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________________ २८ नियुक्तिपंचक और संग्रहणी कहा है। परिशिष्ट की भांति प्राचीनकाल में ग्रंथ के साथ चूलिका जोड़ दी जाती थी, जो सूत्र के अर्थ की संग्रहणी के रूप में होती थी। संग्रहणी का अर्थ है शास्त्र में वर्णित और अवर्णित अर्थ का संक्षिप्त संग्रह । आचार्य शीलांक के अनुसार चूलिका का अर्थ अग्र है। अग्र का अर्थ उत्तरभाग है। अध्ययनों तथा चूलिकाओं के नाम तथा उन पर कितनी-कितनी नियुक्ति-गाथाएं लिखी गईं, इसका उल्लेख इस प्रकार हैअध्ययन नियुक्तिगाथाएं अध्ययन नियुक्तिगाथाएं १. द्रुमपुष्पिका १-१२६ ७. वाक्यशुद्धि २४५-६८ २. श्रामण्यपूर्वक १२७-५२ ८. आचार-प्रणिधि २६९-८५ ३. क्षुल्लिकाचारकथा १५३-८८ ९. विनय-समाधि २८६-३०४ ४. षड्जीवनिका १८९-२१७ १०. सभिक्षु ३०५-३३ ५. पिंडैषणा २१७/१-२२१/ १ १. रतिवाक्या (प्रचू.) ३३४-४४ ६. महाचारकथा २२२-४४ २. विविक्तचर्या (द्विचू.) ३४५-४९ नियुक्तिकार ने अध्ययनों के नामों का उल्लेख नहीं किया लेकिन अध्ययन-गत विषयवस्तु का वर्णन किया है। उनके अनुसार दशवकालिक के प्रथम अध्ययन में जिन-शासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा, दूसरे में संयम में धृति, तीसरे में आत्म-संयम में हेतुभूत लघु आचार कथा, चौथे में जीव-संयम, पांचवें में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि, छठे अध्ययन में संयमी व्यक्तियों द्वारा आचरणीय महती आचार-कथा, सातवें अध्ययन में वचन-विभक्ति (भाषा-विवेक), आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि, नौवें अध्ययन में विनय तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्षु का स्वरूप प्रतिपादित है। प्रथम चूलिका में संयम में विषाद प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय तथा दूसरी चूलिका में अत्यधिक प्रसाद गुणचर्या—अप्रतिबद्ध चर्या तथा संयम में रत रहने से होने वाली गुणवृद्धि का वर्णन दशवैकालिकनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति में ३४९ गाथाएं हैं। इसमें नियुक्तिकार ने प्रथम अध्ययन की विस्तृत व्याख्या की है। पूरे नियुक्ति साहित्य का विहंगावलोकन करने पर ज्ञात होता है कि केवल दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा के प्रत्येक शब्द की नियुक्तिकार ने विस्तृत व्याख्या की है। अन्यथा नियुक्तिकार सूत्रगत किसी विशेष शब्द की ही व्याख्या करते हैं। प्रथम अध्ययन की पांच गाथाओं पर १२६ गाथाएं लिखी हैं, जिसमें मुख्य रूप से धर्म, मंगल, तप, हेतु, उदाहरण आदि का वर्णन किया गया है। यद्यपि उदाहरण और हेतु के भेद-प्रभेदों का विस्तार मूल पाठ से सीधा संबंधित नहीं है पर न्याय-दर्शन के क्षेत्र में यह वर्णन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। हेत. आहरण आदि के भेद-प्रभेदों को निर्यक्तिकार ने कथाओं के माध्यम से स्पष्ट किया है। ये कथाएं सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण १. दशनि ३३४। २. दशहाटी प. २६९ । ३. तत्त्वार्थश्रुतसागरीय वृत्ति (प. ६७) में प्रथम अध्ययन का नाम वृक्ष-कुसुम मिलता है। ४. नियुक्ति में इसका दूसरा नाम 'धम्मपण्णत्ति' भी मिलता है। (दशनि २१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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