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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५११ भगवान् का वचन व्यर्थ हो सकता और न ही मेरी प्रतिज्ञा अन्यथा हो सकती है अत: आप जाएं, अधिक विचार करने से क्या?' तब महाशोक से संतप्त मन से बलदेव और वासदेव नगरी में लौट आए। द्वीपायन के प्रतिज्ञा की बात पूरी नगरी में फैल गयी। दूसरे दिन पूरे नगर में बलदेव ने घोषणा करवाई कि सभी लोग उपवास आदि तपस्या में निरत हो जाएं धर्मध्यान में लीन हो जाएं। नगरी का वही परिणाम होने वाला है जो भगवान ने कहा है। इसी बीच भगवान् अरिष्टनेमि विहार करते हुए पुनः रेवतक पर्वत पर समवसृत हुए। यादव लोग भगवान् को वंदना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। धर्मकथा के अंत में संसार की अनित्यता से संवेग को प्राप्त प्रद्युम्न, निषध, शुक, सारण, शांब आदि कुमार भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। रुक्मिणी भी पूर्व कर्मों के भय से उद्विग्न होकर वासुदेव को कहने लगी-'भो राजन् ! संसार की ऐसी परिणति है और विशेषतः यादव कुल की अतः आप मुझे आज्ञा दें मैं दीक्षित होना चाहती हूँ।' तब कृष्ण ने वाष्पार्द्र आंखों से, बड़े दु:खी हृदय से रुक्मिणी को दीक्षा की आज्ञा दी। रुक्मिणी अन्य श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ प्रव्रजित हो गयी। यादव लोग अरिष्टनेमि को वंदना कर शोकविह्वल होकर द्वारिका नगरी वापिस चले गए। वासुदेव भी रुक्मिणी के विरह में स्वयं को श्रीविहीन समझने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि भी भव्य-जनों को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र चले गए। ___ वासुदेव कृष्ण ने दूसरी बार पूरी नगरी में घोषणा करवाई-'नागरिको! द्वीपायन ऋषि का महान् भय उत्पन्न हो गया है अतः विशेष रूप से धर्म में रत रहो। हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को सभी यथाशक्य छोड़ें। आयम्बिल, उपवास, बेला, तेला आदि तप सभी यथाशक्य करें। नागरिक भी वासुदेव की बात स्वीकृत कर धर्म में संलग्न हो गए। द्वीपायन ऋषि भी अति दुष्कर बाल तप करके द्वारिका के विनाश का निदान कर भवनपति देवों में अग्निकुमार देव बना। उसने यादवों के कृत्य को याद किया। वह द्वारिका के विनाश हेतु आया पर विनाश करने में समर्थ नहीं हो सका क्योंकि सभी यादव तपस्या में निरत थे। वे देवता की अर्चना एवं मंत्रजाप में तत्पर थे अत: उनका कोई पराभव नहीं कर सका। द्वीपायन ऋषि छिद्रान्वेषण करने लगा। बारह वर्ष बीत गए। द्वारिका के लोगों ने सोचा कि द्वीपायन ऋषि अब निष्प्रभ और प्रतिहत तेज वाला हो गया है अतः वे पुनः आमोद-प्रमोद और क्रीडा करने लगे। वे कादम्बरी के पान से मत्त होकर रति-क्रीड़ा में मस्त हो गए। तब अग्निकुमार देवयोनि में उत्पन्न द्वीपायन ऋषि ने द्वारिका का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया। उसने अनेक प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ कर दिए। द्वीपायन ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। प्रलयकाल के समान चलने वाली हवा से काष्ठ, तृण और पत्तों के समूह आवाज करते हुए नगर के अन्दर इकट्ठे होने लगे। ऋषि ने भीषण अग्नि प्रज्वलित कर दी। वह अधम देव बार-बार उद्यान से तरु, काष्ठ, लता और तृण आदि फेंकने लगा। धूएं और अग्नि के कारण एक घर से दूसरे घर में जाना भी संभव नहीं हो सका। पूरी द्वारिका नगरी चारों ओर से जलने लगी। अनेक मणि, रत्न और सोने से बने प्रासाद तड़-तड़ टूटकर पृथ्वी पर गिरने लगे। भेड़, हाथी, बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट आदि पशु अग्नि से जलते हुए भीषण दारुण शब्द करने लगे। यादव लोग अपनी प्रियतमाओं के साथ जलने लगे। उनकी अंगनाएं हाहाकार और रुदन का दारुण शब्द करने लगीं। बलदेव और वासुदेव जलती हुई द्वारिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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