SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३४७. ब्रह्मदत्त ने जातिस्मति ज्ञान द्वारा अपनी पूर्वजन्म की जातियों का दो पद्यों में प्रकाशन किया तथा उस श्लोक की पूर्ति का निवेदन किया। मुनि चित्र ने यह सुना और वहां आए । चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त को ऋद्धि के परित्याग का उपदेश दिया। यही सूत्र के अर्थ की परम्परा है ।' ४८-५२. बृहद् वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इन पांचों गाथाओं के विषय में लिखा है-इन श्लोकों की परम्परा ज्ञात न होने के कारण इनका विवरण नहीं दिया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र पर निर्मित 'सुखबोधा' वृत्ति (पत्र १८५-९७) में तविषयक विस्तृत कथानक है। उसी में से इन पांच श्लोकगत संक्षिप्त तथ्यों का विस्तार से आकलन किया जा सकता है।' चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय ३५३,३५४. इषकार शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो निक्षेप हैं--आगमत:, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन निक्षेप हैं-ज्ञशरीर, भव्य शरीर और तद्व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । ३५५. इषुकार नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भाव इषुकार होता है। इषुकार से उद्भूत होने के कारण इस अध्ययन का नाम इषकारीय है। __ ३५६. पूर्वभव के स्नेह से संबद्ध, प्रीतिभाक्, परस्पर अनुरक्त छह व्यक्ति भोग्य भोगों को भोगकर, ग्रन्थिरहित होकर प्रवजित हो श्रमण बन गए। ३५७. श्रामण्य का पालन कर वे पद्मगुल्म नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहां उनकी उत्कृष्ट स्थिति चार पल्योपम की थी। ३५८. वहां से च्युत होकर वे छहों व्यक्ति कुरुजनपद के इषुकार नगर में उत्पन्न हुए। वे चरमशरीरी और विगतमोह थे। ३५९. इषुकार नगर में इषुकार राजा था। कमलावती देवी अग्रमहिषी थी। उसके पुरोहित का नाम भगु और उसकी पत्नी का नाम वाशिष्ठी था। ३६०. इषुकार नगर में इषुकार राजा के पुरोहित के कोई संतान नहीं थी। वे दोनों पतिपत्नी पुत्र के लिए बहुत व्याकुल रहते थे। ३६१. गोपपुत्र देवों ने श्रमण का रूप बनाकर पुरोहित को बताया कि देवलोक से च्युत होकर दो देव तुम्हारे पुत्ररूप में उत्पन्न होंगे। ३६२. तुम्हारे वे दोनों पुत्र प्रवजित होंगे। तुम उनकी प्रव्रज्या में बाधक मत बनना क्योंकि वे प्रवजित होकर बहुत लोगों को प्रतिबोध देंगे। ३६३,३६४. उनका वचन सुनकर वह पुरोहित अपनी पत्नी के साथ दूसरे गोकुल ग्राम में चला गया। वहां उसके दो पुत्र हुए। वे बढ़ने लगे। पूरोहित उनको असदभाव-श्रमणों के प्रति मिथ्या धारणा की शिक्षा देने लगा। वह कहता-पुत्रों! ये श्रमण धर्त हैं, प्रेत-पिशाचरूप हैं और नरमांस के भक्षक हैं । तुम उनकी संगति कभी मत करना । पुत्रों ! तुम नष्ट-भ्रष्ट मत हो जाना।' १. देखें परि०६, कथा सं० ५५ २. वही, कथा सं० ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy