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दशवकालिक नियुक्ति
२३१,२३२. रत्नों के चौबीस प्रकार१. स्वर्ण
९. वज्र
१७. वस्त्र २ पु (कलई) १०. मणि
१८. अमिला (ऊनी वस्त्र) ३. ताम्र ११. मुक्ता
१९. काष्ठ ४. चांदी १२ प्रवाल
२०. चर्म (महिष, सिंह आदि का) ५. लोह
१३. शंख
२१. दांत (हाथी के) ६. सीसा
१४. तिनिश
२२. बाल (चमरी गाय के) ७. हिरण्य (रुपया) १५. अगर
२३. गंध (सौगंधिक द्रव्य) ८. पाषाण १६. चन्दन
२४. द्रव्य (पीपर आदि औषधि) २३३. स्थावर के तीन प्रकार हैं- भूमि, गृह तथा वृक्ष समूह । द्विपद के दो प्रकार हैंचक्रारबद्ध (दो पहियों से चलने वाली गाड़ी, रथ आदि) तथा मनुष्य (दास, भृतक आदि)।
२३४. चतुष्पद के दस प्रकार हैं- गौ, महिष, उष्ट्र, अज, भेड़, अश्व, अश्वतर, घोड़ा, गर्दभ और हाथी।
२३५. प्रतिदिन घर के काम में आने वाले विविध प्रकार के उपकरण कुप्य कहलाते हैं। धान्य आदि छह प्रकार के द्रव्यों के ये ६४ प्रकार हैं।
२३६. काम के दो प्रकार हैं-संप्राप्त और असंप्राप्त । मंप्राप्त काम के चौदह भेद हैं तथा असंप्राप्त के दस भेद हैं ।
२३७-२३९. असंप्राप्त काम के दस भेद ये हैं-- अर्थ, चिन्ता, श्रद्धा, संस्मरण, विक्लवता, ज्लजानाश, प्रमाद, उन्माद, तद्भावना तथा मरण। संप्राप्त काम के संक्षेप में चौदह भेद ये हैंदृष्टि-संपात, दृष्टि-सेवा (दृष्टि से दृष्टि मिलाना), संभाषण, हसित, ललित, उपगृहित, दन्तनिपात, नखनिपात, चुंबन, आलिंगन, आदान, करण, आसेवन और अनंगक्रीड़ा।
२४०. धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों यूगपत विरोधी से लगते हैं, परंतु ये जिनेश्वर भगवान् के वचनों में अवतीर्ण होकर अविरोधी बन जाते हैं।
२४०।१. जिनवचन में यथावत् परिणत होने पर अपनी योग्यता के अनुसार अनुष्ठान करने से 'धर्म' होता है। स्वच्छ आशय के प्रयोग से तथा पूण्यबल से 'अर्थ' और विश्रम्भ-उचित पत्नी को अंगीकार करने से 'काम' होता है।
२४१. धर्म का फल है-मोक्ष । वह शाश्वत, अतुलनीय, कल्याणकर और अनाबाध है। मुनि उस मोक्ष की अभिलाषा करते हैं, इसलिए वे 'धर्मार्थकाम' हैं ।
२४२ 'परलोक नहीं है, मुक्ति का मार्ग नहीं है और मोक्ष नहीं है'-यह बात न्यायमार्ग को न जानने वाले लोग कहते हैं। किंतु जिनप्रवचन में ये सब सत्य रूप में स्वीकृत हैं तथा ये पूर्वापरअविरोधी हैं। वीतराग प्रवचन से अन्यत्र अन्य दर्शनों में ऐसा नहीं है।
२४३. आचारकथा में जिन अठारह स्थानों का कथन किया है, उनमें से एक का भी सेवन करने वाला श्रमण नहीं होता।
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