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नियुक्तिपंचक गोविंद' नामक बौद्ध भिक्षु था। एक जैन आचाय द्वारा वाद-विवाद में वह अठारह बार पराजित हुआ। पराजय से दुःखी होकर उसने चिन्तन किया कि जब तक मैं इनके सिद्धांत को नहीं जानूंगा, तब तक इन्हें नहीं जीत सकता। इसलिए हराने की इच्छा से ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसी आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया। सामायिक आदि का अध्ययन करते हुए उसे सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उसे व्रत-दीक्षा दी। दीक्षित होने पर गोविंद भिक्षु ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बता दिया। उनके दीक्षित होने का उद्देश्य सम्यक् नहीं था अत: उन्हें ज्ञान-स्तेन कहा गया।
बृहत्कल्पभाष्य में उनका उल्लेख ज्ञान-स्तेन के रूप में नहीं है। वे हेतुशास्त्र युक्त गोविंदनियुक्ति लिखने तथा सम्यग्-दर्शन की प्राप्ति के लिए दीक्षित हुए—ऐसा भाष्यकार तथा टीकाकार मलयगिरि का मंतव्य है। निशीथभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में भी अन्यत्र ऐसा ही उल्लेख मिलता है। व्यवहारभाष्य में मिथ्यात्वी के रूप में उनका उल्लेख मिलता है। वहां चार प्रकार के मिथ्यात्वियों के उदाहरण हैं, उनमें गोविंद आचार्य पूर्व गृहीत आग्रह के कारण मिथ्यात्वी थे।
नंदी सूत्र की स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कन्दिल की चौथी पीढ़ी में हुए। नंदी सूत्र में इन्हें विपुल अनुयोगधारक, क्षांति, दया से युक्त तथा उत्कृष्ट प्ररूपक के रूप में प्रस्तुत किया है
गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं ।
निच्चं खंतिदयाणं, परूवणा दुल्लभिंदाणं।। गोविंदनियुक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व-सिद्धि का प्रयत्न किया है। यह नियुक्ति दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया के आधार पर लिखी गयी अथवा आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा पर, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिकनियुक्ति में मात्र इतना उल्लेख है-गोविंदवायगो वि य जह परपक्खं नियत्तेइ।
आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा के आधार पर लिखी गयी प्रतीत होती है। इसके कुछ हेतु इस प्रकार हैं
१. अप्काय में जीवत्व-सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि में उल्लेख है—'जं च निज्जुत्तीए आउक्कायजीवलक्षणं जं च अज्जगोविंदेहिं भणियं गाहा'—इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचारांग के आधार पर उन्होंने नियुक्ति लिखी होगी।
२. आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने इन स्थावरकायों की अस्तित्व-सिद्धि के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है,जबकि दशवैकालिक में केवल इनकी अहिंसा का विवेक है। आचारांगनियुक्ति में भी
१. आचार्य हरिभद्र ने गोविंद के स्थान पर गोपेन्द्रवाचक का प्रयोग किया है (दशहाटी प. ५३)। २. निचू ३ पृ. ३७; भावतेणो सिद्धंतावहरणट्ठताए केणति पउत्तो आगतो, अप्पणा वा गोविंदवाचकवत् । ३. बृभा ५४७३ टी. प. १४५२: विद्या-मंत्रनिमित्तार्थ हेतुशास्त्राणां च गोविंदप्रभृतीनामर्थाय । ४. (क) निभा ५५७३; निचू पृ. ९६: हेतुसत्थगोविंदनिज्जुत्तादियट्ठा उवसंपज्जति।
(ख) पंकभा ४२०, गोविंदज्जो णाणे, दंसणसत्थट्ठहेतुगट्ठा वा। ५ व्यभा २७१४; पुवागहितेण होति गोविंदो। ६ निचू ३ पृ. २६०; पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया । ७ आचू " २० ।
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