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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं बताते हुए कहा- 'तुम्हारा पुत्र विशिष्ट और महान् बनेगा।' समय आने पर पुत्र का जन्म हुआ। रूप से वह अत्यन्त कुरूप था । उसका वर्ण कृष्ण था । बलकोट्ट के यहां जन्म लेने के कारण उसका नाम बल रखा गया। यही बालक हरिकेशबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । बालक बल बहुत कलहप्रिय और असहिष्णु था। वह विषवृक्ष की भांति सबके लिए उद्वेगकारी था । एक बार बसन्तोत्सव का समय था। सभी लोग उत्सव में मग्न थे । लोग भोज में आहार करके सुरापान कर रहे थे । बालकों ने बल को अप्रियकारी और क्रोधी मानकर उसको अपने खेल में सम्मिलित नहीं किया। दूसरे बालक खेलने लगे। वह केवल द्रष्टा ही बना रहा। इतने में वहां एक भयंकर सर्प निकला। सहसा सब खड़े हो गए और उसे पत्थर से मार डाला। कुछ ही क्षणों बाद वहां एक निर्विष सर्प भेरुंड निकला। लोग एक बार भयभीत हो गए पर उसे निर्विष समझकर छोड़ दिया। बालक बल यह दृश्य देख रहा था । उसने सोचा- ' प्राणी अपने दोषों से ही दुःख पाता है।' सर्प सविष था अतः वह अपने दोष से मारा गया । भेरुंड निर्विष था अतः लोगों ने उसे छोड़ दिया । यदि मैं भी भेरुंड की भांति निर्विष होता हूं तो कोई दूसरा मुझे क्यों सताएगा ? हा भी है भद्दएणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ । सविसो हम्मती सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चति ॥ ५७९ उसने सोचा- ' अपने गुण और दोष के आधार पर ही सम्पत्ति और विपत्ति मिलती है। इसलिए दोषों को छोड़कर गुणों को स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । जातिमद के विपाक का चित्र उसके सामने आया । निर्वेद को प्राप्त होकर उसने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। उसका नाम हरिकेशबल हो गया। दीक्षित होकर मुनि हरिकेशबल बेला-तेला यावत् चार मास का घोर तप करने लगे । एक बार वे पार्श्वनाथ की जन्मस्थली वाराणसी के तेंदुक उद्यान में ठहरे। वहां गंडीतिंदुक यक्ष का मंदिर था। वह यक्ष हरिकेश मुनि के गुणों से आकृष्ट होकर उनकी उपासना में रहने लगा। एक बार एक दूसरा यक्ष वहां आया। वह गंडीतिंदुक यक्ष से बोला- 'आजकल दिखाई क्यों नहीं देते ?' उसने कहा—'ये महात्मा मेरे उद्यान में ठहरे हैं। सारा दिन इनकी ही उपासना में बीतता है।' वह आगंतुक यक्ष मुनि के चरित्र से प्रतिबुद्ध हुआ और बोला- 'मित्र ! ऐसे उपशांत मुनि का सान्निध्य पाकर तुम कृतार्थ हो । मेरे उद्यान में भी कतिपय मुनि ठहरे हैं। चलो, उन्हें वंदना कर आएं?' दोनों यक्ष वहां गए। उन्होंने देखा अनेक साधु विकथाएं कर रहे हैं । कुछ स्त्रीकथा में और कुछ जनपद - कथा में आसक्त हैं। उनका मन खिन्न हो गया। Jain Education International एक बार वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने दासियों के साथ उद्यान आई । यक्ष की पूजा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर टिकी । मुनि के मैले कपड़े और कुरूप शरीर को देखकर उसके मन में घृणा हो गयी। आवेश में आकर उसने मुनि पर थूक दिया । यक्ष ने सोचा- 'यह पापिष्णु है, जो इसने महान् तपस्वी मुनि की अवहेलना की है अत: इसका फल इसे मिलना चाहिए ।' यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया । राजकुमारी अनर्गल प्रलाप करने लगी। दासियां उसे राजमहल में ले गईं। अनेकविध उपचार किए गए पर सब For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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