भी तुम ऐसा करती हो ? यह अच्छा नहीं है।' साध्वी मृगावती उनके घरों में गिरकर अत्यन्त विनम्रता से क्षमा मांगने लगी । वह बोली-'करुणार्द्र हृदये ! मेरा यह अपराध क्षमा कर दें। मैं ऐसा फिर कभी नहीं करूंगी।' उस समय आर्या चन्दना संस्तारक पर लेटी हुई थी। मृगावती पास में बैठी थी । परम संवेग को प्राप्त होने से उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। रात बीतती गई और अन्धकार बढ़ता गया। दोनों के मध्य से एक सर्प आ रहा था। उस समय प्रवर्तिनी चन्दना के प्रलम्बमान हाथ को मृगावती ने उठाया । चन्दना जाग गई और बोली'ऐसा क्यों?' मृगावती ने उत्तर दिया- कोई सर्प की जाति आ रही है।' चन्दना-तुमने कैसे जाना? क्या कोई अतिशय ज्ञान हआ है ? मृगावती-हां। चन्दना-ज्ञान प्रतिपाति है या अप्रतिपाति ? मृगावती--अप्रतिपाति । आर्या चन्दना ने मृगावती साध्वी से क्षमायाचना की।' ११. कृत्रिम चक्रवर्ती (कोणिक) राजा कोणिक ने भगवान से पूछा-भंते ! काम-भोगों का त्याग नहीं करने वाले चक्रवर्ती राजा कालमृत्यु को प्राप्त कर कहां उत्पन्न होते हैं ? भगवान ने कहा-चक्रवर्ती सातवीं नरक भूमि में उत्पन्न होते हैं । कोणिक-भगवन् ! मैं कहां उत्पन्न होऊंगा? भगवान्-छट्ठी नरक भूमि में। कोणिक-मैं सातवीं नारकी में क्यों नहीं जाऊंगा? भगवान-सातवीं नारकी में चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। कोणिक-मेरे पास भी चौरासी लाख हाथी हैं, मैं चक्रवर्ती कैसे नहीं हैं? भगवान्-तुम्हारे पास निधियां और रत्न नहीं हैं। यह सुनकर महाराज कोणिक कृत्रिम रत्न बनवाकर दिग्विजय के लिए निकले। जब वे तमिस्रा गुफा में प्रवेश करने लगे तो किरिमालक देव ने कहा--'बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं। तुम यह काम करोगे तो विनष्ट हो जाओगे।' रोकने पर भी वह नहीं रुका। किरिमालक देव ने उस पर प्रहार किया और वह मरकर छट्ठी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ । १२. आश्वासन (गौतम और महावीर) ___ जब गौतम स्वामी अपने द्वारा दीक्षित मुनियों को केवली पर्याय में देखकर अधीर हो गए तब भगवान् बोले--'गौतम ! तुम मेरे चिरसंसृष्ट हो, चिरपरिचित हो और चिरभावित हो। तुम अधीर मत बनो, अन्त में हम दोनों समान हो जाएंगे।' १. दशनि ७२, अच पृ. २५, हाटी प. ४९,५० । २. दशनि ७४, अच पृ. २६, हाटी प. ५०,५१। ३. दशनि ७४, अचू पृ. २६, हाटी प. ५१, विस्तार के लिए देखें उनि कथा सं० ५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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