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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९३ भी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् के लोगों ने भावभीना स्वागत किया और पूजा-अर्चना की। उसका घर मित्रों, स्वजनों और उपहारों से भर गया। उसने इधर-उधर देखा। मां को वहां न देखकर वह सीधा घर के भीतर गया। मां ने उसे देखकर कहा–'पुत्र! स्वागत है।' इतना कहकर वह मौन बैठ गई। आर्यरक्षित ने पछा-'मां! क्या तम मेरे अध्ययन से संतष्ट नहीं हो? मैंने चौदह विद्यास्थान को अधिगत कर लिया है। नगर मेरे अध्ययन से विस्मयाभिभूत है।' मां बोली-'पुत्र! मेरी तुष्टि कैसे हो? तुम अनेक जीवों की वधकारक विद्या सीखकर आये हो। इससे संसार का भ्रमण बढ़ता लिए मुझे संतोष कैसे हो? क्या तुमने दृष्टिवाद का अध्ययन कर लिया?' मां के वचन सुनकर आर्यरक्षित ने सोचा-'वह दृष्टिवाद कितना बड़ा होगा? कितना ही बड़ा क्यों न हो, मैं उसे अवश्य ढंगा, जिससे मां को संतोष हो सके। मुझे लोगों को संतुष्ट करने से क्या?' उसने मां से पूछा-'मां! यह दृष्टिवाद क्या है?' मां बोली-वह साधुओं का दृष्टिवाद है। यह सुनकर आर्यरक्षित उसके नक्षरार्थ का चिंतन करने लगा। उसने सोचा-'दृष्टियों का वाद है दृष्टिवाद । नाम सुन्दर है। यदि कोई मुझे इसका अध्ययन करायेगा तो मैं अवश्य अध्ययन करूंगा। माता भी संतुष्ट हो जाएगी।' उसने मां से पूछा-'मां ! कहां है दृष्टिवाद के ज्ञाता? मां बोली-'वत्स ! अपने इक्षुगृह में आचार्य तोसलिपुत्र आए हुए है। वे दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं।' आर्यरक्षित ने कहा-'मां! तुम उदासीन मत बनो। मैं कल ही दृष्टिवाद पढ़ने के लिए आचार्य के पास चला जाऊंगा।' वह सारी रात दृष्टिवाद शब्द के अर्थ का चिन्तन करता हुआ जागता रहा। दूसरे दिन वह ऊषाकाल में ही घर से प्रस्थित हो गया। उसका एक प्रिय मित्र ब्राह्मण उपनगर में रहता था। जब उसने आर्यरक्षित के विद्याध्ययन कर घर लौटने की बात सुनी तो वह उसका साक्षात् करने घर से निकल पड़ा। उसने सोचा-'कल मैं उसकी अभिवादन-सभा में नहीं पहुंच सका अतः आज मैं उसका साक्षात् करूं।' यह सोचकर अपने मित्र को उपहार देने के लिए नौ पूरे और एक आधा इक्षुदंड लेकर वह घर से निकला। दोनों आमने-सामने मिले। ब्राह्मण ने पूछा-'तुम कौन हो?' उसने कहा-'मैं आर्यरक्षित हूं।' तब ब्राह्मण ने अत्यन्त हर्ष से उसे गले लगाया और कहा–'स्वागत है, स्वागत है। मैं तुम्हें देखने के लिए ही आ रहा था।' आर्यरक्षित बोला-'आओ! मैं अभी शरीर-चिंता से निवत्त होकर आ रहा हं। तम ये इक्षदंड माता को सर्मा कर देना और माता से यह कहना कि मैंने आर्यरक्षित को देखा है और मैं ही पहला व्यक्ति हूं आज उसे देखने वाला। वह ब्राह्मण अपने इक्षुदंडों के साथ आर्यरक्षित के घर गया। माता को इक्षुदंड समर्पित किए और सारा वृत्तांत बता दिया। मां बहुत प्रसन्न हुई। उसने सोचा-'मेरे पुत्र ने सुन्दर मंगलमय वस्तु देखी है। वह नौ पूर्व और उसका खंड ग्रहण कर सकेगा। आर्यरक्षित ने सोचा-'मैं दृष्टिवाद के नौ अध्ययन तथा दसवें का अंश ग्रहण कर सकूँगा। दसवां पूर्व पूरा ग्रहण नहीं कर पाऊंगा। वह वहां से इक्षुगृह के पास गया और सोचने लगा-'मैं यहां से अपरिचित हूं। क्या मैं अकेला ही चला जाऊं? यदि आचार्य का कोई श्रावक मिल जाए तो उसके साथ जाना अच्छा रहेगा-' यह सोच वह एक ओर ठहर गया। वहां ढड्ढर नाम का एक श्रावक शरीरचिंता से मुक्त होकर उपाश्रय में जा रहा था। उसने दूरस्थित होकर तीन नैषेधिकी की। इसी प्रकार बाढ़स्वरों से 'ईरिया' आदि की। आर्यरक्षित मेधावी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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