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________________ ५१० नियुक्तिपंचक ने कहा है कि जन्म-जरा और मरण से युक्त इस क्षणभंगुर संसार में कोई वस्तु स्थिर नहीं है। विशेषतः हमारा जीवन तो स्थिर है ही नहीं अत: आप मुझे भगवान् के पास श्रामण्य स्वीकार करने की अनुज्ञा दें। बलदेव ने उसके निश्चय को जानकर कहा-'ठीक है, तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो लेकिन विपत्ति में किसी भी प्रकार से तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' सिद्धार्थ ने स्वीकृति दे दी। वह अपने स्वजनों से पूछकर भगवान् के पास दीक्षित हो गया। घोर तपश्चर्या कर वह छह मास में ही दिवंगत हो गया। इधर कादम्बवन की गुफा के शिलाकुंडों में उंडेली हुई वह सुरा छह मास में पक्चरस वाली हो गयी। वह स्वच्छ, स्वादु रस वाली, श्रेष्ठ, हृदय को सुख देने वाली और कर्केतन रत्न की आभा वाली हो गयी। शाम्बकुमार के पास रहने वाला मदिरालुब्ध पुरुष कादम्ब-वन की गुफा के पास गया। उसने वहां वह सुरा देखी। प्रसन्न होकर वह उसे पीने लगा। स्वादिष्ट होने के कारण वह अंजलि से चूंट पीने लगा। मद्यपायी व्यक्तियों ने उसे देखा। वे भी शीतल, स्वच्छ और स्वादु मदिरा को पीकर निर्भय होकर क्रीड़ा करने लगे। वह व्यक्ति शाम्बकुमार के पास गया और मदिरा वाली बात बताई। शाम्बकुमार वहां आया। उसने वारुणी मदिरा देखी। मदिरा पीने के बाद शाम्बकुमार ने चिंतन किया-'कुमारों के बिना मैं अकेला मदिरा-सुख का अनुभव नहीं कर सकता अत: कल मैं अपने साथ कुमारों को लेकर आऊंगा।' शाम्ब दुर्दान्त कुमारों को कादम्बरी गुफा के पास लेकर आया। उन्होंने श्रेष्ठ सरा को देखा। उसने कर्मकरों को आज्ञा दी कि इस वारुणी शराब को लेकर आओ। आज्ञा प्राप्त कर वे शराब लेकर आ गए। वे विविध वृक्ष,कुसुम आदि से युक्त रमणीय उद्यान में आए। शाम्ब ने कहा-'किसी भी प्रकार से छह मास से हमने यह सुरा प्राप्त की है अत: इच्छा के अनुसार सब पीओ।' सब मदिरा पीने लगे। वे उन्मुक्त होकर गाने, नाचने और परस्पर आलिंगन करने लगे। क्रीड़ा करते हुए वे पहाड़ के पास गये। वहां उन्होंने तप करते हुए द्वीपायन ऋषि को देखा। वे परस्पर बोलने लगे-'यह वही दुरात्मा है जिसको भगवान् अरिष्टनेमि ने द्वारिका का विनाशक कहा है। इस पापी और निष्कारण वैरी को हम क्यों न मार डालें?' तब वे रोषपूर्वक पैरों से, मुष्टि से तथा चपेटा के घात से निरपराध द्वीपायन ऋषि को मारने लगे। वह मरणासन्न जैसा धरती पर गिर गया। उसको पीटकर वे लोग द्वारिका आ गए। वासुदेव के निजी विश्वस्त पुरुषों ने सारी बात कृष्ण को बताई। कृष्ण ने सोचा-'ये कुमार बहुत दुर्दान्त हैं। अहो ! यौवन की अदीर्घदर्शिता! अब हम इन जीवन मात्र को धारण करने वाले कमारों का क्या करें?' श्रीकष्ण बलदेव सहित द्वीपायन ऋषि का अननय करने गए। उन्होंने कोप से कांपते हुए अधरों वाले द्वीपायन ऋषि को देखा। समयोचित सम्मान देकर वे बोले -'भो महातापस ऋषि ! क्रोध सब गुणों का विनाश करने वाला है। महासत्व और दान्त मुनि क्रोध के वशवर्ती नहीं होते। अज्ञानवश मद्य से प्रमत्त मूढ़ व्यक्तियों के अपराध पर महातपस्वी लोग ध्यान नहीं देते। इसलिए कुमारों ने जो दुश्चेष्टाएं की हैं उसके लिए हमें क्षमा कर दें।' इतना कहने पर भी द्वीपायन ऋषि ने जब रोष नहीं छोड़ा तो बलदेव ने कहा, भो नराधिप! अब प्रयत्न करना व्यर्थ है। जो इसने सोचा है वह उसे करने दो। क्या जिनेन्द्र की कही हुई बात अन्यथा हो सकती है? तब द्वीपायन ने कहा-'मारे जाते हुए मैंने एक बड़ी प्रतिज्ञा की थी कि बलदेव और कृष्ण-इन दो को छोड़कर द्वारिका का कुत्ता भी विनाश से नहीं बच सकता। अतः न ही जिनेश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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