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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं करने में असमर्थ थे। उन्होंने सिंह नामक शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बना सुभिक्ष में विहार करने का आदेश दे दिया। वे उसी नगर के नौ भाग करके वहां भी मासकल्प से विहार करते थे । इस प्रकार वहां विहार करते हुए आचार्य को बारह वर्ष बीत गए। उनकी साधना से प्रभावित होकर नगरदेवी उनकी सेवा में ही रहती थी । उत्तराधिकारी सिंह मुनि ने दत्त नामक शिष्य को सुखसाता पूछने के लिए भेजा । वह शिष्य आचार्य के पास आया। दत्त मुनि ने सोचा कि आचार्य यहां नित्यवास करते हैं अतः इनके साथ रहने में दोष होगा यह सोचकर वह उपाश्रय के बाहर ठहरा और बिना भक्ति- बहुमान के वंदना की । भिक्षा के समय वह आचार्य के साथ गया । दुष्काल के कारण अज्ञात उंछ से यथेप्सित आहार प्राप्त नहीं हुआ। वह मन ही मन विक्षुब्ध हो गया। उसने सोचा- ' आचार्य मुझे सामान्य घरों में ले जा रहे हैं इसलिए आहार नहीं मिल रहा है।' गुरु ने ज्ञान से शिष्य के मन की बात जान ली। शिष्य को संक्लेश से बचाने हेतु दोनों एक श्रेष्ठि के यहां गए। वहां व्यंतर देवी के प्रभाव से उनका बच्चा छह महीने से निरंतर रो रहा था । उसे देखकर आचार्य ने चुटकी बजाकर कहा - 'तुम मत रोओ।' इतना कहने मात्र से बालक व्यंतर के प्रभाव से मुक्त हो गया। पारिवारिक लोगों ने प्रसन्न मन से यथेप्सित आहार दिया। वह आहार गुरु ने शिष्य को दे दिया। वे स्वयं बहुत समय तक घूमकर अंत-प्रांत भोजन लेकर आए। शिष्य ने सोचा कि गुरु ने मुझे तो केवल एक ही घर बताया है अन्य घरों में तो वे स्वयं गए हैं। संध्या के समय में प्रतिक्रमण के समय गुरु ने दत्त से कहा- 'वत्स! आज आहार की आलोचना करो।' दत्त ने कहा- ' 'मुझे कोई बात याद नहीं जिसकी आलोचना करूं।' गुरु ने कहा- 'शिष्य ! आज तुमने धात्रीपिंड आहार ग्रहण किया है।' शिष्य कुपित हो गया और उसने दोष की आलोचना नहीं की। उसने गुरु से कहा कि आप सूक्ष्मता से अपने दोषों की आलोचना करें। यह कहकर क्रोधावेश में वह अपने स्थान पर चला गया। यह गुरु की अवहेलना करता है इसलिए उसको सम्यक् प्रतिबोध देने के लिए देवता ने अर्धरात्रि में अंधकार और भयंकर जल-वर्षा प्रारम्भ कर दी । ५०५ शिष्य ठंडी वायु से क्षुब्ध हो गया। उसने आचार्य को आवाज दी। आचार्य ने वत्सलता से कहा- 'शिष्य ! यहां आ जाओ।' लेकिन उसे अंधकार में कुछ दिखाई नहीं दिया । दत्त ने कहामुझे अंधकार के अलावा कुछ नहीं दिखता है। आचार्य ने अपनी अंगुली दिखाई। वह दीप की भांति प्रकाशित हो रही थी। शिष्य ने सोचा- 'आचार्य दीपक भी रखते हैं।' उसके ऐसा चिंतन करने पर देवता ने उसकी भर्त्सना की । भयभीत होकर वह आचार्य के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना की। गुरु ने उसे नगर के नौ भागों की बात बताई। सारी बात सुनकर शिष्य को पश्चात्ताप हुआ। उसने गुरु से अपने दोषों की आलोचना की तथा स्वयं को शुद्ध कर लिया। १२. निषीधिका परीषह हस्तिनापुर नगर में कुरुदत्त नामक श्रेष्ठीपुत्र था । वह सर्वगुणसम्पन्न आचार्य के पास दीक्षित हो गया। एक बार कुरुदत्त मुनि एकलविहारप्रतिमा स्वीकार कर साकेत नगर में समवसृत हुए । अन्तिम १. उनि १०७, उशांटी. प. १०८, उसुटी. प. ३२ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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