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________________ ५८ नियुक्तिपंचक भी विषय की इतनी विस्तृत व्याख्या नहीं की है तथा गाथा २१९ में २२८ वी गाथा के विषय का ही पुनरावर्तन हुआ है। २०. मंगलाचरण की कुछ गाथाएं बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं। इसका प्रमाण है आचारांगनियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा। यह गाथा केवल टीका एवं हस्तप्रतियों में मिलती है। चूर्णिकार ने इस गाथा का न कोई संकेत दिया है और न ही व्याख्या प्रस्तुत की है। तीसरी गाथा के बारे में चूर्णिकार ने 'एसा बितियगाहा' का उल्लेख किया है। वैसे भी मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है अत: बहत संभव है कि यह गाथा बाद के आचार्यों या द्वितीय भद्रबाह द्वारा जोडी गयी हो। लेकिन वर्तमान में यह गाथा नियुक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है अत: हमने इसको नियुक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ा है। २१. आचारांगनियुक्ति की अनेक गाथाओं का चूर्णि में कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है क्योंकि वह संक्षिप्त शैली में लिखी गयी है अत: अनेक स्थानों पर ‘णवगाहा कंठ्या' अथवा 'निज्जुत्तिगाहाओ पढियसिद्धाओ' मात्र इतना ही उल्लेख है। इसलिए ऐसा अधिक संभव लगता है कि संक्षिप्तता के कारण चूर्णिकार ने अनेक सरल गाथाओं के न संकेत दिए और न व्याख्या ही की। पर हमने उनको नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। २२. उद्देशकाधिकार तथा अध्ययनगत विषय या शब्द की व्याख्या करने वाली गाथाओं के क्रम में कहीं-कहीं चूर्णि एवं टीका में कम-व्यत्यय है। आचारांग एवं सूत्रकृतांग नियुक्ति के अंतर्गत चूर्णि में पहले उद्देशकों की विषय-वस्तु निरूपण करने वाली गाथाएं हैं तथा बाद में अध्ययन से संबंधित गाथाएं हैं। टीका में इससे उल्टा कम मिलता है। औचित्य की दृष्टि से हमने चूर्णि का क्रम स्वीकृत किया है, देखें सूनि गा. २९-३२ तथा ३६-४१ । ऐसा अधिक संभव लगता है कि टीकाकार ने व्याख्या की सुविधा के लिए क्रम-व्यत्यय कर दिया हो। आचारांगनियुक्ति में एक स्थल पर टीका का क्रम स्वीकार किया है लेकिन वहां भी चूर्णि का क्रम सम्यग् लगता है, देखें आनि गा. ३२९-३५ । गाथाओं के क्रम-व्यत्यय वाले स्थल में विषय की संबद्धता के आधार पर भी गाथा के क्रम का निर्धारण किया है, जैसे—आनि २९७ का संकेत चूर्णि में गा. ३०३ के बाद है पर औचित्य की दृष्टि से टीका और हस्तप्रतियों का क्रम ठीक प्रतीत हुआ अत: हमने उसी क्रम को स्वीकृत किया है। २३. आचारांगनिर्यक्ति की गा. १९७ को हमने नियुक्ति के मल क्रमांक में जोडा है पर वस्तत: यह बाद में उपसंहार रूप में किसी आचार्य द्वारा प्रक्षिप्त की गयी है। इसका कारण यह है कि १९७ वीं गाथा में द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन है जबकि उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन तो आनि गा. १७३ में पहले ही किया जा चुका है अत: यह पुनरुक्त सी प्रतीत होती है। टीकाकार ने इस गाथा के लिए नियुक्तिकारो गाथयाचष्टे' का उल्लेख किया है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। आचारांगनियुक्ति में २२८ से २३५ तक की गाथाएं भी बाद में जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं क्योंकि गा. २२७ के अंतिम चरण में स्पष्ट उल्लेख है कि 'सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती' अर्थात् यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। ऐसा उल्लेख करने के पश्चात् कथापरक इन सात गाथाओं का उल्लेख अप्रासंगिक सा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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