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________________ दशवकालिक नियुक्ति २१४. द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं-किंचित् स्वकायशस्त्र, किंचित् परकायशस्त्र और किंचित् उभयकायशस्त्र । असंयम भावशस्त्र है। २१५. योनीभूत बीज में जो जीव उत्पन्न होता है, वह पूर्व बीज का जीव भी हो सकता है और अन्य जीव भी । जो मूल जीव होता है वही प्रथम पत्र रूप में परिणत होता है। २१६. शेष सूत्रानुसार प्रत्येक काय का यथाक्रम अध्ययनार्थ कहना चाहिए । वे अध्ययनार्थ पांच हैं (देखें-गाथा १८९)। इनको प्रकरण, पद और व्यंजन से विशुद्ध करके कहना चाहिए। २१७. जीवाजीवाभिगम, आचार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म-ये शब्द एकार्थक पांचवां अध्ययन :पिण्डेषणा २१७११. पिंडैषणा शब्द में दो पद हैं-पिड और एषणा। इन दोनों पदों की चार-चार निक्षेपों से प्ररूपणा करनी चाहिए । २१८. पिंड शब्द के चार निक्षेप हैं-नामपिंड, स्थापनापिंड, द्रव्यपिड तथा भावपिंड । गुड, ओदन आदि द्रव्यपिंड है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ यह भावपिंड है। २१८।१ पिडि धातु संघात अर्थ में है। क्रोध आदि उदय में आकर विपाकोदय और प्रदेशोदय से संहत-योजित होकर ही आठ प्रकार के कर्मों से जीवों को प्रवृत्त करते हैं। अतः क्रोध आदि कषायपिंड हैं। २१८।२. द्रव्यषणा के तीन प्रकार हैं-"सचित्तद्रव्यषणा, अचित्तद्रव्यषणा तथा मिश्रद्रव्यषणा। सचित्तद्रव्यषणा के तीन प्रकार हैं-(१) द्विपद-मनुष्य आदि । (२) चतुष्पद हाथी आदि । (३) अपद-द्रम आदि । अचित्तद्रव्यषणा-कार्षापण आदि । मिश्रद्रव्यषणा-- अलंकृत द्विपद आदि । २१८।३. भावैषणा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । ज्ञान आदि की एषणा प्रशस्त भावैषणा है तथा क्रोध आदि की एषणा अप्रशस्त भावैषणा है। २१८१४. ज्ञान आदि की उपकारी होने के कारण यहां द्रव्यषणा का प्रसंग है। उसकी अर्थयोजना में पिंड निर्यक्ति यहां वक्तव्य है। २१९. सभी प्रकार की पिंडैषणा संक्षेप में नवकोटि में समवतरित होती है। जैसे-न हिंसा करना, न पकाना, न खरीदना । कराने और अनुमोदन के भंगों से इसके नौ विकल्प होते हैं।' २१९।१. उस नवकोटि के दो भेद हैं- उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । प्रथम छह कोटि में उदगमकोटि का समवतार होता है और शेष क्रीतत्रिक में इस विशोधिकोटि का समावेश होता है। २२०. कोटिकरण के दो प्रकार हैं ---उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । उद्गमकोटि के छह भेद हैं और शेष विशोधिकोटि के अन्तर्गत हैं। १. हिंसा न करना, न कराना और न अनुमोदन अनुमोदन करना । न खरीदना, न खरीदवाना करना। न पकाना, न पकवाना और न और न अनुमोदन करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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