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________________ दशवकालिक नियुक्ति ६१ १०६. यह दृष्टांत-शुद्धि है। उपसंहार सूत्र में ही निर्दिष्ट है । संति का अर्थ है-हैं। वे मुनि शांति और सिद्धि को साध लेते हैं । १०७. जो द्रव्य-विहंगम की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म-को धारण करता है, वह द्रव्य विहंगम है। भाव विहंगम के दो प्रकार हैं---गुणसिद्धि विहंगम और संज्ञासिद्धि विहंगम । १०८-११०. विह का अर्थ है---आकाश । लोक आकाश-प्रतिष्ठित है । जिस कारण से विह को आकाश कहा गया है उसी कारण से गुण सिद्धि अर्थात् अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन हुआ है। अथवा गति के दो प्रकार हैं - भावगति और कर्मगति । धर्मास्ति काय आदि चार अस्तिकायों की गति है-भावगति । चारों अस्तिकाय विहंगम हैं-सभी आकाश में अपने अस्तित्व को धारण किए रहते हैं। कर्मगति के दो भेद हैं-विहायोगति और चलनगति । कर्मगति के ही ये दो भेद हैं. भावगति के नहीं। विहायोगतिकर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव विहायोगति के कारण विहंगम कहलाते हैं। १११. चलनकर्मगति की अपेक्षा से संसारी जीव तथा पुद्गल द्रव्य विहंगम हैं । प्रस्तत में गण सिद्धि अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन है । ११२. संज्ञासिद्धि की अपेक्षा से सभी पक्षी विहंगम हैं। प्रस्तुत सूत्र में यहां आकाश में गमन करने वाले भ्रमरों का प्रसंग है । ११३. प्रस्तत श्लोक में 'दान' शब्द 'दत्तग्रहण'—दिए हुए का ग्रहण करने के अर्थ में तथा 'भज सेवायां' धातु से निष्पन्न 'भक्त' शब्द प्रासुक भोजन-ग्रहण का वाचक है। मुनि तीन प्रकार की एषणाओं--गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगैषणा में निरत रहते हैं। उपसंहार-शुद्धि का कथन इस प्रकार है ११४. भ्रमर तथा मधुकरीगण तो अदत्त ---बिना दिया हुआ मकरंद पीते हैं किंत ज्ञानी श्रमण अदत्त भोजन ग्रहण करने की इच्छा भी नहीं करते । ११५. यदि संयमी मुनि असंयत भ्रमरों के समान होते हैं तो इस उपमा से यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमण असंयत ही होते हैं । ११६. मुनि को भ्रमर की उपमा पूर्वोक्त देशलक्षण उपनय से दी गई है । इस उपमा का निर्देश केवल अनियतवत्ति बताने के लिए है । यह अहिंसा के पालन का संकेत भी देती है। ११७. जैसे वक्ष स्वभावतः फलते-फूलते हैं, वैसे ही गृहस्थ भी स्वभावतः पकाते और पकवाते हैं। जैसे भ्रमर हैं वैसे ही मुनि हैं। दोनों में अंतर इतना ही है कि मुनि अदत्त आहार का उपभोग नहीं करते, भ्रमर करते है । ११८. जैसे भ्रमर सहज विकसित फलों का रस लेते हैं वैसे ही सुविहित श्रमण भी सहज निष्पन्न आहार की गवेषणा करते हैं । ११९. जैसे भ्रमर अवधजीवी हैं, वैसे ही श्रमण भी अवधजीवी हैं। यह उपसंहार है। 'दांत' शब्द का पुनः प्रयोग केवल वाक्यशेष ही जानना चाहिए । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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