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________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २०१ १७१,१७२. महावीर की ज्ञान उत्पत्ति के १४ वर्ष बाद बहुरतवाद की, १६ वर्ष पश्चात् जीवप्रदेशवाद की, २१४ वर्ष पश्चात् अव्यक्तवाद की, २२० वर्ष पश्चात् समुच्छेदवाद की, २२५ वर्ष पश्चात् द्विक्रियवाद की, ५४४ वर्ष बाद पैराशिकवाद की तथा ५८४ वर्ष बाद अबद्धिकवाद की उत्पत्ति हुई। १७२।१. भगवान् महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। १७२।२. महावीर की ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना का पुत्र जमालि तथा भगवान् की पुत्री अनवद्यांगी (प्रियदर्शना) डेढ़ हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए। श्रावस्ती नगरी के तिदुक उद्यान में जमालि विप्रतिपन्न । ढंक श्रावक द्वारा प्रतिबोध । जमालि को छोड़कर सुदर्शना महावीर के शासन में आ गई। १७२।३. राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। उनका शिष्य तिष्यगुप्त आचार्य को छोड़कर आमलकल्पा नगरी में आया। वहां मित्रश्री नामक श्रमणोपासक द्वारा कर पिंड आदि का अंतिम अंश देकर प्रतिबोध देना। १७२।४. श्वेतविका नगरी के पोलास उद्यान में आर्य आषाढ़ का प्रवास। उनके शिष्य आगाढ़ योग-प्रतिपन्न थे । आचार्य का हृदयशूल की पीड़ा में अचानक कालगत होना । उनकी सौधर्म देवलोक के नलिनीगुल्म विमान में उत्पत्ति । राजगृह नगर में मौर्यवंशी बलभद्र नामक राजा द्वारा प्रतिबोध।" १७२१५. मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि। उनका शिष्य कौंडिन्न । उसका शिष्य अश्वमित्र। अनुप्रवादपूर्व के नैपुणिक वस्तु की वाचना। राजगृह में खंडरक्ष आरक्षक श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिबोध।' १७२।६. नदीखेट जनपद के उल्लुकातीर नगर में आचार्य महागिरि का शिष्य धनगुप्त । उनका शिष्य आर्य गंग । नदी में उतरते हुए द्विक्रियवाद की प्ररूपणा। राजगृह में आगमन । महातपस्तीर से उद्भूत झरना । मणिनाग नामक नाग द्वारा प्रतिबोध । १७२।७. अंतरंजिका नगरी में भूतगृह नामक चैत्य । बलश्री राजा। श्रीगुप्त आचार्य । शिष्य रोहगुप्त । परिव्राजक पोट्टशाल । घोषणा । प्रतिषेध । वाद के लिए ललकारना।' १७२।८. परिव्राजक वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगी, वराही, काक और पोताकी-इन विद्याओं में कुशल था। १७२।९. तब आचार्य ने अपने शिष्य से कहा-'तुम मायूरी, नाकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही उलकी तथा उल्लावकी-इन विद्याओं को ग्रहण करो। ये विद्याएं परिव्राजक द्वारा प्रयुक्त विद्याओं की प्रतिपक्षी हैं तथा उसके द्वारा अहननीय हैं। १. देखें परि० ६, कथा सं ३६ । २. वही, कथा सं. ३७ । ३. वही, कथा सं. ३८ । ४. वही, कथा सं. ३९ । ५. वही, कथा सं. ४०। ६. वही, कथा सं. ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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