Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती जोड़ (खण्ड-२) 4195 श्रीमज्जयाचार्य For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के दो विभाग है-अंग और अंग बाह्य अंग वारह् थे। आज केवल ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उनमें पांचवा अंग हैभगवती । इसका दूसरा नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है। इसमें अनेक प्रश्नों के व्याकरण हैं। जीव-विज्ञान परमाणुविज्ञान, सृष्टि-विधान, रहस्यवाद, अध्यात्म विद्या वनस्पति विज्ञान आदि विद्याओं का यह आकर-ग्रन्थ है। उपलब्ध आगमों में यह सबसे बड़ा है। इसका ग्रन्थमान १६००० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण माना जाता है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी ने इस पर टीका लिखी। उसका ग्रंथमान अठारह हजार श्लोक प्रमाण है . भगवती सूत्र की सबसे बड़ी व्याख्या है यह 'भगवती जोड़'। इसकी भाषा है राजस्थानी। यह पद्यात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे 'जोड़' की संज्ञा दी गई है। इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम जगाचार्य द्वारा प्रस्तुत जोड़ के पथ और ठीक उनके सामने उन पद्यों के आधार स्थल दिये गये है। जयाचार्य ने मूल अनुवाद के साथ-साथ अपनी ओर के से स्वतंत्र समीक्षा भी की है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के चौथे यशस्वी गणी श्रीमज्जयाचार्य 'भगवती-जोड़' के स्व-रचित आशु पद्य साध्वी श्री गुलाबांजी को लिखाते हुए। उनके हाथ में भगवती सूत्र तथा उसकी टीका की प्रति है। जोड़ का रचना-काल वि० सं० १६१६ से १६२४ remational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड़ श्रीमज्जयाचार्य Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : ग्रन्थ १४ भगवती-जोड़ खण्ड २ प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सम्पादक युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभा Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध-सम्पादक: श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जैन विश्व भारती) आर्थिक सौजन्य : समाज भूषण भगवत प्रसाद रणछोड़दास चेरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद प्रथम संस्करण: १९८६ मूल्य : १५० रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'भगवती-जोड़' का प्रथम खंड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङ्मय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था । अब उसी ग्रन्थ का द्वितीय खंड पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड में उक्त ग्रंथ के चार शतक समाहित थे । प्रस्तुत खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक की सामग्री समाहित है। साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रंथों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पम्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़-ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक हैं। "भगवई" अंग ग्रंथों में सबसे विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रंथ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रंथ माना गया है । इसमें मूल के साथ टीका ग्रंथों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं । ४१ ढालें केवल दोहों में हैं। ग्रन्थ में ३६२ रागिनियां प्रयुक्त हैं। इसमें ४६६३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छंद, १८८४ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४६ पद्यपरिमाण ११६० गीतिकाएं, ९३२६ पद्य-परिमाण ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं । इसका अनुष्टुप् पद्य-परिमाण ग्रंथान ६०६०६ है । प्रस्तुत खंड में मूल राजस्थानी कृति के साथ सम्बन्धित आगम पाठ और टीका की व्याख्या गाथाओं के समकक्ष में दे दी गई हैं । इससे पाठकों को समझने की सहूलियत के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी। इस ग्रंथ का कार्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ है और साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है । उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृग्गोचर होता है । तेरापंथ संघ के युगप्रधान आचार्य तुलसी के अमृत महोत्सव के सातवें चरण के अवसर पर ऐसे ग्रंथ-रत्न के द्वितीय खंड का पाठकों के हाथों में प्रदान करते हुए जैन विश्व भारती अपने आपको अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव करती है। इस अवसर पर हम श्री भगवत प्रसाद रणछोड़दास परिवार को हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिन्होंने जैन विश्व भारती में साहित्य प्रकाशन स्थायी कोष के निर्माण हेतु स्वर्गीय समाजभूषण सेठ भगवतप्रसाद रणछोड़दास (१९२१-१९८०) की पुण्य स्मृति में पचास हजार रुपये की राशि भगवतप्रसाद रणछोड़दास चेरिटेबल ट्रस्ट, १४ पटेल सोसाइटी, शाहीबाग, अहमदाबाद, ६४, से प्रदान किया । उक्त ट्रस्ट को हम इस उदार अनुदान हेतु अनेक धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में संपन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से हुई थी। २-१२-८६ सुजानगढ़ श्रीचन्द रामपुरिया कुलपति जैन विश्व भारती Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थं आचार्य श्रीमज्जयाचार्य विलक्षण पुरुष थे । उन्होंने अपनी प्रज्ञा के द्वार खोले और ऊर्जा का भरपूर उपयोग किया । एक ओर संघ के अन्तरंग व्यवस्था पक्ष में क्रान्तिकारी परिवर्तन, दूसरी ओर साहित्य के आकाश में उन्मुक्त विहार । एक ओर प्रशासन, दूसरी ओर साहित्य सृजन । उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसे तत्त्व थे कि एक साथ कई मार्गों की यात्रा करने पर भी वे श्रान्त नहीं हुए। साहित्यिक यात्रा में तो उन्हें अपरिमित तोष मिलता था इसलिए छोटे-बड़े दार्शनिक व्यावहारिक, संदान्तिक संघीय किसी भी प्रसंग पर उनकी लेखनी बराबर चलती रहती थी। किशोर वय में उन्होंने लिखना शुरू किया । यौवन की दहलीज पर पांव रखने से पहले ही उनके लेखन में निखार आ गया । परिपक्वता बढ़ती गई और वे अपने युग में असाधारण शब्द -शिल्पियों की श्रेणी में आ गए । जयाचार्य की प्रत्येक रचना महत्त्वपूर्ण है । पर भगवती की जोड़' अद्भुत है। इसे गंभीरता से पढ़ा जाए तो पाठक आत्मविभोर हो जाता है । आचार्यश्री तुलसी के मन में तो इसका स्थान बहुत ही ऊंचा है । आपने समय-समय पर इसके सम्बन्ध में जो भावना व्यक्त की, उसका सारांश इस प्रकार है- मैं जब जब 'भगवती की जोड़' को देखता हूं, मेरा मन आह्लाद से भर उठता है । इसके अध्ययन, मनन और समीक्षण काल में कालबोध समाप्त हो जाता है । इसकी विशद व्याख्याएं और गहरी समीक्षाएं मन को पूरी तरह से बांध लेती हैं । ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को बार-बार प्रणाम करने की इच्छा होती है। इसके रचनाकार की अनूठी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्पशक्ति का चित्र तो इसके बृहत्तम आकार को देखते ही उभर आता है । कैसी थी उस महान् शब्द-शिल्पी की धृति, बुद्धि और वैचारिक स्थिरता । रचनाधर्मिता के प्रति संपूर्ण समर्पण बिना ऐसी कृतियों के सृजन की संभावना भी नहीं की जा सकती ।" . इतिहास का सृजन संसार में तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं— उत्तम, मध्यम और अधम । कुछ लोग काम की दुरूहता की कल्पना मात्र से आहत हो जाते हैं । वे किसी बड़े या महत्त्वपूर्ण काम का प्रारंभ भी नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति तीसरी श्रेणी में आते हैं । कुछ व्यक्ति इतने उत्साही होते हैं कि कोई भी नई योजना सामने आते ही उसकी क्रियान्विति में जुट जाते हैं । किन्तु विघ्न, बाधाओं की बौछार से वे विचलित हो जाते हैं और शुरू किए हुए काम को बीच में ही छोड़ देते हैं । ऐसे व्यक्ति मध्यम श्रेणी में आते हैं । उत्तम कोटि के व्यक्ति वे होते हैं, जो कठिन से कठिन काम को भी पूरे मन से सम्पादित करते हैं। प्रतिकूलताओं और बाधाओं से प्रताड़ित होकर भी जो अकम्प भाव से चलते रहते हैं, काम को पूरा करके ही विराम लेते हैं । जयाचार्य इस उत्तम श्रेणी के व्यक्ति थे । ' क्रियासिद्धिः सत्वे भवति साधन सामग्री से भी इतना काम कर गए कि इतिहास पुरुष बन गए। उन्होंने एक ऐसे इतिहास का सृजन किया है, जिसे दोहराना मुश्किल है। ऐसी आलोक रश्मि है, जो संस्कृत और प्राकृत भाषा नहीं जानने वाले लाखों-लाखों लोगों का मार्ग प्रशस्त कर रही है । महतां नोपकरणे' – इस उक्ति के अनुसार वे न्यूनतम भगवती सूत्र का राजस्थानी भाषा में पद्यात्मक भाष्य करके उनकी यह कृति साहित्य के क्षेत्र में कीर्तिमान ही नहीं है, एक 'भगवती की जोड़' का प्रथम खण्ड सम्पादित होकर मुद्रित हो चुका है । उसमें प्रथम चार शतक की जोड़ है । प्रस्तुत ग्रंथ उस श्रृंखला में दूसरा खण्ड है । इसमें भी चार शतक - पांचवें से लेकर आठवें तक, समाविष्ट हैं । प्रथम खण्ड की भांति इस खण्ड में भी जोड़ के सामने 'भगवती' के मूल पाठ और वृत्ति को उद्धृत किया गया है। कुछ स्थलों पर पादटिप्पण भी दिए गए हैं । यत्र-तत्र प्राप्त अन्य ग्रन्थों की सूचना के अनुसार उनके प्रमाण देने का प्रयत्न भी किया गया है। खण्ड की भगवती की सम्पूर्ण जोड़ को एक ही श्रृंखला में अनेक खण्डों में सम्पादित करके जनता तक पहुंचाने की योजना है। दूसरे पृष्ठ संख्या प्रथम खण्ड से कुछ अधिक है। एक ही सीरीज के सब खण्ड आकार-प्रकार में भी एकरूप होते तो इनका सौन्दर्य बढ़ता । किन्तु सौन्दर्य के लिए सत्य को विखण्डित करना भी उचित प्रतीत नहीं होता । मूल आगम में शतक छोटे-बड़े हैं । पृष्ठ संख्या में बांधकर उन्हें पूरी-अधूरी प्रस्तुति देने से रचनाकार और पाठक दोनों के साथ ही न्याय नहीं होता । इस दृष्टि से प्रत्येक खण्ड की पृष्ठ संख्या समान नहीं रह सकेगी। प्रस्तुत खण्ड के सभी शतक दस-दस उद्देशक वाले हैं। प्रत्येक शतक के प्रारंभ में संग्रहणी गाथा के आधार पर उसके प्रतिपाद्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) का संकेत दे दिया गया है । संग्रहणी गाथा को जोड़ भी कितनी मूलस्पर्शी है चम्पा रवी उदस्थ, पवन जाल ग्रंथिक बलि । चंप-रवि अनिल गंठिय, सद्दे छउमाउ एयण नियंठे । शब्द विषय छद्मस्थ, आयू पुद्गल कंपवो ॥ रायगिहं चंपा-चंदिमा य, दस पंचमम्मि सए। निग्रंथ पुत्र अनगार, किणन कहिये राजगृह' । चंपा चंद्र विचार, दस उदेश पंचम शते । XXX-- -----------xxx पुगदल नुं पहलू का, आशीविष नों जाण । पोग्गल आसीविस रुक्ख किरिय, आजीव फासुक मदत्ते । वृक्ष तणो तीजो अख्यो, घउथो क्रिया बखाण ॥ पडिणीय बंध आराहणा य, दस अट्ठमंमि सते॥ आजीवका नो पांचमो, छट्ठो प्रासुक दान । अदत्त विचारण सप्तमो, प्रत्यनीक पहचान । नवमों बंध तणों कह्यो, आराधना नो अर्थ । उद्देशक दस आखिया, अष्टम शते तदर्थ ॥ गुजराती का प्रभाव जयाचार्य की भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। जयाचार्य न तो गुजरातीभाषी थे और न ही कभी गुजरात उनका विहार क्षेत्र रहा । फिर भी उनकी रचनाओं पर गुजराती का प्रभाव सहेतुक है। आचार्य भिक्षु ने आगमों का अध्ययन टबों के आधार पर किया था । जयाचार्य के अध्ययन का क्रम भी यही था । आगमों के टबों की भाषा गुजराती है । आचार्य भिक्षु ने उस भाषा को नहीं पकड़ा। फलतः उनका साहित्य शुद्ध मारवाड़ी बोली में है। जयाचार्य अपनी ग्रहणशीलता को यहां भी छोड़ नहीं सके। इस कारण उनकी भाषा गुजराती मिश्रित हो गई । भगवती की जोड़ में किसी भी ढाल की रचना पर गुजराती का प्रभाव ज्ञात किया जा सकता है, पर वहां प्रवाह में बहुत साफ-साफ परिलक्षित नहीं होता। जोड़ के मध्य जहां-जहां वार्तिकाएं लिखी हुई हैं, उन्हें पढ़ने से प्रतीत होता है कि जयाचार्य की रचनाओं में अनायास ही गुजराती भाषा के प्रयोगों की बहुलता है । बहुश्रतता के साक्ष्य जयाचार्य बहुश्रुत आचार्य थे। उन्होंने शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। विदेशी संस्कृति में उस व्यक्ति को विशिष्ट माना जाता है, जो अपना जीवन यायावरी में नियोजित कर देता है । भारतीय संस्कृति में 'वेल ट्रेवेल्ड' के स्थान पर 'वेल लर्नेड' व्यक्ति को महत्त्वपूर्ण माना गया है । 'वेल लर्नेड' का ही अर्थ है बहुश्रुत । बहुश्रुत शब्द का एक अर्थ यह भी हो सकता है जिसने बहुत सुना है, वह बहुश्रुत । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह अर्थ असंगत नहीं है, किन्तु 'बहुश्रुत' शब्द की प्रवृत्ति उक्त अर्थ का बोध नहीं देती है। इसलिए इसका प्रचलित अर्थ ही मान्य होना चाहिए। उसके अनुसार बहुश्रुत वह होता है जो अपने और दूसरे सम्प्रदायों के शास्त्रों का पारगामी विद्वान् होता है। जयाचार्य की बहुश्रुतता का साक्ष्य उनकी अपनी रचनाएं हैं। जहां कहीं किसी बात को प्रमाणित करने के लिए उन्हें साक्षी रूप में आगम पाठ उद्धृत करने की अपेक्षा हुई, एक ही प्रसंग में दसों आगमों को प्रस्तुत कर दिया। कहीं-कहीं तो ऐसा प्रतीत होता है मानों सब आगम उनकी आंखों के सामने अंकित थे। पांचवे शतक में अतिमुक्तक मुनि की दीक्षा का प्रसंग है। वहां वृत्तिकार ने छह वर्ष की अवस्था में उनकी दीक्षा का उल्लेख किया है । यह तथ्य आगम सम्मत नहीं है । आगमों में यत्र-तत्र सातिरेक आठ वर्ष की अवस्था को दीक्षा के लिए उचित ठहराया गया है । इस सन्दर्भ में जयाचार्य ने व्यवहार', भगवती, उत्तराध्ययन और औपपातिक सूत्रों के प्रमाण देकर वृत्तिकार के मत का निरसन किया है१.पृ० १, ढा०७४।२,३ । २.पृ० ३०२, ढा० १३०१४-६ । ३-६. पृ० २८, ढा० ८१, गा०४-७ । Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ वर्ष ऊणा भणी, दीक्षा कल्पै नांहि । आठ वर्ष जाझे चरण, ववहार दसमा मांहि ॥ असोच्चा केवली तणों, आयू जघन्य कहेस । आठ वर्ष जाझो भगवती, नवम इकतीसमुद्देश ।। शुक्ल लेश उत्कृष्ट स्थिति, ऊणी नव वर्षेण । पूर्व कोड उत्तरज्झयण, चोतीसम अज्झेण ॥ आऊ आठ वरस अधिक, शिवपद पामै ताम । सूत्र उववाई में कह्यो, इत्यादिक बहु ठाम । वृत्तिकार के अभिमत से अपनी असहमति प्रकट करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिख दिया तिण कारण टीका मझे, अइमुत्त नां षट् वास । आख्या तेह विरुद्ध छै, समय वचन थी तास ।। इस गाथा से आगे की आठ गाथाओं में उक्त तथ्य की समीक्षा करते हुए जयाचार्य ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि यदि छह वर्ष में दीक्षा हो सकती तो इसी अवस्था में केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्ति की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता। शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख मिलता नहीं है। इसलिए दीक्षा का कल्प आठ वर्ष से कुछ अधिक होने पर ही मान्य किया गया है। जयाचार्य को जहां कहीं वृत्तिकार का अभिमत ठीक नहीं लगा, उन्होंने विस्तार के साथ उसकी समीक्षा कर दी। समीक्षा के लिए उन्होंने दो प्रकार की शैली काम में ली-१. पद्यात्मक और गद्यात्मक । पद्य शैली में की गई समीक्षा की भांति वार्तिका नाम से गद्यशैली की कई समीक्षाएं काफी विस्तृत और गंभीर हैं। आठवें शतक में ज्ञान और अज्ञान के प्रसंग में अज्ञान के तीन प्रकारों का उल्लेख हुआ है-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान । विभंगज्ञान का अर्थ करते हुए वृत्तिकार ने लिखा-विरुद्धा भंगा-वस्तुविकल्पा यस्मिस्तद्विभङ्ग... अथवा विरूपो भंग:अवधिभेदो विभङ्ग १.... ।' जयाचार्य ने विभंगज्ञान का अर्थ विरुद्ध विकल्पों वाला ज्ञान स्वीकृत नहीं किया । अपने अभिमत को विस्तार से प्रस्तुति देने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी वातिका' लिखी है। उसका निष्कर्ष यह है कि अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में वस्तूबोध की दृष्टि से अन्तर नहीं है। इनमें अन्तर है पात्रता का। सम्यक् दृष्टि का जो अतीन्द्रिय ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है, वही मिथ्यात्व के योग से विभंगज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के पृ० ३१६ पर गद्यात्मक वार्तिका में वृत्तिकार के अभिमत की विस्तृत समीक्षा की गई है। उसे पढने से ऐसा लगता है कि जयाचार्य एक तटस्थ और निर्भीक समीक्षक थे। उनकी सभी समीक्षाएं ज्ञान चेतना के आवत द्वारों को खोलने वाली हैं। इसी क्रम में शतक ८, ढाल १५२ में परीषह-वर्णन का प्रसंग लिया जा सकता है। उक्त ढाल की गाथा ७३ से ५८ तक जयाचार्य ने वृत्तिकार का मत उद्धृत किया है उसके बाद उन्होंने उक्त मन्तव्य की यथार्थता को स्वीकारने या नकारने का दायित्व पाठकों को देते हुए लिख दिया ए सगलो विस्तार, टीका मांहे आखियो। बुद्धिवंत न्याय विचार, मिलतो हुवै ते मानिय' । इस पद्य के बाद एक लम्बी वातिका लिखकर आपने पाठकों को चिन्तन करने का पर्याप्त अवकाश दे दिया। ऐसे अनेक स्थल हैं, जो जयाचार्य की बहुश्रुतता और अनाग्रही वृत्ति के उदाहरण बन सकते हैं। भगवती की जोड़ का सृजन करते समय जयाचार्य को मूल ग्रंथ से सम्बन्धित जितनी सामग्री मिली, उसका उन्होंने मुक्त मन १.३०प० ३४४ । २. पृ० ३३८-३४०, ढा० १३४ । ३ पृ०४६४, ढा० १५२, गा० ८६ । Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) से उपयोग किया है। उस सामग्री में मूल सूत्र की वृत्ति तो है ही, उसके साथ मुनि धर्मसी के यन्त्र या टबों और बृहत् टबे का भी स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है को धर्मसी ताहि भवनपति विगलिदिया। तिरि पंचेन्द्री मांहि, मनुष्य व्यंतर ज्योतिषि ।। धर्मसी का यंत्र, टबा और बृहत् टबा आदि अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं। जयाचार्य को वे ग्रंथ कहां से मिले और उनके द्वारा काम में लिए जाने के बाद वे अप्राप्त कैसे हो गए ? इस सम्बन्ध में अन्वेषण की अपेक्षा है । पूर्व भवे अबन्ध, बन्धे छे गुण ग्यारमें । बन्धस्यै त्रिहुं गुण संध, पंचम भंगे धर्मसी ॥ बृहत् टबे इम वाय, शंका त्रस उत्पत्ति तणी । वृत्ति पण भांजी नांव जिन भावं तेहीज सत्य ॥ 1 मननीय स्थल : समोक्षाएं "भगवती की जोड़" भगवती सूत्र का पद्यात्मक अनुवाद मात्र नहीं है । इसकी रचना शैली के आधार पर इसे "भगवती” का भाष्य कहा जा सकता है । जयाचार्य ने सूत्रकार, वृत्तिकार तथा सम्बन्धित प्रसंगों पर अन्य आचार्यों के अभिमत का अनुवाद तो पूरी दक्षता के साथ किया ही है, उसके साथ प्रत्येक विवादास्पद विषय पर अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षाएं लिखी हैं । समीक्षाएं पद्य और गद्य दोनों शैलियों में लिखी गई हैं । प्रत्येक समीक्षा मनन पूर्वक पठनीय है। उनके सम्बन्ध में कुछ सूचनाएं "श्रावक की आत्मा सामायिक में भी अधिकरण है" आचार्य भिक्ष द्वारा मान्य इस सिद्धान्त की पुष्टि में १११ वीं ढाल में लम्बी समीक्षा है ।* मिथ्यावी मोक्ष का देश आराधक है । उसकी करणी भी निरवद्य हो सकती है। मिथ्यात्वी के प्रत्याख्यान को दुष्प्रत्याख्यान माना गया है, यह संवर धर्म की अपेक्षा से है, निर्जरा धर्म की अपेक्षा से नहीं । इस सम्बन्ध में ११५ वीं ढाल में बहुत अच्छी समीक्षा है । विपरीत प्राण, भूत, जीव और सत्व को दुःख न देने से साता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है, यह कथन आगमानुमोदित है । इसके कुछ लोग सुख 'देने से साता वेदनीय कर्म का बन्ध मानते हैं । इस सन्दर्भ में ११८ वीं ढाल में समीक्षा लिखी गई है ।" न्याय का मिलान भगवती सूत्र में कुछ स्थल ऐसे हैं, जहां तथ्यों का संकेत मात्र है अथवा संक्षेप में वर्णन किया गया है। वहां पाठक के सामने कठिनाई उपस्थित हो सकती है। पर जयाचार्य ने अनेक स्थानों पर यौक्तिक ढंग से उन तथ्यों को विश्लेषित कर दिया है। पांचवें शतक की ६७ वीं ढाल की कुछ गाथाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है मूल पाठ के आधार पर वहां जोड़ की एक गाथा है ५. पृ० २२८, ढा० ६. पृ० २५३, ढा० इस गाथा में अस्पष्ट तथ्य को स्पष्ट करते हुए जयाचार्य ने लिखा है चदश गुणठाण, अल्पवेदना तसु कही । बहुलपण करि जाण, एहवं न्याय जणाय छै ।। सेलेसी मुनि मोटका, चउदसमें गुणठाणे । अल्पवेदनात ते महानिर्जरा माणे ॥ 1 १. पृ० १७२, ढा० १०५ गा० ४५ । २. पृ० ४४७, ढा० १५०, गा० १०१ । ३. पृ० १६२, ढा० ४. पृ० २०८, ढा० १०३, गा० ७८ । १११, गा० ३६ - ६८ । ११५, गा० १६-२६ । ११८, गा० ७४-८२ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) मुनि गजसुकुमालादि दीसे तसुं बहूवेदना | ते कारण ए साधि, भजना इहां जणाय छे ॥ अथवा दूजो न्याय, कर्मनिर्जरा अति घणी । ते देखतां ताय, अल्पवेदना संभवे ॥ इसी प्रकार छठे शतक में भी शालि, ब्रीही आदि धान्यों की योनि - विध्वंस का सूत्रानुसारी काल निर्धारण करके चार सोरठों में उसका न्याय मिलाया गया है । बडा टबा में वाय, सजीवपणुं टली करी । aatavj चाय मिलतो अर्थ अछतिको ॥ सूको धान अजीव केश्क करें परूपण । पण इहां आयो जीव अर्थ अनूपम देखलो || दशकालिक देख, द्वितीय उद्देश पंचमभ्रमण । बावीसम उवेथ गाया में इहविध कहा ।। . चावल नो पहिछाण, आटो मिश्र उदक बली । शस्त्र अपरिणत जाण, ते काचा लेणां नहीं ॥ इसी प्रकार अनेक स्थलों में भ्रांति उत्पन्न करने वाले प्रसंगों में जयाचार्य ने अपनी सूक्ष्मग्राही मेधा का उपयोग कर पाठकों का मार्ग प्रशस्त किया है । अनुवाद शैली जयाचार्य ने भगवती मूल पाठ और उसकी वृत्ति का अनुवाद इतनी सहजता और सरलता से किया है कि संस्कृत और प्राकृत को नहीं समझने वाला पाठक भी अनुवाद के आधार पर मूलस्पर्शी अर्थबोध कर सकता है। कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं— समणोबासगरस भंते! पुब्बामेव तसपाणसमारंभ पच्चखाए भवइ, पुढवी समारंभे अपच्चक्खाए भवइ । से व पुढवि खगमाणे अण्णवरं तसं पाणं विहिंसेज्या, से णं भंते तं वयं अतिचरति ? हे भगवान! श्रावक तिको, पहिलांईज पिछाण । त्रस वधवो पचख्यो तिणे, पृथ्वी नां पचखाण || ते पृथ्वी खणते थके, कोइक त्रस हणाय' । तो प्रभु श्रावक व्रत तणो, अतिचार रूप भंग थाय ॥ XXX-XXX नमस्कार थावो मांहरो, भगवंत श्री महावीर । धर्म नी आदिकरण धुरा, शासणनाथ सधीर ॥ यावत मुक्ति जावा तणां वांछक तसु अभिलाख । धर्म आचारज मांहरा, धर्मोपदेशक साख ॥ नमोत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिग रस्स । जयाचार्य ने मूल सूत्र का अनुवाद किया हो या भाष्य, उसे पढ़ने से मूल ग्रन्थ को पढ़ने की इच्छा जागृत होती है । प्राकृत, संस्कृत आदि इस युग में अप्रचलित या कम प्रचलित भाषाओं को राजस्थानी में इस प्रकार रूपान्तरित कर देना अपनी मातृभाषा के प्रति उनके गहरे अनुराग, अनुभवों की प्रोढ़ता तथा सतत क्रियाशीलता का प्रतीक है । १. पृ० ११७, डा० १७, गा० ३२-३४ । २. पृ० १७४, ढा० १०६, गा० १३-१६ । ३. पृ० २०९, ढा० १११, गा० ६६,७० । ४. पृ० २६८, डा० १२६, गा० ७१,७२ । जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस धम्मोपदेसगस्त, सम्पादन यात्रा के सहयात्री "भगवती की जोड़” का संपादन श्रमसाध्य कार्य है । यह उन सबका अनुभव है, जो इस काम के साथ जुड़े हुए हैं। जोड़ के Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलपाठ को शुद्ध करना, भगवती सूत्र के पाठ और उसकी वृत्ति के साथ उसे तुलनात्मक प्रस्तुति देना, जोड़ में प्रयुक्त अन्य आगमों तथा ग्रन्थों के प्रमाण खोजना आदि अनेक पड़ावों को पार करने के बाद ही इस यात्रा को विराम मिलता है। प्रस्तुत खण्ड का सम्पादन इसके प्रथम खण्ड की भांति श्रद्धास्पद आचार्यवर की अमृतमयी सन्निधि में बैठकर किया गया है । आपकी प्रत्यक्ष उपस्थिति के बिना इसका सम्पादन कठिन ही नहीं, असंभव था। यात्रा, जनसम्पर्क आदि व्यस्तताओं के बावजूद आपने इस काम के लिए अपने अमूल्य समय दिया। इसी से इस ग्रन्थ की गरिमा बहुगुणित हो जाती है। सम्पादन कार्य में साध्वी जिनप्रभाजी और कल्पलताजी का योग बराबर मिलता रहा । मुनि हीरालालजी का सहयोग तो अविस्मरणीय है। जहां कहीं आगम ग्रन्थों के प्रमाण खोजने होते मुनिश्री बहुत कम समय में पूरे मनोयोग से हमारा काम सरल बना देते। "भगवती की जोड़" की हस्तलिखित प्रतियां हमारे धर्मसंघ के भण्डार में है। उसे धारण करने का काम “जैन विश्व भारती" द्वारा कराया जा चुका है । सम्पादन के इस क्रम में "जोड़" के समानान्तर मूलपाठ और वृत्ति को धारने का काम मुमुक्षु बहिनों ने किया। प्रूफ निरीक्षण में अधिक समय और श्रम साध्वी जिनप्रभाजी का लगा। उनके साथ अन्य कई साध्वियों ने निष्ठा से काम किया। जैन विश्व भारती के मुद्रण विभाग ने भी इस दुरूह काम को पूरा करने में ईमानदारी पूर्वक श्रम किया। मेटर कम्पोज हो जाने के बाद पाण्डुलिपि में किए गए परिवर्तन का संशोधन काफी श्रमसाध्य होता है। पर प्रेस की ओर से कभी यह शिकायत ही नहीं आई कि पाण्डुलिपि में परिवर्तन क्यों किया जाता है। भगवती की जोड़" के सम्पादन में मेरा नाम जोड़ा गया, यह मेरा सौभाग्य है। वास्तविकता यह है कि कोई भी अकेला व्यक्ति इस गुरुतर कार्य को संपादित नहीं कर सकता । श्रद्धास्पद आचार्यप्रवर का मंगल आशीर्वाद, सफल मार्गदर्शन और सतत सान्निध्य, युवाचार्य श्री का दिशा-निर्देश तथा सहकर्मी साधु-साध्वियों की निष्ठा और श्रमशीलता-इन सबके समुचित योग से यह काम हो पाया है । अभी तक दो ही खण्डों का काम हुआ है । जितना काम हुआ है, करणीय उससे बहुत अधिक है। शेष कार्य को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए हमें अपनी गति को तीव्रता देनी होगी। श्रद्धास्पद गुरुदेव की अमृतमयी सन्निधि "भगवती की जोड़" से जुड़े हुए प्रत्येक व्यक्ति में नई ऊर्जा का संप्रेषण करे और हम सब मिलकर इस काम को आगे बढ़ाएं, यह अपेक्षा है। सम्पूर्ण "भगवती जोड़" को एक ही शैली में सम्पादित करने का गुरुदेव का जो सपना है, उसे आकार देने में हम किंचित् भी निमित्त बन सकें तो हमारे जन्म की सार्थकता होगी। १५ अगस्त, १९८६ लाडनूं साध्वी प्रमुखा कनकप्रमा Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५: १-११० शतक ६ : ११०-२०३ शतक ७: २०४-३०२ शतक : ३०२-५५२ Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ७४ सोरठा १. चतुर्थ शतके अंत को लेस अधिकार ए प्राये लेस्यावंत, तास निरूपण पंचमे ॥ २. चंपा रवी उदस्थ, पवन जाल ग्रन्थिक बलि । विषय छदमस्थ, आयू पुद्गल कंपवो ॥ शब्द ३. निर्बंध-पुत्र अणगार, किन कहिये राजगृह । चंपा चन्द्र विचार, दस उदेश पंचम शते ॥ दूहा ४. तिण काले नै तिण समय, नगरी चम्पा नाम । पूर्णभद्र सुचत्य वर बिहू वर्णक अभिराम ॥ " ५. स्वामी तिहां समवसऱ्या, जाव परषदा आय । वाण सुणी श्री वीर नीं, आई जिण दिशि जाय ॥ ६. तिण काले ने तिग समय, महावीर तो जान । अंतेवासी जेष्ठवर, इंद्रभूति अभिधान || ७. गोत करि गोतम कहा जाय व इम वाय । नमस्कार वंदन करी, पूछे प्रश्न सुहाय ॥ * गोयम प्रभजी सं वीनवं ॥ कोड, पूर्व मे कर जोड़ मेटी अविनय खोड़ ॥ ( ध्रुपदं ) तमु पूछा है भदन्त ! अग्नि-कूण आपमंत ? नैऋत कूण आथमंत । नैऋत कृण उगी करी, वायव्य अस्तज हत ॥ (स्वाम सुणो मोरी वीनती ) १०. वायव्य कूण ऊगी करी, आषमिये ईशाण ? जिन कहै हंता गोयमा ! पूछयो तिम जिन बाग ॥' वीर थकी धर विनय करी मान मोड़, ८. सूर्य ने जम्बूदीप में, ऊगे कृण ईशाण में ६. अग्नि कूण ऊगी करी, *लय : लछमण राम सूं वीनव १. देखें प० सं० १९ । १. चतुर्थशतान्ते लेश्या उक्ताः पञ्चमशते तु प्रायो श्यावन्तो निरूप्यन्ते । ( ० १० २०६ ) २, ३. चंपरविअनिलगंठिया, सद्दे छउमाउ एयण नियंठे | रायगिहं चंपा चंदिमा य दस पंचमम्मि सए ॥ ( श० ५|संगहणी - गाहा ) 'गंठिय' त्ति जालग्रन्थिकाज्ञातज्ञापनीयार्थनिर्णयपरः 'एयण' त्ति पुद्गलानामेजनाद्यर्थप्रतिपादक: नियंसि नियंन्थीपुत्राभिधानानगारविहितवस्तुविचारसारः । (० ० २०६) -- ४. ते काले ते समएर्ण चंपा नाम नगरी होल्याण्णवी | (श० ५०१ ) तीसे णं चंपाए नगरीए पुष्णभद्दे नाम- बेइए होत्था - वण्णओ । ५. सामी समोसढ़े जाव परिसा पडिगया । (श० ५०२ ) ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अन्तेवासी इंदभूई नामं अणगारे । ७. गोयमे गोत्तेणं जाव एवं वयासी म. जंबुवे भंते । दीने सुरिया उदीप पाईमुग्गच्छ पाईण दाहिणमागच्छंति । ६. पाईण दाहिणमुग्गच्छ दाहिण -पडीणमागच्छंति, दाहिणपडीणमुग्गच्छ पडीण उदीण मागच्छंति | १०. पडीग-उदीमाच्छ उदीचिपाईंगमागच्छति ? हंता गोवमा | जंबुद्वीवे गं दीवे सूरिया उदीणपाईपमुन्गच्छ जाय उदीचि पाईपमागच्छति । ( श० ५1३) श०५, उ० १, ढाल ७४ १ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. रवि ऊगै वलि आथमै, देखणहारा लोग। तेहनी जे बांछा' करी, ते वच कहियै प्रयोग ।। १२. जे मनुष्य नैं अदृश्य थको, दीसै सूर्य जिवार । ते सूर्य ऊगो कहै, जग माहे तिणवार ।। १३. जे नर दृश्य थको रवि, अदृश्य होवे तिवार । सूर्य आथमियो कहै, एम कह युं वृत्तिकार। १४. पिण रवि उदय अस्तपणो, अनियत तास विचार । संचरतो रवि रहै सदा, गमन सर्व दिशि धार ॥ १५. तो पिण तेहना प्रकाश नों, प्रतिनियत थी ताय । रात्रि दिवस नों विभाग ते, खेत्र भेद हिव कहाय ॥ १६. हे भदंत ! जिण काल में, जंबूद्वीप रै मांय । मेरू नामा पर्वत थकी, दक्षिणार्द्ध दिन थाय ॥ १७. तिण काले उत्तरार्द्ध में, दिवस हुवै जगनाथ ! उत्तरार्द्ध जद दिवस ह, पूरव पश्चिम रात ? १८. जिन कहै हंता गोयमा ! वत्ति मांहि इम माग । दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्ध ते, दक्षिण उत्तर भाग ॥ ११. इह चोद्गमनमस्तमयं च द्रष्ट लोकविवक्षयाऽवसेयं । (वृ० प० २०७) १२,१३. येषामदृश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां ते तयोरुद्गमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्ति । (वृ०प० २०७) १४,१५. अनियतावुदयास्तमयौ, इह च सूर्यस्य सर्वतो गमनेऽपि प्रतिनियतत्वात्तत्प्रकाशस्य रात्रिदिवसविभागोऽस्तीति तं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह - (वृ० प० २०७) १६. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे हीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, १७. तया णं उत्तरड्ढेवि दिवसे भवइ जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ? १८. हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे जाव पुरथिम-पच्चत्थिमे णं राई भवई । (श. १४) इह च यद्यपि दक्षिणार्द्ध तथोत्तरार्द्ध इत्युक्तं तथाऽपि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोद्धव्यं, अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् । (वृ०प० २०८) २०,२१. यतो यदि दक्षिणा॰ उत्तरार्द्धं च समग्र एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत । इतश्च दक्षिणा दिशब्देन दक्षिणादिदिग्भागमात्रमेवावसेयं न त्वर्द्ध। (वृ०५०२०८) २२. जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे णं वि दिवसे भवइ, जया णं पच्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरत्थिमे णं दिवसे जाव उत्तर दाहिणे णं राई भवइ। (श० ५।५) २४. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । २५. तया णं उत्तरड्ढे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ; १६. दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्ध ते, जो संपूर्ण अर्द्ध होय । अर्द्ध बिहं ग्रहिवै करी, सर्व क्षेत्र ग्रह्य सोय ॥ २०. दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्ध ए, सर्व विषे दिन थाय । तो पूर्व पश्चिम विषे, रात्रि केम ह ताय? २१. तिण कारण अर्द्ध शब्द नों, भाग अर्थ अवलोय । आदि भाग मात्र दक्षिण नों, पिण पूर्ण अर्द्ध न कोय ॥ २२. हे भदंत ! जिण काल में, जंबूद्वीप रै माय । __ मेरू थी पूर्व दिन हुदै, पश्चिम पिण दिन थाय ॥ २३. पश्चिम विदेह में दिन हुवै, जद मेरू थी ताय । दक्षिण उत्तर निशि हवै ? जिन कहै हंता थाय ॥ २४. हे भदंत ! जिण काल में, जंबूद्वीप मझार । - दक्षिणार्द्ध उत्कृष्ट थी, दिन ह मुहर्त अठार ॥ २५. उत्तरार्द्ध पिण तिण समै, उत्कृष्टो अवधार। अष्टादश मुहूर्त तणो, दिवस हुवै तिणवार ॥ १. विवक्षा। २ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. उत्तरार्द्ध उत्कृष्ट थी, दिन हुवै मुहूर्त अठार । ___जद मेरू थी पूर्व पश्चिम, रात्री मुहूर्त बार ? २६. जया णं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? २७. हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे जाव दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। (श० ५२६) २७. "जिन कहै हंता गोयमा ! तेहन छै इम न्याय । सर्वाभ्यंतर मंडले, उत्कृष्ट दिन कहिवाय ॥ २८. दिवस अठारे मुहूर्त न, दक्षिणार्द्ध कहिवाय । उत्तरार्द्ध पिण एतलं, बे सूरज इण न्याय ।। २६. निशि बारै मुहरत तणी, पूर्व महाविदेह माय । पश्चिम विदेह पिण एतली, बे चंदा इण न्याय ॥" (ज० स०) ३०. दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्ध में, उत्कृष्ट दिन जद होय । तिण काले जंबूद्वीप नां, भाग कीजै दस जोय ॥ ३१. ते दस भागां माहिला, तीन भाग इज जाण । ताप-क्षेत्र इक रवि तणो, पंडित लीजो पिछाण ।। ३२. इम बीजा सूरज तणो, जंबूद्वीप ना तेथ । दस भाग कीज त्यां मांहिला, तीन भाग ताप-खेत ।। ३३. बार-बारै-मुहूरत तणी, निशि पूरव पश्चिमेत । ते दस भागां मांहिला, बेबे भाग निशि खेत ।। ३४. दोय दिवस अरु रात्रि ना, साठ मुहूर्त इम हुंत । ते साठ मुहर्ते रवि, मंडल प्रति पूरंत ॥ ३५. दस भाग कीजै साठ मुहूर्त नां, तीन भागरूप माग। ए उत्कृष्टा दिवस नां, षट् महत इक भाग ।। ३६. रात्रि बारै मुहूर्त नी तदा, दोय भाग रूप देख। दस भाग कीजे साठ मुहूर्त नां, ते मांहिला सुविशेख ॥ ३०,३१. यदाऽपि दक्षिणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति तदाऽपि जम्बूद्वीपस्य दशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं स्यात् । (वृ० प० २०८) ३२,३३. दशभागद्वयमानं च पूर्वपश्चिमयोः प्रत्येक रात्रि-क्षेत्रं स्यात् । (वृ० प० २०८) ३४. षष्ट्या मुहूर्तः किल सुर्यो मण्डलं पूरयति । (वृ० प० २०८) ३५,३६. उत्कृष्टदिनं चाष्टादशभिर्मुहूर्तरुक्तं, अष्टा दश च षष्टेर्दशभागत्रितयरूपा भवन्ति, तथा यदाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा रात्रि - दशमुहर्ता भवति, द्वादश च षष्टेर्दशभागद्वयरूपा भवन्तीति। (वृ०प०२०८) ३७. सर्वलघौ च दिवसे तापक्षेत्रमनन्तरोक्तरात्रिक्षेत्रतुल्यं रात्रिक्षेत्रं त्वनन्तरोक्ततापक्षेत्रतुल्यमिति । (वृ०प० २०९) ३८. (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्खार ७ सम्पूर्ण) ३७ तथा लघु दिन नै विषे, दोय भाग ताप खेत । तीन भाग रात्रि-खेत्र छै, इक रवि आश्री एथ ॥ ३८ एहनों बहु विस्तार छै, जंबूद्वीपपन्नती माय । पिण प्रस्ताव थकी इहां, संक्षेपे कह्य ताय॥ ३६. हे भदंत! जिण काल में, जंबूद्वीप मझार । __ मेरू थी पूर्व पश्चिमे, दिन हुवै मुहूर्त अठार ॥ ४०. तिण काले जंबूद्वीप में, उत्तर दक्षिण मांय । जघन्य निशा बारै मुहर्त नी ? जिन कहै हंता थाय ।। ४१. मास आषाढ ह भरत में, महाविदेह पिण तेह। मास आषाढ सुजाणवू, कह युं धर्मसी एह ।। १. देखें प० सं०२ ३६. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे वि उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं पच्चत्थिमे णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरदाहिणे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ? हंता गोयमा ! जाव भवइ । (श०१७) श० ५, उ० १, ढाल ७४ । Jain Education Intemational Education International Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. कर्क संक्रांति प्रथम दिने, सर्वाभ्यंतर भाण । _ 'युग में कोइक" आसाढ नीं, पूनम तेह पिछाण ॥ ४३. हे भदंत ! जिण काल में, जंबूद्वीप मझार । मेरू थी दक्षिण दिन हवै, ऊणो मुहर्त अठार ॥ ४४. उत्तर दिशि पिण एतलु होवै दिवस तिवार। पूरव पश्चिम निशि हुवै, जाझी मुहूर्त बार? ४३. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारस मुहताणतरे दिवसे भवइ । ४४. तया णं उत्तरड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं साइरेगा दुवालसमुहत्ता राई भवइ? ४५. हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे जाव राई भवइ । (श० ५८) ४५. जिन कहै हंता गोयमा ! एहनुं न्याय पिछाण । सर्वाभ्यन्तर मंडल थकी, दूजे मंडल भाण ॥ ४६. कर्क संक्रांति दूजे दिने, दूजे मंडल भाण । युग में कोइक श्रावण तणी, विद एकम ए जाण ॥ ४७. भाग इकसठ एक मुहूर्त नां, दिवस घटै बे-बे भाग। बे-बे भाग वधै निशा, इक-इक मंडल माग । ४८. हे भदंत ! जिण काल में, मेरू थी पूरव मांय । ___ अठार मुहूर्त ऊणो दिन हुवै, इतलो पश्चिम थाय ॥ ४६. अठार महूर्त ऊणो पश्चिमे, दक्षिण उत्तर ताम। बार मुहूर्त जाझी निशा ? जिन कहै हंता आम ॥ ४७. यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्तते सूर्य स्तदा मुहूर्तंकषष्टिभागद्वयहीनाष्टादश मुहूर्तो दिवसो भवति .....राइ त्ति द्वाभ्यां मुहूर्तंकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्ता राई भवइ ।। (वृ० प० २०६) ४८, जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमे णं अट्ठारसमुदत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भव; जया णं पच्चत्थिमे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं साइरेगा दुवालसमुहत्ता राई भवइ? हंता गोयमा ! जाय भवइ। (श० शह) ५०. एवं एएणं कमेणं ओसारेयव्वं - सत्तरसमुहत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलादारभ्यकत्रिंशत्तममण्डलार्द्ध यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहूर्ता च रात्रिरिति । (वृ० प० २०६) ५०. इम अनुक्रम करि आखवू, सतरै मुहूर्त दिन्न । तेरै महत रात्रि छै, इकतीसम मंडल जन्न ॥ ५१. बीजा मंडल थी जदा, इकतीसम अर्द्धह । सतरै महत दिन है तदा, तेर महत निशि जेह ।। ५२. "सर्वाभ्यंतर मंडले, दिन ह महर्त्त अठार। द्वादश मुहूर्त ह निशा, हिव आगल सुविचार ॥ ५३. भाग इकसठ इक महतं ना, बीज मंडले जाण । दिन अष्टादश मुहूर्त में, दोय भाग दिन हाण ॥ ५४. इकतीसम मंडलार्द्ध में, सतरै महत दिन जाण । तेर मुहूर्त निशा 8 तदा, बे-बे भाग नी हाण ॥ १. किसी युग में। ४ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. बीजा मंडल नै विषे, दोय भाग दिन हाण । च्यार भाग तीजे मंडले, इम प्रति मंडल जाण ॥" (ज० स०) ५६. सतरे मुहूर्त थी अनंतरे, दिवस हुवै छै जेह। तेर मुहूर्त जाझी निशा, बतीसमें अद्धेह ॥ ५७ सोल मुहूर्त दिन ह जदा, चवद मुहूर्त निशि होय । इकसठमा मंडल विषे, बीजा मंडल थी जोय ॥ ५८. बे भाग ऊणो सोल मुहूर्त नों, दिवस हुवै छै जेह। चौदह मुहूर्त जाझी निशा, बासठमे मंडलेह ॥ ५६. पनर मुहूर्त दिन हुवै जदा, पनर मुहूर्त तब रात । बाणूमां मंडलार्द्ध में, दूजा मंडल थी थात ॥ ६० ऊणो पनर मुहूर्त दिन हुवै, पनर मुहूर्त जाझी तेह । रात्रि हुवै तिण अवसरे, साढा बाणूमे मंडलेह ।। ६१. चवद मुहूर्त दिन हुवै जदा, सोल मुहूर्त निशि न्हाल । इक सो बावीस मंडले, बीजा मंडल थी भाल । ६२. चवदै महत ऊणो दिन हुवै, सोलै मुहूर्त जाझी रात । इक सौ तेवीसमे मंडले, दूजा मंडल थी ख्यात ॥ ६३. तेर महत नो दिन जदा, सतरै महूर्त निशि मान । इक सौ साढा बावन में, दूजा मंडल थी जान ।। ५६. सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा तेरसमुहत्ता राई। अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्द्ध भवति । (वृ० प० २०९) ५७. सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहुत्ता राई । द्वितीयादारभ्यकषष्टितममण्डले। (वृ० प० २०६) ५८. सोलसमुहृत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा चउद्दसमुहत्ता राई। ५६. पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई । द्विनवतितम-मण्डलार्द्ध वर्तमाने सूर्ये । (वृ० प० २०६) ६०. पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा पण्णरस मुहुत्ता राई। ६१. चोद्दसमुहुत्ते दिवसे, सोलसमुहुत्ता राई । द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले। (वृ० प० २०६) ६२. चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा सोलसमुहुत्ता राई। ६३. तेरसमुहृत्ते दिवसे, सत्तरसमुहुत्ता राई। सार्द्धद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे मण्डले। (वृ० प० २०६) ६४. तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे, साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई। (श० १०) ६५. 'बारसमुहत्ते दिवसे'त्ति त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्य इत्यर्थः । (वृ० प० २०९) ६४. तेरै मुहूर्त ऊणो दिन जदा, सतरै मुहूर्त जाझो रात । इकसौ साढातेपनमे मंडले, दूजा मंडल थी थात ॥ ६५. बारै मुहूर्त नों दिन जदा, निशि हुवै मुहूर्त अठार । इकसौ तयांसीमे मंडले, बीजा मंडल थी धार ॥ ६६. दूजा मंडल थी सहु, कहिवं एह विचार । संख्या ए मंडल तणी, वृत्ति तणे अनुसार ॥ ६७. जंबू दक्षिणार्द्ध विषे जदा, जघन्य बारै महुर्त दिन्न । तिण काले उत्तरार्द्ध में, बार महूर्त रवि जन्न ।। ६८. उत्तरार्द्ध दिन बारै मुहर्त है, मेरू थकी तिवार। पूर्व पश्चिम उत्कृष्ट थी, निशि ह मुहूर्त अठार ? ६७. जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे वि, जया णं उत्तरड्ढे , तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ? हंता गोयमा! एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव राई भवइ। (श०५।११) ७०. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरत्थिमे णं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे ण वि; ६६. ६६. जिन कहै हंता गोयमा! निश्चै करिनै एह । उच्चार छै जाव ही, निशि उत्कृष्ट ह तेह ॥ ७०. हे भदंत ! जिण काल में, जंबू पूरव मांय। जघन्य दिवस बारे मुहूत्तं है, तब पश्चिम जघन्य थाय॥ श० ५, उ० १, ढाल ७४ ५ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. जद पश्चिम जपन्य दिवस हवे, दक्षिण निशि उत्कृष्ट अठार नीं ? जिन कहै ७२. हे भदंत जिण काल में दक्षिणा चउमास नुं प्रथम ७३. उत्तरार्द्धं वर्षा काल नुं प्रथम जंबूद्वीप रे मांय । समय परिवज्जाय ।। समय पवित प्रथम समय वर्षा काल नुं, उत्तरार्द्धे जद हुत ॥ ७४. तब जंत्र मंदर थकी, पूरब पश्चिम मांय प्रथम समय वर्षा काल नुं, समय आगमिय थाय ? ७५. जिन कहै हंता गोयमा ! दक्षिण उत्तर थी पर्छ, उत्तर देख हंता पेख ॥ 1 ७७. पश्चिम तब वर्षा काल ७६. हे भदंत ! जिण काल में, जंबूद्वीप रे मांय । मेथी पूरव दिशे धुर समय वर्षा नुं भाय ॥ नुं प्रथम समय पडिवत । वर्षात नुं घर समय जे पश्चिम दिशि जद हूंत ॥ ७८. तब जंबू मंदर थकी, उत्तर दक्षिण मांय । प्रथम समय वर्षा काल नुं, समय अतीत कहाय ? 1 धूर समय वर्षा नुं ताय । पडिवज्जै विदेह मांय ॥ ७६. जिन कहै हंता गोयमा! घर समय वर्षा नुं थाय । विदेह थकी पहिला पडिवज्जै, दक्षिण उत्तर मांय ॥ ८२. मुहतं तीस तणुं का पनरे दिवस रात्रि तणुं, ३. मज वे पक्षे मास ए सह नों कहियूँ सही ८०. प्रथम समय वर्षा काल नुं, जिम भाख्यो छै तेम । भणिवूं आवलिका भणी, सास उस्सास पिन एम ॥ ८१. सात उस्सास निःस्वास नुं धोव एक इम पेस । सप्त धोये इक लब का सितंबर जब मुहूतं एक ॥। अहोरात्र इक मान पक्ष एक इम जान ॥ मे मासे ऋतु एम समय आसावो जैम ।। ८४. हे भदंत ! जिण काल में, जंबू दक्षिण मांय । हेमंत ते सीयाला तणुं, प्रथम समय पडिवज्जाय ।। ८५. जिम का चउमासा तणुं सीयाला नुं तेम ग्रीष्म ना ए पिण दसूं भणिवा समया जैम ॥ ६ भगवती-जोड़ ७१. जया णं पच्चत्थिमे, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तर वाहिणे पं उस्कोसिया अद्वारसमुहत्ता राई भवइ ? हंता गोयमा ! जाव राई भवइ । (०२१२) ७२. जया मते जंबुवेदीने दाहिगडेवासा पढमे समए पडिवज्जइ; ७३, ७४. तया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं उत्तरड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थम-पचणं अतरपुडे समयसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ ? ७५. हंता गोया ! जय गं जंबुद्वीवे दीने दागि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तह चेव जाव पडिवज्जइ; ( श० ५1१३ ) ७६. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थमेवासा पहले समए परिव ७७,७८. तया णं पच्चत्थिमे ण वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं पच्चत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर दाहिणे णं अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवन्ते भवइ ? ७६. हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव पडिवन्ने भवइ । (०५।१४) ८० एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं तहा आवलियाएव भाणियव्वो । आणापाणूणवि ८१. थोवेर्णावि, लवेणवि, मुहुत्तेणवि, ८२. अोरतेवि पवि " स्तोकः सप्तप्राणप्रमाणः लवस्तु- सप्तस्तोकरूपः मुहूर्तः पुनवसप्तसप्ततिप्रमाणः । ( वृ० प० २११) ८३. मासेवि, उऊणवि एएसि ससि जहा समयस्व अभिलावा तहा भाणियव्वो । (श० ५।१५) ऋतुस्तु मासद्वयमानः । ( वृ० प० २११ ) ८४. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिण ताणं पढने समए परिव ८. जब वासा अभिलायो तब हेमंताणं वि, गिम्हाय वि भाणियव्वो । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. जाव ऋतु लग जाणवा, तीनूं काल ना एह । भणवा तोस आलावगा, इक इक ना दस जेह ॥ ८७. दक्षिण नें उत्तर विषे, दिन हुवै मुहूर्त्त अठार | तीन मुहूर्त दिन पाछिले, विदेह प्रकाश तिवार ।। ८८ ते वेला थी विदेह में कहिये दिवस जिवार मुहूर्त्त तीन पर्छ इहां, कहियै रात्रि १. ते रात्रि बारे मुहूर्त नो पहला मुहुर्त एवं पनरै मुहूर्त्त थया, महाविदेह में ६०. शेष तीन मुहूर्त जोइये, तेहनों निसुणो तीन मुहूर्त पर्छ दक्षिण उत्तरे दिन ऊ ११. पुरला तोन मुहूर्त लगे, महाविदेह रे दिवस प्रकाश रहे अर्थ विमल विचारो १२. पन नेत्रि महूर्त नो अष्टादश इम लीह । उत्कृष्टो दिन विदेह में एम का धर्मसोह || ६३. महाविदेह खेत्र थकी, भरत एरवत मांय । परं मुहूर्त पहिला तदा वर्ष लागतो जणाय ।। ६४. समय नाम इहां आखियो, तेहनों छै इम न्याय । कितलाइक मुहूर्त पहर में समय कहोजे ताय ॥ ५. इम दक्षिण उत्तर विषे, पूरव पश्चिम तास । घट वृद्धि दिन निशि मुहूर्त्त नीं, जथाजोग सहु मास ।। ९६. सर्वाभ्यंतर मंडल थकी, बाह्य मंडल रवि जाय । दिन घटतो जावं तदा रात्रि बुद्धि ताय ॥ १७. वाहिरला मंडल थकी, रवि अभ्यंतर आय । मंडल मंडल दिन बृद्धि, रात्रि घटती जाय ।। ६८. सर्वाभ्यंतर मंडले, मंडले, पूनम जसाठी पेख । 2 सर्व बाह्य पोसी पूनमें नय ववहारे देख ॥ ६६. पंच वर्ष ना युग मध्ये, पोस आषाढ को एक । तेहनी पूनम दिने, जघन्य उत्कृष्ट दिन देख ॥ १००. कर्क संक्रांति प्रथम दिने, सर्वाभ्यंतर भाण । तिवार ।। तोन । लीन ।। न्याय । ताय ।। मांय । न्याय ।। अष्टादश मुहूर्त्त तणो, दिवस तदा पहिछाण ॥ १०१. मकर संक्रांति प्रथम दिने, सर्व बाह्य मंडल भाण । द्वादश महतो हुवे दिवस तदा पहिचाण । १०२. देश अंक एकावन तगं प्यार सितरमी डाल भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जय' मंगलमाल ॥ ८६. जाव उऊए। एवं तिण्णि वि । एएसि तीसं आलावगा भाणियव्वा । ( ० २०१६) श०५, उ० १, ढाल ७४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ७५ हा १. हे भदंत जिण काल में मेरू वी दक्षिण दिशे प्रथम अयन २. प्रथम विभागज अपन नों, संवत श्रावण आदि । ए श्रावण युग नों कोइक, दक्षिणायन कर्कादि ॥ ३. मकरादि उत्तरायण, ह तणी पेक्षाय । पहिला दक्षिण अयन चे धुर विभाग तसुं ताय ॥ ४. दक्षिण दिशि दक्षिणायन, तब उत्तरार्द्धे ताम । प्रथम अयन ते पडिवज्जे, ए पूछा अभिराम ॥ ५. जेम समय तिम अयन पिण, जाव दक्षिण उत्तरेह । दक्षिणायन पहिला हुने विदेहक्षेत्र थी लेह ॥ जंबूद्वीप रे मांय । पडियज्जाय ॥ ६. जेम अयन तिम वरष पिण, पंच वर्ष युग एक । दक्षिण उत्तर साथ ह्र प्रथम विदेह थी पेख ॥ ७. हम सौ वर्ष संघात पिण, सहस्र वर्ष पिण एम लाख वर्ष कहिवूं इमज पूर्व भास्यूं तेम ॥ *वीर कहे गुण गोवमा ( ध पदं ) , ८. चउरासी लाख वर्ष बलि, ए पूरव नो अंगो रे । तेहने चउरासी लाख गुणा कियां, पूरव एक सुचंगो रे ॥ ९. वर्ष सित्तर लक्ष कोट है, ऊपर छपन सहस्र कोदो । पूरव एक कह्यो तसुं चिहुं अंक बिंदु दस जोड़ो || १०. पूर्वे पूर्व कह्यो तसुं वर्ष बउरासी लक्ष गुणीजे । एक तुटित नों अंग ए, पट अंक पनरं बिंदु लीजे ॥ ११. एह तुटित ना अंग ने वर्ष चोरासौ लक्ष गणीजे । तुटित कहीजे तेहनें, अंक आठ बिंदु बीस लीजै । १२. पूर्वे तुटित को तसुं वर्ष चोरासी लक्ष गुणीजे । एक अडड नों अंग ते, अंक दस बिंदु पणवीस लीजै ॥ १३. एक अडट ना अंग ने वर्ष चोरासी लक्ष गणीजं । rss कहीजे तेहनें, अंक बारे बिंदु तीस लीजै ॥ १४. पूर्व अडकलो तसुं वर्ष चोरासी लक्ष गणीजं । एक अवव नों अंग छे अंक चवदे बिंदु ती लीजं ॥ *लयः सल कोइ मत राखज्यो ८ भगवती-जोड़ १. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिडे पढने अपणे पडिव । २. दक्षिणायनं श्रावणादित्वात्संवत्सरस्य । ४. तया णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ, २. जहा समए अभितायो तव अपणेण वि भाषियव्वो जाव अनंतरपच्छाकड़समयंसि पढमे अयणे पडिवन्ते भवइ । ( श० ५।१७ ) ६. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि प्राणियो। एमवि युगं पंचसंवत्सरमानं ( वृ० प० २११ ) ७. वाससएण वि, वाससहस्सेण वि, वाससयस हस्सेण वि. fa, ८. पुव्वंगेण वि, पुवेण वि, पूर्वाङ्ग चतुरशीतिर्वर्षलक्षाणां पूर्व पूर्वाङ्गमेव चतुरशीतिवर्ष नितं । ( वृ० प० २११ ) १०. तुडियंगेण वि ११. तुडिएण वि १२. १२. डडे ( वृ० प० २११) १४. अववंगे, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. अववे, १६. हूहूयंगे, १७. हूहूए, १८. उप्पलंगे, १९. उप्पले, २०. पउमंगे, २१. पउमे, २२. नलिणंगे, २३. नलिणे, २४. अत्थणिउरंगे, १५. एह अवव ना अंग नैं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणीजै । एक अवव कहिये तसुं, अंक सौल बिंदु चाली लीजै ॥ पूर्वे अवव कह्यो तसं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक हुहूक नों अंग छ, अंक अठारै पैंताली बिंदु ॥ १७. एह हुहूक ना अंग नैं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक हुहुक कहिये तसुं, अंक वीस पचास है बिंदु । १८. पूर्वे हूहूक कह्यो तसुं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक उत्पल नों अंग छै, अंक बावीस पचपन बिंदु । १६. एह उत्पल ना अंग नै, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक उत्पल कहिये तस, अंक चोवीस साठ है बिंदु । २०. पूर्वे उत्पल कह्यो तसुं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक पद्म नों अंग छै, अंक छबीस पैंसठ बिंदु ॥ २१. एह पद्म ना अंग नैं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक पद्म कहिये तसु, अंक सतावीस सित्तर बिंदु ॥ २२. पूर्वे पद्म कह्यो तसु, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक नलिन नों अंग छै, अंक गणतीस पचंतर बिंदु ॥ २३. एह नलिन ना अंग नै, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक नलिन कहियै तसं, अंक इकतीस अस्सी बिदु ॥ २४. पूर्वे नलिन कह्यो तसुं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । इक अर्थ निपुर नों अंग छै, अंक तेतीस पच्यासी बिंदु । २५. ए अर्थ निपुर ना अंग नैं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । इक अर्थ निपुर कहियै तसु अंक पैंतीस नेउ बिंदु ॥ २६. अर्थ निपुर कह्यो तसु, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक अयुत नों अंग छै, अंक सैंतीस पचाणू बिंदु । २७. एह अयुत ना अंग ने, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक अयुत कहिये तसु, अंक गण चालीस सौ बिंदु ॥ २८. पूर्वे अयुत कह्यो तस्, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक नयुत नों अंग छै, अंक इकताली इकसौ पंच बिंदु ।। २६. एह नयुत ना अंग ने, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक नयुत कहियै तसु, अंक तयांली इकसौ दस बिंदु ।। ३०. पूर्वे नयुत कह्यो तसु, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक प्रयुत नों अंग छै, अंक पैंताली इकसौ पनर बिंदु ॥ ३१. एह प्रयुत ना अंग नैं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक प्रयुत कहियै तसुं, अंक सैंताली इकसौ बीस बिंदु । ३२. पूर्वे प्रयुत कह्यो तसुं, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक चलिका नों अंग छै, अंक गणपचा सवासौ बिंदु ॥ ३३. एह चुलिका ना अंग ने, वर्ष चउरासी लक्ष गुणिदु । एक चूलिका कहिये तसुं, अंक एकावन इकसौ तीस बिंदु ॥ २५. अत्थणिउरे, २६. अउयंगे, २७. अउए, २८. णउयंगे, २६. णउए, ३०. पउयंगे, ३१. पउए, ३२. चूलियंगे, ३३. चूलिया, श०५, उ०1, ढाल ७५ ९ Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. सीसपहेलियंगे, ३५. सीसपहेलिया-- ३४. एह चलिका तेहनें, वर्ष चउरासी लक्ष गणिदु । सीसपहेलिका - अंग छै, अंक बावन इकसौ पैंती बिंदु । ३५. ए सीसपहेलिका ना अंग नै, वर्ष चउरासी लक्ष गणिदु । सीसपहेलिका कहिये तसं, अंक चोपन इकसौ चाली बिंदू ।। ३६. अंक बीच बिंदु जेह छै, ते तो अंकां माहै गणिया । बिंदु सर्व अंक ऊपरै, छेहडे बिंदु में थणिया ।। ३७. इमज पल्योपम पिण हुवै, सागरोपम पिण एमो । दस कोडाकोड जे पल्य तणं, सागर कहिये तेमो॥ ३८. हे भदंत ! जिण काल में, जंबू दक्षिण दिशि मांह्यो । पहिला अवसर्पिणी पडिवज्जे, उत्तर पिण जद थायो । ३६. सर्व भाव घटता जाय तेहन, अवसर्पिणी कहिवायो । तेहनोंज पहिलो विभाग छ, ते प्रथमा अवसर्पिणी तायो । ४०. उत्तर दिशि मांहे जदा, प्रथमा अवसर्पिणी थायो । पूर्व पश्चिम में तदा, अवसर्प उत्सर्पिणी नायो । ३७. पलिओवमेण, सागरोवमेण वि भाणियन्वो । (श० ५।१८) ३८. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे पढमा ओस प्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ; ३६. अवसर्पयति भावानित्येवंशीला अवप्पिणी तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसप्पिणी। (वृ० प० २११) ४०. जया णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पच्च त्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी; ४१. अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ? ४१. अवस्थित ते सदा सारिखो, काल तिहां कहिवायो । हे आउखावंत! श्रमण! प्रभ! इम पूछ्ये कहै जिन वायो। ४२. जिन कहै हंता गोयमा ! तिमहिज पाठ उचरिवू । जाव श्रमण आयुष्मन् लगै, कहि शंक न धरिवू । ४३. जिह विध एह कह्यो अछ, अवसर्पिणी नों आलावो । तिमहिज उत्सर्पिणी तणो, तिण में बधता जावै भावो । ४४. हे प्रभु ! लवण समुद्र में, ऊगै रवि ईशाणो । अग्निकूण में आथमै, पूरववत् पहिछाणो । ४५. कही जंबू नीं वक्तव्यता जिका, तिका लवणसमुद्र नी भणवी। ___णवरं एणे आलावे करी, सर्व आलावे थुणवी ॥ ४२. हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो। (श० ५।१६) ४३. जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियव्वो। (श० ५।२०) ४४. लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छति । ४५. जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया सच्चेव सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुदस्स वि भाणियब्बा, नवरं अभिलावो इमो जाणियम्वो। (श० ५।२१) ४६. जया णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तं चेव जाव तदा णं लवणसमुद्दे पुरथिम-पच्चत्थिमे णं राई भवति । (श० ५।२२) ४७. एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव ४६. हे प्रभ ! लवणसमुद्र में, जद दक्षिण दिशि दिन होयो । तिम जाव तदा लवणोदधि, निशि पूर्व पश्चिम जोयो । ४७. इम एणे आलावे करी, सर्व आलावा कहिवा । अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, छहलू तसं इम लहिवा ॥ ४८. प्रभु! लवणसमुद्र विषे जदा, अवसर्पिणी नुं प्रथम विभागो। दक्षिण भाग विषे हुवै, तदा उत्तर भागे पिण लागो। ४६. उत्तर भाग विषे जदा अवसर्पिणी नुं प्रथम विभागो। पूर्व पश्चिम लवण तदा नहीं, अव-उत्सर्पिणी मागो॥ ४८. जया णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ; ४६. जया णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडवज्जिइ, तया णं लवणसमुद्दे पुरथिम-पच्चत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवस्थि उस्सप्पिणी अवदिए णं तत्थ काले पण्णत्ते १. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. श्रमण ! आयुष्मन् ! हे प्रभु ! इम पूछ चित शंतो । जिन कहै हंता गोयमा ! जाव श्रमण ! आउष्मंतो ! ५१. धातकीखंड द्वीपे प्रभु ! ऊगै रवि ईशाणो । अग्निकूण में आथम, पूरववत् पहिछाणो ।। ५२. कही जंबू नी वारता, तिका धातकीखंड नी भणवी । ___णवरं एणे आलावे करी, सर्व आलावे थणवी । ५३. प्रभ ! धातकीखंड द्वीपे जदा, दक्षिणाई दिन होयो । तब उत्तर भाग विषे तदा, दिवस हुवै छै सोयो । ५४. उत्तराद्ध दिन ह तदा, बे मेरू थी धातकीखंडे । पूर्व पश्चिम निशि हुवै ? हंता जिन बच मंडे ॥ ५०. समणाउस्सो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो॥ (श० ५।२३) ५१. धायइसंडे णं भंते! दीवे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति, ५२. जहेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया सच्चेव धाय इसंडस्स वि भाणियन्वा नवरं--इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा। (श० ५/२४) ५३. जया णं भंते ! धाय इसंडे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ तदा णं उत्तरड्ढे वि; ५४. जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ ? हंता गोयमा ! एवं चेव जाव राई भवइ । (श०५/२५) ५५. जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे मंदराणं पध्वयाणं पुरत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे ण वि; ५६. जया णं पच्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तयाणं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तर-दाहिणे णं राई भवइ? हंता गोयमा ! जाव भवइ । (श०५/२६) ५७. एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव ५५. धातकीखंड द्वोपे प्रभ ! बेह मेरू थी पहिछाणी । पूर्व दिशि दिन हवै जदा, तब पश्चिम पिण दिन जाणी॥ ५६. पश्चिम दिवस हवै जदा, बे मेरू थी धातकीखंडे । उत्तर दक्षिण निशि हुवै ? हंता जिन वच मंडे ॥ ५७. इम एणे आलावे करी, सर्व आलावा कहिवा । अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, छेहलू तसुं इम लहिवा॥ ५८. जाव जदा प्रभु ! धातकी, तेहने दक्षिण भागे । हवै प्रथम भाग अवसर्पिणी, तब उत्तर भागे पिण लागे॥ ५६. उत्तर भाग विषे जदा. अवसर्पिणी नुं प्रथम विभागो । पूर्व पश्चिम धातकी नहीं, अव-उत्सर्पिणी नु मागो।। ६०. जाव श्रमण ! आउखावंत ! ए, इम पूछ चित शंतो। जिन कहै हंता गोयमा ! जाव श्रमण ! आउखावंतो! ६१. जिम लवणसमद्र नी वार्ता, तिम कालोदधि पिण भणवी। णवरं कालोदधि नाम ले, विध सर्व आलावे थणवी॥ ६२. अभ्यंतर पुक्खरार्द्ध विषे, प्रभ! ऊगै रवि ईशाणो। जिम धातकीखंड नी वारता, तिम अभ्यंतर पुस्करार्द्ध नी जाणो।। ६३. णवरं एतो विशेष छै, अभ्यंतर पुक्खरार्द्ध - ताह्यो । नाम लेइ भणवू अछ, एह आलावे माह्यो ।। ६४. जाव तदा अभ्यंतरे, पुस्कराई विषे कहाई । मेरू थी पूर्व पश्चिमे, अव-उत्सर्पिणी नाही ।। ६५. सदा काल एक सारिखो, हे श्रमण ! आउखावंतो! गोतम स्वाम तदा कहै, सेवं भंते ! सेवं भंतो! ६६. पंचम शतक उदेश पहिलो कह्यो, पीचंतरमी ढालो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशालो ।। पंचमशते प्रथमोहेशकार्थः॥५/१॥ ५८. जया णं भंते ! दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी तया णं उत्तरड्ढे वि; ५६. जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिम-पच्चत्थिमे णं नत्थि ओसप्पिणी ६०. जाव समणाउसो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो। (श० ५/२७) ६१. जहा लवणसमुद्दस्स वत्तव्वया तहा कालोदस्स वि भाणियब्वा, नवरं-कालोदस्स नामं भाणियव्वं । (श० ५/२८) ६२. अन्भितरपुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया उदीण-पाईण मुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति, जहेव धायइसंडस्स वत्तब्वया तहेव अभितरपुक्खरद्धस्स वि भाणियब्वा, ६३. नवरं-अभिलावो जाणियव्वो ६४. जाव तया णं अभितरपुक्खरद्ध मंदराणं पूरस्थिम पच्चत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्स प्पिणी, ६५. अवदिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ५/२६,३०) श०५, उ०१, डाल ७५ ११ Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ७६ १. प्रथम उद्देशके दिक्षु दिवसादिविभाग उक्तः, द्वितीये तु तास्वेव वातं प्रतिपिपादयिषुतिभेदांस्तावदभिधातुमाह (वृ० प० २११) २. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी दूहा १. प्रथम उदेशे दिशि विषे, दिनादि विभाग ताय । ते दिशि विषेज वायु छ, ते वायु भेद कहिवाय ॥ २. नगर राजगृह नैं विषे, जावत् गोतम स्वाम । विनय करी प्रभु वीर नैं, इम बोल्या गुण धाम ॥ * प्रभुजी ! धिन धिन आपरो ज्ञान ।। (ध्रुपदं) ३. हे भगवंत ! छै वायरो जो, थोडा सा तेह सहीत । ईसि पूरेवाया पाठ नों जो, अर्थ कियो इह रीत ॥ ४. हितकारी वनस्पति भणी, ते पथ्य-वाय वाजंत । मंद-वाय महा-वाय छै? हंता जिन वच तंत ॥ ५. मेरू थी पूर्व दिशि विषे प्रभु ! थोडा सा तेह सहीत । वाजै पथ्य मंद महावाय छै ? जिन वच हंता प्रतीत ॥ ६. इमहिज पश्चिम नै विषे, दक्षिण उत्तर एम । ईशाण अग्नि नैऋत विषे, वायवकूणे तेम। ७. पूरवदिशि विषे जदा प्रभु ! अल्प स्नेह सहीत वाय । वाजे पथ्य मंद महावायरो, तब पश्चिम पिण चिउं थाय । ३. अत्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाया मनाक् सत्रहवाता: (वृ०५० २१२) ४. पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति? हंता अत्थि । (श० ५/३१) पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः (वृ० प० २१२) ५. अत्थि णं भंते ! पुरत्थिमे णं ईसि पुरेवाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति ? हंता अस्थि । (श०५/३२) ६. एवं पच्चत्थिमे णं, दाहिणे णं, उत्तरेणं उत्तर पुरथिमे णं, दाहिण-पच्चत्थिमे णं, दाहिणपुरस्थिमे णं, उत्तर-पच्चत्थिमे णं । (श० ५/३३) ७. जया णं भंते! पुरत्थिमे णं ईसि पुरेवाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति, तया णं पच्चत्थिमे णं वि ईसिं पुरेवाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति। ८. जया णं पच्चत्थिमे णं ईसि पुरेवाया पत्थावाया मंदा वाया महावाया वायंति, तया णं पुरत्थिमे ण वि ? हंता गोयमा ! (श० ५/३४) ६. एवं दिसासु विदिसासु (श० ५/३५) इह च द्वे दिक्सूत्रे द्वे विदिक्सूत्रे इति (वृ०प० २१२) १०. अत्थि णं भंते ! दीविच्चया ईसि पुरेवाया ? हता अस्थि । (श० ५/३६) ११. अत्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसि पुरेवाया? हंता अत्थि। (श० ५/३७) १२. जया णं भंते ! दीविच्चया ईसि पुरेवाया, तया णं सामुद्दया वि ईसि पुरेवाया, ८. पश्चिम दिशि विषे जदा, बाज थोडा तेह सहित वाय । तब पूरव पिण चिउं हुवै ? जिन कहै हंता थाय ॥ है. एवं दिशा विदिशा विषे, दिशि ना बे सूत्र कहाय । ___ दोय सूत्र छै विदिशि ना, हिव प्रकारंतरे वाय ॥ १०. छै प्रभ ! द्वीप संबंधिया, बाजै थोडा तेह सहित वाय । पथ्य मंद महा अर्थ में? जिन कहै हंता थाय ॥ ११. छै प्रभ! समद्र संबंधिया, बाजै अल्प तेह सहित वाय । पथ्य मंद महा अर्थ में? जिन कहै हंता थाय ॥ १२. चिउं वायु द्वीप संबंधिया प्रभ! जिण काले बाजंत । तिण काले उदधि संबंधिया पिण, च्यारूंइ वायरा हंत॥ *लय : इण साधां रा मेष में...... १२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. चिउं वायु समुद्र संबंधिया, जिण काले बाजंत । द्वीप संबंधिया वायरा पिण, तिण काले चिउं हत? १४. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, प्रभ! किण अर्थे इम वाय ? द्वीप समुद्र ना वायरा, समकाले नहिं थाय ॥ १३. जया णं सामुद्दया ईसि पुरेवाया, तया णं दीविच्चया वि ईसि पुरेवाया? १४. णो इणठे समठे। (श० ५/३८) से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-जया णं दीविच्चया ईसि पुरेवाया, णो णं तया सामुद्दया ईसि पुरेवाया, जया णं सामुद्दया ईसि पुरेवाया, णो णं तया दीवि च्चया ईसि पुरेवाया ? १५. गोयमा ! तेसि णं वायाणं अण्णमण्णविवच्चासेणं लवणसमुद्दे वेलं नाइक्कमइ । १६. तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद्वेलायास्तथास्वभावत्वाच्चेति । (वृ० प० २१२) १७. से तेणठेणं जाव णो णं तया दीविच्चया ईसि पुरेवाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायति । (श० ५/३६) १६. तथानितथाविध स्वभाना, वायु समकाला थी जोय ।। १५. जिन कहै ते वायरा तणे, विपरीतपणों माहोमांहि । तिण सं लवणसमुद्र नी वेल नैं, अतिक्रमै नहिं ताहि ॥ १६. तथाविध वाय द्रव्य ना, समर्थपणां थी कहाय । वेल ना तथाविध स्वभाव थी, तथा लोक ना स्वभाव थी ताय ।। १७. तिण अर्थे द्वीप उदधि ना, वायु समकाले नहिं होय । अक्षरार्थ ए आखियो, तथा वृत्ति टबा थी जोय ॥ १८. धर्मसीह कह्यो द्वीप में विष, वायु जे बाजतो होय । ते समद्र विषे आवै नहीं, तसं परमारथ जोय ॥ १६. द्वीप नो वायु समुद्र नी, वेल अतिक्रमै नांहि । धर्मसीह कृत ते यंत्र छै, एह अर्थ तिण मांहि ॥ २०. हिवै वायु नो बाजवो, तेहना छै तीन प्रकार । त्रिण सूत्र त्रिण भेदे करी, कहियै ते अधिकार ॥ २१. हे भगवंत ! वायू अछ, थोडा सा तेह सहीत । बाजै पथ्य मंद महा वायरो? जिन कहै हंता प्रतीत ॥ २२. ए चिह वायु बाजे कदा प्रभु ! जिन कहै वाऊकाय । स्वभाव गति करि चालतां, बाजै च्यारूं वाय ॥ २३. हे भगवंत ! वाय अछ, थोडा सा तेह सहीत । बाजै पथ्य मंद महा वायरो? जिन कहै हंता प्रतीत ॥ २४. ए चिहु वायु बाजे कदा प्रभु ! जिन कहै वाऊकाय । उत्तर-क्रिया गति चालतां, बाजे च्यारूं वाय ॥ २१. अत्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति ? हंता अस्थि । (श० ५/४०) २२. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया जाव वायंति ? गोयमा! जया णं वाउयाए अहारियं रियति, तया णं ईसि पुरेवाया जाव वायंति । (श० ५/४१) २३. अत्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाया ? हंता अत्थि । (श० ५/४२) २४. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, तया णं ईसिं पुरेवाया जाव वायंति । (श०५/४३) २५. वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं तु वैक्रिय मत उत्तर-उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियं । (वृ०प० २१२) २६. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया ? हंता अत्थि। (श०५/४४) २७. कया णं भंते ! ईसि पुरेवाया पत्था वाया ? गोयमा ! जया णं वाउकुमारा, वाउकुमारीओ वा २८. अप्पणो परस्स वा तदुभयस्स वा अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति तया णं ईसि पुरवाया जाव वायंति । (श०५/४५) २५. ऊदारीक तसुं मूलगो, वैक्रिय उत्तरकाय । ते आश्रय क्रिया गति चालवू, ते उत्तर-क्रिया कहाय ।। २६. हे भगवंत! वायू अछै थोडा सा तेह सहीत । बाजे पथ्य मंद महा वायरो ? जिन कहै हंता प्रतीत ॥ २७. ए चिहु वायु बाजै कदा? जिन कहै वाउकुमार । अथवा वाउकुमार नीं, बहु देवी तिण वार । २८. आपण पर बेहु तणे, प्रयोजने कहिवाय । करै ऊदीरणा वाउकाय नी, बाजै तब चिउं वाय ॥ श. ५, उ० २, ढाल ७६ १३ Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६. वाऊ तगा अधिकार थी, बलि कहियै छै तास । प्रभु ! वाउकाय वायु प्रतै, ग्रहै छै सास उसास ।। ३०. जेम खंधक आलावो कह्यो, तिमज आलावा च्यार' । प्रथम तो सासउस्सास ले, वायरा नों ईज तिवार । ३१. वाऊकाय वाउकाय में, मरी-मरी उपजंत । अनेक लाखां भव इम करै, ए दूजो आलावो कहंत ॥ २६. वायुकायाधिकारावेदमाह- (वृ०प० २१२) वाउयाए ण भंते ! वाउयायं चेव आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ? ३०. जहा खंदए तथा चत्तारि आलावगा नेयव्वा अणेगसयसहस्स पुढे उद्दाइ ससरीरी निक्खमइ । (सं० पा०) (श० ५/४६) ३१. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए णं वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो मुज्जो पच्चायाति ? हंता गोयमा ! वाउयाएणं वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइता उद्दाइता तत्थेव भुज्जो मुज्जो पच्चायाति । (श० ५/४७) ३२. से भंते ! किं पुढे उद्दाति ? अपुढे डद्दाति ? गोयमा ! पुढे उद्दाति, नो अपुढें उद्दाति । (श० ५/४८) ३३. से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ? ... ..... ओरालिय-वेउब्बियाई विप्पजहाय तेययकम्मएहि निक्खमइ। (श० ५/४६,५०) ३२. शस्त्र थकी फर्त्यां मरै, फल् विना न मरेह । एतीजो आलावो जाणवो, चउथो शरीर नुं एह ॥ ३३. ओदारिकादि रहित नीकले, तेजस कार्मण सोय । ए बेहुं शरीर सहित नीकले, ए चोथो आलावो जोय।। ३४. देश बावनमां अंक नों, छिहतरमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषरायाथी, 'जय-जश' मंगलमाल ॥ ढाल : ७७ १. पूर्वे वायू चितव्यु, वनस्पत्यादि शरीर । तास प्रश्न पूछ हिवै, इंद्रभूति बडवीर ॥ १. वायुकायश्चिन्तितः, शरीरतश्चिन्तयन्नाह अथ वनस्पतिकायादीन् (वृ० प० २१२) १. भगवई श० २/८-१२ २. इस ढाल की तीसवीं गाथा में 'जेम खंदक आलावो' कहकर संक्षिप्त पाठ के आधार पर जोड़ की गई है। उसके सामने पाद टिप्पण का संक्षिप्त पाठ उद्धृत किया गया है। स्कन्दक-आलापकों की भुलावण देने के बावजूद आगे ३१-३३ में उन्हीं आलापकों को आंशिक रूप में स्पष्ट किया गया है। इसलिए तीसवीं गाथा के सामने संक्षिप्त पाठ उद्धृत करने पर भी अगली गाथाओं के सामने कुछ पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ श० ५/४६-५० का लिखा गया है । क्योंकि .... जोड़ के साथ तुलना करने की दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया। १४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. *अथ हिव प्रभुजी ! हो, चोखा ओदन कहाय, कुलमाषा कुलथ थाय । सुरा ते मदिरा जाणिये ए ॥ ३. पृथ्वी प्रमुख हो, आखी काय, केहना शरीर कहाय ? ए गोयम प्रश्न पिठाणिये ॥ ४. श्री जिन भाषै हो, चोखा कुलच एताय, पूर्व भाव पेक्षाय । वनस्पति जीव तनु अर्थ ॥ । ५. ऊंखल मूसल हो, यंत्र शस्त्र बी ताव, अतिक्रमी पूर्व पर्याय । ते शस्त्र - अतीत थया पछै ॥ ६. शस्त्रे करिनैं हो, परिणमाया छै ताय, कीधा नव पर्याय । तेह शस्त्रपरिणामिया ॥ ७. अग्नि करिने हो तेह धम्या है अयाग, निज वर्णं नुं परित्याग । तास का अगणिकामिया ॥ ८. वलि अग्नि करि हो, पूर्व स्वभाव पिछाण, तेह खपाव्या जाण । अगणिभूसिया से कहा ॥ ६. अग्नि कर सेव्या हो, अग्निसेविया ताम, अग्नि परिणामिया आम । उष्ण परिणामपणुं ह्यं ॥ १२. सुरा द्रव्य ना हो, भेद कह्या छै १३. दूजो द्रव द्रव्य हो, पतली १०. अथवा आख्या हो, सत्थातीया आदि, शस्त्र अग्नि तेहिज साधि । शस्त्र अनेरो गिoयूं नहीं ॥ ११. ओदन कुलमाषा हो, ए बेहु ही सोय, अग्नि परिणम्या जोय । अग्नि जीव तन त कही । दोय, घन द्रव्य, कठण सुजोय । गुल धातकी पुष्पादिक तणो ॥ मदिरा एह, भेद सुरा ना ए बेह | हिव लेखो शरीर तणो सुणो ॥ १४. सुरा द्रव्य नों हो, घन द्रव्य प्रथम कहिवाय, पूर्व भाव पेक्षाय । वनस्पति नो शरीर है ॥ अग्नि शस्त्र परिणमाय । अग्नि जीव तन ते पर्छ ॥ दूजो ताय, ते पूर्व पर्याय आऊ जीव न शरीर है ॥ अग्नि शस्त्र परिणमाय । अग्नि जीव तन ते पर्छ । १५. सत्यातीया हो, प्रमुख पाठ ताय, १६. पतली मदिरा हो, द्रव द्रव्य । १७. सत्यातीया हो, प्रमुख पाठ कहिवाय, लय: हिव राणी नै हो समझावे" २, ३ . अह णं भंते ! ओदणे, कुम्मासे, सुरा - एए णं किसरीरा ति वत्तब्वं सिया ? ४. गोयमा ! ओदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दव्वेएए षं पुष्वभावपण्णवणं पहुन्च वणस्सजीवसरीरा । ५. तओ पच्छा सत्थातीया, शस्त्रेण - उदूखलमुशलयंत्रकादिनाकरणभूते नाती तानि - अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि । (४० १० २१३) ६. सत्यपरिणामिया, शस्त्रेण परिणामितानि - कृतानि नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणामितानि । ( वृ० प० २१३ ) ७. अगणिज्भामिया, वह्निना ध्यामितानिश्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याजनात् । ( वृ० प० २१३) ८. अगणिभूसिया, अग्निना शोषितानि पूर्वस्वभावक्षपणात् । ६. अग्निना सेवितानि वा अगणिपरिणामिया संजाताग्निपरिणामानि उष्णयोगादिति । (बु० प० २१३) १०. अथवा 'सत्थातीता' इत्यादी शस्त्रमग्निरेव ( वृ० प० २१३) ११. अगणिजीव सरीरा ति वत्तब्वं सिया । १२,१३. सुरायां द्वे द्रव्ये स्यातां - घनद्रव्यं द्रवद्रव्यं च । (बु १० २१३) १४. अतीतपर्यावरणामीका पूर्वं हि ओदनादयो वनस्पतयः । ( वृ० प० २१३ ) - १६. सुराए य जे दवे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा । १७. तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया | (श ५ / ५१ ) वनस्पतिरीराणि (बु० प० २१३) श०५, उ०२, ढाल ७७ १५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " १८. का धर्मसी हो, मदिरा प्रथम उपन्न वनस्पति नुं तन्न । रस थयां अप नो शरीर छै । १६. अग्नि चढाव्यो हो, अग्नि शरीर पिछाण, यंत्र धर्मसी नुं जाण । तिण में ए अर्थ कियो अर्थ ॥ २०. अथ प्रभु! लोहटो हो, तांबो तरुवो जान सीखो दग्ध पाषान । कसवी कट्ट धातु कही ॥ २१. किसी काय ना हो, एह शरीर कहाय ? जिन कहे ए सहू ताय । पूर्व भाव पृथ्वी ना सही ॥ २२. सत्थातीता हो, प्रमुख पाठ कहिवाय, अग्नि शस्त्र परिणमाय । अग्नि जीव तनुं ते पर्छ । २३. अथ प्रभु! अस्थि हो, बल्यो हाड बलि तेह, चरम बस्यो चरम ह रोम में रोम-दहीजिया || २४. सींग दग्ध-सींग हो, खुर ने बलि खुर-झाम, नख दग्ध-नख ताम । केहना शरीर कहीजिया ? रोम जाण, नख खुर सींग' पिछाण । त्रस प्राण जीव ना शरीर छै ॥ पर्याय, अग्नि शस्त्रे परिणमाय । अग्नि शरीर कहाा पर्छ । २५. श्री जिन भाते हो, हाड चरम २६. ए छ बाल्या हो, त्रस तनु पूर्व २७. प्रभु ! अंगारा हो, एह कोयला कहाय, छार भस्म कहिवाय । भूसते जब गोई ना पोषो छगण ही ॥ कॉलनी पर्याय, ते आधी कह्या ताय । पिण दग्ध अवस्था विहं कही ।। कहिवाय ? हिव भाखै जिनराय पूर्व भाव कहाविया || २८. इहां भुस गोवर हो गया २६. ए च्यांरूइ हो, केहना शरीर 1 ३०. जीव एकेंद्री हो, जाव पंचेंद्री ३१. आख्यो वृत्ति में हो, बेंद्रि आदि विचार, तास शरीर व्यापार । तेणे करीनें परिणामिया ॥ प्रयोग, यथासंभव कहिवूं योग । पिण सर्व ही पद ने विषे नहीं ॥ ३२. पूर्व अंगारा हो, भस्म एकेंद्रियादि जाण, तास शरीर पिछाण । एकेंद्रियादि तनु सही ॥ १. अंग सुत्ताणि भाग २ में नख के स्थान पर सींग और सींग के स्थान पर नख पाठ है । सम्भव है जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में वैसा पाठ रहा हो । बंगसुतानि में पाठान्तर का कोई उल्लेख नहीं है। १६ भगवती बो २०. अह णं भंते! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया उवलेत्ति इह दग्धपाषाण: कसट्टिय त्ति कट्टः ( वृ० प० २१३ ) २१. एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले कसट्टिया - एए णं पुग्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवीसरीरा । २२. तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया । ( श० ५।५२ ) २३. अह णं भंते ! अट्ठी, अट्टिज्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे रोमक्झामे, 1 २४. सिये, सिगाने, खुरे, सुरक्षामे नये नखाने एए णं किंसरीरा ति वत्तब्वं सिया ? २५. गोयमा ! अट्ठी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नखे एए तस पाणजीवसरीरा । २९. अकामे, मामे, रोगरामे, सिमामे रामे नवमामेएए णं पुण्यभावणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया । (श० ५१५३) २०. अहां भंते! इंगाले छारिए मुझे गोमए– २८. इह च सगोमयी ग्राह्यो । तवानुवृत्या दग्धावस्थ ( वृ० प० २१३) २६. एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोपमा इंगाले छारिए, मुझे गोमएएएवं पुष्यभावपण्णवणं पडुच्च ३०. एगिदियजीसरी योगपरिणामिया विजाय पंचि दिवजीवसरण्ययोगपरिणामिया वि ३१. द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासंभवमेव न तु सर्वपदेविति । (४० २१२) ३२. तत्र पुर्वमङ्गारो भस्म चैकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात् । ( वृ० प० २१३) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. भुस जव गोहूं ना हो, हरित अवस्था जोय, एकेंद्री तनु होय । ३३. बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम्, तिण सूं एकेंद्री तणुं शरीर छै ।। (वृ० ५० २१३,२१४) ३४. छगण तृणादि हो, अवस्था विष जोय, एकेंद्री तनु होय । ३४. गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरीरम्, तेहथी प्रयोग परिणाम छै ।। (वृ० प० २१४) ३५. वलि गायादिक हो, बेंद्री प्रमुख भखंत, तेहy पिण तन हुंत । ३५. द्वीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षणे द्वीन्द्रियादिशरीरतिण सं बेंद्री प्रमुख त्रस पाठ ही॥ मिति ।। (वृ० प० २१४) ३६. बलि ते च्यारू हो, सत्थातीया थाय, जाव अग्नि परिणमाय । ३६. तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति अग्नि शरीर का सही। वत्तव्वं सिया । (श० ५।५४) ३७. ए तो आख्यो हो, पृथ्वी प्रमख विचार, हिव अपकाय प्रकार । ३७. पृथिव्यादिकायाधिकारादप्कायरूपस्य लवणोदधेः लवणसमुद्र तणो कहै । स्वरूपमाह (वृ० प० २१४) ३८. प्रभ! लवणोदधि हो, छै कितलो चक्रवाल, विखंभ पिहलपणे न्हाल? ३८. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं जीवाभिगम नै विषे लहै॥ पण्णते? उक्ताभिलापानुगुणतया नेतव्यं जीवाभिगमोक्त लवणसमुद्रसूत्रम् । (जी० सू० ७०६) (०प० २१४) ३६. जाव लोक-स्थिति हो, त्यां लग कहिवू तास, वारू अर्थ विमास । ३६. एवं नेयव्वं जाव लोगट्टिई, संक्षेप मात्र कहीजियै ॥ ४०. जल नी संख्या हो, ऊंची सोलै हजार, सहस्र योजन ऊंडो सार । सतरै हजार लहीजियै ।। ४१. जे उदके करि हो, जंबूद्वीप - ताय, जलमय करतो नाय । हे प्रभु ! ए किण कारण ? ४२. श्री जिन भाखै हो, तीर्थकर जिन देव, चक्री बल वासुदेव । जंघाचारण विद्याचारण। ४३. बलि विद्याधर हो, तीर्थ च्यार प्रभाव, भद्रक मनुष्य स्वभाव । स्वभावे क्रोधादि पातला॥ ४४. बलि स्वभावे हो, मनष्य विनीत कहाय, अविनय अवगण नांय । प्रतिपक्ष वचने कह्या भला॥ ४५. बलि जुगलिया हो, देव देवी बहु देख, तास प्रभावे पेख । जलमय जंबू करै नहीं। ४६. लोक स्थिति हो, लोक तणो अनभाव, एह अनादि कहाव । ४६. लोगाणुभावे । (श० ५।५५) ___ ए जीवाभिगम थी का सही॥ ४७. जिन प्रतिमा नै हो, प्रभावे का नांय, देखो दिल रै माय । ज्ञान नेत्रे करि देखिये ॥ ४८. सेवं भंते ! हो, सेवं भंते ! ताम, इम कहि गोतम स्वाम। ४८. सेवं भंते ! सेवं भंते । ति भगवं गोयमे जाव यावत् विचरै विसेखियै ॥ विहर। (श०५१५६) ४६. बावन अंके हो, ढाल सितंतरमी ताय, भिक्षु भारीमल ऋषराय । _ 'जय-जश' हरष बधावणा ॥ ५०. सम्यक ज्ञानी हो, तेहनी कही सत्य वाय, मिथ्यादृष्टि नी ताय । हिव तसुं असत्य परूपणा ॥ पंचमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥२२॥ श.५, उ०२, ढाल ७७ १७ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. द्वितीय उदेशक अंत में, सत्य तृतीय आदि अन्ययुथिक नीं, असत्य ढाल : ७८ २ अन्यतीर्थी प्रभु इह ! विषे सामान्ये भाखै तेह विशेष थी, हेतु करि कहै करि, भेद जालगंठिया जे हुई, निगुणो ३. परूपण यथानाम ह * हो प्रभुजी ! देव जिनेन्द्र दासी भिन्न भिन्न भेद भाखीजै, हो जिनजी ! कृपा अनुग्रह कीजे (ध्रुपदं ) ४. मच्छनं बंधन जाल तेहनी परि गंठि अछे जिह मांही। जाल हुवै जे, आगल के हवे स्वरूपे कहिवाई | २. आणुपुब्बिगडिया ते ते - अनुक्रम परिपाटिये गूंची गेह । पहिला देवा योग्य गांठ पहिला दीधी, छेहडे देवा योग्य दीधी छेह ॥ ७. परंपरगडिया ते परंपराए अनंतर गांठ गांठ अनेरी दीधी छे बलि, एतले स्यूं परूपण ६. एहिज कहै है विस्तार करने, अनंतरगडिया त्यांही । पहिली गांठ में अन्तर रहित गांठ दोषी ज्याही ॥ छै १०. अण्णमण्णभारियत्ताए कहितां, गुरुभार ए जुदा का है, परूपण *लय आधाकर्मी थानक में : १८ भगवती जोड ख्यात । आथ || ८. अण्णमण्णगडिया एक गांठ सूं गांड एक गांठ सूं, गांठ अनेरी दीधी । तेह गांठ सूं वलि अन्य दीधी, गूंथी अन्योऽन्य सीधी ॥ आखंत | पनवंत ॥ दृष्टंत । उदंत ॥ ६. अण्णमण्णगरुयत्ताए कहितां, गूंथवा थी मांहोमांय । विस्तीर्ण भाव कीधा तेहनें, अग्णमण्ण गुरुपणो थाय ॥ साधु थी ताह्यो । कहिवायो ॥ कीधा भारपणे मांहोमाय । हिवे एक पद हि कहिवाय ॥ १. अनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यग्ज्ञानिप्रतिपादितत्वात् मिथ्याज्ञानप्रतिपादितं त्वसस्यमपि स्थादिति दर्शयंस्तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रमिदमाह - (० ० २१४ ) २. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति भासंति पण्णवेंति । ३. परूवेंति-से जहानामए जालगंठिया सिया ४. जालं - मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालविका जालिका, किस्वरूपा सा ? ( वृ० १० २१४) ५. पुि अनुपूर्व्या परिपाठ्या प्रथिता गुम्फिता बायुक्तिग्रन्थीनामादौ विधानाद् अन्तोचितानां क्रमेणान्त एव करणात्, ६. अनंतर गढिया ( वृ० प० २१४) एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - 'अनंतरगढिय' त्ति प्रथमग्रन्थीनामनन्तरं व्यवस्थापितैर्ग्रन्थिभिः सह ग्रथिता अनन्तरप्रथिता, ( वृ० प० २१४,२१५ ) ७. परंपरगढिया परम्पर: व्यवहितः सह प्रथिता परम्परा ( वृ० प० २१५ ) ८. अण्णमण्णगढिया, अम्पोज्यं परस्परेग एकेन प्रथिना सहान्यो ग्रन्थि रम्येन च महात्य इत्येवं प्रथिता अन्योन्यथिता ( वृ० १० २१५) ६. अण्ण मण्णग रुयत्ताए अन्योऽन्येन ग्रन्थनाद् गुरुकता - विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरुकता, ( वृ० प० २१५) १०. अण्णमण्णभारियताए अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता, ( वृ० प० २१५ ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. अण्णमण्णगरुयसंभारियत्ताए, माहोमांहे प्रसीधा । विस्तीर्णपणे कीधा छै जे, बले भारीपण पिण कीधा॥ १२. अण्णमण्णघडताए मांहोमांहे समदाय रचना जे मांय । तेहपणे रहे छै ए दृष्टंत, दार्टीतिक हिव कहिवाय ॥ १३. इण न्याय करी घणां जीव संबंधी, बहु देवादि जन्म रै माय । बहु आयु सहस्र ते आउखा ना स्वामी, वलि जन्म स्वामी ते कहाय ।। ११. अण्णमण्णगरुयसंभारियत्ताए अन्योऽन्येन गुरुकं यत्सम्भारिकं च तत्तथा तद् भावस्तत्ता, (वृ० प० २१५) १२. अण्णमण्णघडताए चिटइ; अन्योऽन्यं घटा-समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघट तद्भावस्तत्ता इति दृष्टान्तोऽथ दार्टान्तिक उच्यते __ (वृ० प० २१५) १३. एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु आजातिसहस्सेसु वहूई आउयसहस्साई अनेनैव न्यायेन बहूनां जीवानां सम्बन्धीनि 'बहूसु आजाइसहस्सेसु' त्ति अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेष्वधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्कसहस्राणि तत्स्वामिजीवानामाजातीनां च बहुशतसहस्रसंख्यत्वात्, (वृ० प० २१५) १४. आणुपुविगढियाई जाव चिट्ठति । आनुपूर्वीग्रथितानीत्यादि पूर्ववद्व्याख्येयं नवरमिह भारिकत्वं कर्मपुद्गलापेक्षया वाच्यम् । (वृ० प० २१५) १५. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पडि संवेदेइ, तं जहा-इहभवियाउयं च, परभवियाउयं १४. अनुक्रम बहु आयु बांध्या थका ईज, जाव रहै बहु जंतु । भारपणो कर्म पुद्गल अपेक्षा, हिवै किम आयु वेदंतु ॥ १५. इक पिण जीव समय इक मांहे, आउखा भोगवै दोय । इह भव नों जे आउखो भोगवै, वलि पर भव नों सोय ॥ च। १६. जै समय इह भव न आउखो भोगवै, ते समय पर भव नुं वेदंत । प्रथम-शतक' में विस्तार कह्यो छै, जावत किम भयवंत ।। १७. श्री जिन भाखै जे अन्यतीर्थी, बात कही ते मिच्छा। हं पिण एम कहं छू गोयम ! सांभल जै धर इच्छा। (रे गोयम ! सांभन्न चित ल्याय) । १६. जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ । (श० ५/५७) से कहमेयं भंते ! एवं? १७. गोयमा ! जण्णं तं अण्णउत्थिया तं चेव जाव पर भवियाउयं च । जे ते एवमाहंसु तं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि पण्णवेमि परू वेमि१८ मिथ्यात षामेवम, बहून्यायूंषि जालग्रन्थिकावत्तिष्ठन्ति । (वृ० प० २१५) १८. वत्तिकार कह्य अन्यतीर्थी न, मिथ्यापणुं ए कहिये । घणां जीवा नां बहु आयु विषे जे, जालग्रन्थिका ज्यूं रहिये ।। (रे भवियण ! सांभलजो चित ल्याय) ॥ १६. घणां जीवां रा आउखा छै ते, माहोमां बंध्या कहै अनाणी । जालग्रन्थिका ज्यू परस्परे ते, आयु बंध्या कहै जाणी॥ २०. इक नों आयु बीजा ना आयु साथे, बीजा - आयु तीजा संघात । इम बहु जीवां ना आयु मांहोमां, बंध्या कहै ते मिथ्यात ।। २१. इम जालग्रन्थिका ज्यू आयु हुवै तो, सर्व जीवा ने जाणी। सर्व आउ वेदवै करि सहु भव, उत्पत्ति प्रसंग पिछाणी ॥ २२. सह जीवायु माहोमां संबंध हुवै तो, तिण लेखे झठ एकंत । असंबंध हुवै तो इक भव मांहे, इक समय बे आयु न वेदंत ।। १. भगवई ११४२० २१. तथाऽपि तत्कल्पने जीवानामपि जालग्रंथिकाकल्पत्वं स्यात्तत्संबद्धत्वात्, तथा च सर्वजीवानां सर्वायु:संवेदनेन सर्वभवभवनप्रसङ्ग इति (वृ० प० २१५) श. ५, उ० ३, ढाल ७८ १६ Jain Education Intemational ation Intermational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. इक जीव समय इक बे आयु वेदै, ते मिथ्या इण न्यायो। इक समय बे आउ वेदवै युगपत, बे भव ना प्रसंग थी ताह्यो। २४. जिन कहै हूं बलि एम कहूं छु, जालग्रन्थिका दृष्टंत । संकलिका मात्र छै इण पक्षे, जाव समुदाय रचना रहंत ॥ २५. इण दृष्टांते इक-इक जीव नैं, पिण बहु जीवां रै नहिं माहोमांहि । बहु जन्म सहस्र विषे घणां आउखा ना, सहस्र गमे थया ताहि॥ २६. काल अतीत विषे अनुक्रमै, बहु आयु सहस्र थया ताह्यो । वर्तमान भव तांई कहिये, निसूणो तेहन न्यायो । २७. अन्य भव अन्य भवे करि आयु-प्रतिबद्ध बंध कहायो। सर्व परस्पर इम आयु-बंध है, पिण इक भव बहु न बंधायो । २३. यच्चोक्तमेको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी वेदयति तदपि मिथ्या, आयुर्द्वयसंवेदने युगपद्भवद्वयप्रसङ्गादिति । (वृ० प० २१५) २४. से जहानामए जालगंठिया सिया जाव अण्णमण्ण घडताए चिट्ठति । इह पक्षे जाल ग्रन्थिका–सङ्कलिकामात्रम् (वृ० प० २१५) २५., २६. एवामेव एग मेगस्स जीवस्स बहूहिं आजाति सहस्सेहिं बहूई आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाई जाव चिट्ठति एककस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुधा आजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तिष्वतीतकालिकेषु तत्कालापेक्षया सत्सु बहून्यायुःसहस्राण्यतीतानि वर्तमानभवान्तानि । (वृ० प० २१५) २७. अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबद्धानि भवन्ति न पुन रेकभव एव बहनि । (वृ० प० २१५) २८. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पडि संवेदेइ, तं जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा। २६. जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ । ३०. जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं समय इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ । ३१. इहभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो परभवियाउयं पडिसंवेदेइ । परभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ । ३२. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडि संवेदेइ, तं जहा - इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा। (श० ५/५८) ३३. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उवज्जित्तए, से णं भंते ! कि साउए संकमइ ? निराउए संक २८. अनक्रमै जाव एम रहै छै, इक जीव समय इक मांह्यो। इक आयु वेदै ते इह भव नं, तथा परभव नं वेदायो॥ २६. जे समय इह भव ते, वर्तमान भव नों आउखो वेदै जेह । ते समय विषे परभव न आउखो निश्चय नहीं वेदेह ।। ३०. जे समय विषे परभव न आउखो वेदै छै जीव । ते समय विषे इह भव न आउखो, वेदै नहीं अतीव । ३१. इह भव नों आउखो वेदवै करि, परभव न आयु न वेदंत । पर भव नों आउखो वेदवै करि, इह भव नों नहीं भोगवंत ॥ ३२. इम निश्चय इक जीव एक समय करि, आउखो एक वेदंत। इह भव न अथवा परभव नु, वलि आयु अधिकार कहंत ॥ ३३. जीव प्रभ ! जावा जोग्य नरक में, स्यूं आयु सहित जावंत । __ के आउखा रहित जावै छै ? हिव भाखै भगवंत ॥ मइ ? ३४. गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ । (श०५/५६) ३५. से णं भंते ! आउए कहिं कडे ? कहिं समाइण्णे ? ३४. आउखा सहित जावै छै नरके, आउखा रहित न जाय । एम सुणी में गोतम स्वामी, प्रश्न करै बलि ताय ॥ ३५. ते प्रभ ! आयु किहां कियो बांध्यो, वलि ते किहां समाचरित्तं ? ए आयु ना कारण अंगीकरण थी, हिवै जिन उत्तर कहित्तं ।। ३६. पूर्व भवे कियो बांध्यो आउखो, पाछल भव समाचरितं । ___ आउ ना कारण अंगीकरण थी, इम जाव वैमानिक कहित्तं ॥ २० भगवती-जोड़ ३६. गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे । एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ। (श० ५/६०, ६१) Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. जे योनि उपजवा योग्य प्रतै प्रभ! ते आयु प्रतै पकरंत ? नरक तिर्यंच नर सुर आयु प्रति ? जिन कहै हंता तंत ॥ ३८. नरक नों आउखो करते छते जे, बांधै सात प्रकारे । रत्नप्रभा जाव अहेसप्तमी, ए नरक आयु प्रति धारे ।। ३७. से नूणं भंते ! जे जं भविए जोणि उवज्जित्तए, से तमाउयं पकरेइ, तं जहा- नेरइयाउयं वा? तिरिक्खजोणियाउयं वा? मणुस्साउयं वा ? देवा उयं वा ? हंता गोयमा! ३८. नेरइयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ, तं जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाउयं वा जाव अहेसत्तमा (सं० पा०) पुढविनेरइयाउयं वा। ३६. तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेइ, तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा भेदो सव्वो भाणियब्वो। (सं० पा०) ४०. मणुस्साउयं दुविहं पकरेइ, तं जहा-सम्मुच्छिमम णुस्साउयं वा, गब्भवक्कंतियमणुस्साउयं वा । देवाउयं चउन्विहं पकरेइ. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ५/६२,६३) ३६. तिथंच आयु करते छते जे उपायों पंच प्रकारे । एकेंद्री आयु भेद सहु भणवा, पंचेंद्री तांइ विचारे ॥ ४०. मनष्य आउखो दोय प्रकारे, गर्भेज समुच्छिम जंत । च्यार प्रकारे सुरायु बांध, सेवं भंते! सेवं भंत ।। ४१. पंचम शतके तीजो उदेशो, अठंतरमीं ढाल । __ भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ॥ पंचमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥५॥३॥ ढाल : ७६ दूहा १. अन्यतीर्थी छद्मस्थ नी, वक्तव्यता कही एह । हिव छमस्थ मनष्य वलि, केवलि तणी कहेह ।। *जिन वाण सुधारस जानी, आतो हलुकर्मी चित आनी (ध्र पदं) २. प्रभ! मन छद्मस्थ पिछानी, मख-कर-दंडादि करि जानी। संख पटह झालर आदि आनी, एह संबंध थी सुण सद्दानी ॥ १. अनन्तरोद्देशकेऽन्ययूथिकछद्मस्थमनुष्यवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थे तु मनुष्याणां छद्मस्थानां केवलिनां च प्रायः सोच्यते इत्येवंसंबन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् (वृ० प० २१६) २. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आउडिज्जमाणाई सद्दाइं सुगेइ, मुखहस्तदण्डादिना सह शंखपटहझल्लर्यादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्य आकुटयमानेभ्यो वा एभ्य एव ये जाताः शब्दास्ते (वृ०प० २१६) ३. तं जहा.--- संखसद्दाणि वा, सिंगसद्दाणि वा, संखियसद्दाणि वा, खरमुहीसद्दाणि वा, पोयासद्दाणि वा, 'संखिय' त्ति शंखिका, ह्रस्वः शङ्खः, 'खरमुहि' ति काहला, 'पोया' महती काहला। (वृ०प० २१६) ३. संख सींग शब्द सुविधानी, संखिय लघु-संख सुन्हानी। काहलि' खरमही कहानी, मोटी काहलि पोया मानी । 'लय : चिन्तातुर सुन्दर चाली १. शिवजी का वाद्ययंत्र श०५, उ० ३, ढाल ७८,७६ २१ Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पिरिपिरिय में अर्थ पिछानी, कोलिक ते शकर-चर्म जानी। तेणे मंढ्यो वाजंत्र वखानी, सांभल तसू शब्द रसानी॥ ५. लघु पडहो ते पणव लहानी, पडह अर्थ ढोल विशेषानी । भंभा ढक्का दमामा जानी, होरंभा रुढिगम्या कहानी।। ६. भेरि नुं अर्थ ढक्का महानी, झालर वलयाकार प्रसिद्धानी । दंदुभि देव-वाजिन वानी, उक्तान क्त हिव संग्रहानी॥ ७. वीणादिक ना शब्द ततानी, वितत पडह प्रमुख जे सद्दानी। घन ते कंस्य ताल घनानी, वंसादिक ना शब्द झसरानी॥ ८. जिन भाखै हंता जानी, सुणै छद्मस्थ सर्व सद्दानी। प्रभु ! सुणै स्यूं श्रोत्र फर्सानी, कै अणफी सुण वानी ? ४. पिरिपिरियासदाणि वा, 'परिपिरिय' त्ति कोलिकपुटकावनद्धमुखो वाद्यविशेषः (वृ० प० २१६) ५. पणवसद्दाणि वा, पडहसद्दाणि वा, भंभासदाणि वा, होरंभसद्दाणि वा, 'पणव' त्ति भाण्डपटहो लघुपटहो वा तदन्यस्तु पटह इति 'भंभ' त्ति ढक्का 'होरंभ' त्ति रूढिगम्या । (वृ० प० २१७) ६. भेरिसद्दाणि वा, झल्लरीसद्दाणि वा, दुंदुभिसद्दाणि वा, 'भेरि' ति महाढक्का 'झल्लरि' त्ति वलयाकारो वाद्यविशेष: 'दुंदुहि' त्ति देववाद्यविशेषः, अथोक्तानुक्तसंग्रहद्वारेणाह - (वृ०प० २१७) ७. तताणि वा, वितताणि वा, घणाणि वा, झुसिराणि वा? ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकं । घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ।। (वृ० प० २१७) ८. हंता गोयमा ! छउमत्थे णं मणुस्से आउडिज्जमा णाई सद्दाई सुणेइ, तं जहा-संखसद्दाणि वा जाव झुसिराणि वा । ताइं भंते ! किं पुढाई सुणेइ ? अपुट्ठाई सुणेइ ? ६. गोयमा ! पुढाई सुगेइ, नो अपुढाई सुणेइ जाव नियमा (सं० पा०) छद्दिस सुणेइ। (श० ५/६४) 'पुढाई सुणेइ' इत्यादि तु प्रथमशते आहाराधिकारवदवसेयमिति । (वृ०प० २१७) १०. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे कि आरगयाइं सद्दाई सुणेइ ? 'आरगयाई' त्ति आराद्भागस्थितानिन्द्रियगोचरमागतानित्यर्थः (वृ०५० २१७) ११. पारगयाइं सद्दाई सुणेइ ? पारगयाई' ति इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितानिति (वृ०प० २१७) १२. गोयमा ! आरगयाइं सद्दाइं सुणेइ, नो पारगयाई सद्दाई सुणेइ। (श० ५/६५) है. जिन कहै सूर्णे श्रोत्र फर्सानी, अणफर्शी सुर्णे नही वानी। जाव नियमा छ दिशि संभलानी, प्रथम शतके आहार जिम जानी ॥ १०. प्रभ ! छद्मस्थ मनुष्य पिछानी, शब्द सांभलै आरगतानी ? श्रोत्र इन्द्रिय विषे आगतानि, ते आरगत शब्द कहानि ॥ ११. के शब्द सांभलै पारगतानि ? श्रोत्र इंद्रिय विषय न आनी । कहा शब्द पारगत तानी, हिव उत्तर दै जिन ज्ञानी ॥ १२. शब्द सांभलै आरगत आनी, इन्द्रिय गोचर आव्या सुणानी। नहीं सांभलै पारगतानि, श्रोत्र विषय न आव्या तानि ॥ १. ढोल का एक प्रकार २. भगवई ११३२ आहारोवि जहा पण्णवणाए (प० २८१) पढमे आहारुद्देसए तहा भाणियव्वो। २२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनि ॥ १३. प्रभ! जिम छद्मस्थ नरानि, शब्द सांभलै आरगतानि । १३. जहा णं भंते ! छउमत्थे मणूसे आरगयाइं सद्दाई नहीं सांभलै पारगतानि, तिम केवली स्यं ते सुणानि ? सुइ, नो पारगयाइं सद्दाइं सुगेइ, तहा णं केवली कि आरगयाइं सद्दाई सुगेइ ? पारगयाइं सद्दाई सुणेइ ? १४. जिन भाखै केवलज्ञानी, आरगत तथा पारगतानो। १४. गोयमा ! केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा इन्द्रिय गोचर आव्या तानि, तथा नाया इंद्रिये गोचरानि ॥ १५. सव्वदूर पाठ पहिछानी, तसं अर्थ अतिहि दूर जानी । १५-१७. सव्वदूर-मूलमणंतियं सई मूलं कहिता अतिही निकटानि, तिहां रह्या शब्द अनेकानि । सर्वथा दूर-विप्रकृष्टं मूलं च-निकटं सर्वदूरमूलं १६. अतिहि दूरवत्ति आख्यानि, वले कह्या अत्यन्त निकटानि । तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलोऽतस्तम् अत्यर्थं दूर हिवै मध्य बीच रह्या यानी, तेह- आगल पाठ कहानी। वतिनमत्यन्तासन्नं चेत्यर्थः अन्तिकं -आसन्नं तन्नि१७. अणंतियं पाठ पिछानी, मध्य बीच रह्या जे शब्दान । षेधादनन्तिकं तद्योगाच्छब्दोऽयनन्ति कोजस्तम् । आदि अंत मध्य विहं आनी, योग थी इहां शब्द पिछानी ।। (वृ० प० २१७) १८. ते शब्द नैं केवलज्ञानी, कवलज्ञाना, जाणे देखै जाण देखें महिमानी । महिमानी । (श०५/६६) १८. जाणइ पासइ। प्रभ ! किण अर्थ ए कहानि? वतका केवलो नी वखानि॥ से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-केवली णं आरगय वा, पारगयं वा सबदूरमूल मणंतियं सदं जाणइ पासइ? १६. जिन भाख केवलज्ञानी, पूर्व दिशि में पहिछानी। १६. गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि जाणइ, __मियं-प्रमाण सहित द्रव्यानि, जाण गर्भज मनुष्य जीवानि ॥ जाण गर्भज मनष्य जीवानि 'मियं पि' ति परिमाणवद् गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि, . (वृ० प० २१७) २०. अमियं नो अर्थ अनंतानि, वनस्पति तणां जीव जानि । २०. अमियं पि जाणइ । तथा असंखेज्ज कहिवानो, पृथ्वो प्रम व जोव पहिछानी ।। 'अमियंपि' त्ति अनन्तमसंख्येयं वा बनस्पतिपृथिवी जीवद्रव्यादि। (वृ० प० २१७) २१. इम दक्षिण, पश्चिम, उत्तरानि, ऊंची, नीची दिशि विषे जानि । २१. एवं दाहिणे णं, पच्चत्यिमे णं, उत्तरे थे, उड्ढं, अहे जाणे प्रमाण सहित द्रव्यानि, असंख अनंत द्रव्य पिग जानि॥ मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ । २२. सर्व जाणे केवलज्ञानो, सर्व देखे केवलो ध्यानो । २२. सब जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। जाण देखै सर्व थी ज्ञानी, केवली थी वात नहिं छानी ॥ सवओ जाणइ केवली, सवओ पास इ केवली । २३. सर्व थी सर्व काल पिछानी, सर्व भाव केवली जानी । २३. सबकालं जाणइ केवली, सव्व कालं पास केवली । वलि सर्व भाव पर्यवानी, देखै छै केवलज्ञानी॥ सवभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पास केवली। २४. केवलज्ञानी तणे सुविधानि, वारू ज्ञान अनंत वखानि । २४. अणते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स । . वलि केवली रै सुप्रधानो, ओ तो अनंत दर्शन जानी।। २५. वलि केवली रै छै निधानि, निरावरण ज्ञान गणखानि । २५. निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स । वलि केवली र अधिकानि, निरावरण दर्शन गणखानि ॥ २६. वाचनांतर वृत्ति वखानि, निव्वडे वितिमिरे यानि । २६. वाचनान्तरे तु 'निब्बुडे वितिमिरे विसुद्धे' त्ति विशे विसुद्धे त्रिह पद विशेषानि, ज्ञान दर्शण तणां कहानि ॥ षणत्रयं ज्ञानदर्शनयोरभिधीयते। (वृ०प०२१७) २७. निवृत्तं ते निष्ठांगत ज्ञानी, क्षीण आवरण वितिमिर जानि । २७. तत्र च 'निर्वृत' निष्ठागतं 'वितिमिर' क्षीणावरणमत वारू एहिज विशुद्ध वखानी, विशेषग ज्ञान दर्शन आनी॥ एव विशुद्धमिति । (वृ०प० २१७) २८. तिण अर्थ करो महिमानि, केवलि जाव सर्वविदानि । २८. से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ–केवली णं पंचम शतक तणो पहिछानो, देश चोथा उदेशा नों जानी ।। आरगयं वा, पारगयं वा सव्वदूर-मूलमणंतियं सदं जाणइ-पासइ। (श० ५/६७) श०५, उ० ४, ढाल ७६ २३ Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. गण्यासीमी ढाल कहानी, भिक्षु भारीमाल बहु ध्यानी । ऋषराय प्रसाद निधानि, सुख 'जय-जश' हरष किल्यानि ।। ढाल : ८० १. अथ पुनरपि छद्मस्थ मनुष्यमेवाश्रित्याह (वृ० प० २१७) १. छद्मस्थ केवली नीं कही, वक्तव्यता अधिकार । बलि तेहनीज कहै अछ, निसुणो तेह विचार ।। * देव जिनेन्द्रनां वच विमल निमल निकलंक रे ।। (ध्र पदं) २. हे प्रभु ! छद्मस्थ मनुष्य ते, ओतो हसै हासो करै ताम रे । तथा उत्सुकपणो आण बलि ? तब जिन कहै हंता आम रे ।। तब जिन कहै हंता आम कै... ३. जिम प्रभ ! छद्मस्थ मनुष्य ते, हसै उत्सुकपणो आण अथाय । तिम केवली हासो उत्सुकपणो करै? अर्थ समर्थ नहीं, जिन वाय॥ ४. किण अर्थे प्रभ! इम कह्य, जिन भाखै जीव हसेह । वलि उत्सुकपणो करै तिको, चारित मोहकर्म उदयेह ॥ २. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा ? उस्सुयाएज्ज वा? हंता हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा। (श० ५/६८) ३. जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा, उस्सुया एज्ज वा, तहा णं केवली वि हसेज्ज वा? उस्सुयाएज्ज वा ? गोयमा ! णो इण? सम?। (श० ५/६९) ४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहा णं छउमत्थे मणस्से हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा, नो णं तहा केवली हसेज्ज वा ? उस्सुयाएज्ज वा ? गोयमा ! जंणं जीवा चरित्तमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं हसंति वा, उस्सुयायंति वा। से णं केवलिस्स नत्थि । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जहा णं छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा, नो णं तहा केवली हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा । (श० ५/७०) ६. जीवे णं भंते ! हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा । ७. एवं जाव वेमाणिए । एवमिति जीवाभिलापवनारकादिर्दण्डको वाच्यो याववैमानिक इति, ...इह च पृथिव्यादीनां हास: प्राग्भविकतत्परिणामादवसेय इति । (वृ०प० २१७,२१८) ५. चारित मोहनीय कर्म ते, केवली रै नहीं कोय । तिण अर्थे जाव छद्मस्थ ज्यू, केवली रै हासादि न होय ॥ ६. प्रभ ! एक जीव हसतो छतो, उत्सुकपणो करतो पहिछाण । कर्म प्रकृति बांधै केवली ? जिन भाखै सप्त अठ जाण ।। ७. एवं जाव वैमानीक नै, एक वचन सहु कहिवाय । एकेंद्री ने पूर्व भव परिणाम थी, पूर्वे हस्या तेहनी अपेक्षाय ।। सोरठा ८. पूर्व भय रै माय, बद्धायु अभिमख बलि । तेह तणी अपेक्षाथ, एकेंद्री में संभवै॥ * लय : पुत्र वसुदेव नो गजसुकुमाल......। २४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. "प्रभु! बहु नेरइया हसता छता, किती कर्म-प्रकृति बंधकार। जिन कहै सह सप्त बंधगा, आउबंध विरह तिणवार । १०. अथवा सप्त बंधगा घणा, अष्टविध बंधगो एक । अथवा सप्त बंधगा घणा, अष्टविध बंधगा बहु पेख । ६. नारकादिषु तु त्रयं, तथाहि-सर्व एव सप्तविध बन्धकाः स्युरित्येकः । (वृ० प० २१८) १०. अथवा सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकश्चेत्येवं द्वितीयः, अथवा सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्चे त्येवं तृतीयः इति । (वृ० प० २१८) ११. पोहत्तएहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। (श० ५/७१) ११. जीव एकेंद्री वरजी करी, उगणीस दंडक भंग त्रिण पेख । जीव एकेंद्री बहु सप्त बंधगा, अष्ट बंधगा बहु भंग एक ॥ १२. नेरइयाणं हसमाणे कति कम्मपगडीओ इत्यादि । एहवो किणहिक पुस्तक नै विषे, दीसै छै विशेष सुसाधि । १३. हे प्रभु ! छद्मस्थ मनष्य ते, निद्रा--सुखे जागै ते लेवंत । प्रचला-ऊभो रह्यो जे नींद ले ? हंता जिन उत्तर तंत ॥ १४. जेम का हसवा विषे, तिम निद्रा विषे कहिवाय । णवरं दर्शणावरणी कर्म नैं उदै करि निद्रा प्रचलाय ।। १५. दर्शणावरणी कर्म क्षय गयो, तिण स् केवली रै नहि कोय । अन्य पाठ कहिवो सहु, हसवा नी परे अवलोय ॥ १६. इक वच जीव तिको प्रभु ! निद्रा प्रचला करतो ते मांय । कर्म प्रकृति बांधे केतली? सप्त अष्ट बंध जिन वाय ॥ १३. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से निदाएज्ज वा? पयलाएज्ज वा ? हंता निदाएज्ज वा, पयलाएज्ज वा । (श० ५/७२) निद्रां-सुखप्रतिबोधलक्षणां कुर्यात् निद्रायेत, प्रचलाम्-ऊर्ध्वस्थितनिद्राकरणलक्षणां कुर्यात प्रचलायेत् । (वृ०प० २१८) १४,१५. जहा हसेज्ज वा तहा नवरं दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं निद्दायति वा पयलायंति वा, से णं केवलिस्स नत्थि अण्णं तं चेव (सं० पा०) (श० ५/७३, ७४) १६. जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा, पयलायमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा। १७. एवं जाव वेमाणिए । पोहत्तिए सु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। (श० ५/७५) १७. एवं जाव वैमानिक लगै, एक वच सर्व पाठ सुचीन । बहु वचने कहिये हिवै, उगणीस दंडके भांगा तीन ।। १८. जीव अने एकेंद्री विषे, एक भांगो कहिवाय । सप्त कर्म बंधगा घणा, अष्ट बंध बहु थाय । १६. निद्रा दर्शणावरणी उदय थी, तेहथी पाप कर्म न बंधाय । पाप बंधै मोह उदय थी, तो सप्त अष्ट बंधै किण न्याय ।। २०. मोहकर्म में उदय करी, अशुभ स्वप्न आवै निद्रा मांय । पाप कर्म बंधै तेहथी, सप्त अष्ट बंधै इण न्याय ॥ सोरठा २१. "खंधक' में अधिकार, गरु-लघु कह्यो जीव नैं । ___ ते शरीर आश्री धार, पिण चेतन गुरुलघु नहीं । २२. तिम इहां जाणो न्याय, अशुभ स्वप्न मोह कर्म थी । तेहथी पाप बंधाय, पिण निद्रा सं नहि कर्म बंध ।। २३. मोह उदय थी जाण, बिगड्यो जीव कहीजिये । तिण कारण पहिछाण, तेहथी पाप बंधै अछै । *लय : पुत्र वसुदेव नो गजसुकुमाल १. देखें भगवती जोड़, ढाल ३४ गाथा ३० का टिप्पण, पृ० २१४, २१५ । श०५, उ०४, ढाल ८० २५ Jain Education Intemational ation Intermational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. दर्शणावरणी तिण कारण २५. एकेंद्रियादि २६. कही बात ते अधिकार पेख, उदय कषाय विशेख, देख, संपेख, तास उदय जंतु दवे तेहथी कर्म बंधे नही । निद्रा विषेज मोह नैं । बलि अविरत थी असुभ बंध" ॥ छद्मस्थ नीं, कहे हि २७. तथा केवली अधिकार थी, आघवी, तसु घटनाक्रम २८. यद्यपि वीर विधान इह, तथापि हरिणेगमेषी इण दूहा २९. हरिणेगमेषी वीर नैं, हरिणेगमेषी हे प्रभु ! ३०. गर्भ हरण सामान्य थी, तो देवे णं भंते! इसो ३१. हरि इंद्र है तेहना हरिणेगमेषी नाम ए ३२. हरिणेगमेषी सुर प्रभु! पदाती अनीक नुं अधिपति २६ भगवती-जोड़ छद्मस्थ गर्भ साहरंत । वृत्तौ वीर उयंत ॥ केवली श्री महावीर । बात गंभीर ॥ ए पद नहि देखाय । वचन थकीज जणाय ॥ कहिये दूहा २३. येन शक्र आदेश थो, देवानंदा गर्भ थो, ३४. * स्त्री गर्भ संहरतो थको, ले जीव सहित पुद्गल-पिड गर्भ नें, आणेह | करेह ॥ गर्भ विषे इह विध प्रश्न तास विविक्षा होय । अवलोय ॥ ( ज०स० ) प्रश्न करत संबंध थी सर्व वृत्ति शक्र आदेशका कहाय | शक्र दूत कह्यो इण न्याय ॥ रे १. हरिमेषिणा * लय : पुत्र वसुदेव नो गजसुकुमाल' ३५. गर्भ थकी गर्भ संहरे, गर्भ थी ते उदर थी हु जीव सहित पुद्गल-पिड गर्भ नैं संहरति प्रवेश करंत ॥ । कहिवाय । मांय ॥ महावीर भगवान । तिसला गर्भ गर्भे आन ॥ जातो थको बोजे स्थान । संहरण चोभंगो जान ॥ ३६. तथा गर्भ थकी योनि संहरै, गर्भ थी ते उदर थी जाण । योनि तणो प्रवेश करै अछे, योनि उदर करी घालै जाण ॥ २७. केवधिवलिनो महावीरस्य संविधानकमारयेदमाह ( वृ० प० २१८ ) २८. इह च यद्यपि महावीरसंविधानाभिधायकं पदं न दृश्यते तथाऽपि हरिनैगमेषीति वचनात्तदेवानुमीयते । ( पृ० प० २१०) २६. हरिनंगमेषिणा भगवतो गर्भान्तरे नयनात् । ( वृ० प० २१० ) ३०. यदि पुनः सामान्यतो गर्भहरणविवक्षाऽभविष्यत्तदा 'देवे णं भंते !' इत्य वक्ष्यदिति । ( वृ० प० २१८ ) ३१. तत्र हरिः इन्द्रस्तत्सम्बन्धित्वात् हरिर्नवीति ( वृ० प० २१०) ३२. 'से नूगं भंते! हरि-गमेसी सक्कए शक्रदूतः शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधिपतिः । ( वृ० प० २१८ ) नाम । २२. भगवान् महावीरो देवानन्दा गर्भा विशलागमें संत इति । ( वृ० प० २१०) ३४. वरमाणे स्त्रिया: सम्बन्धी गर्भः - सजीवपुद्गल पिण्डकः स्त्री गर्भस्तं ( वृ० प० २१८ ) ३५. कि गब्भाओ गब्भं साहरइ ? तत्र 'गर्भाद' गर्भाशयादवचे 'गर्भ' गर्भाशयान्तरं 'संहरति' प्रवेशयति 'गर्भ' सजीवपुद्गलपिण्डलक्षणमिति । ३६. गब्भाओ जोणि साहरइ ? तथा गर्भादवधेः 'योनि' गर्भनिर्गमद्वारं संहरति योन्योदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः । ( वृ० प० २१८ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. योनि थकी गर्भ साहर, योनि गर्भ-निर्गम द्वार । जीव सहित पुदगल-पिंड ते, गर्भ तणुं प्रवेश विचार ।। ३८. योनि थकी योनि संहरै, योनि उदर थकी काढी बार । योनि द्वारे करी तेहनों, प्रवेश करै तिणवार ॥ ३६. वीर कहै सुण गोयमा ! पहिलो भांगो दूजो चोथो भंग । .. ए बिहभंगे न संहरै, तीजा भांगा नों इहां प्रसंग ।। ४०. तथा विध व्यापार करण करी, सुर कला गर्भ फर्सी विशेष । सुखे सुखे योनि द्वारे करी, गर्भाशय जीव तणुं प्रवेश ॥ ३७. जोणीओ गम्भं साहरई ? योनिद्वारेण गर्भ संहरति गर्भाशयं प्रवेशयतीत्यर्थः । (वृ० प० २१८) ३८. जोणीओ जोणि साहरइ ? योनेः सकाशाद्योनि संहरति नयति योन्योदरान्निकाश्य योनिद्वारेणवोदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः । (वृ० प० २१८) ३६,४०. गोयमा ! नो गब्भाओ गब्भं साहरइ, नो गब्भाओ जोणिं साहरइ, नो जोणीओ जोणि साहरइ, परामुसिय परामुसिय अव्वाबाहेणं अव्वाबाहं जोणीओ गब्भं साहरइ । (श० ५७६) तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य संस्पृश्य स्त्रीगर्भम् अव्याबाधमव्याबाधेन सुखंसुखेनेत्यर्थः । (वृ० प० २१८) दहा ४१. हरिणेगमेषी नुं का, हिव तेहनु सामर्थपण, देखाडै इहवार ।। ४२. *हरिणगमेषी सुर प्रभु ! शक्रदूत स्त्री-गर्भ ते जीव । नखाग्र रोमकूपे करी, समर्थ घालण काढण अतीव ।। ४३. जिन कहै हां समर्थ अछ, निश्च करी गर्भ रै ताय । थोडी घणी पीडा उपावै नहीं, चामडी नुं छेद बलि थाय ॥ ४४. छवि नुं छेद थयां बिना, नख अग्र प्रमख न प्रवेश । सूक्ष्मपणे प्रवेश नीहरण करै, एहवी सुर लाधी लब्धि विशेष । ४५. देश आख्य चोपनमा अंक न, आखी ढाल असीमी उदार । भिक्ख भारीमाल ऋषराय थी, सुखसंपति 'जय-जश' सार ॥ . ४१. अयं च तस्य गर्भसंहरणे आचार उक्तः, अथ तत्सामर्थ्य दर्शयन्नाह (वृ०प० २१८) ४२. पभू णं भंते ! हरि-नेगमेसी सक्कदूए इत्थीगभं नहसिरंसि वा, रोमकूवंसि बा, साहरित्तए वा ? नीहरित्तए वा? ४३. हंता पभू, नो चेव णं तस्स गब्भस्स किंचि,आबाह वा विबाहं वा उप्पाएज्जा, छविच्छेदं पुण करेज्जा । ४४. ए सुहुमं च णं साहरेज्ज वा, नीहरेज्ज वा। (श० ५१७७) गर्भस्य हि छविच्छेदमकृत्वा नखााग्रादौ प्रवेशयितुमशक्यत्वात् । (वृ० प० २१८,२१६) ढाल : ८१ दूहा १. गर्भ-हरण महावीर नं, थय अछेरो जेह । ___तसु शिष्य अइमुत्ता तणु, हिव अधिकार कहेह ॥ १. अनन्तरं महावीरस्य सम्बन्धि गर्भान्तरसंक्रमण लक्षणमाश्चर्यमुक्तम्, अथ तच्छिष्यसम्बन्धि तदेव दर्शयितुमाह (वृ०प० २१९) * लय : पुत्र वसुदेव नो गजसुकुमाल..... श० ५, उ० ४, ढाल ८०,८१ २७ Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तिण काले नै तिण समय, वीर तणो शिष्य सार । ३. " वृत्तिकार षट वर्ष में अहमतो नामे कुमार-धमण महासुखकार ।। प्रव्रज्या कहि तास । कहां अधिक अठ वास ॥ दीक्षा कल्पे नांहि । ववहार दसमा मांहि ॥ ठाम ठाम सूत्र चरण, ४. आठ वर्ष उणा मणी, आठ वर्ष जाके चरण, ५. असोच्या केवली तनों, आठ वर्ष जाको भगवती ६. शुक्ल लेश उत्कृष्ट स्थिति, पूर्व कोड उत्तरज्झवण, । आयू जघन्य कहेस । नवम इकतीसमुद्देश ॥ ७. आऊं आठ वरस अधिक, शिव पद पामै ताम | सूत्र उपवाई में कह्यो, इत्यादिक बहु ठाम ॥ ८. ति कारण टीका मझे, अइमुत्त ना षट् वास । आख्या तेह विरुद्ध छे समय वचन थी तास ॥ ६. शुक्ललेश स्थिति भव- स्थिति, अठ वर्ष कणी नांहि । तीन काल नीं बात ए दाखी सूतर मांहि ॥ १०. तिण कारण त्रिहु काल ना जिन नीं पिण ए रीत । आठ वर्ष ऊणा भणी न दियं चरण वदीत ॥ ११. आठ वर्ष जाझा भणी, चारित्र केवल सिद्धि | आख्या छै सूत्रां मझे, पावै ए त्रि ऋद्धि ॥ १२. जिन षट वर्ष दिये दीक्षा, तो केवल शिव पिण थाय । चरण कहै तो केवली अरु शिव नहि कि न्याय ? १३. षट् वर्षे ए त्रिहुं हुवै, तो शुक्ल-लेश स्थिति ताय । षट् वर्षे कणो तसुं पूर्व कोड कहिवाय ॥ १४. चरम-शरीरी आयु पिण, कहिवूं जघन्य छ वास । आठ वर्ष जाझो कह्यं, सूत्र उववाई तास ॥ १५. शुक्ल लेश स्थिति वर्ष नव नव ऊणी पूरव कोड । नवमा नुं ए देश है, तिण सूं नव वर्ष जोड | १६. इत्यादिक बहु न्याय करि, चरण केवल शिव रीत । 1 आठ वर्ष जाते हुवे काल हिं काल त्रिहु सुवदीत ॥" ( ज० स० ) "धमण अदमुत्तो रे, चरण- रयण चित चंगे। प्रकृति-भद्रीक विनीत प्रवर, जिन आणा-रति-रस रंगे ॥ ( ध्रुपदं ) २८ भगवती - जोड़ ऊणी नव वर्षेण । पोतीसम अज्भेण ।। १७. प्रकृति स्वभावे उपशमयंती, पतली प्यार कषाया । कोमल निरहंकार गुणेकर, शोभत ते मुनिराया ॥ * लय : कुन्यु जिनवर रे....... २. तेगं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते नामं कुमार-समणे । ३. षड्वर्ष जातस्य तस्य प्रव्रजितत्वात् ( वृ० प० २१६ ) 'साइरेपासवा ४. नो कप्पइ निग्गंथाणं वा उवावेत्तए वा संभुंजित्तए वा । ( व्यवहार १०।२१, २२) ५. से णं भंते! कयरम्मि आउए होज्जा ? गोमा ! जण सातिरेयासाउए उक्कोयेगं पुण्यकोटिलाउए होना (भ० श० २१४१) ६. मुहुतद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ । नवहि वरिसेहि भ्रूणा, नायव्वा सुक्कलेसाए || (उत्तरा० ३४।४६ ) ७. जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिति ? गोवमा जहणणं साइरेस उनको पुलकोडोयाउए सिति । ( ओवाइयं सू० १८८ ) १७. परभदए मिसंपन्ने। पाइपयणु को हमाणमायालोभे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. अल्लीणे विणीए । (श० ५/७८) १६. तए णं से अइमुत्ते कुमार-समणे अण्णया कयाइ महावुट्टिकायंसि निवयमाणंसि। . २०. कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपढ़िए विहाराए। (श० ५७६) २१. तए णं से अइमुत्ते कुमार-समणे वाहयं वहमाणं पासइ, १८. लीन नहीं संसार विषे मनि, इंद्रिय बस हद कीनी । भद्रिक भाव विनय गण करिने, आतम अतिही भीनी॥ १६. तिण अवसर ते कुमर अइमत्तो, श्रमण तपस्वी तीखो। एक दिवस महा वृष्टि थयां पछै, च्यार तीर्थ जश टीको। २०. पडघो-पात्र रजोहरण-ओघो, काख विषे जे लेई । बहिर्भूमिका अर्थे मुनिवर, चाल्यो बाहिर तेही॥ २१. तिण अवसर ते कुमर अइमुत्तो, श्रमण धणुं सुखदाई । बाहलो जल नों वहितो देखी, बाल-लीला मन आई ।। [श्रमण अइमत्तो रे, बाल लीला चित लागे । चरम शरीरी उत्तम प्राणी, पिण हिवडां जल रागै ॥] (ध्रपदं) २२. पाल माटी नी बांधी नै मनि, पात्रो मेली बेवै । ए मुझ नावा ए मझ नावा, नावडिया जिम खेवै॥ २३. उदक विषे पडघा प्रति करिनै, वाहतो थको मुनि खेले। रमण क्रिया करतो इम रमतो, रामत रस रंग रेलै । २४. अइमुत्ता प्रति रमतो देखी, स्थविर मुनि गुणगेह । तेहनी अत्यंत अनुचित चेष्टा, निरखी निज नयणेह ।। २५. अइमत्ता मुनिवर नों तेहवै, ते उपहास्य करंता । श्रमण प्रभू महावीर समीपे, आवी एम वदंता ॥ २२,२३. पासित्ता मट्टियाए पालिं बंधइ, बंधित्ता ‘णाविया मे, णाविया मे' नाविओ विव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि पव्वाहमाणे-पव्वाहमाणे अभिरमइ । २६. इम निश्च देवानुप्रिया नों, अंतेवासी सीस । कुमर अइमुत्तो श्रमण किते भव सीझस्यै अंत करीस? । २७. हे आर्यो ! इम दे आमंत्रण, भगवंत श्री महावीरं । ते स्थविरां प्रति इहविध भाखै, मेरु तणी पर धीरं । २८. इम निश्चै करिने हे आर्यो ! मांहरो अंतेवासी । नाम अइमुत्तो कुमार-श्रमण ए, ऋषि रूड़ो गणरासी। २६. प्रकृति स्वभावे भद्रिक यावत, विनयवंत विश्वासी। ते अइमुत्तो कुमार-श्रमण मुनि, इण भव मुक्ति सिधासी॥ ३०. यावत् सकल कर्म दुख नों मनि, इण हिज भव क्षय करसी। ते माटै एहनें मति हेलो, अविचल वधु ए वरसी ॥ ३१. हे आर्यो ! अइमुत्ता मुनि नैं, मने करि मति निदो। लोक सुंणंता पिण मति खिसो, ए महामनि गुणवृंदो। २४,२५. तं च थेरा अद्दक्खु । जेणेव समणे भगवं महा वीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वदासी'अद्राक्षुः' दृष्टवन्तः, ते च तदीयामत्यन्तानुचितां चेष्टां दृष्ट्वा तमुपहसन्त इव भगवन्तं पप्रच्छः, (वृ०प० २१९) २६. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते नाम कुमार-समणे, से णं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे कतिहिं भवग्गहणेहि सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाण अंतं करेहिति ? (श०५८०) २७. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी२८. एवं खलु अज्जो! ममं अंतेवासी अइ मुत्ते 'नामं कुमार-समणे । २६. पगइभद्दए जाव विणीए, से णं अइमुत्ते कुमार-समणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति । ३०. जाव अंतं करेहिति । तं मा णं अज्जो ! तुब्भे अइ मुत्तं कुमार-समणं हीलेह । ३१. निदह खिसह 'निंदह' त्ति मनसा खिसह' त्ति जनसमक्षं (वृ० प० २१६) ३२. गरहह अवमण्णह। 'गरहह' त्ति तत्समक्षम् 'अवमण्णह' त्ति तदुचितप्रतिपत्यकरणेन (वृ०५० २१६) ३२. तेहनी साख करि मति गरहो, नवि कीजै अपमानं । योग्य भक्ति अणकरिव करिने, ए अपमान नुं स्थानं ॥ (श. ५, उ०४, ढाल ८१ २६ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. क्वचित् पाठ 'परिभवह' करो मति सर्व पूर्व कह्या जेह । वलि प्रभु वीर कहै स्थविरां नैं, सांभलजो हिव तेह ।। ३४. तुम्हे अहो देवानुप्रियाओ!, ए अइमत्तो कुमार । तेह प्रतै अगिलाणपणे ग्रहो, खेद रहित अंगीकार ॥ ३५. अखेदपणे उपष्टंभ द्यो एहनें, उवगिण्हह तणुं अर्थ एह । अखेदपणे भात उदक विनय करि, व्यावच तुम्हैं करेह ।। ३६. कुमर अइमत्तो श्रमण अंतकर, भव नुं छेदणहार । अंतिम-शरीर ते चर्म शरीरी, निश्चेइ जाणो सार ।। ३३. 'परिभवह' त्ति क्वचितपाठस्तत्र परिभवः-समस्तपूर्वोक्तपदाकरणेन (वृ० प० २१६) ३४. तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! अइमुत्तं कुमार-समणं अगि लाए संगिण्हह, 'अगिलाए' त्ति अग्लान्या अखेदेन (वृ० प० २१९) ३५. अगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विण एणं वेयावडियं करेह । 'उवगिण्हह' त्ति उपगृहीत उपष्टम्भं कुरुत । (वृ०प० २१६) ३६. अइमुत्ते णं कुमार-समणे अंतकरे चेव, अंतिमसरीरिए चेव । (श० ५।८१) 'अंतकरे चेव' त्ति भवच्छेदकरः, स च दूरतरंभवेऽपि स्यादत आह–'अंतिमसरीरिए चेव' त्ति चरमशरीर इत्यर्थः । (वृ० प० २१६) ३७. तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावी रेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं बंदंति नमसंति, अइमुत्तं कुमार-समणं अगिलाए संगिण्हंति, ३८. अगिलाए उवगिण्हंति, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विण एणं वेयावडियं करेंति। (श० ५।८२) ३७. स्थविर तदा प्रभु वचन सुणी नैं, जिन वंदी करी नमस्कार । कुमर अइमुत्ता श्रमण प्रतै करै खेद रहित अंगीकार ।। ३८. यावत् विविध वैयावच करता, अग्लान पण तिणवार । वीर वचन थी चित स्थिर कीधो, स्थविर बडा गुणधार ।। सोरठा ३६. “अइमत्ता ने जोय, प्रायश्चित इहां चाल्यो नहीं । पिण कारज अवलाय, दंड आवै जेहवो अछै ।। ४०. बच रहनेमि विरुद्ध, सीहो रोयो मोह वस । कारज एह अशुद्ध, तसं दंड पिण चाल्यो नहीं । ४१. सेलक पासत्थ थाय, वीर लब्धि फोडी वलि । पंथ तीन चिहुं मांय, नागश्री हेली मनि । ४२. इत्यादिक बहु जाण, दंड नहिं चाल्यो सूत्र में । पिण कारज विण-आण, तेहनों दंड लीधो हसै ।। ४३. नशीत में अवलोय, कार्य ना प्रायश्चित कह्या । ते कार्य करै कोय, प्रायश्चित तेहनों अछै' ।। (ज० स०) ४४. *अक चोपन न देश कह्य ए, इक्यासीमी ढालं । भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमालं ॥ *लय : कुन्थु जिनवर रे........ ३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. चरमशरीरी वीर - शिष्य, अमुत्तो अन्य मुनि कितला केवली हिव तसुं प्रश्न ढाल : ८२ ५ प्रश्न सीस संपदा । * जगनाथ दयाल कृपाल प्रभ पूरण जिनेन्द्र मोरा त्रिभुवन- तिलक महावीर हो । ( ध्रुपदं ) २. तिण काले नैं तिण समै, जिनेन्द्र मोरा, सप्तम कल्प शोभाय हो । महाशुक नाम मनोहरू, जिनेन्द्र मोरा, पुन्यवंत प्राणी पाय हो । ३. महासामान्य नामे भलो, प्रवर विमान थी पेख 1 महाऋद्धिवंत बे देवता, जाव महानुभाव देख ॥ ४. श्रमण भगवंत महावीर पै वीर प्रतै वंदे मन करी, इसूं पूछे मन करी, किता सय सीझर्स, सुविमास । प्रकाश ॥ प्रगट थया तिणवार । मने करी नमस्कार ॥ देवानुप्रिया देवानुप्रिया ना तेह | यावत् अंत करेह ? ६. सुर बिहु मन थी पूछ्ये छते, भगवंत श्री महावीर । मने करीनें उत्तर दिये, तारक भवदपि तीर ॥ ॥ ७. इम निश्च हे देवानुप्रिया ! प्रभु भाखे मुझ शिष्य महागुणवंत । प्रवर सप्त सया भल सीझसे, प्रभु भावे जाव करसी दुख अंत || ८. मन थी इम प्रभु वागर्याछतो सुर बिहू सुण हरषाय । यावत् हरण ना बस थकी अधिक हृदय विकसाय ॥ ६. श्रमण भगवंस महावीर ने मन थी सुश्रूषा करता छता, प्रणमन १०. सन्मुख प्रभु नें रह्या थका, जाव स्वाम तणी सेवा तणो, मन में संदे करें नमस्कार । करता उदार ॥ 1 करै पर्युपास । अधिक हुलास ॥ ११. ति काले ने तिण समय, वीर तणो जेष्ठ अंतेवासी भलो, इन्द्रभूती १२. जाव अतिही दूरो नहीं, नहीं अति प्रभु ऊर्द्ध जानु जाव विचरता, धरता ध्यान *लयः सहल नृप कहै चंद ने...... सुविचार । अणगार ॥ नैं नजीक । सधीर ॥ १. यथाऽयमतिमुक्तको भगवच्छिष्योऽन्तिमशरीरोऽभवत् एवमन्येऽपि पायन्तस्तच्छया अन्तिमशरीरा: संवृत्तास्तावतो वर्जयितुं प्रस्तावनामाह ( वृ० प० २१६ ) २. लेणं कालेणं तेणं समणं महागुक्काको कप्पालो, ३. महासामाणाओ विभागाओ दो देवा महिडिया जान महाणुभागा ४. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया । तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, ५. मगाइ एवं वागणं पुच्छेद कति भते समिति ६. तए णं समणे भगवं महावीरे तेहि देवेहि मणसा पुट्ठे तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं बागरेश् (०४ / ८३) अंतेवासीसबाई देवाणुपियाणं अन्तं करेहिति ? ७. एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासीसयाई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । ८. तए णं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुट्ठेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया नंदिया पीइमणा परमसोमणस्त्रिया हरिसससिप्पमापहिया ९. सम भगवं महावीर बंदति नम॑सति दित्ता नगसित्ता मणसा चैव सुस्सुसमाणा नर्मसमाणा १०. अभिमुद्दा विणए पंजनिया पक्वाति । ( श० ५ / ८४ ) ११. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे १२. जाय अदूरसामंते उजा महोगिरे भाणकोडोय गए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । श०५, उ०४, ढाल ८२ ३१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. भगवंत गोतम नों जदा, ध्यानांतर वर्तमान । प्रारंभ्यो ध्यान पूरो थयो, नवो न आरंभ्यो ध्यान ॥ १४. इम ध्यानांतर वर्तमान में, एहवा मन अध्यवसाय । जाव गोतम मैं ऊपना, सांभलजो चित ल्याय ॥ १५. इम निश्चै बिहु देवता, महाऋद्धिवान विमास । जाव महाभाग्य तणा धणी, प्रगट थया प्रभु पास ॥ १६. ते भणी हूं निश्चै करी, बिहु सुर जाणुं नाय । किसा कल्प-देवलोक थी, आव्या छै इहां चलाय॥ १७. अथवा आया किण स्वर्ग थी, स्वर्ग ते प्रतर वास । कल्प तणा जे देश नै, स्वर्ग कह्यो इहां तास ॥ १८. अथवा आया किण विमाण थी, देश प्रतर न ताय । किण कार्य अर्थ प्रयोजने? तिण अर्थे शीघ्र आय ॥ १९. ते भणी वीर पासै जइ, करूं वंदणा नमस्कार । जाव सेव कर प्रभ भणी, पूर्वी ए प्रश्न उदार ॥ १३. तए णं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंतरियाए बट्ट माणस्स ध्यानान्तरिका- आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः (वृ०प०२२१) १४. इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था१५. एवं खलु दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय पाउन्भूया, १६. तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयराओ कप्पाओ वा कप्पाओ त्ति देवलोकात् (वृ० प० २२१) १७. सग्गाओ वा सग्गाओ त्ति स्वर्गाद्, देवलोकदेशात्प्रस्तटादित्यर्थः (वृ० प० २२१) १८. विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्व मागया ? विमाणाओ त्ति प्रस्तटकदेशादिति । (वृ०प०२२१) १६. तं गच्छामि णं समणं भगवं महावोरं बंदामि नम सामि जाव पज्जुवासामि, इमाई च णं एयारूवाई वागरणाई पुच्छिस्सामि २०. त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा गच्छइ जाव पज्जुवासइ । (श० ५/८५) २१. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–से नूणं तव गोयमा! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए २२. जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हब्वमागए, से नूणं गोयमा ! अठे समठे ? हंता अत्थि । २३. तं गच्छाहि णं गोयमा ! एए चेव देवा इमाई एया रूवाइं बागरणाई वागरेहिति । (श०५/८६) २४. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (श०५/८७) २५. तए णं ते देवा भगवं गोषमं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता हट्ठतुट्टचित्तमाणंदिया णंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया २०. इम वीर मन प्रभ मांहे चितवी, ऊठे पै आयनै जाव ऊठी करै नैं तास । पर्युपास ॥ २१. हे गोतम ! इम नाम ले, वीर गोयम नै कहंत । ध्यान पूर्ण थये गोयमा ! तूं मन इम चितवंत ॥ २२. यावत् माहरूं समीप छै, तिहां उतावलो आय । हे गोतम ! अर्थ समर्थ ए? हां स्वामी ! सत्य वाय ॥ २३. ते भणी तूं जा गोयमा ! निश्चै करि ए देव । उत्तर एहवा प्रश्न नों, वागरस्य स्वयमेव ॥ २४. इम जिन आज्ञा दीधे छते, वीर वंदी नमस्कार । गमन करें सुरवर कन्है, कार्य अन्य निवार ॥ २५. तिण अवसर ते देवता, गोतम आवता देख । हरष संतोष पाम्या घणां, यावत् विकस्या विशेख ॥ ३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. शीघ्र ऊठीज सम्मत जई आया गोतम पाय । जावत नमण करी तदा, बोलै एहवी वाय । २७. इम निश्च भगवंत अम्हे महाणुक महासामान । तेही वे देव महिडिया जाव प्रगट थया जान ॥ २८. तिण अवसर है वीर ने, करि वंदना नमस्कार । मने करीनें एहवो प्रश्न एवो, प्रश्न पूछ्यो सुखकार ॥ २६. केतला हे प्रभु! आप केवल पामी सीझस्यै ३०. इम मन करि पूछ्ये छते, मन सात सौ मुझ शिष्य सीमस्य अंतेवासी सय जेह यावत् अंत करेह || थी उत्तर जिन देह । यावत् अंत करेह ॥ " ३१. इम मन सूं पूछा तणो, मन सूं उत्तर महावीर । दीधे छते म्है प्रभु प्रत, वंदां नमण करां धीर ॥ ३२. जाव करां पर्युपासना, एम कही सुर ताय । गोतम में बंदी नमी, आया जिण दिशि जाय ॥ सोरठा ३३. "इहोपाठ रं मांय, कला सुप्त सय केवली । तेहिज छ सत्य वाय, अधिका केम कहिजिये ? ३४. पनरै सय नें तीन, तापस नै गोयम गणी । प्रतियोध्या कहै चीन, सर्व यया ते केवली ॥ ३५. कहांइक टीकाकार, एहवो अर्थ कियो अछे । ते अणमिलतो धार एह वचन अवलोकतां ॥ ३६. सहस्र चोरासी साथ, बीस सहस्र केवलधरा । ऋषभ त मुनि लाघ, यति संख्या अजितादि नं ॥ ३७. तिम ए चउद हजार, ते मांहे केवलपरा । । सप्त या सुखकार, पिण अधिका नहि केवली ॥ ३८. चउदसहस्र मांहि वीर मुनी सह आविया तिमज सातसी ताहि, चउद सहल में एतला " ॥ ( ज. स. ) ३६. * अंक चोपन नों देश ए, ढाल बयांसीमी धार । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' संपति सार ॥ * लय : सोहल नृप कहै चंद नं २६. खियामेव अब्भुट्ठेति, अब्भुट्ठेत्ता खिप्पामेव अब्भुवगच्छंति जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति जाव नमसित्ता एवं वयासी २७. एवं खलु भंते! अम्हे महासुक्काओ कप्पाओ महासामाणाओ विमाणाओ दो देवा महिड्डिया जाव महाभागा ययणस्स भगवओो महावीरस्य अंति पाउ भूया | २८. अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो नमो वंदित्ता नमसित्ता मणसा चेव इमाई एयारूणाई बागरणाई पुच्छामो २९. कइ णं भंते! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसवाई सिज्झिर्हिति जाव अंतं करेहिति ? ३०. तए णं समये भगवं महावीरे अम्हेहि मणसा पुट्ठे अम्हं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेश एवं खलु देवालिया मम सत्त अंतवासीसाई जाव अंतं करेहिति । ३१. तर णं अम्हे समणेण भगवया महावीरेण मनसा चेव पुट्टेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा समण भगवं महावीरं वंदामो नमसामो ३२. जाव पज्जुवासामो त्ति कट्टु भगवं गोयमं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया । ( श०५ / ८८ ) श०५, उ०४, ढाल ८२ ३३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ८३ दूहा १. देवप्रस्तावादिदमाह (वृ० ५० २२१) २. भतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति जाव एवं वयासी . १. सुर प्रस्ताव थकी हिवै, सुर मैं सन्मुख जाण । किण रीते बोलाविय, प्रश्नोत्तर पहिछाण ॥ २. हे भदंत ! इह विध कही, भगवंत गोतम जान । श्रमण प्रभु महावीर नैं, जाव वदै इम वान ।। *स्वाम वयण सुखकारी स्वाम वयण सुखकारी, प्रभू थी प्रीत गोयम रै अतिभारी । विविध प्रकार प्रश्न वर पूछ्या, स्वाम वयण सुखकारी ।। (ध्र पदं) ३. हे प्रभु ! देव संजती एहवो, वयण तास कहिवं होई ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, अभ्याख्यानज ए जोई ॥ ४. हे प्रभु ! देव असंजती एहवो, वयण तास कहिवं होई ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, निष्ठुर कठिन वचन जोई। ३. देवा णं भंते ! संजया ति वत्तब्वं सिया ? गोयमा ! णो तिणठे समठे। अब्भक्खाणमेयं देवाणं । (श० ५/८६) ४. देवा णं भंते ! असंजता ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! णो तिणठे समठे । निठुरवयणमेयं देवाणं । (श० ५/६०) ५. देवा णं भंते ! संजयासंजया ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो तिणठे समठे। असन्भूयमेयं देवाणं । (श० ५/६१) ५. हे प्रभु ! देव संजतासंजती, एहवं तसु कहिq होई । जिन कहै अर्थ समर्थ ए नाही, असद्भूत ए वच जोई ॥ सोरठा ६. असद्भत ए जोय, अछतो वच ए छै सही। तिण कारण अवलोय, संजतासंजती सुर नहीं। ७. *से कि खाइ अथ प्रश्ने पुन, सुर नैं किम कहि होई ? नहीं संजती सुर इम कहिवं, वचन कठिन नहि ए कोई।। ८. अर्थ असंजत तणोज आव्यो, ए पर्याय नाम आख्यं । मुंआ भणी परलोक गयो कहै, तेहनी परि ए पिण भाख्यू । ७. से कि खाइ णं भंते ! देवा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा! देवा णं नोसंजया ति वत्तव्यं सिया। . (श० ५/६२) से इति अथार्थः किमिति प्रश्नार्थः (वृ०प० २२१) ८. असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि नोसंयतशब्दस्यानिष्ठुरवचनत्वान्मृतशब्दापेक्षया परलोकीभूतशब्दवदिति । (वृ० प० २२१) ६. देवाधिकारादेवेदमाह (वृ० प० २२१) देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति ? कयरा व भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? ६. देव तणां अधिकार थकी वलि, सुर नी बात कहै सारी। हे प्रभु ! भाषा किसी वदै सुर, किसी बोलता तसुं प्यारी? सोरठा १०. भाषा षट्विध होय, प्राकृत नै संस्कृत पुनः । मागध पिशाची जोय, सूरसेनी वलि पंचमी॥ *लय : नाहरगढ़ ले चालो वनांजी १०,११ भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषा च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषादपभ्रंशः ।। (वृ०प० २२१) ३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. छट्ठी इहां कहीज, सूरसेनी नों भेद ए। देश विशेष थकीज, अपभ्रंसी कहिये तसुं ।। १२. किंचित् मागध जाण, किंचित् प्राकृत लक्षणे । जैह विषे पहिछाण, अर्द्धमागधी ते कही। १३. *जिन कहै अर्द्धमागधी भाषा, वदै देवता जशधारी । ___ अर्द्धमागधी सुलभ बोलतां, सुणतां समझ लगै प्यारी॥ १४. कह्या सात सय केवलज्ञानी, वलि छद्मस्थ देव आख्यं । हिव छद्मस्थ केवली ना प्रस्ताव थकी आगल दाख्यं ॥ १५. अंतकरं-भव-छेद करै प्रभ ! अथवा चरम-तन त्यांन । केवलज्ञानी जाणे देखै ? जिन भाखै हंता जाने । १२, तत्र मागधभाषालक्षणं किञ्चित्किञ्चिच्च प्राकृत भाषालक्षणं यस्यामस्ति सार्द्ध मागध्या इति व्युत्पत्याऽर्द्धमागधीति । (वृ० प० २२१) १३ गोषमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति । सा वि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति । (श० ५/६३) १४. केवलिछद्मस्थस्यवक्तव्यताप्रस्ताव एवेदमाह (वृ० प० २२१) १५. केवली णं भंते ! अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा जाणइ-पासइ ? हंता जाणइ-पासइ। (श० ५/६४) १६. जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा जाणइ-पासइ, तहा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा जाणइ-पासइ ? गोयमा ! णो इणठे समठे। १७. सोच्चा जाणइ-पासइ, पमाणतो वा। (श० ५/६५) १६. अंतकरं वा चरमशरीरक, जाणे देखै जिन ज्यांही। तिम ही छद्मस्थ जाण देखै ? जिन कहै अर्थ समर्थ नाही॥ १७. किणहि प्रकार थकी वलि जाणे, ए अधिकार हिवै आण । सांभल ने जाणे ए बिह प्रति, तथा प्रमाण थकी जाण ॥ १८. से कि तं सोच्चा अथ स्यं ते, ए बिह जाण सांभल नै? जिन कहै केवली कन्है सुणी ने, जाण अंतकरादिक ने ॥ १६. केवली ना श्रावक नैं पास, केवलि नी श्राविका पासै । केवली तणा उपासक पास, वलि तसं उपासिका आसै॥ सोरठा २०. केवली पास सुणंत, श्रावक अर्थो सुणवा तणो । ए करसी भव-अंत, इत्यादिक सूण जाणिय ॥ १८. से किं तं सोच्चा? सोच्चा णं केवलिस्स वा, १६ केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलि उवासगस्स वा, केवलि उवासियाए वा, २०. 'केवलिसावगस्त व' त्ति जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् शृणोति तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावक: तस्य वचनं श्रुत्वा जानाति, स हि किल जिनस्य समोपे वाक्यान्तराणि शृण्वन् अयमन्तकरो भविष्यतीत्यादिकमपि वाक्यं शृणुयात् ततश्च तद्वचनश्रवणाज्जानातीति । (वृ० प० २२२) २१. उपासक सेव करेह, सुणवा नी वांछा नथी। सेवा तत्पर एह, जाण तसु पासै सुणी ।। २२. *केवलोपाक्षिक स्वयंबुद्ध पै, वलि तस् श्रावक प माण । तेहनी वलि श्राविका पास, सांभल मैं ते वलि जाणे ।। २१. केवलिनमुपास्ते यः श्रवणानाकांक्षी तदुपासनमात्रपरः सन्नी केवल्युपासकः तस्य वचः श्रुत्वा जानाति । (वृ० प० २२२) २२. 'तप्पक्लियस्स' वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावियाए वा, तपक्लियस्स त्ति केलिपाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्येत्यर्थः । (वृ० प० २२२) * लय : नाहरगढ़ ले चालो ..... श० ५, उ० ४, ढाल ८३ ३५ Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. तप्पक्खियउवासगस्स बा, नप्पक्खियउवासियाए वा २४. से तं सोचा। (श० ५/६६) २३. स्वयंबुद्ध तणा उपासक पास, स्वयंबुद्ध उपासिका पाह्यो । करसी भव न अंत इत्यादिक, वचन सुणी जाणे ताह्यो । २४. यां दस पै निसुणी नैं जाण, ए भव-अंत करणवालो । अथवा चरमशरीरी ए छै, से तं सोच्चा नीहालो। २५. अथ स्यं ते प्रमाण हिवै ? जिन भाखै चउविध त्यांही। प्रत्यक्ष अनुमान ओपम आगम, जिम अनुयोगद्वार मांही। २५. से कि तं पमाणे? पमाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा- पच्चक्खे अणु माणे ओवम्मे आगमे, जहा अणुओगदारे तहा नेयव्वं २६ पमाणं जाव तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे । (श० ५/९७) २६. प्रमाण यावत् जंबू उपरंत, आत्मागम कहिये नांही । अनंतरागम पिण नहिं कहिये, परंपरागम छै ज्याही।। सोरठा २७. जाणे जिण करि ताय, प्रमाण कहियै तेहनें । तेह चतुर्विध पाय, प्रत्यक्षादिक जाणवा ॥ २८. अक्ष जोव कहिवाय, अथवा अक्षज इंद्रिय । प्रति गत प्राप्तज थाय, प्रत्यक्ष कहियै तेहनें ।। २६. लिंगग्रहण धूमादि-संबंधस्मरणादि अनु - पछै ज्ञान अविवादि, पण करि अनुमान ते ।। ३०. सदृशपणां करेह, ग्रह वस्तु जेण करी । उपमा कहियै तेह, तृतीय प्रमाणज नाम ए।। ३१. गुरु-पारम्पर्येण, आवै ते आगम का । ए चिहौं प्रमाण वैण, हिव तसं भेद जुआ जुआ ।। ३२. प्रत्यक्ष दोय प्रकार, इंद्रिय ने नोइंद्रिय । इंद्रिय पंच प्रकार, श्रोत्रंद्रियादिक पंच ही। २७. प्रमीयते येनार्थस्तत्प्रमाण प्रमिति वा प्रमाण (वृ० प० २२२) २८. अक्ष-जीवं अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति गतं प्रत्यक्षं । (बृ०प० २२२) २६. अनु... लिंगग्रहण सम्बन्धस्मरणादेः पश्चान्मीयतेऽनेनेत्यनुमानम् (वृ० प० २:२) ३०. उपमीयते--सदृशतया गृह्यते वस्त्वनयेत्युपमा संव औपम्यम् (वृ० प० २२२) ३१. आगच्छति गुरुपारम्पर्येणेत्यागमः एषां स्वरूपं शास्त्रलाघवार्थमतिदेशत आह३२. पच्चक्खे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इंदियपच्चक्खे नोइंदियपच्चक्खे य। से कि तं इंदियपच्चक्खे ? इंदियपच्चक्खे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियपच्चक्खे...। (अणुओग० ५१६,५१७) ३३. से किं तं नोइंदियपच्चक्खे ? नोइंदियपच्चक्खे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओहिनाणपच्चक्खे मणपज्जवताणपच्चक्खे केवलनाणपच्चक्खे । (अणु० ५१८) ३४. से कितं अणमाणे? अणुमाणे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा-- पुखवं सेसवं दिट्ठसाहम्मवं। (अणु०/५१६) ३५,३६. से कि तं पुबवं? पुववं--- गाहा ---माता पुत्तं जहा नळं जुवाणं पुणरागतं । काई पच्चभिजाणेज्जा पुबलिगेण केणई ।। तं जहा-खतेण वा। ३३. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष, त्रिविध जिनेश्वर आखियो । अवधिज्ञान वर दक्ष, मनपज्जव केवल प्रत्यक्ष ।। ३४. त्रिविध कह्यो अनमान, पूर्ववत पहिलं कह्य । शेषवत पहिछान, तृतीय दृष्टसाधर्म्यवत ॥ ३५. पूर्ववत धुर भेद, माता अपणा पुत्र जे । बाल अवस्था वेद, देशांतरे गयो हतो। ३६. काल केतले तेह, तरुण होय आयो फिरी । कोइक चिह्न करेह, पूर्व दृष्ट क्षतादि जे ॥ १. यहां धूआं है, इस लिंग-हेतु का ग्रहण, फिर धूम और अग्नि के नित्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का स्मरण, इसके अनु-पश्चात् होने वाला मान-ज्ञान अनुमान कहलाता है। ३६ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. वणेण वा लछणेण वा मसेण वा तिलएण वा । (अणु० ५२०) ३७. श्वान हिड़कियो आदि, खाधा करिवू दाह नू । तेह वर्ण संवादि, मस लछन तिलकादि जे॥ ३८. तिण करि जाणे जेह, माहरू ए अंगज अछै । ते अनुमान करेह, निर्णय करियै तेहन् । ३६. शेषवत पंच भेदि, कार्य करि कारण करि । गण करिने संवेदि, अवयव करि आश्रय करि । ४०. कार्य करिने जाण, जाणे शंखज शब्द करि । भेरी ताडवै माण, धड़कवै करि वृषभ नै । २६. से कि त सेसव ? सेसव पचविहं पण्णत्त, त जहा-कज्जेण कारणेण गुणेणं अवयवेणं आसएणं । (अणु०५२१) ४०. से किं तं कज्जेणं ? कजण-संखं सद्देण, भेरि तालिएण, वसभ ढिकि एण। ८१. मोर केकाइएण, हयं हेसिएण, हत्थिं गुलगुवाइएण, रह घणघणाइएणं । से तं कज्जेणं (अण० ५२२) ८२. से कितं कारणेणं ? कारणेणं-तंतवो पडस कारण न पडो नतु कारण, ८३. वीरणा कडस्स कारणं न कडो वीरण कारण, ४१. मोर केकारव साज, हय हींसारव शब्द करि । गुलगुलाट गजराज, घणघणाट करि रथ प्रत।। ४२. कारण करिके सोय, पट नों कारण तांतूवा । पिण तांतव नों जोय, कारण पट-वस्तर नथी। ४३. इमहिज चटाई नाम, कट नों कारण वीरणा । पिण वीरण नों ताम, कारण नहि छै तेह कट ।। ४४. घट नों कारण देख, माटी नों जे पिंड छ । मत-पिड नों जे पेख, कारण नहि छै ते घडो ।। ४५. तोजो गण करि जाण, सुवर्ण रेखज कसवटी । दश वानी न मान, ए पंचवानी न सुबन्न ।। ४६. पुष्प गंध करि जान, शतपत्रादिक पुष्प ए । लवण रसे करि मान, विविध भेद जे लवण ना ।। ४७. आस्वादे करि सोय, ए मदिरा छै अमकडो । स्पर्श करो अवलोय, एह फलाणो वस्त्र छै ।। ४८. अवयव करि जाणेह, सींग देखवै महिष प्रति । शिखा देखवै लेह, कुकट प्रति जाणे बलि ।। ४६. दांते करि गज भूर, सूयर दाढाई करी । पांखे करो मयूर, खर देख्यां थो अश्व प्रति ।। ५०. नख करि बाघ विचार, वालाग्र धड करि चमरि प्रति । पूंछ देखवै धार, बंदर' छै इम जाणियै ।। ८४. मपिडो घटस्स कारण न घडो मपिडकारण । से तं कारणेण । (अणु० ५२३) ४५. से कि तं गुणेणं ? गुणेणं-सुवण्णं निकसेण, ४६. पुष्पं गंधेणं, लवणं रसेण, ४७. मइर आसाएण, वत्थ फासेण । से तं गुणेण । (अणु० ५२४) ४८. से कि तं अवयवेण ? अवयवेणं-महिसं सिगेण, कुक्कुड सिहाए, ४६. हत्थिं विसाणेण, वराह दाढाए, मोरं पिछेण, आस खुरेणं, ५०,५१. वग्घ नहेण, चमरि बालगुंछण, दुपय मणुस्स यादि, चउप्पयं गवमादि, बहुपयं गोम्हियादि, 'वानरं नंगुलेणं', १ यहां अणुओगद्दाराई में 'वालगुंछेणं' पाठ है। वालग्गेणं पाठ पाठान्तर में लिया २ मूलसूत्र में 'चमरिं वालगुंछेणं' के बाद 'दुपयं मणुस्सयादि' पाठ है । पाठान्तर में इसके स्थान पर 'वानरं नंगलेणं' पाठ है । जयाचार्य ने जोड़ में इसी क्रम को स्वीकार किया है। उन्हें उपलब्ध आदर्श में यही पाठ रहा होगा। इस जोड़ के सामने जो पाठ उद्धृत किया गया है वह वर्तमान में सम्पादित 'अणुओगदाराई' का पाठ है, इसलिए उसमें क्रम का व्यत्यय है। श०५, उ०४, ढाल ८३ ३७ Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. सीहं केसरेणं, वसहं ककुहेणं, महिलं वलयबाहाए । ५३. परियरबंधेण भडं, जाणेज्जा महिलियं निवसणेणं । ५१. बे पग देख्यां वादि, मनष्य आदि इम जाणिय । चउ पद करि गो आदि, कान्हसलो बहु पद करी ॥ ५२. केसर करि के सोंह, स्थूभ स्कंध देखो करी । जाणं वृषभ अबीह, वलय-बांह करि स्त्री प्रतै ॥ ५३. बखतर आदि बंधेण, देखो जाणे सुभट प्रति । फून पहिर्या वेसेण, जाण ते महिला प्रतै ।। ५४. सोझी जे इक सीत', जाण अन्न हांडी तणुं । गाथा एक पुनीत, सुण जाणे ए कवि अछ। ५५. अथ आश्रय करि जाण, धूमे करिने अग्नि प्रति । बुगलां क र सर माण, अभ्र विकारे वृष्टि प्रति ।। ५६. शील समाचरणेह, जाणे वलि कुलपुत्र प्रति । शेषवत का एह द्वितीय भेद अनुमान नें ।। ५७. पूर्वे जाण्यो जेह, जे साथै छै तुल्यपणुं । ___ दृष्टसाधर्म्य कहेह, तेहना दोय प्रकार छ । ५४. सित्येण दोणपागं कवि च एगाए गाहाए। (अणु० ५२५) ५५. से कि तं आसएणं? आसएणं-अग्गिं धूमेणं, सलिलं बलागाहिं, वुट्टि अब्भविकारेणं, ५६. कुलपुत्तं सीलसमायारेणं । से तं आसएणं । से तं सेसवं । (अणु०/५२६) ५७. से किं तं दिटुसाहम्मवं ? दिटुसाहम्मवं दुविहं पप्णत्तं, तं जहादृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्य दृष्टसाधर्म्यम् । (अनु० वृ० ५० १६६) ५८. सामन्नदिठं च विसेसदिळं च। (अणु० ५२७) सामान्यतो दृष्टार्थयोगात्सामान्यदृष्टं, विशेषतो दृष्टार्थयोगाद्विशेषदृष्टम्। (अनु० वृ० ५० १६६) ५६. से कि तं सामन्नदिट्ट ? । सामन्नदिळं-जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो। ५८. सामान्यदृष्ट थकीज, दीठो ते सामान्यदष्ट । विशेष दृष्टे लोज, दोठो तेह विशेषदृष्ट । ५६. धुर सामान्यज दृष्ट, जिम एक पुरुष तिम बहु पुरुष । जिम बहु पुरुषा इष्ट, तिम जाण इक पुरुष प्रति ॥ ६०. एक पुरुष ने देख, जाण बहुला पुरुष नै । घणां पुरुष नैं पेख, जाण लियै इक पुरुष प्रति ।। ६१. जिम इक सुवर्ण ज्ञान, तिम बहु सोनइयां प्रति । जिम बहु सुवर्ण जाण, तिम इक सोनइया प्रति । ६२. बलि देख्यूज विशेख, विशेष-दृष्टज दूसरो । घणां पुरुष में रेख, एक पुरुष नै ओलखै । ६३. पूर्व इक नर दृष्ट, घणां पुरुष माहै तिको । देख्यां जाणे इष्ट, पूर्व देख्यो तेह ए॥ ६४. पूर्वे सोनइयो देख, घणां सोनइयां में तिको । देखी जाण पेख, पूर्व देख्यो तेह ए॥ ६१. जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो। (अणु० ५२८) ६२. से कि तं विसेसदिह्र ? विसेसदिळें-से जहानामए केइ पुरिसे बहूर्ण पुरिसाणं मज्झे पुवदिळं पुरिसं पच्चभिजाणेज्जा अयं से पुरिसे, ६४. 'बहूणं वा करिसावणाणं मज्झे पुवदिहें करिसावणं पच्चभिजाणेज्जा-अयं से करिसावणे ।' (अणु० ५२६) ६५. तस्स समासओ तिविहं गहणं भवइ, तं जहा तीयकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकालगहणं । (अणु० ५३०) ६५. तेहना तीन प्रकार, कहियै एह संक्षेप थो । अतीत-ग्रहण विचार, वर्तमान आगामिक ॥ १ अनाज का एक कण ३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. अतीत-ग्रहण सुजन्न, ऊगा तृण वन नैं विषे । सर्व धान्य निष्पन्न, तिण करि शोभै मेदनी ॥ ६७. द्रह सर कुंड तलाव, पूर्ण भरिया पेख नैं । थइ सुवृष्टिज भाव, जाण अतीत-ग्रहण ए॥ ६८. गयो गोचरी संत, मिलै प्रचरज अन्न जल । हिवडां सुभिक्ष हुत, ए वर्तमान अद्धा-ग्रहण ॥ ६६. से कि तं तीयकालगहणं ? तीयकालगहणं-उत्तिणाणि वणाणि निप्फण्णसस्सं वा मेइणि, ६७. पुण्णाणि य कुंड-सर-नदि-दह-तलागाणि पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा-सुट्टी आसी। से तं तीयकालगहणं । (अणु० ५३१) ६८. से किं तं पडुप्पण्णकालगहणं ? पडप्पण्णकालगहणं-साहुं गोयरग्गगयं विच्छड्डिय पउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहासुभिक्खे वट्टइ । से तं पडुप्पण्णकालगणं । (अणु० ५३२) ६६,७०. से कि तं अणागयकालगहणं? अणागयकालगणं-गाहाअब्भस्स निम्मलत्तं कसिणा य गिरी सविज्जुया मेहा । थणिय-वाउब्भामो संझा निद्धा य रत्ता य ।। स्तनितं-मेघगजितं, 'वाउन्मामो त्ति तथाविधो वृष्ट्यव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वातः । (अनु० वृ० ५० १६६) ७१. वारुणं वा माहिदं वा ६६. काल अनागत-ग्रहण, अभ्र गगन निर्मलपणं । गिरि वर कृष्णज वर्ण, विद्युत सहितज मेघ फुन । ७०. वलि घन गर्जत ताय, वृष्टि योग्य प्रदक्षिण दिशि । __भ्रमत प्रशस्तज वाय, संध्या रक्तज चींगटी। ७१. वारुण मंडल जाण, तथा माहेंद्रज मंडलो। ग्रन्थांतरे पिछाण, लक्षण तेहन इम का ॥ ७२. पूर्वाषाडा पेख, वलि उत्तराभाद्रज कह्यो । अश्लेषा सुविशेख, आद्रा मूलज रेवती ॥ ७३. वलि शतभिषा कहाय, एहिज नक्षत्र करी । वारुण मंडल थाय, अथ माहेंद्रज मंडलो॥ ७४. अनुराधा अवलोय, जेष्ठा उत्तराषाढ फुन । श्रवण धनेष्ठा जोय, रोहिणि माहिंद्र मंडलो ।। ७५. अन्य कोइक उतपात, दिग-दाहादिक प्रशस्तहि । वृष्टी कर्ता ख्यात, देखी नैं इम जाणिय ।। ७६. यथा सुवृष्टि सुहाय, हुसैज इह अन्य क्षेत्र में । काल अनागत पाय, ग्रहण करै अनुमान करि ।। ७७. विण तृण वन वलि धान अनिष्पन्न शुष्क सर प्रमुख । थई कुवृष्टी जान, काल अतीतज-ग्रहण ए॥ ७५,७६. अण्णयरं वा पसत्थं उपायं पासित्ता तेणं साहि जजइ, जहा -- सुवुट्ठी भविस्सइ । से तं अणागयकालगहणं । (अणु० ५३३) उत्पातम्-उल्कापातदिग्दाहादिकम् (अनु० वृ० प० २००) ७७. तीयकालगहणं नित्तिणाई वणाई अनिष्फण्णसस्सं वा मेइणि, सुक्काणि य कुंड-सर-नदि-दह-तलागाई पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा कुवुट्ठी आसी । (अणु० ५३५) ७८. पडुप्पण्णकालगहणं-साहुं गोयरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेण साहिज्जइ, जहा-दुब्भिक्खे बट्टइ। (अणु० ५३६) श० ५, उ० ४, ढाल ८३ ३६ ७८. मनी गोचरी मांहि, भिक्षा में अणपामवै । दुर्भिक्ष वर्ते ताहि, वर्तमान जाणे अद्धा॥ Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. अणागयकालगहण-अग्गेयं वा बायव्व वा। पूवान ७६. आग्नेय मंडल जाण, अथवा वायव्य मंडलो । ग्रन्थांतरे पिछाण, दाख्यो ते कहिये अछे ८०. भरणी अनैं विशाख, पूर्वा फाल्गनी और पुष । पूर्वाभाद्र विशाख, मघा सप्त आग्नेय ह ।। ८१. चित्रा हस्त मझार, मृगशिर स्वातिज अश्विनी । पुनर्वसू वलि धार, उत्तराभद्र वायव्य मंडल ॥ ८२. ए बे मंडल ख्यात, वृष्टि तणां घातक अछै । वली अन्य उत्पात, देखी नैं जाणें इसो॥ ८३. हुस्यै कुवृष्टि अनिष्ट, अद्धा अनागत-ग्रहण ए। ए विशेष थी दृष्ट, एह दृष्टसाधर्म्यवत ॥ ८४. आख्यो ए अनुमान, चिउं प्रमाण में दूसरो । हिव कहियै उपमान, भेदज तृतीय प्रमाण नों। ८५. उपमा दोय प्रकार, साधर्म करि उपनीत ज्यां । विषम धर्म करि धार, वैधयंज-उपनय जिहां ।। ८२,८३. अण्णयर वा अप्पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जद, जहा-कुबुट्ठी भविस्सइ । से तं अणागयकालगणं । ८४. से तं अणुमाणे । (अणु ० ५३७) ८६. सदृश धर्मपणेण, उपनय तेहन मेलवू । प्रथम साधर्म नामेण, साधर्म्यज-उपनीत ते॥ ८७. विषम धर्म भावेण, उपनय तेहन मेलवू । द्वितीय वैधर्म नामेण, वैधर्मज-उपनीत ते ।। ८८. साधर्म्य त्रिविधज तास, धुर किचित्साधर्म्य हि । बहुलसाधर्म्य विमास, तृतीय सर्वसाधर्म्य फुन । ८५. से कि तं ओबम्मे? - ओवम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--साहम्मोवणीए य वेहम्मोवणीए य। (अणु० ५३८) ८६. साधयेणोपनीतम् - उपनयो यत्र तत्साधोपनीतम् । (अनु० वृ० प० २०१) ८७. वैधयेणोपनीतम् - उपनयो यत्र तद्वैधोपनीतम् । (अनु० वृ० प० २०१) ८८. से कि तं साहम्मोवणोए ? साहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-किंचिसाहम्मे, पायसाहम्मे, सव्वसाहम्मे। (अणु० ५३६) गीतक-छंद ८६. किंचित् साधर्म्यओपम इम जिम, मेरु तिम सरिसव अणुं । वलि जेम सरिसव तेम मेरू, मूर्तता सदृशपणुं॥ ८६. से कि तं किचिसाहम्मे ? किचिसाहम्मे - जहा मंदरो तहा सरिसवो, जहा सरिसवो तहा मंदरो। ६०. जहा समुद्दो तहा गोप्पयं, जहा गोप्पयं तहा समुद्दो ।। १०. जिम समुद्र तिम गोपद वलि, जिम गापदो तिम उदधि ही। उदक सहितपणांज मात्र हि, तसं सारखं किचित् लही । ११. जिम तरणि तिम खद्योत फुन, जिम आगियो तिम रवि मणं । ए उभय नुं गगने गमन, उद्योत किचित् सदृशपणुं ॥ १२. जिम चंद्र तिमहिज कुमद कमलज, जिम कुमुद तिम शशि भणुं । चंद कुमुद बिहु नुं शुक्ल भावज, किंचित ए सदृशपणुं॥ ६१. जहा आइच्चो तहा खज्जोतो, जहा खज्जोतो तहा आइच्चो। १२. जहा चंदो तहा कुंदो, जहा कुंदो तहा चंदो ।। से तं किंचिसाहम्मे । (अणु० ५४०) १३. ए किंचितसाधर्म्य करि, प्राय बहुलसाधर्म्य करि, वर धुर भेद कहेह । उपनय मेलवियेह ।। ४. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतक-छंद १४. जिमहीज गो तिम गवय फुन, जिम गवय तिम गो जाणिय । इह खुर ककुद शृंग पूंछ प्रमुखज, सदृश बिहु नों माणिय ।। ६४. से कि त पायसाहम्म? पायसाहम्मे-'जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ सहा गो।' से तं पायसाहम्मे । (अणु० ५४०) खरककुदविषाणलाङ्गलादेद्वयोरपि समानत्वात् __(अनु० वृ० प० २०१) ६५. नवरं सकम्बलो गौर्वृत्तकण्ठस्तु गवय इति प्रायःसाधर्म्यता। (अनु० वृ० प० २०१) सोरठा १५. णवरं इतो विशेख, गो न कंबल प्रगट ही। कंठ वाटलुं देख, गवय-रोझ न जाणिये ॥ ६६. बहुलपणुं ते पाय, सदृशपणुं का तसुं । तृतीय भेद हिव आय, सर्वसाधर्म्य तणूं कहु ।। १७. सर्व भिन्न छै सोय, क्षेत्र काल प्रमुख करी । एक सरीख न होय, तिण सं सर्वसाधर्म्य नहि ।। १८. तृतीय भेद किम ख्यात, तथापि तसं वंछा तणुं । अरह प्रमुख विख्यात, तिण करि ओपम कहीजिय ।। ६७,६८. से कि तं सव्वसाहम्मे ? सब्वसाहम्मे ओवम्म नत्थि तहावि तस्स तेणेव ओबम्मं कीरइ। गीतक-छंद ६. अरिहंत जे अरिहंत सादृश, करत कारज जेहवू । चिउं तीर्थ वर धुर स्थापवै, जन अन्य नहि को एहवू । ६६. जहा अरिहंतेहि अरहतसरिसं कयं । तत्किमपि सर्वोत्तमं तीर्थप्रवर्तनादिकार्यमर्हता कृतं यदहन्नेव करोति नापरः कश्चिदिति भावः । (अनु० वृ० प० २०१) १००. चक्कवट्टिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, १०१. वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं, १००. वलि चक्रवर्ती चक्रि सदृश, कार्य कर्ता जाणियै । षट् खंड साधन प्रमख जे जन, अन्य को नहि ठाणिय।। १०१. फुन अर्द्धचक्री करत कारज, अर्द्धचक्री सारिखो । युद्ध सूर नैं प्रतिमल्ल हंता, अन्य को नहिं पारिखो। १०२. बलदेव ते बलदेव सादृश, कृत्य कृत पद अमर ही । सुर सहस्राधिष्ठित हलादिक युद्ध अन्य ए सम को नहीं।। १०३. मुनि करै कारज मुनी सरिखू, अन्य को न करै इसु । सम्यक्त्व चारित्र बिन क्रिया कृत, तेह पिण नहि मुनि जिसु ।। १०२. बलदेवेन बलदेवसरिसं कयं, १०३. साहुणा साहुसरिसं कयं । से त सव्वसाहम्मे । से तं साहम्मोवणोए । (अणु० ५४२) सोरठा १०४. साधर्म्य-उपनय ख्यात, वैधर्म्य-उपनय त्रिविध । किंचित्वैधर्म्य जात, प्राय-सर्व-वैधर्म्य फुन ।। १०५. सबली-काबरी गाय, जन्म्यो जेहवो वाछरो । तेहवो वाछर नाय, बहुली-काली गा जण्यों ।। १०६. बहुली-काली जात, जेहवो छै जे बाछरो। तेहवो वच्छ न थात, गाय काबरी नों जण्यों ।। १०४. से कि तं वेहम्मोवणीए ? वेहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते--किचिवेहम्मे, पायवेहम्मे, सव्ववेहम्मे । (अणु० ५४३) १०५. से कि तं किंचिवेहम्मे ? किचिवेहम्मे-जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, १०६, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो। से तं किंचिवेहम्मे। (अणु० ५४४) श०५, उ०४, ढाल ८३ ४१ Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८. से कि तं पायवेहम्मे ? पायवेहम्मे-जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो। (अणु० ५४५) १०७. शेष धर्म तुल्य हेर, ते माता ना भेद थी । ईषत् वच्छ में फेर, तिण सं किंचित् वैधर्म्य ।। १०८. जेहवी पायस-क्षीर, तेह वायस-काग नहि । जेहवं वायस भोर, तेहवो पायस-क्षार नहि ।। १०६. धर्म सचेतन आदि, नहिं छै बहु सदृशपणुं । प्राय बहुल संवादि, कहियै बहुवैधर्म्य ए॥ ११०. पायस वायस नाम, बिहुना बे बे वर्ण तुल्य । निज निज सत्व सुपाम, इत्यादिक सदृशपणु ॥ १११. तिण सं ए आख्यात, प्राय-बहुल वैधर्म्यवत । तृतीय भेद हिव आत, सर्व थकी जे वैधर्म्य ।। ११२. सर्व-वैधर्म्य नाहि, अछे जाणवा जोग्य सहु । छतापणुं सहु मांहि, एह सरिखू ते भणी ।। ११३. तो तृतीय भेद आख्यात, तेहर्नु निरर्थकपणुं । ते माटै अवदात, सर्ववैधर्म्य उपम हिव ।। ११४. तेहने तेहिज साथ, कीजै छै उपमा जिका । नीच कयुं गुरु घात, अकृत नीच करै जिसु ॥ ११५. दासे दास सरीस, कोथं छै कारज जिको । काग कृत्यज ईष, काग करै छै जेहवू ।। ११६. श्वाने श्वान सरीस, कारज कीधं छै तिणे । पाण चंडालज ईष, जे चंडाल सरीख कृत' ।। ११७. शिष कहै स्वामीनाथ ! नोचे नीच सरीख कृत । इत्यादिक अवदात, साधर्म्य पिण वैधयं किम ? ११२. से किं तं सव्ववेहम्मे ? सव्ववेहम्मे ओवम्म नत्थि, ११४. तहा वि तस्स तेणेव ओवम्म कीरइ, जहा-नीचेण नीचस रिसं कयं । ११५. काकेण कागसरिसं कयं, ११६. साणेण साणसरिसं कयं । ११८. गुरु कहै ए सत्य बात, किंतु प्राये नीच पिण । न करै ए महाघात, स्यूं कहिदुंज अनीच नुं ।। ११६. सर्व लोक विपरीत, प्रवा नी वंछना । इहां वैधर्म्य प्रतीत, इम दासादिक पिण सहु ।। ११७. आह-नीचेन नीचसदृशं कृतमित्यादि ब्रुवता साधर्म्यमेवोक्तं स्यान्न वैधर्म्यम्, (अनु० वृ०प० २०१) ११८. सत्यं, किन्तु नीचोऽपि प्रायो नैवंविधं महापापमाच रति किं पुनरनीच: ? ११६. एव दासाद्युदाहरणेष्वपि वाच्यम् । (अनु० वृ० प० २०१) ततः सकल जगद्विलक्षणप्रवृत्तत्वविवक्षया वैधर्म्य मिह भावनीयम् । (अनु० वृ० प० २०१) १२०. से तं सव्ववेहम्मे । से तं वेहम्मोवणीए । से तं ओवम्मे । (अणु० ५४६) १२१. से कि तं आगमे ? आगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-लोइए लोगुत्तरिए य । (अणु० ५४७) १२०. सर्व वैधर्म्य ख्यात, वैधर्म्य उपनय ए कह्य । ए उपमा अवदात, तृतीय प्रमाण कह्य प्रवर ।। १२१. आगम तुर्य प्रमाण, दोय प्रकारज दाखियो । लौकिक प्रथम पिछाण, लोकोत्तर दूजो वलि ॥ १. गाथा ११५ और ११६ में दास और पाण शब्द हैं, वे अनुयोगद्वार के इस बादर्श के पाठान्तर में हैं। ४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. लौकिक जेह कथित, अज्ञानी मिथ्यातीइं। स्वछंदबुद्धि रचित, भारत जावत वेद चिहुं ।' १२३. द्वितीय लोकोत्तर जन्न, जे अरिहंत भगवंत जी । उत्पन्न ज्ञान दर्शन्न, तास धरणहारे प्रभ ।। १२२. से कि तं लोइए आगमे ? लोइए आगमे -जण्णं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठीहिं सच्छंदबुद्धि-मइ-विगप्पियं, तं जहा--भारहं जाव चत्तारि वेया संगोवंगा । से तं लोइए आगमे। (अणु० ५४८) १२३. से कि तं लोगुत्तरिए आगमे? लोगुत्तरिए आगमे-जण्णं इमं अरहंतेहि, भगवंतेहिं उप्पण्णनाणदंसणधरेहि १२४,१२५. तीयपडुप्पण्णमणागयजाणएहिं सव्वण्णूहि सव्वदरिसीहि तेलोक्कवहिय-महिय-पूइएहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं, १२४. तीन काल नां जाण, आंसू-वहित अमर नर । निरख्या जिन गुण-खाण, महिय तास गुणग्राम करि। १२५. पूजित भाव करेह, सर्व वस्तु ना जाण प्रभु । सर्व वस्तु देखेह, तिणे परूप्या बार अंग ॥ १२६. प्रथम अंग आचार, यावत् दृष्टीवाद' फुन । अथवा आगम सार, तीन प्रकार परूपिया ।। १२७. गणधर कृत वर सुत्त, अर्थागम अरिहंत कृत । उभयागम बिहुउक्त, अथवा आगम त्रिविध फुन। १२६. आयारो जाव दिट्ठिवाओ। (अणु० ५४६) १२७. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते तं जहा- सुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे। (अणु० ५५०) अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, १२८. अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। १२६. तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे । १३०. गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, १३१. अत्थस्स अणंतरागमे । १२८. आत्मागम धुर आण, अनंतरागम द्वितीय फून । परंपरागम माण, हिव निर्णय एहनों कहु । १२६. तीर्थंकर मैं जाण, अर्थागम आत्मा थकी । विण उपदेश पिछाण, तिण सं आत्मागम थया । १३०. गणधर नै पहिछाण, सूत्रागम छै आत्म थी। तेहनों गंथ्यो जाण, आत्मागम ते सूत्र नों। १३१. अर्थ तणो अवलोय, आगम जाणपणो प्रवर । अणंतरागम जोय, गणधर तण कहोजियै ।। १३२. गणधर नां शिष्य सार, जंबू ने जे सूत्र नों। अणंतरागम धार, परंपरागम अर्थ नों। १३३. तिण उपरत विचार, प्रभवादिक नैं सूत्र नुं । अर्थ तणु पिण घार, जाणपणो छै ज्ञान ते ॥ १३४. आत्मागम न कहाय, अणंतरागम पिण नहीं । परंपरागम थाय, हिव ए कहूं जुओ-जुओ।। १३५. अर्थ तणो पहिछाण, आत्मागम तीर्थंकरे । गणधर तणेज जाण, अणंतरागम अर्थ नों।। १३६. गणधर ना जे शीस, अथवा प्रशिष्य तेहना । अनुक्रम शीस जगीस, परंपरागम अर्थ नों। १३२. गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परं परागमे । १३३,१३४. तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्ता गमे, नो अणंतराममे, परंपरागमे । १, २. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है। अनुयोगद्वार के इस आदर्श में पाठ पूरा है। संक्षिप्त पाठ की सूचना पाद-टिप्पण में दी गई श०५, उ०४, ढाल ८३ ४३ Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७. सूत्र थकी कहिवाय, आत्मागम गणधर तणें । तेहना शिष्य में ताय, अांतरागम सूत्र नौ ॥ १३८. जंतूनां णीस, प्रभव तथा तनुं प्रशिष्य ने चरम लगे सुजगीस परंपरागम सूत्र नौ ॥ नों १३. ए सगल विस्तार, अनुयोगद्वार बी अस् जाव शब्द में सार का भगवती नं विषै ॥ बुहा प्रस्ताव थी सुविचार | केवली में छपस्य नों, हिव कहिये विस्तार ॥ १४०. केवली में छद्मस्थ नां, १४१. है प्रभु | चरिम तिके बेहला कर्म, चरिम निर्जरा बलि जाणी । तेह केवली जाणें देखे ? हंता हंता जिन वच खाणी ॥ 1 १४२. चरिम कर्म ते शैलेसी तेहिज निर्ज समय १४३. जेम केवली ए बि अंतकरं ना दोय आलावा १४६. ते किण अर्थ ? तब माई मिध्यादृष्टि १४५. केवली ना अति शुभ मन बिन कहे कोइक १४४. हे प्रभु ! केवलि अतिहि शुभ मन, अतिहि शुभ वच व्यापारं ? श्री जिनवर भासे है हंता, अतिहि शुभ मन बच धारे ॥ १४७. त्यां ४४ भगवती-जोड़ जी. चरम समय वेदै अनंतर चरम निर्जरा ७ जागे, तिम प्रस्थ जाने बेही । आख्या तिम कहिवा एही ॥ जेही । तेही ॥ जमाई मिध्यादृष्टि, हिये अमाई समदृष्टीनं *लय : नाहरगढ़ ले चालो वच प्रभु ! वैमानिक जाने देखे ? जानें देखे को नवि जाणे नवि पेखे ॥ 1 जिन भास, वैमानिक विविध थाई ऊपनों, वलि समदृष्टि समदृष्टि अमाई || ते नवि जाणे नवि देखे । सूत्रे संक्षेपे लेखे ॥ १४१. केवली णं भंते ! चरिमकम्मं वा चरिमणिज्जर वा जाणइ-पासइ ? हंता जाणइ पासइ । ( ० ५ / २०) १४२. चरमकर्म यच्छं लेशी चरमसमयेऽनुभूयते चरमनिजरा तु यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्यः परिशटतीति । ( वृ० प० २२३) १४३. जहा णं भंते! केवली चरिमकम्मं वा, चरिमणिज्जरं वा जाणइ पासइ, तहा णं छउमत्थे वि चरिमकम्मं वा, चरिमणिज्जरं वा जाण इ-पासइ ? मोयमा! गो इट्ठे समट्ठे सोच्ला जा-यासद पमाणतो वा । जहा णं अंतकरणं आलावगो तहा चरिमकम्मेण वि अपरिसेसिओ नेयव्वो । ( ० ५ / ९९ ) १४४. केवली णं भंते! पणीय मण वा वई वा धारेज्जा ? हंता धारेज्जा । ( श० ५१०० ) 'पणीय' न्ति प्रणीतं शुभतया प्रकृष्टं 'धारेज्ज' त्ति धारयेद् व्यापारयेदित्यर्थः । (०५०२२३) १४५ जण्णं भते ! केवली पणीयं मणं वा, वई वा धारेमा त मानिया देवा जाति-पाति ? 1 गोयमा ! अत्येगतिया जाणंति पासंति, अत्येगतिया ण जाणंति, ण पासंति । (०५/१०१) १४६. से केणट्ठे णं भंते ! एवं वुच्चइ – अत्थेगतिया जाणंति- पासंति, अत्येगतिया ण जाणंति, ण पासंति ? गोयमा ! वेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छाविडीवणा व अमाद 1 सम्मदिनवण्याव १४७. तत्थ णं जे ते माइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा ते ण जाणंति ण पासंति । तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठीउबवण्णगा ने णं जाणंति- पासंति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८, अनंतर प्रथम समय नां ऊपना, ते जाण देखै नांही । परंपर घणां समय नां ऊपना, दोय भेद तेहना थाई॥ १४६. पर्याप्त नै अपर्याप्त जे, अपर्याप्त ते नवि जाण । पर्याप्त नां दोय भेद, उपयोग सहित रहित ठाणं ।। १४८,१४६. अमाइसम्मदिट्टी दुविहा पणत्ता, तं जहा अणंतरोबवण्णगा य, परंपरोबवण्णगा य। तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा ते ण जाणंति, ण णसंति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते णं जाणंतिपासंति । परंपरोवण्णगा दुविहा पणत्ता, तं जहा-अपज्जत्तगा य, पज्जत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते ण जाणंति, ण पासंति । तत्य णं जे ते पज्जत्तगा ते णं जाणंति-पासंनि । पज्जत्तगा दुविहा पण्णत्ता, त जहा-अणु व उत्ता य उब उत्ता य । १५०. तत्य जे ते अण्वउत्ता ते ण जाणति, ण पासंति । तत्थ णं जे ते उव उत्ता ते ण जाणंति-पासंति। से तेणठेण गोयमा ! एवं वुच्चइ---अत्थेगतिया जाणंति-पासंति, अत्थेगतिया ण जाणंति, ण पासंति । (श० ५/१०२) १५१. वाचनान्तरे त्विदं सूत्र साक्षादेवोपलभ्यते । (वृ०५०२२३) १५०. तिहां उपयोग-रहित अछै जे, नवि जाणे ने नवि देखै । उपयोग-सहित ते जाण देखै, तिण अर्थे भाख्यं लेखै ॥ १५१. वृत्तिकार कह्यो वाचनांतरे ए साख्यातपणे जाणी। सूत्र सर्व आख्यो छै किहांइक, किहांइक छै सक्षेपाणो। १५२. अर्थ अंक ए देश चोपन नु, ढाल तयासीमी साची । भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' सुख संपति जाची । ढाल : ८४ वैमानिक जिन वारता, आखी इहां उदार । वलि विशेष तेहिज तणु, कहियै छै अधिकार ।। 'स्वामी ! हूं तो अरज करू जोड़ी हाथ । स्वामी ! थे तो मया करो जगनाथ ।। (ध्र पदं) २. अनुत्तर विमान नां देव तिहां रह्या, जगत-प्रभु ! इहां रह्या केवली साथ । एक बार बार-बार बोलायवा, स्वामी ! ए तो समर्थ करवा बात? २. पभू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएण केवलिणा सद्धि आलावं बा, संलावं वा करेत्तए ? 'आलावं ब' त्ति सकृज्जल्पं 'संलावं व' त्ति मुहमहुजल्पं । (वृ०प० २२३) •लय : कोह कहै छान कोई कहै छुपके...... हुश०५, उ०४, ढाल ८३,८४ ४५ Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. हंता पभू । (श०५/१०३) से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा तस्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धि आलावं वा, संलावं वा करेसए ? गोयमा ! जण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा । ४. अट्ठ वा हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा ३. श्री जिन भाखै हंता समर्थ, स्वामी! आतो, किण अर्थे कही बात? जिन कहै अनुत्तर विमान तणां सूर, अहो शिष्य ! तिहां रह्याज साख्यात । (गोयम ! तूं तो सांभलजै अवदात, गोयम ! आ तो आश्चर्यकारी बात ॥) ४. अर्थ तथा हेतु अथवा प्रश्न प्रति, गोयम ! आ तो कारण प्रति कहिवाय । पूछा नों उत्तर ते व्याकरण प्रति, अहो शिष्य ! सुरवर पूछ ताय ।। (गोयम ! तूं तो सांभलजे चित ल्याय, __ गोयम ! त्यांरो अवधि-ज्ञान अधिकाय ॥) ५. ते इहां रह्या थकाज केवली, अहो शिष्य ! एहिज वागरै वाय । तिण अर्थे तिहां रह्या थका सुर, अहो शिष्य! केवली सं बतलाय ।। पुच्छंति, ५. तण्णं इहगए केवली अट्ठ वा हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वागरेइ । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धि आलावं वा संलावं वा करेत्तए (श० ५/१०४) ६. जण्णं भते ! इहगए केवली अट्ठ वा हेउ वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वागरेइ, तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा जाणंति-पासंति ? ६. हे प्रभ ! जे इहां रह्या केवली, अहो प्रभु ! अर्थ जाव वागरंत । अनुत्तर विमान नां देव तिहां रह्या, अहो प्रभु ! जाणे अनैं देखत? (स्वामी ! हूं तो अरज करू धर खंत, जगत-प्रभु ! उत्तर दो भगवंत) ७. जिन कहै हंता, प्रभु ! किण अर्थे ? अहो शिष्य ! तब भाखै भगवंत । ते सुर नै अनंती मनो-द्रव्य-वर्गणा, अहो शिष्य ! लाधी अवधि विषय हुत ॥ (गोयम ! तूं तो सांभलजै धर खंत, अनुत्तर देव तणों विरतंत) ८. ते अवधि करी - सामान्य थी पामी, अहो शिष्य ! अभिसमण्णागया मंत । तेहन ए अर्थ विशेष थी पामी, अहो शिष्य ! तिण अर्थे देखत ॥ ७. हंता जाणंति-पासंति । (श० ५/१०५) से केणठेणं जाव पासंति ? गोयमा! तेसिं णं देवाणं अणंताओ मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ। 'लद्धाओ' त्ति तदवधेविषयभावं गताः । (वृ० प० २२३) ८. पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति । से तेणठेणं जण्णं इहगए केवली जाव पासंति (सं० पा०) (श० ५/१०६) 'पत्ताओ' त्ति तदवधिना सामान्यत: प्राप्ताः परिच्छिन्ना इत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाओ' त्ति विशेषतः परिच्छिन्नाः। (वृ०प०२२३) ९. यतस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडी विषयं, यच्च लोकनाडीग्राहकं तन्मनोवर्गणाग्राहकं भवत्येव । (वृ० प० २२३) ६. वृत्ति विषेज संभिन्न-लोकनाडी अहो प्राणी ! विषय ग्राहक अवधि त । ते माटै मनोद्रव्य-वर्गणा, ___ अहो प्राणी ! ग्राहक अवधि कहंत ॥ ४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ११. १२. १३. "हे प्रभु! देव अनुत्तरवासी, अहो प्रभु स्यूं मोह उदव कहंत ? ! उपशांतमोहा ने क्षीणमोहा छे? अहो प्रभु ! हिव जिन उत्तर दित ॥ १४. उत्कट जे वेद-मोह अपेक्षा, अहो शिष्य ! उदय-मोहा नहि हुत । अनुत्कट वेद-मोह ते माटै, अहो शिष्य ! उपशांत- मोह कहंत । सोरठा लोक विषय संख्यात- विषयक अवधि जे हुवै । ते पिण जाणै ख्यात, मनोद्रव्य निज शक्ति स्यूं ॥ तो किंचित् ऊणो ताहि, लोकनाहि नो विषय जसुं । ते किम जाणे नाहि, मनोद्रव्य सामान्य थी ? संख्यातमैं जे भाग, लोक तणों ने पल्य तणों । अवधिवंत नो माग, मनोद्रव्य पिण जाणो ॥ १५. काय फर्श रूप शब्द अनें मन, १६. अहो शिष्य ! नहि परिचारणा मंत । पण सर्वथा मोह उपशांत नहीं छे, पूर्व सूत्र पिछाण, तेह बकी अन्य जाण, १७. * केवली इन्द्रिय करि जाणें देखे ? अहो शिष्य ! वलि क्षीण-मोहान त ॥ सोरठा किण अर्थ केवली इन्द्रिये करि, आस्यं उपस्थ नं केवलि नुं अधिकार हिव ॥ अहो शिष्य ! समर्थ नहीं ए बात अहो शिष्य ! नहि जाणे न देखात ? १८. जिन कहै केवली पूर्व दिशि में, अहो शिष्य ! जाणें मित परिमाणवंत । गर्भेज मनुष्य जीव इत्यादिक, अहो बलि, अमित असं अनन्त ॥ ११. जावत् निवृत्त दर्पण जिन नै, अहो शिष्य ! तिण अर्थ ए त । केवली इन्द्रिय करि नवि जाणै, अहो शिष्य ! इन्द्रिय करि न देखत ॥ १. लोक के संख्यातवें भाग को जानने वाला अवधिज्ञानी भी अपने अवधिज्ञान से मनोद्रव्य को जान लेता है । *लय: कोई कहे छान कोई कहे छुपके १०. यतो योऽपि लोकसंख्येयभागविषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही । ( वृ० प० २२३ ) ११. यः पुनः संभिन्न लोकनाडीविषयोऽसौ कथं मनोद्रव्यग्राही न भविष्यति ? ( वृ० १० २२३) १२. इष्यते च लोकसंख्येपभागावर्धनयाहित्वं यदाह - "संखेज्ज मणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो ।" ( वृ० प० २२३) १२. अणुतरोववाइया णं भंते! देवा कि उदिष्णमोहा ? उवसंतमोहा ? खीणमेश १ १४. गोमा भो उदिष्णमोहा, उसंतमोहा, 'उदिन्नमोह' त्ति उत्कटवेदमोहनीया: 'उवसंत मोह' त्ति अनुत्कट वेद मोहनीयाः । ( ० प० २२३) १५. नो खीणमोहा । (४० २०१०७) परिचारणायाः क्वचिदप्यभावाद, न तु सर्वोप शान्तमोहाः । (४० १० २२३) १६ पूर्वतनसूत्रे धिकारादिदमाह ( वृ० प० २२३) १७. केवली णं भंते ! आयाणेहि जाणइ पासइ ? गोयमा ! नोति सम । ( ० ५/१०८) केवली णं आयाणेहि से केणटुणं भंते! एवं वुच्चइ ण जाणइ, ण पासइ ? 'आया हि' ति आदीयते-- गृह्यतेऽर्थं एभिरित्यादानानि - इन्द्रियाणि । (० ० २२४ ) १८. गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि जाणइ अमियं पि जाणइ । १६. जाव निब्बुडे दंसणे केवलिस्स । से तेणट्ठेणं (सं० पा० ) गोयमा ! एवं वुच्चइ - केवली णं आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ । ( श० ५।१०६ ) श०५, उ० ४, ढाल ८४ ४७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. केवली ए वर्तमान समय विषे, अहो प्रभु ! जेह आकाश प्रदेश । हस्त पांव बाहू ने साथल, अहो प्रभु ! अवगाही नै रहेस ॥ (स्वामी ! हूं तो अरज करू छु, जिनेश ! सानुग्रह उत्तर दो सुविशेष) २१. समर्थ केवली काल आगमिये, अहो प्रभु ! जेह आकाश प्रदेश । हस्त तथा यावत् कह्या पूर्वे, अहो प्रभु ! अवगाहो नै रहेस ? २०. केवली णं भंते ! अस्सि समयं सि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरं वा ओगाहित्ता ण चिट्ठति, 'अस्सि समयंसि' त्ति अस्मिन् वर्तमाने समये (वृ० १० २२४) २१. पभू णं केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसे सु हत्थं वा, पायं वा, बाहं वा, ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्टित्तए ? २२. गोयमा ! णो तिणठे समठे (श० ५।११०) केणठेणं भंते ! जाव केवली (सं० पा०) णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव (सं० पा०) चिट्ठित्तए ? २३. गोयमा ! केवलिस्स णं बीरिय-सजोग-सहव्वयाए । वीर्य -वीर्यान्तरायक्षयप्रभवा शक्तिः तत्प्रधान सयोगं - मानसादिव्यापारयुक्तं । (वृ० प० २२४) २२. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नाही, अहो प्रभु ! किण अर्थे ए बात? हस्तादि मेली बलि ते प्रदेशे, अहो प्रभु ! केवली सं न रहात ।। २३. जिन कहै वीर्य-अंतराय नां क्षय थी, अहो शिष्य ! केवली नै आख्यात । ऊपनी शक्ति तेहिज प्रधान छै, अहो शिष्य ! जोग व्यापार विख्यात ॥ २४. मन प्रमुख वर्गणा युक्त जे, अहो शिष्य ! जीव द्रव्य ने कहात । चलित-अथिर उपकरण - अंग है, अहो शिष्य ! तिण सं सागी प्रदेश न आत ॥ २४. मनःप्रभृतिवर्गणायुक्तो वीर्यसपोगसद्रव्यस्तस्य भाव स्तत्ता तया हेतुभूतया। (वृ० प० २२४) चलाइं उवकरणाई भवंति चलोवकरणट्टयाए य णं केवली अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव जाव चिट्टित्तए। 'चलाई' ति अस्थिराणि 'उवकरणाई' ति अङ्गानि । (वृ० प० २२४) २५. से तेणठेणं जाव वुच्चइ-केवली णं अस्सि समयंसि जाव चिट्ठित्तए। (श० ५।१११) २६. केवल्यधिकारात् श्रतकेवलिनमधिकृत्याह - (वृ० प० २२४) २७. पभू णं भंते ! चोद्दसपुब्बी घडाओ घडसहस्सं, घटादवधेर्घटं निश्रां कृत्वा (वृ० ५० २२४) सोरठा तिण अर्थे कर तेह, यावत् कहियै केवली । वर्तमान समयेह, यावत् अवगाही रहै। केवली नी कही बात, श्रतकेवली नुं हिवै । कहियै छै अवदात, ते चउदै पूरवधरा ।। २७. *हे प्रभु ! चउद पूर्वधर साधु, अहो प्रभु ! घट नी निश्राये विख्यात । सहस्र घडा प्रति निपजावी नै, अहो प्रभु ! देखावा समर्थ थात? २८. एक घडा ना सहस्र घट करि सके, अहो प्रभु ! पट थी सहस्र पट थात । कट ते चटाई थी सहस्र चटाई, ___अहो प्रभु ! रथ थी सहस्र रथ आत ॥ *लय : कोई कहै छान कोई कहै छुपकै...... २८. पडाओ पडसहस्सं, कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रह सहस्सं ४८ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. छत्र बकी सहस्र छत्र प्रते वलि, अहो प्रभु ! इक दंड बकी विख्यात । सहस्र जे दंड प्रतै निपजावी, अहो प्रभु ! देखावा समर्थ ख्यात ? ३०. श्री जिन भावे हंता गोयम ! अहो शिष्य ! धत करि लब्धि पावंत । तेज करी निपजावी देवाडिया, अहो शिष्य समर्थ छे ते संत ॥ ३१. किण अर्थे ? तब श्री जिन भाखै, अहो शिष्य ! चवद पूर्वधर संत । तेहनें अनंत द्रव्य उत्कारिका ना, अहो शिष्य ! भेदे करीनें भयंत ॥ ३२. एरंड बीज तणी पर छिटकी, तिम छिटकी - छिटकी नैं सहस्र घट, अहो शिष्य ! जुआ जुआ पाव॑त ॥ ३३. लढाई कहितां लब्धि विशेष थी, अहो शिष्य ! ग्रहणविषयपणुं हुं त । पत्ताइं तेहिज लब्धि विशेष थी, अहो शिष्य ! ग्रहण किया ते संत । ३४. अभिसमण्णागया रूप घटादि, अहो शिष्य ! परिणामवा आरंभत । तथा पछै घटादिक निपजावी, अहो शिष्य ! बहु जन नैं देखाडंत || ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. अहो शिष्य ! अलगु थायवूं हु॑त । ४१. सोरठा तिण अर्थे आख्यात, समर्थ चउदश पूर्वधर । पूर्व उक्त अवदात, यावत् उवदंसेत्तए । इहां पुद्गल नों भेद, पंच प्रकारे ते हुवै । खंड भेद पुर वेद, खंड दुवै पाषाणवत् ॥ " प्रतर भेद पहिचान, अभ्रपटल जिम ते हुवे । भेद चूर्णिका जाण, तिलादिक नां चूर्णवत् ॥ अनुतटिका जे भेद, कुआ तलाव ना भेदवत् । उत्कारिका संवेद, एरंड बीज तणी परं । तिहां उत्कारिका भेदेन भिद्यमान पुद्गल तिर्क । वर लब्धि विशेषेन पूर्वधर घट सहल कृत ॥ आहारक शरीरवत् ताय, रूप बणावी नैं तदा । पूर्वधर मुनिराय देखा लोकां भणी ॥ इहां उत्कारिका भेद, भिन्नईज के द्रव्य नां । वछित घटादि वेद, निपजावा समर्थ अच्छे | लय: कोई कहे पाने कोई कहे प २६. छताछतस्तं दंडासह अभिनिव्यता उबसेल ? ३०. हंता पभू । (०५।११२) तसमुत्थलब्धिविशेषेणोपदर्शयितुं प्रभुः । ( वृ० १० २२४) ३१. से केणट्ठेणं पभू चोट्सपुव्वी जाव उवदंसेत्तए ? गोमा ! चोट्सपुब्बिस्स णं अनंताई दव्वाई उक्कारियाभरणं भिज्जमाणाई ३३. लढाई पत्ताई गतानि '' ति व्यविशेषाग्रहणविषय 'पत्ताई' ति तत एव गृहीतानि । ( वृ० प० २२४ ) ३४. अभिसमण्णागपाई भवंति । 'अभिसमन्नागयाई' ति घटादिरूपेण परिणमयिमारब्धानि ततस्तंसद नियति ( वृ० प० २२४ ) ३५. सेते गोवमा! एवं बुम्बद बोसपुव्वी उवसेत्तए । ( ० २०११२) ३६. इह पुद्गलानां भेदः पञ्चधा भवति, खण्डादिभेदात्, तत्र खण्डभेदः खण्डशो यो भवति लोष्टादेरिव । ( वृ० प० २२४ ) ३७. प्रतरभेदोऽभ्रतानामिव भूमिकाभेदस्तिर्णवत् (बु०प०२२४) ३८. अनुतटिकाभेदोऽवटतटभेदवत् उत्कारिकाभेदएरण्डबीजानामिवेति । ( वृ० प० २२४ ) ३६. तत्रोत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि ( वृ० प० २२४ ) ४०. आहारकशरीरवत् निर्व दर्शयति जनानां ( ० १० २२४) ४१. वोल्कारिकाभेदग्रहणं तद्भिशानामेव द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिष्पादनसामर्थ्यमस्ति । ( वृ० प० २२४ ) श०५, उ०४, ढाल ८४ ૪૨ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. ४३. "सेवं मंते अंक चोपनमों ए. भिक्षु भारीमात रूपराम प्रसादे, पुद्गल विविध जेह, अन्य कथा छे तेहना । ग्रहण करे नहि तेह, उत्कारिका प्रतेज ग्रहै ॥ (परम पूज स्वाम भिक्षु गुणमाल, १. सुर्य उदेशे चतुर्दण महानुभावपण प्रवर २. महानुभावपणां थी, सी ते छद्मस्थ पिण, ३. ते शंका टालण भणी, अहो भवि ! च्यार असीमीं ढाल । अहो भवि 'जय जय' हरष विशाल ।। भारीमाल रायऋषी सुरसाल) दूहा पूरवधर नो तंत देखायो अत्यंत ॥ उय पूर्वधर संत । ए शंका उपजंत ॥ पंचमुदेशक आद । कहूं बात छद्यस्व नीं, सुणजो घर अहलाद । ६. आधोर्वाधिक ते नहिं सी ७. यावत् अलमस्तु प्रभु ने वंदे हो गोयम गुणनिलो (पदं) ४. हे प्रभु ! छद्मस्थ मनुष्य ते, गया अनंत काल मांय, सुज्ञानो रे । सास्वता समय विषे तिको, केवल संजम सूं शिव पाय ? सुज्ञानी रे ॥ ५. जिम प्रथम शतक नैं विषे कह्या, चउथे उदेशे आलाव | तेहनी परि इहां जाणवो, जाव अलमस्तु केवली भाव ॥ || पंचमशते चतुर्षोदेशकार्य ||४|| ५० भगवती-जोड़ ढाल : ८५ सोरठा पिठाण, वलि परमापोवधिक है। जाण, केवल संजम आदि कर ॥ ज्ञान-दर्शण-धर पहिछान, कहि उत्पन्न *लय कोई कहे छाने कोई : +लय : पूज ने नमो हो शोभो गुण जे केवली । त्यां लग ए सहु || ४२. नामितिति ४३. सेवं भंते । सेवं भंते! ति । ( वृ० प० २२४ ) (४० २।११४) १. अनन्तपूर्वविदो महानुभावतीता ( वृ० प० २२४ ) २३. महानुभावत्वादेव छद्मस्थोऽपि सेस्वतीति कस्याप्याशङ्का स्यादतस्तदपनोदाय पञ्चमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् - (४० १० २२४ ) ४. छउमत्थे णं भंते ! मणू से तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु ? ५. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । जहा पढमसए चउत्थुऐसे (२०१-२०१) आलावा तहा नेयस्वा जाय अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया । ( ० ५ / ११५ ) ६,७. आधोsवधिकः परमाधोऽवधिश्च केवलेन संयमादिना न सिद्ध्यतीत्याद्यर्थपरं तावन्नेयं यावदुत्पन्नज्ञानादिधर: केवली अलमस्त्विति वक्तव्यं स्यादिति, ( वृ० प० २२४ ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पूर्वे एह कहीज, वलि इहां आख्यो प्रश्न जे । संबंध विशेष थकीज, करण उदेशक तिण अर्थ ॥ 8. *कही स्वतीर्थी नी वारता, हिवे अन्यतीर्थी नी कहाय । अन्यतीर्थी प्रभु ! इम कहै, जाव परूपै ताय ।। १०. सर्व प्राण सर्व भूत ते, सर्व जीव सर्व सत्व जंतू । जेहवू बांध्यू तेह अवश्य भोगवै, एवंभूत वेदना वेदंतु ॥ ११. ते किम ए प्रभ! वेदवं? तब भाखै जिनराय । अन्यतीर्थी जे इम कहै, ते मिथ्या कहिवाय ।। ८. यच्चेदं पूर्वाधीतमपीहाधीतं तत्सम्बन्धविशेषात्, स पुनरुद्देशकपातनायामुक्त एवेति । (वृ० प० २२५) ६. स्वयूथिकवक्तव्यताऽनन्तरमन्ययूथिकवक्तव्यतासूत्रम्, (वृ०प०२२५) अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति१०. सब्बे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति । (श० ५/११६) ११. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव सव्वे सत्ता एवं भूयं वेदणं वेदेति । जे ते एवमासु, मिच्छं ते एवमाहंसु । १२. अहं पुण गोपमा ! एवमाइक्वामि जाव परूवेमि अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेदणं वेदेति । १२. हूं पिण गोयम! इम कहू, यावत् इम परूपंत । केइ प्राण भूत जीव सत्व ते, एवंभूत वेदना वेदंत ॥ १३. जीव कर्म जहवा बांध्या अछ, तेहवा ईज कर्म भोगवंत । बंधी दीर्घ स्थिति ह्रस्व करै नहीं, तीव्र रस ते न मंद करंत ॥ १४. केइ प्राण भूत जीव सत्व ते, एवंभूत वेदन न वेदंत । बांधी दीर्घ स्थिति सात कर्म नीं, थोड़ा काल नी स्थिति करंत ।। १५. तीव्र रस बंध्या पिण मंद रस करै, ते एवंभूत वेदन वेदै नांय । किण अर्थे प्रभु ! ए बिहु ? हिवै वीर बतावै न्याय ॥ १६. प्राण भूत जीव सत्व जे, जिम कीधा कर्म तिम वेदंत । ते वेदै एवंभूत वेदना, स्थिति रस नों घात न करंत ।। १७. प्राण भूत जीव सत्व जे, कर्म कीधा तिम नहिं वेदंत । ते एवंभूत वेदन वेदै नहीं, स्थिति नै रस घात करंत ॥ १४,१५. अत्थेगइया पाणा भुया जीवा सत्ता अणेवं भूयं वेदणं वेदेति । (श० ५।११७) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ--अत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेदणं वेदेति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवं भूयं वेदणं वेति ? १६. गोयमा ! जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति, ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेदणं वेदेति । १७. जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्ना नो तहा वेदण वेदेति, ते ण पाणा भूया जीवा सत्ता अणे वंभूयं वेदणं वेदेति। १८. से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अत्थेगझ्या पाणा भूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेदणं वेदेति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवं भूयं वेदणं वेदेति । (श० ५/११८) नेरइया णं भंते ! किं एवं भूयं वेदणं वेदेति ? अणेवं भूयं वेदणं वेदेति ? १६. गोयमा ! नेरइया णं एवं भयं पि वेदणं वेदेति, अणेवंभूयं पि वेदणं वेदेति । (श० ५/११६) से केण?णं भंते ! ... १८. तिण अर्थे करि इम कह्य, वलि गोयम पूछंत । प्रभु ! नरक एवंभूत वेदना, के अनेवंभूत वेदंत ? १६. श्री जिन भाखै नेरइया, वेदन एवंभूत पिण वेदंत । अनेवंभूत वेदै वलि, किण अर्थे ? भगवंत ! *लय : पूज नै नमै हो शोमो गुण...... श० ५, उ०५, ढाल ८५ ५१ Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. श्री जिन भाखे नेरइया, जिम कर्म किया तिम वेदंत । ते वेदे एवंभूत वेदना. न्याय २१. जेनेराजेम कर्म किया, तिण विघ ते वेदं अनेवंभूत नें तिण अर्थ पूर्ववत् संत ॥ नहि भोगवंत । बिहू हु ॥ २२. इम जाव वैमानिक लगे, वैमानिक लगे, संसार-मंडल संसारी जीव चक्रवाल ने कहियो सर्व वक्तव्यता दोसेत ॥ २२. वृत्तिकार को अथवा इहां वाचनांतरे हुत कुलगर तीर्थकरादि नी. २४. जिनागम में प्रसिद्ध एहवा, संसार-मंडल ते आगल कहिये शब्देन । रे सूचित करी इहां संभवे 1 २५. हे प्रभु! जंबूद्वीप में इन अवसविणी काल में, एन ॥ भरत क्षेत्र मांहि । किता कुलगर हुवा ताहि ? २६. जिन कहै सात कुलकर थया तीर्थंकर चउवीस । मात पिता पउवीस नां प्रथम शिष्यणी सुजगीत || २७ बारे पत्रवत्ति में माता पिता द्वादश स्त्री रत्न ताम । नाम वलि नव बलदेव नां, नव वासुदेव नां नाम ॥ २८. बल-वासुदेव नां माता पिता, नव प्रतिवासुदेव । जिम समवायांग ने विषे, नाम परिपाटी तेम कहेव' ॥ जाण । पिछाण || २६. सेवं भंते ! सेवं भंते! कही, जाव विचरै गोतम स्वाम । अर्थ पंचमा शतक नों, पंचम उदेशा नों पाम ॥ ३० ढाल पिच्यासीमीं कही, भिक्खु भारीमाल ऋषराय । 'जय जय' संपति साहिबी, गण-वृद्धि हरष सवाय ॥ पंचमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥ ५५ ॥ १. पंचमुदेशे जीव खट्ठे कर्म सगूंज ढाल : ८६ हा नं, कहा हिव, कर्म निबंधन वेदन्न । जन्न ॥ बंध १. २५ से २८ तक चार गाथाओं की जोड़ जिस पाठ के आधार पर की गई है, वह पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ में नहीं है । उस पाठ को वहां पाठान्तर के रूप में पादटिप्पण में उद्धृत किया है। जोड़ के सामने वही पाठ लिय गया है । ५२ भगवती - जोड़ २०. गोयमा ! जे गं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति, ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति । २१. जे गं नेरइया जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं वेदेति, ते पं नेरइया अणेवंभूयं वेदणं वेदेति से (०५ / १२० ) ( श० ५ / १२१ ) (204/899) कुलकरतीर्थंकरादिवक्त २३. अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे व्यता दृश्यते, ( वृ० प० २२५) २४. ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसञ्ज्ञया सेह सूचितेति संभाव्यत इति । २५. जंबूद्दीवे णं भंते ! इह भारहे वासे पीए समाएका कुलगरा होगा ? २६. गोयमा ! सत्त । एवं तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीओ । २७. चकपट्टिमायरो इरिथरणं बलदेवा, वासुदेवा २२. एवं जाव वैमाणिया । संसारमंडल नेयव्वं । . ( वृ० प० २२५ ) इमीसे ओसप्पि - २८. वासुदेवमायरो, पियरो, एएसि पडिसत्तू जहा सम बाए मनाओ २१०-२४६) नामपरियाडीए तहा नेयव्वा । २६. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । ( श० ५ / १२३ ) १. अनन्तरोद्देश के जीवानां कर्मवेदनाक्ता, षष्ठे तु कर्म्मण एवं बन्धनिबन्धनविशेषमाह- ( वृ० प० २२५ ) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ हे प्रभु! किम जोवां तणें, जिन कहे तीन ठाणे करी तिके अल्प आउखो कर्म सांभल चित ओ तो जीव हर्णे षट काय जी, वले बोल मुसावाय जी । तथारूप भ्रमण सुखदाय जी, दूजो नाम माहण मुनिराय जो त्यांने सचित असूता ताय जी असणादिक चि अधिकाय जी। प्रतिलाभं ते वहिराय जो इम निश्चैकरि कहिवाय जी । ज्या अल्प आउवो वंधाय जी, श्री वीर कहै सुण गोवमा ! ॥ ३. हे प्रभु! किम जीवां ! किम जीवा तमें जां दीर्घ आउल बंधाय ? जो, जिन कहै तीन ठाकरी, नहिं जीव हण षटकाय जी । वलि बोलै नहि मूसावाय जी, तथारूप श्रमण सुखदाय जी । दूजो नाम माण मुनिराय जी असणादिक चिरं अधिकाय जः । प्रतिलाभ ते बहिराय जी, इम न करी कहिवाय जी । ज्यां दीर्घ आउखो बंधाय जो, श्री वीर कहै सुण गोयमा ! ॥ ४. हे प्रभु ! किम बहु जोवडा, अशुभ दीर्घायु कर्म बांधत ? जिन कहै जीव हिंसा करी बलि मृषावाद वदंत जी । तथारूप श्रमण तपवंत जी, दूजो नाम माहण दयावंत जी । त्यां ने जात्यादि करिने हलंत जो बले मने करी तास नियंत जी जन साख करीनें खिसंत जा, तेहनों साख करी गरहंत जी । अपमानी ऊभो न थावंत जी, अनेरा अणगमता अत्यंत जा । एहवा आहार च्यारूं असोभंत जी, ते पिण अप्रीति भाव तिहां हुंत जी । प्रतिलाभ ते देवंत जी, त्यांरं अशुभ दीर्घायु बंधत जो । श्री वीर कहै सुण गोयमा ! || ५. हे प्रभु! किम बहु जीवडा, शुभ दोर्घायु कर्म बांधत । जिन कहै जीव हणें नहीं, वलि मृषावाद न वदंत जी । तथारूप श्रमण तपवंत जी, दूजो नाम माहण दयावंत जो । त्यांने वांदे ते स्तुति करंत जी, नमस्कार ते सिर नामंत जी । वलि सत्कारी सनमानंत जी, कल्लाणं मंगलं देवयंत जी । चित्त प्रसन्नकारी जाणी तंत जो पर्युपासना सेव अनेरा मनगमता अत्यंत जी, एहवा आहार व्याखं ते पिण प्रीति भाव विहां हंत जी, प्रतिलाभं ते त्यारं शुभ दीर्घायु बंधत जी, श्री वीर कहे सुण सोरठा "अल्पायु पढमेह, द्वितीय प्रश्न अशुभ दीर्घायु जेह, शुभ बंधाय ? ल्याय जी । *लय : तीन बोलां करी जीव सोभत जी । शोभत जी । देवंत जी । गोयमा ! ॥ दीर्घ आउखो । दीर्घायु चतुर्थे ॥ २. कण्णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाण- खाइम साइमेणं पडिलाभेत्ता - एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । (०२१२४) २. भंते जीवा दीहाउपत्ताए कम्मे पकति ? गोयमा ! तो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असण पाणखाइम साइमेणं पडिला भेत्ता एवं खलु जीवादीहाउपत्ताए कम्मं पकरेति ( ० ५ / १२५ ) ४. कणं भंते! जीवा बसुभदीहाउवताए कम्मं पक रेति ? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा होलित्ता निदित्ता विसित्ता गरहिता, अवति 'अण्णवरेणं अन पेण अपीतिकारएणं असण-पाण -खाइम साइमेणं पडिलाभेत्ता - एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्म पति ( श० ५।१२६ ) तत्र हीननं जात्यायुनतः कुत्सा निम्बन मनसा, बिसनं जनसमर्थ, गणं तत्समक्षं, अप माननं - अनभ्युत्थानादिकरणम् । ( वृ० प० २२७ ) ५. कहणणं भंते! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! नो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमसित्ता जान पश्वासिता 'अगवरेण मणुष्णं पौतिका असण- पाण- खाइम साइमेणं पडिलाभेत्ता - एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं परेति । ( ० ५ / १२७) - श०५, उ० ६, ढाल ८६ ५३ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्प आउखो एह, कहिय तेहिज क्षुल्लक भव । अशुभ कहीजै तेह, अपेक्षाय नहि अल्प शुभ ।। जीव हण षट काय, वदै झठ वलि जाणनें । सचित्त असूझतो ताय, बहिरावै मुनिवर भणी।। ए त्रिहु बोलज नीच, तेहथी शुभ अल्प आयु किम । 'नडिया मिथ्या मीच", कहै एहथी अल्प शुभ ।। दूजा दंडक मांहि, ते समचै दीर्घ आयू कह्यो । पिण शुभ आश्री ताहि, तास भेद बे आगल । तोजा दंडक मांहि, अशुभ दीर्घ आयू कह्य । चोथे दंडक ताहि, आख्यो शुभ दीर्घ आउखो ।। दीर्घ आयु पुन्य पाप, तिण सुं बे भेदे करी । श्री जिन कोधो थाप, करणो फल चिहु जूजुआ । १३. अल्प आउ बे भेद, शुभ अल्पायू अशुभ फुन । इम नहि कह्या सवेद, तिण सुंए अल्प अशुभ छ” ॥ (ज०स०) इहां पाछे पहिछान, कर्मबंध क्रिया कही। १४. अनन्तरं कर्मबन्धक्रियोक्ता, अथ क्रियान्तराणां विषयअन्य क्रिया हिव जान, कहियै छै तेहनों विषय ॥ निरूपणायाह ---- (वृ०प०२२८) १५. *हे प्रभ! गहस्थ गाथापती जी, भंड क्रियाणो बचत । १५. गाहावइस्स णं भंते ! भडं विक्किणमाणस्स केइ इतरै कोइ भंड चोर लै, प्रभ ! भंड – तेह जोवत जी। भंडं अवहरेज्जा, तस्स णं भंते ! 'भंडं अणुगवेसमातेहने आरंभिया क्रिया हुँत जी, तथा परिग्रहिया लागंत जी ? णस्स' किं आरंभिया किरिया कज्जइ ? पारिग्गहिया मायावत्तिया कषायमंत जो, अपचखाण अव्रत कहंत जो ? किरिया कज्जइ ? मायावत्तियाकिरिया कज्जइ ? मिथ्यादर्शन तणो होवंत जी ? जिन कहै धूर च्यार थावंत जी । अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? मिच्छादसणवत्तियामिथ्यादर्शण भजना भवंत जी, गृहस्थ मिथ्यादष्टि ह तोहुत जी। किरिया कज्जइ ? समदृष्टि रै नांहि कहंत जी, जोवतां भंड तेह लाधंत जो । गोयमा ! आरंभियाकिरिया कज्जइ, पारिग्गहियाजब पतली च्यारू उपजत जी, जोवतां बहु उद्यम करंत जी । किरिया कज्जइ, मायावत्तियाकिरिया कज्जइ, लाधां पछै अल्प उद्यमवंत जी, श्री बोर कहै सुण गोयमा !॥ अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ, मिच्छादंसणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ। अह से भंडे अभिसमण्णागए भवइ, तओ से पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुई भवंति। (श० ५/१२८) सोरठा १६. हिव अलावा च्यार, धुर बे भंड वस्तू तणा । तीजो चोथो धार, धन आश्रो आख्या अछै ।। १७. *गाथापति – हे प्रभ! क्रियाणो बेचता नै ताय । १७. गाहावइस्स णं भंते ! भंड विक्किणमाणस्स कइए गाहक भंड प्रत लिय, संचकार ते साई देवाय जो । भंड साइज्जेज्जा, भंडे य से अणु वणीए सिया । भड वस्तु पोता री ठहराय जी, मिण भंड हजी ग्रह्यो नांय जो। गाहावइस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ कि आरंभियावस्तु बेणहार रै पाय जो, प्रभ गाथापति नैं कहाय जी । किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादसणकिरिया भंड थी कितलो क्रिया थाय जी, तथा ग्राहक ने पिण ताय जी। कज्जइ? कश्यरस वा ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादसणकिरिया १. मिथ्यात्व रूपी मित्र के साथ बंधे हुए। कज्जइ? *लय: तीन बोलां करी जीव ५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचां मांहिली किती कहिवाय ज ? जिन भाखै गोयम सुण वाय जी । गोयमा ! गाहांवइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया: गाथापति जे वस्तु बेचाय जी, तिण रै भंड थी चिहु अधिकाय जी । किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ । भजना मिथ्यादर्शन मांय जी, गाहक नैं सह पतली थाय जी। मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जा। अजे वस्तु न लीधी ए न्याय जी, ए प्रथम आलावो कहाय जी ।। कइयस्स णं ताओ सब्बाओ पयणुईभवंति । श्री वीर कहै सुण गोयमा ।। (श० ५/१२६) ऋयिको-ग्राहको भाण्डं 'स्वादयेत्' सत्यङ्कारदानतः स्वीकुर्यात् । (वृ० प० २२६) १८. तथा गाथापति – हे प्रभु ! क्रियाणो बेचता नै ताय । १८. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्म कइए गाहक भंड प्रतै लिय, संचकार ते साई देवाय जी । भंडं साइज्जेज्जा, भंडे से उवणीए सिया । भंड वस्तु पोता री ठहराय जी, भंड वस्तु ल्यायो घर माय जी । कइयस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ कि आरंभियाबेचणहार पास रही नांय जी, प्रभ ! गाहक कइया' ने कहाय जा । किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादसणकिरिया तसं भंड थी के क्रिया थाय जी, तथा गाथापति ने ताय जी । कज्जइ ? गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ कि आरंभंड थी पांचां में किती पाय जी? जिन भाखै गोयम! सूण वाय जी । भियाकिरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणकिरिया गाहक-कइयो जे वस्तु लिवाय जी, तिण रै भंड थी चिहु अधिकाय जी। कज्जइ ? गोयमा ! कइयस्स ताओ भंडाओ भजना मिथ्यादर्शन मांय जो, गाथापति ने सह पतली पाय जी। हेट्ठिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कज्जति । मिच्छा दसणकिरिया भयणाए। वस्तु संपे दीधी ए न्याय जी, ए द्वितीय आलावो कहाय जो। गाहावइस्स णं ताओ सब्बाओ पयणुईभवंति । श्री वीर कहै सुण गोयमा ।। (श० ५/१३०) सोरठा भंड आश्री बे आलाव, पहिले भंड संप्यो नथी । १६. इदं भाण्डस्यानुपनीतोपनीतभेदात्सूत्रद्वयमुक्तम् । द्वितीय आलावे भाव, भंड संप्यो गाहक भणी ।। (वृ० प० २२६) २०. गाथापति नैं हे प्रभ! क्रियाणो बचता ने ताय । २०. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए गाहक भंड प्रतै लिय, संचकार ते साई देवाय जो। भंडं साइज्जेज्जा, घणे य से अणुवणीए सिया ? भंड वस्तु पोतारी ठहराय जी, पिण धन हजो संप्यो नांय जी। कइयस्स णं भंते ! ताओ धणाओ कि आरंभियाधन छै गाहक-कइया पाय जी, प्रभु ! गाहक कइया ने कहाय जी। किरिया कज्जइ ? जाब मिच्छादसणकिरिया धन थी कितली क्रिया थाय जी, तथा गाथापति ने ताय जी । कज्जइ ? गाहावइस्स वा ताओ धणाओ कि आरंधन थी पांचां में किती पाय जी? तब भाखै श्री जिनराय जी । भियाकिरिया कज्जइ? जाब मिच्छादसणकिरिया गाहक कइया तणे कहिवाय जो, धन थी धुर चिहु अधिकाय जी । कज्जइ ? गोयमा ! कइयस्स ताओ धणाओ हेट्ठिभजना मिथ्यादर्शन मांय जी, गाथापति नैं पतली थाय जी । ल्लाओ चत्तारि किरियाओ कज्जति । मिच्छादसणहजी न लियो धन ए न्याय जी, ए तृतीय आलावो कहाय जी ।। किरिया भयणाए। श्री वीर कहै सुण गोयमा ।। गाहावइस्स णं ताओ सवाओ पयणुईभवति । (श. ५/१३१) २१. गाथापति मैं हे प्रभ ! कियाणो बचता नै ताय । २१. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किण माणस्स कइए गाहक भंड प्रतै लिय, संचकार ते साई देवाय जी। भंडं साइज्जेज्जा, धणे से उवणीए सिया । गाहाभंड-वस्तु ल्यायो घर मांय जो, धन सूंप दियो तसुं ताय जी । वइस्स णं भंते ! ताओ धणाओ कि आरंभिपागाहक-- कइया पासै रह्यो नांय जी, प्रभु! गाथापति नै कहिवाय जी। किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादंसकरिया कज्जइ? कइयस्स वा ताओ धणाओ कि आरंभिया*लय : तीन बोला करी जीत किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादसण किरिया १. खरीदने वाला कज्जइ? श० ५, उ०६, ढाल ८६ ५५ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. धन थी पांचां में किती पाय जी ? तब भाखं श्री जिनराय जी । गाथापति वर्णं कहिवाय जी, धन थी घुर चिह्न अधिकाय जी । भजना मिथ्यादर्शन मांय जी, गाहक — कइया नैं पतली थाय जो । धन सूप दियो इण न्याय जी ए चोथो आला पाय जी श्री वीर कहे सुण गोयमा ॥ सोरठा 1 कही ॥ नथी । " धन आधी वे आलाय, तीने पन सूप्यो नयो । चोबे आलावे भाव घन सूप्यो गाथापति भणी । एवं च्यार आलाव, सूत्रे बे विस्तारिया | बे संक्षेपे भाव, इहां विस्तार टीका थकी ॥ " तृतीय आलावे धन्न, गाथापति ने सूप्यो नथी । जिम भंड संख्यो जन्न, इम कहिं सूत्रे का ॥ भंड सूप्यो द्वितीय आलाव, ए बीजो तास भलादियो । तेहनों के इम न्याय, बीजो तोजो इक गमो ॥ बीजे आलावे जाण, भंड सूप्यो ग्राहक भणी । जवर किया पहिचान, मंड थी गाहक ने तृतीय आलावे पेख, गाहक धन सूप्यो तिग कारण सुविशेस जबर त्रिया ग्राहक भणी || जबरी किरियां जाण, ग्राहक में ति कारणं । द्वितीय तृतीय पहिछाण, एक गमो इम आखियो । चोथो आलावो एम, धन तेहनें सूंप्यो हुई । प्रथम आलावो जेम, भंड नहि सूप्यो तेम ए ॥ भंड नहि सूप्यो प्रथम आलाव, ए पहिलो तास भलादियो । तेहनों छै इम न्याव, पहिलो चोथो इक गमो ॥ भंड थी जबरी वाय गाथापति ने चिह्न किया। तिण भंड सूप्यो नांय, प्रथम आलावे में कह्यो । भंड थी जबरी मंड, ग्राहक नैं इण विध हुवै । गाहावर सूप्यो भंड, दूजा अलावा में कहा ॥ धन थी जबरी जास, ग्राहक ने इन कारणं । धन ही सूप्यो तास, तृतीय आलावे में कहा ॥ पन थी जबर उपन्न गाथापति में इह विधे गाहक सूप्यो धन्न, चोथे आलावा में कह्यं ॥ । १. जयाचार्य ने इस गीत की २० वीं और २१ वीं गाथा की रचना टीका के आधार पर की है, यह तथ्य इस गाथा से स्पष्ट हो रहा है । अंगसुत्ताणि भाग २ में यह पाठ मूल में है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में पाठ पूरा नहीं था, इसीलिए उन्हें शेष दो विकल्पों की रचना टीका के आधार पर करनी पड़ी। ५६ भगवती जोड़ गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरंभियाकिरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ । मिच्छादंसण किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणईभवंति । (१० ५ / १३२) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. तिण कारण इम ख्यात, प्रथम चउथ नों इक गमो । एक गमो अवदात, बीजा तीजा नों का ॥ ३६. प्रथम आलाव सुजन्न, भंड छै गाथापति कनैं । चचगमा में धन्न गाथापति ने पियो ॥ ३७. तिण जवरी जोय, भंड थकी अरु घन बकी। गाथापति में होय, प्रथम चउब इम इक गमो ॥ ३८. द्वितीय आलावे सोय, गाहक ने भंड सूपियो । तृतीय आलावे जोय, ग्राहक धन सूप्यो नथी ।। ३६. तिण सूं जवरी जाण, भंड थकी अरु धन थको । ग्राहक ने पहिलाण, वितिय तृतिय इस ४०. अंक छप्पन नों देश ए. कहाँ श्री भिक्षु भारीमाल जी, ऋषिराय गणिद दयाल जो । तसुं शुभ दृष्टी थी न्हाल जी, वर 'जय जय' संपति माल जी । गण ऋद्धि वृद्धि सुविशाल जी, मेटण मिथ्यात जंबाल' जी । श्री वीर कई सुण गोवमा ॥ इक गमो ॥" ( ज० स० ) छयांसमो ढाल । १. ढाल : ८७ हा क्रिया तथा अधिकार थी, वलि क्रियाज विचार । पूर्व गोयम गणहरू, अति हित प्रश्न उदार ॥ मोरा प्रभुजी हो, गोयम जिनजी ने वीनवे ॥ (पद) २. प्रभुजी हो, अग्निकाय तत्काल नी, दीप्ये थके अधिकाय । प्रभुजी हो, अति महाक्रमं बंधे जेहन दाहरूप क्रिया महा धाय ।। ३. कारण जे महा कर्म नों, अति महा आश्रव तास । वलि अति महा वसुं वेदना, कर्म थी उपनी जास ॥ ४. सम समे अगनी हिवै, अपकर्ष - हीणी थाय । अंगारा - खीरा कहाय ॥ छारभूत थयां पर्छ जोय । वेदना ? जिन कहै हंता होय ॥ बूझ्ये चरम काल समय में, थयो, ५. मुर्मुरभूत भ्रासर अल्प कर्म क्रिया आश्रव *लय : तीन बोलां करी जीव लय: भाभीजी हो डूंगरिया हरिया १. कर्दम १. क्रियाकारादिदमाह ( वृ० प० २२९ ) २. अगणिकाए णं भंते ! अहुणोज्जलिए समाणे महाकम्मतराए चैव महाकिरियात राए चैव , 'अधुनोज्ज्वलित : ' सद्यः प्रदीप्तः ' ... [दाहरूपा । ( वृ० प० २२९) ३. महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव भवइ । ४. अहे णं समए - समए वोक्क सिज्जमाणे वोक्कसिज्जमाणे रिमालसमसिमालम् ५. मुम्मुरब्भूए छारियम्भूए तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, अप्यवेपणतराए देव भवद ? ता गोवमा ! अवणिकाए अणोज्जलिए समाणे तं चैव । (श० ५ / १३३) श० ५ उ० ६, ढाल ८६,८७ ५७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अंगारादिक आश्रयी, अल्प स्तोक अथह । छार आश्रयो नैं इहां, अल्प अभाव गिणेह ।। ७. पुरुष धनुष प्रत कर ग्रही, बाण प्रतै ग्रही ताय । धनुष बाण जोडै तदा, बेठो गोडा नमाय । ८. बाण न्हाखण रै कारण, कान लगै शर आण । ऊंचो आकाश विषे तदा, तोर चलायो ताण ।। ६. तीर आकाश जातो तदा, प्राण भूत सत्व जीव । साहमा आवंतां थकां, शर हण अधिक अतीव ।। १०. तन संकोच न पामवै, वत्तेइ वाटलाकार । लेस्सेइ आतम नै विषे, श्लेष करै तिण वार ।। करे, ६. अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्य, अल्पशब्दः स्तोकार्थः, (क्षारा वस्थायां त्वभावार्थः)। (वृ० प० २२६) ७. पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसु __ परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ८. ठिच्चा आयतकण्णातयं उसु करेति, उड्ढं बेहासं उसु उम्विहइ । ६. तए णं से उसू उड्ढं वेहासं उब्विहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणइ । १०. वत्तेति लेसेति 'बत्तेइ' त्ति वर्तलीकरोति शरीरसङ्कोचापादनात 'लेसेइ' त्ति 'श्लेषयति' आत्मनि श्लिष्टान् करोति । (वृ० प० २३०) ११. संघाएइ संघट्टेति परिताबेइ 'संघाएइ' त्ति अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् करोति 'संघट्टे' त्ति मनाक् स्पृशति 'परितावेइ' त्ति समन्ततः पीडयति । (वृ० प० २३०) १२. किलामेइ ठाणाओ ठाणं संकामेइ, 'किलामेइ' त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातं नयति (वृ० प० २३०) १३. जीवियाओ ववरोवेइ । तए णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? १४. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसइ उसुं परामुसइ, ठाणं ठाइ, आयतकण्णातयं उस करेति, उड्ढं वेहासं उसु उब्विहइ, ११. संघाएइ परितापेइ भेला कर, परितापना, संघट्टेइ . संघट्टत सर्व संघटुंत । पीडत ।। थकी १२. किलामेइ स्व स्थान मारणांतिकी, समुद्घात पहुंचाडंत । थी अन्य स्थानके, पहचाडै सरजंत ॥ १३. प्राण छोडावै सर्वथा, तिण अवसर भगवान । तेह पुरुष नै केतली, क्रिया लागै आण? १४. गोयमजी हो, श्री जिन भाखै तिण सम, पुरुष धनुष ग्रहि हाथ । गोयमजी हो, जाव आकाश विष तदा, मूक वाण विख्यात ।। (गोयमजी हो, वीर प्रभू इम वागरै) तेह पुरुष नैं कायिको, जावत् प्राणातिपात । फरस पंच क्रिया करी, तेह थी कर्म बंध थात ॥ जे पिण जीव नां तनु करी, धनुष निपायो नाम । ते पिण फर्से जीवडा, पंच क्रिया करि आम ॥ १५. तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारियावणियाए, पाणाइवायकिरि याए --पंचहि किरियाहिं पुढें । १६. जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहि धणू निव्वत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। १७. एवं धणुपट्टे पंचहि किरियाहिं, १८. जीवा पंचहि, हारू पचहि, धनुष-पष्ठ जे जीव नां, शरीर थकी निप्पन्न । ते जीव पंच क्रिया करी, फसे कर्म उप्पन्न । जीवा ते पुणछ ना जीवडा, फसँ किरिया पंच । धनुष नी पुणछ न बांधणु, ते न्हारू ने पंच विरंच ।। शर पत्र फलादि समुदाय नैं, कहिय उसु बाण । तेहना जोवां नैं हुई, पंच क्रिया पहिछाण । सांठी शरीडु एकलुं, ते शर नै पिण पंच। पत्र ते जीव नां पोंछडा, तेहनें पंच सुसंच ।। १६. उसू पंर्चाई इषुरिति शरपत्रफलादिसमुदायः। (वृ०प० २३०) २०,२१ सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहि ।। (श० ५/१३४) ५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३४. फल ते मालोडो लोह, पंच क्रिया फसंत । न्हारू पांख नुं बांधणुं, पंच क्रिया तसुं हुंत ॥ सोरठा इहां का वृत्ति महार, पंच क्रिया हुवे पुरुष नैं । काइयादिक व्यापार, प्रत्यक्ष दीसै छै तसुं । धनुष आदि दे जाण, जीवां तणां शरीर नों । नीपजियो पहिछाण, पंच क्रिया किम तेहनैं ? काय अचेतन तास, ते काय मात्र थी बंध है। तो सिद्धां ने सुविमास, तसु तन पिण वध हेतु है । किया हेतु कर्मबंध तो पात्र दंडके संघ, धनुष आदि ने जे हुन । जंतु रक्षा हेतु पुरुष ? तसु उत्तर इम देह, अव्रत से ती कर्म बंध सिद्धां में नहिं तेह, एम को टीका मझे । पात्र रजोहरण ताहि, मुनी भोगवै तेहनीं । तसु अनुमोदन नाहि, तिण सूं पुन्य तेनुं नहीं ॥ बलि जिन वचन प्रमाण जेम कह्यो तिम सरचं । सिर धारेवी आण, विषम दृष्टि निवारियै || * हिवै ते वाण पोता तर्णे, गुरुपणां करि जेह ! बले पोता ने भारीपण गुरुसंभारिपर्ण तेह || निज स्वभाव हेठो पड़े, पडतां ते प्राण हणाय । जावत् ते जीवितव्य थकी रहित करे ताय ॥ निवचं कर तिण अवसरे, तेतले काले जेठ । किती क्रियावंत पुरुष ते ? हिव जिन उत्तर देह | बाण पोता में गुरुपर्णे, जावत जोव हणाय । च्यार क्रिया ते पुरुष नैं, पाणाइवाय न थाय ॥ जे पिण जीव नां तनु करी, धनुष निपाय ताम । ते पिण फर्से जीवडा, च्यार क्रिया करि आम ॥ धनुषपृष्ठ जे जीव नां शरीर थकी निप्पन | ते जीव प्यार क्रिया करी, फर्से कर्म उप्पन्न | * लय भाभीजी हो गरिया हरिया २२. ननु पुरुषस्य पञ्च क्रिया भवन्तु कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्यमानत्वात् । ( वृ० प० २३० ) २३. धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च क्रिया: ? ( वृ० प० २३०) तदानीमन २४. कायमानस्यापि नदी अनामात्रापि बन्धाभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसङ्गः तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्तमानत्वाद ( वृ० प० २३०) २५. पिवा धनुरादीनि कायिवपादकत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति, तज्जीवानामेवं पात्रदण्डकादीनि जीवरक्षा हेतुत्वेन पुष्पकर्मनिबन्धनानि स्युः । (४० १० २३०) अविरतिपरिणामाद बन्धः, अविरति २६. अयोग्यते, परिणाम या पुरुषस्वास्ति एवं धनुरादिकशरीरजीवानामपीति सिद्धानां तु नास्त्यासाविति न ( वृ० प० २३०) २७. पात्रादिजीवानां तु न पुण्यबन्धहेतुत्वं तद्धेतोविवेका देस्तेष्वभावादिति । ( वृ० १० २३०) २८. किञ्च सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेति । ( वृ० १० २३० ) २६ अहे णं से उसू अपणो गुरुयत्ताए, भारियत्ताए, गुरुसंभारियत्ताए । ३०. अहे बीससाए पच्चोत्रयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव जीविया वनरोवेद । ३१. तावं च णं से पुरिसे कति किरिए ? बन्धः, " ३२. गोयमा ! जावं च णं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए जाव बतासे र काइवाए जाव चउहि किरियाहि पुट्ठे । य ३२. जे जीवाणं सरी धनिए जीवा उहि किरिवाहि ३४. धणुपट्टे चउहिं, श०५, उ०६, ढाल ८७ ५६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. जीवा चउहि, हारू चउहि, ३६. उसू पंचहि इषुरिति शरपत्रफलादिसमुदायः। (वृ०५० २३०) ३७,३८. सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहिं । ३५. जीवा पुणछ नां जीवडा, फसँ क्रिया च्यार । धनुष नी पुणछ न बांधणु, ते न्हारू नैं पिण चिउं धार ।। ३६. शर पत्र फलादि समुदाय ने, कहियै उसु बाण । तेहनां जीवां नैं हुई, पंच क्रिया पहिछाण ॥ ३७. सांठी शरोडं एकलं, ते शर नैं पिण पंच । पत्र ते जोव नां पीछडा, तेह. पंच सुसंच॥ ३८. फल ते भालोडी लोहडु, पंच क्रिया फर्सत । न्हारूं पांख न बांधणु, पंच क्रिया तसू हुँत ।। ३६. जे बाण नीचे पंथ जावतां, बीच अवग्रह माय । जीव ना पखोवादिक तण, सान्निध्य स्हाज जो थाय ॥ ४०. ते जीव नैं पिण हुवे, क्रिया पंच कहिवाय । काइया प्रथम क्रिया कही, जाव पाणाइवाय ।। ३६. जे वि य से जीवा अहे पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति, ४०. ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। (श० ५/१३५) सोरठा ४१. कह्य वृत्ति रै मांय, जदपि सर्व क्रिया विषे । किण हि प्रकारे थाय, निमित्त भाव नर धनुष नैं । ४२. तो पिण वांछित बंध, अमुख्य प्रवत्ति तिणे करी । वांछित वध क्रिया संध, कपिणे बांछी नहीं । ४१. इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथञ्चिन्निमित्तभावोऽस्ति । (वृ० प० २३०) ४२. तथाऽपि विवक्षितबन्ध प्रत्यमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाविवक्षणात् । (वृ० प० २३०) ४३. शेषक्रियाणां च निमित्तभावमात्रेणापि तत्कृतत्वेन विवक्षणाच्चतस्रस्ता उक्ताः। (वृ प० २३०) ४४. वाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् बधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पञ्चेति । (वृ०प० २३०) ४३. शेष क्रिया नैं जाण, निमित्तभावमात्रेण पिण । कर्तापण पिछाण, वांछी तिण स्यूं चिहु क्रिया ॥ ४४. बाणादिक ना जीव, तसुं शरीर साख्यात वध । क्रिया प्रवृत अतीव, तिण सू पंच क्रिया कही ।। ४५. *अंक छपन न देश ए, सात असीमीं ढ़ाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' मंगल माल ।। ढाल : ८८ दूहा १. आखी सम्यक् परूपणा, हिव मिथ्या पूर्व निरास । सम्यक् परूपणा प्रतै, देखाडै छै तास ॥ २. अन्यतीर्थी प्रभ ! इम कहै, यथानाम दृष्टंत । युवती प्रतै युवान नर, कर करि हस्त ग्रहंत ॥ १. अथ सम्यक्प्ररूपणाधिकारान्मिथ्याप्ररूपणानिरासपूर्वकं सम्यक्प्ररूपणामेव दर्शयन्नाह (वृ० प० २३०) २. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमातिक्खंति जाव परूवेंति-से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, *लय : मामीजी हो डूंगरिया हरिया ६. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. चक्र नाभि – जिम अरा, तिम यावत् चउ पंच । सय जोजन नर लोक ए, भरयो मनुष्य करि संच ।। ४. ते किम हे भगवंत ! ए ? तब भाखै जिनराय । अन्यतीर्थी जे इम कहै, ते मिथ्या कहिवाय ।। ५. हूं पिण गोयम ! इम कहूं, यावत् इमहिज साध । ' जाव च्यार सय पांच सय, जोजन क्यांइक लाध ॥ ६. नरकलोक नरके करी, भयं अछै बहु ताय । नरक तणा अधिकार थी, नरक सूत्र हिव आय ।। ३. चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं । (श० ५/१३६) ४. से कहमेयं भंते ! एव ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमातिखंति जाव बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं । जे ते एवमाहंसु 'मिच्छं ते एवमाहंसु' । ५. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमिसे जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया एवामेव जाव चत्तारि पंचजोयणसयाई ६. बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहिं । (श० ५/१३७) 'नेरइएहिं' इत्युक्तमतो नारकवक्तव्यतासूत्रम् -- (वृ० प० २३१) ७. नेरइया णं भंते ! कि एगत्तं पभू विउव्वित्तए ? पुहत्तं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! एगत्तं पि पहू विउव्वित्तए, पुहत्तंपि पहू विउवित्तए। 'एगत्तं' ति एकत्वं प्रहरणानां 'पुहुत्तं' ति पृथक्त्वं बहुत्वं प्रहरणानामेव । (वृ० प० २३१) ८. जहा जीवाभिगमे (सू० ११०,१११) आलावगो तहा नेयम्वो जाव विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा-अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति-उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं। (श० ५/१३८) ६. इयं च वेदना ज्ञानाद्याराधनाविरहेण भवतीत्या राधनाऽभावं दर्शयितुमाह- (वृ० प० २३१) ७. नेरइया प्रभु ! शस्त्र इक, विकूर्वण समर्थवंत । __शस्त्र बहु विकुर्ववा समर्थ ? जिन कहै हंत ॥ ८. जिम जीवाभिगमे कह्य, आलाव गोतम ! जाण । जावत खमतां दोहिली, वेदन लग पहिछाण ।। ६. एह वेदना तो हुदै, आराधन विन जेह । आराधना ना भाव हिव, देखाडै छै तेह॥ *प्रभु पूरणनाणी, गोयमजी पूछे प्रश्न पिछाणी ॥ (ध्र पदं) १०. आधाकर्मी ए निरवद्य होय, एहवो मन में धारै कोय । ११. स्थानक ते आलोयां विना सोय, वलि पडिकमियां विना जोय। १२. काल करै तो आराधन नांहि, तिण रैसल रह्यो मन मांहि। १३. स्थानक ते आलोयो जाणी, वलि पडिकमियो गणखाणी। १४. इण विध काल कर तो ताय, तिण रै आराधना तसु थाय । १०. आहाकम्मं 'अणवज्जे' त्ति मणं पहारेत्ता भवति, ११. से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कते १२. कालं करेइ-नत्थि तस्स आराहणा। १३. से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते १४. कालं करेइ-अत्थि तस्स आराहणा। (श० ५/१३६) १५. एएणं गमेणं नेयव्वं--- १६. कीयगडं. ठवियं, १७,१८. रइयं, 'रइयगं' ति मोदकचूर्णादि पूनर्मोदकादितया रचितमौद्देशिकभेदरूपं । (वृ०प०२३१) १५. ए धुर बोल कह्यो तिम कहीजे, संक्षेपे नव बोल सुणीजै। १६. कीयगड मोल लियो तिणवारी, साधु अर्थ थाप्यो निश्चो धारी। १७. मोदक नों चूर्ण ते मुनि काज, वलि मोदक रचियो समाज। *लय : पुनवंतो जीव पाछिल भव श०५, उ०६, ढाल ८८ ६१ Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. तेह रचित' है उद्देशिक भेद, एहवो वृत्ति में अर्थ संवेद । १६. कतार-भक्त ते अटवी मांहि, भिखारियां काज कीधो ताहि । २०. दुर्भिक्ष-भक्त दुकाल में जेह, भिक्ष अर्थे कीधो भक्त तेह । २१. बद्दलिया-भक्त ते मेह-भड माय, भिक्ष अर्थे भात निपजाय । २२. गिलाण-भक्त ते रोगी नै अर्थे कीधो भात विशेष तदर्थे । १६. कंतारभत्तं, कान्तारम् -अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यद् विहितं भक्तं तत्कान्तारभक्तम् । (वृ० प० २३१) २०. 'दुब्भिक्वभत्तं', २१. वद्दलियाभत्तं, २२. गिलाणभत्तं, ग्लानस्य नीरोगतार्थं भिक्षुकदानाय यत्कृतं भक्तं तद् ग्लानभक्तम्, । (वृ० प० २३१) २३. सेउजायरपिंड, २४. रायपिंडं। (श० ५/१४०) २३. सेज्यातर-पिंड सूवै जिण स्थान, तेहनां घर नों आहार ए जान । २४. राय पिंड ते राजा-अभिषेक कीधे छते जे आहार विशेख । २५. तथा पिड माहै राज समान, मंस प्रमुख अकल्पतो जान । २६. ए दस दोष कह्या जिनराय, निर्दोष जाणें मन मांय । २६. आधाकर्मादीनां सदोषत्वेनागमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनम् । (वृ० प० २३१) २७. विना आलोयां आराधना नहीं छै, आलोयां आराधना कही छै । २८. ए दस दोष निरवद्य कहीन, घणां लोकां माहै भाखी नैं। २६. स्वयमेव भोगवी नैं न आलोय, तिण नै आराधना नहिं होय । ३०. आलोयां पडकमियां ते स्थान, तिण रै आराधना पहिछान । २८-३० आहाकम्मं 'अणवज्जे' त्ति सयमेव परि जित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कत कालं करेइ-नत्थि तस्सआराहणा । से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ-अत्थि तस्स आराहणा। (श० ५/१४१) १. साधु के भोजन सम्बन्धी दोषों में एक दोष है---रचित दोष । भगवती की वृत्ति (वृ०प० २३१) में इसे औद्देशिक का एक भेद बताया गया है, पर उसका कोई कारण नहीं बताया गया । प्रश्न व्याकरण सूत्र की वृत्ति में जो अर्थ किया है, उससे रचित दोष की औद्देशिकता घटित हो सकती है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने पांच सोरठे लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं--- सोरठा प्रश्नव्याकरण उदार, दशम अध्ययन नी वृत्ति में । दोष-विवरण मझार, रचित दोष नों अर्थ ए॥ मोदक चूर्ण विचार, साध्वादिक नै अर्थ बलि । अग्नि आदि थी धार, तपावि मोदक सांधियो ।। साध्वादिक नै अर्थ, अग्नि आरंभ थयो इहां । उद्देशिक भेद तदर्थ, एम करीनै संभवै ।। भगवति-वृत्ति सुजाण, तपाविवा नों अर्थ नहिं । तेहथो अर्थ प्रमाण, प्रश्नव्याकरण वृत्ति नो॥ ओदन दधी मिलाण, करवादिक करवो तिको । पर्यवजात पिछाण, दोष रचित आगल कह्यो ।। ६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. ए दस दोष निरवद्य कही नै, ओ तो माहोमांहि देई नैं। ३२. ए पिण विराधक विना आलोय, आलोयां आराधक होय । ३१,३२. आहाकम्मं 'अणवज्जे' ति अण्णमण्णस्स अणुप्प दाव इत्ता भवइ, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ-नत्थि तस्स आराहणा । से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ-अस्थि तस्स आराहणा। (श० ५/१४३) ३३,३४. आहाकम्म णं 'अणवज्जे' त्ति बहुजणमझे पण्ण वइत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ-नत्थि तस्स आराहणा । से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ-अस्थि तस्स आराहणा। (श० ५/१४५) ३३. ए दस दोष ने सभा मझार, ओ तो निरवद्य परूप धार । ३४. ते पिण विना आलोयां विराधक, आलोयां हवै आराधक । सोरठा ३५:३६ आधाकर्मादींश्च पदार्थानाचार्यादयः सभायां प्रायः प्रज्ञापयन्तीत्याचार्यादीन् फलतो दर्शयन्नाह (वृ० प० २३१) ३५. आधाकर्मी आद, पूर्वे आख्या ते प्रत । आचार्यादिक साध, कहै विशेषे परषदि । ३६. ते माटे तहतोक, आचार्य उवज्झाय प्रति । सुध फल थकी सधीक, कहियै ते देखाड़तो।। ३७. *आचार्य उवज्झाया भगवान, स्व विषय अर्थ सूत्र दान । ३८. गण निज शिष्य वर्ग प्रति सार, खेद रहित करतो अंगीकार । ३६. अखेदपण देतो आधार, रागद्वेष रहित तिण वार । ३७. आयरिय-उवज्झाए णं भते ! सविसयंसि 'स्वविषये अर्थदानसूत्रदानलक्षणे (वृ०प० २३२) ३८, गणं अगिलाए संगिण्हमाणे, 'गणं' ति शिष्य वर्ग 'अगिलाए' त्ति अखेदेन संगृह्णन् (वृ०प० २३२) ३६. अगिलाए उवगिण्हमाणे 'उपगृह्णन्' उपष्टम्भयन् । (वृ० प० २३२) ४०. काहिं भवग्गहणेहि सिज्झति जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करेति ? ४१. गोषमा! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गणेणं सिज्झति, ४२. अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणणं सिज्झति, ४३. तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमति । (श० ५/१४७) ४०. एहवा आचार्य कति भवे सीझ, जाव सर्व दुख अंत करीजै? ४१. जिन कहै केइ तिणहिज भव सीझ, ए तो चरम-शरीरी कहीजै। ४२. केइ बीजो नर भव करि साझे, तिण नै एकाऽवतारी कहीजै । ४३. तोजो नर नों भव न उलंघाव, तिके पंच भवे शिव पावै । सोरठा ४४. द्वितीय तृतीय भव देख, नर भव तणी अपेक्षया । बिच सुर भव सुविशेख, ते इहां लेखविया नहीं। ४५. चारित्रवंत सुसंत, सिध-गति कै सुर-पद लहै । तिण कारण ए हत, द्वितीय तृतीय भव मनु वृत्तौ ।। ४६. पूर्वे भाख्यो एह, पर-अनुग्रह करिवै सुफल । हिव पर-उपघातह, विरुओ फल कहिये तसं ॥ * लय : पुनवंतो जीव पाछिल भव मांहि ४४. द्वितीयः तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः । (वृ० प० २३२) ४५. चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति, न च तत्र सिद्धिरस्तीति । (वृ० प०२३२) ४६. परानुग्रहस्यानन्तरफलमुक्तं, अथ परोपघातस्य तदाह (वृ० प० २३२) श० ५, उ०६, ढाल ८८ ६३ Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. *अन्य प्रति प्रभ ! अलीक जे आखै, मुनि ने कूसीलियो भाखै । ४८. असब्भूएणं अछता अवगुण आखै, जिम अचोर ने चोर दाखै। ४६. किसा प्रकार ना कर्म तसं होय ? हिवै जिन उत्तर दे सोय । ५०. जे पर प्रति अलीक ने अछतो संधै, तथाप्रकार कर्म तसं बंधै । ४७. जे णं भने ! परं अलिएणं अलीकेन भूतनिह्नवरूपेण पालितब्रह्मचर्यसाधुविषयेऽपि नानेन ब्रह्मचर्यमन पालितमित्यादिरूपेण,। (वृ०प० २३२) ४८. असब्भूएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति, अभूतोद्भावनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना, (वृ०प० २३२) ४६. तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कज्जंति? ५०. गोयमा ! जे णं परं अलिएणं, असंतएणं अब्भक्खा णणं अब्भक्खाति, तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जति । ५१, जत्थेव णं अभिसमागच्छति तत्थेव णं पडिसंवेदेति ५२. तओ से पच्छा वेदेति । (श०५/१४८) ततः पश्चाद् वेदयति-निर्जरयतीत्यर्थः (वृ० प० २३२) ५३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ५/१४६) ५१. जे मनुष्य आदि गतिमें उपजतो, तिहां आल नां फलभोगवंतो। ५२. पछै कर्म नै निर्जरै ताय, कोइ करै जिसा फल पाय । ५३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! विशेष, पंचम शतक नों छठो उदृश । ५४. आठ असीमी ए ढाल उदारं, तिण में वारता विविध प्रकारं। ५५. भिक्ष भारीमालऋषिराय पसाय, कांइ 'जय-जश' हरष सवाय। पंचमशते षष्ठोद्देकार्थः ॥१६॥ ढाल : ८६ १,२. षष्ठोद्देशकान्त्यसूत्रे कर्मपुद्गलनिर्जरोक्ता, निर्जरा च चलनमिति सप्तमे पुद्गलचलनमधिकृत्येदमाह-- (वृ० प० २३२) दूहा १. छठा उदेशा अंत में, पुद्गलकर्म पिछाण । तास निर्जरा ने कही, चलणरूप ते जाण ॥ २. ते माटै हिव सातमैं, पुदगल चलण विचार । वीर प्रतै पूछ सुविधि, श्री गोयम सुखकार ॥ *जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों, जयवन्तो जी श्री जिन-शासन जाण, जयवंता जी गोतम गण खान। जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों ।। (ध्र पदं) ३. परमाण-पुदगल हे प्रभ ! ओ तो कंप हो, बलि विशेष कंपाय । यावत ते ते भाव नै परिणमै छै हो, भाखो जी जिनराय ! *लय : पुनवंतो जीव पाछिल भव *लय: वीर सुणो मोरी वीनती ३. परमाणपोग्गले णं भंते ! एयति वेयति जाव (सं० पा०) तं तं भावं परिणमति ? ६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. वीर कहै सुण गोयमा ! कदाचित कंप हो वलि विशेष कंपाय । यावत ते ते भाव नैं परिणमै छे हो सुण गोतम ! वाय ॥ ५. कदाचित परमाणुओ, नहि कंपै हो ए स्थिर कहिवाय । यावत ते ते भाव में नहि परिणमै हो स्थिर नीं अपेक्षाय ।। ६. संघ प्रभु ! दुप्रदेशियो, ए तो की हो यावत् परिणमंत ? जिन कहै की कदाचित, जाव परिणमै हो धुर भंग ए हूंत ॥ ७. कदाचित् ते कंप नहीं, जाव न परिणमे हो ए दूजो भंग । कदा देश इक कंपतो, देश न कंप हो तीजो भांगो ए बंग ॥ ८. संघ प्रभु ! तीन प्रदेशियो, एतो कंप हो यावत् परिणमंत ? जिन कहै कंप कदाहिं, जाव परिणमै हो पहिलो भंगो एव ।। ६. कदात्रि कंप नहीं, जाव न परिणमै हो ए दूजो भंग । कदा देश इक कंपतो, देश न कंपै हो तीजो भांगो ए चंग ॥ सोरठा १०. एक देश पंत, एक देश तथाविध परिणमंत, न्याय तृतीय ११. एक आकाश प्रदेश, वे बिहु नैं सुविशेष, प्रदेश तेह एक देश १८. पुद्गल तेहनुं ईज कंप *लय : वीर सुणो मोरी वीनती भंगा में वंछ्यो १२. "कदा देइक कंपतो, नहि कंप हो बहुदेशा गम्म | नहि कंप हो इक देश पंचम्म | एतो की हो यावत् परिणमंत ? जिन कहे की कदा चिहूं जावपरिणमें हो पहिलो भांगो एहत ॥ १४. कदा चिह्न कंप नहीं, जाव न परिणमैं हो ए दूजो भंग । कदा देश इक कंपतो, देश न कंप हो तीजो भांगो ए चंग ॥ कवा देश वह कंपता, १२. संघ प्रभु ! प्यार प्रदेशियो, नहीं तणों ॥ सोरठा १५. दोय ए ॥ आकाश प्रदेश, तेह विषे वेवे रह्या । ते माटे सुविशेष, एक वचन बिदेश १६. कदा देश इक कंपतो, नहि कंप हो बहुदेशा गम्म कदा देश बहू कंपता, नहि कंप हो इक देश पंचम्म | १७. कवा देश वह कंपता नहि कंपे हो बहुदेशा पष्टम्म | इमहिज पंच प्रदेशियो, यावत् कहिवो हो अनंत प्रदेशिक गम्म ॥ , सोरठा नों अधिकार पूर्वे जे आस्यो अछे । विचार, कहिये छे हिव आगलं ॥ रह्या । इहां ॥ ४. गोयमा ! सिय एयति वेयति जाव तं तं भावं परिणमति, ५. सिय नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति । ( श० ५ / १५० ) ६. दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयति जाव तं तं भावं परिणमति ? गोयमा ! सिय एयति जाव तं तं भावं परिणमति । ७. सिय नो एयति जाव तो तं तं भावं परिणमति । सिय देसे एयति, देसे नो एयति । ( श० ५ / १५१) ८. तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयति ? गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति । सिय देसे एयति न दे पति । १२. सिय देसे एयति, नो देसा एयंति। सिय देसा एयंति, नो देसे एपति । १३. चउप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयति ? गोमा ! सिय एयति, १४. सिय नो एयति । सिय देसे एयति, नो देसे एयति । ( श० ५ / १५२ ) १६. सिय देसे एयति, नो देसा एयंति । सिय देसा एयंति, गो देखे पति १७. सिय देसा एयंति, नो देसा एयंति। जहा चउप्पएसिओ तहापंचओ, तहा जाव अनंतयएसओ (०२ / १५३) १८. पुलाधिकारादेवेदं सूत्रम् (बृ० प०२३३) श०५, उ० ७, ढाल ८ ६५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. परमाणु- पुद्गल हे प्रभु! खडग धारा हो पाछणा नीं धार । ते प्रति अवगाहै तिको? जिन भाख हो हंता सुविचार ॥ २०. ते परमाणु प्रभु ! तिहां, छेदीजै हो दोय भाग है जाय । भेद पामै - विदराइये ? जिन भाखै हो अर्थ समर्थ नांय || २१. शस्त्र तिहां आक्रमैं नहीं, परमाणु हो तेहनुं जे भाव । तेही अन्यथापणो हुवे नहीं इम यावत् हो असंखप्रदेशी कहाव ।। २२. खंध प्रभु ! अनंतप्रदेशियो, असिधारा हो सुरन्धारा में आय। खडग पाछणा नीं धार ए ? जिन भाखै हो हंता अवगाय ॥ २३. ते तिहां छेद बे भाग है, भेदीजै हो विदारण भाव पाय । छेद भेद कोइक लहै, कोइ न पामै हो ए है जिन-वाय ।। सोरठा मध्य । २४. छेद भेद जे थाय, तथाविध बादर-परिणाम थी । छेद भेद नवि पाय, सूक्ष्म परिणामपणां धकी ॥ २५. छेद भेद शस्त्रेह, एवं अग्निकाय सूत्रे संक्षापेह, विस्तारी नैं कहूं ॥ २६. *परमाणु-पुद्गल हे प्रभु! अग्निकाय में हो आये? जिन कहे आय। परमाणु तेह बसे तिहां ? जिन मात्रै हो अर्थ समर्थ नांय ॥ २७. शस्त्र तिहां आक्रमैं नहीं, इम यावत् हो असंखप्रदेशियो ताय । अनंतप्रदेशियो संघ प्रभु ! अग्निकाय में हो आये अवगाय ? २०. जिन कहै हंता आविर्य बन्धयां हो? जिन कहै कोइ वसंत कोइ इक दग्ध हुवे नहीं, बादर सूक्ष्म हो परिणाम थी हुत ॥ २९. इहविध क्लसंवर्तक महामेष में हो मध्योमध्य आवंत । पिणतिहां भीजै - आलो हुवे ? एहवूं का हो पूरववत् विरतंत ॥ *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ६६ भगवती-जोड़ १६. परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेज्जा । २०. से णं भंते ! तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? गोमा को तिग सम 'छिद्येत' द्विधाभावं यायात्, 'भिद्येत' विदारणभावमात्रं यायात् । ( वृ० प०२३३) २१. नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । एवं जाव असंज्वएसित्रो परमात्वादन्यथा परमाणुत्वमेव (N० २।१५४) (०५।१५५) न स्यादिति ( वृ० प० २३३ ) २२. अणतपएसिए णं भंते ! खंधे असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेश्या । २३. से णं भंते ! तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? गोयमा ! अत्थेगइए छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा, अत्येगइए नो छिज्जेज्ज वा नो भिज्जेज्ज वा । (०५।१२६) २४. 'अत्थेगइए छिज्जेज्ज' त्ति तथाविधबादरपरिणामस्वाद 'अत्मनो छिन्न् ति सूक्ष्यपरिणामत्वात् । (० ० २२३) " २६. पराभते अभिकावस्य - मज्भेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा | से णं भंते ! तत्थ भियाएज्जा ? गोयमा ! नो इप समट्ठे । २७,२८. नो खलु तत्थ सत्थं कमइ (सं० पा० ) एवं जाव असंखेज्जपएसिओ । (श० ५।१५७, १५८) अणतपएसिए णं भंते! खंधे अगणिकायस्स मज्भंमज्भेणं वीइवएज्जा ? हंता वीरवज्जा से भंते! तस्य क्रियाएजा ? गोमा! अत्येगइए surya, अत्येगइए नो झियाएज्जा । २९. से भंते! पुक्तसंगत महानेहस्स मज् वी? हंता वीइवएज्जा । से णं भंते ! तत्थ उल्ले सिया ? गोयमा ! अत्थेगइए उल्ले सिया, अत्थेगइए नो उल्ले सिया । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. इम गंगा महानदी तणे, प्रवाह माहै हो उतावलो आय । पिण तिहां स्खलना पामियै, एहवं कह्य हो पूर्वली पर ताय॥ ३१. पाणी तणे आवर्त में, वलि उदग नां हो बिंदुओं में आय । ते विणसै-विनाश पामै तिहां, इम कहिवं हो पूर्वली परै ताय ।। ३०. से णं भंते ! गंगाए महान ईए पडिसोयं हब्बमा गच्छेज्जा? हंता हव्वमागच्छेज्जा। से णं भंते ! तत्थ विणिहायमावज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए विणिहायमावज्जेज्जा, अत्थे गइए नो विणिहायमावज्जेज्जा । ३१. से णं भंते ! उदगावत्तं वा उदगबिंदुं वा ओगा हेज्जा ? हंता ओगाहेज्जा । से णं भंते ! तत्थ परियावजजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए परियावज्जेज्जा, अत्थेगइए नो परियावज्जेज्जा। (श० ५।१५६) ३२. परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअड्ढे समझे सप एसे ? उदाहु अणड्ढे अमज्झे अपएसे ? ३३. गोयमा ! अणड्ढे अमझे अपएसे, नो सअड्ढे नो समझे नो सपएसे । (श० ५।१६०) ३२. स्यं परमाण अर्द्ध सहित प्रभु ! मध्य सहित छै हो के प्रदेश सहीत । अथवा ते अर्द्ध रहीत छै, मध्य रहित छै हो के प्रदेश रहीत ? ३३. जिन कहै अर्द्ध रहीत छ, मध्य रहित छै हो वलि प्रदेश रहीत । पिण ते अर्द्ध सहित नहीं, मध्य सहित नहिं हो नहीं प्रदेश सहीत ॥ ३४. नए अर्द्ध रहित परमाणओ, छेद्यो न जावै ते भणी । एकला माटै अप्रदेशिक, खंध ते अलगो गिणी॥ ३५. *दुप्रदेशियो खंध प्रभ ! अर्द्ध सहित छै हो मध्य सहित सप्रदेश । अथवा अर्द्ध रहित छ, मध्य रहित छै हो अप्रदेशी कहेश ? ३५. दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे कि सअड्ढे समझे सप एसे ? उदाहु अणड्ढे अमज्झे अपएसे ? ३६. गोयमा ! सअड्ढे अमझे सपए से, नो अणड्ढे नो समझे नो अपएसे। (श० ५।१६१) ३६. जिन कहै अर्द्ध सहित छ, मध्य रहित छै हो सप्रदेशी ताहि । पिण ते अर्द्ध रहित नहीं, मध्य सहित नहीं हो अप्रदेशी नांहि ।। ३७. +अर्द्ध सहित बे प्रदेश माटै, मध्य रहित बिच को नहीं। प्रदेशिया खंध माटै, सप्रदेश कहियै सही। ३८. नहि अर्द्ध रहित अर्थात् इतलै, अर्द्ध सहित विशेष है। नहिं मध्य सहित अमध्य छै, अप्रदेश नहिं सप्रदेश है। ३६. *पूछा तीन प्रदेशिया खंध नी, जिन कहै अर्द्ध न हो मध्य सहित सप्रदेश । पिण ते अर्द्ध सहित नहीं, मध्य रहित नहि हो नहिं वलि अप्रदेश ।। ४०. त्रिप्रदेश माटै अर्द्ध नांही, दोढ़ दोढ़ हुवै नहीं । मध्य सहित प्रदेश बिच इक, सप्रदेश खंध ए सही। ४१. अर्द्ध सहित नहिं बीचलो प्रदेश छेदीजै नहीं। नहि अमध्य अर्थात् समध्य, अप्रदेश नहिं सप्रदेश ही ।। ४२. जिम कह्यो प्रदेशियो खंध, सम प्रदेश तिम जाणवा । विषम ते त्रिप्रदेशिया जिम, न्याय हिवड़े आणवा ।। लय : पूज मोटा भांजे *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ३६. तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! अणड्ढे समझे सपएसे, नो सअड्ढे नो अमझे नो अपएसे। (श० ५११६२) ४२. जहा दुप्पएसिओ तहा जे समा ते भाणियव्वा, जे विसमा ते जहा तिप्पएसिओ तहा भाणियव्वा । (श० ५/१६३) श०५, उ०७, ढाल ८९ ६७ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. बे च्यार षट अठ प्रमुख बेकी, सम कहीजै जेहनें । तीन पंच सत प्रमुख एकी, विषम कहीजै तेहनें ।। ४४. *संखेज-प्रदेशियो खध प्रभु! अर्द्ध सहित छै हो पूछा हिव जिन वाय। ४४. संखेज्जपएसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्ढे ? पुच्छा। कदाचित् अर्द्ध सहित छै, मध्य रहित छ हो सप्रदेशी ताय ।। गोयमा ! सिअ सअड्ढे अमज्झे सपएसे। ४५. कदाचित संख-प्रदेशियो, अर्द्ध रहित छै हो मध्य सहित कहिवाय । ४५. सिय अणड्ढे समझे सपएसे । सप्रदेश कहिये तसु, आगल निसुणो हो ए बिहुनों न्याय ।। ४६. बे भेद संख-प्रदेशिया नां, सम-प्रदेशिक एक है। दुसरो जे भेद ते, विषम-प्रदेश विशेख है ।। ४७. जे अर्द्ध सहित मध्य रहित छै, सप्रदेश ते सम खंध ही। ४७. यः समप्रदेशिक: स साझेऽमध्यः इतरस्तु विपरीत जे अर्द्ध रहित मध्य सहित छै, सप्रदेश तेह विषम वही॥ इति । (वृ० प० २३३) ४८ *जिम संख-प्रदेशियो खंध कह्यो, असंखप्रदेशी हो तिमहिज कहिवाय। ४८. जहा संखेज्जपएसिओ तहा असंखेज्जपएसिओ वि तिमहिज अनंतप्रदेशियो, विमल विचारो हो सम विषम नों न्याय॥ अणंतपएसिओ वि। (श० ५/१६४) ४६. प्रभ! परमाणु अन्य परमाण नै, देसेणं हो देस फुसइ तेह । ४६. परमाणुपोग्गले णं भंते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे स्यं पोता मैं एक देशे करी, बीजा नों हो इक देश फर्सेह ॥ कि देसेणं देसं फुसइ । ५०. देसेणं देसे फुसइ, पोता नैं हो इक देशे करि ताय । ५०. देसेणं देसे फुसइ । बीजा नां बहु देशां प्रतै, फसँ छै हो बीजे भंगे ए वाय ।। ५१. कै देसेणं सव्वं फूसइ, ते पोता नै हो एक देशे करि जाण । ५१. देसेणं सव्वं फूसइ । बीजा परमाण सर्व नै, फर्स छै हो तीज भंग पिछाण ॥ ५२. देसेहिं देसं फुसइ, ते पोता नै हो बहु देशे करि जोय । ५२. देसेहिं देसं फुसइ । बीजा नां इक देश नैं, फर्से छै हो भंग चउथो होय ॥ ५३. देसेहिं देसे फुसइ, ते पोता नै हो बहु देशे करि देख । ५३. देसेहिं देसे फुसइ । बीजा नां बहु देश ने, फसै छै हो भंग पंचम पेख ॥ ५४. देसेहिं सव्वं फुसइ, ते पोता नै हो बहु देशे करि ताय । ५४. देसेहिं सव्वं फुसइ । बीजा परमाणु सर्व नैं, फसै छै हो भंग छट्टो कहाय ॥ ५५. सव्वेणं देसं फूसइ, ते पोता में हो सर्व करिनं तिवार। ५५. सव्वेणं देसं फूसइ । बीजा नां एक देश नैं फसें छै हो भंग सप्तम सार ।। ५६. सव्वेणं देसे फूसइ, ते पोता नैं हो सर्व करिनै ताम । ५६. सब्वेणं देसे फुसइ । बीजा नां बह देश नैं फसै छै हो भंग आठमों आम॥ ५७. सब्वेणं सव्वं फूसइ, ते पोता न हो सर्व करिने भाल । ५७. सव्वेणं सव्वं फूसइ ? बीजा परमाण सर्व नै फसै छै हो भंग नवमों न्हाल । परमाणु-पुद्गल स्पर्शना सम्बन्धी यंत्र: २-१ Mru|9| । TRIKINr ।। । । " *लय: वीर सुणो मोरी वीनती लय। पूज मोटा मांजै Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. जिन कहै जे परमाणुओ, परमाणु नैं हो अठ भंग फर्से नांय । सव्येणं सव्वं फुसइ. ते सर्वे करि हो सर्व प्रति फर्साय ॥ प्रति ५९. इम परमाणु तिको, दुप्रदेशी हो संघ सातमें नय में भंगे करि दोष भंगे हो नहि फसें ६०. दोय आकाश प्रदेश में, द्विप्रदेशिक हो रह्यो सव्वेणं देसं फुसइ, सर्व परमाणु हो देश फर्माय । ताय ॥ जद ताय । प्रतै फर्साय || जद ताय 3 ६१. एक आकाश-प्रदेश में द्विप्रवेशिक हो रह्यो ह्वं सव्वेणं सव्वं फुसइ. सर्व परमाणु हो सर्व प्रतै फर्साय ।। ६२. परमाणु युद्गलतिको जिप्रदेशिक हो व छेले विण भांगे करी, घुर पद भंगे हो नहि ६२. त्रिण आकाश प्रदेश में त्रिप्रवेशिक हो रह्यो सव्वेणं देस फुसइ, सर्व परमाणु हो देश प्रतै प्रतै फर्सेह । फसे ह ६४. दोय आकाश प्रदेश में बे देश छै एक प्रदेश में, ६५. एक प्रदेशे बे देश है, त्रिप्रदेशिक हो रह्यो सुविशेष ! एक प्रदेशे हो रह्यो छे इक देश || त्यांनें फर्से हो परमाणुओ तास । सव्वेग देशे फुसइ, सर्व परमाणु हो बहु देश नुं फास || ६६. एक आकाश प्रदेश में त्रिप्रदेशिक हो रह्यो हुवे जद तेथ सव्वेणं सव्वं फुसइ, सर्व परमाणु हो सर्व प्रत ६७. जिण रीते परमाणुओ, फर्साव्यो हो त्रिप्रदेशी संघात | एवं दम फर्साविये, यावत् कहिये हो अनंतप्रदेशिक साथ ॥ ६५. हे प्रभु! खंध द्विप्रदेशियो परमाणु ने हो फर्सतो किम होय । तोजे नवमें भांगे फर्सणा, शेष भांगे हो फर्से नहीं कोय ।। , जद ताय फर्साय || ६१. दोय आकाश-प्रदेश में देसेणं सव्वं फुसइ ७०. एक आकाश प्रदेश न द्विप्रदेशिक हो रह्यो द्विप्रदेशी हो देश करी द्विप्रदेशिक हो रह्यो सव्वेण सव्वं फुसइ द्विप्रदेशिक हो ७१. पुल जे दुप्रदेशियो, वलि अने जद तास । सर्व फास || जद तात । सर्व करो सर्व फास || हो द्विप्रदेशिक ने जाग । पहिले तीजे सात में, बलि नवमें हो भंग कर फसण || ७२. दोनं संध दुप्रदेशिया, रह्या हो बेचे गगन देसेण देसे फुसइ निज देशे करि हो अन्य देश प्रदेश | फर्सेस ।। ७३. दोय आकाश प्रदेश में, रह्यो छे हो द्विप्रदेशिक एक एक गगन प्रदेशे बीजो रह्यो, देसेणं हो सव्वं फुसइ देव || ७४. एक आकाश-प्रदेश में रह्यो हो दुप्रदेशियो एक छे । वे गगन-प्रये बीजो रह्यो, सब्बे हो देस फुसइ देख ॥ ५८. गोयमा ! नो देसेणं देसं फुसइ, नो देसेणं दे फुसइ, नो देसेणं सव्वं फुसइ, सव्वेणं सव्वं फुसइ । ( ० ५ / १६५) ५१. परमाणुयोग्यले दुपए सियं फुलमाणे सप्तम मेहि फुसइ ॥ ६०. यदा द्विप्रदेशिकः प्रदेशद्वयावस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वे स्पृशति परमापोस्तदेशस्यैव विषयस्यात् । ६९. यदा तु द्विप्रदेशिकः परिणामसौक्ष्म्यादेकप्रदेशस्थो भवति तदा तं परमाणुः सर्वेण सर्वं स्पृशतीत्युच्यते । ६२. परमाणुपले तिप्पसियममाणे तिपच्छिमहि तिहि कुस | ६३. यदा त्रिप्रदेशिकः प्रदेशत्रयस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति परमाणोसा विषयत्वात् । (बु० १० २३४) ६४,६५. यदा तु तस्यैकत्र प्रदेशे द्वौ प्रदेशौ अन्यत्रकोऽवस्थितः स्यात्तदा एकप्रदेशस्थितपरमाणुद्रयस्य पर माणोः स्पर्शविषयत्वेन सर्वेण देशी स्पृशतीत्युच्यते । ६६. यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्व स्पृशतीति । (३० १० २३४) ६७. जहा परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयव्वो जाव अणतपएसओ । ( ० ५ / १६६) ६५. एसए भंते! बंधे परमाणुपोग्गलं फुलमागे कि देसेणं देतं फुसइ ? पुच्छा । ततिय-नवमेहि फुसइ । ६६. यदा द्विप्रदेशिकः द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणुं देशेन सर्व स्पृषतीति । ( वृ० प० २३४) ७०. यदात्वेक प्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्वमिति । ( वृ० प० २३४ ) ७१. दुप्पएसओ दुप्पएसियं फुसमाणे पढम ततिय-सत्तमनयमे कुल । ७२. यदा द्विप्रदेशिको प्रत्येकं द्विप्रदेशावगाढी तदा देशेन देशमिति । ( पृ० प० २३४) ७३. यदा त्वेक एकत्रान्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन सर्वमिति । ( वृ० प० २३४) ( वृ० १० २२४ ) ७४. तथा सर्वेण देशमिति सप्तमः । श०५, उ० ७, ढाल ८६ ६६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. नवमस्तु प्रतीत एवेति । (व०प० २३४) ७५. इक-इक आकाश-प्रदेश में, द्विप्रदेशिक हो रह्या छै बिहं तास । सव्वेणं सव्वं फूसइ, निज सर्वे करि हो अन्य सर्व ही फास ।। ७६. द्विप्रदेशिक खंध तिको, त्रिप्रदेशिक हो फर्सतो चीन । प्रथम चरण त्रिण-त्रिण भंगा फसें छै हो न फर्से मध्य तीन ।। ७६. दुप्पएसिओ तिप्पएसियं फुसमाणे आदिल्लएहि य, पच्छिल्लएहि य तिहिं फुसइ, मज्झिमएहि तिहिं विपडिसेहेयव्वं । ७७. बे प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, तीन प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहंत । देसेणं देसं फुसइ, निज देशे करि हो अन्य देश फर्सत ।। ७८. बे प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, बे प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहेस । एक प्रदेशे बे प्रदेश छै, एक प्रदेश हो रह्यो छै इक देश ।। ७९. एक प्रदेशे बे प्रदेश छै, त्यांनै फसै हो द्विप्रदेशी नों देश । देसेणं देसे फुसइ, इक देशे करि हो बहु देश फर्सेस ।। ८०. बे प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहंत । देसेणं सव्वं फूसइ, निज देशे करि हो सर्व प्रतै फर्सत ।। ८१. एक प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, तीन प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहंत । सव्वेण देसं फुसइ, निज सर्वे करि हो अन्य देश फर्सत ।। ८२. इक प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, बे प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहेस । एक प्रदेशे बे देश छ, एक प्रदेशे हो रह्यो छै इक देश ।। ८३. एक प्रदेशे बे प्रदेश छ, त्यांने फसै हो द्विप्रदेशी विशेष । सव्वेणं देसे फुसइ, निज सर्वे करि हो फसैं बहु देश । ८४. इक प्रदेशे रह्यो दुप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो त्रिप्रदेशी रहंत । सव्वेणं सव्वं फुसइ, निज सर्वे करि हो अन्य सर्व फर्संत ।। ८५. पहिलो दुजो नैं तीसरो, सप्तम अष्टम हो नवमों पहिछाण । फ0 षट भंगे करी, मध्य त्रिण भंगे हो नहिं फसें जाण ।। ८६. जिम द्विप्रदेशिक खंध ते, फर्माव्यो हो त्रिप्रदेशी नै ताम । एवं इम फर्मायवो, यावत् कहिवो हो अनंतप्रदेशी ने आम ।। ८७. खंध प्रभु ! त्रिप्रदेशियो, परमाण नै हो कितै भंग फर्सत । जिन कहै तीन भंगे करी, तीजे छठे हो नवमें करि हंत ।। ८८. तीन आकाश प्रदेश में, रो छते हो त्रिप्रदेशिक जेह । देसणं सव्वं फुसइ, निज देशे करि हो सर्व प्रतै फर्सेह ।। ८६. दोय आकाश प्रदेश में, त्रिप्रदेशिक हो रह्यो हवै सुविशेष । एक प्रदेशे बे प्रदेश छै, एक प्रदेशे हो रह्यो छे इक देश । १०. एक प्रदेशे बे देश छ, तिको फसँ हो परमाणु प्रति तास । देसेहि सव्वं फुसइ, बहु देशे करि हो सर्व परमाण फास ॥ ६१. एक आकाश प्रदेश में, त्रिप्रदेशिक हो रह्यो हुवै जद तेथ । सव्वेणं सव्वं फूसइ, निज सर्वे करि हो सर्व परमाण फर्सेत ।। १२. त्रिप्रदेशिक खंध तिको, फर्सतो हो द्विप्रदेशो नैं जोय । पहिले तीजे चौथे वलि छ, सप्तम नवमें हो भंगे करि होय ।। ६३. त्रिण प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, बे प्रदेशे हो द्विप्रदेशी रहंत । देसेणं देस फुसइ, निज देशे करि हो अन्य देश फर्सत ।। ८६. दुप्पएसिओ जहा तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावे यन्वो जाव अणंतपएसियं । (श० ५/१६७) ८७. तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा । ततिय-छ?-नवमेहिं फुसइ। ६२. तिपएसिओ दुपएसियं फुसमाणे पढमएणं, ततिएणं, चउत्थ-छट्ठ-सत्तम-नवमेहि फुसइ । ७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. त्रिण प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, एक प्रदेशे देसेणं सव्वं फुस, निज देशे करि हो १५. वे प्रदेशे त्रिप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो इक प्रदेशे इक देश है, दोष प्रवेशे हो द्विप्रदेशिक रहेस । ६. एक प्रदेशे वे देश के तिर्क फर्स हो द्विप्रदेशी नुं देश । देसेहि देस फुसइ, बहु देशे करि हो अन्य इक देश फर्सेस | १७. वे प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो रह्या छ दोय देश । इक प्रदेशे एक देश छं, द्विप्रदेशिक हो एक प्रदेश रहेस ।। १. एक प्रदेशे वे देश है, तिके फर्से हो द्वित्रदेशिक संघ । देसेहि सव्वं फुसइ, बहु देशे करि हो सर्व प्रतै फर्सद ॥ १६. इक प्रदेशे रह्यो विप्रदेशियों, दोय प्रदेशे हो द्विप्रदेशियो जाण । हो द्विप्रदेशी रहँत । सर्व प्रत फसंत ॥ राया छ दोष देश । सण दे फुस, निज सर्वे करि हो एक देश फसण || १०० एक प्रदेश रह्यो त्रिदेशियो, एक प्रदेश हो द्विप्रदेशी रहंत । सव्वेणं सव्वं फुसइ, निज सर्वे करि हो सर्व प्रतै फर्संत ।। १०१. तीन प्रदेशियो संघ तिको वलि अनेरो हो त्रिदेशिक संघ । तेह प्रतै फर्सतो छतो, सर्व स्थानके हो नव भंगे फर्सद ॥ १०२. त्रिनप्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, तीन प्रदेशे हो बलि दुजो पिण रहत । देसेणं देस फुस, निज देशे करि हो अन्य देश फर्सत ॥ १०३. त्रिण प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, दोय प्रदेशे हो दूजो खंध त्रिप्रदेश | एक प्रदेशे वे देश छै, एक प्रदेशे हो इक देश है शेष || १०४. एक प्रदेशे वे देश है, तिण ने फस हो विदेशी नो देश । देसेणं देसे फुसइ, इक देशे करि हो बहु देश फर्सेस ॥ १०५. त्रिण प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो अन्य संध त्रिप्रदेशि । देसेणं सव्वं फुसइ, इक देशे करि हो सर्व प्रते फर्सेसि ॥ १०६. वे प्रदेश रह्यो विप्रदेशियो एक प्रदेशे हो दोय देश रहेसि । इक प्रदेश इक देश छै, तीन प्रदेशे हो अन्य खंध त्रिप्रदेशि || १०७. एक प्रवेशे वे देश है, तिको फर्से हो त्रिप्रदेशी नों देश । देसेहि देसं फुसइ, बहु देशे करि हो इक देश फर्सेस ।। त्रिप्रदेशी हो दोय खंध विशेष । इक इक प्रदेशे हो देश छै एक एक ॥। तिके फर्से हो अन्य नां बहु देश । करि हो बहु देश फर्सेस | १०५ वे वे प्रदेश विषे रहा। " इक इक प्रदेशे बे देश छै, १०२. एक प्रदेशे वे देश छ, देहि देसे फुसइ, बहु देशे ११०. वे प्रदेश रह्यो त्रिप्रदेशियो एक प्रदेशे हो रह्या छे दोय देश । इक प्रदेशे इक देश छे, एक प्रदेशे हो अन्य खंध त्रिप्रदेश || १११. इक प्रदेशे वे देश छे, तिके फर्से हो त्रिप्रदेशी संघ । देसेहि सव्वं फुसइ, बहु देशे करि हो सर्व प्रते फर्सद ॥ ११२. इक प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, तीन प्रदेशे हो अन्य संघ त्रिदेशि । सत्रेणं दे कुस, निज सर्वे करि हो अन्य देश फर्शेसि ॥ १०१ समास ि फुसइ । श०५, उ०७, ढाल ८६७१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. इक प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, दोय प्रदेशे हो अन्य खंध त्रिप्रदेशि । एक प्रदेशे बे देश छै, एक प्रदेशे हो इक देश रहेसि ॥ ११४. एक प्रदेशे बे देश छै, तिण नै फसे हो त्रिप्रदेशी खंध । सव्वेणं देसे फुसइ, निज सर्वे करि हो बहु देश फर्संद ।। ११५. इक प्रदेशे रह्यो त्रिप्रदेशियो, एक प्रदेशे हो अन्य खंध त्रिप्रदेशि । सव्वेणं सब्वं फुसइ, खंध सर्वे करि हो सर्व प्रते फसें सि ।। ११६. जिम त्रिप्रदेशी खंध ते, फसव्यिो हो त्रिप्रदेशो संघात । इमहिज ते त्रिप्रदेशियो, जाव जोड़वो हो अनंतप्रदेशी साथ ।। ११७. जेम कह्य तीन प्रदेशियो, ओ तो फसँ हो परमाणु प्रति जेह । वलि फर्से द्विप्रदेशिक प्रतै, जाव फसे हो अनंतप्रदेशी प्रतेह ।। ११८. तिम च्यार प्रदेशिक आदि दे, अनंतप्रदेशिक हो खंध तेह विख्यात । फसे परमाणुआं प्रते, जावत् फर्से हो अनंतप्रदेशिक जात ॥ ११६. देश अंक सत्तावन तणो, आ तो आखी हो नव्यासीमीं ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति हो सुख हरष विशाल ॥ ११६. जहा तिपएसिओ तिपएसियं फुसाविओ एवं तिप्पएसिओ जाव अणंतपएसिएणं संजोएयव्यो। ११७,११८. जहा तिपएसिओ एवं जाव अणंतपएसिओ भाणियब्वो। (श० ५/१६८) ढाल : ६० १. पुद्गलाधिकारादेव पुद्गलानां द्रव्यक्षेत्रभावान् कालतश्चिन्तयति । (वृ० प० २३४) २. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? दूहा १. पुद्गल नां अधिकार थी, ते पुद्गल नां ताय । द्रव्य क्षेत्र वलि भाव प्रति, काल थकी कहिवाय ।। २. प्रभु ! परमाणू काल थी, कितो काल रहै ताय ? इह विध द्रव्य प्रति काल थी, प्रश्न कियो सुखदाय ।। *श्री जिन वागरे, अमृत-वाण उदारो रे, गोयम पूछता, सरस प्रश्न सुखकारो रे। (ध्र पदं) ३. श्री जिन भाख जघन्य था रे, एक समय सुविशेषि । उत्कष्ट काल असंख ही रे, इम जाव अनन्तप्रदेशि रे ॥ ४. वृत्तिकार इम आखियो, असंख काल उपरंत । एकरूप पुद्गल तणो, रहिवू स्थिति न हुंत ॥ [जिन गुणसागरू, वयण सुधा सुवदीतो रे, अधिक ओजागरू, गोयम प्रश्न पुनीतो रे।] ५. प्रभु ! एक प्रदेश विषे रह्यो, पुद्गल जे कंपमान । ते स्थान तथा अन्य स्थानके, कितो काल रहै जान ? *लय : श्रेणिक घर आयां पछ रे काय । ३. गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं । एवं जाव अणंतपएसिओ। (श० ५।१६६) ४. असंख्येयकालात्परः पुद्गलानामेकरूपेण स्थित्यभावात् । (वृ० प० २३५) ५. एगपएसोगाढे णं भंते ! पोग्गले सेए तम्मि वा ठाणे घा, अण्णम्मि वा ठाणे कालओ केवच्चिरं होइ ? ७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । ७. एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे। (श० ५।१७०) ६. श्री जिन भाखै जघन्य थो, समय एक चल माग । उत्कृष्ट आवलिका तण, असंख्यातमैं भाग ।। ७. इम यावत् आकाश नों, असंखेज्ज प्रदेश । ____ अवगाह्यो पुद्गल तिको, सकंप इतो रहेस ।। ८. प्रभु ! इक आकाश-प्रदेश में, पुद्गल कंप रहीत । अचलपणे रहै काल थी, कितो काल संगीत ? ६. जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्ट काल असंखेज । इम जाव असंख-प्रदेश नं, अवगाह्योज निरेज' ॥ १०. इक गुण कालो वण्णओ, पुद्गल हे भगवान ? कितो काल रहे काल थो? हिव उत्तर जिन वान ।। ११. जघन्य थकी इक समय छ, उत्कृष्टो इम न्हाल । काल असंख्यातो कहो, इम जाव अनंतगुण काल । १२. इम वर्ण गंध रस फर्श छै, जाव अनंतगुण लक्ष । सूक्ष्म बादर परिणतो, पुद्गल इमज प्रत्यक्ष ।। ८. एगपएसोगाढे णं भते ! पोग्गले निरेए कालओ केवच्चिरं होइ? ६. गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे । (श० ५।१७१) १०. एगगुणकालए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ? ११. गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं । एवं जाव अणंतगुणकालए । १२. एवं वण्ण-गंध-रस-फास जाव अणंतगुणलुक्खे । एवं सुहुमपरिणए पोग्गले, एवं बादरपरिणए पोग्गले । (श० ११७२) १३. सद्दपरिणए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिर होइ? १३. शब्द-परिणत पुद्गल प्रभु ! काल थकी पहिछाण ।। शब्दपणे जे वर्ततो, कितो काल रहै जान ? १४. जिन कहै समय इक जघन्य थो, हिवै उत्कृष्ट सुमाग । आवलिका छै तेहनों, असंख्यातमैं भाग । १५. शब्दपणे नहिं परिणम्यां, अशब्द-परिणत जेह । जिम इक गुण कालो कह्यो, तिमहिज कहि एह ॥ १४. गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । (श० ॥१७३) १५. असद्दपरिणए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। (श० ५।१७४) १६. परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? १७. गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं। (श० ११७५) १८. दुप्पएसियस णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। १६. प्रभु ! परमाण-पुद्गल तणों, कितो अंतरो जोय ? खंध माहै ते रहि करी, वलि परमाणु होय ।। १७. जिन कहै समय इक जघन्य थी, हिवै उत्कृष्टो जोय । काल असंख्यातो कह्यो, पछै परमाणु होय ॥ १८. प्रभ! दुप्रदेशियो खंध तणो, कितो अंतरो न्हाल ? जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्ट अनंतो काल ।। १६. दुप्रदेशिया खंध तिको, अन्य खंध में मिल सोय । तथा परमाणपण थइ, द्विप्रदेशिक वलि होय ॥ २०. इम अनंत काल नों आंतरो, दूप्रदेशिक नों प्रबंध । एवं जावत् आखियो, अनंत-प्रदेशिक खंध ॥ २१. इम त्रिप्रदेशिक खंध वली, अनंतप्रदेशो पर्यंत ॥ __स्थिति उत्कृष्ट काल असंख नों, अंतर-काल अनंत ।। २२. प्रभु ! इक प्रदेश अवगाहियो, सकंप पुद्गल सोय । काल थकी तसु आंतरो, किता काल नों होय? २०. एवं जाव अणंतपएसिओ। (श० ५।१७६) २२. एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? १. निष्कम्प। १.५, उ०७, ढाल ६० ७३ Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २३. सकंप पुद्गल ताय, ते फोटो निष्कंप है। वलि सकंपज थाय, इक प्रदेश अवगाढ जे ॥ २४. *जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्ट काल असंखेज। इम जाव असंख प्रदेश नं, अवगाह्योज सएज' ।। २४. गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं । एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे । (श० ५।१७७) २५. एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? २५. प्रभ ! एक प्रदेश अवगाहियो, अकंप पुदगल सोय । काल थकी तसं आंतरो, किता काल नों होय ? २७. गोयमा ! जहणणं एग समयं, उक्कोसेणं आवलि याए असंखेज्जइभागं । २८. एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे । सोरठा २६. अकंप पुद्गल ताय, ते फोटो सकंप थई । वलि अकंपज थाय, इक प्रदेश अवगाढ जे ।। २७. "जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्टो इम माग । कहियै आवलिका तणे, असंख्यातमैं भाग ।। २८. इम जाव असंख-प्रदेश में, अवगाह्योज निरेज । तसु जघन्योत्कृष्ट अंतरो, पूरववत् कहेज ॥ २६. काल अकंप तणो जितो, अकंप अंतर तेह । काल अकंप तणो जितो, सकंप अंतर जेह ।। ३०. इक गुण काला प्रमुख जे, वर्ण गंध रस फास । सूक्ष्म परिणत पोग्गला, बादर परिणत तास ।। ३१. तसं संचिट्ठणकाल ते, जितो पूर्व कह्यो न्हाल । अंतर पिण तसं तेतलो, अंतर स्थिति तुल्य काल ।। ३२. "जिम इक गुण कालो आदि दे, कितो काल रहै न्हाल? एक समय छै जघन्य थी, उत्कृष्ट असंख काल ।। ३३. तिम इक गुण कालो आदि दे, तसुं अंतर पिण न्हाल । एक समय छै जघन्य थी, उत्कृष्ट असंख काल ।। ३४. इम वर्ण गंध रस फर्श जे, सूक्ष्म बादर परिणत । काल रहै छै जेतलं, तितरो अंतर लहत ॥ ३०. वण्ण-गंध-रस-फास-सुहमपरिणय-बायरपरिणयाणं । प्रपत्र ३१. एतेसि जं चेव संचिट्ठणा तं चेव अंतरं पि भाणियब्वं । (श० ५/१७८) सोरठा ३५. इक गुण कालत्व आदि, तेहना अंतर नैं विषे । द्विगुण काल प्रमुखादि, जाव अनंत गुण प्रति लहै ॥ ३६. इक इक गुण रै मांहि, असंख-असंख अद्धा रह्या । अनंतपणां थी ताहि, अंतरकाल अनंत ह॥ १. परिवर्तित होकर सकम्पता छोड़कर *लय : श्रेणिक घर आयां पछै रे २. सकम्प ७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. इम काल अनंतो सोय, अंतर तेहनो ह नहीं । असंख काल इज होय, श्री जिनवचन प्रमाण थी" ॥ (ज० स०) ३८. "प्रभु ! शब्द-परिणत पुद्गल तणो, अंतर कितलु कहेज ? जिन कहै समय इक जघन्य थी, उत्कृष्ट काल असंखेज ।। ३८. सद्दपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । (श० ५/१७६) ३६. असद्दपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? ४०. गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । (श० ५/१८०) ४१. एयस्स णं भंते ! दवट्ठाणाउयस्स, द्रव्यं-पुद्गलद्रव्यं तस्य स्थान-भेदः परमाणु द्विप्रदेशिकादि तस्यायुः-स्थितिः। (वृ० प० २३६) ३६. अशब्द-परिणत जे प्रभु ! पुद्गल नों पहिछाण । काल थकी अंतर कितुं ? हिव भाखै जगभाण ।। जघन्य थकी इक समय नों, हिवै उत्कृष्ट सुमाग । कहिये आवलिका तणो असंख्यातमों भाग ।। ४१. हे प्रभ! पुद्गल द्रव्य नों, स्थान-भेद ते विचित्त । परमाणु द्विप्रदेशादिदे, तेहनी स्थिति लहित । वा०--पुद्गल द्रव्य नो जे स्थान ते भेद, एतले परमाणु, द्विप्रदेशिक त्रिप्रदेशिक जाव अनंतप्रदेशिक खंध ए पुद्गल द्रव्य नां अनंता भेद छ। तेहनै पुद्गल द्रव्य नां स्थान कहीजै । तेह स्थान नो आयु ते स्थिति कहिये । एतले पुद्गल द्रव्य नां स्थानक नां आयु नै द्रव्यस्थानायु कहिये । ४२. क्षेत्र आकाश तणां जिक, स्थान भेद बहु ताय । पुद्गल क्षेत्र अवगाहिया, तेहनी स्थिती कहाय ।। ४०. ४२. खेत्तट्ठाणाउयस्स, क्षेत्रस्य--आकाशस्य स्थानं-भेदः पुद्गलावगाहकृतस्तस्यायु:-स्थितिः । (वृ०प०२३६) ४३. ओगाहणट्ठाणाउयस्स, ४३. अवगाहन पुद्गल तणी, तास स्थान बहु जाण । विविध प्रकारे ते अछ, तेहनी स्थितो पिछाण ॥ ४४. भाव कृष्ण वर्णादि जे, स्थान भेद बहु जोय । अनेक प्रकार करी अछ, तास स्थिती अवलोय ।। ४४. भावट्ठाणाउयस्स भावस्तु कालत्वादिः । (वृ० प० २३६) ४५. ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेदः ? (वृ० प० २३६) ४६,४७. क्षेत्रमवगाढमेव, अवगाहना तु विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रापि पुद्गलानां तत्परिमाणावगाहित्वमिति । (वृ० प० २३६) सोरठा ४५. क्षेत्र-स्थान-स्थिति मांय, वलि अवगाहन-स्थान में । कवण फेर कहिवाय? कहूं वृत्ति अवलोक नैं ।। ४६. जिता आकाश-प्रदेश, पुद्गल द्रव्य अवगाहिया । तेहिज प्रमाण कहेस, क्षेत्र आकाश प्रदेश नं ॥ ४७. वांछित क्षेत्र थी जोय, अन्य ठिकाणे पिण हवै। अवगाहन अवलोय, पुद्गल द्रव्य तणी अछै ।। ४८. क्षेत्र आकाश प्रदेश, अवगाहन पुद्गल तणो । तिण कारण सुविशेष, जुदा क्षेत्र अवगाहना ॥ ४६. द्रव्य क्षेत्र अरु काल, बलि भाव ए चिहुँ तणां । स्थान तणी स्थिति न्हाल, अल्पबहुत्व तेहनी हिवै। ५०. *जिन कहै थोडा सर्व थो, क्षेत्र स्थान स्थिति जोय । क्षेत्र अरूपिपणे करी, पुद्गल रूपी होय ।। *लय : श्रेणिक घर आयां पछ रे ४६. कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? ५०,५१. गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तट्ठाणाउए, क्षेत्रस्यामूर्तत्वेन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्टबन्धप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावान्नकत्र ते चिरं तिष्ठन्ति । (१०५०२३६) श०५उ.७, हाल ६. ७५ Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. क्षेत्र साथ पुद्गल तणो, प्रत्यय बंध विशिष्ट । स्नेहादिक नां अभाव तें, एकत्र चिर नहि तिष्ठ ॥ ५२. पुदगल इक क्षेत्रज विषे, घणां काल रहै नांय । तिण कारण थोड़ी कही, क्षेत्र-स्थान-स्थिति ताय ।। ५३. अवगाहन-स्थान-स्थिति तेहथी, असंखगुणा कहिवाय । द्रव्य-स्थान-स्थिति तेहथी, असंखगुणा अधिकाय ।। ५४. भाव-स्थान-स्थिति तेहथी, असंखगूणा अवलोय । हिव वृत्ति थी वारता, न्याय कहं ते जोय ।। ५३. ओगाहणट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे, दवट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे । ५४. भावट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे। (श० ५/१८१) ५५. खेत्तामुत्तत्ताओ तेण समं बंधपच्चयाभावा । तो पोग्गलाण थोवो खेत्तावट्ठाणकालो उ ।। (वृ०प०.३६) सोरठा ५५. पुदगल क्षेत्र संघात, विशिष्ट बंध प्रत्यय नहीं। चिर इक खित्त न रहात, क्षेत्र रह्य इम अल्प अद्धा ।। ५६. अवगाहन अधिकाय, अन्य क्षेत्र पिण ते रह्य । चिर काले रहिवाय, पुदगल नी अवगाहना ।। ५७. तिण कारण इम ताय, क्षेत्र विषे रह्या काल थी। अवगाहन अधिकाय, अन्य क्षेत्र पिण ते रहै ॥ ५८. अवगाहन नों नाश, तो क्षेत्र स्थिति पिण प्रगट नहिं । अवगाहन-स्थिति थी तास, इम क्षेत्र-स्थिति अधिक नहिं ।। ५६. खेत्र काल जे न्हाल, अगमन अवगाहन संबद्ध । पिण अवगाहन काल, खेत्र अद्धा संबद्ध नहिं । ६०. अवगाहन नी न्हाल, अगमन क्रिया नै विषे । नियत क्षेत्र जे काल, वांछित अवगाहन छते ॥ ६१. अवगाहना निहाल, अक्षेत्र मात्र अछै तिका । नियत क्षेत्र नं काल, तास अभावे पिण हुवै ।। ६२. गमन क्रिया में जाण, अवगाहन तिहां पिण अछै । तिण से अधिक पिछाण, क्षेत्र काल थी असंखगुण ।। ६३. संकोचन करि जेह, अथवा विकोचन करी । अवगाहन निवृत्तेह, तो पिण द्रव्य न निवत्त । ६४. पूर्व रह्यो द्रव्य जन्न, ते तो चिर काले रहै । पिण पूर्व अवगाहन्न, निवृत्ति-नाश थयो तसु॥ ६०. अवगाहनायामगमनक्रियायां च नियता क्षेत्राद्धा विवक्षितावगाहनासद्भावे । (वृ० प० २३६) ६१. अवगाहनाद्धा तु न क्षेत्रमात्रे नियता, क्षेत्राद्धाया अभावेऽपि तस्या भावादिति । (वृ०प०२३६) ६२. जम्हा तत्थऽण्णत्थ य सच्चिय ओगाहणा भवे खेत्ते । खेत्तद्धाओऽवगाहणद्धा असंखगुणा ।। (वृ०प० २३६) ६३,६४. संकोचेन विकोचेन चोपरतायामप्यवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासंस्तावतामेव चिरमपि तेषामवस्थानं संभवति, अनेनावगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्त्तत इत्युक्तम् । (वृ०प० २३६) ६५. अथ द्रव्यनिवृत्तिविशेषेऽवगाहना निवर्तत एवेत्युच्यते-संघातेन पुद्गलानां भेदेन वा । (वृ०प०२३६) ६६. तेषामेव यः सङ्क्षिप्तः-स्तोकावगाहनः स्कन्धो न तु प्राक्तनावगाहनः । (वृ०प०२३६) ६७. तत्र यो द्रव्योपरमो द्रव्यान्यथात्वं तत्र सति । (वृ० प० २३६) ६५. पूदगल नां संघात, तिण करि अथवा भेद करि । द्रव्य निवत्यै थात, अवगाहन नी पिण निवृत्ति । ६६. पुदगल संक्षिप्त थाय, तदा स्तोक अवगाहना । पिण पूर्वली ताय, नहिं छै ते अवगाहना ॥ ६७. तिहां जे द्रव्य नुं नाश, द्रव्य अन्यथा ह छते । पूर्व द्रव्य विणास, नाश पूर्व अवगाहन नु।। ७६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. अवगाहन नं काल, ते द्रव्य किसो निहाल ? द्रव्य विषे संबद्ध अछे । चित्त लगाई सांभलो || ६१. संकोचन विकोच, विहं रहित जे द्रव्य छते । अवगाहना अगोष, नियतपणे करितसुं संबद्ध ॥ ७०. द्रव्य नीं जे अवगाहन्न, संकोच विकोच द्रव्य नुं । तो द्रव्य नाश म जन्न, पुव्व अवगाहन नाश ॥ ७१. द्रव्य संकोच लहेज तथा विकोचन हुं छते । अवगाहना विषेज, नियतपणें करि संबद्ध नहीं || ७२. संकोच विकोच जान, तिण करि अवगाहन तदा । निवृत्त भये पिछाण द्रव्य तणी निवृति नधी ॥ ७३. इम अवगाहन मांव, नियतपणं करि द्रव्य नुं । असंबद्ध कहिवाय, कुशाग्रबुद्धि करि देखिये ॥ ७४. हि कारण कहिवाय, अवगाहन रा काल थी । असंखगुणा अधिकाय, द्रव्य स्थान स्थिति नैं कह युं ॥ ७५. भंग द्रव्य नों थाय, पिण तेहनां वर्णादिके। ते गुण पर्याय, पण काल लग जे रहे । ७६. संघातन नें भेद, तिण करि द्रव्य मिटयो तिको । छे पजवा अविच्छेद, जिम पृष्टपटे शुक्लादि गुण ॥ ७७. सह गुण मिटज जान, नहि द्रव्य नहि अवगाहना । इम पजवा चिर स्थान द्रव्य ने अचिर का अर्थ | ७. संघातन अरु भेद, ए बेहं करि जे बंध-संबंध जे तदनुर्वात्तनी वेद, निस्यईज छे द्रव्य अद्धा ॥ ७६. पिण नहि गुण नों काल, संघात भेद अद्धा संबद्ध । संघातादी न्हाल तो पिण गुण केडै रहै ॥ क्षेत्र अनै अवगाण, द्रव्य अनै वलि भाव नां । स्थानक नी स्थिति जान, अल्प बहुत्व इम तेह तणी ॥ ८१. सर्व की अल्प वेत, शेष असंखगुणां कह्या ॥ संग्रह कर ए कहा । द्रव्य तणां जे काल थी। असंखगुणो अधिकाय, भाव स्थान स्थिति नों कह्यो । पूर्व आसी एष तसुं ८२. तिज कारण कहिवाय, ८०. ८३. *देश अंक सतावन तणो, ए नेऊमी डाल भिक्ष भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जय' मंगलमाल || *लय श्रेणिक घर आयां पर्छ रे ६८. अवगाहनाद्वा द्रव्येऽवबद्धा — नियतरखेन सम्बद्धा, कथम् ? ( वृ० प० २३७ ) ६९. सोचाकोचाच्य सविकोपादि परिहृत्वेत्यर्थः अवगाहना हि द्रव्ये सविकोच्योरभावे सति भवति तत्सद्भावे च न भवतीत्येवं द्रव्येऽवमाहनानिपतत्वेन संबद्धेत्युच्यते । ( ० १० २३७ ) ७१. न पुनर्द्वय्यं सङ्कोचविकोचमात्रे सत्यप्यवगाहनायां नियतत्वेन संबद्धं । ( ० प० २३७) ७२. सङ्कोचविकोचाभ्यामवगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्त्तते । ( वृ० प० २३७ ) ७३. इत्यवगाहनां तम्रियतत्वेनासंबद्धमित्युच्यते । ( वृ० प० २३७ ) यथा ७६. संवातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, घृष्टपटे शुक्लादिगुणाः । ( वृ० प० २३७ ) ७७. सकलगुणोपरमे तु न तद्रव्यं न चावगाहनाऽनुवर्त्तते, अनेन पर्यवाणां चिरं स्थानं द्रव्यस्य त्वचिरमित्युक्तम्, ( वृ० प० २३७) ७८. सङ्घातभेदलक्षणाभ्यां धर्माभ्यां यो बन्धः - सम्बन्ध - स्तदनुतनी तदनुसारिणी । ( ० १० २२७ ) ७६. न पुनर्गुणकालः संघातभेदमात्रकालसंबद्धः, सङ्घातादि भावेऽपि गुणानामदर्शनादिति ० ० २३७ ) ०१. तोगाहणदव्वे भावद्वाणाउयं प अप्प बहुं । बेसे सम्पर सेसा ठाणा असंखेज्जगुणा ॥ १ ॥ (४०२ / १०१ संगही गाहा) -- 1 श०५, उ० ७, ढाल १० ७७ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ६१ दूहा १. पूर्वे आऊखो कह्य ु, आरंभादि-सहीत २. हे भदंत ! भव-अंत ! प्रभु आरंभ- सहित स्यूं नारकी, ३. अथवा आरंभ - रहित छँ, आयुक्त छै जेह । डंडक चवीसेह || ! भयांत ! हे भगवान ! परिग्रह सहित पिछाण ? परिग्रह -रहित जगीस ? इम गोयम पूछे छते, जिन भाखै सुण शीस ! * जय जयकारी वाण जिनेंद्र नी, दीपक देव दिनंदो रे । शीतल चंद सरीखा स्वाम जी, जय जश करण जिनंदो रे ।। (ध्रुपदं ) ४. नेरइया आरंभ-परिग्रह- सहित छै, आरंभ-रहित न थायो रे । परिग्रह - रहित नहीं छै नारकी, प्रभु ! किण अर्थे ए वायो रे ? ५. जिन कहै नारकी पृथ्वीकाय नें, आरंभ-पीड पमायो । यावत् पीड़ करै तसकाय नैं हिव निसुणो तसु न्यायो । सोरठा ६. अव्रत आश्री एह, अथवा मन कर नैं हणं । किणकि काय नें तेह, पीड़ पमावै वलि ह ॥ ७. *शरीर परिग्रहवंत छै नारकी, तन नीं मूर्छा तासो । कर्म परिग्रहवंत छै नेरइया, ग्रहण करी कर्म रासो ॥ ८. सचित्त अचित्त वलि मिश्र द्रव्ये करी, परिग्रह सहित पिछाणो । तिण अर्थे करि आरंभ - सहित छै, परिग्रह सहित सुजाणो || ६. प्रभु ! असुरकुमार आरंभ सहित छ ? पूछा एह वदीतो । जिन कहै आरंभ - परिग्रह- सहित छै, नहि आरंभ-परिग्रह-रहीतो ॥ १०. किण अर्थे ? तब जिन कहै असुर ते, पृथ्वी पीड़ उपावै । यावत् त्रस नों पिण आरंभ करें, शरीर परिग्रह थावे ॥ ११. कर्म परिग्रहवंत ग्रहण किया, भवन परिग्रहवतो । देव देवी मनुष्य नैं मनुष्यणी, त्यां सूं ममत्व करतो ॥ *लय : आरंभ करतो जीव संक नहीं । ७८ भगवती-जोड़ १. अनन्तरमायुरुक्तम्, आरम्भादिना अथायुष्मत चतुर्विंशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह - ( वृ० प० २३७ ) २. नेरइया णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा ? ३. उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? ४. गोयमा ! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, णो अणारंभा अपरिग्गहा । ( श० ५ / १८२ ) सेकेणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चई - नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा ? ५. गोयमा ! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति, जाव (सं० पा० ) तसकायं समारंभंति । ७. सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति । ८. सचित्ताचित्त मीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, तो अणारंभा अपरिग्गहा । (श० ५ / १८३) ६. असुरकुमारा णं भंते ! कि सारंभा ? पुच्छा । गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा । ( श० ५ / १८४ ) १०. से केणट्ठेणं ? गोयमा ! असुरकुमारा णं पुढविकार्य समारंभंति जाव तसकार्य समारंभंति, सरीरा परिगहिया भवंति | ११. कम्मा परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. तियंचयोनिया वलि तियंचणी, ए पिण परिग्रह मांह्यो । आसण ते तो ँ बेसण तणो, सेज्या शयन कहायो ॥ १३. भंड माटी नां भाजन ने कला, कांसी-भाजन मत्तो । उपकरण कुछ कड़ाहा लोहनां वृत्तिकार इम कहतो ॥ १४. सचित्त अचित्त में मिथ द्रव्ये करी परिग्रहवंत विचारो | तिण अर्थ आरंभ- सहित असुर का इम यावत् वणियकुमारो ।। १५. एकेंद्री जिम नरक तणी परे, अयत आधी इंद्री प्रभु! आरंभ सहित परिग्रहसहित १८. जिणविध बेइंद्री में आखियो, इम जाव तिर्यंच पंचेंद्री नीं पूछा कियां, जाव कर्म कहीजे । वदोज ? १६. तिणहिज रोते पाठ भणीजिये, नारक जैम जाव शरीर परिग्रहवंत छै, तन नीं मूर्छा १७. बाहिर भंड मत्त उपकरण ते उपकरण सरीखा कहायो । तनु रक्षा अर्थे बेंद्री करै घर ते परिग्रह मांह्यो । कहावे । भावै ॥ चउरिद्री उदंतो । परिग्रहवतो ॥ कहिवायो । ११. टंक कहोजे देवा गिरि भणी, कूट शिखर शेल कहीजं मुंड पर्वत भणी, ए पिण परिग्रह मांह्यो । २०. शिखरवंत गिरि ने शिखरी कह्यो, कांयक नम्या गिरि देशो | पाठ पभारा तणो ए अर्थ छे, परिग्रह मांहि कहेसो । अंगसुत्ताणि भाग २ में २१. जल थल बिल नें गुफा कही वलि, गिर को पर्वत शिखर थकी पाणी भर, तेहने १. यह जोड़ जिस पाठ के आधार पर है उसके आगे पाठ का कुछ अंग और है— चित्ताचितमाएं दब्बा परिहियाई भवंति' । जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में यह पाठ नहीं था । अंगसुत्ताणि के पाठान्तर में भी यह सूचना दी गई है कि एक अन्य आदर्श में यह पाठ नहीं मिलता है। घर लेणा । उकर केणां ॥ १२. तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहिया भवंति, आसण-सयण १३. भंड-मसोयगरणा परिग्गहिया अवंति । इह भाण्डानि मृन्मयभाजनानि मात्राणि - कोपभाजनानि उपकरणानि लोहीकच्छुकादीनि (० प० २३८) १४. सवितातिमीसयाई दबाई परिहियाई भवंति से गोमा एवं वद-असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा । ( ० ५ / १०५) 1 एवं जाव थणियकुमारा । १५. एगिदिया जहा नेरइया । (२०५/१०६) एकेन्द्रियाणां परिग्रहोऽयस्पास्यानादवसेयः । ( वृ० प० २३८) बेदिया णं भते कि सारंभा सपरिमहा ? १६. दिया गं पुढविकार्य समारंभति जाव तसकार्य समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति । १७. बाहिरा भंड- मत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति । ( श० ५ / १८७ ) - उपकारसाम्यद्रयाणां शरीररक्षार्थ कादीन्यवसेयानि । १८. एवं जाव चउरिदिया । ( वृ० प० २३८) (८०२ / १००) किं सारंभा पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? तं चैव जाव कम्मा परिग्गहिया भवंति, १६. टंका कूडा सेला 'टंकति छिटका 'कुत्ति कुटानि शिखराणि ...' ति मुद्रपर्वतः । - ( वृ० प० २३८ ) २०. सिहरी पन्भारा परिगहिया भति 'सिहर' लि शिखरिणः शिखरवतो गिरयः 'पब्भार' त्ति ईषदवनता गिरिदेशाः । (५० १० २३०) २१. जल-थल - बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया भवंति । ''त्ति पर्वतगृहा 'उज्झर' त्ति अवकरः पर्वतादुदकस्याघ्र पतनं । (बु० प० २३८) ० ५ उ० ७ डाल - ६१ ७६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. णिज्झर नीज्झरणो ते जल श्रवै, चिल्लल चिक्खल समीलो । मिश्रोदक स्थान आख्यो वृत्ति में, पल्लल प्रह्लादनशीलो॥ २३. केदारवान आकार क्याऱ्या तणे, तटवान वा देशो । अन्य आचार्य क्यारयां इज कहै, ए वप्पिणा अर्थ विशेषो ।। २४. अगड पाठ नों अर्थ कूओ कह्य, वलि तलाब द्रह जाणी । नदी अनै चउखूणी बावड़ी, ए उदक सहित पिछाणी ।। २५. वृत्त वाटली पुष्करणी कही, अथवा कमल सहीतो। दीहिया पाठ नों अर्थ खंडोखलो', परिग्रहवंत प्रतीतो ।। २२. निझर-चिल्लल-पल्लल 'निज्झर' त्ति निझर-उदकस्य श्रवणं, "चिल्लल' त्ति चिक्खल मिधोदको जलस्थान विशेषः 'पल्लल' त्ति प्रह्लादनशीलः । (वृ० प० २३८) २३. वप्पिणा परिग्गहिया भवंति, 'वप्पिण' त्ति केदारवान् तटवान् वा देशः केदार एवेत्यन्ये। (वृ०५० २३८) २४. अगड-तडाग-दह-नईओ वावी 'अगड' त्ति कुप: 'वावि' त्ति वापी चतुरस्रो जलाशय विशेषः । (वृ० प० २३८) २५. पुक्खरिणी-दीहिया 'पुक्ख रिणि' त्ति पुष्करिणी वृत्तः स एव पुष्करवान् वा, 'दीहिय' त्ति सारिण्यः । (वृ०प० २३८) २६. गुंजालिया सरा सरपंतियाओ, 'गुंजालिय' त्ति वक्रसारिण्यः, 'सर' त्ति सरांसि स्वयंसंभूतजलाशयविशेषाः। (वृ०५० २३८) २७. सरसरपंतियाओ यासु सर:पंक्तिषु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एवं संचारकपाटकेनोदकं संचरति ताः सरःसर:पंक्तयः । (वृ०५० २३८) २८. बिलपंतियाओ परिग्गहियाओ भवंति। २६. वक्र नालि नी वावी गुंजालिका, जल वक्र नालि निसरंतो । अणखणियो सर आश्रय जल तणु, वलि ते सर नी पंतो।। २७. इक सर सेती अन्य सर दूसरो, तेहथी अन्य सर तीजो। माहोमांहि पाणी आवतो, ए सर-सर-पंक्ति कहोजो ।। २८. बिल नी पक्ति श्रेण तेणे करी, सर्व प्रकारे सोयो । तिर्यंच पंचेन्द्री तेहनै ग्रह्या, ते परिग्रह में होयो। २६. द्राखादिक नां मंडप में विषे, स्त्री नर रमत आरामो । पुष्पादि तरु सहित उद्यान ते, परिग्रहवंत तमामो॥ ३०. कानन तरु-सामान्य सहीत ते, नगर नजीक आख्यातो । वन ते नगर थकी अलगो कह्यो, वन-खंड तरु इक जातो।। ३१. तरु नी पंक्ति वनराई कही, देवल सभा पो थभो । ऊपर चोड़ी हेठे सांकड़ी, खाई परिग्रह लुभो ।। २६. आरामुज्जाण आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः, 'उद्यानानि' पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्स वादौ बहुजनभोग्यानि । (वृ०प० २३८) ३०. काणणा वणा वणसंडा काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगरासन्नानि, वनानि नगरविप्रकृष्टानि, वनषण्डाः -एकजातीयवृक्षसमूहात्मकाः। (वृ० प० २३८) ३१. वणराईओ परिग्गहियाओ भवंति, देवउल-सभ-पव थूभ-खाइय 'वनराजयो'-वृक्षपंक्तयः 'खातिकाः' उपरिविस्ती धः सङ्कटखातरूपाः, (वृ० प० २३८) ३२. परिखाओ परिग्गहियाओ भवंति, पागार-अट्टालग परिखाः अधः उपरि च समखातरूपाः, 'अट्टालग' त्ति प्राकारोपर्याश्रयविशेषाः, (वृ० प० २३८) ३३. चरिय-दार-गोपुरा परिग्गहिया भवंति, 'चरिका' गृहप्राकारान्तरो हस्त्यादिप्रचारमार्गः, द्वार खडक्किका, 'गोपुरं' नगरप्रतोली, (वृ० प० २३८) ३२. हेठे ऊपर सम परिखा कही, ते पिण परिग्रहवंतो। वलि प्रागार कह्यो छै गढ भणी, बुरज अटालग हुतो ।। ३३. गढ घर बिच जे गजादि गमन नों, मारग चरिय कहतो । दार कहीजै जे खिड़की भणी, गोपुर दरवज्जा हंतो।। १. बावड़ी विशेष । ८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. रायभवन प्रासाद कहोजिय, वलि अति उच्च प्रासादो । .. घर जे कहिय गृह सामान्य ए, तथा जन सामान्य नो लाधो । ३५. सरण कहीजै तुणमय घर तसं, लेण उपाश्रय जोयो। आपण नाम जे हाट तणो अछ, ए परिग्रहवंतज होयो ।। ३४. पासाद-घर प्रासादा देवानां राज्ञां च भवनानि, अथवा उत्सेधबहुला:-प्रासादाः, 'घर' त्ति गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा। (वृ० प० २३८) ३५. सरण-लेण-आवणा परिग्गहिया भवंति, 'शरणानि' तृणमयावसरिकादीनि 'आपणा' हट्टाः, (वृ० प० २३८) ३६. सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर ३६. सिंघोडा नैं आकारे स्थान ते, त्रिक त्रिण पंथ मिलतो । चउक्क कहीजै पंथ मिले चिहुं, चच्चर मिलै बहु पंथो । ३७. चउमुह देवकुलादि चतुर्मख, राजमार्ग महापंथो । वलि सामान्य मार्ग में पथ का तिण करि परिग्रहवंतो।। ३७. चउम्मुह-महापह-पहा परिग्गहिया भवंति, । चतुर्मुखं-चतुर्मुखदेवकुलकादि 'महापह' त्ति राजमार्गः, (वृ० श० २३८) ३८. सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि ३६. सीय-संदमाणियाओ परिग्गहियाओ भवंति, ३८. सकट गाडला रथ वलि जाण ते, जूग गोल देश में प्रसीधो । अंबावाड़ी तेह गिल्ले कही, थिल्लि पलाणज सीधो॥ ३६. कूट आकारे आच्छादित हवै, शिविका कहिये तासो । वलि संदमाणो कही छै पालखी, ते परि ग्रहवंत विमासो।। ४०. लोही फलका पचावण नों तवो, लोहकडाहा जोयो । कुडछी भोजन परूसण नी कही, ते परिग्रहवंत होयो । ४१. भवनपती नां भवन परिग्रह, वले देव – देवी। मनुष्य मनुष्यणी तिथंच तिर्यंचणी, आसन शयन सुवेवो॥ ४०. लोही-लोहकडाह-कडुच्छया परिग्गहिया भवंति, 'लौहि' मण्डकादिपचनिका, 'लोहकडाहि' त्ति कवेल्ली, 'कडुच्छुय' त्ति परिवेषणाद्यर्थो भाजनविशेषः । (वृ०प० २३८) ४१. भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा देवीओ मणुस्सा । मणुस्सीओ तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहिया भवंति, आसण-सयण 'भवण' त्ति भवनपतिनिवासः । (वृ० प० २३८) ४२. खंभ-भंड-सचित्ताचित्त-मीसयाई दब्वाइं परिग्गहि याइं भवंति । से तेणठेणं । (श० ५/१८६) ४३. जहा तिरिक्ख जोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियव्वा । वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयव्वा । (श० ५/१६०) ४२. थंभ भंड बलि सचित्त अचित्त कह्या, मिश्र द्रव्य करि जेहो। परिग्रहवंत हवै तिरि पंचेंद्री, तिण अर्थे का एहो । ४३. जिम तिर्यंच कह्या छै तिण विधे, भणवा मनुष्य पिछाणो । व्यंतर जोतिषि वैमानिक वलि, भवनपती तिम जाणो॥ सोरठा ४४. कह्या नरकादि सधोक, ते हेतू व्यवहारीक, ते माटै छद्मस्थपणे करी।। हेतू हिवै ॥ ४५. *हेतू पंच जिनेश्वर आखिया, इहां वत्र्त हेतू मांह्यो। पुरुष तिको पिण हेतू ईज छै, अन्य उपयोग न ताह्यो।। ४४. एते च नारकादयश्छद्मस्थत्वेन हेतुव्यवहारकत्वाखेतब उच्यन्ते इति तद्भेदान्निरूपयन्नाह (वृ०प० २३८) ४५. पंच हेऊ पण्णत्ता, इह हेतुषु वर्तमानः पुरुषो हेतुरेव तदुपयोगानन्यत्वात्, (वृ०प०२३६) ४६. पञ्चविधत्वं चास्य क्रियाभेदादित्यत आह . ४६. क्रिया भेद थी बलि हेतू तणां, आख्या पंच प्रकारो। जाणण देखण प्रमुख क्रिया कही, ए भेद क्रिया नां विचारो॥ *लय । आरंभ करतो जीव संके नहीं श० ५, उ०७, ढाल ६१ ८१ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. हेतू प्रति जाणे तसु न्याय ए, साध्यज अविनाभूतो। ते साध्यज निश्चय अर्थ हेतू प्रतै, जाण ए धुर सूतो।। ४७. हेउं जाणइ, 'हे जाणइ' त्ति हेतु साध्याविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थं जानाति (वृ० प० २३६) सोरठा ४८. एह विशेष थकीज, जाणे ज्ञान विशेष है। सम्यकपणे लहीज, सम्यक्दृष्टिपणां थकी। ४६. एह पंचविध पेख, सम्यगदृष्टी जाणवा । ते माटै सुविशेख, पांच विध सम्यकपणे॥ ५०. मिथ्यादृष्टी तास, धुर बे सूत्र कह्या पछी । आगल कहिस्य जास, एक भेद ए आखियो । ५१. *इमज हेतु प्रति देख वलि, सामान्य थी कहिवायो। दर्शन नों उपयोग सामान्य छ, ए दूजो भेद बतायो । ४८. विशेषतः सम्यगवगच्छति सम्यग्दृष्टित्वात्, (वृ० प० २३६) ४६. अयं पञ्चविधोऽपि सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः (वृ० प० २३६) ५०. मिथ्यादृष्टेः सूत्रद्वयात्परतो वक्ष्यमाणत्वादित्येकः, (वृ० प० २३६) ५२. इमहिज हेतू प्रति जे बुज्झती, सम्यक् शुद्ध श्रद्धंतो। बोध शब्द शुद्ध श्रद्धा तणो, पर्यायपणां थो हंतो ।। ५३. तूयं भेद इम हेतू प्रति लहै, साध्य सिद्ध सुविचारो। बिह' व्यापरण थकी सम्यकपणे, पामै अर्थ उदारो॥ ५१. हेउं पासइ, एवं हेत पश्यति सामान्यत एवावबोधादिति द्वितीयः, (वृ० प० २३६) ५२. हेउं बुज्झइ, एवं 'बुध्यते' सम्यक् श्रद्धत्त इति बोधेः सम्यक् श्रद्धानपर्यायत्वादिति । (वृ० १० २३६) ५३. हेउ अभिसमागच्छइ, तथा हेतु 'अभिसमागच्छति' साध्यसिद्धौ व्यापारणतः सम्यक् प्राप्नोतीति चतुर्थः । (वृ० प० २३६) ५४. हेउं छउमस्थमरणं मरइ। (श० ५/१६१) हेतुः-अध्यवसानादिर्मरणकारणं तद्योगान्मरणमपि (वृ० १० २३६) ५५. अतस्तं हेतुमदित्यर्थः छदमस्थमरणं, न केवलिमरणं, (वृ० प० २३६) ५४. हेतू अध्यवसानादिक अछ, ते कारण कहिवायो। तेहनां योग्य थकी मरण नै, हेतू कहियै ताह्यो।। ५५. इण कारण थी हेतुमान ते, छद्मस्थ-मरण मरंतो। इहां मरण केवली अनाणी नों नहीं, ए समष्टि मरण मरतो।। ५८. तस्याहेतुकत्वात्, (वृ० प० २३६) सोरठा ५६. छद्मस्थ हेतू युक्त, पुरुष जेह प्रवर्त्ततो। छद्मस्थ मरै इत्युक्त, पिण नहि छै ए केवली ।। ५७. हेतु में वर्तमान, केवलज्ञानी नहिं मरै। तिण कारण पहिछान, छद्मस्थ मरण कह्यो इहां ॥ ५८. अहेतु केवलज्ञान, ते माटै जे केवली । अहेतुक पहिछान, तिण सूं हेतू ते नहीं। ५६. नहि ए मरण अज्ञान, ए समष्टिपणां थको । मरण अज्ञान पिछाण, कहिस्यै आगल तेहनै ।। ६०. तिणसू मरणज एह, केवलज्ञानी नों नहीं । अनाण पिण न कहेह, ए पंचम हेतू कह्यो।। *लय : आरंभ करतो जीव संके नहीं ५६. नाप्यज्ञानमरणमेतस्य सम्यग्ज्ञानित्वात् अज्ञान मरणस्य च वक्ष्यमाणत्वात् (वृ० प० २३६) ५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intermational For Private & Pers Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. प्रथम आलावे एह हेतू आगल चिह्न कहे ते ६२. हेतू कारण पंच परूपिया हेतु चिह्न करि जायें। धूम्र चिह्न करि जाणे अग्नि नैं, जिम ए तत्व पिछाणें ॥ ६२. हेतू कारण करि देखे वलि हेतु चिह्न करीनें वे वलि, ६४. अध्यवसानादि प्रमुख हेतू करी ए समदृष्टि हेतु न्याय थो, " सोरठा ६५. समदृष्टी नां एह, से आलावा मिथ्यादृष्टी जै बे 1 पुरुष भणी कह्या । पण ए समदृष्टि नां ॥ ७३. पूर्व हि केवली भाव, ७४. हेतु हेतु करि भव- निस्तरण उपस्थ-मरण जाणें देखे ६६. हेतु पंच जिनेश्वर भाखिया * समदृष्टी जाणे हेतू चिह्ननं, ६७. हेतू चिह्न प्रति देखे नहीं इमहिज नहि सरधायो । भव- निस्तरण कारण पार्म नहीं, समदृष्टी जिम ताह्यो । ६८. अध्यवसानादि हेतु युक्त ते अज्ञान-मरण मरतो । ए मियाती शुद्ध श्रद्धा तणां चिह्न प्रतं न जानतो ॥ ६६. हेतू कारण पंच परूपिया, तिण करि भाव यथातच ७०. अनुमानादिक जे हेतु करी, इम हेतू करि भाव यथातत्थ ७१. इम अनुमानादिक हेतु करि, 1 अनुमानादिक जोयो । तिकै ए जाणं नहि कोयो । यथातत्थ नहिं देखे | ध नहीं विशेखे ॥ भव- निस्तरण न पामै । अध्यवसानादि में हेतु करि मरे मरण अज्ञान अकाने ।। ७२. विपरीत जाणे विपरीत देखतो, विपरीत श्रद्धे पाने । बिहूं आवावे करीनें छं इहां मरे मरण अज्ञान अकामे ॥ सोरठा आलाव, आख्या आलावा तास मिथ्याती वे आलावा विपक्षभूत, अहेतू ते प्रत्यक्षज्ञानी सूत, कह्या अहेतू ते सरषायो । सुपायो । मरतो । सरतो ॥ आखिया । हिव ॥ हेतु चिह्न न जानें। तेहवा ए न पिछानें ॥ ७५. *पंच हेतु प्रभु परूपिया, अहेतु प्रति धूम्रादिक ए हेतु मोहरे, इविध नहि अहेतूज अहेतूज ७६. अहेतुभूत ते प्रति जाणतो इमहिज देखे श्रद्धं पामियै, केवलो - मरण *लय आरंभ करतो जीव संकं नहीं 8 तणां । तेहनां ॥ केवली । भणी ॥ जानतो | मानतो ॥ कहीजै । लहीजै ॥ ६२-६४. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - हेउणा जाणइ जाव हेउणा छउमत्थमरणं मरइ । (१० ५ / १९२) ६६-६८. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - हे ण जाणइ जाव हे अण्णाणमरणं मरइ । (१०५ / १२३) तत्र हेतु लिङ्ग न जानाति, नमः कुत्सार्ववाद सम्यगवैति मिथ्यादृष्टित्वात् एवं न पश्यति, एवं न बुध्यते, एवं नाभिसमागच्छति तथा 'हेतुम्' अध्यवसानादिहेतुयुक्तमज्ञानमरणं म्रियते । ६९-७१. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा जाव हेउणा अण्णाणमरणं मरइ । (० ०२३१) हेउणा ण जाणइ ( श० ५ / १६४ ) ७५,७६. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा - अहेउ जाणइ जाव अहेउ केवलिमरणं मरइ । ( ० ५ / १६५ ) श०५, उ० ७, ढाल ६१ ८३ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७, पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा--अहेउणा जाणइ जाव ____ अहेउणा केवलिमरणं मरइ। (श० ५/१६६) ७८. (ठाणं वृ० प० २६५) ७७. पंच अहेतू प्रभु परूपिया, अहेतू करि जाण । जाव अहेतु करिनें केवली-मरण चरम गुणठाण ।। ७८. पंचम 'ठाणा' वृत्ति थकी इहां, अर्थ दोय आलावा नो आख्यो। हिवै भगवती वृत्ति टबै कह्य, आगल ते अभिलाख्यो। ७६. प्रथम आलावा नों अर्थ कियो इसो, अहेतुभाव करि जाणै । अनुमान विना धूम्रादिक जाणता, तिण संतेह अहेतु प्रमाणे ।। ७६. अहेतुं न हेतुभावेन सर्वज्ञत्वेनानुमानानपेक्षत्वाद्धूमादिकं जानाति स्वस्याननुमानोत्थापकतयेत्यर्थः । (वृ० प० २३६) ८०. सर्व वस्तु हेतु विना, जाणे केवलनाण । तिण सूं सगली वस्तु ते, तास अहेतू जाण ।। ८१. *इमहिज अहेतु प्रति देखै सही, जाव अहेतू तेहो । केवलीमरण मरै हेतू विना, नोपक्रमी गुणगेहो ।। ८२. पंच अहेतू प्रभू परूपिया, तिणहिज विध सुबिशेखै ।। णवरं जाणे अहेतू करी, अहेतू करि देखै ।। ८१. एवं पश्यतीत्यादि, तथा 'अहेतुं केवलिमरणं मरइ' त्ति 'अहेतुं' निर्हेतुकं अनुपक्रमत्वात् केवलिमरणं म्रियते । (वृ० प०२३६) ८२. पंचेत्यादि तथैव नवरम् 'अहेतुना' हेत्वभावेन केवलिवाजानाति योऽसावहेतुरेव, एवं पश्यतीत्यादयोऽपि । (वृ०प०२३६) ८३. 'अहेतुना' उपक्रमाभावेन केवलिमरण म्रियते । (वृ०प० २३६) ८३. श्रद्धै पामै अहेतु करी, केवली-मरण मरंतो । उपक्रम रहितपणे ते केवली-मरण मरै गुणवंतो।। ८४. "बिहं आलावा रो अर्थ टीका मझे, कीधो छै इण रीतो । बडा टबा में अर्थ कियो इसो, ते सांभलज्यो धर प्रीतो।। ८५. प्रथम आलावा नों अर्थ कियो इसो, अहेतुभाव करि जाणे । सर्वज्ञ भाव करि जाण तिके, पिण अनुमानै नहिं माण ।। ८६. प्रत्यक्ष ज्ञानपणां थी केवली, अहेतू पाठ नों ताह्यो । कारण अर्थ इहां करिवू नहीं, अहेतू केवली कहायो ।। ८७. ते केवलज्ञानी अहेतू थका, केवलज्ञान करि जोयो । तेह विशेष करी जाण अछ, ज्ञान विशेषज होयो।। ८८. ते केवलज्ञानी अहेतू थका, केवल दर्शण करि जोयो । तेह सामान्य करि देखे अछ, दर्शण सामान्य होयो।। ८९. ते केवलज्ञानी अहेतू थका, क्षायक-सम्यक्त्व शुद्धो। तिण करि श्रद्धै सगला भाव नैं, मोह रहित अविरुद्धो॥ १०. हेतू जे अनुमानादिक तणी, वांछा रहित विचारो । केवलज्ञानी क्रिया आदरै, ए चोथो अहेतू सारो। ६१. वलि हेतु नी वांछा रहित ते, केवली मरण मरता । प्रथम आलावा नों बडा टबा मझे, इह विध अर्थ करता। १२. द्वितीय आलावा नों अर्थ हिवै कहं, अहेतू केवली अतीवो । हेतू रहितपणे सुविशेष थी, ते जाणै जीव अजीवो । *लय : आरंभ करतो जीव संके नहीं ८४ भगवती-जोड़ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. वलि हेतू रहितपर्णं ते केवली, सामान्यपणे करि देखे । हेतु रहितपणे ते केवली, प्रमाण करि सुविशेवं ॥ ९४. हेतू रहितपणे क्रिया करै, जिन हेतु रहित मरता । द्वितीय आलावा नों बडा टबा मझे, इहविध अर्थ करता " || [ ज० स० ] दूहा अहेतु कह्या, अतिसयज्ञानी अवधिघर १५. केवली ९६. *पंच अहेतू प्रभू परूपिया, धूम्रादिक जे हेतु प्रते वले अहेतु सार । आधी अधिकार ॥ ते अहेतु प्रति नहि जाणें । अहेतुभाव करि न माणें ।। , ७. न जाणे आख्यं ते सर्व प्रकार थी, पिण देश थको जाणतो । अनुमान विना पिण जाणै देश थी, ए अतिशयज्ञानी अत्यंतो || १८. इमहिज म्रादिक हेतु प्रति अहेतुभाव करि ज्यांही । सर्व प्रकारे ते देखे नहीं, महिज श्रद्धं नाही ।। ११. इमहि सर्व प्रकार पामे नहीं, अहेतू करि ताह्यो । निरुपक्रम छद्मस्थ-मरण मरे, ए पंचम हेतु कहायो । १०० पंच अहेतु प्रभू परूपिया, अहेतु करि एहो । सर्व प्रकारे ते जाणे नहीं, जाणे अपू तेहो॥ १०१. इमज अहेतु करिने सर्वथा देखे श्रर्द्ध नांह्यो । सर्व प्रकारे पिग पामे नहीं, उग्रस्थ-मरण कहायो । १०२. एह अकेवली ते भगो इम कह्य, छद्मस्थ-मरण मरतो । मरण अज्ञान मरे इम नह को अवधि ज्ञानादिकवतो || " 1 १०२. ए अमूत्र का संक्षेप थी, वनि जाणे बहुत न्यायो । भावार्थ त भेद अछे पणां तिण सूं खांच न करणी कायो । तसु १०४. सेवं भंते ! सत्तावन अंक ए, एकाणूमी ढालो । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जश' मंगलमालो ॥ पंचमशते सप्तमोद्देश कार्थः ॥ ५ ॥७॥ *लय : आरंभ करतो जीव संके नहीं ६६-६६. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा - अहेउ न जाणइ जाव अहेउ छाउमत्थमरणं मरइ । ( श० ५ / १९७ ) १००,१०१. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा – अहेउणा न जाणइ जाव अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ । ( ० ५ / १२८ ) १०२. छद्मस्थमरणमकेबनित्वात् न त्वज्ञानमरणमवध्यादिज्ञानवत्वेन ज्ञानित्वात्तस्येति । ( वृ० १० २३९) १०३. गमनिका मात्रमेवेदमष्टानामप्येषां सूत्राणां भावार्थं तु बहुश्रुता विदन्तीति । (४० १० २३९ ) १०४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (TO X/tee) श०५, उ० ७, ढाल ६१ ८५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ६२ दहा १. सप्तमे उद्देशके पुद्गलाः स्थितितो निरूपिताः, अष्टमे तु त एव प्रदेशतो निरूप्यन्ते, (वृ० प० २४०) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसा पडिगया । (श० श२००) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी ४. नारयपुत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विहरति । ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी ६. नियंठिपुते नाम अणगारे पगइभद्दए जाव विहरति । ७. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे जेणामेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, ८. उवागच्छित्ता नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी १. पुदगल स्थिति थकी कह्या, सप्तम प्रवर उदेश । अष्टम वलि तेहीज छै, प्रदेश थी सुविशेष ॥ २. तिण काले नै तिण समय, यावत परषद जेह । वीर तणी वाणी सुणी, गई आपण गेह ।। ३. तिण काले नै तिण समय, तपसी श्रमण जगीस । भगवंत श्री महावीर नों, अंतेवासी शीस ।। ४. नारद-पुत्र नामै मुनि, प्रकृति भद्र पुनीत । यावत आतम भावता, विचरै ध्यान सहीत ।। ५. तिण काले नै तिण समय, श्रमण तपी जगदीश । भगवंत श्री महावीर नों, अंतेवासी शीस ।। ६. निग्रंथी-सुत नाम तसं, भद्र स्वभावे भाल । यावत विचरै चरण तप, महामुनी गुणमाल । ७. *हिवै तिण अवसर ते, निग्रंथी-पुत्र नाम । जिहां नारद-पुत्र मुनि, तिहां आया छै ताम ॥ ८. हिवै नारद-पुत्र मुनि, तेह प्रते तिणवार । ___इह विध कर कहितो, पूछै प्रश्न प्रकार ॥ ९. सहु पुद्गल तुझ मते, हे आर्य ! अर्द्ध-सहीत । के मध्य-सहित छ, प्रदेश-सहित कथीत ।। १०. तथा अर्द्ध-सहित छ, मध्य-रहित कहिवाय । प्रदेश-रहित छ ? ए षट प्रश्न पूछाय ।। ११. अहो आर्य ! इम कही, नारद-पुत्र मुनिराय । निग्रंथी-पुत्र प्रत, बोले एहवी वाय ॥ १२. सहु पुद्गल मुझ मते, हे आर्य ! अर्द्ध सहीत । मध्य-सहित छ, प्रदेश-सहित वदीत ॥ १३. पिण अर्द्ध-रहित नहीं, मध्य-रहित पिण नाय । प्रदेश-रहित नहीं, उत्तर इम देवाय ॥ १४. तब निग्रंथी-पुत्र मुनि, नारद-पुत्र प्रतै वाय । इह विध वलि कहितो, सांभल तूं मुनिराय ! १५. सहु पुद्गल तुझ मते, हे आर्य ! अर्द्ध-सहीत । वलि मध्य-सहित छै, प्रदेश-सहित वदीत ।। १६. पिण अर्द्ध-रहित नहीं, मध्य-रहित पिण नांहि । प्रदेश-रहित नहीं, इम तूं कहै छै ताहि ॥ *लय : नमूं अनंत चौबीसी है. सव्वपोग्गला ते अज्जो! कि सअड्ढा समझा सपएसा? १०. उदाहु अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? ११. अज्जो ! ति नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं बयासी१२. सब्बपोग्गला मे अज्जो ! सअड्ढा समझा सपएसा, १३. नो अणड्ढ़ा अमज्झा अपएसा। (श० ५।२०१) १४. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-- १५. जइ ण ते अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा, समझा सपएसा, १६. नो अणड्ढा, अमज्झा अपएसा, ८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. तो परमाणु प्रमुख, स्यूं सगला पुद्गल, १८. वलि सगला पुद्गल, मध्य सहित स्यूं प्रदेश सहित छे, पुद्गल द्रव्य थी १२. के अर्द्ध-रहित नहीं, मध्य-रहित पिण थी प्रदेश-रहित नहीं, पुद्गल द्रव्य २०. इक प्रदेश प्रमुख, अवगाही ए क्षेत्र आश्रयो पुद्गल सगला रह्या द्रव्य आधी अवलोय | बर्द्ध सहित ए होय ? २१. स्यूं अर्द्ध-सहित छै, मध्य सहित प्रदेश सहित छ तिमहिज रहित २२. एकादि समय स्थिति, काल आधी संगलाई पुद्गल, अर्द्ध-सहित अर्द्ध-सहित स्यूं २३. कं मध्य- सहित छै, कं के अर्द्ध-रहित महि नहि २४. इक गुण कालादिक, भाव सगलाई पुद्गल, अर्द्ध-सहित ३१. पण अर्ज रहित नहि, प्रदेश- रहित नहि, तो ३२. परमाणु-पुद्गल, ते वलि मध्य सहित ते, थाय ? ताय ॥ नांहि । ताहि ? जेह । तेह || सोइ । तीनोंइ ? अवलोय । होय ? प्रदेश-सहीत | मध्य प्रदेश-रहीत ? आश्री अवलोय । स्यूं होय ॥ २५. कै मध्य-सहित छै, के अर्द्ध-रहित नहि. नहि नहि २६. तब नारद पुत्र मुनि, ते प्रति इम बोल्यो, सांभल २७. द्रव्य थी पिण मुझ मते, सहु निग्रंथी-पुत्र सार । आर्य ! उदार ॥ पुद्गल ए रीत । कांह अर्द्ध सहित छै, मध्य प्रदेश सहीत ।। २८. पिण अर्द्ध-रहित नहीं, मध्य-रहित नहीं तेम । प्रदेश- रहित नहीं, खेत्र थकी पिण एम ।। २६. इमहिज काल यी भाव चकी पिण तब निधी सुत तेम । 1 कहे नारद-पुत्र ने एम ॥ के प्रदेश सहोत मध्य प्रदेश-रहीत ? वदीत । ३०. जो आये द्रव्य थी, पुद्गल सर्व कांड अर्द्ध-सहित छै, मध्य प्रदेश सहीत ॥ मध्य-रहित तुझ मते पिण प्रदेश सहित नहि कोय । इम होय ॥ अर्द्ध-सहीत । कथीत ॥ १७. कि- दव्वादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड़ढा 'दलादेमे' ति परमाणुत्वाद्याश्रित्येति । *****... १८. समझा सपएसा, १६. नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? २०. खेत्तादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला 'खेत्ता देसेणं' ति एकप्रदेशावगाढत्वा दिनेत्यर्थः ( वृ० १० २४१) २१. अड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? २२. काला जो सव्यपोग्ला सा 'कालादेसेणं' ति एकादिसमयस्थितिकत्वेन ( वृ० प० २४१ ) ( वृ० प० २४१ ) २३. समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? २४. भावादेसेणं अज्जो ! सव्त्रपोग्गला सअड्ढा 'मानादेयेणं' ति एकगुणकालकत्वादिना ( वृ० १० २४१) २५. समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? २९ सेपुते अगणारे नियंठि अपार एवं वयासी २७. दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वपोग्गला समड्ढा समज्झा सपएसा. २८. नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, खेत्ता देसेण वि २६. कालादेसेण वि, भावादेसेण वि । (०५।२०२) तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी ३०. जइ णं अज्जो ! दव्त्रादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, ३१. नो अणड्ढा अमज्झा अपएमा, २२. एवं परमाणु सिम सपएसे श०५, उ०८, ढाल १२ ८७ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. नो अणड्ढे अमज्झे अपएसे । ३४. जइ णं अज्जो! खेत्तादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा समझा सपएसा, ३६. एवं ते एगपएसोगाढे वि पोग्गले सअड्ढे समझे सपएसे। ३८. जइ णं अज्जो ! कालादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समझा सपएसा, ३३. पिण अर्द्ध-रहित नहि, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहीं, तुझ मते इम होय ।। ३४. जो आर्य ! खेत्र थी, पुद्गल सर्व वदीत । कांइ अर्द्ध-सहित छै, मध्य-प्रदेश-सहीत ।। ३५. पिण अर्द्ध-रहित नहि, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहि, तो तुझ मते इम होय ।। ३६. इक प्रदेश ओगाह्या, ते पिण अर्द्ध-सहीत । वलि मध्य-सहित ते, प्रदेश-सहित कथीत ।। ३७. पिण अर्द्ध-रहित नहि, मध्य-रहित नहि कोय । प्रदेश-रहित नहीं, तुझ मते इम होय ॥ ३८. जो आर्य ! काल थी, पुद्गल सर्व वदीत । कांइ अर्द्ध-सहित छै, मध्य-प्रदेश-सहीत ।। ३९. पिण-अर्द्ध-रहित नहि, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहि, तो तुझ मते इम होय ॥ ४०. इक समय स्थिति द्रव्य, ते पिण अर्द्ध-सहीत । वले मध्य-सहित ते, प्रदेश-सहित कथीत ।। ४१. पिण अर्द्ध-रहित नहिं, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहीं, तुझ मते इम होय ॥ ४२. जो आर्य! भाव थी, पुद्गल सर्व वदीत । कांइ अर्द्ध-सहित छ, मध्य-प्रदेश-सहीत ।। ४३. पिण अर्द्ध रहित नहिं, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहि, तो तुझ मते इम होय ॥ ४४. इक गुण कालो पिण, ते पिण अर्द्ध-सहीत । वलि मध्य-सहित ते, प्रदेश-सहीत कथीत ।। ४५. पिण अर्द्धरहित नहि, मध्य-रहित नहिं कोय । प्रदेश-रहित नहीं, तुझ मते इम होय ॥ ४६. अथ ते इम न हुवै, जो तूं कहिसी इण रीत । द्रव्य थी सहु पुद्गल छै अर्द्धादि-सहीत ॥ ४०. एवं ते एगसमयट्टितीए वि पोग्गले सअड्ढे समझे सपएसे। ४२. जइ णं अज्जो ! भावादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समझा सपएसा, ४४. एवं ते एगगुणकालए वि पोग्गले सअड्ढे समझे सपएसे। ४७. इम खेत्र थकी पिण, काल थकी पिण एम । इम भाव थकी पिण, ते मिथ्या वच तेम ॥ ४८. तब नारद-पुत्र मुनि, निग्रंथी-सुत सार । ते प्रति इम बोल्यो, सरलपणे सुखकार ।। ४६. हे देवानुप्रिया ! इम निश्चे करिनै ताहि । ए अर्थ न जाणू, अम्हे देखू पिण नांहि ।। ५०. अहो देवानुप्रिया ! जो तुझ कहितां सोय । तनु-खेद न होवै तो वांछु इम जोय । ५१. देवानुप्रिया पे, पूर्वे आख्या भावो । सुणी हृदय विषे ते, जाणवा समर्थ थावो ।। ४६. अह ते एवं न भवति तो जं वयसि 'दव्वादेसेणं वि सब्वपोग्गला सअड्ढा समझा सपएसा, नो अणड्ढा, अमज्भा अपएसा, ४७. एवं खेत्तादेसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण वि' तं णं मिच्छा। (श० ५।२०३) ४८. तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी४६ नो खलु एवं देवाणुप्पिया ! एयम→ जाणामो पासामो। ५०. जइ णं देवाणुप्पिया नो गिलायंति परिकहित्तए, तं इच्छामि णं ५१. देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमलै सोच्चा निसम्म जाणित्तए। (श० ५।२०४) ८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी५३. दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला ५४. सपएसा वि, अप्पएसा वि-अणंता । ५५. खेत्तादेसेण वि एवं चेव कालादेसेण वि भावादेसेण वि एवं चेव । (सं० पा०) ५२. तब निग्रंथी-सुत, नारद-पुत्र अणगार । ते प्रति इम बोल्यो, वारू वचन विचार ।। ५३. अहो आर्य ! सांभल, द्रव्य थकी पहिछाण । सगलाई पुदगल, म्हारे मते इम जाण ।। ५४. प्रदेश-सहित पिण, वलि प्रदेश-रहीत । बिहं कह्या अनंता, पुद्गल द्रव्य वदीत ।। ५५. इम खेत्र थकी पिण, काल थकी सुवदीत । इम भाव थकी पिण, प्रदेश सहित रहीत ।। ५६. *जे द्विप्रदेशिक खंध प्रमुख, प्रदेश-सहीत पिछाणियै । प्रदेश-रहित परमाणु ते पिण, द्रव्य अनंता जाणियै ।। ५७. आकाश नां ते बे प्रदेशज, प्रमुख ऊपर जे रह्या । प्रदेश-सहितज खेत्र थी ए, अनंता पुद्गल कह्या ।। ५८. आकाश नों परदेश जे इक, तेह अवगाही रह्या । प्रदेश-रहित ए खेत्र थी, अनंता पुद्गल कह्या ।। ५६. बे समय प्रमुखज स्थिति नां जे, सप्रदेशी जाणिय । इक समय स्थिति नां अप्रदेशी, काल थी पहिछाणिय ।। ६०. गुण दोय आदि कृष्णादि कहिये, सप्रदेशी न्याव थी। जे एक गण कालादि वर्ण, अप्रदेशी भाव थी। ६१. हिवै द्रव्य जे अप्रदेशिक, खेत्र काल रु भाव थी । अप्रदेशादिकपणां प्रति, निरूपण ओछाव थी। ६२. जे द्रव्य थकी छै, अप्रदेशी सुविशेषि । ते खेत्र थकी पिण, निश्चेई अप्रदेशि ।। ६३. ते काल थकी पिण, हुवै कदा सप्रदेशि । वलि हवै किंवार, अप्रदेशि सुविशेषि ॥ ६४. ते भाव थकी पिण, हवै कदा सप्रदेशि । वलि हवै किवारे, अप्रदेशि सुविशेषि ॥ ६५. *जे द्रव्य थी अप्रदेशि ए, परमाणु-पुद्गल ने कह्य । ते खेत्र थी अप्रदेशि निश्चै, एक परदेशे रह्य॥ ६६. जे द्रव्य थी अप्रदेशि ए, परमाणु-पुद्गल नैं कह्य । ते काल थी सप्रदेशि, बे समयादि स्थिति कप' ला ॥ ६७. जे द्रव्य थी अप्रदेशि ए, परमाण-पुद्गल नैं कह्य । ते काल थी अप्रदेशि इम, इक समय स्थितिकपणुं लह्य ॥ ६८. जे द्रव्य थी अप्रदेशि ए, परमाणु-पुद्गल प्रति लहै । ते भाव थी सप्रदेशि इम, बे आदि गुण कृष्णादि है। ६२. जे दवओ अपएसे से खेत्तओ नियमा अपएसे, ६३. कालओ सिय सपएसे सिय अपएसे, ६४. भावओ सिय सपएसे सिय अपएसे । *लय : पूज मोटा मांजै टोटा लय : नमूं अनन्त चौबीसी श• ५, उ०८, ढाल ६२ ८६ Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्रदेशि ६६. जे द्रव्य वो अप्रदेशिए परमाणु युद्दल प्रति लहै । भाव थो अप्रदेशि इम गुण, एक कृष्णादिक रहै ॥ ७०. जे खेत्र बकी छे, अप्रदेशि सुविशेषि । ते द्रव्य थको सिय, अप्रदेशि || ७१. भजनाज काल थो, भाव थो भजना होय । जिम खेत्र थको तिम, काल भाव थी जोय ।। अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रहा । ते द्रव्य थी सिय सप्रदेशी, खंध द्रव्य भणी का ॥ ७३. जे खेत्र थो अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रह्य ं । ७२. जिखे ते द्रव्य थी सिय अप्रदेशो, एह परमाणू कह्य ॥ ७४. जे से भी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा । काल थी सप्रदेशि बे समयादि स्थितिकपणुं लह्य ॥ ७५. जे क्षेत्र थी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा ते काल भी अप्रदेशि छे, इक समय स्थितिकपणुं ला ७६. जे क्षेत्र थी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा । ते भाव थी सप्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक ना ॥ ७७. जे क्षेत्र भी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा ते भाव थी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलाविक लह्य ॥ ७८. *जिम खेत्र थकी जे, आख्यो छै विरतंत । इम काल थकी छे भाव धकी पिण हुंत ॥ ७६. १जे काल यो अप्रदेखि छ, एक समय स्थितिकपणें रहा। ते द्रव्य थी सिय सप्रदेशि, द्रव्य खंध भणी का ॥ ८०. जे काल थी अप्रदेशि छै, इक समय स्थितिकपणै रह्यः । ते द्रव्य थी अप्रदेशि छे, परमाणु युद्गल ने कहा ॥ ८१. जे काल थो अप्रदेशि है, इक समय स्थितिकपणें रा । ते खेत्र थी सप्रदेशि इम, बे आदि परदेशे का ॥ २. जे काल भी अप्रदेशि , इक समय स्थितिकपणें कहा ते से भी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा ॥ ८३. जे काल थी अप्रदेशि छै, इक समय स्थितिकपणें रहा । ते भाव थी सप्रदेशि बे गुण कृष्ण नीलादिक कह्य ॥ ८४. जे काल थी अप्रदेशि छे, इक समय स्थितिकपणै रह्य । ते भाव थी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलादी का ॥ ८५. जे भाव थी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलादी रहा । ते द्रव्य थी सप्रदेशि छे इम, संध द्रव्य भणी का 11 *लय : नमूं अनन्त चौबीसी +लय : पूज मोटा भांजे ....... ६० भगवती-जोड़ ७०. . जे खेत्तओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे सिय अपएसे, ७१. कालओ भयणाए, भावओ भयणाए । जहा खेत्तओ एवं कालओ, भावओ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. जे भाव थो अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नोलादो रह्य । ते द्रव्य भी अप्रदेशि छे, परमाणुभ्युद्गल ने कहा ॥ ८७. जे भाव थी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलादी कहा. ते क्षेत्र थी सप्रदेशि इम, बे आदि परदेशे रा ।। जे भाव श्री अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नजादी का । ते क्षेत्र श्री अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा ॥ रह्य ८६. जे भाव थी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलादिक रा ते काल भी प्रदेशि वे समयादि स्थितिरूपणुं लह्य । १०. जे भाव वी अप्रदेशि इक गुण कृष्ण नीलादिक रहा । ते काल श्री अप्रवेणि इम इक समय स्थितिकपणुं ला ॥ , ६१. *जे द्रव्य थकी छै, प्रदेशि ए खेत्र थकी सिय सप्रदेशि १२. इस काल की पिण, भाव यकी पिण हिव जुजुओ निर्णय, सांभलजो धर ६३. + जे द्रव्य थी सप्रदेशि खंध, दुपदेसियादिक ने कहा । ते खेत्र थी सप्रदेशि इम, बे आदि परदेशे रा ॥ ६४. जे द्रव्य थी सप्रदेशि खंध, दुपदेसियादिक ने कहा । ते खेत्र थी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे रा ॥ ९५. जे द्रव्य थी सप्रदेशि खंध, दुपदेखियादिक ने कहा । ते काल भी प्रदेशि वे समयादि स्थितिरूपणुं ला ॥ २६. जे द्रव्य भी प्रदेशि बंध, दुपदेसियादिक ने कहा । ते काल भी अप्रदेश इम इक समय स्थितिरूपणं हा ॥ ९७. जे द्रव्य श्री सप्रदेति संघ दुपदेखियादिक ने कहा । ते भाव भी प्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक रा ॥ १८. जे द्रव्य भी प्रदेशि संघ, दुपदेखियादिक ने कहा । भाव भी अप्रदेशि इम गुण एक कृष्णादिक रहा ॥ ९६. * जे खेत्र थकी खं ते द्रव्य थी कहिये, प्रदेशि सुविशेषि निश्चेई सप्रदेशि ॥ १००. वलि काल थी भजना, भाव थि भजना जिम द्रव्य थकी तिम, काल भाव थी भी सप्रदेशि वे आकाश पर १०१. जे रहा। ते द्रव्य की प्रदेश नियचं, संध अवगाही का ॥ १०२. द्रव्य अदेशिक प्रमाणु इक आकाश विषे रहे। ते भणी खेत्र थि सप्रदेशे, खंध नुं रहिवूं लहै || *लय : नमूं अनन्त चौबीसी + लय पूज मोटा भांजे ...... सुविशेषि । अप्रदेशि ॥ एम । | प्रेम ॥ होय । जोय ।। ११. जे दबाओ सपए से खेत्तलो सिय सपएसे सिय अपएसे । ९२. एवं कालओ, भावओ वि । ६६. जे खेत्तओ सपएसे से दव्वओ नियमा सपएसे, १००. कालओ भयणाए, भावओ भयणाए । जहा दव्वओ तहा कालओ, भावओ वि । (श० ५२०५) श०५, उ० ८, ढाल ६२ ६१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 " का । रा 11 १०२. जे खेत्र थी प्रदेश मे आकाश परदेशे रा । ते काल थी सप्रदेशि ये समवादि स्थितिकपणे क ॥ १०४. जे खेत्र थी सप्रदेशि बे आकाश परदेशे रह्यः । काल थी अप्रदेश इम इक समय स्थितिकपणे का. ॥ १०५. जे श्री प्रदेशि में आकाश परदेशे रय । खेत्र ते भाव भी प्रदेशि के गुण आदि कृष्णादिक कहा ॥ १०६. जे खेत्र थी सप्रदेशि वे आकाश परदेशे रा । ते भाव थी अप्रदेशि इम गुण एक कृष्णादिक का 11 १०७. जे काल थी सप्रदेशि बे समयादि स्थितिकपणें रहा । ते द्रव्य भी प्रदेशिन, दुपदेखियादिक में कहा ॥ १०. जे काल वो सप्रदेशि ये समयादि स्थितिकपणे ह्य ते द्रव्य की अप्रदेशि इम परमाणु-पुद्गल का ॥ १०२. जे काल की सप्रदेशि वे समयादि स्थितिरूपणे का ं । ते खेत्र भी प्रदेशि वे आकाश परदे रहा 11 ११०. जे काल की सप्रदेशि वे समयादि स्थिति ते खेत्र थी अप्रदेशि इक आकाश परदेशे १११. जे काल थी सप्रदेशि बे समयादि स्थितिकपणै रह्य | ते भाव थी सप्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक कहा ॥ ११२. जे काल थी सप्रदेशि बे समयादि स्थितिकपणै रह्य । ते भाव भी अप्रदेशि इम गुण एक कृष्णादिक क ॥ ११३. जे भाव थी सप्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक रहा। ते द्रव्य थी सप्रदेशि खंध, दुपदेसियादिक ने कहा ॥ ११४. जे भाव भी प्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक रहा। ते द्रव्य थी अप्रदेशि इम परमाणु युद्गल ने कहा ॥ ११५. जे भाव भी प्रदेशि वे गुण आदि कृष्णाविक कहा । ते क्षेत्र यो प्रदेति वे आकाश परदेशे रा ११६. जे भाव भी प्रदेशि वे गुण आदि कृणादिक का अप्रदेश इक आकाश परदेशे रहा ॥ प्रदेशि के गुण आदि कृष्णादिक रहा। प्रदेश के सम्पादि स्थितिरूपणे ल ॥ प्रदेशि वे गुण आदि कृष्णादिक रहा । ते काल भी अप्रदेशि इम, इक समय स्थितिकपणे बस ते क्षेत्र यो ११७. जे भाव भी ते काल भी ११८. जे भाव भी ११६. अथ एहनुं वलि ते ९२ भगवती जोड़ वहा द्रव्य प्रमुख थी, सप्रदेश नुं तेह | अप्रदेशी तणो, अप्रदेशी तणो, अल्पबहुत्व कहेह || ११६. जामेव द्रव्यादितः सप्रदेश प्रदेशानामल्पबहुत्व विभागमाह - ( वृ०१० २४१) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. * एहनों हे भगवंत ! द्रव्य थकी खेत्र काल भाव थी, प्रदेश १२१. कुण १२२. हे कुण थी थी थोड़ा, वलि बहत्व वलि तुल्य बरोबर, विशेषाधिक नारद-पुत्र ! पुद्गल तेह अशेषा । सर्व थी घोड़ा है, भाव थकी अप्रदेशा || १२३. + द्रव्य विषे बे आदि गुण थी, एक गुण कृष्णादि थोड़ा, १२४. *तेह थकी काल असंखेज्ज गुणा अनंत गुण कृष्णादि बहु । ते माटे ए अल्पहु || यो, अप्रदेशी पहिछान । छै, तास न्याय इम जाण ॥ वृत्तौ तास अर्थ वाणिये । रस फरस, संघात भेद पिछाणियै ।। पामतुं । । १२५. परिणाम बाहुल एम जे समय वर्ण गंध १२६. सूक्ष्म बादरपणं आदि, परिणाम अन्य 7 ते समय काल थी अप्रदेशि का समय इक स्थिति हतुं ॥ १२७. जे अन्य परिणामे परिणाम, तेह समय विधे सही । काल थी अप्रदेशि कहिये, ते माटे ए अधिक ही ।। सुविशेष | अप्रदेश || *लय : नमूं अनन्त चौबीसी लय: पूज मोटा भांजे .... यतनी १२८. इम भाव वर्णादि परिणाम, पूर्व कला ते रूपे ताम | द्रव्य परमाणु आदिक मांहि, काल थी अप्रदेशि है ताहि ॥ १२. क्षेत्र आधी एक प्रदेश, आदि देह अवगाव विशेष | अन्य स्थान गमन आधी जन्न, काल थी अप्रदेशि निप्पन्न ।। १३०. संकोच विकोच अवगाण, ते आश्रयी पहिछाण । काल थी अप्रदेशि होय, तसु एक समय स्थिति जोय ।। १३१. तथा सूक्ष्म बादर जोय, वलि अस्थिर स्थिर अवलोय । ते आधी पिण सुविशेष, हुर्व काल धकी अप्रवेश ।। १३२. वलि सेज निरेज है ताम, बलि शब्दादिक परिणाम । इत्यादिक आश्री सुविशेष, नीपना काल थी अप्रदेश | १३३. भाव थी अप्रदेशि थी तेह असंखेज गुणा छे एह | ह्या द्रव्य प्रमुख विषे सोय, परिणाम बहुल अवलोय ॥ बखाण । पहियाण ॥ १२० एखि मं भंते! पोमनाणं दस्वादेसे लेत्तादेसेणं, कालादेसेणं, भावादेसेणं सपएसाणं अपएसाण य । ? १२१. कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा वा ? विसेसाहिया वा ? १२२. नारा अपएसा, १२४. कालावेसे अपएसा असणा सम्यस्थोवा पोला भावादेसेणं तुल्ला 1 १२५-१९२० यो हि यस्मिन् समये वर्णन्धरसस्पर्शसङ्घातभेदसूक्ष्मत्वादत्वादिपरिणामान्तरमापन्नः स तस्मिन् समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते, तत्र समयस्थितिरित्वम्, परिणामाश्च बहव इति प्रतिपरिणाम कालादेशसंभवात मिति । (बु० १० २४३) श०५, ०८, ढाल ६२ ६३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० ...-भाव थकी जे अप्रदेशी एक गुण कृष्णपणादिक हुवं ते काल थकी बे प्रकार पिण-सप्रदेशी अनै अप्रदेशी, तथा भाव करके दोय गुण प्रमुख अनंत गुण पर्यंत छ तिके पिण काल थी द्विविध हुवै-सप्रदेशी मैं अप्रदेशी । एक गुण कालो, दोय गुण कालादिक जे गुण तेहनां स्थानक नै विषे ते मध्ये एक-एक गुण नां स्थानक नै विष काल थकी अप्रदेशी नीं एक-एक राशि हुई। ते भणी अनंतपणां थकी गुण ना स्थानक नीं राशि अनंतीईज काल थकी अप्रदेशी राशि हुई। हिवं प्रेरक बोल्यो-इम ए जो एकिका गुण ने स्थानके काल थकी अप्रदेशी राशि तो अनंतगुणा कहिये, असंखगुणा केम? अत्रोत्तरं-गुरु कहै-एहनों ए अभिप्राय छै-यद्यपि अनंत गुण कालपणादिक नी अनंती राशि छ तो पिण एक गुण कृष्णपणादिक नैं अनंतमें भागईज ते वत्त छै। ते भणी काल थकी अप्रदेशी कू अनंत गुणपण पिण भाव थकी अप्रदेशी थकी ए काल थी अप्रदेशी असंख्यात गुणोईज हुवै । वा०-भावतो येऽप्रदेशा एकगुणकालत्वादयो भवन्ति ते कालतो द्विविधा अपि भवन्ति-सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्यर्थः, तथा भावेन द्विगुणादयोऽप्यनन्तगुणान्ताः 'एव' मिति द्विविधा अपि भवन्ति, ततश्च एकगुणकालाद् द्विगुणकालादिषु गुणस्थानकेषु मध्ये एककस्मिन् गुणस्थानके कालाप्रदेशानामेकैको राशिर्भवति, ततश्चानन्तत्वाद् गुणस्थानकराशीनामनन्ता एव कालाप्रदेशराशयो भवन्ति । अथ प्रेरकः-एवमिति-यदि प्रतिगुणस्थानक कालाप्रदेशराशयोऽभिधीयन्त इति, अत्रोत्तरम्अयमभिप्रायः-यद्यप्यनन्तगुणकालत्वादीनामनन्ता राशयस्तथाऽप्येकगुणकालत्वादीनामनन्तभाग एव ते वर्तन्त इति न तद्द्वारेण कालाप्रदेशानामनन्तगुणत्वं अपि त्वसंख्यातगुणत्वमेवेति ।। (वृ० प० २४३), १३४. दव्वादेसेणं अपएसा असंखेज्जगुणा, १३४. *तेह थकी असंखेज्जगुणा द्रव्य छ, थी, ते अप्रदेशि अवलोय। परमाणू जोय ।। १३७. खेत्तादेसेणं अपएसा असंखेज्जगुणा, १३८. खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंखेज्जगुणा, १३६. दव्वादेसेणं सपएसा विसेसाहिया, यतनी १३५. अनंत प्रदेशी खंध द्रव्य ताय, तेहथी अनंत गुणा अधिकाय । परमाणु-पुद्गल जाण, ए सूत्र तणी छ वाण ।। १३६. तिण कारण ए अवलोय, काल थी अप्रदेशि थी जोय । द्रव्य थी अप्रदेशि ताय, असंखेज्ज गुणा अधिकाय ।। १३७. *द्रव्य थी अप्रदेशि थी, क्षेत्र थकी अप्रदेश । असंखेज्जगुणा छै, रह्या एक आकाश-प्रदेश ॥ १३८. तेहथी खेत्र थकी जे, सप्रदेशी सुविशेष । असंखेज्जगुणा छ, रह्या अनेक आकाश-प्रदेश । १३६. तेहथी द्रव्य थकी जे, सप्रदेशी सुविचार । विसेसाहिया आख्या, ए खंध द्रव्य प्रकार ।। १४०, तेहथी काल थकी जे, सप्रदेशी अवलोय । विशेषाधिक आख्या, अनेक समय स्थिति जोय ॥ १४१. तेहथी भाव थकी जे, सप्रदेशि जे लाधि । विसेसाधिकपणे छै, अनेक गुण वर्णादि ।। १४२. नारदपुत्र तिवारी, निग्रंथी-पुत्र प्रति सार । वंदै वच स्तुति, नमस्कार सुखकार ।। १४३. ए अर्थ प्रतै मुनि, प्रवर रीत धर प्यार । ___ अति विनय करीन, खमावै बारूंबार ॥ *लय : नमूं अनन्त चौबीसी १४ भगवती-जोड़ १४०. कालादेसेणं सपएसा विसेसाहिया, १४१. भावादेसेणं सपएसा विसेसाहिया। (श० ५।२०६) १४२. तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, १४३. एयमट्ठ सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेति, Jain Education Intemational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १४४. वर संजम तप करि यावत विचरै विशेष | ए पंचम शतक नां, अष्टमुद्देशा नों देश ॥ १४५ ए दाल बाणूंमी, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय । 'जय जय' सुख-संपति वर वृद्धि हरण सवाय || । 1 ढाल : ६३ दूहा कह्या, ते १. पूर्व पुद्गल द्रव्य जीव ग्रहै ग्रहे विह कारणें, २. हे भयंत इह विष कही, ! प्रभु बंदी ने जाय इम, प्रश्न *चिन प्रभु वीरजी, धिन पिन ज्यारा शीष जी गोयम गणईश जी ते पुद्गल ने ताय । जीव विचार विचार कहाय ।। भगवंत गोतम सार । करै धर प्यार || जी । गुणहीर नमू निशिदीसजी ।। (पदं) ३. जीव बहु प्रभु ! वर्ष राशि थी के राशि थी जीव घटाय दे । के जेतला छै तेतलाज रहे छे ? ए अवट्टिया कहिवाय बे ॥ ४. जिन कहै जीव वधै न राशि थी, राशि थकी न घटाय । जैतला तलाज रहे है, इण में सिद्ध संसारी विहं आय ॥ ५. हे प्रभु! नेरइया वर्ष राशि थी ? राशि थी नेरइया घटाय । जेवला तेतलाज रहे छं? ए अवलिया छं ताय ? ६. जिन कहै नेरइया वर्ष राशि थी, ओछा पिण राशि थी होय । अवट्टिया पिग रहे नेरइया, इम जाव वैमानिक जोय ॥ ७. सिद्धां रो प्रश्न कियां जिन भाख्यो, सिद्ध वधे न पटाय । विरह पड़े जब रहे अपट्टिया जितराईज छे पाय || ८. हे प्रभु! बहु वचने ए जीवा रहे अवट्टिया किता काल ? जिन कहे अवट्टिया सर्वकाल में छं जितरा रहे न्हाल ॥ ६. नेरइया केतलो काल वधै प्रभु ! जघन्य समय इक माग । उत्कृष्टो ए आवलिका नौं असंख्यातमो भाग || माग । १०. काल एतलो घटै नेरइया, जघन्य समय इक उत्कृष्टो ए आवलिका नों, असंख्यातमो भाग ॥ *लय : घिन प्रभु राम जी " १४४. खामेत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ( श० ५,२०७ ) १. अनन्तरं पुसा निरूपितास्ते च जीवोपग्राहिण इति जीवांश्चिन्तयन्नाह ( वृ० प० २४४ ) २. भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं व्यासी ३. जीवा णं भंते! किं वड्ढति ? हायंति ? अवट्ठिया ? ४. गोयमा ! जीवा नो वड्ढति, नो हायंति, अवट्टिया । ( ० ५।२०८ ) ५. किस ? हाति अद्विया? ६. गोयमा ! नेरइया वड्ढति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि । (२० २२०१ ) जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया । (श० ५।२१० ) ७. सिद्धाणं भंते! पुच्छा । गोमा ! सिद्धा वढति, नो हायंति, अवट्टिया वि । ( श० ५।२११ ) ८. जीवा णं भंते! केवलियं काल अद्वया? गोयमा ! सव्वद्धं । ( ० ५।२१२) ६. रयाणं भंते! केवनियं कालं वहति ? गोमा ! जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । ( ० ५०२१३) १०. एवं हातिवि। ( ० ५ / २१४) श०५, उ०८ ढाल ६२, ६३ ६५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. प्रभ ! नेरइया वे तलो काल अवट्टिया? तब भाखै जगदीस। जघन्य थकी तो एक समय छै, उत्कृष्ट मुहूर्त चउवीस ।। ११. नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं अवट्ठिया ? गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता। (श० ५/२१५) १२,१३. सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादशमुहूर्तान् यावन्न कोऽप्युत्पद्यते उद्वर्तते वा, उत्कृष्टतो विरहकालस्यैवंरूपत्वात्, (वृ० प० २४५) यतनी १२. समकाले सातूं नरक मझार, ऊपजवा नीकलवा नों विचार । बिहं नों साथै विरह जिवार, पड़ियो उत्कृष्ट महर्त्त बार ॥ १३. जद द्वादश मुहूर्त तांई, कोइ पजियो पिण नाही । वलि नीक लियो नहि कोय, बिहुँ विरह साथै जद होय ।। १४. पछै द्वादश मुहर्त तांई, ऊपना जे समय नरक माही। तिण समय तेता निकलंत, इम चउवीस मुहर्त हंत ।। १५. इम चउवीस मुहर्त्त जोय, वृद्धि नैं वलि हानि न होय । तिण सूं अवट्ठिया काल ताहि, न वधै घटै गिणती माहि ।। १६. *इम सातूं नरक नैं जूजइ कहिवी, वधै घटै ते काल । अवडिया जघन्य एक समय छ, उत्कृष्ट में णवरं न्हाल ।। १७. रत्नप्रभा विरह चोवीस मुहूर्त, पछै चोबीस महत जगीस । जिण समय ऊपजै जिता नीकलै, इम अवट्रिया मूहर्त अड़तालीस ।। १८. सूत्र पन्नवणा छट्ठा पद में, विरहकाल कह्यो ताम । तेह थकी दुगुणो काल कहिये, अवटिया नों आम ।। १४,१५. अन्येषु पुनदिशमुहुर्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्तन्त इत्येवं चतुर्विशतिमुहूर्तान् यावन्नारकाणा मेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभाव इत्यर्थः, ' (वृ० प० २४५) १६. एवं सत्तसु वि पुढवीसु 'वड्ढंति, हायंति' भाणियव्वं, नवरं अवट्ठिएसु इमं नाणत्तं, १७. रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, १८. एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्त्तनाविरह-कालश चतुर्विंशतिमुहूर्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु तत्तुल्यस्य समसंख्यानामुत्पादोद्वर्तनाकालस्य मीलनाद् द्विगुणितः सन्नवस्थितकालोऽष्टचत्वारि शन्मुहूर्तादिकः सूत्रोक्तो भवति । १६. सक्करप्पभाए चोद्दस राइंदिया, (वृ० ५० २४५) २०. बालुयप्पभाए मासं, २१. पंकप्पभाए दो मासा, . २२. धूमप्पभाए चत्तारि मासा, १६. विरह सक्कर नों सप्त अहोनिश, पछै सप्त अहोनिश ख्यात । जिण समय ऊपजै जिता नीकलै, अवविया चउद दिनरात ।। २०. वालप्रभा नों पनर दिवस विरह छ, पछै पनर दिवस लग तास। जिण समय ऊपजै जिता नीकल, इम अवटिया इक मास ।। २१. पंकप्रभा विरह एक मास नों, पछै एक मास बलि तास । जिण समय ऊपजै जिता नीकलै, इम अवट्रिया इक मास । २२. धमप्रभा में विरह दोय मास नों, पछै दोय मास वलि तास । जिण समय ऊपजै जिता नीकले, इम अवट्रिया चउमास ॥ २३. तमप्रभा में विरह च्यार मास नों च्यार मास वलि तास । जिण समय ऊपजै जिता नीकल, इम अवट्रिया अठ मास ।। २४. नरक सातमी में विरह मास षट्, पछै वली षट्मास । जिण समय ऊपजै जिता नीकलै, इम अवटिया इक वास ॥ २५. असुरकूमार आदि भवनपति दस, वधै घटै नरक जेम। ___अवट्ठिया जघन्य एक समय छ, उत्कृष्ट सुणो धर प्रेम ॥ २६. दस भवनपति विरह चोबीस मुहूर्त, वलि मुहर्त चउवीस । जिण समय ऊपजै जिता नीकलै, अवट्रिया मूहर्त अड़तालीस ॥ "लय : धिन प्रभु रामजी २३. तमाए अट्ठ मासा, २४. तमतमाए बारस मासा। (श० ५।२१६) २५,२६. असुरकुमारा वि वड्ढंति, हायंति जहा नेरइया । ___अवट्ठिया जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठचत्ता लीसं मुहुत्ता। .. (श० ५/२१७) एवं दसविहा वि। । (श०.५।२१८) १६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. एकेंद्री वधै घटै अवटिया त्रिह, जघन्य समय इक माग । उत्कृष्टो ए आवलिका नों, असंख्यातमो भाग ।। २७. एगिदिया वड्ढेति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि । ___ एएहिं तिहि वि जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं। (श० ५।२१६) सोरठा २८. नहिं विरह एकेंद्री मांय, वधै घटै वलि ए तीनूं कहिवाय, निसुणो न्यायज २६. एकेंद्री रै मांहि, घणां ऊपजै जे ___अल्प नीकलै ताहि, वृद्धि कहीजे ते अवट्रिया । तेहनों ।। समय । समय ।। ३०. तथा एकेंद्री मांहि, अल्प ऊपजे जे समय । घणां नीकलै ताहि, घटै हाणि कहिजै तदा ।। ३१. तथा एकेंद्री मांय, सरिखा उपजे नीकलै । ते समये कहिवाय, वृद्धि हाणि नहिं, अवट्ठिया ॥ ३२. *बेइन्द्री वधै घटै इमहिज कहिवा, अवटिया इम होय । जघन्य समय इक ने उत्कृष्टो अंतरमुहूर्त दोय ॥ ३३. एक अंतरमहर्त विरह, अंतरमुहर्त दूसरै। ऊपजै जेताज निकलै, अवट्टिया दुगुणंतरै ॥ ३४. "इमहिज जाव चरिद्री कहिवा, शेष रह्या ते न्हाल । वध घटै ते तिमहिज भणवा, हिवै अवट्ठिया नो काल ।। २६. 'एगिदिया वड्दति वि त्ति' तेषु विरहाभावेऽपि बहुतराणामुत्पादादल्पतराणां चोद्वर्तनात्, (वृ० प० २४५) ३०. 'हायंति वि' त्ति बहुतराणामुद्वर्तनादल्पतराणां चोत्पादात् । (वृ० प० २४५) ३१. 'अवट्ठिया वि' तितुल्यानामुत्पादादुद्वर्तनाच्चेति । ___ (वृ० प० २४५) ३२. बेइंदिया 'वड्ढंति, हायंति' तहेव, अवट्ठिया जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो अंतोमुहुत्ता। (श०५।२२०) ३३. एकमन्तमहत्तं विरहकालो द्वितीयं तु समानानामुत्पा दोद्वर्तनकाल इति । (वृ० प० २४५) ३४. एवं जाव चउरिदिया। (श० ५।२२१) अवसेसा सम्वे 'वड्ढंति, हायंति तहेव, अवट्ठियाणं नाणत्तं इम, ३५. समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता; ३६. गब्भवक्कंतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, ३७. संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, ३८. गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चउबीसं मुहुत्ता, ३५. विरह संमूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्री, इक अंतरमहर्त्त होय । तेहथी दुगुणो काल अवट्ठिया नो, अंतरमहूर्त दोय ।। ३६. गर्भेज तिर्यंच में विरह काल थी, मुहूर्त बार जगीस । दुगुणो काल है अवट्ठिया नों, कह्या महूर्त चउबीस ।। ३७. विरह समूच्छिम मनुष्य मांहै जे, कह्या मुहूर्त चउबीस । दुगुणो काल है अवट्ठिया नों, मुहुर्त अड़तालीस ॥ ३८. बार मुहूर्त विरह गर्भज मनुष्ये, वलि मुहूर्त बार जगीस । जिण समय ऊपजै जिता नोकल अवट्ठिया मुहूर्त चउबीस ।। ३६. व्यंतर जोतिषि सुधर्म ईशाणे, विरह महूर्त चउवीस । दुगुणो काल है अवट्ठिया नों, मुहूर्त अड़तालीस ॥ ४०. तृतीय कल्प विरह नव अहोनिश, ऊपर मुहर्त बीस । दुगुणो काल है अवट्ठिया नों, निशि अठारै मुहूर्त चालीस ।। ४१. माहिंद्र द्वादश दिन दस मूहर्त, विरह कह्यो जगदीश । दुगुणो काल है अवट्ठिया नों, दिन चउबोस मुहूर्त बीस ॥ *लय : धिन प्रम रामजी लय : पूज मोटा मांज...... ३६. वाणमंतर-जोतिसिय-सोहम्मीसाणेसु अट्टचत्तालीसं मुहुत्ता, ४०. सणंकुमारे अट्ठारस राइंदियाइं चत्तालीसं य मुहुत्ता । ४१. माहिदे चउवीसं राइंदियाई वीस य मुहुत्ता । श० ५, उ०८, ढाल ९३ ९७ Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. ब्रह्म पंचम देवलोक विरह छे, दुगुणो काल है अवट्टिया नों, ४३. लंतके विरह पैंतालीस अहनिशि, दिवस साठा बावीस | अहोनिशि पैंतालीस ॥ दिवस वलि पैंताल । जिण समय ऊपजै जिता नीकले, नेउ दिन अवट्टिया न्हाल ॥ ४४. महाशुक असी दिवस विरह के असी अहोनिश वाट | जिग समय पजे जितानी अवस्थिति दिन एक सौ साठ ॥ ४५. अष्टम कल्पे विरह दिवस सो दिवस वलो सौ तित्थ । जिण समय ऊपजै जिता नीकले, दोय सौ दिन अवस्थित्त ।। ४६. नवमें दशमें विरह मास संख्याता तेहची दुगुणा मास । 1 अवट्ठिया नों काल कह्यो, मास संख्याता तास ।। ४७. आरण अच्चू विरह वर्ष संख्याता, तेही दुगुणा वास । अट्ठानों का कह्यो छे, संख्याता वर्ष नी राश ॥ ४५. इमहिज नव ग्रीवेयक मांहे, पण वृत्ति मां कह्यो एम त्रिक विहं नों जुजुओ लेखो सांभलजो घर प्रेम ॥ ४९. हेली पिक वर्ष संख्याता सौ मध्यमे संख्य हजार । ऊपरली त्रिक वर्ष संख्यात लक्ष, विरहकाल सुविचार || ५०. विरह अद्धा थी कालज दुगुणो, अवट्ठिया नों जान । विरह जेतलुं काल पर्छ पिण, उत्पत्ति चवन समान ।। ५१. विरह अनुत्तर प्यार विषे वर्ष असंख हजार तेही दुगणो काल कहीजे, अवट्ठिया तुं विचार ॥ ५२. विरह काल सर्वार्थसिद्ध में पस्य नों संख्यातमों भाग । तेहथी दुगुणो काल कहीजै, अवट्ठिया नुं माग ॥ ५३ वर्ष घटे इक समय जघन्य थी, उत्कर्ष करि ताय । आवलिका नौ असंख्यातमों भाग को जिनराय ॥ ५४. अवट्ठिया नुं काल जे पूर्वे, पभप्यूँ तेम पिछाण | आंख्यूं ए सगलो सूत्रे करि, श्री जिन वचन प्रमाण ॥ ५५. काल के सिद्ध वर्ष प्रभु जिन भाखे शिव वाट । जघन्य थकी तो एक समय लग, उत्कर्ष समया आठ ॥ ५६. काम केलं अवट्ठिया नुं ? जघन्य थकी तो एक समय छै, ५७. उत्कृष्ट विरहो मास पट नो अवट्ठिया इतरो सही पछे वाधै नां नां घटे इम अवस्थित दुगुणो नहीं ॥ ५८. भासे जिन गुणरास । उत्कृष्टो षट मास || सोरठा हिव जीवादिक जेह, तेहने इज अन्य भंग करि । गोयम प्रश्न करेह, चित्त लगाई सांभली ॥ लय: पूज मोटा भांजे १८ भगवती-जोड़ ४२. भोवतालीस राईदिवा ४३. लंतए नउई राइंदियाई, ४४. महामुक सदि राईदियस ४५. सहस्सारे दो राईदियवाई ४६. आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा, ४०. बाणाई वासा ४८. एवं गेवेज्जदेवाणं । ४६. इह यद्यपि ग्रैवेयकाधस्तनत्रये संख्यातानि वर्षाणां शतानि मध्यमे सहस्राणि उपरिमे सक्षाणि विरह उच्यते । ( वृ० प० २४५) ५१. विजय वे जयंत जयंत अपराजियाणं असंखेज्जाई वाससहस्साइं । ५२. पनिओभानो । ५३. एवं भणिति हायंति' जणं एक्क समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं, ५४. अट्टियागंज भणिय' । (०५।२२२) 3 ५५. सिद्धा णं भंते! केवइयं कालं वड्ढति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ (श० ५।२२३ ) समया । ५६.अट्टया ? गोयमा ! जहणेणं छम्मासा | ५८. जीवादीनेव भग्यन्तरेणाह एक्कं समयं उक्कोसेणं (०५।२२४) (०१० २४५) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. *बहु वच जीव स्यूं सोवचया प्रभु ! वृद्धिसहित कहिवाय? पूर्व विषे अनेरा वलि ऊपजै, तिण सूं उपचय सहित कह्या ताय ।। ६०. सावचया ए हानि-सहित थे, पूर्वे छंजे गांव। fuge at नोचा थीए, अपचय सहित कहाय ॥ ६१. खोवलय यावच्या तोजो, गुगपत् ए वृद्धि हानि । ऊपजवूं नीकलवू साथै, एक समय बिहुं जानि ॥ ६२. निरुवचय- निरवचया चउचो ऊपजवो नीकलवो न हुवे, वृद्धि हानि विहं नाहि । जैह काल रे मांहि ।। ६३. जिन कहै जीव सोवचया नांही, सोवचय- सावचया पिण नहीं, पद यतनी ६४. वृत्तिकार कहिवाय, इहां वलि अपचय हानि निहाल, ६५. चउथे पद नहीं वृद्धि हानि, सावचया नहि थाय । इक चउथो पाय ।। उपचय वृद्धि कहाय । तीजै पद बिहुं समकाल || ते अवस्थिति पहिचान । ए पद व्याखं भाख्या, प्रश्न सर्व जीवां ऊपर आख्या ।। ६६. वड्ढति हायंति अवट्ठिया, पूर्वे तीन पाठ ए किया । विहं सूत्रे कवण है फेर? तयुं उत्तर इह विधि हेर ।। ६७. पूर्वे तीन पाठ कह्या ताहि वर्ष प अवया मांहि । तिहां संख्या रूप ग्रहण कीधो, गिणत प्रमाण ने मुख्य दोघो । ६८. द्वितीय सूत्र प्रमाण न वांल्यूं, उत्पत्ति नीकलवा मात्र इछ्यूँ थोडा घणां तणी वांछा नाही, तिण सूं न्यारो पाठ कह्यो यांही ॥ ६९. सोवचया सावचया ताहि, ए तीजा भांगा रे मांहि । वर्ष घटै अवलिया आवंत, तिण रो जुजुओ कहूं वृत्तत ॥ ७०. एक समय पणां उपजंत, तिणहिज समय थोड़ा निकलंत । ए तीजा भांगा रे मांय वति यते इम आय ।। ७१. एक समय थोड़ा उपजंत, तिणहिज समय घणां निकलंत । ए तीजा भांगा रे मांय, ७२. एक समय जेता उपजंत, ए तीजा भांगा रे माय, ७३. इण न्याय थकी कहिवाय, हायंति घटे ते इम आय ॥ तिणहिज समय तेता निकलंत । अवट्ठिया पाठ पिण आय ।। पूर्वे तीन पाठ कह्या ताय । विहं सूत्र जूजुआ जान || सोवचया - सावच्या भाल । तिण सूं तीजै पद न्हाल ॥ इहां प्यार पाठ पहिछाण ७४. * एगिदिया तो पद कहिवा, समकाले ऊपजै नैं निकले, * लय : धिन रामजी प्रभु ५६. जीवा णं भंते! किं सोवचया ? 'सोपचया: ' सवृद्धयः प्राक्तनेष्वन्येषामुत्पादात् ( वृ० प० २४५) ६०. सावचया ? प्राक्तनेभ्यः केाना ( ० १० २४५) ६१. सोवच्या सावच्या उत्पादनाभ्यां वृद्धिहान्योर्युगपद्भावात् । ( वृ० प० २४५) ६२. निरुवचय-निरवचया ? निरूपचयनिरपचया उत्पादोवर्तनयोरभावेन वृद्धि हान्योरभावात् । ( वृ० प० २४५) ६३. गोवमा ! जीवानो सोचा तो सावच्या नो सोवचय-सावच्या निरयचय निरवचया । । ६४. ननुपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानि, युगपद्द्द्वयाभावरूपावरितत्वं ( वृ० प० २४५) ६६. एवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽनयोः सूत्रयोर्भेदः ? ( ० १० २४५) ६७. पूर्व परिणाम ( माण ) मात्रमभिप्रेतम् । ( वृ० प० २४६ ) ६. इह तु तदपेक्षमुत्पादोदवर्तनामानं । ( वृ० प० २४६) ६. तृतीयमङ्गके पूर्वोक्तादिविकल्पानां त्रयमपि स्यात्, ( वृ० प० २४६ ) ७०-०२ बहुतरोत्पादे वृद्धिहुतरोत्त हानि:, समोत्पादोदवर्त्तनयोश्चावस्थितत्वमित्येवं भेद इति । ( पृ० प० २४६) ७४. एगिंदिया ततियपदे सोपचयापचया इत्यर्थः युगपदुत्पादोदवर्तनाभ्यां वृद्धिहानिभाया। (४० १० २४६) श०५, उ०८, ढाल ६३ ६ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. सेसा जीवा चउहिं वि पदेहि भाणियव्वा । (श० ५१२२५) यतनी ७५. "प्रथम पद सोवचया कहाय, ऊपजै पिण निकलै नाय । ते एकेन्द्री में नहि पाय, निरन्तर नीकले तिण न्याय ।। ७६. दूजो पद सावचया कहाय, नीकलै पिण ऊपजै नाय । ए पिण एकेन्द्री में नहिं पाय, निरन्तर ऊपजे तिण न्याय ।। ७७. चउथै पद ऊपजवो न होय, वलि नीकलै पिण नहिं कोय । ए पिण एकेन्द्री में न पावंत, निरन्तर ऊपजे निकलंत ।। ७८. ए तीनूइ पद नहि होय, पद एक तीजो अवलोय । ऊपजै नीकलै समकाल, सोवचय-सावचया न्हाल' ।। (ज० स०) ७९. शेष उगणोस दंडक देख, पद च्यारूंइ छै सूविशेख । ऊपजवा नीकलवा नुं जगीस, विरह का दंडक उगणीस ।। ८०. "कदै नीकलवा - विरह होय, तिण वेला ऊपजियो कोय । जब सोवचया पद पाय, ऊपनो पिण नीकल्यो नांय ॥ ८१. कदै ऊपजवा नुं विरह होय, तिण वेला नीकलियो कोय । जब सावचया पद पाय, नीकल्यो पिण ऊपनो नांय ॥ ८२. ऊपजवा नीकलवा नुं जोय, कदे विरह दोनूं नहिं होय । सोवचय-सावचया न्हाल, ऊपनो नीकल्यो समकाल ।। ५३. ऊपजवा नीकलवा नुं जोय, कदै विरह दोनइ होय । निरुवचय-निरवचया ताहि, उत्पत्ति नीकल बिहुं नांहि ।। ८४. इहां उगणीस दंडक मांय, पद च्यारूइ इणविध पाय । यां में विरहकाल कह्यो ताय, तिण अनुसारे आख्यो ए न्याय" ॥ (ज० स०) ८५. *हे प्रभु ! सिद्ध सोवचया पूछा ? तब भाखै जिनराय । सिद्ध सोवचया वृद्धि-सहित छ, उपजै पिण निकल नाय ।। ८६. सावचया दूजो पद नहि छ, चवन अभाव निहाल । सोवचय-सावचया पिण नहि, उत्पत्ति चवन नहीं समकाल ।। ८७. निरुवचय-निरवचया पिण छै, नहीं वृद्धि नहि हानि । मुक्ति नुं विरह हुवै तिण वेला, चउथो पद ए जानि ।। ८८. प्रथम चरम पद पावै सिद्धां में, दूजो तीजो नहिं होय । पहिलो तो मुक्ति जावै जिण वेला, छेहलो विरह में जोय ॥ ८९. जीवा प्रभु ! निरुवचय-निरवचया, केतलो काल रहंत ? जिन भाखै सदाकाल रहै ए, वृद्धि हानि नहिं हंत ॥ ८५. सिद्धा णं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! सिद्धा सोवचया, ८६. नो सावचया, नो सोवचय-सावचया, ८७. निरुवचय-निरवचया । (श० ५१२२६) १०. नेरइया प्रभ! काल किता रहै, सोवचया वृद्धि माग ? जघन्य समय इक नैं उत्कृष्टो, आवलिका नों असंख भाग ।। ८६. जीवा णं भंते ! केवतियं कालं निरुवचय-निरव चया ? गोयमा ! सम्बद्धं । (श०५।२२७) १०. नेरइया णं भंते । केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । (श० ५२२२८) * लय : धिन प्रभु रामजी । १०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. आवलिका नां असंख भाग लग, समय-समय विष यदा । नरक जावै वृद्धि थावै, नीकलै नहिं छै तदा ।। ६२. *सावचया पिण इमहिज कहिये, आवलिका नैं ताहि । असंख्यातमा भाग लगे निकले, पिण कोइ उपज नाहि ।। ६३. सोवचय-सावचया इमहिज आवलिका नैं न्हाल । असंख्यातमा भाग लगै, उपजे निकले समकाल । ६४. निरुवचय-निरवचया नों पूछा, जघन्य समय इक थाय । उत्कृष्टो रहै द्वादश महत, न ऊपजे नीकल नाय ।। ६२. केवतियं कालं सावचया ? एवं चेव। (श० ५।२२६) ६३. केवतियं कालं सोवचय-सावचया ? एवं चेव । (श० ५।२३०) ६४. केवतियं कालं निरुवचय-निरवचया ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। सोरठा ६५. उत्पत्ति-विरह निहाल, वलि नीकलवा नुं विरह । दोनई समकाल, उत्कृष्टपणे हुवै यदा ।। ६६. *एकेंद्री सर्व सोवचय-सावचया, सदाकाल ते न्हाल । समय-समय उपजै नीकले छ, वृद्धि हानि समकाल ।। ६७. शेष दंडक विषे धुर पद तीन, जघन्य समय इक माग । उत्कृष्टो जे आवलिका नै असंख्यातमैं भाग ।। ६६. एगिदिया सव्वे सोवचय-सावचया सव्वद्धं । ६७. सेसा सव्वे सोवचया वि, सावचया वि, सोवचय सावचया वि, जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । ६६. अवट्ठिएहिं वक्कंतिकालो भाणियब्वो । (श० ५।२३१) यतनी १८. पद त्रिहं नरक में पाय, तिणरो पूर्वे आख्यो न्याय । तेहिज न्याय इहां पहिछाण, बुद्धिवंत ए लेसी जाण ।। ६६. *शेष दंडक विषे चौथे पद इम, जघन्य समय इक जाण । उत्कृष्ट पन्नवण छठा पद में, कह्य विरहकाल ते प्रमाण ।। १०० ऊपजवा ने नीकलवा नों, कदै बिहुं विरह हुवै साथ । निरुवचय-निरवचया ते काले, ते कहूं पन्नवणा थी बात ॥ १०१. जघन्य थकी तो सगले ठामे, समय एक सुविचार । उत्कृष्ट विरह जूओ-जूओ छै, सांभलजो विस्तार ॥ १०२. समचे नरक में ऊपजवा न, निकलवा नुं निहाल । __बार महूर्त कदे बिहुं हुवै साथै, ए निरुवचय-निरवचया क ल ।। १०३. रत्नप्रभा में चउवीस महत, सकर सप्त निशि तास । वालप्रभा में पनर अहनिशि, पंकप्रभा इक मास ।। १०४. धूमप्रभा में दोय मास नों, तमप्रभा गास च्यार । तमतमा षट् मास उत्कृष्टो, उभय विरह अधिकार ।। लय । पूज मोटा मांज *लय : धिन प्रभु रामजी १०२. निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उवधाएणं ... ? निरयगती णं भंते केवतियं कालं विरहिता उबट्टणयाए .....? (पण्णवणा ६।१,६) १०३. रयणप्पभापुढविने रइया णं भंते ?... (प०६।१०-१३) १०४. धूमप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! ... (प०६।१४-१६) श०५, उ०८, ढाल १३ १०१ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. असुरकुमारा णं भंते ! ... (प० ६।१७,१८,२०,२१) १०६. गब्भवक्कंतियपंचेंदियतिरिक्ख जोणिया णं भंते! ... (प० ६।२२-२४) १०७. वाणमंतराणं पुच्छा... (प० ६।२५-२८) १०८. माहिंददेवाणं पुच्छा... (प० ६।३०-३३) १०६. सहस्सारदेवाणं पुच्छा . (प० ६।३४-३८) १०५. भवनपति में चउवीस मुहूर्त, अंतरमहूर्त विकलिदि । संमूच्छिम-तियंच-पंचेंद्री, इक अंतरमहूर्त कहिदि । १०६. गर्भेज-तिर्यंच बारै महत, मनुष्य-समुच्छिम धार । उत्कृष्ट विरह चउवीस महुर्त नों, गर्भेज-मनुष्य में बार ।। १०७. व्यंतर जोतिषी पहिलै दूजै, मुहूर्त चउवीस चउवीस । सनतकुमारे नव अहोरात्रि, महत वीस जगोस । १०८. माहिंन्द्र द्वादश दिन दश महत, ब्रह्म साढा बावीस । लंतक पैंताली निशि महाशुक्र, असी रात्रि नं जगीस ।। १०६. अष्टम' सौ निशि आणत पाणत, मास संख्याता दृष्ट । आरण अच्चु वर्ष संख्याता, उभय विरह उत्कृष्ट । ११०. हेठिम त्रिक वर्ष संख्याता सौ, मझम संख्याता हजार । उवरिम संख्याता लाख वर्ष नों, उभय विरह सुविचार ॥ १११. च्यार अनुत्तर पल्य तणो जे, असंख्यातमो भाग । सर्वार्थसिद्ध पल्य तणो ए, भाग संख्यातमो लाग। ११२. ए ऊपजवा ने नीकलवा नुं विरह पड़े समकाल । तिण वेला ए चउथा पद गें, उत्कृष्ट काल निहाल ।। ११३. सिद्ध प्रभु ! किता काल सोवचया ? जघन्य समय इक जोय । उत्कृष्ट अष्ट समय लग आख्यो, अंतर-रहित ए होय । ११०. हेट्ठिमगेवेज्जाणं पुच्छा' (प० ६.३६-४१) १११. विजयवेजयंतजयंतापराजियदेवाणं पुच्छा... (प० ६।४२,४३) १९४. काल वितो विश्वय-निरवक्या, वपत्य समय अबलोय ॥ ४. कविणे याक नियम विकासमा माला । .. ११४. काल कितो निरुवचय-निरवचया, जघन्य समय इक सोय । उत्कृष्टो षट्मास काल ए, विरह-समय अवलोय ।। ११३. सिद्धाणं भंते ! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया। (श० ५१२३२) ११४. केवतियं कालं निरुवचय-निरवचया ? जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छ मासा । (श०५।२३३) ११५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (श०१२३४) ११५. सेवं भंते ! अंक अठावन, ए त्राणंगी ढाल । भित्रु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ॥ पंचमशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥५॥८॥ ढाल :६४ दूहा १. अर्थ-जात गोतनगणी, राजगहे धर खंत । बहलपणें करि पुछिया, बहन तिहां विचरंत ।। २. गरूप र जगृहादि मुं, निर्णय तत्पर तत्र । विस्तार नवम उद्देशके, कहियै छै हिव अत्र । १. सहस्रार स्वर्ग १,२. इदं किलार्थजातं गौतमो राजगृहे प्रायः पृष्टवान् बहुशो भगवतस्तत्र विहारादिति राजगृहादिस्वरूपनिर्णयपरसूत्रप्रपञ्चं नवमोद्देशकमाह (वृ० प० २४६) १०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी ३. तिण काले नै तिण समय, जाव बदै इम ताम । वीर प्रत वंदी करी, विनय करी अभिराम ।। *कृपानिधि जयजश करण जिनेन्द्र ! जी हो अंतर-तिमर मिटायवा, प्रभु ! प्रगट्यो जाण दिनेन्द्र । (ध्र पदं) जी हो ए नगर राजगृह नाम ते, प्रभु ! किणनै कहियै ताम । जी हो स्यूं कहियै पृथ्वी भणी, कांइ नगर राजगृह नाम ? जी हो नगर राजगृह अप प्रतै, जाव वनस्पति लग आम । ____जी हो जेम पंचमा शतक में, कह्या सप्तमुद्देशे नाम ।। ६. जी हो पंचेन्द्री तिर्यंच ने, कह्या परिग्रह मांहे जेह । __जी हो टंक कूट शिखरी गिरी, इत्यादिक सहु पाठ कहेह ॥ ७. जी हो जाव सचित्त अरु अचित्त नै, वलि मिश्र द्रव्य नै ताय । जी हो नगर राजगृह एहवं, कांइ कहिये इम पूछाय ।। ८. जी हो श्री जिन कहै पृथ्वी प्रतै, कहियै नगर राजगृह नाम । जी हो जाव सचित्त अचित्त मिश्र नों, समुदाय राजगह ताम ।। ६. जी हो पृथव्यादिक समुदाय छै, कांइ नगर राजगृह माय । जी हो तेह विना राजगृह इसी, कांइ शब्द प्रवृत्ति न थाय ।। जी हो किण अर्थे ? तब जिन कहै, पृथ्वी जीव अजीव स्वभाव । जी हो राजगृह एह प्रसिद्ध पण, कांइ नगर नु नाम कहाव ।। ११. जी हो जाव सचित्त अरु अचित्त छ, बलि मिश्र द्रव्य समदाय । जी हो जीव अजीव दोन अछे, तिण ने नगर राजगह कहाय ॥ जी हो तिण अर्थे करि गोयमा ! जाव नगर राजगृह कहंत । जी हो पुद्गल नां अधिकार थी, वलि पुद्गल नुं विरतंत ।। जी हो हे भगवंत ! निश्चै करो, दिन उद्योत निशि अंधकार ? जी हो जिन कहै हंता गोयमा ! प्रभ ! किण अर्थ ए प्रकार ।। ४. किमिदं भंते ! नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ? कि पुढवी नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ? ५. किं आऊ नगरं रायगिहं ति पच्चइ जाव वणस्सई ? जहा एयणुद्देसए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया तहा भाणियव्वा । (पा० टि०) 'जहा एयणुद्देसए' त्ति एजनोद्देशकोऽस्यैव पञ्चमशतस्य सप्तमः, (सू० १८६) (वृ०प० २४६) ६. तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वक्तव्यता 'टङ्का कूडा सेला सिहरी' त्यादिका योक्ता सा इह भणितव्येति । (वृ० प० २४६) ७. जाव सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? ८. गोयमा ! पुढवी वि नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ जाव सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायगिह ति पवुच्चइ। (श० ५।२३५) ६. पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहं, न पृथिव्यादिसमुदाया दृते राजगृहशब्दप्रवृत्तिः, (वृ०प० २४६) १०. से केणणं ? गोपमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायमिहं ति पवुच्चइ, ११. जाव सवित्तावित्त-मीसयाई दव्याई जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायगिह ति पवुच्च इ, १२. से तेण?णं तं चेव । (श० ५।२३६) पुद्गलाधिकारादिदभाह- (वृ०प० २४६) १३. सेनूर्ण मते ! दिया उज्जोए ? राई अंधयारे ? हंता गोयमा! दिया उज्जोए, राई अंधयारे । से केपण? (श० ५।२३७) १४. गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे शुभः पुद्गलपरिणाम: स चार्ककरसम्पर्कात्, (वृ० प० २४७) १५. राई असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे। से तेणठेणं । (श० ५२२३८) ا १२. بي १४. जी हो जिन कहै दिन शुभ पृद्गला, शुभ पूदगल परिणत होत । जी हो वलि रवि-किरण मिलाप थी, तिण संदिवस विष उद्योत ।। १५. जी हो रात्रि अशुभ पुद्गल हुई, अशुभ पुद्गल नों परिणाम । जी हो रवि-किरणादि अभाव थी, कांइ तिण अर्थे ए ताम ।। *लय : चातुर नर पोषो पात्र विशेख श०५,उ०६, ढाल ६४ १०३ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. जी हो स्य प्रभु ! नेरइया नै अछ, कांइ उद्योत के अंधकार ? जी हो जिन भाख नेरइया तणे नहि उद्योत, छै अंधयार ।। १७. जी हो किण अर्थे ? जद जिन कहै, कांइ नेरइया नैं तिण ठाम । जी हो पुद्गल अशुभ अछै घणां, कांइ अशुभ पुद्गल परिणाम ।। १८. जो हो खेत्र तणांज स्वभाव थी, रवि-किरणादि शुभ निमित्तभूत। जी हो वस्तु-प्रकाशक त्यां नहीं, कांइ तिण अर्थे इम ब्रूत ।। १६. जी हो हे प्रभु ! असुरकुमार नें, कांइ उद्योत के अंधकार? जी हो जिन कहै तिहां उद्योत छै, पिण नहि छ तिहां अंधयार ।। २०. जी हो किण अर्थे ? तब जिन कहै, कांइ असुरकुमार ने ताय । जी हो शुभ पुद्गल शुभ परिणम्या, तिण अर्थे इम वाय ॥ २१. जी हो इम जाव थणियकुमार नैं, हिवै पृथ्वी अप तेउ वाय । जी हो वनस्पति बे० ते० इंदिया, इम नरक जेम कहियाय ।। २२. जी हो एहनां क्षेत्र विषे अछ, रवि-किरणादिक नों संचार । जी हो तो पिण चक्ष-रहीत ए, तिण सं वस्तु न देख लिगार ॥ २३. जी हो कार्य शुभ पुद्गल तणां, ते अणकरिव करि धार । जी हो पुद्गल अशुभ कह्या तसु, तिण कारण एहन अंधार ।। २४. जी हो हे प्रभु ! चरिद्री तणे, कांइ उद्योत के अंधकार ? जी हो जिन कहै एहनें उद्योत छै, वलि छै एहने अंधयार ।। १६. नेरइयाणं भंते ! कि उज्जोए ? अंधयारे ? गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधयारे । (श० ५२२३६) १७. से केणट्टेणं? गोयमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला असुभे पोग्गल परिणामे । १८. तत्क्षेत्रस्य पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुजित्वात्, (वृ० प० २४७) से तेणद्वेणं । (श० ५२४०) १६. असुरकुमाराणं भंते ! कि उज्जोए ? अंधयारे ? गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए, नो अंधयारे । (श० ५।२४१) २०. से केण?णं ? गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल-परिणामे । से तेणठेणं। २१. जाव थणियकुमाराण । (श० ५।२४२) पुढविक्काइया जाब तेइंदिया 'जहा नेरइया'। (श० ५।२४३) २२,२३. एषामेतत्क्षेत्रे सत्यपि रविकरादिसंपर्के एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यबस्तुनो दर्शनाभावाच्छुभपुद्गलकार्याकरणेनाशुभाः पुद्गला उच्चन्ते ततश्चैषामन्धकारमेवेति । (वृ० प० २४७) २४. चउरिदियाणं भंते ! कि उज्जोए ? अंधयारे ? गोयमा ! उज्जोए वि अंधयारे वि। (श० ५।२४४) २५. से केण?णं ? गोयमा ! च उरिदियाणं सुभासुभा य पोग्गला सुभासुभे य पोग्गलपरिणामे । से तेणठेणं । (श० ५२२४५) २६. एमां हि वक्षुःसद्भावे रविकरादिसद्भावे दृश्यार्थाव बोधहेतुत्वाच्छुभाः पुद्गलाः, (वृ० ५० २४७) २७. रजिकराधभावे त्वर्थावबोधाजनकत्वादशुभा इति । (वृ० प० २४७) २८. एवं जाव मणुस्साणं । (श० ५।२४६) वाणमंतर-जो इस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। (श० ५।२४७) २५. जी हो किण अर्थे ? तब जिन कहै, कांइ चरिद्री मैं ताय । जी हो पुद्गल शुभाशुभ परिणमैं, कांइ तिण अर्थ ए वाय॥ २६. जी हो रवि-किरणादि स्वभाव तें, अर्थ खवा जोग्य ने तास । जी हो तसुं अवबो। हेतू थकी, शुभ पुद्गल कहिय उजास ।। २७. जी हो रवि-किरणादि अभाव तें, अर्थ अववोध हेतु न हाय : जो हो अशुभ पुदगल कहिये तसु, इमरं चक्षु इंद्रिय अवलोय ।। २८. जी हो इमहिज जाव मनष्य लगे, यंतर जोतिषि ने किमानीक। जी हो असुरकुमार तणी परै, तम नहीं उयोत सधीक ।। सोरठा २६. पुद्गल द्रव्य पिछाण, पूर्वे चितवणा तसु । काल द्रव्य नी जाण, चितवणा तेहनी हिवै। १०४ भगवती-जोड़ २६. पुद्गला द्रव्यमिति तच्चिन्ताऽनन्तरं कालद्रव्यचिन्तासूत्रम् (वृ०प० २४७) Jain Education Intemational Jain Education Interational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. *जी हो हे प्रभुजो ! नारक तणे, नरक विषे रह्या ने सोय । जी हो जेणे करीनै जाणिय, एहवी प्रज्ञा तेहनें होय ।। ३१. जी हो समय आवलिका पिण वलि, जाव अवसर्पिणी छै एह । जी हो उत्सपिणी पिण एह छै, एहवं नरक विषे जाणेह ? ३२. जी हो जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, कांइ किण अर्थे भगवान ? जी हो जिन कहै समयादिक तणो, इण मनुष्यखेत्र में मान । ३०. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायए, तं जहा-- ३१. समया इ वा, आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्स प्पिणी इ वा ? ३२. णो तिणठे समझें । (श० ५।२४८) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइयाणं तत्थगयाणं नो एवं पण्णायए, तं जहा-समया इ वा, आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा? गोयमा ! इहं तेसिं माणं, ३३. इहं तेसि पमाणं, (श० ५।२४६) आदित्यगतिसमभिव्यंग्यत्वात्तस्य, (वृ० प० २४७) ३४. आदित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्र एव भावात् नरकादौ त्वभावादिति, (वृ० प० २४७) ३५,३६. प्रमाण-प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः, तत्र मुहूर्तस्तावन्मानं तदपेक्षया लवः सूक्ष्मत्वात् प्रमाणं तदपेक्षया स्तोकः प्रमाणं लवस्तु मानमित्येवं नेयं यावत् समय इति, (वृ० प० २४७) ३३. जी हो इण मनुष्य वेत्र नै विषे वलि, समयादिक तणोंज प्रमाण । जी हो आदित्य गति करि जाणिय, समयादिक नै पहिछाण ।। ३४. जी हो मनुष्यक्षेत्र नै विषेज छ, कांइ समयादिक नों ज्ञान । जी हो नारकादिक नै विषे नहीं, तिण सं इहांइज मान प्रमान । ३५. प्रकृष्ट मान प्रमाण सूक्षम, महर्त मान कहीजिये । तसु अपेक्षा लवज सूक्षम, तेह प्रमाण लहीजिये ।। ३६. लव मान कहिये तसु अपेक्षा, थोव प्रमाण पिछाणिय । थोव मान तेहनी अपेक्षा, प्रमाण पाण जाणिय ।। ३७. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । (श० ५।२५०) ३८. अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इगयाणं एवं पण्णा यते, ३६. समया इ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा ? ३७. *जी हो नरक तणी पर जाणवा, कांइ जाव पंचेंद्री तिर्यच । जी हो मनुष्य तणी पूछा हिवै, तसुं सांभलज्यो सुभ संच ।। ३८. जो हो छै भगवंत ! जे मनुष्य नैं, कांइ इहां रह्या नै ताम । जी हो जेणे करीने जाणिय, एहवी प्रज्ञा बुद्धि अभिराम ।। जी हो समय आवलिका पिण वलि, जाव अवप्पिणी छ एह । जी हो उत्सप्पिणी पिण एह छ, एहवं मनुष्य विषे जाणेह ? ४०. जी हो जिन कहै अर्थ समर्थ अछै, कांइ किण अर्थे भगवान । जी हो जिन कहै समयादिक तणो, इण मनुष्य क्षेत्र में मान । ४१. जी हो इण मनुष्यखेत्र नै विषे वलि, समयादिक तणो प्रमाण । जी हो आदित्य गति करि जाणिय, समयादिक नै पहिछाण ॥ जो हो मनुष्यखेत्र में विषेज छै, काइ समयादिक नों ज्ञान । जी हो तिण अर्थ करि इम कह्य, कांइ इहां इज मान प्रमान । जो हो बाणव्यंतर नैं जोतिषि, वलि बंभानिक नै ताम । जो हो कहिय नरक तणो परै, काइ सहु विरतंत तमाम ।। ४४. जी हो समयखेत्र बाहिर रह्या, कांइ सर्व तणे अवलोय । जी हो समयादिक पूर्वे कह्या, तेहनें जाणै नहिं ते कोय ।। *लय : चतुर नर पोषो पात्र विसेख १. अंगसुत्ताणि में 'इह तेसि पमाणं' के बाद उपसंहारात्मक रूप में पूरा पाठ है। पर उस पाठ की जोड़ न होने के कारण उसे यहां उद्धृत नहीं किया गया। लय: पूज मोटा मांज...... ४०. हंता अत्यि। (श० ५।२५१) से केणटेणं ? गोयमा ! इहं तेसिं माणं, ४१,४२. इहं तेसि पमाणं, इहं चेव तेसि एवं पण्णायते, तं जहा-समयाइ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा । से तेण?णं । (श० ५।२५२) ४३. वाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । (श० ०२५३) ४४. इह च समयक्षेत्राबहिर्वत्तिनां सर्वेषामपि समयाद्यज्ञानमवसेयम्, (वृ० प० २४७) श०५, उ०६, ढाल ६४ १०५ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. जी हो समयक्षेत्र र बाहिरे, नहि समयादि काल विचार । ४५. तत्र समयादिकालस्याभावेन तद्व्यवहाराभावात्, जी हो काल तणे अभावे करो, कांइ नहि छै ते व्यवहार ॥ (वृ०प० २४७) जो हो वृत्तिकार इहां इम कह्य, काइ पंचेंद्रिय तिर्यंच । ४६. तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवनपतिव्यन्तरज्योतिजी हो भवनपति व्यंतर जोतिषि, केइ मनुष्यखेत्र छै संच ।। काश्च यद्यपि केचित् मनुष्यलोके सन्ति । (वृ०५० २४७) ४७. जी हो तो पिण ते तो अल्प छ, वलि बहुलपणे करि तेह । ४७,४८. तथापि तेऽल्पाः प्रायस्तदव्यवहारिणश्च इतरे तु जी हो समयादिक जे काल नां, कांइ अव्यवहारी जेह ॥ बहव इति तदपेक्षया ते न जानन्तीत्युच्यत इति । ८. जी हो तेह तणीज अपेक्षया, काइ मनुष्यखेत्र रे बार । (वृ० प० २४७) जी हो तिर्यंचादिक छै घणां, तिके नहिं जाणे तिहवार ।। जी हो रवि गति करिने जाणवो, तिको लेखवियो इहां जोय । जी हो अवध्यादिक करि जाणिय, जिको गिण्यो नहीं छै कोय । ५०. जी हो देश गुणसठमां अंक नों, कांइ च्यार नेऊमी ढाल । जी हो भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, कांइ 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल ६५ १. काल-निरूपण नों कह्यो, ए अधिकार पिछाण । निशि दिन काल विशेष हिव, तास' निरूपण जाण ॥ २. तिण काल में तिण समय, पार्श्व-अपत्य संतान । शिष्य प्रशिष्यादिक प्रवर, स्थविर तपोवृद्ध जान॥ ३. पाव स्थविर भगवंत ते, वीर प्रभू पै आय । नहिं अति दूर न ढुंकड़ा, बोले इहविध वाय ।। *पार्श्व स्थविर पूछा करै । (ध्र पर्द) ४. हे भगवंत ! निश्चै करी, असंखेज्ज लोक मांडो जी। प्रदेश असंख्याता एहनां, तिण सं असंख्य लोक कहिवायो जी॥ १. कालनिरूपणाधिकाराद्रात्रिन्दिवलक्षणविशेषकालनिरूपणार्थमिदमाह (वृ० प० २४७) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो ३. जेणेव समणे भगवं महाबीरे तेणेव उवागच्छंति, उवा गच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर-सामंते ठिच्चा एवं वायसी ५. चवद रज्जु खेत्र लोक छै, ते आधारभत विषे जेहो । दिन रात्रि अनंता ऊपनां, ऊपजै नैं ऊपजस्यै तेहो ? ४. से नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए असंख्यातेऽसंख्यात प्रदेशात्मकत्वात् (वृ०प०२४८) ५. अणंता राइंदिया उप्पज्जिसु वा, उप्पज्जति वा उपज्जिस्संति वा? लोके-चतुर्दशरज्ज्वात्मके क्षेत्रलोके आधारभूते (वृ० प० २४८) ६. विगच्छिसु वा, विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा ? ६. विनाश पाम्या अनंता दिन निगा, विनाश पामै दिनरातो। विनाश पामस्यै लाल त्रिहूं आख्यातो? *लय : धर्म दलाली चित करै १०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. तथा परित्ता नियत परिमाण ते, दिवस अनैं वलि रातो । ऊपनां ऊपजै ऊपजस्य वलि, ए अनंता नहिं आख्यातो। ___७. परित्ता राइंदिया उप्पज्जिसु वा, उप्पज्जति वा, उप्प ज्जिस्संति वा? परीतानि-नियतपरिमाणानि नानन्तानि, ८. विच्छिसु वा, विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा ? ८. तथा नियत परिमाण अहो निशा, गये काल पाम्या छै विनाशो। हिवड़ा विनाश पामै अछ, वलि विनाश पामस्यै तासो ? ६. जिन कहै हंता हे अज्जो! लोक असंखप्रदेशो । तिण में अनंत रात्रि दिन ऊपना, पूछ्यो तिम कहिवं अशेषो । सोरठा १०. इहां छै ए अभिप्राय, लोक असंखप्रदेश में । दिन रात्रि अनंत किम माय ? अल्प, आधार आधेय बहु ।। ६. हंता अज्जो ! असंखेज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव। (श० ५।२५४) १०. पृच्छतामयमभिप्राय: यदि नामासंख्यातो लोकस्तदा तत्रानन्तानि तानि कथं भवितुमर्हन्ति ? अल्पत्वादा धारस्य महत्त्वाच्चाधेयस्येति, (वृ० प० २४८) ११. असंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते तथाविधस्वरूपत्वाद् (व० प० २४८) १२. एकत्राश्रये सहस्रादिसंख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, (वृ० प० २४८) १३. इहायमभिप्रायः यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परी तानि ? इति विरोधः, (वृ० प० २४८) १४. स च समयादिकालस्तेषु साधारणशरीरावस्थायामनन्तेषु (वृ०प० २४८) १५. प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीतेषु प्रत्येकं वर्तते, (वृ० प० २४८) ११. *लोक असंख प्रदेश में, वत्त अनंता जीवा । तथाविध स्वरूपपणां थको, गुण-भाजन अनंत अतीवा ।। १२. जिम इक स्थानक - विष, प्रभा सहस्र दीवा नी पडतो । तिम समयादिक इक काल में, अनंता ऊपजै विणसंतो॥ सोरठा १३. इहां छै ए अभिप्राय, अनंत जो दिन निशि हवै। तो किम परित्त कहाय, आपस मांहि विरोध इम ।। १४. *अनंत काय साधरण नै विष, समयादि काल वर्त्ततो । तिण सं अनंत समयादिक ते कह्या, इक समयादि अनंत गिणतो।। १५. प्रत्येकशरीरी नै विषे, समयादि काल वर्ततो । प्रत्येक समयादि तसु कह्या, जीव दीठ एक-एक हंतो॥ १६. अनंतकाय साधारण नै विषे, वर्ते रात्रि दिन एको । तिण सूं एक अहो रात्रि तेहनै अनंत कह्या सुविशेखो। १७. प्रत्येकशरीरी नै विषे, वर्त अहो रात्रि एको । तिण सूं एक अहो रात्रि तेह. प्रत्येक कह्या सुविशेखो ॥ १८. साधारण जीव आसरी, काल अनंतो लेवो । प्रत्येकशरीरी आसरी, काल प्रत्येकज केवो । १६. इण न्याय दिन रात्रि अनंत छै, तथा परित्त दिन रातो । ए तीनूंइ काल विष हुवै, इम भाखे जगनाथो । २०. किण अर्थे प्रभ ! इम कह्य, लोक असंखप्रदेशे न्हालो । दिन रात्रि अनंता प्रत्येक ते, ऊपजवू विणसवू त्रिहुं कालो ? २१. जिन कहै इम निश्चय करी, अहो आर्य ! तुम्हारा जाणी । पार्श्वनाथ पुरुषां मझे, आदेयकारी पिछाणी॥ *लय :धर्म दलाली चित करे...... १६. एवं चासंख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीतानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति । (वृ० प० २४८) २०. से केणठेणं जाव विगच्छिस्संति वा? २१. से नूणं भे अज्जो ! पासेणं अरया पुरिसादाणिएणं पुरुषाणां मध्ये आदानीयः-आदेयः पुरुषादानीय: (वृ० प० २४८) श. ५,०६, ढाल ९५ १०७ Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. ते पार्श्वनाथ अरिहंत जे, सास्वतो स्थिर लोक आख्यातो । वले आदि-रहित अंत-रहित छ, प्रदेशे परिमित असंख्यातो॥ २३. परिचले वीटयो अलोके करी, हेई सात राज चोड़ो हालो २३. परिवडे वीटयो अलोके करी, हेढ़ सात राज चोड़ो न्हालो । बिच सांकड़ो ते एक राज छै, ऊपर है पंच राज विशालो ।। २२. सासए लोए बुइए-अणादीए अणवदग्गे परित्ते अनवदन:-अनन्तः 'परित्ते' ति परिमितः प्रदेशतः (वृ० प० २४८) २३. परिवुडे हेट्टा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, 'परिबुडे' ति अलोकेन परिवृतः 'हेट्ठा विच्छिन्ने' त्ति सप्तरज्जुविस्तृतत्वात् 'मझे संखित्ते' त्ति एकरज्जुविस्तारत्वात् 'उप्पि विसाले' त्ति ब्रह्मलोकदेशस्य पञ्चरज्जुविस्तारत्वात्, (वृ० प० २४६) २४. एतदेवोपमानतः प्राह- (वृ०५० २४६) सोरठा २४. एहिज तीन लोग, हे, मध्य अरु ऊपरै । सुणज्यो धर उपयोग, कहियै छै उपमा थको ॥ २५. *हेठलं लोक कहै हिवं, ऊपर सांकड़ो जाणो। तल विस्तार चोड़ो अछ, बिहं करि पलिअंक संठाणो ।। २६. मध्य लोक छै एहवो, वर प्रधान विचारो। वज्र शरीर आकार छ, मध्य सांकड़ो तास प्रकारो।। २७. ऊपरलो लोक एहवो, ऊर्द्ध मृदंग आकारो । सराव संपुट आकार छ, ऊपर तल क्षीण मध्य विस्तारो॥ २८. ते सास्वतो लोक को अछ, काल आश्री अनादि अनंतो। को अछ, काल आश्री अनादि अनतो। प्रदेश करि परिमित अछ, अलोके करि वीटयो कहंतो।। २६. हेठ विस्तीर्ण लोक छै, मध्य संक्षिप्त बखाणो । ऊपर विशाल ए लोक छै, पंचम कल्प आश्री ए जाणो । ३०. हेठ पलिअंक संठाण छ, मध्य वज्र आकरो। ऊपर ऊर्द्ध मृदंग – आकारे लोक विचारो॥ ३१. एहवा लोक विषेज अनंत छ, साधारण अपेक्षायो । एक शरीर में जीवड़ा, अनंत कहीजै ताह्यो । ३२. अनंत पर्याय समूह छै, प्रदेश पिंड असंख्यातो । तिण सू जीव घणां ए पाठ छ, उपजी-उपजी मर जातो।। २५ अहे पलियंकसंठिए उपरि संकीर्णत्वाधोविस्तृतत्वाभ्यां (वृ०प० २४६) २६. मज्झे वरवइरविग्गहिए वरबजबद्विग्रहः-शरीरमाकारो मध्यक्षामत्वेन यस्य सः । (वृ० प० २४६) २७. उपि उद्धमुइंगाकारसंठिए। ऊो न तु तिरश्चीनो यो मृदङ्गस्तस्याकारेण संस्थितो यः स तथा, मल्लक-संपुटाकार इत्यर्थः, । (वृ० प० २४६) २८. तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि अणादियंसि अणवद ग्गंसि परित्तंसि परिवुडंसि । २६. हेवा विच्छिण्णंसि, मज्झे संखित्तंसि, उप्पि विसा लंसि , ३०. अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि ३१,३२. अणंता जीवधणा उपज्जित्ता उप्पज्जित्ता निली यंति, 'अनन्ताः' परिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षितत्वात्, सन्तत्यपेक्षया वाऽनन्ताः जीवसन्ततीनामपर्यवसानत्वात्, जीवाश्च ते घनाश्चानन्तपर्यायसमूहरूपत्वादसंख्येयप्रदेश पिण्डरूपत्वाच्च जीवधनाः, (वृ० प० २४६) ३३. परित्ता जीवघणा उप्पज्जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति । ३३. प्रत्येकशरीर अपेक्षा, परिता जीव घणा कहायो। अनंत पर्याय असंख प्रदेश के उपज-उपज मर जायो । *लय : धर्म दलाली चित कर १०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. अनंत परित्त जीव संबंध थी, काल विशेष प्रबोधो । तिण सूअनंत परित्त दिन रात्रि छै, इम मांहोमांहि अविरोधो॥ ३४. यतोऽनन्तपरीत्तजीवसम्बन्धात्काल विशेषा अप्यनन्ता: परीत्ताश्च व्यपदिश्यन्तेऽतो विरोधः परिहृतो भवतीति। (वृ०प० २४६) ३५,३६. अथ लोकमेव स्वरूपत आह (वृ० प० २४६) से भूए उप्पण्णे विगए परिणए, स लोको भूत:--सद्भूतो भवनधर्मयोगात् । (वृ०प० २४६) ३७,३८. परिणत:-पर्यायान्तराणि निरन्वयनाशेन नष्टः। आपनो न तु (वृ० प० २४९) ३५. हिवै लोक स्वरूप कहै अछै, से भूत सद्भुत कहायो । उपण्णे विगए परिणए, उत्पन्न विगत परिणत पिण थायो। सोरठा ३६. जे लोक विषे पहिछान, जीव घणां उपजी मरे । ते सद्भुत विद्यमान, उत्पत्ति धर्मज जोग थी ।। ३७. उत्पाद विनशनशील, परिणत अन्य पर्याय करि । पाम्यो लोक समील, ए पर्याय अपेक्षया ।। ३८. लोक संबंधी भाव, द्रव्य अपेक्षा नाश नहिं । तसु पर्याय कहाव, उत्पाद-विनशनशील है ।। ३६. द्रव्य जीव नों ताहि, वलि द्रव्य परमाणू तणो । उत्पाद विनशन नांहि, पर्याय विणसै ऊपजै ।। ४०. अथ ए कवण प्रकार, एवंविध ए लोक नों। निश्चय करियै सार, आगल तेह कहोजियै ।। ४१. *अजीव पुद्गल आदि दे, अस्तित्व धारक जेहो । तेहनें ऊपजवै करि, बलि विणसर्व करि तेहो। ४२. पर्याय अन्य परिणमवै करो, लोक्कइ -निश्चे कोजे । पलोक्कइ-प्रकर्षे करी, तेहिज निश्चै करीजै ।। सोरठा ४३. ए भूतादिक धर्म, इहविध प्रकर्षे करी। निश्चै कीजै मर्म, प्रलोक्यते कहिये तसु॥ ४४. एहिज यथार्थ नाम, तेहिज देखाड़ता छता । स्थविरां मैं तिण ठाम, पूछै छै हिव वीर प्रभु ।। *पूदगलादिक प्रमाणे करि, लोकिय विलोकिय तासो । लोक कहीजे तेहने, लोक शब्द वाच्य सुविमासो ।। ४६. इम पूछय स्थविर इम उच्चरै, हंता हां भगवंतो ! हे आर्य ! तिण अर्थे कह्यो, असंख लोके तं चेव कहतो।। ४७. पास-अपत्य-स्थविर ते वेला थकी, श्रमण भगवंत श्री महावीरो । त्यांने प्रत्यक्षपणे जाणे तदा, सर्वज्ञानो सर्वदरिसि धोरो॥ ४८. ते स्थविर भगवंत तिण अवसरे, श्रमण भगवंत श्री महावीरो । त्यांनैं नमस्कार वंदना करी, इम बोले गुणहीरो॥ ४६. हे प्रभजी ! तुझ आगल, च्यार याम थकी पंच यामो। __ पडिकमणा सहित धर्म प्रतै, वंछां आदरो विचर तामो।। *लय : धर्म वलाली चित करे..... ४०. अथ कथमयमेवंविधो निश्चीयते ? (वृ० प० २४६) ४१,४२. अजीवैः पुद्गलादिभिः सत्तां बिभ्रद्भिरुत्पद्यमान विगच्छभिः परिणमद्भिश्च लोकानन्यभूतः 'लोक्यते' निश्चीयते 'प्रलोक्यते' प्रकर्षेण निश्चीयते, (वृ०प०२४६) ४३,४४. भूतादिधर्मकोऽयमिति, अत एव यथार्थनामाऽसाविति दर्शयन्नाह (वृ० प० २४६) ४५. अजीवेहि लोक्कइ पलोक्कइ, जे लोक्कइ से लोए ? ४६. हंता भगवं! से तेणटेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ असंखेज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव । ४७. तप्पभिई च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीर पच्चभिजाणति सव्वण्ण सव्वदरिसी। (श० ५।२५५) ४८. तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी४६. इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहब्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जिताणं विहरित्तए। श०५, उ०६, ढाल ९५ १०६ Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. अहासुहं देवानुप्रिया! मा पार्श्व-अपत्य-स्थविर तदा, प्रतिबंध ज्ञानवंत करेहो । गुणगेहो॥ ५०. अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । (श० ५।२५६) तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहन्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उव संपज्जित्ताणं विहरंति ५१. जाव चरिमेहिं उस्सास-निस्सासेहिं सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्वुडा सव्वदुक्ख'पहीणा । अत्थेगतिया देवलोएसु उववण्णा। (श० ५।२५७) ५१. जाव चरम उस्सास निस्सास ते, सिद्धा जाव सर्व दुखक्षीणा । केतला इक देवलोक में, ऊपनां तत्व-प्रवीणा ॥ सोरठा ५८. पूर्वे आख्यो एह, देवलोक में अपनां । तेहथी हि कहेह, परूपणा सुरलोक नीं। ५३. *देवलोक प्रभ ! कतिविधा, जिन कहै च्यार प्रकारो। भवनवासी वाणव्यंतरा, जोतिषि वैमानिक सूविचारो॥ ५२. अनन्तरं 'देवलोएसु उववन्ना' इत्युक्तमतो देवलोकप्ररूपणसूत्रम्-- (वृ० प० २४६) ५३. कइविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता? गोयमा ! चउम्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा भवणवासी 'वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियभेदेणं' । ५४. भवणवासी दसविहा, वाणमंतरा अढविहा, जोति सिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा । ५४. भेद भवणवासी दसविधा, व्यंतर आठ प्रकारो। चविधा छै जोतिषि, द्विविधा वैमानिक सारो॥ ५५. स्यू ए नगर राजगृह, अंधकार उज्जोय ? समय पार्वशिष्य नीं पृच्छा, रात्रि-दिवस सुरलोय ॥ ५५. किमिदं रायगिहं ति य, उज्जोए अंधयार-समए य । पासंतिवासिपुच्छा, रातिदिय देवलोगा य ॥ (श०५।२५८ संगहणी-गाहा) ५६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (श० ५२५६) ५६. *सेवं नवमा भंते ! सेवं भंते ! प्रभ ! पंचम शतक मझारो। उद्देशा नुं अर्थ ए, प्रवर कह्य धर प्यारो॥ पंचमशते नवमोद्देशकार्थः ॥५॥ ५७. अनन्तरोद्देशकान्ते देवा उक्ता इति देवविशेषभूत चन्द्रं समुद्दिश्य दशमोद्देशकमाह५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नगरी, जहा पढमिल्लो उद्देसओ तहा नेयम्वो एसो वि, ५६. नवरं-चंदिमा भाणियव्वा । (श० ५।२६०) सोरठा ५७. नवम उदेशक अंत, वर सुरलोक चतुर्विधा । देव विशेष दीपंत, चंद्र तणु दशमेंज छै ।। ५८. *तिण कालै नै तिण समय, नगरी चम्पा नामो । प्रथम उदेशो जिम कह्य, तिम ए पिण अभिरामो ।। ५६. णवरं एतो विशेष छै, भणवं चंद्र न भावो । दसम उदेशक दाखियो, पंचम शतक कहावो । ६०. पंच नेऊमी परवरी, ढाल रसाल उदारो । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति सारो।। पंचमशते वशमोद्देशकार्थः ॥५॥१०॥ *लय : धर्म दलाली चित करे...... ११. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छंद १. कह्य वृत्तिकारे शिल्पकारक, पुरुष को कूशि कर लियै । रोहणगिरी नां देश भेदी, सन्मणीज प्रकासियै ॥ २. तिम बुद्ध जन उपदेश करि म्हैं, प्रवर पंचम शत तणां । रव प्रतै भेदी अर्थ बहु जे, कृत-प्रकाश सुहामणां ।। ३. तिमहीज भिक्षु दीर्घमालज,' नृपति-इंदु प्रसाद थी। पंचम शतक नीं जोड़ रचना, रची अति आह्लाद थी ।। ४. जिन-वयण-रयण अमूल्य है, व्यभिचारि-रहितपणे जिके । जिन-आण सिर ऊपर ठवी, समदृष्टि अंगीकृत तिके ।। १,२. श्री रोहणानेरिव पञ्चमस्य, शतस्य देवानिव साधुशब्दान् । विभिद्य कुश्येव बुधोपदिष्ट्या, प्रकाशिताः सन्मणिवन्मयाऽर्थाः ॥ (वृ० प० २४९) ढाल ६६ सोरठा १. पंचम शतक प्रकाश, आख्यो अति आनंद स्य् । वर छट्टो सुविलास, हिव अवसर आयो तसु॥ २. उद्देशक दश आद, महावेदन महानिर्जरा । ___ आहार तणो विधि वाद, पन्नवण' भणी भलावियो ।। ३. महाआश्रव छै तास, बहु पुद्गल नुं उपचय । सप्रदेशि सुविमास, अप्रदेशि स्यू जीव छै ।। १. व्याख्यातं विचित्रार्थ पञ्चमं शतं, अथावसरायातं तथाविधमेव षष्ठमारभ्यते, (वृ०प० २५०) २-५. वेदण आहार महस्सवे य सपदेस तमुए भविए । साली पुढवी कम्म अण्णउत्थि दस छ8गम्मि सए । (श० ६।संगहणी-गाहा) ३. 'महस्सवे य' त्ति महाश्रवस्य पुद्गला बध्यन्ते... 'सपएस' त्ति सप्रदेशो जीवोऽप्रदेशो वा (वृ०प० २५०) ४. भव्यो-नारकत्वादिनोत्पादस्य योग्य "सालि' त्ति शाल्यादि-धान्यवक्तव्यताऽश्रितः (वृ० प० २५०) ५. 'पुढवि' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवी वक्तव्यता...'कम्म' त्ति कर्मबन्धाभिधायक: (वृ०प० २५०) ४. तमस्काय अधिकार, नरक उपजवा योग्य ते । सालि आदि सुविचार, धान्य योनि स्थिति सातमे ॥ ५. पृथ्वी रत्नप्रभादि, कर्मबंध नवमें कह्य। अन्यतीथिक संवादि, षष्ठ शते उद्देश दश ॥ *देव जिनेन्द्र दयाल तणां शिष गोयम गणधर गिरवारे। परम प्रीत वर प्रश्न पूछंता, निज-पर-भवदधि तिरवा रे। उत्तर स्वाम अमल चित अतिहित, बिहु शिव-सुन्दर वरवा रे। (ध्र पदं) ६. हे प्रभु ! जे महावेदन पोड़ा, ते महानिर्जरवंतो रे । जे महानिर्जर ते महावेदन ? प्रश्न प्रथम ए तंतो रे ।। ७. तथा महावेदन अल्पवेदन मांहि, तेहिज श्रेय पिछाणी। जेह प्रशस्त निर्जरा प्रभुजी? जिन कहै हंता जाणी॥ १. द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी २. पग्णवणा पद २८ *लय : लाल हजारी को जामो विराज ६. से नूणं भंते ! जे महावेदणे से महानिज्जरे ? जे महा निज्जरे से महावेदणे? ७. महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थ निज्जराए? हंता गोयमा ! जे महावेदणे एवं चेव । (सं० पा०) (श० ६१) श०५, उ० ६,१०, ढाल ९५,९६ १११ Jain Education Interational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. इह च प्रथमप्रश्नस्योत्तरे महोपसर्गकाले भगवान् ___ महावीरो ज्ञातं, द्वितीयस्यापि स एवोपसर्गानुपसर्गावस्थायामिति । (वृ०५० २५१) ६,१०. यो महावेदनः स महानिर्जर इति यदुक्तं तत्र व्य भिचारं शङ्कमान आह - (वृ० प० २५१) ८. प्रथम प्रश्न नां उत्तर में प्रभु ! महा उपसर्ग काले जाण्युं । द्वितिय-उपसर्ग अने विण उपसर्ग, ए बिहं काले पिछाण्यं ।। सोरठा ९. जे महावेदनवंत, ते महानिर्जरवंत इम । भाख्यो श्री भगवंत, हिव गोयम स्वामी तदा ।। १०. ते उत्तर रै मांहि, एह वारता किणविधे । इम आशंका ताहि, करता छताज प्रश्न हिव । ११. *छठी सातमी नरक विषे तिम, छै महावेदनवंता? जिन कहै हंता इमहिज जाणो, वलि गोषम पूछता ।। १२. ते प्रभ ! श्रमण निग्रंथ थकी महानिर्जरावंत अत्यंतो ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, वलि कहै गोयम संतो।। १३. ते किण अर्थे ? प्रभु ! इम कहिये, जे महावेदनवंतो । ते महानिर्जर जाव प्रशस्त निर्जरा इम पभणतो ।। १४. ताम दृष्टांत देइनें कहै जिन, वस्त्र दोय पिछाणी । वस्त्र रंग्यो इक कर्दम रागे, चोकण कर्दम जाणी ।। १५. रंग्यो वस्त्र इक खंजण रागे, दीप-कालिमा सरखो । गाडा नों वांग तास रंगे रंग्यो, रंग्यो ते खरड्यो परखो। १६. ए बिहं वस्त्र मांहे पट केहवो, अति दुखे धोवा जोगो । कलंक जावा जोग अति दुख करि तसु, कृष्णपणुं अपजोगो।। ११. छट्ठ-सत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु नेरइया महावेदणा? हंता महावेदणा। (श० ६।२) १२. तेणं भंते ! समणेहितो निग्गंथेहितो महानिज्जरतरा? ___गोयमा ! नो इणट्ठ सम8। (श० ६३) १३. से केणं खाइ अोणं भंते ! एवं वुच्चइ-जे महा वेदणे जाव पसत्यनिज्जराए (सं० पा०) १४. गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्था सिया-एगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, १५. एगे वत्थे खंजणरागरत्ते। १७. कठिन परिकर्म-चमक उपावणी भांज बेठावणी तायो । कवण वस्त्र सुखे धोवा योग्य वलि मेल कलंक सुखे जायो ।। १८. सुखे परिकर्म करवा जोगज, ए बिहं वस्त्र मांह्यो। कर्दम खंजण करिनै खरड्यो? इम पूछ जिनरायो॥ १६. गोतम ताम कहे हे भगवंत! जे कर्दम खरड़ायो । अति दुख धोवा जोग तिको पट, अति दुख करि मल जायो ।। २०. कष्ट करी परिकर्म करिवा जोग चमक उपावणो ताह्यो। एणे विशेषण करिने ते पट, अति दुख करि सुध थायो । १६. एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं कयरे वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, 'दुद्धोयतराए' ति दुष्करतरधावनप्रक्रियं."दुर्वाम्य तरक' दुस्त्याज्यतरकलङ्कम् (वृ० प० २५१) १७. दुपरिकम्मतराए चेव; कयरे वा वत्थे सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, 'दुप्परिकम्मतराए' त्ति कष्टकर्त्तव्यतेजोजननभङ्गकरणादिप्रक्रियम् । (वृ० प० २५१) १८. सुपरिकम्मतराए चेव; जे वा से वत्थे कद्दमरागरत्ते? जे वा से वत्थे खंजणरागरत्ते ? १६. भगवं ! तत्थ णं जे से कद्दमरागरत्ते से णं वत्थे दुद्धोयत राए चेव, दुवामतराए चेव, २०. दुप्परिकम्मतराए चेव, कष्टकर्तव्यते जोजननभङ्गकरणादिप्रक्रियं, अनेन च विशेषणत्रयेणापि दुर्विशोध्यम् (वृ० प० २५१) २१. एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, २२. 'गाढीकयाई' ति आत्मप्रदेशः सह गाढ़बद्धानि सनसूत्रगाढबद्धसूचीकलापवत् । (वृ० प० २५१) २१. इण दृष्टांते करि हे गोतम ! नरक पूर्व भव मांह्यो। पाप कर्म प्रति गाढा बांध्या, अशुभ परिणाम सू ताह्यो ।। २२. गाढीकयाई-पाप कर्म दृढ आत्मप्रदेशे सांध्या । सूई-समूह ने सणसूत्रे करि, गाढपणे जिम बांध्या ।। *लय : लाल हजारी को जामो विराज ११२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. चिवणी या कर्म सूक्ष्म बंध, सरसपणे माहो मध गाह संबंध चीणा कीधा माटी नांपि जिम तायो । । २४. सिलिडीयाई ते नित कोधा, सूत्रे करीनें बंधाणो । अग्नि तप्त जिम लोह - शलाका, तास समूह पिछाणी || २५. खिलीताई एह निकाचित, भोगवियांज मुकायो । अन्य उपाय सूं एह खपायवा अशक्य कह्या वृत्ति मांह्यो । २६. अतिसय गावपण ते वेदन वेदता नारकी भावं । नहि महानिर्जर नहि महापर्यवसान तिको निर्वावे । दूहा २७. आख्यूं जे महावेदना, ते विशिष्ट जीव अपेक्षया तिण २८. यद्यपि जे महानिर्जरा, वेदन २६. श्रमण 3 पिण महा तास । तदपि बहुलपणे बहुलपणें करी, ए पिण वचन विमास || अजोगी नैं बलि, महानिर्जरा थाय । तेहनें महावेदन तणी, भजना इम वृत्ति मांय || ३०. जो दृष्टांत वलि जिन भाषे, अहिरण ने विषे आमो अघण करीनें लोहार जिहां, लोह कूटं ते अहिरण नामो || २१. कोई पुरुष एहवी अहिरण नें लोहमण करि तो । मोटे मोटे शब्द करीनें, अति परिश्रम करतो ॥ ३२. लोहण में पढ़िये करि अपनी जे ध्वनि शब्द पिछाणी । अथवा पुरुष हुंकार रूपे करि शब्द मोटे मोटे जाणी || ३२. मोटे मोटे चोष करीनं तेह शब्द ने पूठे नाद होवे ते घोष कहीजे, कहीजे, इम अहिरण ने कूटै ॥ ३४. मोटे मोटे परंपराधात करि, एह निरंतर घात ताडणा प्रते कहीजं, ऊपर ऊपर थातो । घातो ॥ महानिर्जर होय । कारण ए जोय || १५. इहविध अहिरण में नर कूटं पिण अहिरण नों त्यांही । बादर स्थूल असार पोग्गल नें, दूर करी सकै नांही ॥ २६. दुष्टांत करी है गोतम नेरवा में पापकर्मों । गाढीकयाई जाव फर्म नं. छेड़ो न आणं पम ।। *लय : लाल हजारी को जामो विराज २२. चिक्कणीकपा 'चिकणीकवाई' ति सूक्ष्मस्यानां सत्या परस्परं गाढसंबंध करणतो दुर्भेदीकृतानि तथाविधमृत्वत्, ( वृ० १० २५१) २४. सिलिट्ठीकयाई, निघत्तानि सूत्रबद्धाग्निशलाकाकलापद. ( वृ० प० २५१ ) २५. खिलीभूताइं भवंति । अनुभूतिव्यतिरिक्तोपादान्त रेग निकावितानीत्यर्थः । २६. संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवंति । क्षपयितुमशक्यानि (५० १० २५१) २७. देवं यो महावेदनः स महानिर्जर इति विशिष्ट जीवामयन्तम्पम् । ( वृ० प० २५१) २८. यद्यपि यो महानिर्जरः स महावेदन प्रायिकं । युक्तं तदपि ( वृ० १० २५१) २६. यतो भवत्ययोगी महानिर्जरो महावेदनस्तु भजनयेति । ( वृ० १० २५१) २०. अधिकरणी व लोहकारा अयोधनेन सोहानि कुट्टयन्ति । ( वृ० प० २५१ ) ३१. से जहा वा केद्र पुरिसे अहिगरण आउडेमान महया मया सद्दे ३२. अयोधनघातप्रभवेण ध्वनिना पुरुषहुकृतिरूपेण वा । ( वृ० प० २५१) ३३. महया - महया घोसेणं, ( वृ० प० २५१ ) 'घोसेणं' ति तस्यैवानुनादेन ३४. महया मया परंपराधाएणं तत्प्रधानो घातः ताडनं परम्परा निरन्तरता परम्परा घातस्तेन उपर्युपरिघातेनेत्यर्थः, (४०५०२५१ ) ३५. नो संचाए तीसे अहिंगरणीए के महाबापरे पोले परिमातिए, २६. एवमेव गोमा ! नेरयाणं पावा कम्माई गाढीयाई जाव नो (सं० पा० ) महापज्जवसाणा भवंति । श० ६, उ० १, ढाल ६६ ११३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. वस्त्र दूजा नों उत्तर दे गोयम, हे भगवंत ! शोभायो । खंजण करिने ते पट खरड़यो, सूख करि ते धोवायो। ३८. सुख करि मैल कलंक तसु जावै, वलि सुख करि कहिवायो । परिकर्म करिवा योग्य तास विषे, तेज उपावणो ताह्यो ।। ३६. इण दृष्टांत करी हे गोतम ! श्रमण निग्रंथ नै ताह्यो । यथाबादर अति हि स्थूल कर्म खंध, अधिक असार कहायो । ३७. भगवं! तत्थ जे से खंजणरागरते, से णं वत्थे सुद्धोयतराए चेव, ३८. सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव, ४०. सिदिलीकयाइं कर्म विपाक अछै तस्, जे मंद कीधा । वलि निट्ठियाइं कयाइं जे, बलहीन किया सीधा ।। ४१. विष्परिणामियाई-स्थितिघात अने रसघातादि करने ।। कर्म-विध्वंस हुवै इम शीघ्रज, अतिहि शुद्ध मुनिवर नै । ४२. जेतली तेतली वेदन मैं पिण, समचित मुनि वेदंता । महानिर्जरा कर्म तणो अंत, निर्वाण फल पावंता ।। ४३. दूजो दृष्टांत वलि जिन भाखै, पुरुष कोई पहिछाणी । सूका तणां नों पूलो अग्नि में, घालै प्रक्षेपे जाणी॥ ४४. हे गोतम ! सूको तृण-पूलो, न्हाख्यो थको अग्नि माह्यो । शीघ्र भस्म है? तब कहै गोयम, हां प्रभु ! भस्मज थायो ।। ३६. एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं अहाबायराई कम्माइं स्थूलतरस्कन्धान्यसाराणीत्यर्थः (वृ०प०२५१) ४०. सिढिलीकयाई, निट्ठियाई कयाई, प्रलथीकृतानि मन्दविपाकीकृतानि 'निट्टियाइं कयाई' ति निस्सत्ताकानि विहितानि । (वृ०प० २५१) ४१. विष्परिणामियाई खिप्पामेव विद्धत्थाई भवति । विपरिणाम नीतानि स्थितिघातरसघातादिभिः, (वृ० प० २५१) ४२. जावतियं तावतियं पिणं वेदणं वेदेमाणा महा निज्जरा, महापज्ज वसाणा भवंति ।। ४३. से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्विवेज्जा, ४४. से नूर्ण गोयमा ! से मुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जति ? हता मसमसाविज्जति । ४५. एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई ४६. जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणा भवंति । ४५. इण दृष्टांत करी हे गोतम ! श्रमण निग्रंथ नै ताह्यो । यथाबादर अति स्थल कर्म खंध, अधिक असार कहायो। ४६. जाव महापज्जवसाणा भवंति, जाव शब्द में जाणं । सिढिलीकयाइं प्रमुख पाठ है, महानिर्जरा पहिछाणं । ४७. तीजो दृष्टांत कहै वलि स्वामी, कोइ पूरुष कहिवायो। अग्नि-तप्त अयधम्यो कवेलू, जल-बिंदू जाव ताह्यो ? ४८. हंता, हां प्रभ ! विध्वंस पामै, इहविध गोयम जाणो । श्रमण तपस्वी निग्रंथ ने जावत, ह महापर्यवसाणो ।। ४७. से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदगबिंदु जाव (सं० पा०) ४८. हंता विद्धंसमागच्छइ । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणा भवंति ४६. से तेणठेणं जे महावेदणे से महानिज्जरे, जे महा निज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य सेए जे पसत्थनिज्जराए । (श० ६/४) ४६. तिण अर्थे करि जे महावेदन, ते महानिर्जर जाणी। जावत श्रेय प्रशस्त निर्जरा, तसु ए न्याय पिछाणी ।। ५०. इगसठ अंक ने देश का ए, सरस छन्नमी ढालो । भिक्षु भारोमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो॥ ११४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ६७ १. आखी पूर्वे वेदना, तिका करण थो होय । ते माटे कहियै हिवे, करण सूत्र अवलोय ।। २. हे भदंत ! कतिविध करण ? जिन कहै न्यार प्रकार । मनोकरण व्यापार तसु, वचन-करण व्यापार । १. अनन्तरं वेदना उक्ता, सा च करणतो भवतीति करणसूत्रम्--- (वृ० प० २५१) २. कतिविहे णं भंते ! करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे करणे पण्णत्ते,तं जहा–मणकरणे, वइकरणे, ३. कायकरणे कम्मकरगे। ४. कर्मविषयं करणं-जीववीयं बन्धनसंक्रमादिनिमित्तभूतं कर्मकरणं। (वृ० प० २५२) ३. काय-करण व्यापार तसू, कर्म-करण सुविचार ।। तुर्य करण नों अर्थ हिव, आख्यो वृत्ति मझार ।। ४. कर्म विषय जे करण ते, जोव वीर्य कहिवाय । बंधन संक्रम आदि दे, निमित्तभूत वृत्ति मांय ।। ५. धर्मसीह इहां इम का कर्म संजोगे ताय । कर्म बंधाइं ते भणी, कर्म करण कहिवाय ।। ६. यद्यपि तीनू जोग थी, उपशांत क्षीण सयोग । बंध सातावेदनी, इरियावहि प्रयोग ।। ७. किता करण प्रभ ! नरक में ? जिन कहै एहिज च्यार । इम पंचेंद्री सर्व नै, चउविध करण प्रकार ॥ ८. पंचेंद्रिय सगला कह्या, दंडक आश्री धार । ते सन्नी आश्री अछै, असन्नी में नहिं चार ।। ६. एकेन्द्रिय नैं करण बे, काय, कर्म ए मर्म। विगलेंद्रिय नैं तीन है, वचन काय नैं कर्म । *अहो गोयभगणि गुणनिला रे, जोवो प्रश्न प्रभ ने पूछया भला रे। (ध्र पदं) १० स्यं प्र! नारको करण थी रे, असातावेदन वेदंता रे? के अकरण थी दुख वेदना रे, वेदै कष्ट सहता रे? ११. श्री जिन भाख नारकी, करण थकी पहिछाणी । वेदै असाता वेदनी, पिण अकरण थी नहिं जाणी।। १२. किण अर्थे ? तब जिन कहै, नारकी नैं चिहं करणो । मन वच काया करण छै, कर्म करण उच्चरणो ।। ७. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा—मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे। (श० ६/६) एवं पंचिदियाणं सव्वेसिं चउव्विहे करणे पण्णत्ते । ६. एगिदियाणं दुविहे कायकरणे य, कम्मकरगे य । विगलि दियाणं तिविहे-वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे । (श० ६/७) १०. नेरइयाणं भंते !"क करणओ असायं वेदणं वेदेति ? अकरणओ असायं वेदणं वेदेति ? ११. गोयमा ! नेरइया ण करणओ असायं वेदणं वेदेति, नो अकरणओ असायं वेदणं वेदेति । (श० ६/८) १२ से केणट्टेणं ? गोयमा! नेरइयाणं चउबिहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे । १३. इच्चेएणं चउबिहेणं असुभेणं करणेणं नेरइया करणओ अस्सायं वेदणं वेदेति, नो अकरणओ । से तेणढेणं । (श०६/९) १४. असुरकुमारा णं कि करणओ? अकरणओ? १३. अशुभ ए चिहं करण करी, करण थी वेदै असातं । अकरण थी वेद नहों, तिण अर्थ आख्यातं ।।। १४. हे प्रभु ! असुरकुमार ने, करण थकी स्यूं जोयो । सातावेदनी वेदता, कै अकरण थी होयो ? * लय : राज पामियो रे करकंड कंचनपुर तणो रे ..... श०६, उ०१, ढाल ६७ ११५ Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. श्री जिन भाखै करण थी, पिण अकरण थी नांही । किण अर्थे ? तब जिन कहै, च्यार करण त्यां मांही ।। १६. मन वच काय कर्म चिउं, शुभ करणे करि सातं । असुभ करण थी वेदता, अकरण थी न आख्यातं ।। १५. गोयमा ! करणओ, नो अकरणओ। (श० ६/१०) से केण?णं ? गोयमा ! असुरकुमाराणं चउबिहे । करणे पण्णत्ते, तं जहा१६. मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे । इच्चे एणं सुभेणं करणेणं असुरकुमारा करणओ सातं वेदणं वेदेति, नो अकरणआ। (श० ६/११) १७. एवं जाव थणियकुमारा। (श० ६/१२) पुढवीकाइयाणं एवामेव पुच्छा नवरं । १८. इच्चेएणं सुभासुभेणं करणं पुढविकाइया करणओ वेमायाए वेदणं वेदेंति, नो अकरणओ। (श० ६/१३) १९. 'वेमायाए' त्ति विविधमात्रया कदाचित्सातां कदाचिदसातामित्यर्थः। (वृ० प० २५२) २०. ओरालियसरीरा सब्वे सुभासुभेणं वेमायाए । २१. देवा सुभेणं सायं। (श० ६/१४) २२. जीवा णं भंते ! कि महावेदणा महानिज्जरा? २३. महावेदणा अप्पनिज्जरा ? अप्पवेदणा महानिज्जरा? १७. इम जाव थणियकुमार ने, पृथ्वी नों इमहिज पृछा । णवरं एतलो विशेष छ, सांभलज्यो धर इच्छा ।। १८. ए शुभ अशुभ करणे करी, करण थकी पृथ्वीकायो । वेदै वेदन वेमात्रा करी, अकरण थी न वेदायो। १६. कदाचित साता प्रतै, कदाचित वेदै असातं । विविध मात्रा करी वेदता, ते वेमात्रा आख्यातं ।। २०. सर्व ऊदारिक नां धणी, करण शुभाशुभ जाणी। तिण करि वेदन वेदता, वेमात्राइं माणी ।। २१. सगलाई जे देवता, शुभ करणे करि सोयो । साता वेदन वेदता, बहुलपणे अवलोयो । २२. हे प्रभुजी ! बहु जीव ते, स्यं महावेदनवंतो । महानिर्जरा तेहनें? ए धुर भंग कहंतो॥ २३. महावेदनावंत जे अल्प निर्जरा तासो ? अल्पवेदनावंत जे महानिर्जरा जासो? २४. अल्प वेदनावंत जे, अल्प निर्जरा थायो ? ए चिउं भंगे पूछियां, उत्तर दे जिनरायो ।। २५. कितलाइक जे जीव छ, महावेदनावंतो। महानिर्जरा पिण तसु, प्रथम भंग ए कथंतो॥ २६. जीव कितायक जाणिय, महावेदनावंतो। अल्प थोड़ी तसु निर्जरा, भंग दूजे इम हुँतो ।। २७. तंत भंगो हिव तीसरो, कितलाइक जे जीवा । ____ अल्पवेदनावंत छै, महानिर्जर सुअतीवा ॥ २८. जीव किता वलि जाणिय, अल्पवेदनावंतो । अल्प-थोड़ी तसु निर्जरा, चउथो भंग सोहंतो।। २६. किण अर्थे ? तब जिन कहै, पडिमा अभिग्रहधारी । ते मुनि नै महावेदना, महानिर्जरा सारी।। २४. अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ? २५. गोयमा ! अत्थेगतिया जीवा महावेदणा महा निज्जरा, २६. अत्यंगतिया जीवा महावेदणा अप्पनिज्जरा, २७. अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा महानिज्जरा, २८. अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा । (श० ६।१५) २६. से केण?णं ? गोयमा ! पडिमापडिवन्नए अणगारे महावेदणे महानिज्जरे। ३०. छट्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्प निज्जरा। ३१. सेलेसि पडिवन्नए अणगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे । ३०. छठी सातमी रा नेरइया, महावदनावंतो। अल्प-थोड़ी तसु निर्जरा, भंग दूजो ए हंतो॥ ३१. सैलेसी मुनि मोटका, चउदशमें गुणठाणे । अल्पवेदनावंत ते, महानिर्जरा माणे॥ ११६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३२. "चउदशमें गुणठाण, अल्प वेदना तसु कही । बहुलपणे करि जाण, एहवू न्याय जणाय छ । ३३. मुनि गजसुकुमालादि, दीसै तसुं बहु वेदना । ते कारण ए साधि, भजना इहां जणाय छै ।। ३४. अथवा दूजो न्याय, कर्म निर्जरा अति घणो । ते देखता ताय, अल्प वेदना संभव"। (ज० स०) ३५. *पंच अनुत्तर नां सुरा, अल्प-वेदनावंतो। अल्प निर्जरा तेहने, सेवं भंते ! सेवं भतो ! । ३६. महावेदना अधिकार पट बे, कर्दम-खंजण खरड़ीइं । दृष्टांत अरिहण पूल तृण नों, तप्त लोह कवेलीइ । ३७. फून करण चिउं महावेदना भंग, सेवं भंते ! जाणीइ । ए शतक छठें प्रथमुदेशक, अर्थ एह पिछाणीई । ३५. अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा। (श०६।१६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ६।१७) ३६,३७. महावेदणे य वत्थे, कद्दम-खंजणकए य अहिगरणी। तणहत्थे य कबल्ले, करण-महावेदणा जीवा ।। (श० ६ संगहणी गाहा) षष्ठशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥६॥१॥ दूहा ३८. जोव वेदनासहित ते, धुर उद्देश विशेष । आहारक ते पिण हुवे, हिव ते आहार उद्देश ।। ३६. राजगृह जाव गोयम कहै, आहार उद्देशो जाणी। पन्नवण पद अठवीस में, सर्व इहां पहिछाणी ।। ३८. अनन्तरोद्देशके य एते सवेदना जीवा उक्तास्ते आहारका अपि भवन्तीत्याहारोद्देशकः । (वृ०प० २५२) ३६. रायगिहं नगरं जाव एवं वयासी-आहारुद्देसओ जो पण्णवणाए (पद २८) सो सम्बो निरवसेसो नेयम्वो। (श० ६।१८) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ६।१६) ४०. सेवं भंते ! अंक बासठ तणु, ढाल सत्ताणूमी साची । भिक्षु भारिमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति जाची ॥ षष्ठशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥६॥२॥ * लय : राज पामियो रे करकंड कंचनपुर तणा रे.. लिय : पुज मोटा भाज श० ६,उ०१,२ ढाल ६७ ११७ Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ९८ १,२. अनन्तरोद्देश के पुद्गला आहारतश्चिन्तिता, इह तु बन्धादित इत्येवं सम्बन्धस्य तृतीयोद्देशकस्यादाबर्थसंग्रहगाथाद्वयम् (वृ० प० २५२) ३-७. बहुकम्म वत्थपोग्गल-पयोगसा-वीससा य सादीए । कम्मट्ठिति त्थि संजय सम्मदिट्टी य सन्नी य ।। भविए दमणपज्जत्त भासय परित्ते नाण जोगे य । उवओगाहारग-सुहुम-चरिमबंधे य अप्पबहुं ।। (श० ६, उ० ३ संगहणी गाहा १,२) १. द्वितिय उद्दशे पुदगला, आहार थकी चितित । इहां ते बंधादिक बहु, कहिये अर्थ विचित्त ॥ २. तृतीय उद्देशक आदि में, संग्रह अर्थ तमाम । बिहं गाथाई करि कह्या, बीस द्वार नां नाम । ३. महाकर्म छै तेहन, कर्म बंध बहु थाव । पट में पुद्गल उपचय, स्यं प्रयोग स्वभाव ? ४. पट नैं पुद्गल उपचय, आदि सहित सुविचार । ___ आठ कर्म नी स्थिति कहो, चउथा द्वार मझार ।। ५. कर्म आठ बधं वलि, वेद त्रिहुं न सध । संजत समदृष्टी तणे, सन्नी भव्य नै बंध ॥ ६. चिउ दर्शण पर्याप्त नै, भासक परित्त कहाय । ज्ञान जोग उपयोगवत, स्यू अठकम बंधाय ? ७. आहारक सूक्षम चरम में, अष्ट कर्म स्यूं बंध ? अल्पबहुत्व ए सहु तणी, द्वार बीस ए संध ॥ ८. संक्षेपे करि ए कह्या, बीस द्वार नां नाम । जुआ-जुआ विस्तार करि, हिव कहिये छ ताम ।। ६. *मेरा स्वामी बे, महाकर्म छै तास, महाक्रिया छ जेहनें। मेरा स्वामी बे महा आश्रव छै जास, महावेदन छ तेहनें ।। १०. स्थिती आदि अपेक्षया, महाकर्म जेहने जाणिय । फून कायिकादिक क्रिया मोटी, तेहनै पहिचाणियं ।। ११. मिथ्यात प्रमुखज जबर आश्रव, कर्म बंध नो हेतु जसं । महावेदना महापोड़ा, वृत्तिकार का इसु ॥ १२. *एहवा जीव नै ताय, सहु दिशि थी पुद्गल लह्या । वज्झति तसु थाय, चिज्जति उवाचज्जात कह्या ।। सोरठा १३. सर्व थकी सुविशेष, ते सघली दिश नै विषे । सघला जीव प्रदेश, वज्झति संकलन थी। १४. वझति संलग्न, चिज्जति नो अर्थ इम । संचित करै अभग्न, आतम अघ-बन्धन थकी।। १५. उवचिज्जति ताहि, ते निषेक रचना थकी। प्रथम अर्थ वृत्ति मांहि, द्वितिय अर्थ कहिये हिवं ।। * लय : स्वामी भाख बे लिय : पूज मोटा भांजे ६. से नूणं भते ! महाकम्मस्स, महाकिरियस्स, महा सवस्स, महावेदणस्स १०. महाकर्मणः स्थित्याद्यपेक्षया 'महा क्रियस्य' अलघुकायिक्यादिक्रियस्य । (वृ० प० २५३) ११. बृहन्मिथ्यात्वादिकर्मबन्धहेतुकस्य 'महावेदनस्य' महापीडस्य । (वृ०प० २५३) १२. सब्बओ पोग्गला बझंति, सव्वओ पोग्गला चिज्जंति, सव्वओ पोग्गला उवचिज्जति । १३. 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु सर्वान् वा जीवप्रदेशानाश्रित्य बध्यन्ते आसङ्कलनतः । (वृ० प० २५३) १४ चीयन्ते-बन्धनतः । (वृ० प० २५३) १५. उपचीयते---निषेकरचनतः। (वृ० प० २५३) ११८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. तथा वज्भंति बंध, उवचिम्बंति संघ, १७. 'सदा निरंतर सोय, पुद्गल संकलन वी सदा निरंतर जोय, पुद्गल चय उपचय १८. सदा निरंतर तास, बाह्य आत्म तनु दृष्ट रूपपर्थे शरीर परिणमै जास, चिज्जति ते निधत्त निकाचित थी इम वर्णपर्ण देख, रसपणें पेख, १९. मूंडा नहे । भूंडा भूडा फर्शपणे रहे । अणसुंदरपणें । २०. अनिष्ट अणवंछनेतु, अकांत अप्रिय अप्रेम हेतु अशुभ अमंगल पण घणें ॥ २२. अनिच्छियत्ताए जास, पामवा अभिभित्ताए तास, ते ऊपर २१. अमणुन्न ते अमनोज्ञ, मन स्यूं पिण सुन्दर जाणे नहीं । अमणामत्ताए आरोग्य, मनसा सुमिरण हेत ही ॥ २०. अनुक्रमे वलि दुर्गन्धपणुं २६. अथवा भोगल्यो तास, तथा तंतुगत जास, जघन्यपणे । २३. अहताए अवलोय, परिणम तेह नो उडाए होय, मुख्यपणे तसु नहि गिणे ॥ थी । का ॥ बंध करे। धरै ॥ तेहनों । जेहनों ॥ २४. दुःखपणै वार वार परिणमैं बहु कर्म नों धणी । सुख नहि पामै सार ? जिन कहै हंता तिम भणी ॥ २५. किण अर्थे जगनाथ ! जिन कहै दृष्टांत देय नैं । वस्त्र एक विख्यात, भोगवियो नहि तेहनें || वस्त्र सर्व थकी पट जेह, लय: स्वामी भाखे बे नीं वांछा नहि करे । लोभ न अंग घरं ॥ धोयो ते वस्त्र तंत्र थी थी तुरत तेह, भोगवतांज पुद्गल मेल पखालियो । उतारियो ॥ कहाइवे | भराइये ॥ १६. अथवा बध्यन्ते बन्धनतः, चीयन्ते निधत्ततः, उपचीयन्ते—निकाचनतः । ( वृ० प०२५३) १७. सया समियं पोग्गला बज्यंति, सया समियं पोग्गला चिज्जंति, सया समियं पोग्गला उवचिज्जंति १८. सया समियं च ण तस्स आया दुरूवत्ताए यस्य जीवस्य पुद्गला बध्यन्ते तस्यात्मा बाह्यात्मा शरीरमित्यर्थः ( वृ० प०२५३) ११. दुष्यता दुगंधत्ताए दुरसताए दुफासताए, २०. अद्वित्ताए बताए अविवत्ताए अनुभत्ता, 'अणित्ताए' ति इच्छाया विषयतया तत्ता' ति असुन्दरता 'अपिवताए' ति प्रेमहेतुतया 'असुभत्ताए' त्ति अमङ्गत्तयतयेत्यर्थः । ( वृ प० २५३) २१. अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताए 'अमणुन्नताए त्ति न मनसा - भावतो ज्ञायते सुन्दरोऽयमित्यमनोजस्तद्भावस्तत्ता तया, 'अमणामत्ताए' त्ति न मनसा अम्यते गम्यते संस्मरणतोऽमनोऽभ्यस्तद्भावस्तत्ता तया । ( वृ० प० २५३ ) २२. अति अभिपित्ता अनीप्तितया प्राप्तुमभिवान्नित्वेन अभिय ताए' त्ति भिव्या-लोभः सा संजाता यत्र सो भिध्यितो न भिध्यितोऽभिष्यितस्तद्भावस्तत्ता तया । ( वृ० प०२५३) २३. अत्ताए तो उड्ढत्ताए, 'अत्ताए' ति जघन्यतया नो 'उडाए' तिन मुख्यतया, ( वृ० प० २५३, २५४ ) २४. दुक्खत्ताए -नो सुह्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? हंता गोयमा ! महाकम्मस्स तं चैव । ( श० ६ / २० ) २५. से केणेणं ? गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स अहयस्स वा 'अहयस्स वा' त्ति अपरिभुक्तस्य । ( वृ० प० २५४ ) २६. धोयस्स वा, तंतुग्गयस्स वा 'घोयस्स व' त्ति परिभुज्यापि प्रक्षालितस्य, तंतुगयस्स 'ति तयारीमादेवनीतमात्रस्य । (बु० १० २५४) २७. आणुपुन्नीए परिभुज्जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बज्झति, श०६, उ०३, ढाल ६८ ११६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. सर्व की बलि जोय, परिण मैं सोय, जावत सोरठा २६. बभूति पट- पुद्गल इत्यादि, पद-त्रय संवादि, कहि यबोतरं । [सं-प्रकर्षता । ३०. * जाव शब्द में जाण, पाठ पूर्व सह लीजिये । परिणमैं जिहां लग आण, तिण अर्थेज कहीजिये ॥ ३१. अल्प कर्म 8 तास, अल्प क्रिया छै जेहनें । अल्प वेदन तेहने । सर्व थकी पुद्गल वही । पूर्व संबंध तजं सही ॥ अल्प आश्रव छं जास, ३२. एहवा जीव में ताय, भिजंति भेद पाय, २२. पुद्गल सर्व श्री तेह, सर्व थकी वलि जेह, पुद्गल मेल तथा विणें । वस्त्र तेह अशुभपणें ॥ थकी छिज्जति छेदपणुं पणुं विद्धसंति ते थोड़ा २४. पुद्गल सर्व बो जाण, परिविद्धसंति कहीजिये । समस्तपणे पिछान, विध्वंसपण लीजिये ।। ३५. सदा निरंतर पेख, पुद्गल भेद छेद विध्वंस विशेख, समस्त विध्वंस १२० भगवती जोड़ लहै । रहै ॥ ३६. सदा निरंतर तास, बाह्य आत्म-तनुं भला रूपपण जास, शरीर परिणाम ३७. प्रशस्त सर्व कहत यावत सुपर्ण " बार बार परिणमंत पिण दुखपणे परिणमें नहीं ॥ ३८. हंता गोयम! जान, जाव परिणमैं किण अर्थे भगवान! हिव जिन उत्तर इम ३६. यथानाम दुष्टांत, जल्लियरस मलयुक्त वस्त्र पंकियस्स ते कहंत, आद्र मल बहू जिह सुदेखियै । विशेखिये || तेहनों । बेहनों ॥। सही । सुखपणें । भणें ॥ नै । ने I ४०. मल्लियस्स मल कठिन रइलियरस रज-युक्त अनुक्रम पट ने जन, शुद्ध करता उपक्रम धनं ॥ तणें ॥ वही । ४१. निर्मल उदक सूं ताम, ते पट धोवंतां सर्व थकी अभिराम, पुद्गल भेद पामै सही ॥ लय: स्वामी भाखे बे २८. सव्वओ पोग्गला चिज्जति जाव परिणमति । २९. 'बभंती' त्यादिना पदत्रयेणेह वस्त्रस्य पुद्गलानां च यथोत्तरं सम्बन्धप्रकर्ष उक्तः । ( वृ० प० २५४ ) ३०. से (म० ६ / २१) ३१. से नूणं भंते ! अप्पकम्मस्स, अप्पकिरियरस, अप्पासवस्स, अप्पवेदणस्स ३२. सव्वओ पोग्गला भिज्जंति, "भिन्नति त्ति प्रातशेषाद (०१० २५४) ३२. छिन्नंति सव्यओ पोला वि 1 संति, 'विद्धसति' त्ति ततोऽधः पातात् । ( वृ० प० २५४) ३४. सव्वओ पोग्गला परिविद्धसति, 'परिविद्धसंति' त्ति निःशेषतया पातात् । ( वृ० प० २५४ ) ३५. सया समियं पोग्गला भिज्जति, सया समियं पोग्गला छिज्जंति, सया समियं पोग्गला विद्धंसंति, सया समर्थ पोल परिसं ३६. सया समियं च णं तस्स आया सुरूवत्ताए ३७. पसत्यं नेयव्वं जान सुहृत्ताए (सं० पा० ) - नो दुक्खसाए योग्य परिणमति ? ३८. हंता गोयमा ! जाव परिणमति । (०६/२२) से गणं ? ३६. गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स, वा, पंकियस्स वा 'जल्लियस्स' त्ति मलयुक्तस्य, 'पंकियस्स' ति आर्द्रमलोपेतस्य ( वृ० प० २५४) ४०. मइल्लियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुव्वीए परिकमिमज्ज माणस्स 'रिस' ति कठिनमलयुक्तस्य लिस् रजोयुक्त परिकम्मिग्नमाणस्स त्ति क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमस्य । ( वृ० प० २५४) ४१. वारिणा धोबेमागस्य सव्वलो पाला freefr Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभपणें । भणें ॥। कही । भिक्खु भारीमाल ऋषराय 'जय जय' सुख संपति लही ॥ ४२. यावत परिणमैं जाण, वस्त्र तिकोहिज तिण अर्थे पहिछाण, प्रथम द्वार इह विध ४३. देश त्रेसठ अंक आय ढाल अठाणमी , ढाल : ६६ दूहा १. पट ने प्रभु! गुद्गल तणो उपचय वृद्धि कहाय । प्रयोग पुरुष व्यापार करि तथा स्वभावे धाय ॥ J २. जिन कहै पुरुष व्यापार करि, पट-पुद्गल वृद्धि पाय । स्वभाव करि पिछे वलि हिव गोतम पूछाय ॥ ३. जिह विध प्रभुजी पट वर्ष पुगल-उपचय जोय । ! पुरुष व्यापार प्रयोग करि स्वभाव करि पिण होय ।। ४. तिह विध प्रभुजी ! जीव रै, कर्मोपचय वृद्धि कहाय । निहं प्रयोग त्रिहुं प्रयोग करके हुवै, के स्वभाव कर थाय ? ५. जिन कहे जीव व्यापार करि कर्मबंध अवलोय | स्वभाव करि कर्मां तणो, बंध नहीं है कोय ।। ६. स्वभाव थी जो बंध हुवै, तो सिद्ध चउदम ठाण | तेन पिण कमी तणो, कर्मा बंध प्रसंग पिछाण ॥ ७. किण अर्थे ? तब जिन कहै, जीव त सुविचार | त्रिविध प्रयोग परूपिया, मन वच काय व्यापार ॥ एहिं व्यापारे करी, बहु जीवां रे जोय । कर्म वृद्धि प्रयोग करि स्वभाव थी नहि होय ॥ ९. इम सहु पंचेंद्री तणें, त्रिहुं प्रयोग कर्म-बंध । पंचेंद्रिय दंडक मभै, सन्नी आश्री संध || १०. इक प्रयोग करि कर्म वृद्धि एकेंद्रिय न वच दोय प्रयोग करि, विकलेंद्रिय में होय । जोय ॥ ११. तिण अर्थ यावत कह्यो, स्वभाव थी नहि होय । इम ज प्रयोग जेहनें, जाव वैमानिक जोय ॥ १२. "जोग अपेक्षा हां कह्या, मन वच काय संवादि । हेतु बलि, न कला मिध्यात्वादि ॥ कर्म बंध ४२. जाव परिणमति । से तेणट्ठेणं । १. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए कि पयोगसा ? वीससा ? 'प्रयोगेण' पुरुषव्यापारेण विस्रसया स्वभावेनेति । (बु० प० २५४) २. गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि । (श० ६/२०) (०६/२४) ३. जहां णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा वि, वीससा वि, ४. तहा णं जीवाणं कम्मोचए कि पयोगसा ? वीससा ? ५. गोयमा ! प्रयोगसा, नो वीससा । ७. गम! जीवा तिविहे योगे ते तं जहा योगे योगे, कावण्य योगे । ८. एवं तिविहे योग जीवा कम्मो ए पयोगसा नो वीससा । ६. एवं सदेखि पाँचदिमागं तिविहे पयोगे भाणि। ( श० ६ / २५) १०. पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पयोगेणं एवं जाव वणस्सइकायाणं विगलिदियाणं दुविहे योगे पण, यं जहा - वइपयोगे, कायपयोगे य । ११. से तेणट्ठेणं जाव नो (सं० पा० ) जस्स जो पयोगो जाव वैमाणियाणं । वीससा । एवं ( श० ६ / २६) श० ६, उ० ३, ढाल ६८,६६ १२१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आश्रव पांच जिन कह्या, पंचम ठाणे पेख । __ वलि समवायग नै विष, मिथ्यात्वादि अशेख ।। १४. जीव तणो व्यापार ए, जोग विना अवदात । मिथ्यात्वादिक – विषे. छै तसु इहां न आत ।। १३. पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा--मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया, जोगा । (ठाणं ५/१०६) पंच आसवदारा पण्णत्ता तं जहा-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। (समवाओ ५।४) १५. जीवकिरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मत्त किरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया चेव । (ठाणं २।३) १६. सम्यक्त्वं-तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारात् क्रिया सम्यक्त्व क्रिया (ठाणं वृ०प०३७) १७. एवं मिथ्यात्वक्रियाऽपि, नवरं मिथ्यात्वम् -अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति (ठाणं वृ०प० ३७) १५. जोव क्रिया नां भेद बे, ठाणंग दूजै ठाण । धुर सम्यक्त्व क्रिया कहो, किया मिथ्यात्व पिछाण ।। सोरठा १६. सम्यक्त्व तत्वश्रद्धान, ते जीव व्यापारपणां थकी। क्रिया कहीजै जान, सम्यक्त्व किरिया ते भणी ।। १७. मिथ्या अतत्व श्रद्धान, ते पिण जीव व्यापार छ । मिथ्यात्व किरिया जान, प्रथम उद्देशक वृत्ति में । १८. ए कह्यो जीव व्यापार, पिण जोगरूप ए छै नथी । त्रिहं जोगां थी न्यार, तेहनों कथन नथी इहां ॥ १६. अव्रत ने प्रमाद, वलि कषाय आश्रव थको । कर्मबंध संवाद, ए पिण जीव परिणाम छै॥ २०. जीव परिणाम व्यापार, ए च्यारूं आश्रव तिके । त्रिहं जोगां थी न्यार, तास कथन न कियो इहां ॥ २१. आख्या तीन प्रयोग, मन वचन काया तणा । ए छै आश्रव जोग, तेहनों कथन इहां कियो॥" [ज० स०] * प्रभु! वीनतड़ी अवधार जी, वर प्रश्न गोयम हद कीधोजी । काइ दे। देवेन्द्र दयालजो, उत्तर देवै सोधोजी ॥ध्र पदम्॥ २२. वस्त्र नै पुद्गल तणो, उपचय--वृद्धि थायोजो । आदि-सहित अत-सहीत छ ? ए धुर भंग पुछायोजी ।। २३. आदि-सहित अत-रहित छ ? के अनादि अंत-सहीतो । के अनादि अंत-रहित छै ? ए चिहं भंग प्रतीतो॥ २४. ताम कहै जिन पट तणे, पूदगल उपचय थायो । आदि-सहित अंत-सहित छ, धोयां उतरै ते न्यायो। २५. सादि रु अंत-रहित नहीं, नहीं अनादि सतो । आदि-रहित अंत-रहित ही, ए पिण भंग न हुतो ।। २६. जिम प्रभुजी ! वस्त्र तणे, पुद्गल उपचय थायो । सादि रु अंत-सहित छ, त्रिहुं भंगे न कहायो ।। २२. वत्थम्स णं भंते ! पोग्गलोवचए कि सादीए सपज्ज वसिए ? २३. सादीए अपज्जवसिए ? अणादीए सपज्जवसिए ? अणादीए अपज्जवसिए ? २४ गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोयचए सादीए सपज्ज बसिए, २५. नो सादीए अपज्जवसिए, नो अणादीए सपज्जवसिए नो अणादीए अपज्जवसिए। (श०६।२७) २६. जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्ज वसिए, नो सादीए अपज्जवसिए, नो अणादीए सपज्जवसिए, नो अणादीए अपज्जवसिए, २७. तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा। २७. तिमहिज बहु जीवां तणे, कर्म न उपचय होयो । चिउ भंगे पूछा करी, हिव जिन उत्तर जोयो ।। *लय : कुशल देश सुहामणो १२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. वेसलाएक जीव तणं कर्म आदि सहित अंत-सहित ते, ए धुर २६. केतलाएक जीवां त अनादि जीवां तणं, केतला एक ३०. निश्च न जीवां तर्ण, सादिरु अंत-रहित ते ए ३१. किण अर्थे ? तब जिन कहे, उपचय तेह कर्म तणो, ३२. इरियावहि नो त्रिहुं गुणठाणे संघ, ३३. इरियावहि संवादि, तेह बंधने सादि थायो । भंगो पायो । अंत-सहोतो । अंत-रहीतो ॥ अनादि कर्म नों उपनय वाह्यो । जो भंग न थायो ॥ इरियावहि सुवदीतो । साविरु अंत-सहीतो ॥ नों उपचय सोरठा बंध, ग्यारस बारम तेरमैं | आदि सहित अंत सहित ते ॥ पूर्वे कदहो नहि अंत बंध्यो । गुणठाणें चवद । सोरठा ४२. नरकादिक रे मांग सादि वलि आगमन कराय, ते लय: कुशलदेश मुहामणो २. अवशेष १. भव्य ३४. *कमपचय भवसिडिया' नं मोक्षगामी जे जीव छे, ते ३५. अभवसिद्धिया ने अ कर्म नुं अनादि अंत-रहित ते, तिण अर्थ ३६. पट नें स्यूं कहियै प्रभु ! सादि रु चउभंगे पूछा करी, जिन उत्तर ३७. वस्त्र आदि सहित छै, अंत-सहित पट तीनू भांगा थाकतः', पावे नहि ३८. आदि सहित जिम पट अर्थ, अंत-सहित पिग शेष त्रिहुं भंगा तिके, तास निषेध ! अनादि आश्रयी अंत-सहीतो । सुप्रतीतो ॥ भारी । सुविचारी ॥ अंत होतो ? सुवदीतो ॥ होयो । उपचय ३१. तिम जीवा स्पं चउभंगे पूछा ४०. जीव सादिया अंत-साहित कियां, तब भाख सादिया अंत-सहितज भणवा जिन वच ४१. किण अर्थ ? तब जिन कहै, नरक तिरि मनु देवा | ए गति आगति आश्रयी, सावि-सअंत होई । कितायक प्यारुई भंगा जिके, जोई ॥ । कहेवा || गमन आश्रयी कोयो ॥ हो । कहो || कहाया । जिनराया ।। आभी अछे । सअंत छै ॥ २५. गोयमा ! अत्थेगतियाणं जीवाणं कम्मोवचए सादीए सपज्जवसिए, २६. अत्थेगतियाणं अणादीए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं अणादीए अपज्जवसिए, ३०. नो देव णं जीवाणं कम्मोनच सादीएसए ( श० ६।२८ ) रावबंधपर कम्मो २१. से? गोवा वचए सादीए सपज्जवसिए, ३२, ३३. ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवर्यापथिकं केवलयो प्रयोगस्थ कर्मेत्यर्थः तद्बन्धक शेषशान्महस्व क्षीणमोहस्य सयोगिकेवलिनश्चेत्यर्थः ऐर्यापथिककर्मणो हि पूर्वस्य बन्धनात् सादिरयं अयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपाते वाऽबन्धनात् सपर्यवसितत्वं । (० ०२५५) ३४. नवसिद्धियस्स मोवीए ३५. वा कम्मोचनए अणादीए अपवतिए । तेणेणं । (श० ६।२९) ३६. वत्थे णं भंते! कि सादीए सपज्जवसिए—चउभंगो ? ३७. गोयमा ! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, अवसेसा 'पा ( ० ६०२०) ३८. जहा गं भवत्ये सादी सपनो सादीए अवसिनो अादीएसए नो अजादीए अपसिए ३६. तहा णं जीवा किं सादीया सपज्जवसिया ? चउभंगो पुच्छा। ४०. गोयमा ! अत्थेगतिया सादीया सपज्जवसियाचत्तारि वि भाणियन्त्रा । (we stat) ४१. से के? गोपमा नेरतिय तिरिक्लोपिय मणुस्स देवा गतिरागति पडुच्च सादीया सपज्जवसिया । ४२. नारकादिगतौ गमनमाश्रित्य श्रित्य सपर्यवसिताः । सादय: - आगमनमा( वृ० प० २५५ ) श ६, उ० ३, ढाल ६६ १२३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. सिद्धा गतिं पडुच्च सादिया अपज्जवसिया, ४३. सिद्धा गति आधी तस, आदि-सहित कहिवायो। अंत-रहित कह्या वलि, अल्पकाल पेक्षायो। सोरठा ४४. "उत्तराध्येन मझार षटतीसम अध्ययन में । पैंसठमी सुविचार गाथा में अधिकार ए॥ ४५. वांछित इक सिद्धापेक्षाय, आदि-सहित अंत-रहित छ । सह सिद्ध आश्री ताय, आदि-रहित अंत-रहित ए" || (ज० स०) ४६. *भव्यपणां नी लब्धि आश्रयी, भवसिद्धिया ने ताह्यो । अनादि अंत-सहित छ, ए मुक्तिगामी कहिवायो। ४७. अभवसिद्धिया जीवड़ा, संसार आश्री जाणी। अनादि अंत-रहित छ, तिण अर्थे इम वाणी।। ४८. कर्म प्रकृति प्र! केतली? आठ कहै जिनरायो। ज्ञानावरणी आदि दे, यावत वलि अंतरायो।। ४५. एगत्तेण साईया, अपज्जवसिया वि य । पुहुत्तेण अणाईया, अपज्जवसिया वि य ।। (उत्तर० ३६।६५) ४६. भवसिद्धिया लद्धि पडुच्च अणादीया सपज्जवसिया, 'भवसिद्धिया लद्धि' मित्यादि, भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः सिद्धत्वेऽपैतीति कृत्वाऽनादिसपर्यवसिता चेति । (वृ० प० २५५) ४७. अभवसिद्धिया संसारं पड़च्च अणादीया अपज्ज वसिया। से तेण?णं । (श० ६।३२) ४८. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावरणिज्जं दरिसणावरणिज्जं जाव (सं० पा०) अंतराइयं । (श०६।३३) ४६. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधट्ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, ५०. उक कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, ४६. ज्ञानावरणी कर्म नी, बंध-स्थिति केतलो कालो? श्री जिन भाखै जघन्य थी, अंतर्महर्त निहालो।। ५०. उत्कृष्टी ए तीस छै, सागर कोडाकोड़ो। तीन सहस्र वर्षां तणो, काल अबाधा जोड़ो॥ ५१. बाधा-कर्मण उदयः न बाधा अबाधा-कर्मणो बन्धस्योदयस्य चान्तरं । (वृ० प० २५५) ५१. कर्म उदय बाधा कह्य, कर्म उदय नहि आय । तेह अबाधा नं अरथ, बंध उदय बिच ताय ।। ५२. "उत्कृष्टी स्थिति नों बंध्यो, ज्ञानावरणो जेह । तीन सहस्र वर्षां लगै, उदय न आवै तेह ।। ५३. तिण सं कर्म नां बंध न, अनैं उदय नों काल । बीच अबाधा काल ए, तीन सहस्र वर्ष न्हाल" || (ज० स०) ५४. तेह अबाधा ऊण जे, कर्म-स्थिति छै जेह । __ कर्म-निषेक हुवै तसु, उदय आयां थी एह ॥ ५५. कर्म दलिक ने भोगवा, तसु रचना सुविशेख । कर्म निषेकज नाम तसं, प्रवर न्याय संपेख ।। ५६. प्रथम समय बहु भोगवै, द्वितिय समय वलि जाण । तेहथी थोड भोगवे, तीजै अल्प पिछाण ।। 'लय : कुशलदेश सुहामणो १२४ भगवती-जोड़ ५४. अबाहुणिया कम्मट्रिती-कम्मनिसेओ। अबाधया-उक्तलक्षणया ऊनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्भावस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्मनिषेको भवति । (वृ० प० २५५) ५५. तत्र कर्मनिषको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनाथ रचनाविशेषः । (वृ० प० २५५) ५६. तत्र च प्रथमसमये बहुक निषिञ्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनम्, (वृ०प० २५५) Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. एवं यावदुत्कृष्ट स्थिति के कर्मदलिक तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति । (वृ०प०२५५) ५८. एवं दरिसणावरणिज्जं पि । (सं० पा०) वेदणिज्जं जहण गेणं दो समया, ५७. इह विध भोगवतां छता, चरम समय अवधार । अतिही अल्पज भोगवै, ए निषेक सुविचार ।। ५८. *दर्शणावरणी दूसरो, इणहिज विध अवलोयो। जघन्य स्थिति वेदनी तणी, कहिये समया दोयो । ५६. ग्यारम बारम तेरमें, गुणठाणे ए बंधो । भेद सातावेदनी तणो, इरियाव हि जिनचंदो। ६०. स्थिति समय बे जेहनी, पढम समय बंध पत्तो । बीजे समये भोगवै, केवल जोग निमित्तो ।। ६१. सकषाई रै सातावेदनी, बंध ए संपरायो । द्वादश मुहूर्त जघन्य थी, तेवीसमां' पद मांह्यो। ६२. उत्कृष्ट स्थिति वेदनी तणी. ज्ञानावरणी तिम जाणो । जघन्य स्थिति मोहणी तणी, अंतमहतं पिछाणो ।। ६३. उत्कृष्ट स्थिति मोहणी तणी, सित्तर सागर कोडाकोड़ो। सात सहस्र वर्षां तणो, काल अबाधा जोड़ो ।। ६४. जघन्य स्थिति आउखा तणी, अंतर्मुहुर्त आखी । उत्कृष्टी बलि तेहनी, सागर तेतीस भाखी ।। ६५. पूर्व कोड़ तणो वलि, अधिक तीजो भाग जोयो । कर्म-स्थिति एहने विषे, कर्म-निषेकज होयो ।। ६६. नाम गोत्र नी स्थिति कही, जघन्य मुहूर्त अठ जोड़ो। उत्कृष्टी स्थिति तेहनी, बीस सागर कोड़ाकोड़ो । ६७. दोय सहस्र वर्षां तणो, काल अबाधा आख्यो । अबाधा ऊणी स्थिति विषे, कर्म-निषेकज भाख्यो ।। ६८. स्थिति कर्म अंतराय नी, ज्ञानावरणो जेमो । तुर्य द्वार ए आखियो, सुध सरध्यां सुख खेयो।। ६६. कर्म ज्ञानावरणी प्रभु! स्त्री पुं नपुंसक बांधै । तथा अवेदी रै बंधै ? हिव जिन उत्तर सांधे।। ६०,६१. केवलयोगप्रत्ययबन्धापेक्षया वेदनीयं द्विसमय स्थितिकं भवति, एकत्र बध्यते द्वितीये वेद्यते, यच्चोच्यते 'वेयणियस्स जहन्ना बारस...."तत्सकषायस्थितिबन्धमाश्रित्येति वेदितव्यम् । (वृ० प० २५७) ६२. उक्कोसेणं जहा नाणावरणिज्ज । (म० पा०) मोहणिज्ज जहण गेण अंतोमुहुत्तं । ६३. उक्कोसेणं सत्तरिसागरोबमकोडाकोडीओ, सत्त य वाससहस्साणि अबाहा, ६४. आउगं जहणणं अंत्तोमहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीम साग रोवमाणि ६५. पुब्बकोडितिभागमभहियाणी कम्म द्विती-कम्मनि सेओ। ६६, नामगोयाणं जहणणं अट्रमहत्ता, उक्कोसेण वीसं सामशेवमकोडाकोडीओ। ६७. दोण्णि य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्म द्विती-कम्मनिसेओ। ६८. अंतराइयं जहा नाणावरणिज्ज । (सं० पा०) (श० ६।३४) ६६. नाणावरणिज्जंग भते ! कम्मं कि इत्थी बंधइ? पुरिसो बंधइ ? नपुसओ बंधइ ? नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ बंधइ ? ७०. गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, नपुंसओ वि बंधइ । नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ। ७०. त्रिहं वेदी बांधै सही, अवेदी रै कहाई । कदाचित बांधे अछ, कदाचि नहीं बंधाई।। ७१. "दशमां गुणठाणा लगे, ज्ञानावरणी बंध । आगल ते बंधे नहीं, भजना कर इम संध ।। *लय : कुशल देश सुहामणो १.५० प० २३।६३ । श०६, उ०३, ढा०६६ १२५ Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. नवमें गुण आयू बिना, सप्त कर्म बंधाय । दशमें बंध कर्म षट, आयु मोह विण ताय' ।। (ज० स०) ७३. *इम आय वरजी करी, सात कर्म कहिवायो । ___ आयू त्रिहुं वेदो तिके, भजनाई बंधायो।। यतनी ७४. "आयु बंध काले बंधाय, अन्य काले न बांधै ताय । तिण सूं भजन। बिहु वेद मांहि, अवेदी र आयु बंध नांहि ।। ७५. आयु प्रारंभ्यो छठे जेह, सातमें पिण बांधै तेह । अवेदी नवमां थी कहाय, तिण सं अवेदी रैन बंधाय" । (ज० स०) ७६. देश त्रेसठमा अंक नों, निन्नाणमीं ढालो। भिक भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' हरष विशालो।। ७३. एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ। (श०६।३५) आउगं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ ? पुरिसो बंधइ ? नपुंसओ बंधइ ? नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुसओ बंधइ ? गोयमा! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधश् । पुरिसो सिय बंधइ, सिय नो बंधइ । नपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ। नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसओ न बंधइ। (श० ६।३६) ढाल : १०० दूहा १. ज्ञानावरणी कर्म प्रभु! स्यं संजति बांधत ? ___असंजती बांधं अछै? संजतासंजती हुंत ? २. नोसंजति नोअसंजति, संजतासंजति नाय । एहवा सिद्ध बांधै अछ ? हिव जिन भाख वाय ।। ३. संजति रै बंधे कदा, कदाचि नहि बंधाय । चिहुं चारित्रिया रै बंधे, यथाख्यात में नाय । १. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं कि संजए बंधइ? अस्संजए बंधइ ? संजयासंजए बंधइ ? । २. नोसंजए नोअसंजए नोसंजयासंजा बंधइ ? ४. असंजती गुणठाण चिह, ते पिण बांधै एह । संजतासंजति पंचमें, गणठाणे बांधेह ।। ३. गोयमा ! संजए सिय बंधइ, सिय नो बंधइ । 'संयतः' आद्यसंयमचतुष्टय वृत्तिर्ज्ञानावरणं बध्नाति, यथाख्यातसंयतस्तूपशान्तमोहादिर्न बध्नाति । (वृ०प०२५६) ४. अस्संजए बंधइ, संजयासंजए वि बंधइ। असंयतो मिथ्यादृष्ट्यादिः संयतासंयतस्तु देश विरतः । (वृ० प० २५६) ५. नोसंजए नोअस्संजए नो संजयासंजए न बंधइ । निषिद्धसंयमादिभावस्तु सिद्धः। (वृ० प० २५६) ५. नोसंजति नोअसंजति, संजतासंजत नांहि । तेहने पिण बंध नहीं, सिद्ध कहीजे ताहि ।। *लय : कुशल देश सुहामणो १२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। ६. इम आयू वरजो करी, सात कर्म पहिछाण । आय नीं पूछा कियां, उत्तर इह विध जाण ।। ७. संजति असंजति वलि, संजतासंजति न्हाल । बंध काले बांधै त्रिह, नहिं बांधै अन्य काल । ८. ते माटे भजना कही, धुरला विहं नैं ताय । ऊपरलो त्रिहुं रहित सिद्ध, तसु आयू न बंधाय ।। *कर जोड़ी गोयम कहै । (ध्र पदम्) ६. ज्ञानवरणो स्यूं प्रभु ! समदृष्टि बांधतो जी ? मिथ्यादृष्टि बांधतो, समामिच्छदिट्ठी हंतो जो ? ७,८, आउगे हेछिल्ला तिण्णि भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ। (श०६।३७) संयतोऽसंयतः संयतासंयत श्चायुर्बन्धकाले बध्नाति अन्यदा तु नेति भजनयेत्युक्त, सयतादिषूपरितनः सिद्धः स चायुर्न बध्नाति । (वृ० प० २५६) है. नाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंधइ ? मिच्छदिट्ठी बंधइ ? सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ? १०. गोयमा ! सम्मदिट्टी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ । १०. जिन कहै समदृष्टी तिको, कदाचित बांधतो । कदाचित बांधै नहीं, तास न्याय इम हंतो ।। (वीर कहै सुण गोयमा !) सोरठा ११. राग-सहित समदृष्ट, तेहनै ए बंधै अछ। वीतराग मुनि इष्ट, तेह तणे बंधै नथी। ११. सम्यग्दृष्टिः वीतरागस्तदितरश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बध्नाति एकविधबन्धकत्वात् इतरश्च बध्नातीति स्यादित्युक्तं, (वृ० प० २५६) १२. मिच्छदिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ। एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। १३ आउगे हेट्टिल्ला दो भयणाए, १२. *मिथ्यादृष्टि सम्मामिथ्या, ए बेहं रै बंधायो । इम आयू वरजो करी, सात कर्म कहिवायो । १३. हिवै आउखो कर्म ते, समदष्टि रै तायो । वलि मिथ्यादष्टिी तणे, भजनाइं बंधायो।। यतनी १४. आठमां थी आयु न बंधाय, और समष्टि रै ताय । बंध काले आउखो बांधे, अन्य काले आयु नहिं सांधे ।। १५. इम मिथ्यादष्टि रै ताय, बंध काले आउखो बंधाय । अन्य काल विष न बंधाय, तिण सं भजना कही जिनराय ।। १६. *मिश्रदृष्टि बांधै नहीं, आयुबंध अध्यवसायो । ते स्थानक नां अभाव थी, तास अबंध कहायो ।। १४. इतरस्तु आयुर्बन्धकाले तद् बध्नाति अन्यदा तु न बध्नाति । (वृ० प० २५६) १५. एवं मिथ्यादृष्टिरपि । (वृ०प० २५६) १७. ज्ञानवरणी स्यं सन्नी, कै असन्नी बांधतो? ___'सन्नी असन्नी बिहु नहीं',' ते बांधे भगवंतो? १८. जिन कहै सन्नी बांधे कदा. कदाचित नहिं बांधंतो। अबंध ग्यारमै बारमैं, अन्य तणे बंध हंतो। १६. सम्मामिच्छदिट्ठी न बंध। (श० ६।३८) मिश्रदृष्टिस्त्वायुर्न बनात्येव तद्बन्धाध्यवसायस्थानाभावादिति । (वृ० प० २५६) १७. नाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं कि सण्णी बंधइ ? असण्णी बंधइ ? नोसण्णी नोअसण्णो बंधइ ? १८. गोयमा ! सण्णी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ । स च यदि वीतरागस्तदा ज्ञानावरणं न बध्नाति यदि पुनरितरस्तदा बध्नाति । (वृ० प० २५६) *लय : कर जोड़ी आगल रही १ नोसन्नी नोअसन्नी श०६, उ० ३, ढा० १०० १२७ Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. असन्नी ए बांधै सही, सन्नी असन्नी नांही। ते तो ए बांध नहीं, केवली सिद्ध ते मांही ॥ २०. वेदनी आयू वरज ने, इम छ कर्म कहिवायो । वेदनी सन्नी बांध अछ, असन्नी पिण बांध ताह्यो। २१. सन्नी असन्नी बिहं नहीं, ए भजनाइं बांधे । तेरम गुणठाणे बंधे, सिद्ध अजोगी न सांधे ।। १६. असण्णी बंधइ । नोसण्णी नोअसण्णी न बंधइ । 'नोसन्नीनो असन्नि' त्ति केवली सिद्धश्च न बध्नाति । (वृ० प० २५६) २०. एवं वेदणिज्जाउगवज्जाओ छ कम्मपगडीओ। वेद णिज्ज हेट्ठिल्ला दो बंधंति । सज्ञी असञी च वेदनीयं बध्नीतः, (वृ० प० २५६) २१. उवरिल्ले भयणाए। नोसज्ञीनोअसञी, स च सयोगायोगकेवली सिद्धश्च, तत्र यदि सयोग केवली तदा वेदनीयं बध्नाति, यदि पुनरयोगिकेवली सिद्धो वा तदा न बध्नाति । (वृ० प० २५६) २२. आउगं हेट्ठिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ । (श० ६।३६) २२. आउखो सन्नी असन्निया, भजनाइं बंधायो । ___ सन्नो असन्नी बिहुं नहीं, तास अबंध कहायो।। २३. "ज्ञानावरणी क्षयोपशमे, भाव मन जसु होय । सन्नी कहियै तेहने, बारम गुण लग जोय।। २४. ज्ञानवरणी कर्म नों, तेरम क्षायक थाय । केवलज्ञानी ते भणी, सन्नी कहिये नांय"। (ज० स०) २५. *ज्ञानावरणी स्यं प्रभु ! भवसिद्धिक जे बांध ? के बांधे अभवसिद्धियो, नोभव नोअभव सांधे ? २६. जिण भाखै भवसिद्धियो, भजनाइं करि बांधै । वीतराग बांध नहीं, सरागी भव' सांधे ।। २७. अभवसिद्धिक बांधै अछै, भव्य-अभव्य बिहु नाही। तेहनै पिण बंधै नहीं, सिद्ध कह्या इण मांही। २५. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं भवसिद्धिए बंधइ ? अभवसिद्धिए बंधइ ? नोभवसिद्धिए नोअभव सिद्धिए बंधइ? २६. गोयमा ! भवसिद्धिए भयणाए, भवसिद्धिको यो वीतरागः स न बहनाति ज्ञानावरणं तदन्यस्तु भन्यो बध्नातीति । (३० प० २५६) २७. अभवसिद्धिए बंधइ। नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए न बंधइ। 'नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए' त्ति सिद्धः, (वृ० १० २५६) २८. एवं आउगवज्जाओ सत्त वि । आउगं हेट्ठिला दो भयणाए। २६. उवरिल्ले न बंधइ । (श०६।४०) 'उवरिल्ले न बंधई' त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः (वृ० प० २५६) ३०. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं चक्खुदंसणी बंधइ ? अचखुदंसणी बंधइ ? ओहिदंसणी बंधइ ? केवलदसणी बंधइ? २८. इम आयू वर्जी करी, सात कर्म कहिवायो । आयु भव्य अभव्य बिहं. भजनाइं बंधायो । २६. भव्य अभव्य दोन नहीं, तेह. सिद्ध कहीजै । सिद्ध आयु बांधै नहीं, सुख अविचल सलहोजै ।। ३०. ज्ञानावरणी स्यूं प्रभु ! चक्षु-दर्शनी बांधै ? __ अचा-अवधिदर्शनो, केवलदर्शनी सांध? *लयः कर जोड़ी आगल रही १ मवसिद्धिक १२८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. जिन कहै धुर त्रिहुं दर्शनी, भजनाई बंधायो । ग्यारम बारम नहि बंध, बंध सागी रै थायो । ३१. गोयमा ! हेछिल्ला तिण्णि भयणाए, चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनिनो यदि छद्मस्थवीतरागास्त दा न ज्ञानावरणं बध्नन्ति, वेदनीयस्यैव बन्धकत्वात्तेषां, सरागास्तु बध्नन्ति । (वृ० प० २५६) ३२. उवरिल्ले न बंधइ । एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि। ३३. वेदणिज्ज हेदिल्ला तिण्णि बंधंति, केवलदसणी भयणाए। (श० ६।४१) ३२. वारू केवलदर्शनी, तेहनैं ए न बंधायो। इम वेदनी वर्जी करी, सात कर्म कहिवायो ।। ३३. वेदनी धुर विहं दर्शनी, बांधै छै अवलोयो । भजनाई केवलदर्शनी, तास न्याय इम होयो ।। . सोरठा ३४. कर्म वेदनी जोय, लेरम गुणठाणे बंधै । चवदम गण सिद्ध सोय, तास वेदनी नहिं बंधै ।। ३५. *ज्ञानावरणी पर्याप्तो, के अपर्याप्तो बांध ? पज्जत अपज्जत बिहं नहीं, ते बांधेवं सांधै ? ३४. केवल दर्शनी सयोगिकेवली बध्नाति अयोगिकेवली सिद्धश्च वेदनीयं न बध्नातीति। (वृ० प० २५६) ३५. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं पज्जत्तए बंधइ ? अपज्जत्तए बंधइ ? नोपज्जत्तए नोअपज्जत्तए बंधइ? ३६. गोयमा ! पज्जत्तए भयणाए, ३६. जिन भाखै पर्याप्तो, भजनाई करि सांधे । कदाचित बांधै अछ, कदाचित नहि बांधे । यतनी ३७. पर्याप्त वीतरागी होय, वले सरागी पिण अवलोय । ज्ञानावरणी सरागी बंधाय, वीतरागी रै ए बंध नांय ।। ३७. पर्याप्तको वीतरागः सरागश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बध्नाति सरागस्तु बध्नाति । (वृ० प० २५६) ३८. अपज्जत्तए बंधइ । नोपज्जत्तए नोअपज्जत्तए न बंधइ। ३६. एवं आउगवज्जाओ सत्त वि । आउगं हेट्रिल्ला दो भयणाए, ३८. *अपर्याप्त बांधै सही, ज्ञानावरणी ताह्यो । पज्जत अपज्जत बिहं नहि, ते सिद्ध रैन बंधायो।। ३६. इम आयू वर्जी करी, सात कर्म नुं विरतंतो । आयू पज्जत अपज्जत नै, भजनाइं बंध हुँतो॥ यतनी ४०. बायु कर्म पर्याप्तो जाण, वले अपर्याप्तो पिछाण । बिहं बंध काले बांधत, अन्य काले बंध न हुंत ।। ४१. *पज्जत अज्जत बिहुं नहीं, ते तो सिद्ध शोभाया । ते आउखो बांधे नहीं, जामण मरण मिटाया । ४२. ज्ञानावरणी स्यं प्रभु ! भाषक बांध सोई। __ अभाषक बांधै अछै ? जिन कहै भजना दोई । ४०. पर्याप्तकापर्याप्तकावायुस्तबन्धकाले बध्नीतोऽन्यदा नेति भजना। (वृ० प० २५६) ४१. उवरिल्ले न बंधइ । (श० ६।४२) नहीं, जामक बांधै लाई । ४२. नाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं किं भासए बंधइ ? अभासए बंधइ? गोयमा ! दो वि भयणाए । यतनी ४३. भाषा-लब्धिवंत पहिछान, तेहनै भाषक कहिये जान । तेहथी अन्य जीव जे होय, तिणनै कहियै अभाषक सोय ॥ *लय : कर जोड़ी आगल रही ४३. भाषको-भाषालब्धिमांस्तदन्यस्त्वभाषकः, (वृ० प० २५६, २५७) श० ६, उ० ३, ढा० १०० १२६ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. तत्र भाषको वीतरागो ज्ञानावरणीयं न बध्नाति सरागस्तु बध्नाति । (वृ० प० २५७) ४५,४६. अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति पृथिव्यादयो विग्रहगत्यापन्नाच बहनन्तीति । (वृ० प० २५७) ४४. भाषक सरागी नै वीतरागी, ज्ञानावरणी कर्म जे सागी। वीतरागी रै नंहि बंधाय, सरागी रे ते बंध कहाय ।। ४५. अभाषक एकेंद्रिय होय, वलि विग्रहगतिया सोय । वले सिद्ध अजोगी जोय, केवल समद्घाते पिण होय ।। ४६. ज्ञानावरणी एकेंद्रिय बांधे, वलि विग्रहगतिया सांधे । अन्य अभाषक रैन बंधाय, तिण स् भजना कही जिनराय । ४७. *एवं वेदनी वर्ज नै, सात कर्म कहिवाई। भाषक बांधै वेदनी, अभाषक भजनाइं॥ ४७. एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि । वेदणिज्जं भासए बंधइ, अभासए भयणाए। (श० ६।४३) यतनी ४८. तेरमैं गणठाणे ताय, समदघाती अभासक थाय । सातावेदनी बंधक ताम, तिण रो इरियावहि छै नाम ।। ४६. वलि अभाषक एकेद्रिय ताय, तिण रै वेदनी नुं बंध पाय ।। वलि विग्रहगतिया रै बंधाय, अयोगी सिद्ध बांधे नांय ।। ५०. *ज्ञानावरणी परित्त स्यं, कै अपरित्त बांधतो ? परित्त अपरित्त बिहुँ नहीं, तेहने ए बंध हुँतो ? ४६. अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति पृथिव्यादि कस्तु बध्नातीति भजना (वृ० प० २५७) ५०. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं परित्ते बंधइ ? अपरित्ते बंधइ? नोपरित्ते नोअपरित्ते बंधइ? सोरठा ५१. "अठारमा पद मांय, जीवाभिगम' विषे वलि । आख्यो तिम कहिवाय, लक्षण परित्त अपरित्त नों।। ५२. परित्तपणे भगवान ? रहै परित्त अद्धा कितो ? जिन कहै द्विविध जान, काय-परित्त संसार फुन ॥ ५३. काय-परित्त पहिछान, अंतर्महत जघन्य काल असंख्या जान, ए उत्कृष्ट थकी थी। रहै। ५४. परित्त-संसार उदंत, अंतर्महर्त्त जघन्य थी। उत्कृष्ट काल अनंत, जाव देसूण पुग्गल अवड्ड। ५२. परित्ते णं भंते ! परित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--कायपरित्ते य संसार-परित्ते य। (प० १८।१०६) कायपरित्ते णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? ५३. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो-असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-ओस प्पिणीओ। (प०१८।१०७) ५४. संसारपरित्ते णं भंते ! संसारपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । (प०१८।१०६) ५५. अपरित्ते णं भंते ! अपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-कायअपरित्ते य संसार-अपरित्ते य। (प०१८।१०६) ५५. अपरित्त दोय प्रकार, प्रथम काय-अपरित्त कह्यो । वलि अपरित्त-संसार, एहनूं भमवू बहु अद्धा ॥ *लय : कर जोड़ी आगल रही १. जीवाभिगमे पडिवत्ती ७६-८१ १३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. जीवाभिगम वृत्त, वलि संसाराङ्गारित, संसार-परित ५७. जे देसूण शुक्लपाक्षिक अपरित्त संसार ५६. कह्यो उत्कृष्टो कृष्ण पक्षि अवधार, वृत्ति विषे तमु न्याय काय अपरित्त अंतर्मुहूर्त जघन्य उचरित, काल वनस्पति नों तसु ॥ एह पुद्गल अव कथित लेख सुविचार, जे ५८. तिण ६०. जे पाठ अपरित संसार, दोय प्रकारे आदि-रहित अवधार, अंत-रहित अभव्य साधारण कृष्णपक्षि इहविध उत्कृष्टो ६१. अथवा आदि-रहीत, अंत- सहित भव्य लहस्यै मुक्ति पुनीत ए बि बिहुं भेदज कायाऽपरित्त । को ॥ जे । अर्थ ॥ ते । ६३. परित्त सरागी ने सरागी रे बंध ६२. श्री जिन भाखं गोयमा ! ज्ञानावरणी भजना करी, तेहनों चे ए परित बांध यतनी जीव सूत्र में" ॥ वीतरागी, ज्ञानावरणी कर्म जे थाय, वीतरागी ₹ वाय, वीतरागी रं नहि इम ।। थी । ६४. *अपरित रं बंधे अछे, ज्ञानावरणी नोपरित नोअपरित छै, तेहनें तो न ६५. इम आयू वर्जी करो, कर्म आयु परित्त अपरित पिण, भजनाई बंध सात मैं । ए ॥ जे। ( ज० स० ) कर्मों। मम ॥ मर्मो सागी । बंधाय ॥ तायो । बंधायो । कहिवायो । बंध थायो । यतनी ६६. रित्त अपरित दोनू इ न्हाल, आयु बांधै छै बंध काल । पण सर्व कालेन बंधाय, तिण सूं भजना कही जिनराय ॥ ६७. नोपरित नोअपरित ते. आउखो न बांधतो । सदा काल सुख सासता, एछे सिद्ध भगवंतो ॥ ६८. ज्ञानावरणी कर्म स्यूं मतिज्ञानी बांधतो ? श्रुत अवधि मनपर्यवा केवलज्ञानी महंतो ? ६६. जिन घर ज्ञानी चिडं ज्ञानावरणी तायो। कहै भजनाई बांध अछे. केवलधर न बंधायो । *लय : कर जोड़ी आगल रही ५६. कायापरीत्तः साधारणः संसारापरीत्तः कृष्णपाक्षिकः । ( जी० वृ० प० ४४६ ) ५७,५८. उत्कर्षेण अनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यव सपिण्यः कालतः, क्षेत्रतो देशोनमपार्द्धं पुद्गलपरावर्त यावत् तत ऊ नियमतः सिद्धिमनाद् अन्यवा संसारपरीतत्वायोगात् । ( जी० वृ० प० ४४६ ) ५६. काय अपरिते णं भंते ! गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो । (१० १० ११०) ६०. संसारअपरित्ते णं भंते ! गोयमा संसारअपरिचिते जहा अणादीए वा अपज्जवसिए, ६१. अणादीए वा सपज्जवसिए । (१० १८/१११) ६२. गोयमा ! परित्ते भयणाए, ६३. 'परीत्तः ' प्रत्येकशरीरोऽल्पसंसारो वा स च वीतरागोऽपि स्यात् न चासौ ज्ञानावरणीयं बध्नाति, सरागपरीत्तस्तु बध्नातीति भजना | ( वृ० प० २५७ ) ६४. अपरिते बंधइ । नोपरित्ते नोअपरित्ते न बंधइ । ६५. एवं आउगवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ । आउयं परित्ते वि अपरित्ते विभयणाए, ६६. प्रत्येक शरीरादिः आयुर्बन्धकाल एवायुर्बध्नातीति न तु सर्वदा ततो भजना । ( वृ० प० २५७ ) ६७. नोपरित्ते नोअपरिते न बंधइ । (२०६२४४) ६८. नाणावरणियां भंते! कम्मं कि आभिणिवोहिय नाणी बंध? सुवनाणी बंध ? ओहिनाणी बंध ? मणपज्जवनाणी बंधइ ? केवलनाणी बंधइ ? ६६. गोयमा ! हेट्ठिल्ला चत्तारि भयणाए । केवलनाणी न बंधइ । श० ६, उ० ३, ढा० १०० १३१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनो ७०. चिउं ज्ञानी सरागी वीतरागी, सरागी रै बंधै छै सागी। वीतरागी पिण छद्मस्थ ताय, त्यांरै ज्ञानावरणी न बंधाय । ७१. *कर्म वेदनी वर्ज नै, सात कर्म इम जोयो। वेदनी धर ज्ञानी चिहं, बांधै छै अवलोयो । ७२. केवलज्ञानी वेदनी, बांधै छै भजनाई। तेरम गणठाणे बंध, चवदम नहि बंधाई। ७३. ज्ञानावरणी स्यं प्रभु ! त्रिहं अज्ञानी बांधतो? जिन कहै अज्ञानी विहं, बांधै तेह अत्यंतो ।। ७४. इम आय वरजी करी, सात कर्म कहिवायो। आऊखो भजना करी, बंध काले बंध न्यायो । ७५. ज्ञानावरणी स्य प्रभ ! मन जोगी बांधतो। वचन काय जोगी वलि, अजोगी बंध हुँतो? ७०, आभिनिबोधिकज्ञानिप्रभृतयश्चत्वारो ज्ञानिनो ज्ञाना वरणं वीतरागावस्थायां न बध्नन्तीति सरागावस्था यां तु बध्नन्तीति भजना। (वृ०प०२५७) ७१. एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि। वेदणिज्ज हेट्ठिल्ला चत्तारि बंधंति, ७२. केवलनाणी भयणाए। (श० ६।४५) सयोगिके वलिनां वेदनीयस्य बन्धनादयोगिनां सिद्धानां चाबन्धनाद्भजनेति । (वृ० प० २५७) ७३, ७४, नाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्म कि मइअण्णाणी बंधइ ? सुयअण्णाणी बंधइ ? विभंगणाणी बंधइ ? गोयमा ! आउगवज्जाओ सत्तवि बंधंति, आउगं भयणाए । श० ६।४६) ७५. नाणावरणिज्जं णं भते ! कम्मं कि मणजोगी बंधइ? वइजोगी बंधइ? कायजोगी बंधइ ? अजोगी बंधइ? ७६,७७. गोयमा ! हेट्ठिल्ला तिण्णि भयणाए, मनोवाक्काययोगिनो ये उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनस्ते ज्ञानावरणं न बध्नन्ति तदन्ये तु बहनन्तीति भजना। (वृ० प० २५७) ७६. जिन भाख जोगी विहं, बांधै छै भजनाई। __कदाचित बांधै अछ, कदाचित न बंधाई॥ ७८. अजोगी न बंधइ । एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्तवि । यतनी ७७. त्रिहुं जोगी गुणठाणां तेर, ज्ञानावरणी तणो बंध हेर । दसमां गण' तांइ बंधाय आगै तो नहिं बंध ताय ।। ७८. *अजोगी बांध नहीं, ज्ञानावरणी जिवारो। इम वेदनी वर्जी करी, कहिवो न्याय विचारो॥ ७६. त्रिहुं जोगी कर्म वेदनी, बांधै छै अवलोयो। अजोगी बांध नहीं, द्वार पनरमों होयो। ८०. *सागरोवउत्ते प्रभु ! ज्ञानावरणी बंधाई । के अणगारोपयुक्त ने? जिन कहै अठ भजनाई। यतनी ८१. अजोगी रे पिण उपयोग दोय, सागार अणागार सुजोय। त्यारै कर्म न बंधाय, हिवै सजोगी रो सुणो न्याय ॥ ८२. सजोगी रै सुविचार, आळं कर्म प्रकृति अवधार । आठ सात छः एक बंधाई, बिहं उपयोगे इम भजनाई।। ८३. *ज्ञानावरणी स्यूं प्रभु ! आहारक बंधाई ? अणाहारक बांधै अछै? जिन कहै बिहं भजनाई। *लय : कर जोड़ी आगल रही १. गुणस्थान । ७६. वेदणिज्ज हेट्ठिल्ला बंधंति, अजोगी न बंधइ । (श० ६।४७) ८०. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं कि सागारोवउत्ते बंधइ ? अणागारोवउत्ते बंधइ ? गोयमा ! अट्ठसु वि भयणाए । (श०६।४८) ८३. नाणावरणिज्जं णं भते ! कम्मं कि आहारए बंधइ ? अणाहारए बंध? गोयमा ! दो वि भयणाए । १३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी ८४. आहारक सरागी वीतरागी, ज्ञानावरणी कर्म जे सागी । वीतरागी रे ते न बंधाय, सरागी रे बंधे छै ताय ॥ ८५. केवली विग्रहगतिया सोब, अणाहारक त्यांने विन होय । केवली रंए नहिं बंधाय, विग्रहगतिया रं बंध थाय ॥ ६. वेदनी आयू वर्ज नें, छः कर्म कहिवाई | आहारक बांध बेनी, अणाहारक भजनाई ॥ यतनी ८७. विग्रहगति अणाहारक थाई, केवल समुपाते अजोगी सिद्ध अबंध कहाई, इम वेदनी छै ८८. *आउखो आहारीक रै, बंध छे भजनाई । छै बंधकाले न सर्वदा, अणाहारकन बंधाई ॥ बादर स्यूं सूक्षम प्रभु ! नसूक्षम बादर नहीं, रोहन बंध त बादर र सरागे बंध ८६. ज्ञानावरणी २०. जिन क बंध सूक्षम वीतराम बांध नहीं, ६१. नोसूक्षम - बादर नहीं, तेहनें तो बंधे नहीं, आयू वर्जी ६२. इम सूक्षम बंधाई । भजनाई ॥ आऊखो, बादर बंधायां । कहिवायो ? भजनाई । थाई ॥ सिद्ध अनंत सुख जामण मरण करी, सात कर्म बांधे छै पाया । मिटाया ॥ कहिवाई | भजनाई ॥ यतनी १२. सूक्षम बादर दोन म्हाल, आऊलो बांधे बंध काल सदा काल आयु न बंधाय, तिण सूं भजना कही जिनराय ॥ आयू नहि बांधतो ९४. *नोसूक्षम - बादर नहीं, अनंत गुणां सुख सुर थकी, सहु दुख न कियो अंतो ॥ १५. ज्ञानावरणी स्यूं स्यूं प्रभु ! चरम अचरम बंधाई ? जिन कहै आठ्इ कर्म नें बांधे छै भजनाई ॥ यतनी ९६. इहां वृत्तिकार कहिवाय, जेहने होसी चरम भव ताय । तेहनें चरम कहीजे जाण, ए मुक्तिगामी पहिचान || *लय कर जोड़ी आगल रही ८४. आहारको वीतरागोऽपि भवति न चासो ज्ञानावरणं बध्नातीति । ( वृ० प० २५६ ) ८५. तथानाहारकः केवली विग्रहगत्यापन्नश्च स्यात्तत्र केवली न बध्नाति इतरस्तु बध्नातीति । ( वृ० प० २५६ ) वेदणिज्जं आहा ८६. एवं वेदणिज्जाउगवज्जाणं छण्हं । रए बंध, अणाहारए भयणाए । ७. अनाहारको विग्रहवत्यापन समुद्घातगत केवली व बध्नाति, अयोगी सिद्धश्च न बध्नातीति भजना | ( वृ० प० २५६ ) ८८ आउए आहारए भयणाए, अणाहारए न बंधइ । ( श० ६१४६ ) बन्धनात् अन्यदात्वबन्ध( वृ० प० २५६ ) ८६. नाणावर णिज्जं णं भंते! कम्मं कि सुहुमे बंध | बादरे बंध? मोहमे नोवादरे बंध ? आयुर्बन्धकाल एवायुषो कत्वाद भजनेति । ६०. गोयमा ! सुहृमे बंधइ, बादरे भयणाए । वीतरागबादराणां ज्ञानावरणस्याबन्धकत्वात् सराग वादराणां च बन्धकत्वाद्भजनेति । ६१. नोसुहुमे नोबादरे न बंधइ । ( वृ० प० २५६ ) ९२. एवं आउगवज्जाओ सत्त वि । आउगं सुहुमे बादरे भयणाए । ६३. बन्धका बन्धनादन्यदा त्वबन्धनाद् भजनेति । ( वृ० प० २५६ ) ( श० ६१५० ) ६४. नोहुमे नोबादरे न बंधइ । ६५. नाणावरणिज्जं णं भंते! कम्मं किं चरिमे बंधड़ ? अचरिमे बंधइ ? गोयमा ! अट्ठवि भयणाए । (०६५१) ६६. इह यस्य चरमो भवो भविष्यतीति स चरमः, ( वृ० प० २५६ ) श० ६, उ०३, ढा० १०० १३३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. यस्य तु नासौ भविष्यति सोऽचरमः (वृ० प० २५६) १८. सिद्धश्चाचरमः, चरमभवाभावात्, (वृ० प० २५६) ६६,१००. तत्र चरमो यथायोगमष्टापि बध्नाति अयो गित्वे तु नेत्येवं भजना। (वृ० प० २५६) ६७. भव चरम कदे नहि होय, तेहनें अचरम कहीजै सोय । अभव्य संसारी अचरम एह, कदे मुक्ति न जावै तेह ॥ ६८. अथवा अचरम सिद्ध कहाय, चरम भव नां अभाव थी ताय । नहीं चरम ते अचरम जाण, ए तो सिद्ध अचरम पिछाण । ६६. चरम सजोगी अजोगी होय, सजोगी रे यथायोग्य जोय । आठ सात छ: एक नों बंध, बुद्धिवंत मिलावै संध ।। १००. अजोगी रे कर्म न बंधाय, तिण कारण इम कहिवाय । चरम भजनाइ आठू कर्म बांधै छै तेहy ए मर्म ।। १०१. अचरम अठ बांध संसारी, सिद्ध अचरम अबंध विचारी। तिण सूं अचरम रै कहिवाइ, अष्ट कर्म बंध भजनाइ॥ १०२. *त्रिहं वेदी अवेदी प्रभु! यां जीवां रै कहिवायो । कुण-कुण अल्पबहुत्व छै, तुल्य विशेष अधिकायो ? १०१. अचरमस्तु संसारी अष्टापि बध्नाति, सिद्धस्तु नेत्येवमत्रापि भजनेति । (वृ० प० २५६) १०२. एएसि णं भंते ! जीवाणं इत्थीवेदगाणं, पुरिस वेदगाणं, नपुंसगवेदगाण, अवेदगाणं य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसा हिया वा? १०३. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थि वेदगा संखेज्ज गुणा, १०३. जिन कहै सर्व थोड़ा अछ, पुरिसवेदगा जीवा । इत्थिवेदगा जीवड़ा, संखगणाज कहीवा ।। यतनी १०४. सुर नर तिर्यंच पुरुष थी, इम स्त्री अधिकी अनक्रम थी। बत्ती सत्तावी त्रिगणी तद्ग, अधिक बत्ती सत्तावी त्रिरूप ।। १०५. *अवेदगा अनंतगुणा, नवमां थी सिद्ध जाणी। नपुंसवेदि अनंतगणा, साधारण पहिछाणी ।। १०४. यतो देवनरतिर्यकपुरुषेभ्यः तत् स्त्रियः क्रमेण द्वात्रि शत्सप्तविंशतित्रिगुणा द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिरूपा धिकाश्च भवन्तीति । वृ०५० २५६) १०५. अवेदगा अणंतगुणा नपुंसगवेदगा अणंतगुणा । अनिवृत्तिबादरसम्परायादयः सिद्धाश्च (वृ० प० २५६) १०६. एएसिं सम्वेसि पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयव्वाई १०६. आख्या संजति आदि दे, चरम अंत सुविचारो। अल्पबहुत्व चवदै द्वार नी, पन्नवणा' सूत्रानुसारो। १०७. सर्व थोडा जीव अचरमा, इहां अचरम अवलोयो । अभव्य तेह मुक्ति मझे जावा जोग्य न होयो । १०८. तेहथी चरम अनंतगणां, भव्य चरम भव लहिसी । मुक्ति जासी कर्म क्षय करी, आतमीक सुख रहिसी ॥ १०७. जाव सम्वत्थोवा जीवा अचरिमा अत्राचरमाऽभव्या: (वृ० प० २५६) १०८. चरिमा अणंतगुणा। (श. ६।५२) चरमाश्च ये भव्याश्चरम भवं प्राप्स्यन्तिसेत्स्यन्तीत्यर्थः । (वृ० प० २५६) १०६. ते चाचरमेभ्योऽनन्तगुणाः,। (वृ० प० २५६) १०६. अचरम अभव्य तेहथी, अनंतगणां भव्य चरमो । मुक्ति जाव। जोग्य एह छै, ते लहिसी सुख रमो । ११०. वृत्तिकार को अभव्य थी, सिद्ध अनंतगुणां सोयो। जेता सिद्ध तेता चरम छै, मक्ति जासी कर्म खोयो॥ ११०. यस्मादभव्येभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा भणिताः, . यावन्तश्च सिद्धास्तावन्त एव चरमाः । (वृ०प० २५६) *लय : कर जोड़ी आगल रही १. पण्णवण पद ३ १३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११. गये काल सिद्धा जिता, आगमिये पिण कालो । जीव तेतला सीझसै, वृत्ति मझै अर्थ न्हालो॥ ११२. सेवं भंते! अंक सठ नं, आखी सौमीं ढालो। भिक्ख भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' गण गणमालो ।। षष्ठशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥६॥३॥ १११. यस्माद्यावन्तः सिद्धा अतीताद्धायां तावन्त एब सेत्स्यन्त्यनागताद्धायामिति । (वृ०प० २५६) ११२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ६।५३) ढाल : १०१ १. तृतीय उदेशक नै ___तुर्य उदेशे तेहिज विषे, जीव-निरूपण हिव, भगंतर करि जोय । होय ॥ १. अनन्तरोद्देशके जीवो निरूपितोऽथ चतुर्थोद्देशकेऽपि तमेव भंग्यन्तरेण निरूपयन्नाह (वृ० प० २५६) २. जीवे णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसे ? अपदेसे? ३. गोयमा ! नियमा सपदेसे । (श० ६१५४) २. इक वचने करि जीव प्रभ! काल थकी कहिवाय । सप्रदेश- स्यू ए अछ, अप्रदेश स्यूं थाय? ३. जिन भाखै नियमा करी सप्रदेश इक जीव । __सप्रदेश अप्रदेश न, लक्षण हिवै कहीव ।। ४. जे स्थिति एक समय तणी, कह्य तास अप्रदेश । बे त्रिण आदि समय स्थिति, सप्रदेश छै एस । ५. "इक वच जीव भणी कह्य, सप्रदेश सविभाग । ___अनादिपणे करि जीव कू, अनंत समय स्थिति माग ।। ६. अप्रदेश इक समय स्थिति, तास विभाग न हुंत । बे त्रिण आदि समय स्थिति, तास विभाग पड़त ।। ७. एक समय नी क्रिया तणो, विभाग न पड़ कोय । द्वयादिक समय तणो क्रिया, तेहनों विभाग होय ॥ ८. ते माट सप्रदेश जे, विभाग सहितज होय । विभाग रहित हुवै अछ, अप्रदेश अवलोय ।। ६. प्रथम समय में वर्त्तता, अप्रदेश ते भाव । ___ अन्य समय में वर्त्तता, सप्रदेश ए न्याव ।। ४. यो ह्येकसमयस्थितिः सोऽप्रदेशः, यादिसमय स्थितिस्तु सप्रदेशः। (वृ० प० २६१) ५. अनादित्वेन जीवस्यानन्तसमयस्थितिकत्वात् सप्रदेशता। (वृ० प० २६१) है. जो जस्स पढमसमए वट्टति भावस्स सो उ अपदेसो। अण्णम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो॥ (वृ० प० २६१) १०. तिण सं इक व जीव ते, सप्रदेश आख्यात । काल अनादिपणे करी, अनंत समय स्थित जात" || (ज० स०) ११. एक नारकी ने प्रभु! काल थकी पहिछाण । सप्रदेश अप्रदेश स्यूं, कहिय हे जगभाण ! ११. नेरइए णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसे ? अपदेसे? श० ६, उ० ४, ढा० १००,१०१ १३५ Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. गोयमा ! सिय सपदेसे, सिय अपदेसे । (श० ६।५५) १३. नारकस्तु यः प्रधमसमयोत्पन्नः सोऽप्रदेशः द्वयादि समयोत्पन्न: पुनः सप्रदेशः। (वृ० प० २६१) १४. एवं जाव सिद्धे। (श० ६।५६) १६. जीवा ण भते ! कालादेसेण कि सपदेसा? अपदेसा? १७. गोयमा ! नियमा सपदेसा। (श० ६१५७) १८. नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसा? अप देसा? गोयमा ! १६. सब्वे वि ताव होज्जा सपदेसा, अहवा सपदेसा य अपदेसे य । २०. अहवा सपदेसा य अपदेसा य । (श० ६।५८) १२. जिन भाखै इक नारकी, कदाचित सप्रदेश । कदाचित अप्रदेश ते, हिव तसं न्याय कहेस ।। १३. प्रथम समय नों ऊपनों, ते नारक अप्रदेश । द्वयादिक समय नों ऊपनों, सप्रदेश सूविशेष ।। १४. इम यावत इक सिद्ध नै, कदाचित सप्रदेश । कदाचित अप्रदेश है, पूर्व न्याय अविशेष । १५. हिव बहु वचने करि कहै, जीव नारकी आद । श्रोता चित दे सांभलो, विविध भंग विधि वाद ।। १६. *बह वच जीवा स्यू प्रभ! काल थकी सूविशेषा । सप्रदेशा कहिये तस्, के कहिये अप्रदेशा? १७. जिन भाखै सुण गोयमा! निश्चै करि सप्रदेशा । अनादिपणे करि जीवड़ा, अनंत समय स्थिति एसा ।। १८. नेरइया काल थी स्यूं प्रभु! सप्रदेशा अप्रदेशा । जिन भाखै सुण गोयमा! इहां विहं भंगा कहेसा ।। १६. सगलाई नारकी हवै, सप्रदेशा पहिछाण । अथवा सप्रदेशा घणां, अप्रदेश इक जाण ? २०. अथवा सप्रदेशा बहु, अप्रदेशा बहु होय । ए तीनूं भांगां तणो, न्याय कहूं हिव सोय ॥ २१. उत्पात मैं जे विरह काले, असंख्याता नेरिया । जेह पूर्वे ऊपना ते, सप्रदेशा सहु लिया ।। २२. तथा पूर्वे घणां नारक, ऊना तेहन विखे । नवो नारक एक उपजै, प्रथम समय तेहन लखै ॥ २३. ते भणी इक अप्रदेशज, बहु समय नां जाना । शेष ते बहु सप्रदेशा, भंग द्वितीय समुप्पना ।। २४. तथा पूर्वे घणां नारक, ऊपना तेहने विखै । नवा नारक उपजै बहु, प्रथम समय तेहगें लखै ।। २५. ते भणी बहु अप्रदेशज, बह समय नां ऊपना । शेष ते बहु सप्रदेशा, भंग तृतीय समुप्पना । २६. *एवं नरक तणी परै, जाव थणियकुमारा । भांगा तीन विचारवा, वर न्याय उदारा॥ २७. पृथवीकाइया हे प्रभ! काल थकी सुविशेषा । स्यं सप्रदेशा कहीजिय, कै कहियै अप्रदेशा? २८. जिन भाखै पृथ्वीकाइया, सप्रदेशा पिण होय । अप्रदेशा पिण छै घणां, बिहं बह वचने जोय ।। २१. उपपातबिरहकालेऽसंख्यातानां पूर्वोत्पन्नानां भावात् सर्वेऽपि सप्रदेशा भवेयुः। (वृ० प० २६१) २२,२३. पूर्वोत्पन्नेषु मध्ये यदेकोऽप्यन्यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमसमयोत्पन्नत्वेनाप्रदेशकत्वात् शेषाणां च द्वयादिरामयोत्पन्नत्वेन सप्रदेशत्वाद् उच्यते-- 'सप्पएसा य अप्पएसे य' त्ति, (वृ० प०२६१) २४,२५. एवं यदा बहव उत्पद्यमाना भवन्ति ते तदोच्यन्ते-'सप्पएसा य अप्पएसा य' त्ति, (वृ०प० २६१) २६. एव जाव थणियकुमारा। (श० ६/५६) २७. पुढविकाइया णं भंते ! कि सपदेसा ? अपदेसा? २८, गोयमा ! सपदेसा वि अपदेसा वि। (श० ६/६०) *लय : प्रभवो मन माहै चितवै लिय : पूज मोटा भांजे १३६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी ३०. एवं जाव वणप्फइकाइया। (श० ६।६१) सेसा जहा नेरइया तहा जाव सिद्धा। (श० ६।६२) २६. एहने विरह-काल नहिं हुंत, समय-समय घणां उपजंत । तिण सूं सप्रदेशा बहु सोय, अप्रदेश पिण बहु होय ।। ३०. *इम जाव वणस्सइकाइया, बेंद्रियादिक शेष । जेम नेरइया तिम सहु, जावत सिद्धा संपेष ।। यतनी ३१. जिम नारकी ने तीन भंगा, तिम एकेंद्री वर्जी प्रसंगा। दंडक उगणीस ने सिद्ध इच्छा, भंग त्रिण-त्रिण बहुवच पृच्छा ।। ३२. * द्वितीय द्वार आहार कहिवे, आहारक बहु वचनंत । जीव एकेंद्रिय वर्जन, भांगा तीन भणंत ।। वा० ए पाठ नां अर्थ नी पूर्वे गाथा कही। तिहां आहारगा बहु वचन नों विस्तार कह्यो । आगै पिण अणाहारगा बहु वचन छ, अनैं नारकादिक २४ दंडक एक वचन, बहु वचन पहिला कह्या ते माट वृत्तिकार आहारक अनाहारक नों एक वचन जीवादिक कहै छ । ३१. यथा नारका अभिलापत्रयेणोक्तास्तथा शेषा द्वीन्द्रि यादयः सिद्धावसाना वाच्याः, (वृ० प० २६२) ३२. आहारगाणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। वा० एवमाहारकानाहारकशब्दविशेषितावेतावेकत्वपृथक्त्वदण्डकावध्येयौ, (वृ० प० २६१) यसनी ३३. वृत्तिकार कही इम वाय, शब्द आहार अणाहारक ताय । इक बहु वच दंडक दोय, कहिवो अनुक्रम इहविध जोय ।। ३३. अध्ययनक्रमश्चायम् (वृ० प० २६१) दहा ३४. इक वच आहारक जीव ते, सप्रदेश अप्रदेश? जिन कहै सिय सप्रदेश छै, सिय अप्रदेश कहेस । ३४. 'आहारारा णं भंते! जीवे कालाएसेणं किं सपएसे ? गोयमा! सिय सप्पासे सिय अप्पएसे' (वृ० प० २६१) ३५. इत्यादि स्वधिया वाच्याः, (६० प० २६१) ३५. इत्यादिक निज बुद्धि करि, कहि सर्व विचार । नरकादिक दंडक विषे, एक वचन अवधार ।। ३६. तास न्याय--विग्रह विषे तथा समुद्घातेह । प्रथम अनाहारक थइ, वलि व आहारक जेह ।। ३७. तदा प्रथम समया विषे, अप्रदेश ते होय । द्वितीयादिक समया विषे, सप्रदेश अवलोय ।। ३८. तिण कारण एहवू करा, कदाचित सप्रदेश । कदाचित अप्रदेश ह, इण न्याये सुविशेष ।। ३६. एवं इक वच सर्व ही, सादि भाव रै मांय । सिय सप्रदेश अनै वलि, सिय अप्रदेश कहाय ।। ४०. अनादिभाव विषे बलि, छै नियमा सप्रदेश । इह विध आख्यूं वृत्ति में, इक वच आहार कहेस ।। ३६. तत्र यदा विग्रहे केवलिसमुद्घाते वाऽनाहारको भूत्वा पुनराहारकत्वं प्रतिपद्यते (वृ० प० २६१) ३७. तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशो द्वितीयादिषु तु सप्रदेशः (वृ० प० २६१) ३८. इत्यत उच्यते-सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे' त्ति, (वृ० प० २६१) ३६. एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु, (वृ० प० २६१) ४०. अनादिभावेषु तु 'नियमा सप्पएसे' ति।। (वृ०प० २६१) *लय :प्रभवो मन माहै चितवं श०६, उ०४, ढा०१०१ १३७ Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० आहारया णं भंते! जीवा कालाएसेणं कि सप्सएसा अप्पएसा? गोयमा! 'सप्पएसा वि अप्पएसा वि' त्ति (वृ० प० २६१) था. इहां अनादि भाव में नियमा सप्रदेशी कह्यो, ते आहारक में अनादि भाव न संभवै, सादि भावपणु हुई । ते भणी आहारक जीवादिक में 'सिय सपदेसे सिय अपदेसे' इम कहिवू । ४१. बह वचने आहारक तणूं, सूत्र पूर्व आख्यात । आहारगा जीव एकेंद्रिय वर्जी त्रिण भंग ख्यात ॥ सोरठा ४२. एहनों पिण वृत्ति मांहि, आख्यो छै इण रीत सू । प्रगट पाठ कर ताहि, कह्यो न्याय वलि इह बिधे । ४३. आहारकपणे करि, बहु जीव अवस्थित पाय । तास भाव थी बहु तणे, सप्रदेशपणु थाय ।। ४४. अथवा बहु जीवां तणै, विग्रह पछ विशेष ।। प्रथम समय आहारकपण, बहु आहारक अप्रदेश ।। ४५. तिण सू बहु वच आहारगा, सप्रदेशा पिण संच । वलि अप्रदेशा पिण कह्या, इम पृथिव्यादि पंच । ४६. एकेद्रिय वर्जी करी, दंडक वलि उगणीस । कहिवा विकल्प तीन कर, ते इह रीत जगीस ।। ४७. एहिज सूत्रे आखियो, आहारक बहु वचनेह । जीव एकेंद्रिय वर्ज नै, त्रिक भंग पावेह ।। ४३. तत्र बहूनामाहारकत्वेनावस्थितानां भावात् सप्रदेशत्वम्, (वृ०प० २६१) ४४,४५. तथा बहूनां विग्रहगतेरनन्तरं प्रथमसमये आहार कत्वसम्भवादप्रदेशत्वमप्याहारकाणां लभ्यत इति सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपीत्युक्त, एवं पृथिव्यादयोऽप्यध्येयाः, (वृ० प०२६१) ४६. नारकादयः पुनर्विकल्पत्रयेण वाच्याः, (वृ० प० २६१ ४७. आहारगाणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। जीवपदमेकेन्द्रियपदपञ्चकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भङ्गः त्रिकभङ्गो-भङ्गत्रयं वाच्यमित्यर्थः । (वृ० प० २६१) ४८. सिद्धपदं त्विह न वाच्यं तेषामनाहारकत्वात्, (वृ० प० २६१) ४६. अनाहारकदण्डकद्वयमप्येवमनुसरणीयं, (वृ०प० २६१) ५०. तत्रानाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातगतकेवली अयोगी सिद्धो वा स्यात्, (वृ० प० २६१,२६२) ५१. स चानाहारकत्वप्रथमसमयेऽप्रदेशः द्वितीयादिषु तु सप्रदेश: (वृ० प० २६२) ५२. तेन स्यात् सप्रदेश इत्याधुच्यते। (वृ० प० २६२) ४८. इहां न कहिवं सिद्ध पद, तेह सिद्ध नैं सोय । अनाहारक नां भाव थी, आहारक ते नहिं होय ।। ४६. अनाहारक ते इह विधे, इक वच बहु वचनेह । दंडक बे कहिवा तसू, हिव तसु न्याय कहेह ।। ५०. अनाहारक विग्रह गमन, वलि केवल समुद्घात । तथा अजोगी चवदमैं, अथवा सिद्ध विख्यात ।। ५१. तेह अनाहारकपण, प्रथम समय अप्रदेश । द्वितियादिक समया विषे, सप्रदेश सुविशेष ।। ५२. तिण सं इक वच जीव ते, अनाहारक सुविशेष । कदाचित अप्रदेश छ, कदाचित सप्रदेश । ५३. बह वच दंडक ने विषे, कहिये एह विशेख । अणाहारगा जीवड़ा, इत्यादिक संपेख । ५४. *अनाहारका छै तिक, जीव एकेंद्रिय अंग। ___ वर्जी उगणीस दंडके, भणवा षट भंग ॥ *लय : प्रभवो मन माहै चितवै ५३. पृथकत्वदण्डके विशेषमाह-'अणाहारगा ण' मित्यादि । (वृ० प० २६२) ५४. अणाहारगाणं जीवेगिदियवज्जा छ भंगा एवं भाणि यव्वा -- १३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. जीवपदे एकेन्द्रियपदे च 'सपएसा य अप्पएसा ये' त्येवंरूप एक एव भङ्गकः । (वृ० प० २६२) ५६. बहूनां विग्रहगत्यापन्नानां सप्रदेशानामप्रदेशानां च लाभात् । (वृ० प० २६२) ५८. नारकादीनां द्वीन्द्रियादीनां च स्तोकतराणामुत्पादः, तत्र चैकद्वयादीनामनाहारकाणां भावात् षड्भङ्गिकासम्भवः । (वृ० प० २६२) ६०. तत्र द्वौ बहुवचनान्तौ अन्ये तु चत्वार एकवचनबहुवचनसंयोगात् । (वृ० प० २६२) ६१. सपदेसा वा। ६२. अपदेसा वा। ६३. अहवा सपदेसे य अपदेसे य । ५५. जीव एकेद्रिय बिहं पदे, सप्रदेश बहु हाय । अप्रदेश पिण बहु हुवै, इम इ. भंगो जोय ।। ५६. ए बहु विग्रहगति रह्या, प्रथम समय अप्रदेश । सप्रदेश अन्य समय में, लाभ बहु सुविशेष ।। ५७. ते माट बहु वच कह्या, अनाहारका ताय । जीव एकेंद्रिय वर्ज नै, षट भंगा कहिवाय॥ ५८. उगणीस दंडक नै विषे, अल्प ऊपजै आय । इक बे आदि अनाहारका, त्यां षट भंगा पाय॥ ५६. ते माटै सूत्र कह्या, अनाहारका मांय । जीव एकेंद्रिय वर्ज नै, षट भंगा कहिवाय ।। ६०. बे भंग बहु वचनांत छै, इकसंजोगिक होय । वलि च्यार भांगा तिके, द्विकसंयोगिका जोय ।। ६१. *सप्रदेशा बहु वचन थी, ए धर भंगो होय । अन्य समय बर्ते बहु, प्रथम समय नहिं कोय ।। ६२. अप्रदेशा बहु वचन थी. दूजो भांगो जोय । प्रथम समय नां लाधे घणां, अन्य समय नां न होय ॥ ६३. सपदेसे अपदेसे तथा, तीजो भांगो देख । प्रथम समय इक जीव छै, अन्य समय वर्ते एक । ६४. सपदेसे अपदेसा तथा, चउथो भांगो कहीव । अन्य समय इक वर्त्ततो, प्रथम समय बहु जीव ।। ६५. सपदेसा अपदेसे तथा, पंचम भंगो जोय । अन्य समय वत्तै घणां, प्रथम समय इक होय ।। ६६. सपदेसा अपदेशा तथा, छट्ठो भांगो संपेख । अन्य समय बहु वर्त्तता, प्रथम समय बहु देख ।। ६७. इम उगणीसज दंडके, अल्प ऊपजै ते मांय । हुवै इक बे आदि अनाहारका, तिण षट भंग पाय ।। ६८. केवल एक वचन तणां, भंग दोय नहिं होय । बहु वच नां अधिकार थी, वृत्ति विषे इम जोय ।। वा० जिम पहिले भांगे सप्रदेशी घणां अनै दूजे भांगे अप्रदेशी घणां, ए बे भांगा कह्या । तिम तीजे भांगे सप्रदेशी एक अनै चोथे भांगे अप्रदेशी एक, ए भांगा अनाहारक एकसंजोगिक एक वचनांत किम न हुई? अनाहारक बहु जीव नां अधिकारपणां थकी। एटले अनाहारक एक जीव नो अधिकार नथी, तिण सूं एक वचनांत भांगो कह्यो नथी। ६६. सिद्धां में तीन भांगा अछ, तीन भांगां रै माय । बहु वचने कर सूत्र में, भांगा तीन कहाय ॥ *लय : प्रभवो मन माहै चितवै ६४. अहवा सपदेसे य अपदेसा य । ६५. अहवा सपदेसा य अपदेसे य । ६६. अहवा सपदेसा य अपदेसा य । ६८. केवलैकवचनभङ्गकाविह न स्तः, पृथक्त्वस्याधिकृतत्वादिति । (वृ० प० २६२) ६६. सिद्धेहि तियभंगो। श० ६, उ० ४, ढा० १०१ १३६ Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. भवसिद्धिया अभवसिद्धिया जहा ओहिया । यतनो ७०. सगला सिद्ध ह सप्रदेशा, बह काल नां छै सूविशेषा । सिद्धां में ऊपजवा नों पिछाण, विरहकाल हुवै जद जाण ॥ ७१. अथवा सप्रदेशा बह सिद्धा, अप्रदेशा एक गण ऋद्धा । अथवा सप्रदेशा बह जोय, अप्रदेशा पिण बहु होय ।। ७२. बहु वच अणाहारगा मांय, सिद्ध पद में भांगा त्रिण पाय । ए आहारक – अणाहार, आख्यो ए बीजो द्वार । ७३. *भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, औधिक जेम कहाय । पाठ माहे तो एतोज छै, वृत्तिकार हिव वाय ।। यतनी ७४. जहा ओहिया न अर्थ ताय, औधिक दंडक जिम कहिवाय । इक बह वच दंडक दोय, तिमहिज कहिवा अवलोय ।। ७५. तिहां भव्य अभव्य विचार, जीव एक वचन अधिकार । निश्चै करीने छै सप्रदेश, आदि-रहितपणे सूविशेष ॥ ७६. भव्य अभव्य नारकादि मांय, इक वचन आश्री इम वाय । कदाचित अछै सप्रदेश, कदा अप्रदेस सुकहेस ।। ७७. हिवै भव्य अभव्य बहु जीवा, निश्चै सप्रदेशाज कहीवा । नारकादि बहु वचन प्रसंग, एकेंद्रिय बिना त्रिण भंग ।। ७८. भव्य अभव्य एकेंद्रिया जीवा, बहु वच आश्री एम कहीवा । घणां सप्रदेशा अप्रदेशा, एक ईज भंग सुलहेसा ।। ७६. सिद्ध पद इहां काहि नाहि, भव्य अभव्य नहि सिद्धां मांहि । हिवै भव्य अभव्य बिडं नाही तिणरो संक्षेप सूत्र मांही ।। ८०. *नोभव्य-नोअभव्य-सिद्धिया, जीव अन सिद्ध मांय । बह वचने कर सूत्र में, भांगा तीन कहिवाय ।। ७४. 'ओहिय' त्ति, अयमर्थः-औघिकदण्डकवदेषां प्रत्येक दण्डकद्वयं, (वृ० प० २६२) ७५. तत्र च भव्योऽभव्यो वा जीवो नियमात्सप्रदेशः । (वृ० प० २६२) ७६. नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा, (वृ० प० २६२) ७७. बह वस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु विभङ्गवन्तः ,। (वृ० प० २६२) ७८. एकेन्द्रियाः पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येकभङ्ग एवेति । (वृ० प० २६२) ७६. सिद्धपदं तु न वाच्यं, सिद्धानां भव्याभव्यविशेषणानुपपतेरिति । (वृ० १०२६२) ८०. नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिय-जीव-सिद्धेहिं तिय भंगो। यतनी ८१. वृत्ति मांहि कहो इभ वाय, नोभव्य नोअभव्य ताय । एक वचन बहु वच भणवा, जीवपद नै सिद्धपद थुणवा ।। ८२. प्रभ! नोभव्य नोअभव्य जीव, इक वचन थकीज अतीव । स्यं सप्रदेश अप्रदेश ? हिव उत्तर आग कहेस । ८३. सिय सप्रदेश पहियाण, सिय अप्रदेश वलि जाण । इम बहु वच पूछा में जीवा, उत्तर तीन भांगा कहीवा ।। ८४. नोभव्य नोअभव्य सिद्ध पृच्छा, इक वचन बहु वच इच्छा । उत्तर पूर्ववत जाण, ए तीजो द्वार पिछाण ।। ८१. 'नोभवसिद्धिय नोअभवसिद्धिय' त्ति एतद्विशेषणं जीवादिदण्डकद्वयमध्येयं,। (वृ० प० २६२) ८२ 'नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए णं भंते! जीवे सप्पएसे अप्पएसे' ? (वृ० प० २६२) ८३. इह च पृथक्त्वदण्डके पूर्वोक्तं भङ्गकत्रयमनुसतव्यम् । (वृ० प० २६२) *लय : प्रभवो मन माहै चितवै १४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ८५. बे दंडक सन्नी लिये इक व द्वितिय दंडक जीवादि में, भंगक ८६. सन्नी व बच बहु काल श्री जीवादिक विण भंग । सूत्र मांहे तो इतोज थे. छं, वृत्तौ एम प्रसंग ॥ * पतनी 7 ८७. चिर काल नां ऊपनां भेला, ऊपजवा नुं विरह तिण वेला । बहु वचन सभी सुविशेषा प्रथम भंग सङ्घ सप्रदेशा || ८८. विरह काल पर्छ इक जीव, ऊपनों प्रथम समय कहीव । ते सप्रदेशा- अप्रवेश ए द्वितीय भंग सुविशेष ॥ ८. विरह काल पछै बहु जीवा, ऊपनां बहु समय कहीवा । ते सप्रदेशा- अप्रदेशा, ए तृतीय भंग सुविशेषा ॥ ६०. इम सन्नी रा दंडक मांय, सहु पद में भांगा त्रिहुं पाय । सिद्ध एकेंद्री विककेंद्री जोय, महने विषे सन्नी नहि होय || 1 ९१. बहू वचन असन्नी मध्ये भांगा तीन कहीजिये, पूर्व बहु त्रिण १२. वृत्ति मांहि कही इम एकेंद्रिय यतनी वाय एकेंद्रिय भंग बहु सप्रदेशा अप्रदेशा, घणां ऊपजै छै न्याय वच जोय | इम होय || वर्जी ने । ग्रही नैं । इक पाय । सुविशेषा ॥ ६३. *नेरइया देव मनष्य मर्भ, पट भंगा वृत्तिकार तिहां आखियो, सुणज्यो चित पाय । ल्याय || यतनी १४. नारकादि व्यंतर लग गिणिया सम्मी ने पिण असन्नी भणिया । असन्नी थी ऊपजे तिहां आय अतीत भावपणें करि ताय ॥ 1 ६५. असन्नी नरकादिक रे मांय, ऊपना ते एकादि पाय । वर्त्तमान ऊपजता सोय, ते पण एक आदि अवलोय || ९६. तिण कारण छै षट भंगा, पूर्वे का तेह प्रसंगा । जोतिषि वैमानिक सिद्धा यांने असण्णी । नहि लीधा ॥ *लय : प्रभवो मन मा चितव ८५. संज्ञिपु यौ दण्डको तयोर्द्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु भङ्गत्रयं भवतीत्यत आह- (० ० २६२) ८६. सण्णीहि जीवादिओ तियभंगो । ८७. तत्र सञ्ज्ञिनो जीवाः कालतः सप्रदेशा भवन्ति चिरोपान उत्पादविरहानन्तरम् (१० प० २६२) ८८. चैकस्योत्पत्तौ तत्प्राथम्ये सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेति ( वृ० प० २६२ ) स्यात्, ८२. बनाये तु सप्रदेशाश्या प्रदेशापा तदेवंभमिति ( वृ० १० २६२) o १०. एवं सर्वपदे केवलमेतयोर्दण्डको रेकेन्द्रियनिकद्रिय पदानि यानि तेषु संज्ञिविशेषणस्यासंभवादिति, ( वृ० प० २६२ ) ११. असी एगियो । असशिपु असविषये द्वितीपदण्ड पृथिष्यादिपदानि वर्जयित्वा रुपयं प्राग् दर्शितमेव वाच्यम् ( वृ० प० २६२ ) ६२. पृथिव्यादिपदेषु हि सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव, सदा बहूनामुत्पत्त्या तेषामप्रदेश बहुत्वस्यापि सम्भवात् । ( वृ० १० २६२) ६३. नेरइयदेवमणुहि छन्भंगो । ६४. नैरयिकादीनां च व्यन्तरान्तानां संज्ञिनामप्यसंज्ञित्वमसंज्ञिभ्य उत्पादाद्भूतभावतयाऽवसेयम्, ( वृ० प० २६२) ६५, ६६. तथा रविकादिध्वसंज्ञित्वस्य कादाचित्कत्वेनैकत्वसम्भवात् प भंग भवन्ति ते च दा एवं ज्योतिष्कवैमानिक सिद्धास्तु नावास्ते रामसंज्ञित्वस्यासम्भवात् । ( वृ० प० २६२ ) श० ६, उ० ४, ढा० १०१ १४१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. "नोसन्नी नोअसन्नी जीव मनुष्य सिद्धां विषे, तीन भांगा ६८. पतनी यांमे सदाकाल बहु हंत, वलि उत्पत्ति विरह पड़ंत । पछै ऊपजै इक बे आद, तिण सूं तीन भांगा इहां लाध ॥ ६६. नारकादिक पद र मांही, नोसन्नी नोअसन्नी नांही । ए आस्यो है चउथो द्वार, हिवे पंचमों सेस विचार || १००. *सलेसी जीव विषे बलि नरकादि । संवादि ॥ एक वचन बहुवचन में, यतनी मझे, वह मझे, बहु वचन ₹ मांय । पाय || । १०१. ससीपणां विषे जीव आदि-रहितपणेज अतीव । अधिक जेम कह्य ताय, एक सिद्ध पद न कहाय ॥ १०२. कृष्ण नील इक बहु वच १०३. णवरं एतो कानोतिया, जीव नारकादि देख । आहारीक नां जीवादिक जिम पेख ॥ विशेष छे, ज्यांमें पाव त्यां मांहे कहिवी विचार नैं वारू न्याय यतनी एलेस । विशेष || १०४. जोतिषि वैमानिक मांय द्रव्य लेस्या ए जि न पाय । तिण कारण त्यां नवि गिणवी, ज्यांगें पावे त्यांमें इज भणवी || १०५. लेखा में जीवादिके, बहु यच त्रिण भंग जाण । पृथ्वी अप वनस्पति मझे, षट भंगा पहिछाण ॥ यतनी सलेसी औधिक जेम १०६. पृथ्वी अप वनस्पति मांय, वलि वर्तमान रिण काल, सुर एकादि ऊपना आय । एकादिक उपजता न्हाल ॥ १०७. तिण सूं सप्रदेशा नों जोय, वलि अप्रदेशा नों सोय । इक वच बहु वचन प्रसंग, तिण कारण है षट भंग ।। १०. नरक तेउ वाउ काय, विकलेंद्रिय ने सिद्ध ताय । यांमें तेजू लेश्या नहि पाय, तिण सूं ए पद नांहि गिणाय || , १०६५ लेस शुक्ल लेस में बहू वच जीवादि मांय । भांगा तीन कहीजिये, वारू मेली न्याय || *लय : प्रभवो मन मांहे चित १४२ भगवती-जोड ६७. नोराणि - नोअसण्णि जीव मणुय-सिद्धेहिं तियभंगो । तेषु बहूनामवस्थितानां लाभादुत्पद्यमानानां चकादीनां सम्भवादिति एतयोश्च दण्डकयोर्जीवमनुजसिद्धपदान्येव भवन्ति, ( वृ० प० २६२) ६६. नारकादिपदानां मोसंज्ञीनोअसंज्ञीतिविशेषणस्याघटनादिति । (० ० २६२) १००. सलेसा जहा ओहिया । सलेश्यदण्डकद्वये वाच्याः । औधिकदण्डकवज्जीवनारकादयो ( वृ० प० २६२) १०१. सलेश्यतायां जीवत्ववदनादित्वेन विशेषानुत्पादकत्वात् केवलं सिद्धपदं नाधीयते सिद्धानामलेश्यत्वादिति । (१०५०२६३) १०२. कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ । १०३. नवरं — जस्स अस्थि एयाओ । 1 १०४. एताश्च ज्योतिष्कवैमानिकानां न भवन्ति । ( पृ० प० २६२ ) १०५. तेउलेस्साए जीवादिओ तियभंगो, नवरं पुढविवकाइसुबकती १०६. पत एतेषु तेजोलेश्या एकादयो देवाः पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्त इति । (० ० २६२ २६३) १०७. सप्रदेशानामप्रदेशानां चैकत्वबहुत्वसम्भव इति । ( वृ० प० २६३ ) १०८. इह नारकतेजोवायुविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेजोलेश्याया अभावादिति । ( वृ० प० २६३) १०२. पहले सुक्कलेस्साए जीवादियो तियभंगो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी ११०. तियंच पंद्री ताहि, वलि मनष्य वैमानिक पद्म शुक्ल यांमे ईज होय, अन्य में नहि पाने १११. * अलेसी इक बहु वचन थी, जीव अन्य विषे अलेसीपणो मनुष्य सिद्ध नहीं पायें ११२. जीव पदे वलि सिद्ध पदे बहु वच त्रिण असी मनुष्य विषे हुवै, षट भंग यतमी ११३. अलेसीपणे नर जाण, गया काल नो लाभ पिछाण । वर्त्तमान पामता जोय, एक आदि मनुष्य में होय ॥ ११४. तिण सूं सप्रदेश नों जाण, अप्रदेश नों बलि पहियाण । इक वच बहु वचन प्रसंग, तिण कारण है षट भंग ॥ ११५. समदृष्टी मांहि । कोय | दूहा इक बहु वचन वर समदृष्टि लहेस । प्रथम समय अप्रदेश है, द्वितीयादि प्रदेश || मांहि । ताहि ॥ भंगा । प्रसंगा || ११६. बहु वचने समदृष्टि ने जीवादिक * त्रिण भंग विकलेंद्रिय पट भंग, सास्वादन नुं प्रसंग ॥ यतनी ११७. सास्वादन विकलेंद्रिय मांय, पूर्व अपना एकादि पाय । वलि करजता वर्तमान एक आदि लाभे ते जान ॥ ११८. इण कारण ते सुविशेष, सप्रदेश अनें अप्रदेश | तिण रो इक बहु वचन प्रसंग, तसुं संभव थी पट भंग || ११६. एकेंद्रिय पद नहिं भणवा, समदृष्टि अभावज थुणवा | बहु वचन मिध्यादृष्टि चीन, एकेंद्रिय वर्जी भंग तीन ॥ १२०. पूर्व काल नां मिथ्या प्रपन्ना बहुला ला विसन्ता । वलि सम्यक्त्व भ्रष्ट विवादी, मिथ्या पडिवजता एकादी || *लय । प्रभवो मम मांहे चितव t १२१. तिण कारण है त्रिण भंग, तीनूं में बहु वचन प्रसंग | एकेंद्री इक भंग लहेसा, बहू सप्रदेशा अप्रदेशा ॥ १२२. पूर्व ऊपनां एकेंद्री मांय, बहु मिथ्यादृष्टीज कहाय । उपजता थका पण बहु होय, तिण सूं एक भांगो अवलोय ॥ ११०. इह च पञ्चेन्द्रियतिर्यग् मनुष्य वैमानिकपदान्येव वाच्यानि, अन्येष्वनयोरभावादिति । ( वृ० १० २६१) १११. अण्डोर्जीवमनुष्य सिद्धपदान्येोन्यन्ते अम् षामलेश्यत्वस्यासम्भवात् । ( वृ० प० २६३ ) ११२. असे हि जीव - सिद्धेहि तियभंगो। मणुएसु छब्भंगा । ११३,११४. अलेश्यतां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां मनुष्याणां सम्भवेन सप्रदेशत्वेऽप्रदेशत्वे चैकत्वबहुत्वसम्भवादिति । ( ० १० २६२) ११५. सम्यग्दृष्टिदण्डकयोः सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिप्रथमसमयेऽप्रदेशत्वं द्वितीयादिषु तु प्रवेशत्वम् । (१० १० २६३) ११६. सम्म जीवादिलो विगो विगलिदिए छब्भंगा । ११७,११८. तथैव विकलेन्द्रियेषु तु षड्, यतस्तेषु सासादनसम्बन्दृष्टय एकादयः पूर्वोत्पन्ना उत्पाद्यमानाश्च लभ्यन्तेऽतः सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वयोरेकत्व बहुत्वसम्भव इति । ११६. इन्द्रानि न वाच्यानि भावादिति । ( वृ० प० २६३ ) तेषु सम्यग्दर्शना ( वृ० १० २६३) मिच्छदिट्ठीहि एगिदियवज्जो तियभंगो । १२०. मिध्यात्वं प्रतिपन्ना बहवः सम्यक्त्वभ्रंशे तत्प्रतिपद्यमानाश्चैकादयः सम्भवन्तीतिकृत्वा । ( वृ० प० २६३) १२१. एकेन्द्रियपदेषु पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव । ( वृ० १० २६३) १२२. स्थानामुत्पद्यमानानां च बहुनामेव भावादिति । ( वृ० प० २६३ ) श० ६, उ० ४, ढाल १०१ १४३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व अभाव थी सोय । एहवो को वृत्ति रै मांय, हिवै मिश्रदृष्टी कहिवाय ॥ १२३. इहां सिद्ध न भणवा कोय, १२४. समा मिथ्यादृष्टी विषे बहु वच सुविचार | भांगा षट भणीजिये, इम न्याय उचार ॥ यतनी १२५. बहु वच मिश्र दृष्टि भावंता, पडिवज्या वलि पडिवज्जता । एकादिक बिहु मोहि लाभंत, तिण कारण घट गंगा त ।। १२६. एकेंद्री विकलेंद्रिय एह, वलि सिद्ध पद नवि उचरेह | यामें मिश्रदुष्टि नों अभाव, तिण कारण ए न कहाव ।। १२७. *संजत शब्द विशेष में, जीवादिक पद मांय । भांगा तीन भणीजिये, निसुणो तसुं न्याय || यतनी , १२. पूर्व संजम परिवज्या जाण, बहु लाभ मूनि गुणखाण । चारित्र पविजता वर्त्तमान एक आदि नों संभव जान || १२९. तिण तीन भांगा कहिवाय, जीव पद में मनुष्य पद पाय । अन्य विषे संजम नों अभाव, इम आख्यो वृत्ति में १३०. बहु वच असंजती विषे एकेंद्रिय वर्जी भांगा तीन भणीजिये, दिल न्याय धरी न्याव || नैं । नें ॥ पतनी जाण । १३१. अपर्णा पहिलाण, पूर्व पडिवजिया बहु असंजतपणुं वलि संजम भाव विशधि, असंजम पडिवजता एकादि ॥ १३२. तिण कारण छै त्रिहुं भंग, तीनूं में बहु वचन प्रसंग | एकेंद्री इक भंग लहेसा, बहु सप्रदेशा- अप्रदेशा | १२२. इहां सिद्ध पद भगवो नाहि, तास असंभव थी ताहि । जीवादिक वैमानिक अंत इहां पिणवीस दंडक हुंत ॥ १३४. संजतासंजत विषे, बहु वचन विचार | जीवादिक पद मैं विषे, भांगा तीन उचार ॥ १३५. देश- व्रत रह्या बहु जाण, वलि असंजम थी पहिछाण । तथा संजम भाव विराधि देशव्रत प्रहिता एकादि ॥ १३६. तिण कारण छै त्रिहुं भंग, तीनू में बहु वचन प्रसंग | जीव पंचेंद्रिय तिर्यच मनुष्य पद इज कहिवो सुसंच ॥ , *लय : प्रभवो मन मांहे चितव १४४ भगवती-जीड १२३. इह च सिद्धा न वाच्याः तेषां मिथ्यात्वाभावादिति । ( वृ० प० २६३ ) १२४. सम्मामिच्छदिट्टी उभंगा। १२५. सम्यग्मिथ्या दृष्टित्वं प्रतिपन्नकाः प्रतिपद्यमानाकावोऽपि लभ्यन्त इत्यतस्तेषु षड् भङ्गा भवन्तीति । ( वृ० प० २६३ ) १२६. इह चैकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय सिद्धपदानि न वाच्यान्यसम्भवादिति । ( वृ० प० २६३) १२७. संजएहि जीवादिओ नियभंगो । १२८. संयमं प्रतिपन्नां बहूनां प्रतिपद्यमानानां चकादीनां भावात् । ( वृ० प० २६३ ) १२. इह च जीवदमनुष्यपदे एवं वाच्ये अन्य संयतत्वाभावादिति । ( वृ० प० २६३ ) १३०. अस्संजएहि एगिदियवज्जो तियभंगो । १३१,१३२. इहासंयतत्वं प्रतिपाना बहूनां संयतत्वादिप्रतिपालेन तत्प्रतिपद्यमानानां कादीनां भावाद भङ्गकत्रयं, एकेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्तयुक्त्या सप्रदेशाश्चक एव भङ्ग इति । (००२६२) १३३. इह सिद्धपदं नाध्येयमसम्भवादिति । (२०१० २६३) १३४. संजया संजएहि तियभंगो जीवादिओ । १३५,१३६. इह देशविरति प्रतिपन्नानां बहूनां संयमादसंयमाद् वा निवृत्य तां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावाद्भङ्गक सम्भवः इह जीवरम्येन्द्रियति मनुष्यपदान्येवाध्येयानि । ( वृ० १० २६३) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७. नोसंजय-नोअसंजय-नोसंजयासंजय - जीव - सिद्धेहि तियभंगो। १३८. सकसाईहि जीवादिओ तियभंगो। एगिदिएसु अभंगकं। १३७. नोसंजत नोअसंजत, संजतासंजत नांय । बहु वच जीव सिद्धां विषे, त्रिण भंगा पाय ॥ १३८. *बह बच सकषाई विषे, जीवादिक त्रिण भंग । एकेंद्रिय अभंग छै, सूत्रे एम सुचंग ॥ यतनी १३६. सकषाई सदा बहु पेख, सप्रदेशा भंग इति एक । तथा उपशम श्रेणि थी पड़तो, सकषायपणुं पड़िवजतो ।। १४०. एक जीव पिण लाधै विशेष, जद सप्रदेशा अप्रदेश । द्वितीय भंग कहिवाय, हिव तीजा नों निसुणो न्याय ।। १४१. उपशमशेणी थकी बहु पड़ता, सकषाय णों पड़िवजता । जद सप्रदेशा-अप्रदेशा, ए तृतीय भंग सुविशेषा ।। १४२. नारकादिक मांहे पाय, तीन भांगा प्रसिद्ध कहाय । वलि एकेंद्रिय रै मांहि, अभंग ते भांगा नांहि ॥ १३६, १४०. सकषायाणां सदाऽवस्थितत्वात्ते सप्रदेशा इत्येको भङ्गः तथोपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानत्वे सकषायत्वं प्रतिपद्यमाना एकादयो लभ्यन्ते ततश्च सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च । (वृ०प० २६३) १४१. तथा सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्यपरभङ्गकद्वयमिति । (वृ०प० २६३) १४२. नारकादिषु तु प्रतीतमेव भङ्गकत्रयम्, 'एगिदिएसु अभंगय' ति अभङ्गक-भड़कानामभावोऽभङ्गकम् । (वृ० प० २६३) १४३. सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव विकल्प इत्यर्थः, बहूनामवस्थितानामुत्पद्यमानानां च तेषु लाभादिति । (वृ० प० २६३) १४३. बहु सकषाई सदा पाय, ऊपजता पिण बहु थाय । घणां सप्रदेशा-अप्रदेशा, एक विकल्प वृत्ति कहेसा ।। १४४. एके द्रिय में अभंग सूत्र मांय, त्रिण षट भंग नी अपेक्षाय । त्रिण षट माहिल भंग एक, तिण स् वृत्ति विषे एक पेख ।। १४५. इहां सिद्ध पद नै नहि कहिवो, अकषाईपणे तसं रहिवो । दंडक चोबीसां माहे कषाय, सिद्धां मांहे ते नहिं पाय ॥ १४६. *क्रोधकषाई नै विषे, बहु वच पहिछाण । जीव एकेंद्रिय वर्ज न, भांगा तीन जाण ।। १४५. इह च सिद्धपदं नाध्येयमकषायित्वात् । (वृ० प० २६३) १४६. कोहकसाईहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। यतनी १४७. वृत्ति में कह्यो क्रोधकषाई, बहु वच जीव एकेंद्री मांही। बहु सप्रदेशा-अप्रदेशा, शेष में त्रिण भंग कहेसा ।। १४८. समचै सकषाई जीव मांहि, पूर्व त्रिण भांगा कह्या ताहि । क्रोधकषाई में त्रिण भंग, किम न लाधै तेह प्रसंग? १४६. तेहनों उत्तर इह विध जाण, मान माया लोभ पहिछाण । ए तीन भावे न वर्त्ततां, क्रोध भावे घणां पामतां ।। १५०. अनंतकाय नी राशि मझार, तिहां जीव अनंता धार । क्रोध भावे सदा बहु होय, पिण एकादिक नहिं सोय ।। १५१. तिण सूं क्रोधकषाई विशेषा, सव्व जीवा सप्रदेशा-अप्रदेशा। पिण तीन भांगा नहिं पाय, बुद्धिवंत विचारै न्याय ॥ १४७. क्रोधकषायिद्वितीयदण्डके जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गः शेषेषु त्रयः । (वृ० प०२६३) १४८, ननु सकषायिजीवपदवत्कथमिह भङ्गत्रयं न लभ्यते ? (वृ० प० २६३) १४६. उच्यते, इह मानमायालोभेभ्यो निवृत्ता: क्रोधं प्रतिपद्यमाना बहब एव लभ्यन्ते । (वृ०प० २६३) १५०. प्रत्येकं तद्राशीनामनन्तत्वात्, न त्वेकादयः । (वृ० प० २६३) *लय: प्रभवो मन मांहे चितवै श० ६, उ०४, ढा० १०१ १४५ Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३. यथोपशमश्रेणीत प्रच्यवमाना: सकषायित्वं प्रतिपत्तार इति । (वृ०प०२६४) १५५. देवेहि छन्भंगा। देवपदेषु त्रयोदशस्वपि षड्भङ्गाः । (वृ० प० २६४) १५६, १५७. तेषु क्रोधोदयवतामल्पत्वेनैकत्वे बहुत्वे च सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः सम्भवादिति ।(वृ० प० २६४) १५२. समचै सकषाई जीवां मांय, तीन भांगा कह्या तसुं न्याय । सकषाईपणे सदा ताहि, बहु जीव रह्या जग मांहि ॥ १५३. पछै उपशमश्रेणि थी पड़तो, सकषायपणों पड़िवजतो । एक जीव तथा बहु जीवा, प्रथम समय लाधै ते अतीवा ॥ १५४. तिण सं सकषाई जीव मांहि, तीन भांगा पूर्व क ह्या ताहि । क्रोधकषाई सदा विशेषा, तिणसूं सप्रदेशा अप्रदेशा ।। १५५. *बह बच क्रोध कषाय में, देव पदे कहिवाय । तेर दंडक सुर ने विषे, षट भंगा तसं न्याय ॥ यतनी १५६. देव वर्त्तता क्रोध रै भावै, अल्पपणे एकादिक थावै। तिण सूं कहिये इक वचनेह, वलि वहु वचने पिण तेह ।। १५७. सप्रदेशपणु अवलोय, वलि अप्रदेशपणुं जोय । बिहं ना संभव थीज प्रसंग, तिण कारण है षट भंग ॥ १५८. *मानकषाई नै विषे, वलि मायकषाई । जीव एकेंद्रिय वर्ज नैं, त्रिण भंगा थाई। १५६. बहु वच नारक सुर विषे, मान माया कषाई । भांगा षट लहिय अछ, तास न्याय कहिवाई । यतनी १६०. नारकी देवता में जेह, मान माय भावे वत्तै तेह । तिके अल्पहिज कहिवाय, षट भांगा पूर्वले न्याय ।। १६१. *बहु वच लोभ कषाई में, वर्जी जीव एगिदिया । तोन भांगा पावै अछ, षट भंग नेरइया ॥ १५८, माणकसाई-मायाकसाईहि जीवेगिदियवज्जो तिय भंगो। १५६. नेरइय-देवेहि छम्भंगा। मानकषायमायाकषायिद्वितीयदण्डके 'नेरध्यदेवेहि छब्भंग' त्ति (वृ० प० २६४) १६०, नारकाणां देवानां च मध्येऽल्पा एव मानमायोदय वन्तो भवन्तीति पूर्वोक्तन्यायात् षड् भङ्गा भवन्तीति । (वृ० प० २६४) १६१. लोभकसाईहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। नेरइ एसु छब्भंगा यतनी १६२ एतस्य क्रोधसूत्रबद्भावना 'नेरइएहि छन्भंग' त्ति (वृ०प० २६४) १६३. नारकाणां लोभोदयवतामल्पत्वात् पूर्वोक्ताः षड्भंगा भवन्तीति । (वृ० प० २६४) १६२. वृत्ति मांहि कही इम वाय, एह सूत्र क्रोधवत पाय । नारकी नै विषे षट भंग, तेहनों इम न्याय प्रसंग ।। १६३. नारकी ने लोभोदयवंत, अल्पपणां थकीज उदंत । पूर्वोक्त भांगा षट होय, नारक लोभकषाई जोय ॥ १६४. सुर नारक में अल्प जोय, मान माय वर्तत्ता होय । पूर्वोक्त न्याय थी पेख, षट भांगा हुवै इण लेख ।। १६५. क्रोध मान माया सुर मांय, तसु षट भांगा कहिवाय । मान माया लोभ नारकेह, तसं पिण षट भंग कहेह ।। १६६. देवतां में लोभ बहु होय, तिण सं लोभ भाव बह जोय । नरक में बहु क्रोधज पावै, तिण सूं वर्ते बहु क्रोध भावै ॥ *लय : प्रभवो मन मांहे चितव १६५. कोहे माणे माया बोद्धव्वा सुरगणेहिं छब्भंगा। माणे माया लोभे नेरइएहि पि छन्भंगा ।। (वृ०प०२६४) १६६. देवा लोभप्रचुरा, नारकाः क्रोधप्रचुरा इति । (वृ० प० २६४) १४६ भगवती-जीड़ Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७. अकसाई-जीव-मणुएहि, सिद्धेहिं तियभंगो। १६७. *बह वच अकषाई विषे, जीव मनष्य सिद्ध न्हाल । भांगा तीन पावै अछ, घणां केवली त्रिकाल ।। १६८. औधिक समचै ज्ञान में, मतिज्ञान श्रुतज्ञान । बहु वचने जीवादिके, त्रिण भांगा जान ।। १६८. ओहियनाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे जीवा दिओ तियभंगो। यतनी १६६. समचै ज्ञानी सदा बह होय, इम मति श्रत ज्ञानी जोय । बहु समय तणां सूविशेख, सप्रदेशा भांगो इक देख ॥ १७०. अज्ञान थकी कोइ ज्ञान पड़िवजतो थको इक जान । एक समय थयो सुविशेख, ते सप्रदेशा अप्रदेश एक ॥ १७१. अज्ञान थकी केइ ज्ञान पड़िवजता थका बहु जान । इक समय थया सुविशेषा, ते सप्रदेशा-अप्रदेशा।। १६६. तत्रोधिकज्ञानमतिश्रुतज्ञानिनां सदाऽवस्थितत्वेन सप्रदेशानां भावात्, सप्रेदशा इत्येकः । __ (वृ० प० २६४) १७०, १७१. मिथ्याज्ञानान्मत्यादिज्ञानमात्रं...."प्रतिपद्य मानानामेकादीनां लाभात्सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च तथा सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्चेति द्वावित्येवं त्रयमिति । (वृ० प० २६४) १७२. विगलिदिएहि छब्भंगा। १७२. *विकलेंद्रिय षट भंग है, ज्ञान मति श्रुत लाध । पूर्व पड़िवज्या लाभ एकादिक, पड़िवजता पिण एकाद ।। १७३. अवधि मनपर्यव ज्ञान में, वलि केवलज्ञान । जीवादिक विण भंग छै, ज्यांमें लाभ ते जान ।। १७३. ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे जीवादिओ तियभंगो। यतनी १७४. पति श्रुत ज्ञान रै मांय, एकेद्रिय सिद्ध न कहाय । अवधि विषे एकेंद्री न पाय, विकलेंद्रिय सिद्ध न थाय ।। १७५. मनपर्यव जीव मन जाण, केवल जीव मनष्य सिद्ध माण । इम यथायोग्य कहिवाय, ब द्धिवंत मिलावै न्याय ॥ १७४. इह च यथायोगं पृथिव्यादयः सिद्धाश्च न वाच्या: असंभवादिति, एवमवध्यादिष्वपि भङ्गत्रयभावना, केवलमवधिदण्डकयोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया: सिद्धाश्च न वाच्याः , (वृ०प०२६४) १७५. मनःपर्यायदण्डकयोस्तु जीवा मनुष्याश्च वाच्याः, केवलदण्डकयोस्तु जीवमनुष्यसिद्धा वाच्याः, (वृ० प० २६४) १७६. अतएव वाचनान्तरे दृश्यते 'विण्णेयं जस्स जं अत्थि' त्ति । (वृ० प० २६४) १७७. ओहिए अण्णाणे, मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे एगिदिय वज्जो तियभंगो। १७६. वाचनांतरे वृत्ति रै मांहि, विण्णेयं जस्स जं अस्थि ताहि । ____ जेह मांहे बोल जे पाय, ते कहिवू विचारी न्याय ॥ १७७. *औधिक समचे अज्ञान में, वलि मति श्रुत अज्ञान । एकेंद्रिय वरजी करी, तीन भांगा जान ।। यतनी १७८. समचै अन्नाणी मति श्रुत अज्ञानी, सदा अवस्थित बहु जानी । कहियै तास सप्रदेशा, इक भांगो एम लहेसा ॥ १७६. वलि एक जीव ते मांय, ज्ञान मकी अज्ञानी थाय । तिण रो प्रथम समय सुविशेख, ए सप्रदेशा-अप्रदेश एक ॥ *लय : प्रभवो मन मांहे चितवै १७८. सामान्येऽज्ञाने मत्यज्ञानादिभिरविशेषिते मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने च जीवादिषु त्रिभङ्गी भवति, एते हि सदाऽ वस्थितत्वात्सप्रदेशा इत्येकः। (वृ० प० २६४) १७६. यदा तु तदन्ये ज्ञानं विमुच्य मत्यज्ञानादितया परिणमन्ति तदैकादिसम्भवेन सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्चेत्यादिभङ्गद्वयम् । (वृ० प० २६४) श० ६, उ०४, ढा० १०१ १४७ Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० तथा अन्य बहु जीव ताय, ज्ञान मूकी अज्ञानी थाय । त्यांरो प्रथम समय सुविशेषा, ए सप्रदेशा- अप्रदेशा ॥ १८१. पृथिव्यादिक एकेंद्री मांय तिहां एक भांगो कहिवाय । बहु सप्रदेशा- अप्रदेशा, न्याय पूर्व उक्त कहेसा ॥ । १०२. *विभंग अज्ञानी विषे जीवादिक त्रिण भंग । न्याय पूर्व जे आखियो, कहिवो ते सुचंग ॥ १८२३. सजोगी जीवादिक मझे, इक बहु वच मांय । जिम औधिक जीवादिक भणी, आख्या तिम कहिवाय ॥ यतनी १८४. इक वचन सजोगी जीव, नियमा सप्रदेशी अतीव । नारकादि सिय सप्रदेश, सिय अप्रदेश सुकहेस || १५. बहुवचन सजोगी जीवा, सप्रदेशाज होवं सदीया । एकेन्द्री वर्जी नारकादि कहिये तीन भांगा सुसाधि || १८६. एकेन्द्री इक भंग विशेषा, वह सप्रदेशा- अप्रदेशा। बहु इम औधिक जिम कहिवाय, इक सिद्ध पद कहिवो नांय ॥ १८७. * मन वच काय जोगी मझे, जीवादिक त्रिण भंग । नवरं काय जोगी विषे एगिदिया में अभंग ॥ यतनी त । 1 1 १८८. मनजोग हिं जोगवंत ते तो सभी मांह इज वचनजोग एकेन्द्री में नांहि पावै उगणीस दंडक मांहि ॥ १८१. कायजोग दंडक चडवीस हि निर्णय भंग कहीस । मन जोग जीवादिक मांय, त्रिहुं भांगा नो इम न्याय ॥ १०. बहु मन जोगे आदि जाण, अवस्थितपणे पहिछाण । जद सप्रदेशा इज होय, इम प्रथम भंग अवलोय ॥ ११. छांडी अमनोजोगीपणुं पेख, मनजोगीपणे थयुं एक । तिण से प्रथम समय सुविशेष इम सप्रदेशा- अप्रदेश || १२. अमनोजोगीपणं ताय, मनोजोगीपणें बहु थाय । छांडी तिण रो प्रथम समय सुविशेषा, इम सप्रदेशा - अप्रदेशा || १२३. इम वचन काय जोगी जाण णवरं इतो विशेष विद्वाण । काय जोगी एकेन्द्री विशेषा, वह सप्रदेशा- अप्रदेशा || बहु १४. सीनू जोग दंडक मांय, जीवादिक पद में जे पाय । यथासंभव ते कहिवाय, पण सिद्ध पद मणवो नांव ॥ *लय : प्रभवो मन मांहे चितव १४८ भगवती जोड़ १८१. पृथिव्यादिषु तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव इति । ( ० ० २६४) १८२. विभंगनाणे जीवादिओ तियभंगो । १०३ जोगी जहा ओहिओ वन्तः । १८४. सयोगी जीवो नियमात्सप्रदेशो नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा । ( वृ० १० २६४) १८५. बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभङ्ग( वृ० प० २६४) १८६. एकेन्द्रियाः पुनस्तृतीयभङ्गा इति इह सिद्धपद नाध्येयं । ( वृ० १० २६४ ) १८७. मणजोगी, वडजोगी, कायजोगी जीवादिओ तियभंगो, नवरं कायगो एगिदिया, ते अभंगयं । १८८. मनोयोगिनो योगत्रयवन्तः सञ्ज्ञित इत्यर्थः, वाग्योगिन एकेन्द्रियव: (४० १० २६४) १८. योगिनस्तु सर्वेऽप्येन्द्रादयः एते च जीवादिषु त्रिविधो भङ्गः । ( ० १० २६४) १६०. मनोयोगादीनामवस्थितत्वे प्रथमः । ( वृ० प० २६४ ) मनोयोगित्वापादेना देशत्व लाभेश्वङ्गमिति । ( वृ० प० २६४ ) १९१,१६२. अमनोयोगित्वादित्यागाच्च १६३. नवरं काययोगिनो ये एकेन्द्रियास्तेष्वभङ्गकं, सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गक इत्यर्थः । (० ० २६४) १४. एते च योगदण्डकेषु जीवादिपदानि यथासम्भवमध्येयानि सिद्धपदं च न वाच्यमिति । ( ० १० २६४ ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५. अजोगी अलेसी जिम भणवा, एक वचन बहु वच गणवा । द्वितीय दंडक बहु वच मांय, अजोगी विषे इम कहिवाय ।। १६६. जीव नै सिद्ध पद सुचीन, यांमें भांगा कहीजे तीन । मनुष्य विषे छ भांगा होय, वृत्ति विषे इम जोय ।। १६७. *बह वचने साकार नै, अणागारोवउत्ता। जीव एकेन्द्रिय वर्ज नै, भांगा तीनज उत्ता ।। १६५, १६६. अजोगी जहा अलेस्सा। दण्डकद्वयेऽप्यलेश्यसमवक्तव्यत्वात्तेषां, ततो द्वितायदण्डकेऽयोगिषु जीवसिद्धपदयोर्भङ्गकत्रयं मनुष्येषु च षड्भङ्गीति । (वृ० प० २६४) १६७. सागारोवउत्त-अणागारोवउत्तेहि जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। यतनी १६८. बिहं उपयोग मांहे सुचीन, नारकादिक में भंग तीन । जीव एकेन्द्री एक लहेसा, बहु सप्रदेशा-अप्रदेशा ।। १६६. एक उपयोग थी जे ताय, बीजा उपयोग नै विषे आय । तिहां प्रथम समय सप्रदेश, द्वितीयादि समय अप्रदेश ।। २००. वलि सिद्धां तणे कहिवाय, एक समय उपयोगी थाय । किम सप्रदेश अप्रदेश, तिहां वृत्ति में न्याय कहेस ॥ २०१. उपयोग सागार नै अनागार, पामवापणुं छै बार बार - सप्रदेश कहियै विशेष, एक बार पाम्या अप्रदेश ।। २०२. बार बार पाम्या छै सागार, एहवा वह सिद्ध आश्री विचार । एक तार सागार न कोय, सप्रदेशा इक भंग होय ।। २०३. त्यां सिद्धां विषे नवो एक, सिद्ध थयो संसार थी पेख । एक बार सागार लहेस, जद सप्रदेशा-अप्रदेश ।। २०४. तथा तेह सिद्धां विषे सोय, नवा सिद्ध थया बहु जोय । एक बार साकार लभेसा, जद सप्रदेशा-अप्रदेशा।। २०५. बार बार पाम्या अणागार, एहवा बह सिद्ध आश्री विचार। ___ अनाकार न इक पिण पेख, सहु सप्रदेशा भंग एक ॥ २०६. त्यां सिद्धां विषे नवो एक, सिद्ध थयो संसारी थी पेख । बार इक अणागार लहेस, जद सप्रदेशा-अप्रदेश ।। २०७. तथा तेह सिद्धां विषे सोय, नवा सिद्ध थया बहु जोय । वार इक अणागार लभेसा, जद सप्रदेशा-अप्रदेशा ।। २०८. *सवेदगा जीवादिक पदे, सकषाई जेम। भांगा तीन भणीजिये, एकेन्द्रो इक तेम ।। १६८ साकारोपयुक्तेष्वनाकारोपयुक्तेषु च नारकादिपु त्रयो भङ्गाः, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशा श्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव । (वृ०प०२६५) १६६. तत्र चान्यतरोपयोगादन्यतरगमने प्रथमेतरसमयेण्य. प्रदेशत्वसप्रदेशत्वे भावनीये, (वृ०प० २६५) २००. सिद्धानां त्वेकसमयोपयोगित्वेऽपि । (वृ० प०२६५) २०१. साकारस्येतरस्य चोपयोगस्यासकृत्प्राप्त्या सप्रदेशत्वं सकृत्प्राप्त्या चाप्रदेशत्वमवसेयम् । (वृ० प० २६५) २०२. एवं चासकृदवाप्तसाकारोपयोगान् बहूनाथित्य सप्रदेशा इत्येको भङ्गः, (वृ० प० २६५) २०३. तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगं चैकमाश्रित्य द्वितीयः, (वृ० प० २६५) २०४. तथा तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगांश्च बहनधिकृत्य तृतीयः, (वृ०प० २६५) २०५. अनाकारोपयोगे त्वसकृत्प्राप्तानाकारोपयोगानाथित्य प्रथमः, (वृ० प० २६५) २०६. तानेव सकृत्प्राप्तानाकारोपयोगं चैकमाश्रित्य द्वितीयः, (वृ० प० २६५) २०७. उभयेषामप्यनेकत्वे तृतीय इति । (वृ० प० २६५) २०८, सवेदगा जहा सकसाई । सवेदानामपि जीवादिपदेषु भङ्गकत्रयभावात्, एकेन्द्रियेषु चैकभङ्गसद्भावात् । (वृ० प० २६५) यतनी २०६. जीव सवेदी बहु जग मांहि, बहु काल तणां छै ताहि । प्रथम समय सवेदी न पाय, जद सप्रदेशा वहु थाय ।। २०६-२११. इह च वेदप्रतिपन्नान् बहून् श्रेणिभ्रशे च वेदं प्रतिपद्यमानकादीनपेक्ष्य भङ्गकत्रयं भावनीयम्, (वृ० प० २६५) *लय : प्रभवो मन मांहे चितव श० ६, उ०४, ढा० १०१ १४६ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०. घणां सवेदी माहे एक, श्रेणि थी पड़तो संपेख । तिण रो प्रथम समय सुविशेष, जद सप्रदेशा-अप्रदेश ।। २११. वले घणां सवेदी में सोय, श्रेणि थी पड़ता बह होय । तिण रो प्रथम समय सुविशेषा, बहु सप्रदेशा-अप्रदेशा ।। २१२. *स्त्री पुं नपुंसक वेदगा, जीवादिक विण भंग । णवरं नपुंसक नै विषे, एकेन्द्री में अभंग ॥ यतनी २१३. वेद थकी बीजा वेद मांहि, संक्रमता छतां जे ताहि । जद प्रथम समय अप्रदेश, द्वितीयादि समय सप्रदेश ।। २१४. तीन भांगा पूर्ववत कहिवा, नपुंसक एकेन्द्री इक लहिवा। बहु सप्रदेशा-अप्रदेशा, पूर्वली परे युक्ति कहेसा ।। २१२. इत्थिवेदग-पुरिसवेदग-नपुंसगवेदगेसु जीवादिओ तियभंगो, नवरं-नपुंसगवेदे एगिदिएसु अभंगयं । १२५ वी पुणुर पंजा भाव देवा विच विनिय सेवा २१५. स्त्री पुरुष दंडक मनु देवा, तिर्यंच पंचेन्द्रिय लेवा। नपुंसक सुर वर्जी भणवा, पद सिद्ध सर्व में न थुणवा ॥ २१६. *अवेदी जिम अकषाइया, जीव मनुष्य पद सिद्ध । भांगा तीन भणीजिय, अकषाई ज्यूं द्ध ॥ २१३. इह वेदावेदान्तरसंक्रान्तौ प्रथमे समयेऽप्रदेशत्वमि तरेषु च सप्रदेशत्वमवगम्य। (वृ०प० २६५) २१४. भङ्गकत्रयं पूर्ववद्योज्यं नपुंसकवेददण्डकयोस्त्वे केन्द्रियेष्वेको भङ्गः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येवंरूपः प्रागुक्तयुक्तेरेवेति, (वृ० प० २६५) २१५. स्त्रीदण्डकपुरुषदण्डकेषु देवपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्य पदान्येव, नपुंसकदण्डकयोस्तु देववर्जानि वाच्यानि, सिद्धपदं च सर्वेष्वपि न वाच्यमिति । (वृ०प० २६५) २१६. अवेदगा जहा अकसाई । जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भङ्गकत्रयमकषायिवद्वाच्यम् । (वृ० प० २६५) २१७. ससरीरी जहा ओहिओ। औधिकदण्डकवत्सशरीरिदण्डकयोर्जीवपदे सप्रदेशतब वाच्याऽनादित्वात्सशरीरत्वस्य, (वृ० प० २६५) २१८. नारकादिषु तु बहुत्वे भङ्गकत्रयमेकेन्द्रियेषु तृतीयभङ्ग इति । (वृ० प० २६५) २१६. ओरालिय-वेउब्वियसरीराणं जीवेगिदि पवज्जो विय भंगो। २१७. सशरीरी औधिक जिम अछ, एक बहु वच मांय । सप्रदेशपणों ईज छै, अनादिपणां थी थाय ।। २१८. नारकादि बहु वचन में, भंग त्रिण सूविशेषा। तीजो भांगो एकेन्द्री मझे, सप्रदेशा-अप्रदेशा ।। २१६. औदारीक अरु वैक्रिय तनवाला में ताय । जीव एकेन्द्रिय वर्ज नैं, तीन भांगा पाय । यतनी २२०. औदारिकादि वालों में ताहि, बहु वच जीव एकेंद्री मांहि । इक तीजो भांगो पावंत, बहु ऊपना बहु उपजत ॥ २२१. शेष विषे भांगा त्रिण होय, तेह विषे बहु रह्या सोय । इम पूर्वला बहु हुंत, सर्व सप्रदेशा पावंत ।। २२२. तथा औदारिक छांडी नैं, वलि वैक्रिय त्याग करीन। औदारिक मांहे आवंतां, तथा वैक्रियपण पावंतां ॥ २२३. प्रथम समय एक बहु होय, तिण सूं तीन भांगा अवलोय । इक बहु वच औदारीक, नारका सुर नांहि कथीक । *लय : प्रभवो मन मांहे चितव २२०. औदारिकादिशरीरिसत्त्वेषु जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च बहुत्वे तृतीयभङ्ग एव, बहूनां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्य मानानां चानुक्षणं लाभात्, (वृ० प० २६५) २२१. शेषेषु भङ्गकत्रयं बहूनां तेषु प्रतिपन्नानां (वृ० प० २६५) २२२, २२३. तथौदारिकवैक्रियत्यागेनौदारिकं वैक्रियं च प्रतिपद्यमानानामेकादीनां लाभात्, इहौदारिकदण्डकयो रका देवाश्च न वाच्याः । (वृ० प० २६५) १५० भगवती-जोड़ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४. वलि वैक्रिय इक बहु वाय, वाऊ वर्जी थावर में नाय । विकलेंन्द्रिय में पिण जोय, वैक्रिय तन नहिं होय ।। २२५. जे वैक्रिय वायु मांय, एक तीजो भांगो कहिवाय । समय-समय वायु असंख्यात, तन वैक्रिय करण आख्यात ।। २२६. तथा मनष्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच, वैक्रिय लब्धिवंत सूसंच । थोड़ा हुवै ते पिण त्यां मांय, तीन भांगा कह्या जिनराय ॥ २२७. ते वचन सामर्थ्य थी जान, बहु वैक्रिय रह्य पिछान । तथा पड़िवज्जमान एकादि, तिण सं तीन भांगा इहां लाधि ।। २२८. *आहारक इक बहु वचन थी, जीव मनष्य षट भंग । ते तन अल्पपणां थकी, शेष दंडक न प्रसंग ।। २२४. वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिविक लेन्द्रिया न वाच्याः । (वृ० प० २६५) २२५. यश्च वैक्रियदण्डके एकेन्द्रियपदे तृतीयभङ्गोऽभि धीयते स वायूनामसंख्यातानां प्रतिसमयं वैक्रियकरणमाश्रित्य, (वृ०प० २६५) २२६. २२७. यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिमन्तोऽल्पे तथाऽपि भङ्गकत्रयवचनसामाद् बहूनां वैक्रियावस्थानसम्भवः, तथैकादीनां तत्प्रतिपद्यमानता चावसेया। (वृ० प० २६५) २२८. आहारगसरीरे जीव-मणुएसु छब्भंगा, आहारकशरीरिणामल्पत्वात्, शेषजीवानां तु तन्न संभवतीति । (वृ० प० २६५) २२६. तेयग-कम्मगाई जहा ओहिया । २२६. तेजस शरीर तणां धणी, वलि कार्मणवाला । औधिक जेम कहीजिय, ए जिन वचन विशाला ॥ यतनी २३०. तिहां बहु वचने जे जीवा, होवै सप्रदेशाज अतीवा । तेजसादिक नों संजोग, अनादिपणां थी प्रयोग। २३१. नारकादिक में त्रिण भंग, तीजो भंग एकेंद्री प्रसंग । सशरीरादिक दंडकेह, पद सिद्ध तणो न कहेह ।। २३०. तत्र च जीवाः सप्रदेशा एव वाच्याः, अनादित्वातैजसादिसंयोगस्य, (वृ० प० २६५) २३१. नारकादयस्तु त्रिभङ्गाः, एकेन्द्रियास्तु तृतीयभङ्गाः, एतेषु च शरीरादिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमिति, (वृ० प० २६५) २३२. असरीरेहिं जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। अन्यत्राशरीरत्वस्याभावादिति । (वृ० प० २६५) २३३. आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए, आणापाणपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, २३२. *अशरीरी जीव सिद्धां विषे, त्रिण भांगा पाय । चोबीस दंडक मैं विषे, अशरीरी नहिं थाय ॥ २३३. आहार शरीर नै इंद्रिय, पर्याप्त आणप्राण । जीव एकेंद्रिय वर्ज ने, तीन भांगा जाण ॥ यतनी २३४. इहां जीव-पदे कहिवाय, वलि एकेंद्री पद मांय। आहार आदि पर्याप्ति च्यार, तिण सहित बहु अवधार ।। २३५. आहारादिक अपर्याप्ति जाण, तिके तजवै करि पहिछाण । आहार पर्याप्ति प्रमखेह, तिण कर पर्याप्तिभाव पामेह ।। २३६. पिण लाभ बहु सुविशेषा, तिण सं सप्रदेशा अप्रदेशा । तिण सं भंग तीजो कहिवाय, शेष में तीन भांगा थाय । २३४. इह च जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहूनामाहारादिपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां (वृ० प० २६५) २३५, २३६. तदपर्याप्तित्यागेनाहारपर्याप्त्यादिभिः पर्या प्तिभावं गच्छतां च बहूनामेव लाभात्सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गः, शेषेषु तु त्रयो भंगा इति । (वृ० प० २६५) *लय : प्रभवो मन माहे चिन्तवै श०६, उ०४, ढा० १०१ १५१ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७. *भाषा मन पर्याप्ति में, सन्नी जिम कहिवाय । सर्व पदे भंग तीन छै, दंडक पंचेंद्री पाय ॥ यतनी २३८. भाषा मन पर्याप्ति एक, किणहि कारण थी सुविशेख । बहुश्रुत कही छै ताय, इम वृत्ति विष छै वाय ।। २३७. भासा-मणपज्जत्तीए जहा सपणी। सर्वपदेषु भङ्गकत्रयमित्यर्थः, पञ्चेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि, (वृ० प० २६५) २३८. इह भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामन:पर्याप्तिः, भाषा मनःपर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, (वृ० प० २६५). २३६. आहार-अपज्जत्तीए जहा अणाहारगा, २३६. *आहार अपर्याप्ति विषे, अनाहारका जेम। निर्णय वृत्ति विषे कह्यो, सुणज्यो धर प्रेम ।। यतनी २४०. जीव एकेंद्री इक भंग एसा, बहु सप्रदेशा अप्रदेशा । निरंतर विग्रहगति बहु पाय, शेष में षट भंगा कहाय ।। २४०. इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशा श्चेत्येक एव भङ्गकोऽनवरतं विग्रहगतिमतामाहारपर्याप्तिमतां बहूनां लाभात्, शेषेषु च षड्भङ्गाः पूर्वोक्ता एवाहारपर्याप्तिमतामल्पत्वात्, (वृ० प० २६६) २४१. सरीर-अपज्जत्तीए, इंदिय-अपज्जत्तीए, आणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, (वृ० प० २६६) २४२. नेरइय-देव-मणुएहि छन्भंगा, २४१. *शरीर इन्द्री आणपाण ए, अपर्याप्ति त्रिहं जाण । जीव एकेंद्रिय वर्ज नै, भंग तीन पहिछाण ॥ २४२. नारक देव मनुष्य विषे, षट भांगा होय । न्याय कहूं हिव वृत्ति थी, सुणज्यो सहु कोय । यतनी २४३. जीव एकेंद्री में भंग एक, सप्रदेशा अप्रदेशा देख । अन्य विषे भंग त्रिण पाय, तिण रो न्याय सूणो चित ल्याय ।। २४४. शरीरादि अपर्याप्ति तीन, काल थी सप्रदेशा सुचीन । सदा काल लाभ छै ताय, अप्रदेशा कदाचित थाय ।। २४५. तिके एक आदि पिण पाय, तिण सं तीन भांगा कहिवाय । बले नारकी सुर नर मांहि, षट भांगा कहीजै ताहि ॥ २४६. *भाषा मन अपर्याप्ति विषे, जीवादिक त्रिण भंग । नारक सुर अरु मनुष्य में, षट भंग प्रसंग ॥ यतनी २४७. भाषा मन पर्याप्ति अबंध, तेह अपर्याप्ति नी संध। पंचेंद्रिय जाति प्रसंग, तिण सं जीवादिक विण भंग ॥ २४३. इह जीवेष्वेकेन्द्रियेषु चैक एव भङ्गोऽन्यत्र तु त्रयं, (वृ० प० २६६) २४४, २४५. शरीराद्यपर्याप्तकानां कालतः सप्रदेशानां सदैव लाभात् अप्रदेशानां च कदाचिदेकादीनां च लाभात्, नारकदेवमनुष्येषु च पडेवेति, (वृ० प० २६६) २४६. भासामणअपज्जत्तीए जीवादिओ तियभंगो, नेरइयदेव-मणुएहि छन्भंगा। (श० ६।६३) २४७. भाषामनःपर्याप्त्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पंचेन्द्रिया एव, (वृ० प० २६६) *लय : प्रभवो मन मांहे चितवै १५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८. जो ए भाषा मन पर्याप्ति, कहै अभाव मात्र करि नाप्ति । जद तो एकेंद्री पिण तिहां आय, जीव पदे तीजो भंग थाय ।। २४८, यदि पुनर्भाषामनसोऽभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभविष्यस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भङ्गःस्यात्, (वृ० प० २६६) २४६-२५१. 'जीवाइओ तियभंगो' त्ति, तत्र जीवेषु पञ्चे न्द्रियतिर्यक्षु च बहूनां तदपर्याप्ति प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां लाभात् पूर्वोक्तमेव भङ्गत्रयं, (वृ० प० २६६) २४६. इहां कह्या जीवादि त्रि भंग, तिण सं एकेंद्री नो न प्रसंग । जीव पंचेंद्री तिर्यंच मांहि, तीन भांगा कहीजै ताहि ।। २५०. तेणे भाषा मन पर्याय, अणबांधवै अपर्याप्ति थाय । पंचेंद्री तिर्यंच रै मांय, अपर्याप्ति बहुला पाय । २५१. प्रतिपद्यमान ते मांय, इक आदि नुं संभव थाय । तिण कारण है त्रिण भंग, पूर्ववत न्याय सुचंग ।। २५२. नरक देव मनष्य षट भंग, मनो-अपर्याप्त नै प्रसंग ।। तिहां सप्रदेशा पिण एकादि, अप्रदेशा एकादि लाधि ।। २५३. तिण कारण षट भंग थाय, इहां सिद्ध कहिवो नाय । हिव चवदेइ द्वार नी ताय, गाथा संग्रहणी कहिवाय ॥ २५२, २५३. 'नेरइयदेवमणुएसु छब्भंग' त्ति नैरयिकादिपु मनोऽपर्याप्तिकानामल्पतरत्वेन सप्रदेशानामेकादीनां लाभात्त एव पड् भङ्गाः, एषु च पर्याप्त्यपर्याप्तिदण्डकेपु सिद्धपदं नाध्येयमसम्भवादिति । पूर्वोक्तद्वाराणां संग्रहगाथा (वृ० प० २६६) २५४. सपदेसाहारग-भविय-सण्णि-लेसा-दिट्ठि-संजयकसाए । नाणे जोगुवओगे, वेदे य सरीर-पज्जत्ती॥ (श० ६।६३ संगहणीगाहा) २५४. सपदेश आहारग भव्य सन्नी लेस दृष्टी संयति । कषाय ज्ञान बलि जोग नै उपयोग वेद तनु-पज्जति ॥ २५५. *ढाल एक सौ एकमी, अंक चोसठ देश । भिक्ष भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' हरष विशेष ।। ढाल : १०२ १. जीवाधिकारादेवाह (वृ० प० २६६) १. जीव तणां अधिकार थी, जीव तणोज विचार । पूछ गोयम वीर ने, वारू प्रश्न उदार ॥ हो प्रभुजी ! परम अनुग्रह कीजै । देव जिनेंद्र दयाल दया करि, जन-संशय मेटीजै। हो प्रभुजी ! कृपा अनुग्रह कीजै । (ध्रुपद) २. जीवा स्यं प्रभ ! पचखाणी छ ? सर्व विरतवंत जाणी । अपचखाणी तेह अविरति, के पचखाणा-पचखाणी ? २. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणी? अपच्चक्खाणी? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? 'पच्चक्खाणि' त्ति सर्वविरता:, 'अपच्चक्खाणि' त्ति अविरताः। (वृ० प० २६७) लिय : पूज मोटा भांज *लय : प्रभवो मन मांहे चितवै रलय : सेवो रे साध सयाणा श० ६, उ० ४, ढाल १०१,१०२ १५३ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि । (श० ६।६४) ४. सव्व जीवाणं एवं पुच्छा। गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी, ५. जाव चउरिदिया (सेसा दो पडिसेहेयव्वा) । ३. जिन कहै जीवा पचखाणी पिण, वलि छै अपचखाणी । पचखाणा-पचखाणी पिण छै, बोल तीनइ जाणी । (रे गोयम ! सांभलज चित ल्याय । चवदेइ गणस्थान तीनू में, निर्मल कहीजै न्याय) । ४. सर्व जीवां नीं पूछा इहविध, उत्तर दे जिनराय । नेरइया अपचखाणी अविरती, चिउं गणठाणां पाय॥ ५. जाव चोइंदिया अपचखाणी, पचखाणी नहिं होय । पचखाणा-पचखाणी पिण नहीं, बोल न पावै दोय ।। ६. तिर्यंच-पंचेंद्री नोपचखाणी, अपचखाणी जाण । पचखाणा-पचखाणी पिण छ, पावै पंच गणठाण ।। ७. मन पचखाणी अपचखाणी, पचखाणा-पचखाणी । व्यंतर ज्योतिषि वैमानिक ते, नरक जेम पहिछाणी ॥ सोरठा ८. पचखाणी तो होय, प्रत्याख्यान जाण्ये छते । ते माटै अवलोय, ज्ञान-सूत्र कहियै हिवै। ६. *जीव प्रभु ! पचखाण जाणै स्यू अपचखाण नैं जाणै ? पचखाणापंचखाण नैं जाण ? हिव जिन उत्तर आण ।। ६. पंचिदियतिरिक्ख जोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्च क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि । ७. मणूसा तिण्णि वि । सेसा जहा नेरइया । (श० ६।६५) ८. प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्रम् (वृ०प० २६७) ९. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणं जाणंति ? अपच्चक्खणं जाणंति ? पच्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति? १०. गोयमा ! जे पंचिदिया ते तिण्णि वि जाणंति, "पञ्चेन्द्रियाः, समनस्कत्वात् सम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानादित्रयं जानन्तीति, (वृ० प० २६७) १०. पंचेंद्रिया तीन प्रति जाण, पंचेंद्री दंडक मांय । सन्नी विशिष्ट विज्ञान अपेक्षा, जाण ते जीव कहाय ।। ११. शेष तीनूइ प्रति नहिं जाणे, त्यां में विशिष्ट जाणपणो नाही। थावर विकलेंद्री असन्नी मनुष्य तिरि, मन नहीं ते मांही ।। ११. अवसेसा पच्चक्खाणं न जाणंति, अपच्चक्खाणं न जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं न जाणंति । (श० ६।६६) एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः प्रत्याख्यानादित्रयं न जानन्त्यमनस्कत्वादिति । (वृ० प० २६७) सोरठा १२. कीधो ह पचखाण, अणकीधो होवै नहीं । ते माटै पहिछाण, करण-सूत्र कहिये हिवै। १३. *जीवा प्रभ ! पचखाण करै स्य, अपचखाण करै छै ? पचखाणापचखाण करै छै ? हिव जिन उत्तर दै छ ।। १२. कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्रम् (वृ० प० २६७) १३. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणं कुब्वति ? अपक्चक्खाणं कुब्बति? पच्चक्खाणापच्चक्खाणं कुव्वंति ? १४. जहा ओहिओ तहा कुब्वणा । (श० ६।६७) १४. जिम औधिक-सूत्रे नरकादिक आख्या तिमहिज जाणो । करिवा नों अधिकारज कहिवो, प्रवर न्याय पहिछाणो ।। *लय : सेवो रे साध सयाणा १५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा जेह, १५. नारक सुरवर अपचखाणी एह, १६. तिरि अपचखाण पंचेंद्री जाण, पचखाणापचखाण, न करै ए पचखाण नैं । अपचखाण करं वलि ॥ १७. समर्प जीव संपेल, बले मनुष्य तीन करे । अधिक न्याय अवेख, कहा तास विस्तार करि ॥ १८. पूर्व कह्या पचखाण, ते आयू बंधण तणां । हेतू पिण जाण, आयु-सूत्र कहिये हिवे || १६. * जीव प्रभु ! पचखाण करें स्यू आयु बांधे निपजावे ? अपचखाण करि आयु बांधे, पचखाणापचखाण स्यूं थावे ? एकेंद्री २०. जिन कहै जीवा पचखाण करिकै, अपचखाण करि सोय । बलि पचखाणापचखाण करिकै आयु-बंध अवलोय ॥ २१. वैमानिक देवता नो आउखो, पचखाणी पिण बांधे। अपचखाणवंत पण बांधे, बलि पचवाणापचवाणी सांधे ॥ २२. शेष तेवीस दंडक नों आउखो, अपचखाणी बांधे । पचवाणी ने पचलाणापचखाणी नरकादिक आयु न सांधे ॥ सोरठा *लय : सेवो रे साध सयाणा विकलेंद्रिय । करंज ते ॥ 7 २३. साधु श्रावक पहिछाण, वैमानिक विण अवर नों । आयु न बांधे जाण, तिण कारण ए वारता ॥ २४. * पचखाणी जिह दंडक पावै, पचखाण जाणे करेह । पचखाणे करि आयु बांधे, चिहुं सप्रदेश उद्देशेह || २५ सेवं भंते! अंक चोसठ नुं, ए एक्सौ बीजी डाल भिक्षु भारीमाल ऋपराम प्रसादे 'जयजय' मंगलमाल || षष्ठते चतुर्योद्देशकार्यः ||६|४|| १८. प्रत्याख्यानमायुर्वग्धहेतुरपि भवतीत्यायुः -सूत्रम्( वृ० प० २६७ ) १६. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया ? अपच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया ? पच्चक्खाणापच्चक्खानिव्वत्तियाउया ? २०, २१. गोयमा ! जीवा य, वैमाणिया य पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया, तिणि वि । जीवपदे जीवा प्रत्याख्यानादित्रयनिवायुका वाच्याः, वैमानिकपदे च वैमानिका अप्येवं, प्रत्या ख्यानादिततेपा ( वृ० प० २६७ ) २२. अवसेसा अपच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया । (०६६०) २४. पच्चक्खाणं जाणइ, कुव्वइ तिण्णेव, आउनिव्वत्ती । सपएसम्म एमेए दण्डगा चउरो ॥ (श० ६६८ संग्रहणी - गाहा ) २५ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (To sise) श० ६, उ० ४, ढा० १०२ १५५ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जीव सुप्रदेशा तुर्य मांहि । सप्रदेश ए तेहिज हिव, तमस्कायादि ताहि ॥ ढाल : १०३ २. नमस्काय ए फिन भणी कहिये हे स्यूं पृथ्वी तमुकाय छै, छे, अप तमकाय ७. केइयक प्रकाशकारी वृहा ३. तमिस्र पुद्गल नीं तिका, काय राशि तमस्काय ते बंध इहां बांदो कोइक ८. अप्रकाशक कह्या, न ५. जिन भाखै पृथ्वी तिका, तमस्काय तमस्काय ए अप अछे, एहवू कहियै ६. किण अर्थे ? जिन कहै पृथ्वी शुभ पुद्गल देश खेत्र सुप्रकाशता, मणि प्रमुख ४. ते पृथ्वी-रज-संघ हुई, तेहवो ए उदक-रज-संघ ए. जल-रज सदृश तथा ६. कहां उद्देशा उद्देशा तमस्काय अप्रकाशक, पृथ्वीकाइया, देश नह नहि तिके, तिण छै सर्व नैं, तिण भगवान ! पिछान ? छै खेत्र नें अर्थे इम तास । जास || दीसंत । हुंत ॥ कहाय । ताय ॥ केइ एक । संपेख ॥ सोय होय ॥ की प्रभ ! नीकली, वली किहां जाइ नै रही ? जिन तमस्काय ए ताय । कहे सांभल वाय ॥ * सुण गोयमा रे ! तमस्काय नीं वारता रे लाल । ( ध्रुपदं ) १०. जंबू द्वीप ने वाहिरे रे लाल, तिरिन्छा असंख्याता जाण । सुण गोयमा रे ! द्वीप समुद्र उलंप ने रेलाल, तिहां अरुणवर द्वीप पिछाण || सुण गोयमा रे ! *लय : जाणपणो जग दोहिलो रे लाल १५६ भगवती-जोड़ अपकाय पहिछाण । अर्थ अप जाण ॥ १. अनन्तरोदेश के प्रदेशा जीवा उक्ता, अथ सप्रदेशमेव तमस्कायादिकं प्रतिपादयितुं पञ्चमोद्देशक माह (०१० २६७) २. किमियं भंते! तमुक्काए ति पब्वुच्चति ? किं पुवी तमुक्काए ति युवति ? आऊ तमुक्काए तिपति? ३. नमतमिखाकावी राशिस्वमस्कायः स च नियत एवेह स्कन्धः कश्चिद् विवक्षितः, ( वृ० प० २६८ ) वा स्यादकरज: ४. पृथ्वीरजःस्कन्धो स्कन्धो वा । ५. गोमा ( वृ० १० २६८) तमुस्काए ति पचति । आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति । (30 $100) ६. से केणट्ठेणं ? गोयमा ! पुविकाए णं अत्थेगइए सुभेदेका कश्चिच्छुभो - भास्वरः, यः किविध: ? इत्याहदेशं विवक्षितक्षेत्रस्य प्रकाशयति भास्वरत्वान्मण्यादिवत् । ( ० ५०२६०) ७. अत्थेगइए देस नो प्रकासेइ । से तेणट्ठेणं । ( ० ६००१) अस्त्येककः पृथ्वीका देतं पृथवीकायान्तर प्रकाश्यमपि न प्रकाशयत्यभास्वरत्वात्" ( ० ५० १६० ) ८. अप्कायस्तस्य सर्वस्याप्यप्रकाशत्वात्, ततश्च तमस्कास्वादकाय परिणाम | ( ० १० २६८ ) ६. तमुक्काए णं भंते! कहिं समुट्टिए ? कहि संनिट्टिए ? १०. ११. गोयमा ! जंबूदीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता, अरुणवरस्स दीवस बाहिरिल्लाओं नेताओं अरुणोदयं समुई बयालीस जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. तिण अरुणवर द्वीप नैं बारली, वेदिका ना छेहड़ा थी विचार । अरुणोदय समद्र में, जोजन बयालीस हजार ॥ १२. तिहां ऊपरला जल अंत थी, एक प्रदेश नी श्रेण । तमस्काय ऊठी तिहां, उदयपणु पाम्यो तेण ।। १२. उबरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए-एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए। सोरठा १३. एक प्रदेश मझार, अपकाय तिहां किम रहै। प्रदेश शब्दे धार, सम भींत आकारे क्षेत्र जे ॥ १३. एक एव च न यादय उत्तराधर्यं प्रति प्रदेशो यस्यां सा तथा तया, समभित्तितयेत्यर्थः । न च वाच्यमेकप्रदेशप्रमाणयेति, (वृ० प० २६८) १४. असंख्यातप्रदेशावगाहस्वभावत्वेन जीवानां तस्यां जीवावगाहाभावप्रसङ्गात्, (वृ० प० २६८, २६६) १४. असंख्यात प्रदेश, अवगाहै छै जीवड़ो। तिण कारण सुविशेष, एक आकाश प्रदेश नहिं ।। १५. जिम जिन वचन सुजोय, एक प्रदेशे खेत्र में। विचरै मनि अवलोय, तिम इहां एक प्रदेश छ ।। १६. *सतरै सौ इकवीस जोजन तणी, एक प्रदेश नी श्रेण। ऊंची जइनै तठा पछै, तिरछी विस्तारेण । १७. सोधर्म नै ईशाण नै, तीजो सनतकुमार। माहेंद्र ए चिहं कल्प नै, वींटी नै तिणवार ॥ १८. ऊंचो पिण यावत जई, ब्रह्मकल्प में जाण । तीजा प्रतर नैं विषे, पहंती रिष्ट विमाण ।। १६. तमस्काय तिहां जइ रही, वलि गोयम पूछंत । हे प्रभजी ! तमस्काय नों, स्य संस्थान कहंत ? (जिनराजजी ! हो कृपा करि हियै आखियै रे लाल) २०. जिन भाखै तमस्काय नों, हेठे मल्लगमूल संठाण । मल्लग तेह सरावलो, तास मूल पहिछाण ।। १६. सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे-पवित्थरमाणे १७. सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिदे चत्तारि विकप्पे आवरित्ता णं १८. ऊड्ढं पि य णं जाव बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाण पत्थडं संपत्ते१६. एत्थ णं तमुक्काए संनिट्ठिए। (श० ६।७२) तमुक्काए णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? २१. ऊपर ए संठाण छै, कुर्कट पंखी पेख । तास पिंजर नै आकार छै, ए जिन वचन विशेख ।। २२. हे प्रभुजी ! तमस्काय नो, केतलू छै विस्तार ? केतली परिधि कही जिये ? ए बिहुं प्रश्न उदार ।। जिन भाखै द्विविध कही, संख्यातो विस्तार । असंख्यात विस्तरपणे, वर जिन वयण उदार ।। २०. गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए; अधस्तान्मल्ल कमूलसंस्थित:-शरावबुध्नसंस्थान:, (वृ०प० २६६) २१. उप्पि कुक्कुडग-पंजरगसंठिए पण्णत्ते । (श० ६१७३) २२. तमुक्काए णं भंते ! केवतियं विक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते ? २३. गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–संखेज्जबित्थ डे य, असंखेज्जवित्थडे य । २३ ___ सोरठा २४. आदि थकी आरंभ, ऊंचो जोजन एतलं । संख्याता लग लंभ, संख्यातो विस्तार त्यां। *लय : जाणपणो जग दोहिलो रे लाल २४., २५. आदित आरभ्योवं संख्येययोजनानि याव त्ततोऽसंख्यातयोजन-विस्तृत उपरि तस्य विस्तारगामित्वेनोक्तत्वात् । (वृ० प० २६६) श० ६, उ०५, ढा० १०३ १५७ Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. तठा पज प्रपन्न, ऊपर जे तमुका है। असंख्यात जोजन्न, विस्तरपणें अच्छे विका २६. *तिहा संखेज्ज विस्तरपणे ते संख्याता जोजन हजार । विस्तंभ पहुलपणे एत परिधि असंख जोजन सहस्र हजार ।। सोरठा छं ॥ २७. जोजन ते ते संख्यात, विस्तरपणेज तास परिधि कही जगनाथ, असंखेज जोजन २८. तमस्काय नैं जाण, असंख्यातमा द्वीप अति बृहत प्रमाण, तिण सूं परिधि असंस २९. तमस माहिलो जेह, अथवा विभाग वारलो । इहां न बांधतेह, अपणो विहं नो अई ॥ ३०. *तिहां असंख विस्तारपण तिका, ते असंख्याता जोजन हजार । विभपलपणं एत परिधि असंख जोजन सहस्र धार ॥ " ३१. हे प्रभुजी ! तमस्काय ते केतली मोटी कहाय ? जिन कहै ए जंबूद्वीप के सर्व द्वीप समुद्र रं मांय ॥ पिण । सहस्र ॥ ३२. जाव परिधि त्रिगुणी तसु, जाभी अधिक कहाव सुर इक महाऋद्धि नों धणी, जावत धणी, जावत महाअनुभाव । ३२. जाव इणामेव एह शब्द कही दो बार। जाव शब्द इणामेव नैं, तात्पर्यार्थ विचार ॥ ३४. सुर नीं महाऋद्धि आदि नं एह विशेषण ताय । प्रकर्ष समर्थपणां तणो ए अभिप्राय ।। गमन ३७. अर्थ केवल नुं जान कल्प परिपूर्ण मान, ते । ३५. इणामेव इणामेव इम कही, इतलो मुझ जावूरंज । अति शीघ्रपणे कर-व्यापार नीं, चिबठी मांही प्रजूंझ ॥ २६. इम कहिने ते देवता, केवलकल्प जंबूद्वीप ताय तीन चिठी में इकवीस वार ते, दोलो फिरी झट आय || सोरठा केवलज्ञान कही जियै । टीकाकार को इसो ॥ *लय : जाणपणो जग दोहिलो रे लाल १. यह जोड़ वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है इसलिए इस गाथा के सामने उसी पाठ को उद्धृत किया गया है । अंगसुत्ताणि में इसके स्थान पर विस्तृत पाठ है । १२० भगवती-जोड़ 1 २६. तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्वं भेण असंखेाई जोनसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते । २७,२८. संख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽपि तमस्कायस्थासंख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिक्षेपस्यासंख्यातयोजन सहस्रप्रमाणत्वम् ०१० २६६ ) २६. आन्तरवहिः परिवभास्तुनोक्तः । उभय० ० २६९) स्वायत्वादिति ३०. तत्थ णं जे से असंखेज्जवित्थडे से णं असंखेज्जाई जोयणसहसा विषमेणं असंलाई जो 1 सहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ( श० ६ | ७४ ) ३१. तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वभंतराए ३२. जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । देवे गं महिदी जाय महाणुभावे ( वृ० प० २६८ ) ३३. इणामेव इणामेवत्ति कट्टु इह यावच्छब्द ऐदम्पर्यार्थः, ( ० १० २६६ ) ३४. यतो देवस्य महर्यादिविशेषणानि गमनसामर्थ्य - प्रकर्ष प्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि । (० ० २६४) ३५. 'इणामेवति कट्टु इदं ममेवम् अतिशीघ्राबा वेदक- पप्पुटिकास्तव्यापारोपदर्शनपरम् । ( वृ० १० २६९) ३६. केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं तिहि अच्छरानिवाएहि तितो अपरिवहिता में हन्यमाना ३७. "केवलति केवलज्ञानकल्प परिपूर्णमित्यर्थः, ( वृ० प० २६९) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. वृद्ध व्याख्या पहियाण, केवल संपूरण अछे । कल्प स्वकार्य जाण, करण समर्थ कह्यो इसो ॥ ३६. * ते सुर एहवी गति करि, उत्कृष्ट त्वरित सुचाल । जावत गति सूर नी करी जातो को सुविशाल ॥ ४०. जावत इक दिन बे दिने, तीन दिवस लग ताय । छ मास लग उत्कृष्ट थी, तमस्काय में जाय ॥ ४१. पापा कोइ तम् तणो संख जोजन ए जाग न नहे पार कोइक तणो ते जोजन असं प्रमाण ॥ 1 ४२. एतली मोटी तम् कहो, गोयम प्रभुजी ! तमुकाय में, पर तथा पूछे हाट ४३. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, वलि प्रभुजी ! तमकाय में ग्राम जाव तिवार । आकार ? गोयम पूछेस । सन्निवेस ? ४४. जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं, बलि शिष्य पूछे जान छै प्रभुजी ! तमस्काय में, बादल मेघ ४५. संयंति पाठ नौ. अर्थ इसो प्रधान ॥ अवधार । मेघ थकी जे ऊपना, पुद्गल स्नेह विचार ॥ | ४६. समुच्छंति ए पाठ नों, अर्थ वली सुविचार | घन पुद्गल मिलवा थकी ऊपना तसु आकार || 1 ४७. अर्थ वासं वासंति तणो, तत्आकारज वर्षा मेह वर्ष अछे जिन कहें हंता ४८. ते प्रभु ! स्यूं करें देवता, वैमानिक थी असुर नाग वर्षा करें? जिन कहे तीनू होय । जोय || ॥ हुंत । करत ॥ ४६. प्रभुजी ! तमुकाय में, बादर पन गजर ? छै बलि वादर बीजली ? जिन कहै हंता तिवार ॥ छे सोरठा ५०. बादर तेऊकाय, आगल तास निषेध थे। देव-जनित कहिवाय भास्वर पुद्गल चे तिके ॥ *लय : जाणपणो जग दोहिलो रे लाल ३८. वृद्धव्याख्या तु केवलः - संपूर्णः कल्पत इति कल्पस्वकार्यकरणसमर्थः । ( वृ० प० २६६) ३६. ये देवे ताए उक्किद्वारा तुरिवाए जाय दिव्याए देवगईए वीईवयमाणे-वीईवयमाणे ४०. जाव एका वा, दुपाया, तियाना उनकोसे मा, अत्थे गतियं तमु ४१. अत्येगतियं तमुक्कायं वीईवएज्जा, क्कायं नो वीईवएज्जा । संख्यातयोजनमानं व्यतिव्रजेदितरं तु नेति । (४० १० २६९ ) ४२. एमहालए णं गोयमा ! तमुक्काए पण्णत्ते । ( श० ६।५५ ) अस्थि भंते! तमुक्काए गेहा इ वा ? गेहारण' इ वा ? ४३. णो तिट्टे सट्टे । ( श० ६।७६ ) अत्थि णं भंते ! तमुक्काए गामा इ वा ? जाव सण्णिवेसा इ वा ? ४४. मोतिषट्टे सम ( ० ६४७७) अस्थि णं भंते ! तमुक्काए ओराला बलाहया ४५. संसेयंति ? संविधन्ते जनकपुद्मलस्नेहसम्पा ( वृ० प० २६९ ) संमूर्च्छन्ति तत्पुद्गल मीलनात्तदाकारतयोत्पत्तेः । ( पृ० १० २६९) ४६. सम्मुच्छंति ? ४७. वासं वासंति ? हंता अत्थि । (श० २००८) ४८. तं भंते! कि देवो पकरेति ? असुरो पकरेति ? नागो पकरेति ? गोयमा ! देवो व पकरेति, अमुवि पकरेति, नागो विपकरेति । (श० ६००९) ४९. अरि भंते! तमुक्काए बादरे पणियस ? बाबरे विजुवारे ? हंसा अस्थि । ( श० ६१८० ) ५०. इह न बादरतेजस्कायिका मन्तव्याः, इहैव तेषां निषेत्स्यमाणत्वात्, किन्तु देवप्रभावजनिता भास्वराः पुद्गलास्त इति । ( वृ० प० २६६ ) श० ६, उ० ५ ढा० १०३ १५६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. * ते प्रभु ! स्यूं करै देवता, असुर नाग पकरंत ? जिन भाखे तीनू करै वलि गोयम पूछंत ॥ पृथ्वीकाय ? ५२. प्रभुजी ! तमुकाय में, दादर बादर अग्नीकाय ? जिन भाखे तिहां नांय ।। ५३. नण्णत्थ इतरो विशेष छै, विग्रहगति नां थाय । आठ पृथ्वी गिरि-विमाने पृथ्वी काय मनुष्यक्षेत्रे ते काय | ५४. प्रभुजी ! तमकाय में चंद्र सूर्य ग्रह तय नक्षत्र तारारूप ते ? जिन भाखै नहि होय ॥ तमुका ने चंद्रादिक सुकहेज | प्रभुजी ! तमुकाव में रवियाशि-कांति सुतेज ? ५५. पास ५६. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, कादूसणिया तेह | प्रभा थई छै सांवली, आतम दूषित जेह । सोरठा ५७. तमु पास संपेल, चंद्रादिक तास प्रभा पण देख तमु विषे ५८. कं- आत्म प्रति देख, तमस्काय तमपरिणाम कर पेख, परिणमवा श्री कादूषणा ।। ५६. इण कारण थी एह, छती प्रभा चंद्रादि नीं । तमस्काय में जेह, अछती कहिये इह विधे ॥ थी । सांवली ।। ते दुष 7 ६०. *हे प्रभुजी ! तमस्काय नों, जिन भाखै कृष्ण वर्ण छै, ६१. गंभीर ऊंटो अति घणो रोम ऊभा थावा ६२. भीम केहवो वर्ण कहाय ? कृष्ण कांति छै ताय । अतिही उरावणो जेह तणो, हेतू कहिये जेह ॥ भयंकर तेह छे, छै, उत्कंप हेतु कहेह । त्रासे कंप देखनें, परम कृष्ण वह ॥ पिण कोइक देखने, पहिला क्षोभ पामंत । अथ प्रवेश करी पर्छ, शीघ्र त्वरित झट जंत ॥ ६२. सुर * लय जाणपणो जग दोहिलो रे लाल १६० भगवती - जोड़ सद्भाव ५१. तं भंते! किं देवो पकरेति ? असुरो पकरेति ? नागो पकरेति ? तिणि विपकरेंति ! ( श० ६८१ ) ५२. अवि भंते! मुक्काए बादरे विकाए ? बावरे अगणिकाए ? णो तिट्ठे सम ५३. नण्णत्थ विग्गगतिसमावन्नएणं । ( ० ६०२) पृथिवी हि बाद रनमायास्वष्टा पृथिवीपृ गिरिविमानेषु तेजस्तु मनुजक्षेत्र एवेति । ( वृ० प० २६९ ) चंदिम-सूरिय-गहगण ५४. अस्थि णं भंते ! तमुक्काए नक्खत्त-तारारूवा ? णोति सम ५५. पलियस्सओ पुण अस्थि । परिपार्श्वतः पुनः सन्ति इत्यर्थः । (श० ६००३) तमस्कायस्य चन्द्रादय ( वृ० प० २६६ ) चंदाभा ति वा ? अत्थि णं भंते! तमुक्काए सूराभाति वा ? ५६. णो तिट्ठे समट्ठे, कादूसणिया पुण सा । ५७. ननु तत्पार्श्वतश्चन्द्रादीनां सद्भावात्तत्प्रभाऽपि तत्राऽस्ति ? ५८. कम् - आत्मानं दूषयति गमनाद का सेवक ( वृ० प० २६६ ) तमस्कायपरिणामेन परि(१००२६१ ) (०६०२६) ५६. अतः सत्यप्यसावसतीति । (०६२८४) , ६०. तमुक्काए णं भंते ! केरिसए वण्णएणं पण्णत्ते ? गोयणा ! काले कालोभासे ६१. गंभीरे लोमहरिसजणणे ६२. भीमे उत्तासणए परम किण्हे वण्णेणं पण्णत्ते, ६३. देव अत्येतिए नेपाए पासिता गं सुभाएन्ना, अगं अभिसमागच्छेया तो पच्छा सीहं सीहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव वीतीव( ० ६००५) एज्जा । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. हे प्रभुजी ! तमस्काय नां, कह्या केतला नाम ? जिन भाख तेरे नाम छ, गुण-निप्पन ते ताम ।। ६५. तम अंधकारपणां थकी, तमस्काय तमराश । अंधकार नाम तीसरो, ए पिण तम विमास ॥ ६६. महाअंधकार महातमपणो, लोकांधकार विचार । लोक विषे तथाविध इसो, अन्य नहीं अंधकार ॥ ६७. लोकतमस छटो कह्यो, लोक विषे तम होत । देव-अंधकार सातमों, तिहां नहिं सुर में उद्योत ॥ ६८. देवतमस आठमों कह्यो, देवअरण्य ए देख । बलवंत सुर नां भय थकी, न्हासी जाय संपेख ॥ ६६. देवव्यह दशमों कह्यो, चक्रादि-व्यह जिम ताम । देवता ने पिण भेदणो, अति दुर्लभ छै आम ॥ ६४. तमुक्कायस्स णं भंते ! कति नामधेज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा६५. तमे इ वा, तमुक्काए इबा, अंधकारे इ वा, तमः अन्धकाररूपत्वात् इत्येतत्, तमस्काय इति वाऽन्धकारराशिरूपत्वात्, अन्धकारमिति वा तमोरूपत्वात्, (वृ०प० २७०) ६६. महंधकारे इ वा, लोगंधकारे इ वा, महान्धकारमिति वा महातमोरूपत्वात् लोकान्धकारमिति वा लोकमध्ये तथाविधस्यान्यस्यान्धकारस्याभावात्। (वृ० प० २७०) ६७. लोगतमिसे इ वा, देवंधकारे इ वा, देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकारात्मकत्वात् । (वृ० प० २७०) ६८. देवतमिसे इ वा, देवरण्णे इ वा, बलवद्देवभयान्नश्यतां देवानां तथाविधारण्यमिव शरणभूत्वात्, (वृ० प० २७०) ६६. देववूहे इ वा देवव्यूह इति वा देवानां दुर्भेदत्वाद् व्यूह इव चक्रादिव्यूह इव देवव्यूहः। (वृ० प० २७०) ७०. देवफलिहे इ वा, देवानां भयोत्पादकत्वेन गमनविघातहेतुत्वात्, (वृ० प० २७०) ७१. देवपडिक्खोभे इ वा, अरुणोदए इ वा समुद्दे । (श० ६।८६) देवप्रतिक्षोभ इति वा तत्क्षोभहेतुत्वात्, अरुणोदक इति वा समुद्रः, अरुणोदकसमुद्रजलविकारत्वादिति । (वृ० प० २७०) ७२. तमुक्काए णं भंते ! कि पुढविपरिणामे ? आउ परिणामे ? जीव परिणामे ? पोग्गलपरिणामे ? ७३. गोयमा ! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि । (श० ६।८७) ७४. तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता . पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुव्वा? ७५. हंता गोयमा ! असति अदुवा अणंतक्खुत्तो, ७०. देवपरिघ इग्यारमों, गमनविघात हेतू सुर नै भय थकी, देव-परिघ उपजंत । सुकथंत ॥ ७१. देवप्रतिक्षोभ बारमों, क्षोभ नों हेतु विचार । अरुणोदक ए तेरमों, ते उदधिजल नों विकार ॥ ७२. हे प्रभु ! स्यूं तमस्काय छै, पृथ्वी अप परिणाम ? जीव पुदगल परिणाम छै ? हिव जिन भाखै ताम || ७३. पृथ्वी-परिणाम ए नहीं, अप-परिणाम तमाम । जीव - पिण परिणाम छै, पुद्गल नुं परिणाम ॥ ७४. सहु प्राण भूत जीव सत्व ते, तमस्काय में जान । छहुँ कायपणे ऊपनां, पूर्वकाल भगवान ? ७५. जिन कहै हंता गोयमा ! वार अनेक विचार । अथवा अनंत वार ऊपनां, काल अतीत मझार ।। ७६. पिण बादर-पृथ्वीपणे, बादर-अग्निपणे एह । निश्चै करि नहिं ऊपनों, तसं स्थानक नहिं तेह । ७६. नो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए, बादरअगणिकाइयत्ताए वा। (श०६।८८) श० ६, उ०५, ढा० १०३ १६१ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ७७. अपकाय । में जाण, बादर वायू वणरसई | वलि सकाय पिछाण, तसुं उत्पत्ति संभव थकी ॥ ७८. 'बृहत टबे इम वाय, शंका त्रस वृत्ति पिण भांजी नांय, जिन भासं ७६. अरुणोदय नी संध, तमस तणीं संध, तमस तणी बस इण न्याय प्रबंध ते पिण जाणं ८०. बादर पृथ्वीकाय, बलि बादर स्व स्थानक छ नांय, तिण सूं ते ८१. *देश अंक पैसठ तणुं, इक सौ भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' गण गुणमाल ।। उत्पत्ति तणी । तेहीज सत्य ॥ तूटी नथी । केवली || तीजी ढाल । ढाल : १०४ हा सरिखी अछै, वर्ण कृष्णराजी तणं, वर्णन १. तमस्काय तेह २. किती कृष्णराजी प्रभु ! जिन कहै किहां कृष्णराजी प्रभु ! आइ ६. समचउरंस तेक तणों। नहिं ऊपजै ' ॥ ( ज० स० ) छो कृष्ण सुणो ३. जिन कहै सनतकुमार कहै सनतकुमार ने वलि माहेंद्र तसु ऊपर तमकाय घं. ब्रह्म तणें तणें तल ४. पंचम कल्प विषे अर्थ, रिष्ट विमाने तास पाथड़ा ने विषे कृष्णराजि ५. प्रेक्षा स्थान विषे आसन विशेष छै से अछै, आखाटक प्रवर, तेह तणें संठाण आठ कृष्णराजी इसी, + वाण प्रभु नी ताजी ए, रूड़ी आठ कही कृष्णराजी ए (पदं) ७. पूर्व दिशि में दोय परूपी, दोय पश्चिम दिशि कानी ए । दक्षिण दिशि में दोय दीपंती, दोय उत्तर दिशि जानी ए ॥ *लय : जाणपणों जग दोहिलो रे लाल + लय : बलियां सूं केम लागंता ए १६२ भगवती -जोड़ अष्ट पहिछाण । सुजाण ? सुजोय । । अवलोय ? सहु लुणेज वर्णन तास विचार । धार ॥ जोय । अवलोय ॥ अभिधान । संस्थान ॥ सरीस । कही ॥ ७७. बादरवायुवनस्पतयस्त्रसाश्च तत्रोत्पद्यन्तेऽप्काये तदुत्पत्तिसम्भवात् । ( पृ० प० २७० ) १. तमस्कायसादृश्यात्कृष्णराजिप्रकरणम् - ( वृ० प० २७० ) २. कइ णं भंते ! कण्हरातीओ पण्णत्ताओ ? गोमा ! अहरातीओ पण्णत्ताओ । ( श० ६८९ ) कहि णं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हरातीओ पण्णत्ताओ ? ३. गोमा ! उप्पर्णकुमार माहिदा कप्पाणं हवि बंभलोए कप्पे | (१० १० २७१) 'हव्वि' ति समम् । ४. 'रिट्ठे विमाणपत्थडे' ५. एत्थ णं अक्खाडग इह आखाटक:- प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणस्तसंस्थिता (२०१० २७१) ६. समचउरंस संठाणसंठियाओ अट्ठ कण्हरातीओ पण्णलामो, ७. तं जहा - पुरत्थि मे णं दो, पच्चत्थिमे णं दो, दाहिणे णं दो, उत्तरे णं दो । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पूर्व दिश नीं अभ्यंतरा जे, कृष्णराजी छै जेहो । दक्षिण बारली कृष्णराजी प्रति, फर्शी जिन वच एहो ॥ ६. दक्षिण दिश नी अभ्यंतरा जे, कृष्णराजी कहिवाई | पश्चिम बारली कृष्णराजी प्रति, फर्शी वाण सुहाई ॥ १०. पश्चिम दिश नीं अभ्यंतरा जं, कृष्णराजी जे जानी । उत्तर बारली कृष्णराजी प्रति, फर्शी अति आछो ॥ ११. उत्तर दिश नीं अभ्यंतरा जे, कृष्णराजी जे काली । पूर्व बारली कृष्णराजी प्रति फर्सी एह विशाली ॥ १२. दोय पूर्व पश्चिम नीं बारली, कृष्णराजी षट खूणां । दोय उत्तर दक्षिण नी वारली, त्रिसूणी नहि ऊणां ॥ J १२. दोय पूर्व पश्चिम नीं माहिली, कृष्णराजी चउरंसा | दोय उत्तर दक्षिण नीं माहिली, उणी सुप्रसंसा ॥ १४ पूर्व अपर छह अंस, अभ्यंतर चउरंस, १५. कृष्णराजी प्रभु! केतली लांबी किती विस्तंभ विस्तारो ? परिधिपणें करि केतली प्रभुजी ! हिव जिन उत्तर सारो ॥ १६. जिन कहे जोजन सहस्र असंख्या लांबपणे सुविचारों | संख्याता सहस्र जोजन विक्लंभ . परिधि जोजन असंख हजारो ॥ , सोरठा तंस उत्तर दक्षिण बज्झा । सर्व कृष्णराजी कही ॥ १७. कृष्णराजी प्रभु ! केतली मोटी ? जिन कहै जंबू जाय इक पक्ष लग सुर जाये, पूर्व गति करि न पावे। १८. पार लहै कोइ कृष्णराजी नं, कोइ न पार एहवी मोटी कृष्णराजी छै, सुण गोतम हरसावै ॥ १६. कृष्णराजी में विषे प्रभुजी पर ने आकारे अगारो । घर में आकारे हाट तिहां है? जिन कहै नहीं लिगारो ॥ २०. कृष्णराजी ने विषे प्रभुजी ! ग्राम तथा सुविशेषो ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, वलि गोयम पूछेसो ॥ *लय एही । तेही ॥ २१. कृष्णराज विषे हे प्रभुजी मेष उदार प्रधानो । नैं ! संसेयंति समृच्छति पूर्ववत वलि घन वरसे जानो ।। बलियां स्यूं केम लागंता ए 1 ८. पुरविमन्तरा कहराती दाहिणबाहिरं कन्हराति पुट्ठा, १. दाहिणमंत कराती पच्चरिथम बाहिर कम्हराति पुट्ठा, १०. पचतिमन्तरा कव्हराती उत्तर बाहिर कम्हराति पुट्ठा, ११. उत्तरमंतरा कहराती पुरस्थम बाहिर राति पुट्ठा । १२. दो पुरत्थिम-पच्चत्थिमाओ बाहिराओ कण्हरातीओ छलंसाओ, दो उत्तर दाहिणाओ बाहिराओ कण्हरातीओ तंसाओ, १३. दो पुरस्थम-पच्चरिमाओ अन्तराओ कव्हरातीओ उत्तरदाहिणातराभो कण्ह ( श० ६ / ६० ) रातीओ चउरंसाओ । १४. पुव्वावरा छलंसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा । अब्भंतर चउरंसा, सव्वा वि य कण्हरातीओ || (२०६१० संग्रहणी -गाहा ) १५. कण्हरातीओ णं भंते! केवतियं आयामेणं ? केवतियं विक्खंभेणं ? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ ? १६. गोपमा असंखेन्जाई जोयणसहस्साई आवामेणं, संखेज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ । ( श० ६ ९१ ) १७. कण्हरातीओ णं भंते! केमहालियाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! अयं जंबुद्दीवे दीने जाव (सं० पा० ) अद्धमासं वीएा । १५. अगए कम्हराति बीईएडा अत्येगइएक राति णो वीईवएज्जा, एमहालियाओ णं गोयमा ! कण्हरातीओ पण्णत्ताओ । (२० ६/१२) कन्हराती नेहावा? हावणा इवा ? को इणट्ठे सम (२०६२९३) २०. अस्थि णं भंते! कण्हरातीसु गामा इ वा ? जाव सण्णिवेसा इ वा ? १९. गोइ समट्ठे । २१. अस्थि णं भंते! कण्हरातीसु ओराला यंति ? सम्मुच्छंति ? वासं वासंति ? (स० ६०२४) बलाया संसे श० ६, ३०५, ढा० १०४ १६३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. थी जिन भाते हंता अस्थि कृष्णराजी छै मांह्यो । संसेयंति आदि त्रिहूं मेह तिहां वरसायो || २३. ते प्रभु स्यूं करें देव वैमानिक असुर नाग भी तो ? जिन भाखे करें देव विमानिक, असुर नाग न करतो ॥ सोरठा २४. ब्रह्म- कल्प रं मांय, कृष्णराजी असुर नाग नहि जाय, २५. करुणराजी ने विधे से बादल नैं आख्यो तिम आखी अर्थ तिण कारण वर्ज्या इहां ।। प्रभजो बादर घन गर्जारो ? कहिवो, सगलोई विस्तारो । २६. कृष्णराजी नं विषे हे भगवंत ? छे बादर-अवकायो ? बादर-अग्निकाय अछे बलि, बादरवणसई ताह्यो ? २७. जिन की अर्थ समर्थ ए नांही, गण्णत्व एतलो विशेखो । विग्रहगतिसमापन्न अस्यां वर जिन बचने लेखो || २८. कृष्णराजी नैं विषे छे भगवंत! चंद्र जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए. प्रभुत्व २१. कृष्णराजी ने विषे थे प्रभुजी ! चंद्र सूर्य नी क्रांति ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, तिण में म जाणो भ्रांति ॥ सूरादिक तारा ? अधिक उदारा ।। ३०. कृष्णराजी प्रभू! वर्ण की ने, केहवी परूपी ताह्यो ? जिन कहै काली जाय उतावलो सुरवर पिण भट जायो । ३१. नाम किता प्रभु ! कृष्णराजी नां ? जिन भाखे अठ नामो । कृष्णराजी ते काला पुद्गल, तेहनीं रेखा तामो ॥ ३२. मेघराज ते काला मेव नीं रेला तुल्य कहायो । मघा ते अंधकार करी नैं छठी नरक तुल्य थायो ॥ *लय : बलियां स्यूं केम लागंता ए १६४ भगवती-जोड़ ३३. माघवती तम करि सातमी सम, वाय- परिघ वलि नामो । वाय आंधी तेह तुल्य तमिश्रज, परिघ दुर्लध्यज तामो || २२. हंता अस्थि । ( श० ६१६५ ) २३. तं भंते! कि देवो पकरेति ? असुरो पकरेति ? नागो पकरेति ? गोमा देवो करेति नो असुरो, नो नागो पकरेति । ( श० ६।६६ ) २४. असुरनागकुमाराणां तत्र गमनासम्भवादिति । ( वृ० १० २०१) २५. अत्थि णं भंते! कण्हरातीसु बादरे थणियसद्दे ? बादरे विज्जुयारे ? जहा ओराला तहा (सं० पा० ) (०६७, २८) २६. अस्थि णं भंते! कण्हरातीसु बादरे आउकाए ? बादरे अगणिकाए ? बादरे वणप्फइकाए ? २७. गो गिट्ठे समत्वविग्गमतिसमय एवं (२०६६६) २८. भंते! कहराती चंदिम-सूर नक्खत्त-तारारूवा ? पोति सम २६. अस्थि णं भंते! कण्हरातीसु सुराभाति वा ? णो तिट्ठे समट्ठे । ३०. कण्हरातीओ णं भंते! ताओ ? ( श० ६ १०० ) चंदाभा ति वा ? (०६।१०१) केरिसियाओ वण्णेणं पण्ण गोयमा ! कालाओ जाव (सं० पा० ) खिप्पामेव बीता। (०६।१०२) ३१. कण्हराती णं भंते! कति नामधेज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! अटु नामघेज्जा पण्णत्ता, तं जहा कण्ह राती इवा, ३२. मेहराती इवा, मघा इवा, मेघराजीति वा कालमेवरेखायाद मचेति वा तमितया पष्ठनाकपृथिवी ( वृ० प० २०१) ३३. माघवई इ वा, वायफलिहा इ वा, मापवतीति वा तमिखतयेव सप्तमनरकपृथिवीतुल्यत्वात्, 'वायफलिहे इ व' त्ति वातोऽत्र वात्या तद्वद्वामित्वात् परिपश्च दुर्लभ्यत्वात् सा बातपरिघः, ( वृ० १० २७१) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. वायपरिक्खोभ नाम छठो ए, वाय ते आंधी अशोभो । तेह तुल्य छै तमिश्रपणां थकी, क्षोभ हेतु थी परिक्षोभो।। ३५. देव-फलिह ए नाम सातमों, देवता – पिण जाणी । परिघ आगल जिम ए दुर्लध्य छ, कृष्ण वर्ण पहिछाणी ।। ३६. देव-पलिक्खोभ नाम आठमों, देवता नै पिण जोयो । परिक्षोभ नां हेतुपणां थी, कृष्ण वर्ण अवलोयो ।। ३७. हे भगवंत जी! कृष्णराजी स्यूं, पृथ्वी अप परिणामो ? जीव तणों परिणाम कहीज, पुदगल परिणत तामो? जीत - ३८. जिन भाखै परिणाम पृथ्वी नों, अप-परिणाम न तामो।। जीव तणों परिणाम अछै ए, पुद्गल नों परिणामो।। ३४. वायपलिक्खोभा इ वा, बातोऽत्रापि वात्या तद्वद्वातमिश्रत्वात् परिक्षोभश्च परिक्षोभहेतुत्वात् सा वातपरिक्षोभ इति । (वृ० प० २७१) ३५. देवफलिहा इवा, क्षोभयति देवानां परिघेव–अर्गलेव दुल्लंध्यत्वाद्देवपरिघ इति । (वृ०प० २७१) ३६. देवपलिक्खोभा इ वा। (श० ६।१०३) देवानां परिक्षोभहेतुत्वादिति । (वृ० १० २७१) ३७. कण्हरातीओ णं भंते! कि पुढवीपरिणामाओ ? आउपरिणामाओ? जीवपरिणामाओ? पोग्गलपरि णामाओ? ३८. गोयमा! पुढवीपरिणामाओ, नो आउपरिणामाओ, जीवपरिणामाओ वि, पोग्गलपरिणामाओ वि । (श० ६।१०४) ३६. कण्हरातीसु णं भंते! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा! ४०. असई अदुवा अणंतक्खुत्तो; नो चेव णं बादरआउ काइयत्ताए, बादरअगणिकाइयत्ताए, बादरवणप्फइकाइयत्ताए वा। (श०६।१०५) ४१. एएसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठ लोगंतिगविमाणा पण्णत्ता, तं जहा४२. अच्ची, अच्चिमाली, वइरोयणे, पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, ४३. सुक्काभे, सुपइट्टाभे, मज्झे रिट्ठाभे । (श०६।१०६) ३६. कृष्णराजी नै विषे प्रभु ! सगला, प्राण भूत जीव सत्ता । अतीत काले ऊपनां पूर्वे ? श्री जिन भाखै हंता ।। ४०. अनेक वार तथा वार अनंती, सर्व ऊपना त्यां माही । बादर अप तेउ वनस्पतिपणे, निश्चै ऊपना नांहि ॥ ४१. ए आइं कृष्णराजी विषे, आकाशांतर अठ माह्यो ।। आठ लोकांतिक देव तणां वर, वारु विमान कहायो ।। ४२. अच्चि नै वलि अच्चिमाली , वैरोचन वलि वारू । प्रभंकर चंद्राभ पंचमो, छठो सूराभ उदारू ।। ४३. शुक्राभ सुप्रतिष्ठाभ आठमों, कृष्णराजी रै मध्य भागो । रिष्ट विमानज एहज नवमों, पेखत हर्ष अथागो । ४४. किहां प्रभु! अचि-विमाण परूप्यो ? जिन कहै कूण ईशाणो । किहां विमाण प्रभु! अचिमालो छै, जिन कहै पूरव जाणो ।। ४४. कहि णं भंते! अच्चि-विमाणे पण्णत्ते? गोयमा! उत्तर-पुरथिमे णं । (श०६।१०७) कहि णं भंते! अच्चिमाली विमाणे पण्णत्ते ? गोयमा! पुरथिमे णं । ४५. एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव- (श०६।१०८) कहि णं भते! रिठे विमाणे पण्णत्ते? गोयमा! बहुमज्झदेसभाए। (श० ६।१०६) ४५. इम परिपाटी करने जाणवू, किहां प्रभ! यावत रिष्टो? श्री जिन भाखै सांभल गोयम ! बहुमध्य भागे दृष्टो॥ ४६. द्वयोरन्तरमवकाशान्तरम् (वृ० प० २७२) सोरठा ४६. बिहं नों अंतर मध्य, अठ अवकाशांतर विषे । अष्ट विमाण सुसिद्ध, अठ लोकांतिक सूर तणां ।। ४७. भ्यंतर उत्तर धार, बाह्य अछै पूरव तणी । बीच इशाण मझार, अच्चि विमान अछै तिहां ।। ४७. तत्राभ्यन्तरोत्तरपूर्वयोरेकम् । (वृ०प० २७२) श०६, उ०५, ढा० १०४ १६५ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. पूरब दिशि में दोय, कृष्णराजी अच्चमाली जोय, विमान अति ४६. पूर्वाभ्यंतर देख दक्षिण बाहिर अग्निकूण सुविशेख, वेरोचन तीजो ५०. दक्षिण दिश मे दोय, कृष्णराजी छे प्रभंकर अवलोय, तुर्य विमान बाहिर पश्चिम वर विमान ए कृष्णराजी है तास विमान विमान ए छट्टो बाहिर उत्तर तास विमान ए सप्तम कृष्णराजी है तास विच । अष्टम विमानज आखियो || ५१. भ्यंतर दक्षिण लाभ, नेऋत में चंद्राभ ५२. पश्चिम दिश में दोय, कह्यो । वर सूराभज सोय, ५३. भ्यंतर पश्चिम आभ वायव्य कूण शुक्राभ, ५४. उत्तर दिश में दोय, सुप्रतिष्ठाभ अवलोय, ५५. परिपाटी अनुक्रम करिके, अष्ट विमाण सुमागो । रिष्ट विमान कहां ? तब जिन कहै, बहूमध्य देशज भागो ॥ तास विच । रलियामणो ॥ तास विच । कह्यो ॥ तास विच । सुहामणो ॥ तास विच । पंचमो ॥ विच । कह्यो ॥ विच । सोरठा ५६. अरिष्टाम अवलोय, घणुं देश मध्य भाग ए । नवमों विमान सोय, ब्रह्म तृतीय प्रतर विषे ॥ ५७. *ए अष्ट लोकांतिक पवर विमाने, अष्ट प्रकार नां देवा । लोकांतिया बसे ब्रह्मलोके, ते कहिये सुर भेवा ॥ छै ५८. सारस्वत आदित्या वह्नी, वरुण गर्दतोय वारू । ॥ तुसिया अन्यावाधा अमिच्चा, रिष्टा देव उदारू || ५२. सारस्वत नामैं जे देवा, हे प्रभु! किहां श्री जिन भाव अचि विमाने व ६०. किहां बसे प्रभु! देव आदित्या? तब मात्रै जिनरायो । अचिमाली विमाने वसंता, इम अनुक्रम कहिवायो ॥ वसंता ? सुख विलसंता ॥ ६१. जाय किहां से रिष्ट देवा ते ? जिन कहै रिष्ट विमानो । सुर संख्या परिवार कहे हिव, सांभलज्यो घर कानो ॥ ६२. सारस्वत आदित्य ने प्रभुजी केतला कहिये देवा ? किता सैकड़ों सुरवर कहिये ए परिवारज लेवा ? * लय: बलिया स्यूं केम लागंता ए १६६ भगवती जोड़ , ४०. पूर्वयोद्वितीयम्। ४६. अभ्यन्तरपूर्वदक्षिणयोस्तृतीयम् । ५०. दक्षिणयोग्यतुम् । ५१. अभ्यन्तरदक्षिणपश्चिमयोः पञ्चमम् । ५२. पश्चिमयोः षष्ठम् । ५३. अभ्यन्तरपश्चिमोत्तरयोः सप्तमम् । ५४. उत्तरवरष्टमम् । ( वृ० १० २७२ ) ( वृ० प० २७२ ) ( वृ० प० २७२ ) १७. एए गं असु जोगतिमा देवा परिवसंति, तं जहा -- ( वृ० प० २७२ ) ( वृ० प० २७२ ) (०६/१०८) ५५. एवं परिवाडीए नेयव्वं जावकहि णं भंते! रिट्ठेाणते ? गोषमा बहुमाए ( श० ६ १०६ ) ( वृ० प० २७२) ( वृ० प० २७२ ) ५६. यत् कृष्णराजीनां मध्यभागवत रिष्टं विमानं नत्रममुक्तं तद्विमानप्रस्तावादवसेयम् । (० १० २०२) अविलतिया ५८. सारस्सय माइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अब्बाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ।। ( ० ६०११० संग्रहणी माहा) ५६. कहि णं भंते! सारस्सया देवा परिवसंति ? गोयमा ! अच्चिम्मि विमाणे परिवसंति । (०६।१११) ६०. कहि णं भंते! आइच्चा देवा परिवसंति ? गोयमा ! अच्चिमालिम्मि विमाणे । एवं नेयव्वं जहाणुपुवीए ६१. जाव (०६११२) कहि णं भंते! रिद्रा देवा परिवति ? गोवमा रिट्ठम्मि विमागे (स० ६१२३) ६२. सारस्सय माइच्चाणं भंते! देवाणं कति देवा, कति देवसया पण्णत्ता ? Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. गोयमा! सत्त देवा, सत्त देवसया परिवारो पण्णत्तो। परिवार इत्यक्षरानुसारेणावसीयते, (वृ०प० २७२) ६३. श्री जिन भाखै सप्त देव छ, वलि सप्त सय सारो। एह अक्षर अनुसार वृत्ति में, आख्यो तसु परिवारो॥ सोरठा ६४. सप्त देव सुविचार, स्वामीपणे जणाय छै । अन्य तास परिवार, इतर स्थानके पिण इमज ॥ ६५. *वह्नी-वरुण ने चउदे देवा, परिवार चउद हजारो। गर्दतोय-तुसिया सप्त देवा, सात सहस्र परिवारो॥ ६४. एवमुत्तरत्रापि, (वृ०प० २७२) ६६. शेष थाकता नै नव देवा, नवसौ सूर परिवारो। संग्रहणी गाथा नो अर्थज, कहियै छै अधिकारो।। ६७. प्रथम जुगल ने सातसौ सुर, बीजा जुगल नै चउद हजारो । तीजा जुगल ने सात सहस्र छै, शेष ने नवसय सारो॥ ६५. वण्ही-वरुणाणं देवाणं चउद्दस देवा, चउद्दस देवसह स्सा परिवारो पण्णत्तो। गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा, सत्त देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। ६६. अवसेसाणं नव देवा, नव देवसया परिवारो पण्णत्तो । (श० ६।११४) ६७. पढम-जुगलम्मि सत्तओ सयाणि, बीयम्मि चउद्दस सहस्सा। तइए सत्तसहस्सा, नव चेव सयाणि सेसेसु ।। (श० ६।११४ संगहणी-गाहा) ६८. लोगंतिगविमाणा णं भंते ! किं पइट्ठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! वाउपइट्ठिया पण्णत्ता । एवं नेयब्वं ६८. लोकांतिक नां विमान प्रभुजी! रह्या छै किण आधारो ? श्री जिन भाखै वायु आधारे, अर्द्ध गाथा हिव सारो॥ सोरठा ६६. विमान जसु आधार, बाहल्य ऊंचपणेज तसु । वलि संठाण विचार, वक्तव्यता ब्रह्मलोक नीं। ७०. जीवाभिगम मझार, दाखी तिमहिज जाणवी । जावत हंता धार, असति अदुवा पाठ लग ।। ७१. *विमान नों प्रतिष्ठान आधार जे, हिवड़ां देखाड़ यो सूमन्नो । विमान नी पृथ्वी जे जाडी, पणवीससौ जोजन्नो। ७२. सातसौ जोजन ऊंचपणे छै, नाना संठान प्रसंसो । आवलिका बंध एह नहीं छ, वृत्त त्रंस चउरंसो ॥ ६६,७०. 'विमाणाण पइट्ठाणं, बाहुल्लुच्चत्तमेव संठाणं' बंभलोयवत्तव्वया (जीवा० ३।१०५६, १०६६, १०६८, १०७१) नेयव्वा जाव _ (श० ६।११५) ७१. तत्र विमानप्रतिष्ठानं दर्शितमेव बाहल्यं तु विमानानां पृथिवीबाहल्यं तच्च पञ्चविंशतिर्योजनशतानि, (वृ० प० २७२) ७२. उच्चत्वं तु सप्तयोजनशतानि, संस्थानं पुनरेषां नाना विधमनावलिकाप्रविष्टत्वात्, आवलिकाप्रविष्टानि हि वृत्तव्यस्रचतुरस्रभेदात् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति । (वृ० प० २७२) ७३. ब्रह्मलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्यता सा तेषु 'नेतव्या' अनुसतव्या । (वृ० प० २७२) ७४. लोयंतियविमाणेसु णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता पूढविकाइयत्ताए, आउकाइयत्ताए, तेउकाइय ताए, वाउकाइयत्ताए, वणप्फइकाइयत्ताए, ७५. देवत्ताए"""""हंता गोयमा ! असई अदुवा अणं तक्खुत्तो, ७३. ब्रह्मलोके जे विमान नै सूर नी, जीवाभिगम अवदातो । ते सहु वक्तव्यता इहां भणवी, छह ए पाठ आख्यातो॥ ७४. लोकांतिक नां विमान विषे प्रभ! सर्व जीव पहिछाणी । पृथ्वीकायपणे ऊपनां पूर्वे, जाव वनस्पतिपणे जाणी।। ७५. देवपणे पिण ऊपनां प्रभजी! तब भाखै जिनरायो । बहु वार तथा वार अनंती, पूर्वे ऊपनां ताह्यो । *लय : बलिया सू केम लागंता ए श० ६, उ० ५, ढा । १०४ १६७ Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. देवि निश्व नहिं अपना लोकांतिक ने विमानो । बुद्धिवंत न्याय विचार वारू, रहिस तणों ए स्यानो ॥ सोरठा ७७. 'इहां के एम कहंत लोकांतिक सुर सम्यक दृष्टी हुंत, तिण सूं तिहां न ७८. पन्नवण अर्थ मकार, समदृष्टी frez विमाने सार, एकावतारी ७६. आठ आंतरां मांहि, आठ विमाण एकावतारी ताहि, एकांते नहि ८०. लोक शब्द संसार, तेह तणें अंते चतुर्थ पद अर्थकार, निश्वं जाणं १. पंचमुद्दे षष्ठम मुख्य जे । अपने ॥ लोकांतिका । मुर ॥ सुरा । तिके ॥ ८१. *लोकांतिक नां विमान विषे प्रभु! सुर-स्थिति केती भाखी ? श्री जिन भाखै सांभल गोयम ! आठ सागर नीं आखी ॥ पेख, तेहिज मुख्य तणां ८२. लोकांतिक नां विमाण थकी प्रभु! केतले अंतर जाणी । लोक तणो अंत छेड़ो परूप्यो ? हिव जिन भाख वाणी ॥ २. जोजन सहल असंखिज्ज अंतर, लोक अंत को जाणी । तठा पर्छज अलोक परूप्यो सेवं भंते! सत्य वाणी ॥ ८४. छठा शतक नुं नुं पंचमुद्देशो एकसी चौथी ढालो । भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय जश' हरष विशालो || शते पंचमोद्देशकार्यः || ६ |५|| ढाल : १०५ हुआ। केवली' ॥ ( ज० स० ) सोरठा विमान प्रमुखज वारता । देख, कहियै छै अधिकार हिव ॥ दूहा २. हे प्रभु! पृथ्वी केतली ? जिन कहै पृथ्वी सात । रत्नप्रभा जावत कही, तले तमतमा घात ॥ *लय बलिया स्यूं केन लागंता ए १६८ भगवती जोड़ ७६. नो चेव णं देवित्ताए । (श०६।११६) ८१. 'लोगंतियदेवाणं' पण्णत्ता ? भंते ! केवइयं कालं ठिती गोयमा ! असागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । (२०६।११७) ८२. लोगतिविहितो भंते! केवलिये अवाहाए लोग ते पण्णत्ते ? ८३. गोयमा ! असंखेज्जाई लोगंते पण्णत्ते । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । जोयणसहस्साई अबाहाए (०६।११८) ( श० ६ ११६ ) १. व्याख्यातो विमानादिवक्तव्यताऽनुगतः पञ्चमोद्देशकः, अथ षष्ठस्तथाविध एव व्याख्यायते, तत्र--- ( पृ० प० २७२) २. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा रयगप्पा जाव असत्तमा । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. इह पृथिव्यो नरकपृथिव्य ईषत्प्रागभाराया अनधिकरिष्यमाणत्वात् । (वृ० प० २७३) ४,५. इह च पूर्वोक्तमपि यत् पृथिव्याद्युक्तं तत्तदपेक्षमारणान्तिकसमुद्घातवक्तव्यताऽभिधानार्थमिति न पूनरुक्तता। (वृ०प० २७३) ६. रयणप्पभाईणं आवासा भाणियव्वा जाव अहेसत्त माए। ७. एवं जत्तिया आवासा ते भाणियव्वा । ३. सप्त नरक पृथ्वी तणी, आगल कहिस्य बात । सिद्धशिला कहिस्यै नथी, तिण सं सप्तज ख्यात ।। ४. पूर्वे पिण ए पाठ है, सत्त पुढवी आख्यात । एह पाठ वलि आखवै, पुनरुक्त दोष कहात ॥ ५. तिहां अपेक्षा अन्य नी, इहां मरण समद्घात । वक्तव्यता कहिवा अरथ, पुनरुक्त दोष न थात ॥ ६. रत्नप्रभादिक सात नां, नरकावासा जाण । इम तसु आवासा जिता, ते कहिवा पहिछाण ॥ ७. भवनपती व्यंतर तणां, जोतिषि नां आवास । वैमानिक ग्रैवेयक लग, कहिवा विमान तास । ८. पन्नवण' दूजा पद थकी, कहिवं सह अधिकार । जावत प्रभजी! केतला अनुत्तर विमान सार? 8. जिन कहै पंच परूपिया, पवर अणत्तर पेख । विजय प्रथम जावत वलि, सर्वार्थसिद्ध देख ॥ *जिनजी जयकारी, गोतमजी पूछ या प्रश्न उदारी । (ध्र पदं) १०. मारणांतिक समद्घात करी ने, हे भगवंत! जे जीव । एहिज रत्नप्रभा पृथ्वी में, ऊपजवा जोग अतीव ।। ११. तीस लाख नरकावासा विषे ते, एक अनेरो जाण । नरकावासा में नरकपणे जे, ऊपजवा जोग माण । ते जीव नरकावासे रह्यो प्रभुजी ! पुद्गल द्रव्य आहारै छै ? अथवा परिणामै-तेह आहार नों खल रस भाव करै छै ? ८. जाव (श० ६।१२०) ___कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता? ९. गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तं जहाविजए, जाव (सं० पा०) सव्वट्ठसिद्धे । (श० ६।१२१) १२. १०. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए, समो हणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ११. तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरया वासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, १२. से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा? परिणा मेज्ज वा ? | 'आहारेज्ज वा' पुद्गलानादद्यात् 'परिणामेज्ज व' त्ति तेषामेव खलरसविभागं कुर्यात् । ' (वृ० प० २७३) १३,१४. सरीरं वा बंधेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; १३. अथवा तिण कर तन निपजावे? तब भाख जगतार । केइक जीव तेहिज समद्घाते, मरण पामी तिण वार ।। १४ नरकावासा में गयो थको ते, आहार करै छै जेह । परिणाम-करै खल रस भावज, वलि तन बांधे तेह ॥ १५. केइक तिहां थकी पाछो वली नैं, इहां निज तन आय । बीजी वार मारणांतिक नामे, समद्घाते मर ताय ।। १६. एहिज रत्नप्रभा पृथ्वी में, तीस लख नरकावास । कोइक नरकावासे ऊपज, नरकपणे ते तास ॥ १५. अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोच्चं पि मारणंतियसमु ग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता १६. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु अण्णवरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उव वज्जित्तए, १७. तओ पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा । एवं जाब अहेसत्तमा पुढवी।। (श० ६।१२२) १७. ऊपजी नै पछै आहार करै छ, आहार प्रत परिणमावै । शरीर प्रत बांधै निपजावै, इम जाव सातमी कहावै॥ * लय : दशकंधर राजा रावण रा १. पण्णवणा पद २।३०-६२ । श०६, उ०६, ढा० १०५ १६६ Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. जीव प्रभु! मारणांतिक नामे, समुद्धात करि सोय चउसठ लक्ष आवास असुर नां, कोइक आवासे जोय || १९. ऊपजवा जोग तिहां ऊपजी नं, तिहां प्रभु ! करें आहार ? नरक तभी परे एपिr भगवो यावत पणियकुमार ॥ , २०. जीव प्रभु! मारणांतिक नामे, समुद्घात करि सोय । ऊपजवा जोग पृथ्वीकाय में जीव तिको अवलोय ॥ २१. लाख असंस आवास पृथ्वी नां एक आवासे स्थान | पृथ्वीकायपणे तिहां ऊपजे ? जीव तिको भगवान! २२. मेरू थी पूर्व किती दूर जावे ? ए गमन आश्रयी कथित्त । केतली दूर जईने रहे थे ? ए अवस्थान आश्रित ॥ 7 २३. जिन कहे लोक ने अंत जाये ते लोक अंत रहे ताय । ते प्रभु! तिहां गयो आहार छ, परिणामैं तनु निपजाय ? २४. जिन कहे वहां रह्यो को कोइक, आहार करे सोय । खल रसपणे आहार परिणमावै तन निपजावै जोय || २५. कोइक तेह स्थानक घी बली ने तिहां निज तन में आय। दूजी वार मारणांतिक नामे समुधाते मरे ताय ॥ २६. मेरू पर्वत यो पूर्व दिशि में आंगुल असंलेज भाग | अथवा संख्यातमां भाग विषे जे अथवा वालाग्रे माग ॥ " २७. अथवा पृथक वालाग्र विषे जे, इम लीख जूं जव देख । अंगुल जावत जोजन कोड़ी, तिहां जई सुविशेख ॥ २५. जाव शब्दे हत रयणी कुक्षि धनुष कोश जोजन | जोजन - सय वलि जोजन - सहस्रज, लक्ष-जोजन इति मन्न ॥ २६. जाय शब्द में ए सह आख्या, तेह इह पद जोड़ । कोड़ जोजन नैं अंतर जई नैं, जोजन कोड़ाकोड़ || ३०. मेरू थी जोजन सहस्र संख्याता, जोजन असंत हजार । अथवा लोक में अंत जई नं उत्पत्ति-स्थान ए धार ॥ 1 १७० भगवती बोह १८,१६. जीवे णं भंते ! मारणंतियस मुग्धाएणं समोहए, समोहणिता जे मविए पढसीए असुरकुमारावास सहस्से अययरंस असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उववज्जित्तए, जहा नेरइया तहा भाणियव्वा जावयणियकुमारा। (०६।१२३) २०,२१. जी भंते! मारतियसमुग्याएणं समोहर, समहति जे भनिए असंखेज्जेसु पुढविकाइदावास ससहस्से अव्यवरंसि पुढवीकाइयावासंसि पुढी काइयत्ताए उज्जतए, २२. से णं भंते! मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं केवइयं गच्छेया ? केवढा? कियद्दूरं गच्छेद् ? गमनमाश्रित्य .... कियद्दूरं प्राप्नुयात् ? अवस्थानमाश्रित्व, ( वृ० प० २७३, २७४ ) २२. गोमालो मालोयंत पाढा । (०६१२४) से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा ? परिणामेज्ज वा ? सरीरं वा बंधेज्जा ? २४. गोमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; २५. अरगति तो परिनियत्तद पडिनियतिता इमा गच्छद, दो पि भारतिय समुन्याएवं समोहाइ समोहमित्ता २६. मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तं वा, संखेज्जइभागमेत्तं वा, वालग्गं वा, , २७. वालग्ग पुत्तं वा एवं लिक्ख जूय- जव-अंगुल जाव जोयणकोडि वा वा २०. यावत्करणादिदं दृश्यं विहरिथ वा कुच्छि वा धणुं वा कोसं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्सं वा जोयणसयसहस्सं वा । ( वृ० प० २७४) २६. जोयणकोड| कोडि वा ३०. संखेज्जेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्सेसु, लोग ते वा, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एथ, भाग मात्रादिक खेत ३१. उत्पत्तिस्थानक ३२. एक प्रदेश नी श्रेणि 1 मूकी ने असंख लक्ष पृथ्वी वास । कोइक वासे पृथ्वीपणें ऊपजी, आहारादिक वितुं तास ॥ सोरठा आंगुल नों असंख्यातमो । समुद्धात षी त्यां जई ॥ सोरठा ३३. असंख्यात परदेश, अवगाहै आकाश जीव स्वभाव विशेष, तिण प्रकार करिकै ३४. एक प्रदेश नीं श्रेण जीवेणं ३५. 'वयों एक अनेक कहिय ३६. अनेक शब्दे पाठ खंध जीवनुं नां रहै अनेक प्रदेश प्रतिपक्ष इक शब्द नुं । शेष, तेह विषे रहै जीवड़ो ॥ ताहि, प्रवेश असंख लीजिये । मांहि, संध जीव नों नहि रहे ॥ जीव अनेक पृथ्वी चउथ अध्येन पेख, तेह असंखिज्ज ३८. तिम इहां पिण अवलोय, एक शब्द करि अनेक रह्या सुजोय, असंखिग्ज इहां उणां प्रदेशां ३७. दशवेकालिक मर्झ । पिण तेण प्रदेश मैं । इहां ॥ ३१. *जिम पूर्व दिशि मंदर गिरि नों को आलावो एह इम दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशि ऊर्द्ध अधो पिण तेह || 1 ४३. जीव प्रभु! मारणांतिक नामे, जावा जोग मोटा पंच अणुत्तर रहै | में ॥ ४०. जिम पृथ्वीकाय नां पट आलावा तिमहिज आलावा प्रगट एकेंद्री सर्व विषे इम भणवा, इक इक ना षट-षट ॥ ४१. जीव प्रभु! मारणांतिक नामे, समुद्घाते मरि सोय लक्ष असंख बेद्रि आवासे, एक स्थान जावा जोग जोय || लय : दशकंधर राजा रावण रा जाणवा ॥ बजिया । असे ॥ ( ज० स० ) ४२. इंद्रिय उपजी आहार लेवे ? जिस नारक आख्यात | जाव अतर विमान नां देवा, तेहिज हिव अवदात || अणुत्तर समुद्घाते मरि सोय । महाविमान में जोय ॥ ३१. उत्पादस्थानानुसारेणांगुलासंख्येयभागमात्रादिके क्षेत्र समुद्घाततो गया । ( वृ० प० २७४ ) ३२. एमएस मोत्तृण असंखेज्जेसु पुढविकाश्यावासस्यसहस्से अगवरंचि पुढविकाइयावासंसि पुढ विकाइयत्ताए उववज्जेत्ता, तओ पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा । ३३,३४. यद्यप्यसंख्येप्रदेशावास्यभावो जीवस्तवाऽपि नेकप्रदेश श्रेणीवर्त्य संख्यप्रदेशावगाहनेन गच्छति तथा ( वृ० प० २७४ ) स्वभावत्वात् । ३७. वी वित्तमंतमनखाया अमेगजीवा पुढोसत्ता अस्व सत्यपरिणए । ( दसवे ० ४।४ गद्यांश ) ३६. जहा पुरत्थिमे णं मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भणिओ, एवं दाहिणे णं, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे । ४०. जहा पुढविकाइया तहा एगिंदियाणं सव्वेसि एक्केक्कस्स छ आलावगा भाणियव्वा । (०६१२५) ४१. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता जे भविए असंखेज्जेसु बेइंदियावाससयसहस्से अण्णपरंसि बेदियावासंसि ४२. बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा ? परिणामेज्ज वा ? सरीरं वा बंधेज्जा ? जहा नेरइया, एवं जाय अणुत्तरोबवाइया । ( ० ६ १२६) ४३. जीवे गं भंते! मारतिय मुग्वाणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणे श० ६, उ० ६, ढा० १०५ १७१ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. अनेरे कोइक अनुत्तर विमाने, देवपण उपजंत । ते प्रभु! तिहां रह्यो आहार लेवे ? जाव पूर्ववत हुंत ॥ ४५. को धर्मसी ताहि, तिरि पंचेंद्री मांहि, ४६. वैमानिक पहिछाण, भवनपती विगलिदिया । मनुष्य व्यंतर जोतिषि ॥ जाव अणुत्तर लग कह्या । नरक तणी पर जाण, उपजै त्यां आहारादि लै ॥ ४७. छद्मस्थ समणी संत, संख्याता चारित्र सहित । अणुत्तर विमाण पर्यंत, देवपण ते ऊपजै ॥ ४८. इण न्याय करी अवधार, तिर्यंच श्रावक श्राविका । असंखेज्ज सुविचार, सहस्रार उपज ॥ ४९. अच्युत लग अवलोय, मनुष्य श्राविका । श्रावक | इह विध कहियो जोय, पूर्व न्याय करि सर्व ए ॥ ५०. मारणांतिक समुद्घात करि पाछो एह तनु मुझे अंतर्मुहूर्त ख्यात, चारित्र सहित रहै ५१. अनुत्तर विमान मांय, चारित्रवंत अछै ॥ तिहां जई । मरे ॥ लगे । फिर पाठो तन आय, अंतर्मुहूर्त रही ५२. समुद्घात धुर कीध, रुचक न ऊठ्या ज्यां प्रदेश अनुत्तर सीध, कहिये नर गति संजमी। ५३. इणहिज रीत विचार, तिरि पंचेंद्री आदि जे । कहिवो न्याय उदार, यथाजोग जाणी करी ॥ ५४. केइक जीव आरूपात, रत्नप्रभा महि नीं दोय वार विख्यात, मारणांतिक मारणांतिक समद्यात ए अवदात, ऊपजं मारणांतिक समुद्घात, प्रथम करी ५६. पाछो बलि विख्यात, बीजी मारणांतिक समुद्घात, एकेक ५७. एकेंद्री रै मांहि, परं । वै ॥ जिहां | ५५. इत जेहनें ते स्थान वार करें जइ ॥ अछै । जीव इसा ऊपजवो जेहनें अंत जइ नें स्व स्थानक आवे समुद्घात मरणांत थी अवलोय, जे पूरव दिशि नें ते उत्कृष्टो ताहि, लोक ५८. पाछो बलि को एक बीजी वारे देख ५६. मेरू सोरठा ६०. जाव मूकी ६१. सर्व लोकांतिक १०२ भगवती जीड अंगल तणोंज जोय, भाग मात्र असंख्यातमो || लोकांत पर्वत, एक प्रदेश नीं श्रेणि नें। नैं उपजंत, में पछै आहारादिक त्रिहुं लोक रै मांय, एकेंद्रिय छै ते उपजाय, यंत्र धर्मसी कृत लग अछे ।। अर्छ । वली ॥ तिको । करि ॥ विषे । करें ॥ भणी । मझे' ।। ( ज० स० ) ४४. अण्णवरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवताए उयवित्त से गं भंते! तत्यगए चैव जाहारेज्ज वा ? परिणामेज्ज वा ? सरीरं वा बंधेज्जा ? तं चैव जाव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा । (०६।१२७) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. * सेवं भंते! सेवं भंते! कही इम, पुढवी उद्देसो सम्मत्तो । छठा शतक न ठो उद्देशो अंक बासठ न सुतत्तो ॥ ६२. उगणीसं बीस सारण विद पंचमी, एकसौ पंचमी हाल मिक्स भारीमात ऋषराय प्रसादे, 'जय जय' गण गुणमाल ॥ षष्ठशते षष्ठोद्देकार्थः ||६|६|| १. छठे उदेशे सप्तम जीव ढाल १०६ वहा जीव नौं, विशेष ते योनि + कर जोड़ी गोयम कहै । ( ध्रुपदं ) २. अथ हिव हे भगवंत जी! साली कलम प्रधानो जी । श्रीही सामान्य थकी कह्यो, गेहूं ने जय बलि जाणो जी ॥ ३. जबजब जब नों विशेष . ए धान्य कोठे गुप्ति राखे । पालो ते वंसादिक तणो, धान्य आधारज आखै ॥ ७. ४. मंच माला में घालिया, भेद बिहु में भींत रहित ते मंच है, घर ऊपर ते ६. सर्व थी गोवरादिक करि तथाविध अवलोय । वारता जोय ॥ ५. वारणा नैं ढांकी करी गोवरादिक द्वार देश ने सीपियो से ओलिताणं नैं वक्तव्यता माटी प्रमुख सूं मूंदियो रेखादिक लंघन किया, *लय : दशकंधर राजा रावण रा लय: श्रेणक मन इचरज थयो हूं बड़भागी ढांक करी ढाक्यो ते निहालो । मालो ॥ लीप्यो ते लित्ताणं । पिहित्ताणं ॥ कहिये ते कहिये ते संघाती कहातो ॥ मुद्दित्तानं । लंछियाणं || ६२. सेवं भंते ! सेवं भंते! ति । १. ठोके जीवतव्यतोका सप्तमे जीवविशेषयो निवक्तव्यतादिरर्थं उच्यते- ( वृ० प० २७४ ) तु ( श० ६।१२८ ) - २. हामीणं, बहीणं, गोधूमाणं जाणं, 'सालीणं' ति कलमादीनां 'वीहीणं' ति सामान्यतः । ( वृ० प० २०४ ) ३. जवजवाणं - एएसि णं धन्नाणं कोट्टाउत्ताणं, पल्लाउत्ताणं, 'जवजवाणं' ति यवविशेषाणाम् " "कोट्टाउत्ताण' त्ति कोष्ठेने आगुप्तानि पलाउला" ति इह पल्यो - वंशादिमयो धान्याधारविशेषः । (४० १० २७४) 1 ४. मंच उत्ताणं, मालाउत्ताणं, मञ्चमालयोर्भेदः - "अकुड्डे होइ मंचो, मालो य घरोवर होति । " ( वृ० प० २७४ ) ५. ओलित्ताणं द्वारदेशे विधानेन सह गोमयादिनाऽवलिप्तानाम् (३० १० २७४) ६. वित्तापयानं 'तित्ताणं' वि सर्वतो गोमयादिनैव निप्तानां विहि याणं' ति स्थगितानां तथाविधाच्छादनेन । ( वृ० प० २७४ ) ७. मुद्दियाणं लंछियाणं 'मुद्दियाणं' ति मृत्तिकादिमुद्रावतां 'लंछियाणं' ति रेखादिकृतलाञ्छनानां ( वृ० प० २७४ ) श० ६, उ० ६,७, ढा० १०६ १७३ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. काल कितो योनी रहै, अंकुर उत्पत्ती हेतु ? __श्री जिन भाखै जघन्य थी, अंतर्मुहूर्त लभेतु ॥ (वीर कहै सुण गोयमा!) ६. उत्कृष्ट तीन वर्ष लगे, योनि रहै छै ताह्यो । बड़ा टबा में इम कह्यो, त्यां लग सचित कहायो ।। १०. ते उपरांते योनि ते, वर्णादि हानिज पावै । ते उपरांते योनि ते, विध्वंस क्षय थावै॥ ८. केवतियं कालं जोणी संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, 'जोणि' त्ति अकुंरोत्पत्तिहेतुः, ६. उक्कोसेणं तिण्णि संवच्छराई । (वृ०प० २७४) १०. तेण परं जोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी पविद्धंसइ, प्रम्लायति वर्णादिना हीयते, 'पविद्धंसइ' त्ति क्षीयते । (वृ० प० २७४) ११. तेण परं बीए अबीए भवति । उप्तमपि नांकुरमुत्पादयति । (वृ० प० २७४) १२. तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते समणाउसो ! (श० ६।१२६) ११. ते उपरांते योनि ते, बीज अबीजज होयो । वृत्तिकार इहां इम कह्यो, बाह्यो न ऊगै कोयो। १२. ते उपरांते योनि ते, विच्छेदपणों पामंतो। हे श्रमण आयुष्मान्! सांभलो, इम भाखै भगवंतो ।। सोरठा १३. 'बड़ा टबा में वाय, सजीवपणुं टली करी । अजीवपणुंज थाय, मिलतो अर्थ अछै तिको॥ १४. सूको धान अजीव, केइक करै परूपणां । पिण इहां आख्यो जीव, अर्थ अनूपम देखलो॥ १५. दशवकालिक देख, द्वितीय उदेश पंचम भयण । बावीसमी उवेख, गाथा में इह विध कह्य । १६. चावल नों पहिछाण, आटो मिश्र उदक वली। शस्त्र-अपरिणत जाण, ते काचा लेणां नहीं। १६. तहेव चाउलं पिठं वियडं वा तत्तनिव्वुडं । तिलपिट्ठपूइपिन्नागं, आमगं परिवज्जए॥ (द० ५।२।२२) १७. पिट्ठ-तत्काल पिसा हुआ आटा । (दसवेआलियं ११ टि० १३४) १७. वलि कह्यो प्रथम उदेश, चोतीसमी गाथा मझै । पिट्ठ नों अर्थ विशेष, दल्यो आटो तत्काल नों॥ १८. ते खरड़ या हस्तादि, बहिरावै साधू भणी। नहिं कल्पै विधिवादि, धान्य सचित्त इण न्याय है'। (ज० स०) १६. *अथ हिव हे भगवंत जी! वृत्त चिणा सुविशेखो। मसूर मंग तिल उड़द नै, निस्फाव वल्ला देखो। २०. कुलथ अनैं चंवला कह्या, तुवरि चिणा वलि काला । ___आदि देई ए धान्य नै, घाल्या कोठे विशाला ।। १६. अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्फाव 'कल' त्ति कलाया वृत्तचनका इत्यन्ये""निष्फाव' त्ति वल्ला :। (वृ० प० २७४) २०. कुलत्थ-आलिसंदग-सतीण-पलिमंथगमाईणं-एएसि णं धन्नाणं कोढाउत्ताणं" 'कुलत्थ' त्ति चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति, 'आलिसंदग' त्ति चवलकप्रकाराः चवलका एवान्ये, 'सईण' त्ति तुवरी, 'पलिमंथग' त्ति वृत्तचनकाः कालचनका इत्यन्ये। (वृ० प० २७४) *लय : श्रेणक मन इचरज थयो हूं बड़भागी १७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. सालि आलावे जिम का, तिम ए पिण कहिवायो। णवरं पंच वर्ष लगै, शेष तिमज वच ताह्यो। २२. अथ हिव हे भगवंत जी! अयसी भांग नों बीजो। ____कसूबो कोद्रव कांगु नै, वरट्ट धान्य वलि लीजो ॥ २३. रालग कांग विशेष छै, कोदूसग सुविचारो। कोद्रव तणों विशेष ए, सण सरिसव वलि धारो। २१. जहा सालीणं तहा एयाणि वि नवरं पंच संबच्छराई सेसं तं चेव । (सं० पा०) (श०६।१३०) २२. अह भंते ! अयसि-कुसुभग-कोद्दव-कंगु-वरग 'अयसि' त्ति भङ्गी........'वरग' त्ति वरट्टो, (वृ० प० २७४) २३. रालग-कोदूसग-सण-सरिसव"रालग' त्ति कंगुविशेषः, 'कोदूसग' त्ति कोद्रवविशेषः । (वृ०प० २७४) २४. मूलाबीयमाईणं--एएसि णं धन्नाणं " एयाणि वि तहेव नवरं सत्त संवच्छराई, (सं० पा०) (श०६।१३१) २४. बीज मला नां आदि दे, ए पिण तिमहिज जाणी। णवरं सात वर्ष लगै, शेष तिमज पहिछाणी ॥ सोरठा २५. स्थिती कही छै एह, स्थिती तणोंज विशेष हिव । मुहूर्तादिक छै जेह, कहिये . स्वरूप तेहनों॥ २६. *इक-इक मुहूर्त नां प्रभु! किता ऊसास बखाण्या? श्री जिन उत्तर दे हिवै, अनक्रमै इम आण्या ।। २७. असंख्याता समय तणां, समुदाय वद सुयोगो। समिति कहितां तसु मेलवो, समागम तास संजोगो । २५. अनन्तरं स्थितिरुक्ताऽतः स्थितिरेव विशेषाणां मुहूर्ता दीनां स्वरूपाभिधानार्थमाह- (वृ० प० २७४) २६. एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवतिया ऊसासद्धा वियायिा ? २७. गोयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुदय-समिति समागमेणं समुदाया-वृन्दानि तेषां याः समितयो--मीलनानि तासां यः समागमः-संयोगः। (वृ० प० २७६) २८. सा एगा 'आवलिय' त्ति पच्चइ, २८. काल मान तिण करि हुवै, ते आवलिका कहिये ।। नति करिब ते आवलिका कहिये। इतरै असंख समय तणी, एक आवलिका लहिये ।। २६. संख्याती आवलिका तणो, एक ऊसास विचारो। संख्याती आवलिका तणो, एक निस्सास प्रकारो॥ २६. संखेज्जा आवलिया ऊसासो, संखेज्जा आवलिया निस्सासो ३०. हृष्ट-तुष्ट पहिला सोरठा नर जान, जरा करी अपराभव्यो। नै वर्तमान, व्याधि करीने रहित ते ॥ ३०. हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्टस्स जंतुणो। 'हृष्टस्य' तुष्टस्य, 'अनवकल्पस्य' जरसाऽनभिभूतस्य, 'निरुपक्लिष्टस्य' व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानभि (वृ० प० २७६) ३१. एगे ऊसास-नीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ । ३१. एहवो पुरुष युवान, इक उस्सास-निस्सास तसु । ए पाणुं अभिधान, कह्यो देव तीर्थकरे ।। ३२. *सात पाणु एक थोव छ, सात थोवे लव एको । सितंतर लव महर्त कह्यो, केवल ज्ञाने विशेखो। ३२. सत्त पाणूई से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ।। 'लय : श्रेणक मन इचरज थयो हं बड़भागी श० ६, उ० ७, ढाल १०६ १७५ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहोत्तर वलि मुहुर्तमान देख्यो तसु, ३३. सेतीसो उस्सास निस्वास सर्व अनंत ३४. ए मुहूर्त्त प्रमाण करी अछै, तीस मुहूर्त दिनरातो । पनर अहोरत्त पक्ख का, बे पक्ख मास विख्यातो ॥ २५. वे मासे इक ऋतु कही वे अपने इक वर्ष थे, ३६. वीस युगे सौ वर्ष छै, सौ हजार वर्ष एकठा, ते ३७. चोरासी लक्ख वर्षे हुवै, चोरासी लाख गुणां किया, तीन पंच दश ऋतू इक वर्ष सय युग वर्ष जानी । वरज्ञानी ॥ इक लक्ख अयनो । वयनो ॥ हजारो | अवधारो ॥ एक पूर्व नों पूर्व एक अंगो । सुचंगो ॥ सोरठा सहस्रज कोड़ ३८. वर्ष सित्तर लख फोड़, छपन ए सगला मिलि जोड़, पूर्व संख्या तसु ३६. * एक पूर्व छै तेहनें, चोरासी लक्ख गुणां एक तुटित नों अंग छे षट अंग पनर बिंदु लीजै ॥ ४०. एह तुटित नां अंग ने वर्ष चउरासी लक्ख गुणां कीजै । तुटित कहीजै तेहनें, अठ अंक बिंदु बीस लीजै ॥ कीजे । ४१. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक अडड नो अंगो । इणने चोरासी लक्ख गुण्यां अडड एक सुचंनो || ४२. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक अब तो अंगो तास चोरासी चोरासी लक्ख गुण्यां, अवव एक सुचंगो ॥ ४३. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक हूहूक नों अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, गुण्यां हूहूक एक सुचंगो ॥ ४४. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक उत्पल नो अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, उत्पल एक सुचंगो ॥ ४५. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक पद्म तो अंगो इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां पद्म एक सुचंनो ॥ ४६. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक नलिन नो अंगो। इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां नलिन गुण्यां नलिन एक सुगो ॥ ४७. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, अर्धनिपूरक अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, अर्थ निपूरक चंगो ॥ ४८. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक अयुत नों अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, अयुत एक सुचंगो ॥ *लय : श्रेणक मन इरचज थयो हूं बड़भागी १७६ भगवती-जोह बलि । कही ॥ ३३. तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेवतरि च ऊसासा । एस मुहतो विट्ठो सम्बनीहि ॥ ३४. एएमा तीस अहोरतो, पम्पर बहोरता पक्खो दो पक्या मासो, 2 ३५. दो मासा उडू, तिष्णि उडू अयणे, दो अयणा संवछरे, पंच राई बुगे, ३६. वीसं जुगाई वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं यासमुहस्तायं बाससपसहसं ३७. चउरासीइं वाससयसहस्साणि से एगे पुव्वंगे, चउरासी बंगा सदसहस्साई से एगे पुबे। ३६. एवं ड ४०. तुडिए । ४१. अडडंगे, ४२. अववंगे, अववे । ४३. हूहूयंगे, हूहूए । ४४. उप्पलंगे, उप्पले । अडडे I ४५. उमंगे परमे । ४६. नलिणंगे, नलिणे । ४७. अत्यरिगे पनिउरे । ४८. अउयंगे, अउए । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 । ४९. तिने चोराची लाल गुणां कियां एक प्रयुत' नों अंगो । इणने चोरासी लक्ख गुण्यां प्रयुत एक सुचंगो ॥ ५०. तिनें चोरासी लाख गुणां कियां, एक नयुत नो अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, नयुत एक सुचंगो ॥ ५१. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक चूलिका-अंगो । तिने बोरासी लक्ख गुण्यां चूलिका एक सुचंगो ॥ ५२. तिने चोरासी लाख गुणो कियों, सीसप हेलिका- अंगो । तिणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, सीसपहेलिका' चंगो ॥ ५३. गणित संख्या एता लगे, गणित विषय पिण एती । उत्कृष्ट संख्या दूर छै, एतो गिणत नी बात कहेती ॥ ५४. ते उपरांत ओपन कही, कतिविध ते भगवानो ? जिन कहे ते द्विविध अर्थ पत्य सागर उपमानो' ॥ ५५. देश अंक सतसठ तणुं, एकसौ घडी ढालो । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी 'जय जश' हरष विशालो । ( जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों) - ढाल १०७ हा १. से अब कि स्वं तं तिको, अथ स्यूं ते सागरोपम ? तास पस्योपम पहिचान ? उत्तर हिव जाण ॥ १. प्रस्तुत ढाल की ४६वीं और ५०वीं गाथा जिस पाठ के आधार पर बनाई गई है, अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।१३२ में उसका क्रम उलटा है। वहां पहले नउयंगे, नउए और उसके बाद पउयंगे, पउए पाठ है। अनुयोगद्वार में भी यह क्रम इसी प्रकार रखा गया है। यही क्रम उचित प्रतीत होता है, पर कुछ आदर्शों में 'पउयंगे, पउए' पाठ पहले है। इस क्रम को हमने पाठान्तर में रखा है । जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही क्रम रहा होगा। इसीलिए जोड़ की रचना इस क्रम से की गई है। जोड़ के सामने अंगसुत्ताणि के पाठ को जोड़ के अनुसार ही उलटकर उद्धृत किया गया है । २. देखें प० सं० ५ । ३. इस ढाल की गाथा ३७ से ५४ तक कालमान का जो विवरण है, वही ढाल ७५ गाथा ८ से ३७ तक है । ७५वीं ढाल पांचवें शतक की जोड़ है और यह एक आगम में यह प्रसंग द्विरुक्त-सा (१०६) ढाल छठे शतक की जोड़ है। प्रतीत होता है, पर संदर्भों की भिन्नता के कारण द्विरुक्त होने पर भी यह दोष नहीं है । क्योंकि पांचवें शतक में अयन आदि की चर्चा है और प्रस्तुत ढाल में गणना-काल-पद के अन्तर्गत इसका उल्लेख हुआ है। यही प्रसंग अणुओगदाराई ( सू० ४१७) में भी उल्लिखित है । ४६. पउयंगे, पउए । ५०. नउयंगे, नउए । २१. जूतियंगे, भूतिया । ५२. सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया । ५३. एताव ताव गणिए, एताव ताव गणियस्स विसए । ५४. तेण परं भवमिए । (०६।१२२) से कि ओभिए ? ओमिए डुविहे पण, तं जहापलिओवमे य, सागरोवमे य । ( ० ६१२३) १. से कि तं पलिओवमे ? से किं तं सागरोवमे ? श० ६० उ० ७, डा० १०६ १७७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अति तीखे शस्त्रे करी, छदव तेह पिछाण । खड़ गादिक करिने इहां, द्विधा भाव सुजाण ॥ ३. सूई प्रमुख कर भेदवू, छिद्र सहित कहिवाय । __ छेद भेद प्रारंभवा, करण समर्थ को नाय । ४. तास नाम परमाणुओ, सिद्धा वदै सूजेह । ज्ञानसिद्ध ए केवली, पिण सिद्धिगत न भणेह ।। ५. बोलण तास असंभव, तिण कारण पहिछाण । ज्ञानसिद्ध एहनें कह्या, वर तेरम गणठाण ॥ ६. पूर्वे परमाणु कह्य, प्रमाण नी ए आदि । उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका प्रमुख प्रमाण सुवादि । २,३. सत्थेण सुतिक्खेण वि, छेत्तुं भेत्तुं व जं किर न सक्का । छेत्तुमिति खड्गादिना द्विधा कर्तुं, 'भेत्तुं' सूच्यादिना सच्छिद्रं कर्तुम् । (वृ० प० २७६) ४,५. तं परमाणु सिद्धा वदंति 'सिद्ध' त्ति ज्ञानसिद्धा: केवलिन इत्यर्थः न तु सिद्धा:-सिद्धिगतास्तेषां वदनस्यासम्भवादिति । (वृ० प० २७६) ६. आदि पमाणाणं ॥१॥ 'आदि' प्रथमं 'प्रमाणानां' वक्ष्यमाणोत्श्लक्ष्णश्लक्षिणकादीनामिति । (वृ० प० २७६) ७,८. यद्यपि च नैश्चयिकपरमाणोरपीदमेव लक्षणं तथाऽपीह प्रमाणाधिकाराद्व्यावहारिकपरमाणुलक्षणमिदमवसेयम् । (वृ० प० २७६) ७. निश्चय परमाणू तणां, एहिज लक्षण होय । तो पिण व्यवहारीक ए, परमाणू अवलोय ।। ८. प्रमाण नां अधिकार थी, व्यवहारिक नां एह । इहां लक्षण आख्या अछ, इम वृत्तिकार कहेह ।। है. अथ हिव अन्य प्रमाण नों, लक्षण अर्थ विशेख । श्रोता चित दे सांभलो, वर जिन वचन सुरेख । ६. अथ प्रमाणान्तरलक्षणमाह- (वृ०प०२७६) १०. *अनंता व्यवहारिक जाण, परमाणू नो पहिछाण । समदाय छै प्रमुख सोय, तसं समिति मिलण अवलोय ॥ ११. तेहनो रामागम कहिवाय, एकठो थायवो जे ताय । तेणे करी मात्रा पुंज पेख, ते उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णा एक ॥ १२. इतरै अनंत व्यवहारिक परमाण, भेला कीधा जे पुंज पिछाणं । तेहनै कहियै सुविशेख, उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका एक ॥ १३. उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका वेद, प्रमख प्रमाण नां दस भेद । यथोत्तर अष्ट गुणां उच्चार, आंगुल पर्यंत कहिवा विचार ॥ १४. श्लक्ष्णश्लक्षिणका जाण, वलि ऊर्वरेण पहिछाण । ऊंचो नीचो अनै तिरछो तेह, चलनधर्म ऊर्ध्वरेण एह ॥ १०,११. अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय-समिति समागमेणं सा एगा उस्सण्ह-सहिया इ वा । 'अनन्तानां' व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदया:-यादिसमुदयास्तेषां समितयो-मीलनानि तासां समागमः-परिणामवशादेको भवनं समुदयसमितिसमागमस्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते । (वृ० प० २७६) १३. एते च उत्श्लक्ष्णश्लविणकादयोऽङ्ग लान्ता दश प्रमाण भेदा यथोत्तरमष्टगुणाः। (वृ० प० २७७) १४. सण्हसहिया इ वा, उड्डरेणू इ वा, 'उड्डरेणु' त्ति ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मोपलभ्यो रेणु: ऊर्ध्वरेणुः। (वृ०प० २७७) १५. तसरेणू इ वा, व्यस्यति-पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः । (वृ० प० २७७) १६. रहरेणू इ वा, वालग्गे इ वा, लिक्खा इ वा, जूया इ वा, जवमझे इ बा, अंगुले इ वा। 'रहरेणु' त्ति रथगमनोत्खातो रेणू रथरेणुः । (वृ० प० २७७) १५. पूर्वादिक वायु पिछाण, तिण सूप्रेरी थकी रज जाण । इम चालै जे रज ताय, त्रसरेणू ते कहिवाय ॥ १६. रथ जातां पड़े रज जेह, रथरेणू कहीजे तेह । वाल नों अग्र नं बलि लीख, जू जवमध्य अंगल सधीक ।। *लय : विना रा भाव सुण गूंजे १७८ भगवनी-जोड़ Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा एगा राण्हसहिया । १८. अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्डरेणू, अट्ठ उड्दुरेणूओ सा एगा तसरेणू । १६. अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ट रहरेणूओ से एगे देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणुस्साणं वालग्गे २०-२३. 'एवं हरिवास-रम्मग-हेमवय-एरन्नवयाणं, पुव्य विदेहाणं मणुस्साणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया २१. १७. एतो नाम मात्र दस देख, आगल अठगणां कहिये विशेख । अठ उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका नीं, इक इलक्षणश्लक्ष्णा जानी।। १८. आठ इलक्ष्णश्लक्षिणका नीं, एक ऊर्ध्वरेण जिन वानी । आठ ऊर्ध्वरेण नी जोय, एक त्रसरेण अवलोय ।। १६. आठ त्रसरेण नी ताम, एक रथरेणू हुवै आम । आठ रथरेणू नी उदग्ग, एक देव-उत्तरकुरु वालग्ग । २०. देव-उत्तरकुरु नर देख, त्यारां वालाग्र आठ नुं पेख । हरिवर्ष रम्यक नां विशेख, नर नों हुवो वालाग्र एक ।। हरिवर्ष रम्यक नर जान, त्यांरा वालाग्र आठ नुं मान । हेमवंत एरण्य नां लहिय, नर नों इक वालाग्र कहिये ।। २२. हेमवंत एरण्य नर जोय, त्यांरा वालाग्र आठ न होय । पूर्व अपर विदेह नां ताय, नर नों इक वालाग्र थाय ।। २३. पूर्व अपर विदेह नर जेह, त्यांरा वालाग्र आठ नुं तेह । एक लीख हुवै छै सोय, आठ लीख नी जं इक होय ॥ अठ जू जवमध्य इक पेख, अठ जवमध्य अंगल एक । इण अंगुल प्रमाणे जाण, षट अंगल पाओ पिछाण ॥ २५. बारै अंगल बैंहत आख्यात, अंगल चउवीस नों एक हाथ । अंगुल अड़ताली कुक्षि संपेख, ए धनष्य तणुं अर्ध देख । २४. २६. छन् अंगल नों दंड एक, वलि धनुष यूप संपेख । वलि नालिका यष्टि विशेख, अक्ष गाडा नों अवयव देख ॥ २७. वलि मूसल पिण अवलोय, छहुँ छन अंगुल नां जोय । एणे धनुष प्रमाण पेख, दोय सहस्र धनुष गाऊ एक ॥ २८. च्यार गाऊ नों जोजन जाण, एहवै जोजन तणे प्रमाण । एक पालो वाटलो होय, जोजन लांबो चोड़ो अवलोय ।। २६. एक जोजन ऊंचो ताय, त्रिगणी जाझी परिधि कहाय । एक दिवस तणां बध्या वाल, दोय तीन दिवस नां न्हाल । ३०. उत्कृष्टपणे निशि सात, तेहनां बाध्या वाल विख्यात । तेह वालाग्र नी बहु कोड़, काना लग चांपी भरचो जोड़। २४. अट्ठ जूयाओ से एगे जवमझे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले । एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाणि पादो, २५. बारस अंगुलाई विहत्थी, चउबीसं अंगुलाई रवणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी 'रयणि' त्ति हस्तः । (वृ० प० २७७) २६. छन्नउति अंगुलाणि से एगे दंडे इ वा, धणू इ वा; जूए इ वा नालिया इवा, अक्खे इ वा 'नालिय' ति यष्टिविशेष: 'अक्खे' त्ति शकटावयवविशेषः । (वृ०प० २७७) २७. मुसले इ वा । एएणं धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई गाउयं, २८. चत्तारि गाउयाइं जोयणं । एएणं जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले जोयणं आयामविक्खंभेणं, २९. जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिउणं, सविसेसं परिर एणं-से णं एगाहिय-बेहिय-तेहिय, ३०. उक्कोसं सत्तरत्तप्परूढाणं संमठे संनिचिए भरिए वालग्गकोडीणं । 'संसृष्टः' आकर्णभृतः। (वृ० प० २७७) ___ सोरठा ३१. वालाग्र कोड़ विख्यात, पाठ माहे इहां आखिया । बृहत टबे असंख्यात, न्याय कहूं छ. तेहनों ॥ ३२. अनुयोगद्वार मझार, एक एक वालाग्र नां । खंड असंख विचार, सूक्ष्म पल्य कही तसु॥ ३२. से कि तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ?..."तत्थ णं एगमेगे वालग्गं असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ।.... (अणुओग० सू० ४२४) श० ६, उ०७, ढा० १०७ १७६ Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. ते णं वालग्गे नो अग्गी दहेज्जा, नो वातो हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, लो परिविद्ध सेज्जा, ३३. *नहीं बल अग्नि रै मांहि, वायु हरै उडावै नांहि । पाणी प्रवाहे सड़िवो न थाय, किणहि स' विध्वंस न पाय ।। सोरठा ३४. कूहै—सडै नहिं जेह, प्रचय विशेषपणे करी । वलि शुषिर अभावपणेह, वायु नां असंभव थकी। ३५. *नहिं होवै दुर्गंध पेख, सौ-सौ वर्ष खंड इक-एक । जेतले काले करि जेह, पालो क्षीण थयो सहु तेह ॥ ३६. निरए रजरहित ज्यू जाण, सूक्ष्म वालाग्र रहित पिछाण । धान्य रज रहित कोठागार, तेहनी परै एह विचार ॥ ३७. निम्मले मलरहित ज्यू रीत, अतिहि सूक्ष्म रजरहीत । पूज्यां विमल थयो कोठागार, तेहनी परै एह विचार । ३८. निदिए नों अर्थ अवलोय, वालाग्र खंड नीठ्या सोय । विशिष्ट यत्न पूज्यो कोठागार, तेहनी परै ए अवधार ।। ३६. निल्लेवे निर्लेप अत्यंत, सर्व वालाग्र खंध काढंत । भीत्यादिक धान्य लेपन होय, तेह कोठागार जिम जोय ।। ३४. न कुथ्येयुः प्रचयविशेषाच्छुषिराभावाद्वायोरसम्भवाच्च नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः । (वृ० प० २७७) ३५. नो पूतित्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं वाससए-वाससए गते एगमेगं वालग्गं अव हाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खीणे ३६. निरए निर्गतरज: कल्पसूक्ष्मतरवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत् । (वृ०प० २७७) ३७. निम्मले विगतमलकल्पसूक्ष्मतरवालाग्रः प्रमानिकाप्रमष्टकोष्ठागारवत् । (वृ० प० २७७) ३८. निट्ठिए अपनेयद्रव्यापनयमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्न प्रमाजितकोष्ठागारवत् । (वृ०प० २७७) ३९. निल्लेवे अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतां गतः वालाग्रापहारादपनीतभीत्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारवत् । (वृ० प० २७७) ४०. अवहडे विसुद्धे भवइ । निःशेषवालाग्रलेपापहारात् । (वृ०प० २७७) ४१. एकार्थाश्चंते शब्दा: व्यावहारिकं चेदमद्धापल्योपमम् । (वृ०प० २७७), ४२. इदमेव यदाऽसंख्येयखण्डीकृतकैकवालाग्रभृतपल्याद वर्ष शते-वर्षशते खण्ड शोऽपोद्धारः क्रियते तदा सूक्ष्ममुच्यते। (वृ०प० २७७) ४३. समये समयेऽपोद्धारे तु द्विधैवोद्धारपल्योपमं भवति, तथा तैरेव वालायें स्पृष्टा: प्रदेशास्तेषां प्रतिसमयापोद्धारे यः कालस्तव्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमं, पुनस्तैरेवासंख्येयखण्डीकृतः स्पृष्टास्पृष्टानां तथैवापोद्धारे यः कालस्तत्सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमम् । (वृ० प० २७७) ४४. से तं पलिओवमे । एएसिं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ, एक्कस्स भवे परिमाणं ।। ४०. अवहडे सह वालाग्र खंड, लेप अपहरवा थी सुमंड । इण कारण थी संपेख, विशुद्ध शुद्ध थयो विशेख ।। ४१. सह शब्द एकार्थ तेम, इहां वृत्तिकार का एम । कोड़ा वालाग्रे पालो भरंत, व्यवहारिक पल्य कहंत ॥ ४२. इक-इक वालाग्र खंड असंख्यात, तिण सूपालो भरै विख्यात । इक-इक खंड सौ-सौ वर्ष गहिये, सूक्ष्म अद्धा पल्य ते कहिये। ४३. उद्धार अद्धा क्षेत्र पल्ल, व्यवहारिक सूक्ष्म अदल्ल । बहु विस्तार अनुयोगद्वार', इहां नाम मात्र अधिकार ॥ ४४. एतो कह्यो पल्योपम जोय, दस कोड़ाकोडि पल्य सोय । एक सागरोपम प्रमाण, एह प्रमाण करि पहिछाण ॥ *लय : विना रा भाव सुण गूंज १. (सू० ४१६-४२४) १८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. च्यार सागर कोड़ाकोड़, काल सुषम- सुषमा जोड़ । कोड़ाकोड़ि सागर वलि तीन काल सुषमा युगल' सुचीन ॥ ', 1 ४६. कोटाकोड़ि सागर में दोय काल सुषमदुषमा होय । तृतीय आरो से हंस, पहिला युगल आदि जिन अंत ॥ ४७. कोड़ाकोड़ि सागर इक तास, ऊणां संहस बयालीस वास । काल दुष्षम-सुषमा विचार, जिन तेबीस चउथे आर ॥ ४८. इकवीस सहस जे वास, काल दुष्षमा पंचम इकवीस सहस वर्ष जोय, काल दुष्यम-दुषमा ४६. अवसप्पिणी काल आस्यात उत्सप्पिणी नी हिव इकवीस सहस वर्ष न्हाल, कहिये दुष्यम- दुधमा काल ।। ५०. वलि वर्ष इकवीस हजार, काल दुष्षम दूजो आर । इनमें साधु धावक नहि चाय, बीजू एह पंचम जिसो पाय ।। ५१. कोड़ाकोड़ि सागर इक तास, ऊणां संहस बयालीस वास । दूषम-सुषमा तीजो आर, जिन जन्म तेबीस उदार ॥ ५२. कोड़ाकोड़ि सागर जे दोय, काल सुषम दुष्यमा होय | चउयो आरो चरम जिन आदि पछे युगल धर्म सुख साधि ।। ५३. कोड़ाकोड़ि सागर वलि तीन, काल सुषमा युगल सुचीन । प्यार सागरोपम कोड़ाकोट, काल सुषम-सुषमा जोड़ ॥ ५४. कोहाकोडि सागर दस लाधि, अवसप्पिणी काल आदि । कोदाकोड़ि सागर दस देख उत्सप्पिणी काल संपेल || ५५. कोड़ाकोड़ि सागर वीस सोय, अवसर्पिणी उत्सपिणी होय । बिहु मिलियां काल चक्र एक वर ज्ञान नेत्रे करि देख ॥ 1 दूहा जास । होय ॥ बात। थी, ५६. काल तथा अधिकार गणधारक गणी, काल स्वरूप कहंत । गोयम प्रवर प्रश्न पूछत ॥ ५७. *जंबूद्वीप विषे जिनराय ! एह अवसप्पिणी काल ताय । सुषमा सुषम आरा में सुसाधि, उत्कृष्ट अर्थ आउखादि ॥ ५८. उत्तमार्थ प्राप्त कह्य तेह, तथा उत्तम काष्ठा प्राप्त एह । प्रकृष्ट अवस्था आप्त, तिको उत्तम काष्ठा प्राप्त ॥ ५६. भरत नामा खेत्र नों उदार, केहवो आकार भाव प्रकार ? जिन कहै बहु सम रमणीक, भूमिभाग हुंतो तहतीक ॥ ६०. यथानाम दृष्टांत परीखो, मादल मुखपुट तेह सरीखो । उत्तरकुरु नी पर सहू बात, जीवाभिगम सूत्रे आख्यात | * लय : विना रा भाव सुण गूंज १. यौगलिक काल ४५. एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम सुसमा, तिष्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा, ४६. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम दूसमा, ४७. एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहि ऊणिया कालो दूसम सुसमा, ४८. एक्कवी वाससहस्साई कालो समा एक्कची वाससहस्साई कालो दूसम- दूसमा । ४६. पुणरवि उसचिनीए एक्कवीस वासरासाई कालो दूसम- दूसमा । ५०. एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा । ५१. एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए बाससहसेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा । ५२. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - दूसमा । ५३. तिणि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा, चत्तारि सागरोदमकडाकोडीको कालोमा। ५४. दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी, दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी । ५५. वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी उस्सप्पिणी य । (०६०१२४) ५६. कलाधिकारादिदमाह ( वृ० प० २७७ ) ५७, ५८. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसम समाए समाए उत्तिमत्ताए, उत्तमान् तत्काणापेक्षा आयुष्कादीन प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा-प्रकृष्टावस्थां गता तस्याम् । ( वृ० प० २७७ ) ५६. भरह्स्स वासस्स केरिसए आगारभाव पडोवारे होत्था ? गोपमा ! बहुसमरमणि भूमिभागे होत्या । ६०. से जहानामए - आलिंगपुक्खरे ति वा, एवं उत्तरकुरुवत्तब्वया नेयव्वा । 'आगिपुश्वरे' ति मुनमुखपुट उत्तरकुरु वक्तव्यता च जीवाभिगमोक्तंवं दृश्या (जीवा० प० ३।५७-६२१) | ( वृ० प० २७७ ) श०६, उ० ७, ढा० १०७ १८१ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. जाव से पूर्व कोड़ा करियो, एतला लगे सर्व उचरियो । तेह काल विधे पहिछाण, भरतखेत्र विषे इम जाण ॥ १२. तत्व-तस्थ विहां-वहां ताहि भरत नां खंड-खंड २ महि देशे-देशे न अर्थ विचार, खंड-खंड नो अंश मकार ॥ ६२. तहि तहि नो अर्थ कहेज, देश-देश नो अंश विषेज । नां । घणां उद्दाल कोद्दालादि, वारू वृक्ष विशेष समाधि ॥ ६४. जाव कुस विकस विशुद्ध रूख मूल हुंता कुसदर्भ, विकस तृणमूल, तेणे करी रहित ६५. जाव छविध मनुष्य वसंता, पद्मगंध कमलगंधर्वता । मृगगंधा कस्तूरी सरीख, तनु-सुगंध वास तहतीक ॥ ६६. अममा ममत करोने रहीत, तेपतली-तेज-रूप सहीत | सहा पंचमो नाम पिछाण, समर्था एह अर्थ सुजाण ।। अविरुद्ध । तरु-मूल ।। ६७. सणचारी मंदगतिवंता, उत्सुक भावरहित चालता । सेवं भंते ! सेवं भंते! ताम, इम बोलै गोतम स्वाम ॥ ६८. छठा शतक नौ सातमों न्हाल, कही एकसौ सातमी ढाल । भिक्खु भारीमाल भूषराय, 'जय जश' सुख संपति पाय । घष्ठते सप्तमोद्देकार्थः ॥६७॥ १०२ भगवती-जोड़ ढाल १०८ इहा १. सप्तमुदेशा पेख ॥ ने विषे भरत स्वरूप विशेख | अष्टमदेवे हिव अं, पृथ्वी स्वरूप २. प्रभु ! पृथ्वी केती कही ? जिन कहै पृथ्वी अट्ठ रत्नप्रभा यावत बलि सिप्पाराव || ६१. जाव तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसमंत सर्वति चिति निसीमंतितुति इति रमंति ललंति । ६२. तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ तत्थ देसे - देसे तत्र तत्र भारतस्य खण्डे खण्डे 'देसे देसे' खण्डांशे खण्डांशे । (४० १० २७८) ६३. हि हि बहवे उड़ाया कोहाला 'तहि तहि' ति देशस्यान्ते देशस्यान्ते उद्दालकादयो वृक्षविशेषाः । ( वृ० प० २७८ ) ६४. जावस विस विसुद्धा कुशादर्मा विकुसात्वादयः पविशेषास्तवि शुद्धानि तदपेतानि वृक्षमूलानि - तदधोभागा येषां ते तथा । ( ० प० २७८ ) ६५. जाव छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तं जहापहगंधा, मियगंधा, 'पम्हगंध' त्ति पद्मसमगन्धयः 'मियगंध' त्ति मृगमद( वृ० प० २७८ ) गन्धयः । ६६. अममा, तेतली, सहा, 'अमम' त्ति ममकाररहिताः, 'तेयतलि' त्ति तेजश्च तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः, 'सह' त्ति सहिष्णवः समर्थाः । ( वृ० प० २७८ ) ६७. सणिचारी ( ० ६१३५) (०६।१३६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । 'सणिचारे' त्ति नै मन्दमुत्सुकायाचायाच्चरन्तीत्ये वंशीलाः शनैश्चारिणः । ( वृ० प० २७० ) १. सप्तमोद्देशके भारतस्य स्वरूपमुक्तमष्टमे तु पृथिवीनां तदुच्यते( वृ० प० २७८ ) २. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा रयणप्पभा जाव ईसीपब्भारा । (स० ६।१३७) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नों रे लाल (ध्र पदं) ३. ए रत्नप्रभा पृथ्वीतले रे, छै प्रभुजो ! घर जेह रे, जिनेन्द्र देव ! घर आकारे हाट छ रे लाल, अर्थ समर्थ नहि एह रे, सुजाण सीस ! ४. ए रत्नप्रभा पृथ्वी तले, छै भगवंतजी ! ग्राम ? जाव तिहां सन्निवेश छै ? अर्थ समर्थ न आम ।। ५. छै प्रभ ! रत्नप्रभा तले, बादल जे महामेह । पुदगल में स्नेह ऊपज, मिलि वर्षा वर्षेह ? ६. जिन भाखै हंता अत्थि, तीनई पकरंत । देव वैमानिक विण करै, असुर नाग थी हुंत ॥ ७. छै प्रभु ! रत्नप्रभा तले, बादर घन गर्जार ? जिन भाखै हंता अत्थि, तीनइ करै तिवार ।। ३. अत्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहा इ वा? गेहावणा इ वा? गोयमा ! णो इणठे समझें। (श० ६।१३८) ४. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामा इ वा? जाव सण्णिवेसा इ वा? णो इणठे समठे। (श० ६।१३६) ५. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ओराला बलाह्या संसेयंति ? संमुच्छंति ? वासं वासंति ? ६. हंता अत्थि । तिणि वि पकरेंति--देवो विपकरेति, असुरो वि पकरेति, नागो वि पकरेति । (श० ६।१४०) ७. अस्थि णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे थणियसद्दे ? हंता अत्थि । तिण्णि वि पकरेंति । (श० ६।१४१) ८. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगणिकाए? गोयमा ! णो इणढे समठे, नन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं । (श०६।१४२) ६. ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एव सद्भावान्निषेध इहोच्यते। (वृ० प० २७६) १०. एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति । (वृ०प० २७९) ११-१२. सत्यं, किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्व निषिध्यते मनुष्यादिवद् (वृ० ५० २७६) ८, छै प्रभ ! रत्नप्रभा तले, बादर अग्नीकाय ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, णण्णत्थ विग्रहगति पाय ।। सोरठा ६. बादर अग्नी जान, मनष्यक्षेत्र माहेज ह। ते माट पहिछान, निषेध कीधो एहनों। १०. तो बादर-पृथ्वी काय, पृथ्व्यादिक स्वस्थान अछै । पिण रत्नप्रभा-तल नांय, तेहनों निषेध किम नहि ? ११. सत्य, किंतु इह स्थान, अभाव जिण-जिण वस्तु नों। तिण-तिण नो पहिछान, निषेध सह नों नहि कियो।। १२. रत्नप्रभा-तल वेद, मनष्य मात्र अभाव छ । न कियो इहां निषेध, तिम बादर-पृथ्वी तणों। १३. जेहनी पूछा कोध, तेहनों इहां निषेध छै। विचित्र सूत्रगति सीध, तिणस निषेध नवि कियो। १४. उदक वनस्पतिकाय, घनोदध्यादिक भाव कर । तेहनों संभव थाय, तिण सू तास निषेध नहि ॥ १५. *छ प्रभ ! रत्नप्रभा-तले, चंदिम यावत तार । जिन कहै अर्थ तुम्हे कह्यो, समर्थ नहिं छै लिगार ।। १३. विचित्रत्वात् सुत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्थ ने निषेध उक्तः । (वृ० प० २७६) १४. अप्कायवायुवनस्पतीनां त्विह घनोदध्यादिभावेन भावान्निषेधाभावः सुगम एवेति । (वृ० प० २७६) १५. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे चंदिम जाव तारारूवा (सं० पा०) । णो इणठे समठे। (श० ६।१४३) *लय : धीज कर सीता सती रे लाल श० ६, उ० ८, ढा० १०८ १८३ Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. प्रभु ! रत्नप्रभा तले, चंद्रादि क्रांति जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, वलि गोवम ', १७. रत्नप्रभा ने विषे को तिम सगलो बीजी पृथ्वी नै विषे कहिवो सर्व १८. इम तीजी पृथ्वी तले, गवरं देव असुरकुमार करै वलि, नाग थकी नहि हुंत ॥ शोभंत ? पूच्छंत ॥ सोरठा १६. तीजी पृथ्वी हेठ, नागकुमार करै इण पद करके नेठ तास गमन नह विस्तार । प्रकार ॥ करंत । एह । । २०. इम चउवी पृथ्वी तले, णवरं वैमानिक बादल प्रमुख सहू करै, असुर नाग न करेह ॥ सोरठा छै ! सोधर्म ईशाण नैं नीचे जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, वलि २१. 'चउथी नरक मकार, असुर तिहां जावै नहीं । ते माटै सुविचार, गमन वैमानिक नूंज छै ॥ २२. पद्म-पुराग मझार, सीतेंद्र चउथी गयो । ते मिलतो सुविचार, एह वचन अवलोकतां ॥ (ज० स० ) २४. प्रभु नहीं । संभवे ॥ २३. *हेली सहु पृथ्वी तले, देव मेघादि असुर नाग न करें तिहां तास गमन नहि करंत । त ॥ घरादिक जेह ? गोयम पूछेह ॥ २५. महामेह बादल पे प्रभु! हंता कहै जिनराय । । देव असुर दोनू करे, नाग थकी न कराय ॥ सोरठा २६. चमर तणी पर जोय, असुर तिहां जावै अछे । नाग न जाने कोय, अशक्त छै ते कारणं ॥ २७. गाज शब्द पिण एम देव असुर दोनू करें। नाग करे नहि तेम सोधर्म में ईशान तल ॥ २८. * प्रभु ! बादर पृथ्वीकाय छे, बादर अग्नीकाय ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, पण्णत्व विग्रहगति पाय ॥ *लय : धीज करें सीता सती रे लाल १८४ भगवती जोड़ १६. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे चंदाभाति वा? सूराभा ति वा ? णो इट्ठे समट्ठे । १७. एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियव्वं, १८. एवं तच्चाए वि भाणियव्वं, नवरं देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, नो नागो पकरेति । १६. 'ना नाओ' त्ति नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगमनं नास्तीत्यत एवानुमीयते । ( वृ० प० २७९) २०. बीए एवं नवरं देवो एनको पकरेति नो असुरो नो नागो । २३. एवं हेट्ठिल्लासु सव्वासु देवो पकरेति । ( श० ६ । १४४ ) चतुर्थ्यादीनामधोऽसुर कुमारनागकुमारयो र्गमनं नास्तीत्यनुमीयते । ( वृ० प० २०९) २४ अस्थि णं भते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं आहे गेहा इ वा ? गेहावणा इ वा ? णो इट्ठे समट्ठे । २५. अत्थि णं भंते ! ओराला बलाह्या ? हंता अस्थि । देवो पकरेति, असुरो वि पकरेति, नो नाओ । २६. सौधर्मेशानयोस्त्वधोऽसुरो गच्छति चमरवत्, न नाग (००२७१) (०६१४६) कुमारः अशक्तत्वात् । २७. एवं भणिदवि । ( श० ६।१४५ ) २८. अस्थि काए ? भंते! बादरे पुढ़वीकाए ? बादरे अगणि पोट्ठे समट्ठे, नम्रत्व विग्गगतिसमावन्नएणं । ( श० ६ । १४७ ) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २६. 'कल्प विषे रत्नादि, तेह तणी पूछा नथी । प्रश्न कल्प तल वादि, तल पिण अंतर रहित - ॥ ३०. आगल पिण इम ताहि, कल्प विषे अप आदि है। तेहनीं पूछा नांहि, तल पूछा सहु स्थानके ॥ ३१. बादर पृथ्वी तेज, सुधर्मा ने ईशाण तल । प्रगट निषेध कहेज, अस्वस्थानपणां थकी। ३२. वनस्पती अप वाय, तास निषेध कियो नथी । उदधि प्रतिष्ठित ताय, अप' वण' नां संभव थकी। ३३. बादर वाऊकाय, सर्व लोक आकाश नां। छिद्र विषे कहिवाय, तिण सं ते पिण संभवै ॥ ३४. मनुष्यक्षेत्र रै मांय, बादर अग्नि स्वभाव छ । तिण कारण कहिवाय, दोन कल्प तले नथी । ३५. बिहुं कल्प तल ताहि, बादर पृथ्वी नों तिहां । स्व स्थानक छै नांहि, तिण सं निषेध तेहनों। ३६. तिण कारण पहिछान, बादर बिहूं निषेधिया । जाता बीजे स्थान, विग्रहगतिया पामिय' ।। (ज० स०) ३७. *छ प्रभ ! चंद्रादिक तिहां, अर्थ समर्थ न थाय । __ छै प्रभ ! ग्रामादिक वली, जिन कहै ए पिण नांय ।। ३७. अत्थि णं भंते ! चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारा रूवा? णो इणठे समठे। (श० ६।१४८) अस्थि णं भंते ! गामा इ वा? जाव सण्णिवेसा इवा? णो इणठे समठे। (श० ६.१४६) ३८. अत्थि णं भंते ! चंदाभा ति वा ? सूराभा तिवा? गोयमा ! णो इणठे समठे । ३६. एवं सणंकुमार-माहिंदेसु, नवरं----देवो एगो पकरेति । एवं बंभलोए वि । ३८. छै प्रभु ! बिहु कल्प नै तलै, चंद्रादिक नी क्रांति ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, तिण में म जाणो भ्रांति ॥ ३६. सनतकुमार माहेंद्र नैं, इमहिज णवरं विशेख । देव एक वर्षादि करै, एवं ब्रह्म पिण देख । ४०,४१. इहातिदेशतो बादराब्बनस्पतीनां सम्भवोऽनुमीयते स च तमस्कायसद्भावतोऽवसेय इति । (वृ० प० २७६) सोरठा ४०. तृतीय तुर्य ब्रह्म सोय, घनवाय आधारे अछ । तसु तल अप किम होय? वनस्पति वलि किम हवै ? ४१. संभव तास जणाय, तमस्काय सद्भाव थी। अतिदेश थकी कहिवाय, वृत्ति विषे ए न्याय छ । ४२. *ब्रह्म ऊपर जे कल्प छै, तेहन तल पिण एम । बारमां कल्प लगै करै, देव वर्षादिक तेम ।। ४३. बादर अप अग्नि वणस्सइ, पूछेवो त्रिहं जाण । __ अण्णं तं चेव पाठ छ, अन्य तिमज पहिछाण ॥ *लय : धीज कर सीता सती रे लाल १. अप्काय २. वनस्पतिकाय । ४२, एवं बंभलोगस्स उरि सव्वेहिं देवो पकरेति । 'सव्वेहि' ति अच्युतं यावदित्यर्थः । (वृ० प० २७६) ४३. पुच्छियव्वो य बादरे आउकाए, बादरे अगणिकाए, बादरे वणस्सइकाए। अण्णं तं चेव । (श० ६।१५०) श०६, उ०८, ढा० १०८ १८५ Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ए त्रिहुं ॥ तिको । नहीं ॥ ४४. अण्णं तं चैव वाय, अन्य तिमज ए वच थकी । अप अग्नि वणस्सइकाय, निषेध ए तीनू तणो ॥ ४५. छठो सातमो जोय, वलि सहसारज आठमों अप वायू अवलोय, उभय प्रतिष्ठित ४६. ए त्रिहुं तल घनवाय, अंतर-रहित अछै तिण सू तमु तल ताय अपने वनस्पती ४७. नवमां थी अवधार, अष्टादश सुरलोक जे । आकाश तणें आधार, तसु तल नहिं अप वणस्सइ ।। ग्रैवेयक आदि ईसिपमारा अंत लग । पूर्वे कह्या गृहादि एहनें पिण कहिवा तिमज ॥ ४९. वहां वाचना मांहि न का तो पिण ते निषेध करिया ताहि, एह अर्थ से वृत्ति ४५. तथा 1 ५०. हिव पृथ्वी अप आदि जे जिहां भावी ते कहिया अर्थ सुसाधि, संग्रहणी गावा ५१. तमस्काय कहिवाय, प्रकरण पूर्व कह्या अनंतरोक्तज ताय, सोधर्मादिक सह । में ॥ प्रतं । हि ॥ ५२. अग्नी पृथ्वी काय, बादर नी पूछा कियां । जिन कहै ए बिहुं नांय, णण्णत्थ विग्रहवंत हुवै ॥ १५६ भगवती-जोड़ विषे । पंचके ॥ नैं ५३. अग्निकाय पहिछाण, रत्नप्रभादिक पूछा प्रमुखज जाण, जिन कहे अर्थ समर्थ ५४. जे बादर अपकाय, सेक वनस्पती पूछा की ताय, उत्तर एम जणाय ५५. ब्रह्म ऊपरै तेह, कल्प अछे तेहनें तीनू ए न कहेह, इण गाथा ने न्याय कर ॥ बादर अष्काय, तेऊ वनस्पती कृष्णराजि रं मांय ए तीनू कहिये तले । ५६. तथा तले । नहीं ॥ तणी । छै ॥ वती । नहीं । ४४. 'अन्नं तं चेव' त्ति वचनान्निषेधश्च । ( वृ० प० २०९) ४८, ४९. तथा ग्रैवेयकादीषत्प्राग्भारान्तेषु पूर्वोक्तं सर्वं गेहादिकमधिकृतवाचनायामनुक्तमपि निषेधतोयेय(४० १० २०९) मिति । २०. अथ पृथिव्यादयो मे ध्येय याऽऽह संग्रहाच ( वृ० प० २७६ ) ५१. तमुकाए कप्पपणए, 'तमुकाए'ति तमस्कायप्रकरणे प्रागुक्ते 'कप्पपणए त्ति अनन्तरोक्तसौधर्मादिदेवलोकपञ्चके । ( वृ० प० २७६) ५२. अगणी पुढवी य अस्थि गं भंते! बादरे पुढविकाए बादरे अि काए ? नो इणट्ठे समट्ठे, नण्णत्थविग्गगतिसमावन्नएणं । ( वृ० प० २७९ ) ५३. अणि पुवी | ५४५६. ते वसाई कप्णुवश्मिकन्हाई ॥ ( संगहणी - गाहा ६।१५० ) अत्थि णं भंते ! बादरे आउकाए बायरे तेउक्काए बायरे वणस्सइकाए ? णो इट्ठे समट्ठे । इत्यादिनाऽभिलापेन, केषु ? इत्याह--'कष्णुपरिम' त्ति कल्पपञ्चकोपरितनकल्पसूत्रेषु तथा फहराई ति प्रायुस्ते कृष्ण राजीसूत्र इति । ( वृ० प० २७६ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प अछै तेहनें वनस्पती वर्जी ५७. ब्रह्म इहां ॥ उपरला जाण, अप तेऊ पहिचान, ५८. संतक प्रमुखज तीन, तो कि न्याय सुचीन, ५६. त्रिहुं कल्प तल वाय, अप वायू आधार छै । वर्जी अप में वणस्स || अंतर-रहित अछे तिहा ६०. नवम कल्प थी सोय, सह तसु तल अप इण न्याय, अप वणस्सई निषेध | आकाश प्रतिष्ठिता । तणो निषेध है ॥ आयु-बंध तेज आयु बंध नो प्रवर ॥ । ते माटे अवलोय, ए त्रिहुं ६१. कह्या बादर अप आदि, ते माटे हिव साधि, सूत्र ६२. *कतिविध प्रभु ! आयु-बंध कह्यो ? जिन भाखे आयु-बंध । षट प्रकारे परूपियो, कहिये तेहनी संध | यतनी ६३. जाति नाम निहत्त सुसंच, जाति एकेंद्रियादिक पंच | तेहिज नाम कहितां अवलोय, नाम कर्म नीं प्रकृति जोय ॥ ६४. तर उत्तर प्रकृति विशेष अथवा नाम कहितो वृत्ति लेख | जे जीव तणां परिणाम, तिको जाति नाम छे ताम ॥ ६५. तेणे संघाते निधत्त निषेक, कर्म पुद्गल नों जे पेख । समय - समय पहिछाण, पहिचान, अनुभवनार्थे रचना जाण ॥ ६६. एणे रचनाई थाप्यो जे आयु ते जाति नाम निहतावु । 1 ए प्रथम आयु-बंध कहियै, हिवै बीजा नो लेखो लहियै ॥ ६७. गति नाम निहत्त आयु धार, गति नारकादिक जे च्यार । तेहिज नाम कर्म नीं देख कही उत्तर प्रकृति विशेख | ६५. तेणे संचाते निधत कहाई, अनुभवन कर्म रचनाई । एणे प्रकारे थाप्यो जे आयु, ते गतिनाम निहत्तायु ॥ ६९. स्थिति नाम निहतायु जोय स्थिति ते रहिवूं होय । किणहि वंछित भव है मांय जीव कर्मकर्ता कहिवाय ॥ ७० तथा आयु कर्म कर जेह रहियूँ ते स्थिति कहेह । तेहिज नाम परिणाम ते धर्म, तिको स्थिति नाम ए ममं ।। ७१. ति करिके विशिष्ट निचत, अनुभवन नी रचना उपत । जेह आयु कर्म दल कहा, ते स्विविनामनिहता ॥ ७२. अथवा स्थिति रूप जे जाण, नाम कहितां कर्म दहिचाण । ते स्थिति नाम छे ताम, नाम शब्दे कर्म सहु ठाम । ७३. तेणे साथ निषेक, भोगविवा नी रचना संपेख । स्थितिनामनिहता ॥ रीत थाप्यो जे आयु ते 3 तले । * लय धीज करें सीता सती रे लाल ७६०. ब्रह्मलोको परितनस्थानानामी योऽभ्यन स्पतिनिषेधः स यान्यब्वायुप्रतिष्ठितानि तेषामध आनन्तर्येण वापोरेव भावादाकामप्रतिष्ठितानामाका शस्यैव भावादवगन्तव्यः अग्नेस्त्वस्वस्थानादिति । ( वृ० प० २७९ ) ६१. अनन्तरं वादकायादयोऽभिहितास्ते नायुबन्धे सति भवन्तीत्यायुर्वन्धसूत्रम् — ( वृ० प० २७६ ) ६२. कतिवि ते १ गोयमा ! छवि आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा - ६३. जातिनामनिहत्ताउए, जातिः -- एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा सैव नामेति-नामकर्मणः । ( वृ० प० २८० ) ६४-६६. उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्तं --- निषिक्तं यदातजातिनामनिधतायु निषेकश्च कर्मलानां प्रतिसमयमनुभवनार्थं रच( वृ० १० २८०) नेति । ६७.६८. मतिनामनिहत्ताउए, गतिः - नरकादिका चतुर्धा शेषं तथैव । ( वृ० प० २८० ) ६२.७०. ठितिनामनिहत्ताउए, नाम । स्थितिरिति यत्स्थातव्यं क्वचिद् विवक्षितभवे जीवेनायुः कर्मणा वा सेव नाम परिणामो धर्मः स्थिति( वृ० प० २८० ) ७१. तेन विशिष्ट चित्तं यदायुर्दनिकरूपं तत् स्थितिनामनिचतायुः । ( वृ० प० २८० ) ७२,७३. नामशब्द: सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नाम - नामक स्थितिनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तस्थितिनामनिषत्ताति । ( वृ० १० २८०) श०६, उ०८, ढा० १०८ १८७ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. अवगाहणा नाम ते ताय, शरीर औदारिकादि कहाय । तेहन नाम औदारिक आद, शरीर नाम कर्म ते लाध ।। ७५. तेह अवगाहणा नाम जाण, अथवा अवगाहणा रूप पिछाण । नाम कहितां परिणाम विचार, तेह अवगाहणा नाम धार ।। ७६. तेणे संघाते निधत्त जे आयु, ते अवगाहणानामनिधत्तायु । ए चउथो आयु-बंध जोय, हिवै पांचमो कहिये सोय।। ७७. प्रदेशनामनिहत्तायु, प्रदेश आयु द्रव्य कहायु । नाम तथाविध परिणत्ति, तेह प्रदेश नाम उप्पत्ति ।। ७४,७५. ओगाहणानामनिहत्ताउए, अवगाहते यस्यां जीव: साऽवगाहना-शरीरं औदारिकादि तस्या नाम-औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम अवगाहनारुपो वा नाम-परिणामोऽवगाहनानाम । (वृ० प० २८०) ७६. तेन सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः । (वृ० प०२८०) ७७. पएसनामनिहत्ताउए, प्रदेशानां-आयुः कर्मद्रव्याणां नाम-तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम । (वृ० प० २८०) ७८. प्रदेशरूपं वा नाम-कर्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम तेन सह निधत्तमायुस्तत्प्रदेशनामनिधत्तायुरिति । (वृ० प० २८०) ७६. अणुभागनामनिहत्ताउए । अनुभाग-आयुर्द्रव्याणामेव विपाकस्तल्लक्षण एव नाम-परिणामोऽनुभागनाम । (वृ०प०२८०) ५०. अनुभागरूपं वा नामकर्म अनुभागनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति । (वृ० प० २८०) ७८. तथा प्रदेशरूपज ताय, नाम कहितां कर्म कहिवाय । तेणे साथ निधत्त जे आयु, ते प्रदेशनामनिधत्तायु ॥ ७६. अनभागनामनिहत्तायु, अनभाग विपाक जे आयु । तेहिज नाम परिणाम पिछाण, ते अनुभाग नाम जाण ।। ८०. तथा अनुभाग रूप जाण, नाम कहितां कर्म पहिछाण । तेणे साथ निधत्त जे आयु, ते अनुभागनामनिहत्तायु ।। सोरठा ८१. इहां कोई प्रश्न आख्यात, जात्यादि नाम कर्म करि ।। . कह्या आयु संघात, किण अर्थे ए वारता? ८२. तसू उत्तर कहिवाय, प्रधानपणों आय तणो । देखाड़िवा नै ताय, आयु सहित जात्यादिकः ।। ८३. नरकादिक नों जाण, आयु उदय पामे छते । जात्यादिक पहिछाण, नाम कर्म नों उदय छै ।। ८४. नरकादि आय लाधि, प्रथम समय जे वेदतो । पंचेंद्रिय जात्यादि, तसु सहचारी उदय छ । ८१. अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्मणाऽऽयुविशेष्यते ? (वृ० प० २८०) ८२. उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम् । (वृ०प० २८०) ८३. यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति । (वृ०प० २८०) ८४. नारकायुः प्रथमसमयसंवेदन एव नारका उच्यन्ते तत् सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति । (वृ० प० २८०) ८५. दंडओ जाव वेमाणियाणं । (श० ६।१५१) ८५. *इमहिज नारक नैं कह्यो, छवविध आय बंध । ___ यावत वैमानिक लगै, ए दंडक सर्व संबंध ॥ ८६. अथ कर्मविशेषाधिकारात्तविशेषितानां जीवादि पदानां द्वादश दण्डकानाह- (वृ० प० २८०) ५६. कर्म विशेष कह्यो हिवै, कर्म-विशेषित जीव । ___ नरकादिक जे पद तणां, दंडक बार कहीव॥ सोरठा ८७. हे प्रभ ! स्यं बह जीव, जातिनाम निधत्ता अछै ? एहनों अर्थ अतीव, चित्त लगाई सांभलो॥ ८७. जीवा णं भंते ! कि जातिनामनिहत्ता ? * लय:धीज कर सीता सती रे लाल १८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेंद्री आदि निघत निषेक लाधि, ८८. जाति नाम अर्थ कहियै करम । अथवा बंध बंध विशिष्ट कृत ॥ ८६. गतिनामनिधत्ता जाण, जाव अनुभाग नाम निधत्ता ? जिन कहै छ पिछाण, दंडक जाव बेमाणिया | १०. जातिनाम निहताज्या हे प्रभु! छै बहु जीव । जाव अनुभागनाम निहत्ताज्या ? हिव जिन उत्तर कहीव ॥ ६१. छे जातिनाम निघताउया, जाय छठो पिण जोय । अनुभागनाम निहत्ताउया दंडक चोवीसे होय ॥ सोरठा १२. जाति नाम संघात निघत तेह भणी आख्यात, आबू जिण कियो । जातिनाम निहत्ताउया ॥ ९३. इम गति स्थिति अन्य आदि, इहविध कहिया बोल पट । वलि कहिवा नरकादि षट षट बोल सहू तणां ।। ९४. इण प्रकार करि होय, द्वादश दंडक एहनां । आख्या ए धुर दोय, संख्या पूरण वलि कहै । १५. दंडक प्रथम विद्वान, जातिनामनिहत्ता कह्यो । दूजो इहविध जाण, जातिनामनिहताउया ? २६. हे प्रभु! स्यूं बहु जीव जातिनामनिउता अछे ? दंडक तृतीय तृतीय कहीव, अर्थ सुणो हिव एहनों ॥ १७. जातिनाम कर्म जेण, कर्म जेण, नियुक्त तथा वेदवा तेण, पहुंचाव्यो निकाचित बांधियो । इम अन्य पिण ॥ १८. हे प्रभु! स्यूं बहु जीव, जातिनामनिउत्ताउया ? दंडक तुर्य कहीव, अर्थ गुणो हिव एहनों ॥ ६६. जाति नाम कर्म साथ, निकाचित आयू कियो । अथवा जेह विख्यात, वेदण मांडयो अन्य इम ॥ १००. पंचम दंडक जाति गोत्र जे निधता । इम गति गोत्र निधत्त इत्यादिक तसु अर्थ हिव ॥ १०१. जाति एकेंद्री आदि, तसु योग्य नीच गोत्रादि जे । ते निधत्त संवादि, संवादि जाति गोत्र जे निधत्ता ॥ वत्त, J * लय : धोज करें सीता सती रे लाल ८. गतिनामनिहता ? जान (सं० पा०) अणुभागनाम निहता ? गोयमा ! जातिनामनिहत्ता वि जाव अणुभागनामनिहत्ता वि । दंडओ जाव वेमाणियाणं । ( ० ६।१५२) १०. जीवा भंते! कि जातिनामनिहाया ? जाव अणुभागना मनिहत्ताउया ? ६१. गोमा ! जातिनामनिहत्ताउया वि जाव अणुभाग नामनिहतापावि दंडओ जाव वेमाणियाणं । (श० ६ । १५३) १२. जातिनाम्ना सह निघत्तमायुर्यैस्ते जातिनामनिधत्तायुषः, ( ० प० २०१) ९३. एवमन्यान्यपि पदानि, अयमन्यो दण्डकः । ( वृ० प० २८१ ) १४. एवं एए दुमाला भागिदा अमुना प्रकारेण द्वादश दण्डका भवन्ति, तत्र द्वावाद्य दर्शितावपि संख्यापूरणार्थं पुनर्दर्शयति । (४० १० २०१) ६५. जीवा णं भंते! कि जातिनामनिहता ? जातिनाम निहताया ? ६६. जीवा णं भंते ! कि जातिनामनिउत्ता ? ९७. तत्र जातिनाम नियुक्तं निकाचितं वेदने वा नियुक्तं ६८. जातिनामनिउत्ताउया ? नितरां युक्तं संबद्ध स्ते जातिनामनियुक्ताः ( वृ० १० २८१ ) ६६. तत्र जातिनाम्ना सह नियुक्तं - निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुर्यैस्ते तथा । ( वृ० प० २८१ ) १००. जीवा णं भंते ! कि जातिगोयनिहत्ता ? १०१ तत्र जाते एकेन्द्रियादिकाया यदुचितं गोत्रं-नीचंगौत्रादि तज्जातिगोत्रं तनिधत्तं ते जातियोत्रनिघत्ता: ( वृ० प० २८१ ) श० ६, ४०८, ढाल १०५ १५६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. जातिगोयनिहत्ताउया ? १०३. तत्र जातिगोत्रेण सह निधत्तमायुयस्ते जातिगोत्रनिधत्तायुषः । (वृ०प० २८१) १०४. जीवा णं भते ! कि जातिगोयनिउत्ता? १०५. तत्र जातिगोत्रं नियुक्तं यस्ते तथा । (वृ० प० २८१) १०६. जातिगोयनिउत्ताउया ? १०७. तत्र जातिगोत्रेण सह नियुक्तमायुयस्ते तथा एवमन्यान्यपि। (वृ० प० ८२१) १०८. जीवा णं भंते ! कि जातिनामगोयनिहत्ता ? १०२. छठो दंडक एह, जातिगोतनिधत्ताउया । इत्यादिक षट जेह, तास अर्थ निसुणो हिवै ॥ १०३. जाति एकेंद्री आद, तसु योग्य गोत्र करिने सहित । निधत्त आय बाध, जिण कीधो इम अन्य पिण ।। १०४. सप्तम दंडक जान, जाति गोत्र जे निउत्ता । गतिगोत्रनिउत्ता मान, इत्यादिक तसू अर्थ हिव ।। १०५. जाति एकेंद्री आदि, तसू योग्य निकाच्यो गोत्र जिण । ते जातिगोत्रनि उत्तादि, निउत्ता तेह निकाचित । १०६. अष्टम दंडक एह, जातिगोत्रनिउत्ताउया । इत्यादिक षट जेह, अर्थ तास निसुणो हिवै ॥ १०७. जाति एकेंद्री आद, गोत्र संघाते जीव जिण । आयु निकाच्यो बाध, इम बीजा पिण जाणवा ।। १०८. नवमों दंडक भाल, जातिनामगोत्रनिधता। इम गति प्रमुख निहाल, अर्थ तास निसुणो हिवै।। १०६. जाति जोग्य जे नाम, अनैं गोत्र करि सहित तिण । जे निधत्त कियो ताम, ते जातिनामगोत्रनिधत्ता ।। ११०. दशमों दंडक देख, जातिनामगोत्रनिधत्ताउया । इत्यादिक षट पेख, हिवै अर्थ एहनों कहूं ॥ १११. जाति योग्य. जे नाम, अनै गोत्र करि सहित तिण । जे निधत्त आयु ताम, ते जातिनामगोत्रनिहत्ताउया ।। ११२. दंडक ग्यारम एह, जातिनामगोत्रनिउत्ता। गति प्रमुख इम लेह, तास अर्थ कहियै हिवै ।। ११३. जाति योग्य जे नाम, अनै गोत्र करि सहित तिण । कियो निकाचित ताम, ते जातिनामगोत्रनिउत्ता ।। ११४. जो द्वादशम कहीव, तेह तणो विस्तार हिव । हे प्रभु ! स्यू बहु जीव, जातिनामगोत्रनिउत्ताउया ? ११५. जाव छठो अनभागनामगोत्रनिउत्ताउया? उत्तर प्रश्न जिम माग, दंडक जाव वेमाणिया । १०६. तत्र जातिनाम गोत्रं च निधत्तं यस्ते तथा । __ (वृ०प० २८१) ११०. जातिनामगोयनिहत्ताउया। १११. तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निधत्तमायुयस्ते तथा। (वृ०प० २८१) ११२. जीवा णं भंते ! कि जातिनामगोयनिउत्ता ? ११३. तत्र जातिनाम गोत्र च नियुक्तं यस्ते तथा । (वृ० ५० २८१) ११४. जातिनामगोयनिउत्ताउया ? ११५ जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउया ? गोयमा ! जातिनामगोयनिउत्ताउया वि जाब अणुभागनामगोयनिउत्ताउया वि । दंडओ जाव वेमाणियाणं। (श० ६।१५४) ११६. तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह नियुक्तमायुयैस्ते तथा। (वृ०प० २८१) ११६. जाति योग्य जे नाम, अनै गोत्र करि सहित तिण । आयु निकाच्यो ताम, ते जातिनामगोत्रनिउत्ताउया । ११७. दंडक बारमों जेह, धुर पद नों ए अर्थ छै । इम गति प्रमुख सुलेह, कहिवा सर्व विचार नै । ११८. ए जात्यादिक जाण, नाम गोत्र सह आयु फुन । भव उपग्रहे पिछाण, प्रधानपणुं कहिवा भणी ॥ ११८. इह च जात्यादिनामगोत्रयोरायुषश्च भवोपग्राहे प्राधान्यख्यापनार्थ यथायोगं जीवा विशेषिताः । (वृ० प० २८१) ११९. वाचनान्तरे चाद्या एवाष्टो दण्डका दृश्यन्त इति । (वृ०प०२८१) ११६. अन्य वाचना मांय, आदिईज जे दंडक आठ दिखाय, वृत्तिकार इहविध आखिया । कह्यो । १६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. पूर्वे ए पहिछाण, जीव स्व धर्म थकी कह्या। लवणोदधि हिव जाण, कहियै ते स्व धर्म थी। १२१. *हे प्रभु! लवणसमुद्र ते, स्यूउस्सितोदए होय ? ऊर्ध्व उदक जल-वृद्धि छै, के सम जल छै सोय ? १२०. पूर्वं जीवाः स्वधर्मतः प्ररूपिताः; अथ लवणसमुद्रं स्व धर्मत एव प्ररूपयन्नाह- (वृ०प० २८१) १२१. लवणे णं भंते ! समुद्दे कि उस्सिओदए ? पत्थडो दए? १२२. खभिय जल वेल वस थकी, मोटा कलस पाताल । तेह विषे वाय थकी, जल क्षोभ पामै असराल? १२३. अखभिय जल क्षोभ नां लहै ? ए चिहं प्रश्न प्रसिद्ध । जिन भाखै लवणोदधे, ऊर्ध्व उदक नी वृद्ध । १२४. पत्थडोदए सम जल नहीं, खभिय जल ए होय । अक्षोभित जल पिण नहीं, उत्तर ए अवलोय ॥ १२५. प्रारंभी ए पाठ थी, जिम जीवाभिगम मझार । यावत तिण अर्थे करी, द्वीप समुद्र अढी द्वीप बार ।। सोरठा - १२६. जाव शब्द में एह, जिम लवणोदधि प्रश्न चिहं । तिम चिहुं प्रश्न पूछेह, अढी द्वीप बाहिर उदधि । उच्छितोदक: ऊद्धर्ववृद्धिगत जल:,....."पत्थडोदए' त्ति प्रस्तृतोदक समजल इत्यर्थः । (वृ० प० २८१,२८२) १२२. खुभियजले ? वेलावशात्, बेला च महापातालकलशगतवायुक्षोभादिति । (वृ०प० २८२) १२३. अखुभियजले ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उस्सिओदए । १२४. नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अभियजले । (श० ६।१५५) १२५. इतः सूत्रादारब्धं तद्यथा जीवाभिगमे (१०३७८३, ७८४) तथाऽध्येतव्यम्। (वृ०प० २८२) १२६. जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे उस्सिओदए, नो पत्थ डोदए. खुभियजले, नो अखुभियनले, तहा णं बाहिरगा समुद्दा कि उस्सिओदगा? पत्थडोदगा? खुभियजला ? अखुभियजला? १२७. गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा, पत्थडोदगा; १२८. नो खुभियजला, अखुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा, १२७. जिन कहै उदधि सुजोय, अढी द्वीप रे बारलै । उस्सितोदगा न होय, पत्थडोदगाज समजला ।। १२८. क्षोभित-जला म जाण, छै ते अक्षोभित-जला । पूर्णा पूर्ण-प्रमाण, जल भर या ऊणां नहीं ॥ १२६. वोलट्टमाणा जान, अति भरिदै जल नीकलै । ___ वोसट्टमाणा मान, प्रचुरपणे वर्धमान जल ॥ १३०. समो भर्यो घट जेह, तेहनी, परि तिष्ठ अछ । वलि गोतम पूछेह, चित्त लगाई सांभलो ।। १३१. लवणसमुद्रे भंत ! बहु महाबादल स्नेह हुवै ।। वलि वर्षा वरसंत ? जिन भाखै हंता अत्थि ।। १२६. वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा । १३०. समभरघडत्ताए चिट्ठति । (श० ६।१५६) १३२. जिम लवणोदधि मेह, तिम बाहिरलै उदधि ह। अर्थ समर्थ नहिं एह ? गोतम कहै किण अर्थ प्रभु ! ? १३३. समुद्र जेह पिछाण, अढी द्वीप रै बारला । पूर्णा पूर्ण-प्रमाण, यावत घट जिम जलभृता॥ * लय : धीज कर सीता सती रे लाल १३१. अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बला हया संसेयंति ? संमुच्छति ? वासं वासंति ? हंता अस्थि । (श० ६.१५७) १३२,१३३. जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाया"तहा णं बाहिरगेसु वि समुद्देसु वासं वासंनि ? णो इणठे समठे। (श० ६।१५८) से केणठेणं भंते! एवं बुच्चइ-बाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा जाव समभरघडताए चिट्ठति ? श० ६, उ०८, ढा० १०८ १६१ Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४. गोयम! बारले (समुद्र) सोय, उदक-जोणिया जीव बहु । पुद्गल पिण अवलोय, उदकपणे उपजै अछ । १३४. गोयमा ! बाहिरगेसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्क मंति, चयंति, उवचयंति । १३५. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-~-बाहिरया णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्ट माणा । १३६. वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, १३५. तिण अर्थे इम जाण, द्वीप समुद्र जे बारला । पूर्णा पूर्ण-प्रमाण, वोलट्टमाणा पिण कह्या ।। १३६ वोसट्टमाणा पेख, प्रचरपणे वर्धमान जल । सम जल मृत घट देख, तेहनी परि तिष्ठे तिके ॥ १३७ *संठाण थी इकविध कह्या, रथ चक्रवाल आकार । विधान तेह स्वरूप नों, करिवू जसु अवधार' ॥ १३८. जावत तिरछा लोक में, असंख द्वीपोदधि हंत । स्वयंभूरमण छेहड़े कह्यो, अहो श्रमण आउखावंत ! १३६. हे प्रभु! द्वीप समुद्र नां, किता परूप्या नाम ? जिन कहै शुभ नाम लोक में, स्वस्तिकादिक अभिराम ॥ १४०. रूप अछै शुभ जेतला, शुक्ल पीतादिक अथवा जे रूपवंत छ, देवादिक १४१. गंध अछै सुभ जेतला, सुगंध ना बहु अथवा कपूरादिक कह्या, ए गंधवंत जेह । वर्णेह ।। भेद । संवेद ।। १३७. संठाणओ एगविहिविहाणा, एकेन 'विधिना' प्रकारेण चक्रवाललक्षणेन विधानंस्वरूपस्य करणं येषां ते एकविधिविधानाः । (वृ०प०२८२) १३८. जाव अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो! (श० ६।१५६) १३६. दीवसमुद्दा णं भंते ! केवतिया नामधेज्जेहि पण्णत्ता ? गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, स्वस्तिकश्रीवत्सादीनि (वृ० प० २८२) १४०. सुभा रूवा, शुक्लपीतादीनि देवादीनि वा। (वृ०५०२८२) १४१. सुभा गंधा, सुरभिगन्धभेदा: गन्धवन्तो वा कर्पूरादयः । (वृ० प० २८२) १४२. सुभा रसा, मधुरादयः रसवन्तो वा शर्करादयः । (वृ०प० २८२) १४३. सुभा फासा, मृदुप्रभृतयः स्पर्शवन्तो वा नवनीतादयः । (वृ०प० २८२) १४४. एवतिया णं दीवसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता । एवं नेयव्वा सुभा नामा उद्धारो, परिणामो, सव्व जीवाणं (उप्पाओ) (श० ६।१६०) . १४२. रस अछै शुभ जेतला, मधुरादिक रस स्वाद । अथवा रसवंत जाणवा, साकर प्रमुख अहलाद ।। १४३. फर्श अछै शुभ जेतला, मृदु प्रमुख सुविशाल । अथवा फर्शवंत जाणवा, माखण प्रमुख निहाल । १४४. नाम इता द्वीप समुद्र नां, जाणवा इम शुभ नाम । उद्धार में परिणाम ते, सहु जीव ऊपनां ताम ।। * लय : धीज कर सीता सती रे लाल १. प्रस्तुत ढाल की १३७ वीं गाथा जिस पाठ के आधार पर है, अंगसुत्ताणि भाग २ श०६।१५६ में उसके आगे यह पाठ है . 'वित्थारओ अणेगविहिविहाणा दुगुणा दुगुणप्पमाणा' संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में यह पाठ नहीं था, इसलिए इस पाठ की जोड़ नहीं है। १९२ भगवती-जोर Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १४५. उद्धार अर्थ कहेह, द्वीप समद्र तणां प्रभ ? उद्धार समय करेह, किता कह्या ? तब जिन कहै ।। १४६. जिता अढाई जान, उद्धार सागरोपम तणां । उद्धार समया मान, द्वीप समुद्रज एतला ॥ पन्नत्ता? १४५. दीवसमुद्दा णं भंते ! केवइया उद्धारसमएणं (वृ० प० २८२) १४६. गोयमा ! जावइया अड्डाइज्जाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पन्नत्ता। (वृ० प० २६२) १४७. येनकेन समयेन एकैकं वालाग्रमुद्धियतेऽसावुद्धारसमयः । (वृ० प० २८२) १४७. समय-समय इक एक, खंड काढे पल्य मांहि थी। खाली थाय विशेख, उद्धार पल्य कही तसु ॥ १४८. पल्य दस कोड़ाकोड़, इक उद्धार सागर हुवै । तेह अढाई जोड़, उद्धार सागर नां समय ।। १४६. ते समय प्रमाण सुजोड़, द्वीप समद्रज एतला । पल्य पचीस कोड़ाकोड़, समय-समय खंड काढियै ।। १५०. परिणाम ते इम ताम, स्यू प्रभु! द्वीप समुद्र ते । पृथ्वी अप परिणाम, जीव पोग्गल परिणाम छ ? १५१. तब भाखै जिन स्वाम, पृथ्वी अप परिणाम है। जीव तणू परिणाम, पुद्गल नो परिणाम पिण ।। १५२. सव्व सहु जीवाणं एम, द्वीप समुद्र विषे प्राणादि तेम, उपना काय प्रभु ! छहुंपणे ? १५०. दीवसमुद्दाणं भंते ! किं पुढविपरिणामा आउपरि. णामा जीवपरिणामा पोग्गलपरिणामा ? (वृ० प० २८२) १५१. गोयमा ! पुढविपरिणामावि आउपरिणामावि जीवपरिणामावि पोग्गलपरिणामावीत्यादि । (वृ० प० २८२) १५२. दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वेपाणा४ पुढ विकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? (वृ० प० २८२) १५३. हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो त्ति । (वृ० प० २८२) १५४. दीवसमुद्दा णं भंते ! कि पुढविपरिणामा........ । (जीवा०प० ३।६७४, ६७५) १५५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (६।१६१) १५३. हंता कहै भगवंत, असकृत-वार अनेक जे । अथवा वार अनंत, सगला जीव समपना ।। १५४. जीवाभिगम जोय, वर्णन द्वीप समद्र नों। जिहां संपूर्ण होय, तिहां थकी ए आखियो । १५५. *सेवं भंते! अंक अड़सठ तणो, एकसौ आठमीं ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल । षष्ठशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥६।८।। ढाल : १०६ दहा १. जीव पृथव्यादिकपणे, पूर्व काल सुविशेष । द्वीपादिके समुप्पना, आख्यो अष्टमदेश ।। २. तेह ऊपनां नै प्रथम, कर्म तणो बंध होय । नवम उदेशे आदि ए, कर्म-बंध अवलोय ॥ * लय : धीज कर सीता सती रे लाल १. द्वीपादिषु जीवाः पृथिव्यादित्वेनोत्पन्नपूर्वा इत्यष्टमोद्देशके उक्तं, (वृ०प०२८२) २. नवमे तूत्पादस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वादसावेव प्ररूप्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् (वृ० प० २८२) श०६, उ०८,६, ढा० १०८, १०६ १६३ Jain Education Intemational ucation international Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ज्ञानावरणी हे प्रभ! कर्म बांधतो जीव । कर्म-प्रकृति बांधे किती ? उत्तर वीर कहीव ॥ ४. सात कर्म बांधै तथा, अठविध बंध पिछाण । अथवा बांधै कर्म षट, ए दशमें गुणठाण ।। ३. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कतिकम्मप्पगडीओ बंधति ? ४. गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, छविहबंधए वा। 'छव्विहबंधए' त्ति सूक्ष्मसम्परायावस्थायां मोहायु षोरबन्धकत्वात् । (वृ० प० २८२, २८३) ५. बंधुद्देसो पण्णवणाए (पद २४।२-८) नेयम्वो। (श० ६।१६२) ५. पन्नवणा पद चोवीस में, बंध उद्देशे न्हाल । इह स्थानक सहु जाणवा, वर जिन वयण विशाल । ___ *जय-जय ज्ञान जिनेंद्र नों॥ (ध्र पदं) ६. सुर प्रभ! महाऋद्धि नो धणी, यावत महा अनुभाग! जिणंद! मोरा हो । बाहिरला पुद्गल भणी, अणलीधे ए भाग । जिणंद! मोरा हो । ७. एक वर्ण कालादिक कह्यो, इक रूप ते आकार । विविवा समर्थ अछ ? अर्थ समर्थ न लिगार ॥ ६. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता ८. सुर प्रभु ! पुद्गल बारला, लेई में समर्थ होय? जिन भाखै हता प्रभू, समर्थ ते अवलोय ।। ७. पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० ६॥ १६३) 'एगवन्न' ति कालाद्येकवर्णम्, 'एकरूपम्' एकविधाकारं स्वशरीरादि, (वृ० प० २८३) ८. देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउवित्तए ? हंता पभू । (श०६।१६४) ६. से णं भंते ! कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति ? १०. गोयमा ? नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति, तत्थगए पोग्गले परिया इत्ता विउव्वति, नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति । ६. ते प्रभ! स्यूं मनुष्य क्षेत्र नां, पुद्गल ले विकुक्ति । के सुर स्थान तणां लिये, के अन्य स्थान नां लित ? १०. जिन भाखै मनष्य क्षेत्र नां, पुद्गल ले विकुर्वं नांय । विकूर्व स्व स्थान नां ग्रही, अन्य स्थानक नां न ग्रहाय ।। सोरठा ११. बहलपणे जे देव, वत्तै छै सुर स्थानके । तिण सूं एम कहेव, पुद्गल ग्रहै सुर स्थान नां ॥ १२. उत्तरवैक्रियरूप, बहुलपण ते स्थान करि । अन्यत्र जाय तद्रूप, ते माटे इह विध कह्य ॥ ११. देवः किल प्रायो देवस्थान एव वर्तत इति तत्र गतान्- देवलोकादिगतान्, (वृ०प० २८३) १२. यतः कृतोत्तरवैक्रियरूप एव प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति नो इहगतान पुद्गलान् पर्यादाय इत्याधुक्तमिति । (वृ०प० २८३) १३. एवं एएणं गमेणं जाव एगवणं एगरूवं, एगवण्णं अणेगरूवं, १४. अणेगवण्णं एगरूवं, अणेगवणं अणेगरूवं-चउभंगो। (श० ६। १६५) १३. 'इम एणे आलावे करी, जाव एक वर्ण एक रूप । इक वर्ण रूप अनेक ने, करै विकुर्वण चंप ॥ १४. अनेक वर्ण रूप इक वलि, अनेक वर्ण नै रूप अनेक । बे-बे आलावा च्यारू तणां, ए कही चउभंगी विशेख ।। * लय : राधा प्यारी है, लै नी झखोलो ठंडा नीर नो १६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. *सुर प्रभु! महाऋद्धि नों धणी, यावत महानुभाग । बाहिरला पुद्गल भणी, अणलीधे ए भाग ।। १६. पुद्गल जे काला प्रतै, नीला पुद्गलपण पेख । परिणामिवा समर्थ अछै, तथा नीला कृष्णपण देख ? १५. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता। १६. पभू कालगं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणा मेत्तए ? नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए? १७. गोयमा ! नो इणठे समठे । परियाइत्ता पभू । (श० ६।१६६) १८. से णं भंते ! कि इहगए पोग्गले (सं० पा) तं चेव नवरं परिणामेति त्ति भाणियव्वं । २०. एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए । एवं कालएणं जाव सुक्किलं । २१. एवं नीलएणं जाव सुक्किलं । एवं लोहिएणं जाव सुक्किलं । १७. जिन भाखै सुण गोयमा! एह अर्थ समर्थ न ताय । बाहिरला पुद्गल ग्रही, सुर समर्थ कहिवाय ॥ १८. ते प्रभ! स्य नरलोक नां, पुद्गल ग्रहि नै ताय । तं चेव णवरं विशेष ए, परिणामिवा कहिवाय ।। सोरठा १६. विकुर्वणा तिहां जाण, परिणामिवा समर्थ इहां । इतलो विशेष माण, शेष पूर्ववत जाणवा ।। २०. *इम काला पुद्गल प्रतै, लालपणे परिणमाय । एवं कृष्ण वर्णे करी, जाव शुक्ल प्रति आय ॥ वा० जिम पूर्वे कह्यो कालो नीलपणे परिणमावै अनैं नीलो कालपण परिणमा ए एक सूत्र१ । तिम कालो लालपण तथा लाल कालापण२ । कालो पीलापण पीलो कालापण३ । कृष्ण शुक्लपण तथा शुक्ल कृष्णपणे ४ । २१. *इम नीले वर्णे करी, जाव शुक्ल प्रति आण॥ इम लोहित वर्णे करी, जाव शुक्ल प्रति आण॥ वा० इम नीलो लालपणे तथा लाल नीलापण परिणमाव५ । नीलो पीलापण तथा पीलो नीलापणै६ । नील शुक्लपण तथा शुक्ल नीलपण७ । इम लाल पीलापण तथा पीलो लालपण८ । लाल शुक्लपण तथा शुक्ल लालपण । इहां जाव शब्द कह्यो ते बीच भांगो तो नथी पिण पोग्गलं ए तीन अक्षर जाव शब्द में संभव एतले पीलो पुद्गल शुक्लपण तथा शुक्ल पीलापण परिणमावै । इम बे-बे नों एक-एक सूत्र कहिवै वर्ण नां १० सूत्र थया, इम आगल पिण जाणवा। २२ *इम पीले वर्णे करी, जाघ शुक्ल अवभास । इम ए परपाटी करी, गंध अनें रस फास ॥ . वा० दुगंध सुगंधपणे परिणमाव तथा सुगंध दुगंधपणे परिणमावै१।। तिक्त कटुकपणे परिणमावै तथा कटुक तिक्तपणे परिणमाव१ । तिक्त कसायलापण तथा कसायलो तिक्तपण२ । तिक्त खाटापण तथा खाटो तिक्तपण३ । तिक्त मीठापण तथा मीटो तिक्तपणे ४ । कटुक कसायलापण तथा कसायलो कटुकपण५ । कटुक खाटापण तथा खाटो कटुकपण६ । कटुक मीठापणे तथा मीठो कटुकपण७ । कसायलो खाटापण तथा खाटो कसायलापण८ । कसायलो मीठापण तथा मीठो कसायलापण । खाटो मीठापण तथा मीठो खाटापण परिणमावै१० ॥ * लय : राधा प्यारी है, लै नी झखोलो ठंडा नीर नो वा०—कालनीललोहितहारिद्रशुक्ललक्षणानां पंचानां वर्णानां दश द्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि । (वृ० प० २८३) २२. एवं हालिद्दएणं जाव सुक्किलं । एवं एयाए परिवा डीए गंध-रस-फासा। इह सुरभिदुरभिलक्षणगन्धद्वयस्यैकमेव, तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसलक्षणानां पञ्चानां रसानां दश द्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि । (वृ० प० २८३) श० ६, उ० ६, ढा० १०६ १९५ Jain Education Intemational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्मल प्रतं मृदुपण प्रतै, कक्खड़प २३. * कक्खड़ मृदु फर्श पुद्गल २४. एवं दो कहिवा अछे गुरु लघु नां शीत उष्ण नां दोय . स्निग्ध लुक्स नां बे यतनी २५. कक्व निहाल | भावै ॥ दुपणे नाल मृदु वरधरापणे गुरु लघुपणे परिणमावै, लघु गुरुपर्ण इम २६. शीत उष्णपर्णे इम कहिये, उष्ण शीतपणे इम लहिये । निद्ध लक्खपणे परिणाम, लूखो निद्धपणे इम पार्म ॥ २७. *वर्ण गंध गंध रस नं रस ने विषे फर्श विषे बलि सगला स्थानक नें विषे, कहि परिणामेइ २८. बे आलावा सर्व नां, पुद्गल विण लियां ताय । परिणामिया समर्थ नहीं, पुद्गल ले परिणमाय' ॥ ', परिणमाय । कहिवाय || सोय । दोय ॥ यतनी २१. पुद्गल लियां बिना सह एह नहीं परिणमा वारला पुद्गल ने लेई परिणमा नैं एम जाण । माण | तेह कहेई । दूहा ३०. देव तणां अधिकार थी, देव तणोंज पूर्व गोयम गणहरू, ते सुणज्यो ३१. * प्रभु ! अविशुद्धलेसी देवता ए विभंग अज्ञानी संगीत । अस मोह नों अर्थ ए. सुर उपयोग-रहीत ॥ J विचार | विस्तार ॥ J २२. अविशुद्ध विभंग सहित जे देव तथा देवी तथा अन्यतर एक जे ते विहं मांहिलो 1 वाo अविशुद्धलेसी विभंग अज्ञानी देव अणउपयोग आत्मा अविशुद्धलेसी देवादिक प्रत ए तीन पद नां द्वादश विकल्प हुवै । । जोय । सोय ॥ ३३. एहिं प्रति जाणें प्रभु दर्शण कर देखंत ? जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं, ए धुर भांगो हुत ॥ 1 ३४. सुर विभंगयुत उपयोग विष ते विभंगवंत सुर सुरी प्रते । बिहुं मांहिला एक प्रति वलि, न जाणे देखे न ते ॥ * लय: राधा प्यारी है, लं नी झखोलो ठंडा नीर नो १. इस ढाल की गाथा २३, २४, २७ और २८ की जोड़ अंगसुत्ताणि पृ० २६६ के टिप्पण ११ के आधार पर की गई है । + लय : पूज मोटा भांज १२६ भगवती जी २३. कक्खडफासपोग्गलं मउय- फासपोग्गलत्ताए, २४. एवं दस सि २७. वण्णाई सव्वत्थ परिणामेइ । २८. आलावगा दो दो पोगले अपरियाइत्ता, परिया( श० ६ । १६७ ) इत्ता । ३०. देवाधिकारादिदमाह (दु० १० २०३ ) ३१. अविसुद्ध से णं भंते! देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविशुद्वलेश्यो - विभङ्गज्ञानो देवः 'असमोहएणं बप्पाषेणं' ति अनुपयुक्त नात्मना ( वृ० प० २८४ ) ३२. अविसुद्धले सं देवं देवि, अण्णयरं, , इहाविद्धः समवतारमा देवः अविशुद्धश्यं देवादिकं इत्यस्य पदत्रयस्य द्वादशविकल्पा भवन्ति । ( वृ० प० २८४ ) ३३. जाणइ पासइ ? णो तिट्ठे समट्ठे । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. एवं-अविसुद्धलेसे देवे असमोहएणं अप्पाणणं विसुद्धलेसं देवं । ३६. अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं । ३५. *इम विभंग-अनाणी देवता, उपयोग रहित करितेह, अंतेवासी रे। अवधि-ज्ञानी देवादिक प्रत, जाण देखै नहिं एह, अंतेवासी रे ॥ ३६. विभंग-अनाणी देवता, उपयोग सहित करि तेह । विभंग-अनाणी देवादि नैं, जाणे देखै नहि जेह ।। सोरठा ३७. विभंग-अनाणी जेह, ए विभंग-अज्ञानी सुर अछ । इणविध नहिं जाणेह, उपयोग-सहित पिण मिच्छदिट्ठि। ३८. *विभंग-अनाणी देवता, उपयोग-सहित करि ताहि । अवधि-ज्ञानी देवादि ने, जाणे देखै ते नाहि.।। ३८. अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं। ४०. सोरठा ३६. अवधिज्ञान इण मांहि, सुर प्रति इम जाण नहीं । उपयोगी पिण ताहि, मिथ्यादृष्टी ते भणी ।। *विभंग-अनाणी देवता, उपयोग-सहित रहीत । विभंग-अनाणी देवादि नै, न जाणे न देखे ते रीत ।। (वीर कहै सुण गोयमा)। ४१. विभंग-अनाणी देवता, उपयोग-सहित रहीत । अवधि-ज्ञानी देवादि प्रतै, नहिं जाण देखै ते रीत ॥ व ४०. अविसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अवि सुद्धलेसं देवं । ४१. अविसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसु द्धलेसं देवं । सोरठा ४२. ए षट विकल्प जाण, मिथ्यादृष्टी नां कह्या । हिव विकल्प षट माण, कहियै समदृष्टी तणां ।। ४३. *अवधिज्ञानी ते देवता, उपयोग-रहित करि ताहि । विभंग-अनाणी देवादि नै, जाणे देखे ते नांहि ।। ४४. अवधिज्ञानी ते देवता, उपयोग-रहित करि तेह । अवधिज्ञानी देवादिक प्रतै, जाण देखै नहिं जेह ।। सोरठा ४५. अठ विकल्प करि इष्ट, नवि जाणें देखें नहीं । त्यां षट ' मिथ्या दृष्ट, उपयोग-रहित बे समदिदि।। ४३. विसुद्धलेसे देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस देवं । ४४. विसुद्धलेसे देवे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं । (श० ६।१६८) ४६. *अवधिज्ञानी प्रभु! देवता, उपयोग-सहित पिछाण । जाण विभंग-अनाणी सुरादि नै? जिन कहै हंता जाण ।। ४७ इम अवधिज्ञानी जे देवता, आत्म उपयोग-सहीत । अवधिज्ञानी देवादिक प्रत, जाण देखे वर रीत ।। * लय : राधा प्यारी है, लै नी झखोलो ठंडा नीर नो ४५. एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र षडभिमिथ्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति । (वृ० प० २८४) ४६. विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं अप्पाणेणं अवि सुद्धलेसं देवं जाणइ-पासइ? हंता जाणइ-पासइ । ४७. एवं-विसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्ध लेसं देवं । श०६, उ०६, ढा०१०६ १६७ Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. अवधिज्ञानी जे देवता, उपयोग-सहित रहीत । विभंग-अनाणी देवादि नैं, जाण देखे वर रीत ॥ ४६. अवधिज्ञानी जे देवता, उपयोग-सहित रहीत । अवधिज्ञानी देवादिक प्रतै, जाणें देखें तसं रीत ॥ ४८. विसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसु द्धलेसं देवं । ४६. विसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं । (श० ६।१६६) सोरठा ५०. चिहुं भंग सम्यक्त्व रीत, उपयोगी जाण तथा । उपयोग-सहित रहीत, ते पिण जाणे देखिये ।। ५१. उपयोग-अणउपयोग-पक्षे जे उपयोग न । अंश अधिक सुप्रयोग, ज्ञान हेतु छै ते भणो ।। ५२. विकल्प अठ जे आदि, नवि जाणें देखे नहीं । ऊपरलै चिहुं साधि, ते जाणे नै देखियै ॥ ५०. एभिः पुनश्चतुभिर्विकल्पः सम्यग्दृष्टित्वादुपयुक्तत्वा नुपयुक्तत्वाच्च जानाति । (वृ० ५० २८४) ५१. उपयोगानुपयोगपक्षे उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति । (वृ० प० २८४) ५२. एवं हेढिल्लएहि अहिं न जाणइ, न पासइ उवरि ल्लएहिं चरहिं जाणइ-पासइ । दूहा ५३. वाचनांतरे सर्व ही, दीस छै. साख्यात । विकल्प जे आळू तणो, जुओ-जुओ अवदात ।। ५४. *सेवं भंते! अंक गणंतर तणों, एकसौ नवमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगल माल । षष्ठशते नवमोद्देशकार्थः ॥६६॥ ५३. वाचनान्तरे तु सर्वमेवेदं साक्षाद् दृश्यत इति । (वृ० प० २८४) ५४. सेवं भंते । सेवं भंते ! ति। (श०६।१७०) ढाल : ११० १. प्रागविशुद्धलेश्यस्य ज्ञानाभाव उक्तः, अथ दशमोदेशकेऽपि तमेव दर्शयन्निदमाह- (वृ० प० २८४) दूहा १. नवम उद्देशक – विषे, अविशुद्ध लेस्यावंत । ज्ञान अभाव कह्य तसु, दसमें तेहिज हुंत ॥ गोयम प्रभुजी सूं वीनवै रे लाल । (ध्र पदं) २. अन्यतीर्थी प्रभ! इम कहै रे लाल, जावत इम परूपंत हो, जिनेंद्र देव! राजगृह नगर विषे अछ रे लाल, जीव जेतला हुंत हो, जिनेंद्र देव! * लय : राधा प्यारी हे ले नी झखोलो ठंडा नोर नो + लय : पुन नोपज सुभ जोग सूं १. यह जोड़ जिस पाठ के आधार पर की गई है, वह अंगसुत्ताणि के पादटिप्पण . ३ पृ. २६७ में है। २. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति जावतिया रायगिहे नयरे जीवा, १९८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. एतलाईज जीवां तणां, सुख अथवा दुस यावत बोर-कुलिया बोर-कुलिया जितो, जितो, देखवा समर्थ सोरठा ४. यावत जितो पिछाण, बोर-कुलिक बहु वा अतिबहु जाण, ते तो ५. * झालर' कलाय जे धान्य छे, उड़द मूंग जूं लीख । तेतलो पिण काढी तनु थकी, देखवा समर्थ न दीख ॥ ६. ते किमप्रभु! एविधे, इम? पूये कहे नाथ, रे सुगण शोस ! अणतीर्थी जे इम कहै, जाव मिथ्या इम स्यात, रे सुगण सीस! सोरठा ताहि । नांहि ॥ ७. अन्यतीर्थी नीं वाय, राजगृह नगर विषेज ए । अन्य स्थान कहै नांय, तिण सू मिथ्या वचन ते ॥ ८. पिण गोतम हम कहे जाव *हूँ परूपू एम। सहु लोक विषे सर्व जीव नों, सुख अथवा दुख ते ।। ६. तं चेव जाव देखाड़िवा, समर्थ नहीं छे ताय । किण अर्थ प्रभू! इम कह्यो ? हिव जिन भावे न्याय ।। , ११. इक महा विलेन सहित नै ते गंध डाबा नां मुख प्रतै, अपि । मात्रक अलगा ही रहो ॥ १०. ए जंबूद्वीप नामः द्वीप छै, जाव विशेषाधिक परिधि माग | देव महाऋद्धि नो धणी, जावत महाअनुभाग || १४. * ते निश्चै करि फ गंध पुद्गल यतनी 1 १२. जाव इणामेव इणामेव इम कहि चाल्यो ते देव । केवल कल्प संपूर्ण एह, जंबूद्वीप नामा द्वीप तेह ॥ १३. तीन चिवटी बजावै ते मांहि एक बीस बेला ते ताहि । चोफेर बोसो फिरि जोय, शीघ्र आये उतावली सोय ॥ जोग स्यूं गंध दाबो ब्रही ताम | उघाड़े उघाड़ी आम || गोयमा, जंबूद्वीप संपूर्ण ताय । करी ? गोतम कहे फर्माय ॥ * लय: पुन नीपज शुभ १. वल्ल नामक धान्य २. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।१७६ में इणामेव पाठ एक बार ही है । ३. एवइयाणं जीवाणं नो चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा जाब कोलममवि, ४. आस्तां बहु बहुतरं वा मामपि तत्र कुबलास्थिकंद ०० २८५) ५. निष्फावमायमवि, कलमायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमयि यामायमावि, लिक्खामायमवि अभिनिवट्टेत्ता उवदंसेत्तए । (०६११७१) ६. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोषमा ! जंगं से अण्णउखिया एवमादयति जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, ८६. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमिसव्वलोए वि य णं सव्वजीवाणं नो चक्किया केइ सुहं वा (सं० पा० ) तं चेव जाव उवदंसेत्तए । ( श० ६ । १७२ ) सेकेपणं ? १०. गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभागे, ११. एवं महं सविहाय तं अवालेति, वाता १२. जाव इणामेव कट्टु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं । १३. तिहि अच्छरानिवाएहि तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा | १४. से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहि घाणपोगलेहि फुडे ? हंता फुडे । श० ६, उ० १०, ढा० ११० १६६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. समर्थ कोइ गोयमा ! गुठली तुल्य जाव देखावा ? १६. जिम गंध पुद्गल अतिहि सूक्षम अमूर्त तुल्य ते अच्छे । बोर गुठली मात्र पिण देखाड़िया समरथ न छै ॥ * १७. "तिण अर्थे करि गोयमा, सर्व जीवां नां गुठली मात्र सुख दुख प्रतं जाव देखाड़ी सर्फ J पुद्गल सुगंध शोभाय । गोतम कहें समर्थ नाय ॥ हा १८. जीव तणां अधिकार थी, जीव तणोज विचार | पूछै गोयम गणहरू, आछी रीत उदार ॥ २०. एक जीव १६. * जीव प्रभु ! स्यूं जीव छै, केवल जीव जीव शब्द दोय वार नों, अर्थ सुणो चित सोरठा जीव शब्देन, जीवईज हि द्वितीयेन, ग्रहि शब्द २२. हे प्रभु! जीव ते ताहि । नाहि ।। कहिवाय ? ल्याय ॥ यतनी २१. जिन भाखे जीव सदीव, तिने कही नियमा जोव बीजो जीव शब्द चैतन्य, ते पिण नियमा जीव सुजन्य || सोरठा २२. जीव बनें चैतन्य माहोमाहि जुदा नहीं । जीव ते चैतन्य जन्य, चैतन्य ते पिण जीव छै ॥ नेरइयो नेरइयो जीव श्री जिन भाखै नेरइयो, निश्च करि है अछे । छै चेतनपणुं ॥ स्यूं २४. जीव कदाचित नेरइयो, कदा अनेरइयो होय | नरके अपना नेरइयो, अन्य गति अनेरश्यो जोय ॥ २५. हे प्रभु! जीव ते असुर छै, के असुरकुमार छै जीव ? जिन कई असुरकुमार ते निश्च शेव कहीव ॥ २६. जीव कदाचित असुर छे, कदा अणअसुर कही । असुर विषे गयां असुर घं. अणअसुर से अन्य जीव ॥ + लय पूज मोटा भांज * लय: पुन नोपज सुभ जोग २०० भगवती-जोड़ कहीव ? जीव ॥ ( वीर कहै सुण गोयमा ! रे लाल ) १५. चक्किया णं गोयमा ! केइ तेसि घाणपोग्गलाणं कोलट्ठमायमवि जाव (सं० पा० ) उवदंसेत्तए । णो तिपट्ठे समट्ठे । १६. एवं यथा गन्धपुद्गलानामतिसूक्ष्मत्वेनामूर्त्तं कल्पत्वात् कुवास्थिकमात्रादिकं न दर्शयितुं शक्यते । ( वृ० प० २८५ ) १७. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइनो चक्किया केइ सुहं वा जाव उवदंसेत्तए । (श० ६११७१) १८. जीवाधिकारादेवेदमाह ( वृ० प० २८५) १६. जीवे णं भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ? २०. इह एकेन जीवशब्देन जीव एव गृह्यते द्वितीयेन च चैतन्यम् ( वृ० प० २८५ ) २१. गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे । ( श० ६ । १७४ ) २२. जीवतयोः परस्परेण विनाभूतावाजीवर पंतस्य मेव चैतन्यमपि जीव एवेत्येवमवगन्त ( वृ० प० २८५) २३. जीवे णं भंते ! नेरइए ! नेरइए जीवे ? गोमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे, २४. जीवे पुर्ण सिय नेरइए, सिय अनेरइए । ( ० ६।१७५) २५. जीभ सुरकुमारे? असुरकुमारे जीने ? बोयमा ! असुरकुमारेता नियमा जीये, २६. जीवे पुर्ण सिय असुरकुमारे, सिय नोअसुरकुमारे । (श० ६।१७६) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. एवं दंडक जाणिवा, जाव वैमानिक जोय । जीव तणां अधिकार थी, जीव प्रश्न वलि होय ।। २७. एवं दंडओ भाणियब्वो जाव वेमाणियाणं। (श० ६।१७७) सोरठा २८. नारकादि पद मांहि, वली जीवपणां तणो । अव्यभिचारी थी ताहि, इह कारण थी एह हिव ।। २६. *जीव प्राण धरै तिको, जीव अछै भगवंत ! अथवा जीव अछै तिको, जीवै प्राण धरंत ? २८. नारकादिषु पदेषु पुनर्जीवत्वमव्यभिचारि जीवेषु तु नारकादित्वं व्यभिचारीत्यत आह - (वृ० प० -२८५) २६. जीवति भंते ! जीवे ? जीवे जीवति ? जीवति-प्राणान् धारयति यः स जीवः उत यो जीवः स जीवति ? (वृ० प० २८५) ३०. गोयमा ! जीवति ताव नियमा जीवे,' ३०. जिन कहै आय नैं बले, जीवै प्राण धरंत । निश्चै करि ते जीव छै, ए जीव संसारी हुंत ।। सोरठा ३१. अजीव नैं अवलोय, आय कर्म अभाव कर । जीवन अभाव जोय, तिण सं अजीव ते जीवै नहीं। ३२. *जीव तिको जीवै कदा, संसारीक पिछाण । __ कदाचित जीव नहीं, सिद्ध धरै नहि प्राण ।। ३१. अजीवस्यायुः कर्माभावेन जीवनाभावात् । (वृ० प० २८५) ३२. जीवे पुण सिय जीवति, सिय नो जीवति । (श० ६।१७८) सिद्धस्य जीवनाभावादिति । (वृ० प० २८५) ३३. जीवति भंते ! नेरइए ? नेरइए जीवति ? ३३. जीव प्राण धरै तिको, नेरइयो छै भगवंत ! __ के नेरइयो जीवै अछै? हिव जिन उत्तर तंत।। ३४. नेरइयो प्रथम निश्च करी, जीवै प्राण धरेह । जीवै तिको कदा नेरइयो, कदा अनेरइयो कहेह ॥ ३५. एवं दंडक जाणवा, जावत वैमानीक । कहिवो सर्व विचार नै, वर जिन वच तहतीक ॥ ३६. भवसिद्धियो प्रभु! नेरइयो, के नेरइयो भवसिद्धि जाण ? जिन कहै भव्य कदा नेरइयो, कदा अनेरइयो पिछाण ।। ३४. गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवति, जीवति पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए। (श० ६।१७९) ३५. एवं दंडओ नेयव्वो जाव वेमाणियाणं । (श० ६।१८०) ३६. भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए? नेरइए भव सिद्धिए? गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए। ३७. नेरइए वि य सिय भवसिद्धिए, सिय अभवसिद्धिए। (श० ६।१८१) एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं। (श०६।१८२) ३७. नेरइयो पिण कदा भव्य छ, कदा अभव्य अवलोय । एवं दंडक जाणिवा, जाव वैमानिक जोय ॥ दूहा ३८. जीव तणां अधिकार थी, जीव विषे हिव जेह । अन्यतीर्थी छै तेहनी, वक्तव्यता जु कहेह ॥ ३६. *अन्यतीर्थी प्रभ! इम कहै, जावत इम परूपंत ।। सर्व प्राण भूत जीव सत्व ते, एकांत दुख वेदंत ।। ३८. जीवाधिकारात्तद्गतमेवान्यतीथिकवक्तव्यतमाह (वृ० प० २८५) ३६. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परू वेति-एवं खलु सब्बे पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति । (श० ६।१८३) * लय : पुन नीपज सुभ जोग सूं रे श० ६, उ० १०, ढा० ११० २०१ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. ते किम अन्यतीर्थी प्रभ! जे ४१. पिण इम कहुं चि पदे वेद एकांत दुख वेदना, ४२. प्राण भूत जीव सत्व ते, केतला इक सुविचार | वेदै एकांत साता वेदना असाता वेदे किवार ॥ ४३. प्राण भूत जीव सत्व ते केइ वेमात्रा वेदन वेदत | साता वेद किण अवसरे, कदा असाता हुंत ॥ ४४. किण अर्थे ? तब जिन कहै, नरक जीव सुविशेस । वेदै एकांत दुख वेदना, साता कदाचित देख ॥ सोरठा ए वारता ? तब भाखे जिनराय । इम कहै, प्रत्यक्ष मूलावाय ॥ ४५. जिन जन्मादि कल्याण, अथवा देव प्रयोग कर । कदाचित साता जाण, पिण न मिटै क्षेत्र वेदना ॥ ४६. * भवनपति व्यंतर जोतिषि वैमानिक सुविचार | वेद एकांत साता वेदना, असाता वेद किवार ॥ सोरठा * ४७. वल्लभ तण विजोग, अथवा प्रहारे इत्यादीक प्रयोग, कदा असाता के प्राण भूत सत्व जीव । कदाचित साता कहीव ॥ हुंत ॥ ताय । ४८. * पृथ्वीकाय जाव मनुष्य ते बेमात्रा वेदन साता वेदै किण अवसरे, कदा असाता ४९. तिण अर्षे करि गोयमा ! आप एहर जीव तथा अधिकार थी. जीव तणुंज कहाय ॥ ५०. नेरइया प्रभु! आत्मा करी, जे पुद्गल ग्रही करें आ'र । स्व तनू क्षेत्र अवगाही रह्या, ते पुद्गल ले तिन वार ॥ लय : पुन नीपजै सुभ जोग ५१. तनु अवगाह अपेक्षया अंतर-रहित जो खेत । तिते अनंतर क्षेत्र विषे रह्या, पुद्गल गृही आहारेत ? ५२. आत्म क्षेत्र अनंतर क्षेत्र थकी, परंपर जे अन्य खेत । तिहां रह्या पुद्गल ग्रही, आहार करे छे तेय ? ५३. जिन कहे स्व तन क्षेत्रे रखा, पुद्गल यही आहार करत । अनंतर परंपर क्षेत्र में रह्या पुद्गल नहि आहारंत ॥ २०२ भगवती जोड करो । वेदना || वेदंत । स्यूं रं ४०. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया जाव मिच्छं ते एवमाहं, ४१. अहं गोवमा ! एवमाक्खामि जाव परमि -अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, आहच्च सायं । ४२. अत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च अस्सायं । ४३. अत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता वेमायाए वेदणं वेदेति, आह्च्च सायमसायं । (श० ६४१८४ ) ४४. से फेम ? गोयमा नेरइया एतदुक्तं वेदमं वेदेति, आहष्य सायं । ४५. " उववारण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वावि' ।" ( वृ० प० २८६ ) ४६. भवणवइ वाणमंतर जोइस वेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च अस्सायं । ४७. देवा आहननप्रियविप्रयोगादिष्वसातां वेदनां वेदयन्तीति । (१० प० २८६) ४८. विकाइया जान मथुम्सा वेदेति- आहच्च सायमसायं । ४२. से गट्ठे । बेमायाए द (WO E12=x) जीवाधिकारादेवेदमाह ( वृ० प० २८६ ) अत्तमायाए आहारेंति ५०. नेरइया णं भंते! जे पोग्गले तं कि आयसरीरखेत्तोगाढ़े पोग्गले अत्तमायाए आहात ? ५१. अनंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? ५२. परंपरखेत्तोगाढ़े पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? ५३. गोमा यसरीरखेोगा पोगले अत्तमाना आहारैति नो अतरवेत्तोमानी परंपरखेत्तोगाढ़े पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति । १. अपिशब्दात्तीर्थंकर जन्मादिदिनेषु वेदयते । (१० प० २०६ ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. जेम को नारकी, वैमानिक लग जाणिवा, सोरठा ५५. पाठ आयाए जाण, अर्थ तास पुद्गल ग्रही । नरक जीव पहिछाण, आहार करें इहविध क ॥ ५६. आगल जे अभिराम, आयाणे इंद्री करी । जागे केवलि ताम, वच - साधर्म्य थी प्रश्न हिव ।। ईडी ५७. * प्रभु! आयाणे इंद्रिय आयाणे इंद्रिय करी, जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थ यावत तिम दंडक ए * वस्तु मान सहीत । 1 ५८. केवली पूर्व दिशि विषे जाणे मित अमित वस्तु पिण जाणता, जाव दर्शण आवरण-रहीत ॥ ५६. तण अर्थे करि केवली इंद्रिय करि जाणे नांय । एह उदेशा नीं हिवै, संग्रहणि गाथा कहाय । ६०. सुख दुख जे जीवां तणों, जीवे जीवति भवि हुंत । एकंत दुख आत्मा करि ग्रही, केवली सेवं भंत ! सुगी । चडवीस || ६१. ए अर्थ को छठा शतक नो, ए एकसी दशमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' गण गुणमाल ॥ षष्ठशते दशमोद्देशकार्थः || ६ | १० || लय : केवली जाणं इम गीतक-छंद १. जिस दंत भंजक नालिकेर प्रतं शिला पर योजनें । निज पर भणी भोगवा योग्यज करें मानव सुध मनें ॥ २. तिम शतक षष्ठम नालिकेरज मम मती रद भंजनं । विद्वत् सभामय शुभ शिला संयोजि जन-मन-रंजनं ॥ शुभ ३. अति कठिण अर्थ रूप से जे भेद प्रति आधित्व ही । निज पर भी सुगमार्थ म्हैव प्रकाश प्रति की ४. इम वृत्तिकारे का ए दृष्टांत प्रति देई ते वृत्ति प्रति अवलोकन, ए रची जोड़ज चित पुन नोपज सुभ जोग स्यूं रे देत ? हुँत ? सही । करी । धरी ॥ ५४. जहा नेरइया तहा जाव वैमाणियाणं दंडओ । ( श० ६।१८६ ) ५५. 'अत्तमायाए' त्ति आत्मना आदाय गृहीत्वेत्यर्थः । ( वृ० प० २८६ ) ५६. 'अत्तमायाए' इत्युक्तमत आदानसाधर्म्यात् 'केवली पमित्यादि सूत्रं तत्र च 'आप'ति इन्द्रियैः । ( वृ० प०२८६ ) ५७. केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? गोमा ! नो इणट्ठे समट्ठे ? सेकेणट्ठे ? ( श० ६ १८७ ) ५८. गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ जाव निव्वुडे दंसणे केवलिस्स । ५६. से तेणट्ठेणं । (०६१) ६०. जीवाण य सुहं दुक्खं जीवे जीवति तहेव भविया य । एतदुक्खं वेयण - अत्तमायाय केवली ॥ (श० ६ | संगहणी -गाहा ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (TTO SITEE) १३. प्रतीत्य भेदं किल नालिकेरं, षष्ठं शतं मन्मतिदन्तभञ्जि । तथाऽपि विभि नियोज्य नीतं स्वपरोपयोगम् ॥ (० १० २८६) श० ६, ३० १०, ढा० ११० २०३ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. षष्ठम तेहिज दूहा जीवादिक जाण । शतक विषे को, अर्थ सप्तम शतक हिव, गाह संग्रहणी आण || २. आहार अनाहारक तणं, वर पचखाण वणस्सइ संसारीक फुन, पक्खी योनि ढाल १११ ३. आयु वली अणगार नो, छद्म कालोदाई अन्ययूधि, सप्तम ५. * जीव प्रभु! परभव विषे रे हां जातां कवण समय ने विधेतिको रे ६. जिन कहै प्रथम समय विषे रे हां, ८. ४. ति काले ने तिण समय, जावत गोतम स्वाम | वीर प्रत बंदी करी, हम बोल्या सिर नाम || कदा अणाहारक हुवै रे हां, ७. बीजा कदा समय विषे तिको, अमाहारक हुवे वर तीजा समय विषे बलि, १०. जीव ऋणी जाण, प्रथम समय इज मान, असंवृत दस कदा न्याय कदाचित आहारीक । जिन वच ततीक ॥ कदा आहारक तेह | कदा अणाहारक हुवै, श्री जिन वच निसंदेह || ६. चोथा समय विषे हुवै, निश्चै करि करि आहारीक । न्याय कहूं हिव एहनों, सांभलज्यो तहतीक ॥ सोरठा * लय: किणकिण नारी सिर घड़ो रे २०४ भगवती-जोड़ विचार | प्रकार ॥ कथ्य | अवितथ्य ॥ हो. अणाहारक हुवे सोय ? देव जिनेंद्रजी ! छतां अवलोय । देव जिनेंद्रजी ! आहारक होय । सांभल गोयमा ! हिये अवलोय । सांभल गोयमा ! जाय तब उत्पत्तिस्थानक आहारक होवै सही ॥ तत्र १. व्याख्यातं जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरं षष्ठं शतं, अथ जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमेव सप्तमशतं व्याख्यायते, चादावेवोदेशका ग्रहगाथा ( वृ० प० २८७ ) २, ३. आहार विरति थावर, जीवा पक्खी य आउ अणगारे । छउमत्थ असंवुड अण्णउत्थि दस सत्तमंमि सए । (श०७ संग्रहणी -गाहा ) 'आहार' सि आहारकानाहारकत्वव्यतार्थः, 'विरह' ति प्रत्याख्यानार्थ:, 'वावर' ति वनस्पतिवक्तव्यतार्थः, 'जीव' त्ति संसारिजीव प्रज्ञापनार्थः, 'पक्खी यत्ति खचरजीवयोनिवक्तव्यतार्थः अन्न उत्थिय' त्ति कालोदाविप्रभृतिपरतीधिरुक्तम्यतार्थः ( वृ० प० २८० ) ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी ५. जीवे णं भंते! कं समयमणाहारए भवइ ? 'कं समयं अणाहारए' त्ति परभवं गच्छन् कस्मिन् समयेनाहारको भवति ? ( वृ० प० २८७) ६. गोयमा ! पढमे समए सिय आहारए, सिय अणाहारए, ७. बितिए समए सिय आहारए, सिय अणाहारए, ८. ततिए समए सिय आहारए, सिय अणाहारए, ६. चउत्थे समए नियमा आहारए । १०. यदा जीव ऋजुगत्योत्पादस्थानं गच्छति तदा परभवायुषः प्रथम एव समये आहारको भवति । ( वृ० १० २०० ) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. यदकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेs नाहारको द्वितीये त्वाहारकः। (वृ०प० २८७) १२. यदा वऋद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽद्ययोरनाहा रकस्तृतीये त्वाहारकः। (वृ० प० २८७) १३. यदा तु वक्रत्रयेण चतुभिःसमयरुत्पद्यते, तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारकः । (वृ० प० २८७) ११. इक वक्र करि पेख, दोय समय करि ऊपजै । अनाहारक धर एक, द्वितीय समय आहारक सही ।। १२. बे वक्र करि सोय, तीन समय करि ऊपजै । अनाहारक धर दोय, तृतीय समय आहारक हुवै ॥ १३. त्रिण वक्र करि धार, च्यार समय करि ऊपज । प्रथम चरम बे आ' र, समय मज्झिम बे आ' र नहिं । वा०-ए च्यार समय करि ऊपजै, तिहां प्रथम समय आहारक कह्य । ते समय पाछला भव न छेलं समय देशबंध जणाय छ । जिण स्थानक ऊपजे, ते भव न ए समय होवै, ते स्यू सर्व बंध के देश बंध ? चोथै समय उत्पत्ति क्षेत्रे आहार ले ते सर्व बंध हुदै, पिण ए च्यार समय में प्रथम समय सर्व बंध नहीं। एकेद्रिय में तीन समय ऊणी क्षुल्लक भव देश बंध नी स्थिति जघन्य कही । ते भणी च्यार समय में प्रथम समय, ए एकेंद्रिय नां भव नुं न लेखव्यो । ते मार्ट ए समय पूर्व भव नों देश बंध संभव । (ज० स०) १४. वृत्ति मझे इम वाय, अन्य आचार्य इम कहै । पंच समय उपजाय सूत्रे कथन न इम कह्य॥ १४. अन्ये त्वाहुः-वक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य समणि प्रतिपद्यते पञ्चमेन तूत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति, तत्र चाये समयचतुष्टये वक्रचतुष्टयं स्यात्, तत्र चानाहारक इति, इदं च सूत्रे न दर्शितम्। (वृ० प० २८७, २८८) १६. छउमत्थअणाहारए णं भंते ! छउमत्थए कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समथा। (पन्नवणा १८६८) १५. अणाहारक नां जेह, समय तीन केई कहै। पाठ मझे नहिं तेह, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ।। १६. पन्नवण' में तहतीक, अठारमा पद में विषे । छद्मस्थ अणाहारीक, स्थिति कही बे समय नीं॥ वा०--तथा शतक छह, सू० वेसठ मध्ये कालादेसे अणाहारक सप्रदेश के अप्रदेश ? तिहां छह भांगा बस अणाहारक ने कह्या । तिहां प्रथम भांगे सगला सप्रदेश अणाहारक कह्या, सप्रदेश ते केहनै कहिय ? एक समय सूधी अप्रदेश । ते उपरांत समय थया हुवै, तेहनै सप्रदेश कहियै । इण न्याय जोतां त्रस नै दोय समय अणाहारक कह्यो छ । १७. तिण सू सूत्रे वाय, आखी तेहिज सत्य छै । विरुद्ध बहु वृत्ति मांय, ते किण रीते मानिये ? १८. *दंडक इह विध आखियै, जीव एकेंद्री कथीक । चोथा समय विषे हवै, निश्चै ते आहारीक ॥ १८. एवं दंडो-जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए, जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयैव चतुर्थे समये नियमादाहारक इति वाच्यम्। (वृ० प० २८८) १. चार समय वाली अन्तराल गति में जीव तीन समय तक अनाहारक रहता है । टीकाकार का यह अभिमत जयाचार्य के मंतव्य से भिन्न है। इसका उल्लेख स्वयं जयाचार्य ने इसी ढाल की पन्द्रहवीं गाथा में कर दिया है। * लय: किण किण नारी सिर घड़ो रे श०७, उ० १, ढा० १११ २०५ Jain Education Interational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. शेष उगणीस दंडक विष, तीजै समय पिछाण । आहारक निश्चै हुदै, न्याय हिया में आण ।। २०. जीव प्रभ! किण समय में, सर्व थको अल्प आहार ? जिन कहै ऊपजवा तणों, प्रथम समय सुविचार ।। २१. चरम समय वलि भव तणों, अल्प आहार लै जीव । यावत वैमानिक लगै, दंडक सर्व कहीव ।। वा०-इहां गोतम पूछ्यो-किण समय सर्व अल्प आहार ? सर्व अल्प ते सर्वथा थोड़ो, जेह थी अन्य थोड़ो आहार नहीं, ते सर्वाल्पाहार, तेहिज सर्वाल्पाहारक । भगवान कहै-प्रथम समयोत्पन्न नैं । ते प्रथम समय नै विषे आहार ग्रहण करिया नों हेतु शरीर नां अल्पपणां थकी सर्व अल्प आहारपणो हुवै तथा भव नै चरम समये हुवं ते आउखा नै छेहला समय नै विषे जाणवू । तिवारै प्रदेश में संहृतपणे करी एतले प्रदेश नैं संकोचवै करी अल्प शरीर नां अवयव नै विषे रहिवा नां भाव थकी सर्वथी अल्प आहारपणो हुई। १६. सेसा ततिए समए। (श०७१) शेषेषु तृतीयसमये नियम दाहा रक इति । (६० प० २८८) २०. जीवे णं भते ! कं समयं सवप्पाहारए भवति ? गोयमा ! पढमसमयोववन्नए वा, २१. चरिमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सब्बप्पाहारए भवति । दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं । (श० ७।२) वा०—कस्मिन् समये सर्वाल्प:--सर्वथा स्तोको न यस्मादन्यः स्तोकतरोऽस्ति स आहारो यस्य स सर्वाल्पाहारः स एव सर्वाल्पाहारकः, 'पढमसमयोववन्नए' त्ति प्रथमसमय उत्पन्नस्य प्रथमो वा समयो यत्र तत् प्रथमसमयं तदुत्पन्नं-उत्पत्तिर्यस्य स तथा, उत्पत्तेः प्रथमसमय इत्यर्थः, तदाहारग्रहणहेतो: शरीरस्याल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति, 'चरमसमयभवत्थे व' त्ति चरमसमये भवस्य-जीवितस्य तिष्ठति यः स तथा, आयुषश्चरमसमय इत्यर्थः तदानी प्रदेशानां संहृतत्वेनाल्पेषुशरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति । (वृ० प० २८८) २२. पूर्वे जीव कह्या तिके, विशेष थी कहिवाह । लोक संठाण थकी हुवै, लोकपरूपण आह॥ २३. *हे भगवन! ए लोक छ, किण संठाण पिछाण ? जिन भाखै सुण गोयमा! सुप्रतिष्ठक संठाण ।। वा०-सुप्रतिष्ठक ते शरयंत्रक, ते वली इहां ऊपरि स्थापित कलसादिक ग्रहिवू । २४. ऊंधा सरावला ऊपरै, थाप्यो कलश विशेष । ए आकारे लोक छ, हिव एहिज अर्थ कहेस ।। २५. हेठे विस्तीरण कह्यो, जाव' ऊपर पहिछान । ऊर्ध्व मृदंग आकार ने, आख्यो ए संस्थान ।। २२. अनाहारकत्वं च जीवानां विशेषतो लोकसंस्थानवशाद् भवतीति लोकप्ररूपणसूत्रम् (वृ० प० २८८) २३. कि संठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्तेबा०-सुप्रतिष्ठकं शरयन्त्रकं तच्चेह उपरिस्थापित कलशादिकं ग्राह्य, (वृ० प० २८८) २४. तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति, एतस्यैव भावनार्थमाह (वृ० प० २८८) २५. हेट्ठा विच्छिण्णे, * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे १. इस ढाल की पचीसवीं गाथा में जाव शब्द कहकर संक्षिप्त पाठ की सूचना दी है, पर छब्बीसवीं गाथा में जाव शब्द से गृहीत होने वाला पाठ आ गया है। इसलिए इन गाथाओं के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का पूरा पाठ उद्धृत किया गया है। २०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २६. जाव शब्द थी जाण, संक्षिप्त ऊर्द्ध विशाल है। तल पल्यंक संठाण, मध्य प्रवर वज्र विग्रहिक ।। २७. आख्यो लोक-स्वरूप, लोक विषे जे केवली । करै तिको तद्प, हिव देखाई तेहने ।। २८. *तेह सास्वता लोक में, तल विस्तीरण मांय । मध्य विषे संक्षिप्त छै, जावत वलि कहिवाय ।। २६. ऊपर ऊर्द्ध मृदंग ने, आकारे संठाण । तेह विषे जे जीव नैं, बले अजीव पिछाण ।। ३०. उत्पन्न ज्ञान दर्शन तणां, धरणहार अरहंत । केवली जिन जाणे अछ, वलि देखै चित शंत ।। ३१. पछै सीझ बूझै सही, जाव करै दुख अंत । सिद्ध तणां सुख सास्वता, पामै तेह अनंत ।। २६. मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मझे वरवइरविग्गहिए, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिए । २७. अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्तं, तत्र च यत्केवली करोति तद्दर्शयन्नाह (वृ० प० २८८) २८. तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव २६, ३०. उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाण-दसण धरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ-पास इ, अजीवे वि जाणइ-पासइ। ३१. तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ । (श० ७।३) दूहा ३२. सिद्ध क्रिया नों अंतकृत, विशेष थी ते आम । श्रावक नैं किरिया हिवै, देखाउँ छै ताम ।। ३३. *श्रमणोपासक छै तिको, करी सामायक जान । बैठो साध रै स्थानके, तेहने हे भगवान ! ३४. स्य इरियावहि क्रिया हुवै, के ह छै संपराय ? जिन कहै इरियावहि नहीं, संपरायकी थाय ॥ ३५. किण अर्थे ? तब जिन कहै, श्रमणोपासक जान । सामायक करिनै रह्यो, साधु रहै ते स्थान ॥ ३२. 'अंतं करेइ' त्ति, अत्र क्रियोक्ता, अथ तद्विशेषमेव श्रमणोपासकस्य दर्शयन्नाह- (वृ० ५०२८८) ३३. समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणो वस्सए अच्छमाणस्स ३४. तस्स णं भंते ! कि रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ। (श० ७४) ३५. से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणो वस्सए अच्छमाणस्स ३६. आया अहिंगरणी भवइ, आत्मा--जीव: अधिकरणानि-हल शकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी । (वृ० प० २८६) ३७. आयाहिगरणवत्तियं च गं तस्स नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ । ३८. से तेणठेणं । (श०.७५) श्रमणोपासकाधिकारादेव (वृ०प० २८६) ३६. तेहनं जीवज आतमा, हल सकटादि कषाय नै, अधिकरण कहिवाय । आश्रयभूतज थाय । ३७. आतम तसु अधिकरण छै, ते कारण करि ताय । इरियावहि क्रिया नहीं, संपरायकी थाय ॥ ३८. तिण अर्थे करि गोयमा ! आख्यं एहवं ताय । श्रावक नां अधिकार थी, बलि तेहिज कहिवाय ।। * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे श० ७, उ० १, ढा०१११ २०७ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३६. 'श्रावक नी पहिछाण आतम मर्झ । तेम, कही ॥ अधिकरणी कही । ते कारण थी जाण, धर्म नहीं तसु पोखियां ॥ ४०. को धर्मसी एम, श्रावक सामायिक अव्रत रही छै ४१. वो सर्वथा जाण तिण कारण पहिछाण, अष्टम पंचमदेश, भंड हऱ्या सुविशेख, मंड अधिकरण अनत उपगरण वोसिराव्या अधिकरण नथी । श्रावक ४२. शत पाऱ्यां जेह, ममत्व-भाव ४३. वोसिरा पचख्यो नहि ४४. वलि सामायिक आतमा || सामायिक मभे । गवेषणा पिण भंड तेह, ते माटै कीध, तसु स्त्री कोई जिनवर 1 स्त्री तेहनी प्रसीघ आखी छे ४५. भावे भावना एम, पुत्रादिक नहिं न मियो बंधन प्रेम, विण कारण तेहनीज ४६. अत रहि वाय, तिण व सामायिक तसु आतम अधिकाय अधिकरणी कहिये ४७. सोलम- शतक कहीव, प्रथम उदेशे प्रश्न अधिकरण प्रभु! जीव, स्थू अधिकरणी जीव ४८. जिन भाखै ए जीव, अधिकरणी अधिकरण जिन कहै अवत अधिकरण आली 9 ते कि अर्थ कहीब ? ४६. इहां अविरत ने जोय, साधू विण अवलोय, सगलाई ५०. साधू ₹ पहिछाण, जावजीव अविरत तणां । आहारक तन सर्व थकी पचवाण, तिण सूं अविरत नहीं रही । ५१. एहिज उदेशा मांव, निपजावतो । अधिकरण प्रभु! धाय के अधिकरणी जीव छे ? ५२. तब भाखे जिनराय, प्रमाद आधी अधिकरण । अधिकरणी पिण चाय, आहारक वन निपजावतो ॥ तनु प्रमाद आश्री इहां कही । ५३. न कही अविरत ताय, अशुभ जोग कहिवाय, ते तो पचख्यो छै तिणे ॥ ५४. पिण तिण वेला जाण, उत्सुकभावज आवियो। आज्ञा भंग पिछाण, आलोई ने सुध हुवै ॥ प्रमाद इहां । किया । ५५. ए अशुभ जोग नैं जाण, आख्यो छ जावजीव पचखाण, दीक्षा लेतां तिण ५६. श्रावक करि सामाय, ममत्व-भाव पचख्यो नथी । वलि अनुमोदन ताय, ते पिण दीसै छै प्रत्यक्ष ॥ २०८ भगवती बोट करै ॥ तेहनुं । तेहनों ॥ भोगवं । दंडक तिहां ॥ मांहिरा । छं ॥ मझे। सही ॥ ए । है ? पिंण । आसरी ॥ अर्थ | मझे ॥ ४२,४३. भगवई ८।२३०-२३२ ४४, ४५. भगवई ८।२३३-२३५ ४६-४८. भगवई १६/८, ६ ५१-५३. भगवई १६।२३, २४ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीधी ५७. नव भांगे करि जाण, सामायक बाह्यपणें पचखाण, अभ्यंतर पचस्वो ५८. इमहिज पोसा ताहि, बार मास रै मांहि, ५९. बलि गच्छरी आदि त्यां दिन तगोज लाधि ६०. लाभ खर्च वलि हाण, नव भांगे पिण जाण, ६१. ग्यारमी पदमा मांहि ६३. ते पेज्ज बंधण तसुं ताहि ज्ञात तणों ६२. तिण कारण छै तास तास न्यातीलां री दशाश्रुतखंध विमास, तिमहिज सामायिक माट पहिछाण, सामायिक पोसा अविरति नो पचखाण, सर्व थकी कीधा ६४. आनंद अणसण मांय, आस्यो हूं गृहस्थ गृहस्थावास वसाय, अवधि इतरो ६५. आनंद अणसण मांहि, गृहस्थपणों तो पड़िमा में ताहि किम गृहस्थ ६६. गृहस्थ मैं असणादि दीधां ने दंड चोमासी लाधि ६७. तिण सूं पड़िमा मांहि, देणहार ने ताहि, कहिवाय, श्रावक नीं मांय अधिकरण इण नशीत उदेशे आहार तणी आज्ञा नहि ६८. तिण कारण सामायिक रं ६६. * हे भगवन ! कदा । नयी ॥ करै । षट-पट महिनां में बोहितर तो इह विधे ॥ पोसा ते अठपहरिया | व्याज आवै तमु घर म ॥ द्रव्य सह नों ते धणी । ममत्व-भाव भ्यंतर श्रमण सरीखो तमु छूटो ७०. ते पृथ्वी सणते थके, तो प्रभु ! श्रावक व्रत तणो, ७१. जिन कहै अर्थ समर्थ पहिलांईज श्रावक तिको, स वधवो पचस्यो तिणे, पृथ्वी नां नहीं, स नो वध करिवा भणी, मन पोत कहिये रह्य ॥ को । नथी । गोचरी । म ॥ । म नथी । अछ । अपनों ॥ कह्य । नहीं ॥ अनुमोदियां पनरमें ॥ अविरति अछे । अरिहंत नीं ॥ जे आतमा । न्याय छै' ॥ ( ज० स० ) पिछाण । अपचखाण || कोइक त्रस हणाय । अतिचार रूप भंग थाय ? नहि निश्चे संकल्पी में प्रवर्त्तेह | जेह ॥ सोरठा ७२. त्रस वध करिवो मोय, इम संकल्पी निवर्त्यो । संकल्प न थयो कोय, तिण सू व्रत अतिचार नहिं ॥ * लय: किणकिण नारी सिर घड़ो रे ६१,६२. अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा 'केवलं 'से गातए' पेज्जयंधणे अम्बोच्छिन्ने भवति एवं से कप्पति नायवीथि एत्तए । (दसासुय० ६।१८ ) ६४. तए से आगंदे समोवाममवि गिहिणी हिमभावतस्स ओहिणाने समय ( उवास गदसाओ १।७६ ) ६६. जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा बस वा (४) देति वा सातिजति ( निसीहझयणं १५/७६ ) ६१. समगोवालयस्य पं भंते! पुण्यामेव तस्याणसमारंभ पच्चक्खाए भवइ, पुढ़वि समारंभे अपच्चक्खाए ७०. भवइ । सेय पुढवि खणमाणे अण्णयरं तसं पाणं विहिसेज्जा, से णं भंते! तं वयं अतिचरति ? ७१. णो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट्टति । (४० ७१६) 'तस्य' त्रसप्राणस्य 'अतिपाताय' वधाय 'आवर्त्तते' प्रवर्तते इति न संकल्पवधोऽसौ । ( वृ० १० २०९) ७२. संकल्पवधादेव च निवृत्तोऽसो, न चैष तस्य संपन्न इति नासावतिचरति व्रतं, ( वृ० प० २८९ ) श० ७, उ० १, ढा० १११ २०६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. "हे भगवन! श्रावक तिको, पहिलांईज पिछाण । वनस्पती हणवा तणां, कीधा तिण पचखाण ।। ७४. ते पृथ्वी खणते थके, इक तरु-मूल छिदाय । तो प्रभ! श्रावक व्रत तणो, अतिचार-रूप भंग थाय? ७५. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, नहिं निश्चै प्रवर्तेह । वनस्पती हणवा भणी, संकल्पी न करेह ।। ७६. श्रमणोपासक हे प्रभ ! तथारूप जे योग्य । श्रमण अने माहण प्रतै, बिहं वच मनि प्रयोग्य ।। ७७. फासु अचित्तज एषणी, असणादिक जे च्यार । प्रतिलाभतो स्यू लहै ? हिव जिन उत्तर सार ।। ७८. तथारूप श्रमण माहण भणी, श्रमणोपासक जेह । असणादिक प्रतिलाभतो, अधिक भक्ति करि एह ।। ७३. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव वणप्फइसमारंभे पच्चक्खाए। ७४. से य पुढवि खणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेज्जा, से णं भंते ! तं वयं अतिचरति ? ७५. नो इणठे समठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट्टति । (श० ७७) ७६. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा ७६. श्रमण अनें माहण भणी, पवर समाधि पमाय । तेहिज समाधि लहै तिको, दाने करि ने ताय । ८०. श्रमणोपासक हे प्रभु! श्रमण-माहण प्रति जेह । जाव आहार प्रतिलाभतो, भक्ति भाव करि तेह ॥ ७७. फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिला भेमाणे किं लब्भइ? ७८. गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलामेमाणे ७६. तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहि उप्पाएति, समाहिकारए णं तामेव समाहि पडिलभइ । (श० ७८) ८०. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे ८१. किं चयति ? गोयमा ! जीवियं चयति, 'किं चयइ ?' ति किं ददातीत्यर्थः 'जीवियं चयइ' त्ति जीवितमिव ददाति, अन्नादिद्रव्यं यच्छन् जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः । (वृ० प० २८६) ८२. दुच्चयं चयति, दुस्त्यजमेतत्, त्यागस्य दुष्करत्वात् । (वृ० १० २८६) ८३. दुक्करं करेति, ८१. किं चयइ ते स्यं दियै ? जिन कहै जीवित दान । असणादिक देतो छतो, जीवित नी परि जान ।। ८२. दुच्चयं चयइ पाठ छ, दुस्त्यज त्याग पिछान । देव छै जे दोहिलो, तेह दियै ए दान ॥ ८३. दुक्करं करेइ पाठ छ, करतां दुक्कर जाण । करणी तेह करै तिका, पात्रदान गुणखाण ।। ८४. अथवा किं चयइ प्रभ ! ते नर स्य' छांडेह ? जिन कहै दीर्घ स्थिति कर्म नीं, तेहने तेह तजेह । ८५. दुच्चयं जे दुष्ट कर्म नों, संचय नैंज तजेह । दुक्कर अपूर्वकरण थी, ग्रंथी-भेद करेह ।। ८६. दुर्लभ अनिवृत्ति-करण ने, लाभे तेह विचार । बोधि समदृष्टि प्रति अनुभवै, पछै जावै मोक्ष मझार ।। ८४. अथवा कि त्यजति-कि विरहयति ? उच्यते, जीवितमिव जीवितं कर्मणो दीर्घा स्थिति । (वृ० ५० २८६) ५५. 'दुच्चयं' ति दुष्टं कर्मद्रव्यसञ्चयं 'दुक्करं' ति दुष्करमपूर्वकरणतो ग्रन्थि भेदं। (वृ०५० २८६) ५६. दुल्लह लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति । (श० ७६) 'दुल्लभं लभइ, त्ति अनिवृत्तिकरणं लभते. ततश्च 'बोहि बुज्झइ' त्ति 'बोधि' सम्यग्दर्शनं 'बुध्यते' अनुभवति । (वृ० प० २८६) * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे २१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७. इह च श्रमणोपासक: साधूपासनामात्रकारी ग्राह्यः, तदपेक्षयवास्य सूत्रार्थस्य घटमानत्वात् । (वृ० प०२८६) यतनी ८७. श्रमणोपासक पहिछाण, साधु नी सेवा मात्र सुजाण । एह सूत्र छै ते अपेक्षाय, वृत्तिकार कह्य इम वाय ॥ ८८. साध नी सेवा थी पिछाण, फासु-एषणीक नों जाण । तथा श्रावक पिण ए होय, ते पिण सर्वज्ञ जाणे सोय ।। ५६. बोधि खायक सम्यक्त पाय, दर्शणमोहणी सर्व खपाय । तथा बोधि धर्म चारित तथ्य, ते पिण ज्ञानी वदै ते सत्य ॥ १०. श्रमण माहण में सुखकार, प्रतिलाभै च्यारू आहार । श्रमण माहण ते मनि जान, त्यांरी सेवा करी देव दान ।। ११. छेहड़े पामै ते निर्वाण, कह्य अकर्मपणुं प्रधान । हिव अकर्म सूत्र कहाय, तिण रो आगल प्रश्न पूछाय ॥ १२. *अंक इकोत्तर नों देश ए, एकसौ ग्यारमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल । ६१. अनन्तरमकर्मत्वमुक्तमतोऽकर्मसूत्रम् (वृ० प० २८६) ढाल : ११२ १. कर्म रहित जे जीव नै, गती-गमन भगवान । स्यं अंगीकृत कीजिये? जिन कहै हंता जान । २. कर्म रहित छै जेहनें, गती-मण भगवंत ! अंगीकृत किम कीजिये? हिव जिन उत्तर तंत॥ ३. निस्संगपणे करि नैं प्रथम, अघमल ने अपहाय । नीरागपणे करि नै वली, मोह टालवै थाय॥ १. अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गती पण्णायति ? हंता अस्थि । (श० ७.१०) २. कहण्णं भंते ! अकम्मस्स गती पण्णायति ? ४. गति परिणाम करी वली, गति स्वभाव करि सोय । ___तुंबा नी परि जाणवो, आगे वर्णन होय ॥ ५. कर्म बंधन नैं छेदव, एरंड फल जिम एह । ___ इंधन कर्म विमोचवै, धूम्र तणी परि जेह ॥ ३. गोयमा ! निस्संगयाए. निरंगणयाए, 'निःसङ्गतया' कर्ममलापगमेन 'निरंगणयाए' त्ति नीरागतया मोहापगमेन । (वृ० प० २६०) ४. गतिपरिणामेणं, 'गतिपरिणामेणं ति' गतिस्वभावतयाऽलाबुद्रव्यस्येव । (वृ० प० २६०) ५. बंधणछेदणयाए, निरिघणयाए, 'बंधणच्छेयणयाए' त्ति कर्मबन्धनछेदनेन एरण्डफलस्येव 'निरन्धणताए' ति कर्मेन्धनविमोचनेन धूमस्येव । (वृ० प० २६०) ६. पुवप्पओगेणं, सकर्मतायां गतिपरिणामवत्त्वेन बाणस्येवेति । (वृ० प० २६०) ६. पूर्व प्रयोग करी वलि, सकर्मपणां रै मांय । गतिपरिणामपणे करी, बाण तणी पर थाय ॥ * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे श.५,०१, ढाल १११,११२ २११ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. इण प्रकार करिनें सही, कर्म रहित नैं देख | शिव-गति प्रति अभ्युपगमन, हिव विस्तार विशेख | वा०-हानि करी, नीरागण करी गति-परिणाम करो. बंध में छेद करी, निरंधणपण करी, पूर्वप्रयोगे करो - ए छह प्रकारे करी अकर्म नैं शिवगति अंगीकार कीजिये । इम प्रभु कह्यो । तिवारै गोतम निस्संग, नीराम, गति परिणाम ए तीन प्रश्न वली पूछे "आ तो घांरी वाण लगे हो प्रभु ! प्यारी, थांरी सूरत री बलिहारी । आ तो पांरी बाग लगे हो प्रभु ! प्यारी (ध्रुपदं ) ८. हे भगवंत ! निस्संगपणे करी, कर्म-मल दूर निवारी । निरंगणयाए नीरागपूर्ण करी, मोह कर्म में टारी ॥ ६. गइ - परिणाम ते गति नैं स्वभावे, तुंबडी नी परिधारी । कर्म रहित नैं हे प्रभ ! शिव-गति किम कीजिये अंगीकारी ? १० श्री जिन भाखे यथादृष्टति कोइक पुरुष तिवारी । सूको तूंबडी छिद्र रहित ते उत्तम अधिक उदारी ॥ (आ तो जिन वाण सदा जयकारी) अनुक्रम परिक्रमकारी । छिन मूल कुस धारी ॥ तुंबो, लेप मट्टी अठ कारी । इक इक लेग दे तड़के सुकाव, इम अठ लेप प्रकारी ॥ J ११. वायु प्रमुख करिने न हाणो दर्भ ते मूल सहित दाभे करि १२. ते डाभ कुसे करि वीं ॥ १३. सूकां छतां ते तुम्ब प्रत हिव, उदग अथाग मझारी । जेह उदक तिरियो नहिं जावै, पुरुष थी ऊंडो अपारी ॥ १४. तेह उदक में प्रक्षेप तुंबो, सुन गोतम गणधारी । ! जेह तुंबडो अष्ट माटी नैं, लेप करी तिवारी || करि, भारियताए १५. गुरुयलाए विस्तीर्णपर्ण भारी। गुरुसंभारियताए तणों अर्थ उभयवर्ष अधिकारी ॥ १६. उदक तणां तल प्रति छांडी नैं, अधो धरणि तल धारी । भूमि विषे रहे तेह तुंबडी? इम प्रभु पू तिवारी ॥ १७. हां भगवंत ! रहे कहे गोवम तब बोल्पा जगतारी । हिव ते तंब अठ लेप माटी नां, क्षय वये थके तिवारी || १८. पृथ्वी तणां तल प्रति छांडी नें उदक ऊपर रहे धारी । इम जिन पूछे गोतम बोले हां प्रभु! रहे तिवारी ॥ १६. वीर कहै तब इम निश्च करि, सुण गोयम ! सुखकारी । निस्संगपणे निरागपणं करि गति-परिणाम विचारी ॥ , * लय आवत मेरी गलियन में गिरधारी २१२ भगव ७. अकम्मस्स गती पण्णायति । (०७१११) ८. कण्णं भंते! निस्संगयाए, निरंगणयाए, ६. गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ? १०. से जहानामए केइ पुरिसे सुकं तु निच्छ ११, १२. निरुवर्य आणुपुवीए परिकम्मेमाणे- परिकम्मेमाणे दमेहिकुमेहिता अहि मट्टिया पित्ताति 'निर'ति यावाद्यनुपहतं दम्भेहि यत्ति दर्भः समूलैः 'कुसेहि य' त्ति कुश: - दर्भेरेव छिन्नमूलैः ( वृ० प० २१० ) १३. मूर्ति-भूति मुक्कं समापं अत्यामतारमपोरिसिसि १४. उदगंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से तुंबे तेसि अहं मट्टियावाणं । १५. गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुसंभारियत्ताए १६. समितिवसा आहे परणितलपट्टाणे भवइ ? १७. हंता भवइ । आहे गं से तुंबे तेस बहुमाया परि १८. धरणितलमतिवइत्ता उप्पि सलिलतलपट्टाणे भवइ ? हंता भवइ । १६. एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. अकम्मस्स गती पण्णायति । (श० ७/१२) २०. कर्म रहित नैं वर शिव-गति नों, अभ्युपगम अंगीकारी । अर्थ हिवै बंधन छेदन नों, सांभलज्यो हितकारी ।। २१. किम भगवंत ! बंधन छेदन करि, कर्म रहित नै सारी । शिव-गति नों अंगीकार करेवो! वीर कहै तिणवारी ॥ २२. यथादृष्टांत कलायज नामैं, धान तणी फलि धारी । फली मग नै उड़द तणी वलि, सिंबलि तरु नी विचारी ।। २३. अथवा एरंड तणी वलि मीजी, तावड़े दीधी तिवारी । सूकी थकी फटी निकली नैं, पडै एकंत भमि मझारी । २४. इम निश्चै करिने हे गोतम ! बंधन छेदवै सारी । ___ कर्म रहित ने वर शिव-गति नों, अभ्युपगम है उदारी ।। २५. जे भगवंत ! निरंधणपण करि, कर्म रहित नै उदारी । किम अंगीकार कर शिव-गति वर ? हिव जिन वाण उचारी ।। २६. यथादृष्टांते इंधण रहित जे, धम्र स्वभावे तिवारी । निर्व्याघातपणे ऊंची गति, तेह प्रवत जिवारी ।। २१. कहणं भंते ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ? २२. गोयमा ! से जहानामए कसिबलिया इ वा, मुग्गसिबलिया इ वा, माससिबलिया इ वा, सिबलिसिबलिया इ वा 'कलसिंबलियाइ वा' कलायाभिधानधान्यफलिका 'सिंबलि' त्ति वृक्षविशेषः। (वृ० प० २६०) २३. एरंडमिजिया इ वा उण्हे दिना सुक्का समाणी फुडित्ता णं एगंतमंतं गच्छइ। २४. एवं खलु गोयमा ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति । (श० ७।१३) २५. कहष्णं भंते ! निरिधणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ? २६. गोयमा ! से जहानामए धूमस्स इंधणविष्पमुक्कस्स उड्ढं वीससाए निव्वाधाएणं गती पवत्तति । 'विस्रसया' स्वभावेन । (वृ० प० २६०) २७. एवं खलु गोयमा ! निरिंधणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति । (श० ७।१४) २८. कहणं भंते ! पुवप्पओगेणं अकम्मरस गती पण्णायति ? २६. गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्तइ । ३०. एवं खलु गोयमा ! पुवप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति । ३१. एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, जाव (सं० पा०) पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति । (श० ७.१५) २७. इम निश्चै करि नैं हे गोतम ! कर्म इंधन अपहारी । कर्म रहित नै शिव गति संदर, कीजियै छै अंगीकारी।। २८. पूर्व प्रयोगे करि किम प्रभजी! कर्म रहित ने सारी । शिव-गति बर अंगीकार कीजिये? हिव जिन भाखै उदारी ।। २६. यथादृष्टांत धनष्य थी छूटो, कंड ते बाण तिवारी । लक्ष-वेध नै साहमो प्रवर्त, निर्व्याघात गतिकारी ॥ ३०. इम निश्च करि नै हे गोतम ! पूर्व प्रयोग विचारी । कर्म रहित नैं मोक्ष तणी गति, प्रवः सुखकारी॥ ३१. इम निश्चै करि नै हे गोतम ! निस्संगपणे उदारी । नीरागपणे जाव पूर्व प्रयोग, अकर्म नै गति सारी ।। ३२. एकोत्तर न देश ढाल ए, एक सौ बारमीं धारी । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति सारो ॥ ढाल ११३ दूहा १. कही अकर्मी नी कथा, तास, विपर्यय जेह । कर्म सहित जे जीव नीं, वक्तव्यताज कहेह॥ १. अकर्मणो वक्तव्यतोक्ता, अथाकर्मविपर्ययभूतस्य कर्मणो वक्तव्यतामाह- (वृ० ५० २६०) श० ७, उ० १, ढा० ११२,११३ २१३ Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ३. दुःखनिमित्तत्वात् दुःखं----कर्म तद्वान् जीवो दुःखी। (वृ० प० २६०) दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? ४. गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । (श०७।१६) ५. अदुःखी-अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः, सिद्धस्यापि तत्प्रसङ्गादिति । (वृ० प० २६१) ६. दुक्खी भंते ! नेरइए दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे ? ७. गोयमा ! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे । २. दुःख निमित्तज कर्म है, कर्मवंत जे जीव । तेह दुखी कर्मे करी फयों बद्ध अतीव ? ३. कै अदुखी कर्मे करी फर्यो बंध्यो स्वाम? उभय प्रश्न ए पूछिया, हिव जिन भाखै ताम ।। ४. दुखी कर्मवंत कर्म करि फर्यो कर्म बंधाय । अदुखी कर्म रहीत जे, कर्मे फयों नांय । ५. अदुखी कर्म रहीत नैं, कर्म फर्श जो थाय । तो अदुखी जे सिद्ध ने, कर्म प्रसंग कहाय ॥ ६. दुखी कर्मवंत नारकी, कर्मे फॉ जेह । अदुखी नारक अकर्मी, कर्म करी फर्शह ? ७. जिन भाखै जे नारकी, दुखी कर्मवंत जोय । दुख · निमित्त कर्मे करी, फयों ते अवलोय । ८. अदुखी अकर्म नारकी, कर्मे फर्यो नाय । अदुखी नारक छै नहीं, प्रश्न रूप कहिवाय ।। ६. पूर्व भोगव्यो नरक पद, तेह जीव ने जाण । नारक कहिय एहवं, किण ही टबै पिछाण ।। १०. नेगम नय मानै अछ, त्रिहं काल अवदात । तिण वच करि केई कहै, जाणे केवली बात ।। ११. इम दंडक यावत कह्यो, वैमानिक पर्यंत । कहिवा दंडक पंच इम, आगल नाम उदंत ।। १२. दुखी कर्मवंत जीव ते, दुख कर्मे करि ताय । फयों बांध्यो कर्म नैं, प्रथम आलाव कहाय ।। १३. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म प्रतैज ग्रहंत । निधत्त नै निकाच फुनि, समस्तपणे करत ॥ ८. नो अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे। (श० ७.१७) (श० ७।१८) ११. एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं। एवं पंच दंडगा नेयव्वा१२. दुक्खी दुक्खेणं फुडे, १३. दुक्खी दुक्खं परियायइ, 'दुःखी' कर्मवान् 'दुःखं' कर्म 'पर्याददाति' सामस्त्ये नोपादत्ते, निधत्तादि करोतीत्यर्थः । (वृ० प० २६१) १४. दुक्खी दुक्खं उदीरेइ, दुक्खी दुक्खं वेदेति, १५. दुक्खी दुक्खं निज्जरेति । (श० ७।१६) १४. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म उदीरै जेह । दुखी कर्मवंत कर्म नै, वेदै चउथो एह ।। १५. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म निरजरै जान । आलावो ए पंचमो, आख्यो श्री भगवान ॥ १६. कर्म बंध अधिकार थी, अघ बंध चित सहीत । ते अणगार तणो हिवै, कहियै सूत्र वदीत ॥ १७. *अणगार अहो भगवंत ! उपयोग रहित चालत हो । जिनवर जयकारी। उपयोग रहित पहिछाण, ऊभो रहितो जिह स्थान हो । जिनवर जयकारी॥ १८. उपयोग रहित वेसंतो, उपयोग रहित सूवंतो । वस्त्र पात्र कंबल रजुहरण, उपयोग रहित करै ग्रहण ॥ *लय : हिवै कहै के रूप श्री नार २१४ भगवती-जोड़ १६. कर्मबन्धाधिकारात्कर्मबन्धचिन्तान्वितमनगारसूत्रम् (वृ०प० २६१) १७. अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, १८. निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा, अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेहमाणस्स वा, Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. उपयोग रहित वलि मूक, इम बार बार ते चूकै । इरियावहि तसू थाय, अथवा बंधे संपराय? २०. जिन कहै इरियावहि नांय, संपरायकी किरिया बंधाय । जब गोतम पछै न्याय, किण अर्थे इम कहिवाय ? १६. निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? २०. गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ। (श० ७।२०) से केणठेणं? २१. गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति 'वोच्छिन्ने' त्ति अनुदिताः, (वृ० प० २६२) २२, २३. तस्स णं रियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ । २४. अहासुत्तं रीयमाणस्स रियावहिया किरिया कज्जइ, २१. जिन कहै क्रोध अरु मान, माया अरु लोभ पिछान हो । गोयम गणधारी॥ जिण रै उदय न होय प्रसिद्धा, उपशांत तथा क्षय कीधा हो। ___ गोयम गणधारी॥ २२. तसु इरियावहि बंधाय, हिव संपराय नो न्याय । जसु क्रोध मान अरु माय, वलि लोभ उदय कहिवाय ॥ २३. उपशांत सर्वथा नांही, वलि क्षय पिण न किया त्यांही । तसु संपरायकी किरिया, सरागी तणे उच्चरिया । २४. जिम कह्यो सूत्र में सागी, तिम प्रवर्तं वीतरागी। ते कदेई न चूकै ताय, तसू इरियावहि बंधाय ।। २५. विपरीत प्रवत्तै ताप, तसु संपरायको पाप । उत्सूत्र प्रवर्ते एह, तिण अर्थे एम कहेह ।। सोरठा २६. आख्यो ए अणगार, तेह तणां अधिकार थी । तसु भोजन पान विचार, जेह सूत्र कहियै हिवै।। २७. *अथ हिवै अहो भगवान ! चारित्र ईंधन पहिछान । अंगार कोयला देख, ते सरिखो करै विशेख ।। २५. उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ । से णं उस्सुत्तमेव रीयती । से तेणठेणं । (श० ७।२१) २६. अनगाराधिकाराच्च तत्पानकभोजनसूत्राणि (वृ० प० २६१) २७. अह भंते ! सइंगालस्स, 'सइंगालस्स' त्ति चारित्रेन्धनमङ्गारमिव यः करोति (वृ० प० २९२) २८, २९. भोजनविषयरागाग्नि: सोऽङ्गार एवोच्यते तेन सह यद् वर्त्तते पानकादि तत् साङ्गारं, (वृ०प० २६२) २८. जे भोजन विषय सुराग, तेहिज छै अग्नि अथाग । जे वर्ते अंगार सहीत, तेह सअंगार कहीत ।। २६. सअंगार पाणी नै भोजन, तेहनों स्यं अर्थ कथन ? ए प्रथम प्रश्न आख्यात, हिव द्वितीय सधूम कहात ।। ३०. चरण रूप इधण ने एह, करै धम सरीखो जेह । ए द्वेष सहित करै आहार, तेहनों कुण अर्थ विचार ।। ३१. लोलपणो आणी मन मांय, द्रव्य स् अन्य द्रव्य मिलाय । दुष्ट दोष संयोजन नाम, तसु कवण अर्थ ताम? ३०. सधूमस्स, चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वात् धूमो-द्वेषस्तेन सह यत्पानकादि तत् सधूमम् । (वृ०प० २९२) ३१. संजोयणादोसदुटुस्स पाण-भोयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? संयोजना-द्रव्यस्य गुणविशेषार्थ द्रव्यान्तरेण योजन सैव दोषस्तेन दुष्टं यत्तत्तथा । (वृ० प० २६२) ३२. गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु एसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता ३२. ए त्रिहुं प्रश्न सकज्जा, जिन भाखै निग्रंथ अज्जा । ___ फासु एषणीक चिहुं आहार, वहिरी नैं तेह तिवार ॥ *लय : हिवै कहै छ रूप श्री नार श० ७, उ० १, ढा० ११३ २१५ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. करै मुर्छा सहित आहार, दोष अजाणवा थी धार । ___ गद्धपणें आहार नैं करतो, तसु विशेष वांछा धरतो । ३४. गढिए ते आहार नै जाणो, स्नेह तंतु करि गूथांणो । ___ अज्झोववन्ने पहिछाणी, एकाग्र चित तसु जाणी॥ ३५. करै आहार सराय-सराय, चारित्र नां कोयला थाय । अंगार-सहित ए ताय, पाणी-भोजन कहिवाय ।। ३६. निग्रंथ निग्रंथी सार, निर्दोष ग्रहि चिउं आर । अप्रीतिपणो अति आणी, क्रोध थकी खेद तन ठाणी ॥ ३७. निरस आ'र करै विसराय, धूओ ऊठ चारित्र मांय । ए सधूम भोजन-पाण, हे गोतम ! इह विध जाण ॥ ३३. मुच्छिए गिद्धे 'मुच्छिए' त्ति मोहवान् दोषानभिज्ञत्वात् 'गिद्धे' त्ति तद्विशेषाकाङ्क्षावान् । (वृ० प० २९२) ३४. गढ़िए अज्झोववन्ने, 'गढ़िए' त्ति तद्गतस्नेहतन्तुभि: संदर्भित: 'अज्झोव बन्ने' त्ति तदेकाग्रतां गतः। (वृ०प० २६२) ३५. आहारमाहारेइ. एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण भोयणे । ३६, ३७. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता महयाअप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! सधूमे पाण-भोयणे । 'कोहकिलाम' ति क्रोधात् क्लमः-शरीरायासः (वृ०प० २९२) ३८. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहेर्ड 'गुणुप्पायणहेउ' ति रसविशेषोत्पादनायेत्यर्थः, (वृ०प०२६२) ३६. अण्णदव्वेणं सद्धि संजोएत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! संजोयणादोसदुठे पाण-भोयणे । ४०. एस णं गोयमा ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुदुस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते । (श० ७।२२) ३८. निग्रंथ-निग्रंथी सार, निर्दोष ग्रही चिउं आ'र । गण-रस उपजावण हेत, अति लोलपणा थी तेथ ॥ ३६. अन्य द्रव्य संघात संयोजी, इम असणादिक नों भोजी । दुष्ट दोष संयोजन आहार, पाणी भोजन ए धार ।। ४०. अंगार-सहित नों एह, सधूम नों अर्थ कहेह । दोष दुष्ट संयोजन पान-भोजन नुं ए अर्थ जान ।। गीतक छंद ४१. अथ हे प्रभू ! अंगार-रहितज, विगत-धम वखाणिय । संयोग नां फून दोष रहितज, पान-भोजन जाणिये। ४२. कुण अर्थ आख्यो ए त्रिहुं नों? एम गोयम गणहरे । वर प्रश्न पूछये छते, श्री जिनराज उत्तर उच्चरे ।। ४३. *जिन कहै संत अरु समणी, वर नीत आत्म नैं दमणी । निर्दोष ग्रही चिहुं आहार, मुर्छा रहित थको तिणवार ॥ ४१.४२. अह भंते ! वीतिगालस्स, वीयधूमस्स, संजोयणा दोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स के अठे पण्णते ? ४४. यावत इम करै आहार, चारित्र नहिं हुवै अंगार।। अंगार-रहित जल अन्न, हे गोतम ! एह सुजन्न ।। ४५. जे समणी-संत सुतोष, जाव आहार ग्रही निर्दोष । महा अप्रीति भाव मन धार, जाव विसराई न करै आहार ॥ ४३. गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु एसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता अमुच्छिए । ४४. जाव (सं० पा०) आहारेइ, एस णं गोयमा ! वीतिगाले पाण-भोयणे। ४५. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता णो महयाअप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, ४६. एस णं गोयमा ! वीयधूमे पाण-भोयणे ४६. तसु चरण में धुंओ न होय, हे गोतम ! इह विध जोय । धूम-दोष-रहित ए जाण, आख्यो है भोजन-पाण ॥ *लय : हिवै कहै छै रूप श्री नार २१६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्दोष जिम लाधो तिम आहारंत, लोलपणो ग्रही सुखकार, ४७. जे संत-सती ४८. हे गोतम ! एह पुनीतं, पाणी - भोजन कहिवाय, इम भाखे ४६. ए वीतो दोष अंगार, वलि विगत धूम सुविचार | दोष दुष्ट संयोज रहीतं, अन्न जल नुं अर्थ ए कहीतं ॥ ५०. एकोतर देश निहाल एकसी ने तेरमी ढाल । भिक्ल भारीमात ऋषिराय, मुख 'जय जय' हरष सवाय ।। 7 ढाल ११४ तिणवार । दूर तजंत ॥ संयोजन - दोष-रहीतं । श्री जिनराय ॥ दूहा १. अथ क्षेत्राविक्रांत प्रभू ! वलि मारग अतिक्रांत नुं, कालातिक्रांत कहंत । फुन प्रमाण अतिकंत ॥ २. ए च्या नां उदक नां, वलि भोजन नां जोय । अर्थ किसो जे आखियो ? ए पूछा अबलोय || ३. सूर्य संबंधी खेत्र छै, ताप खेत्र अतिक्रांत ते अतिक्रम्यो, ए ४. तेह दिवस नां पहर त्रिण, अतिक्रम्यो जे काल । कालातिक्रांत छै, वारू अर्थ निहाल ॥ ५. मार्ग अर्ध जोजन प्रत अतिक्रम्यो जे माग । ते मार्गातिक्रांत खं, मारग तणो ६. कवल बतीस प्रमाण जे अतिक्रम्यो प्रमाणातिक्रांत ते, दाख्यो धी विभाग ॥ *लय : श्री जिनवर गणधर दिन दिन हुँ । क्षेत्रातित ॥ प्रमाण । जगभाण || ७. ए चिहुं नां पाणी तणो, वलि भोजन नों अर्थ । किसुं परूप्यो हे प्रभु ! हिव जिन कहै तदर्थ | 5. ८. जे निर्भय निर्बंधी फागु एषणी रे असणादिक व्यास आहार जिवार रे। सूर्य विण ऊगे बहिरी करी रे, रवि ऊगां पाछे ते करें आहार रे । ए क्षेत्रातिक्रांत पाण भोजन कह्यो रे । ४७. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असणपाणखाइम साइमं पडिग्गाहेत्ता जहा लद्धं तहा बहारमाहारेह गोयमा संजोयणादोसविध्यमुक्के पाण ४८. एस भोयणे । ४९. एस णं गोयमा ! वीतिंगालस्स, वीयधूमस्स, संजोगादोसविण्यमुक्स पाणभोषणस्स अट्ठे पष्णते । (०७२३) 'बीइंगालस्स' ति वीतो तो रागो यस्मात द्वीताङ्गारं, ( वृ० १० २९२ ) १२. अह भंते ! खेत्तातिक्कंतस्स कालातिक्कं तस्स मग्गातिक्कंतस्स, पमाणातिक्कतस्स पाणभोयणस्स के अट्ठे ? ३. 'वेतास्तस्य' ति क्षेत्रं पूर्य सम्बन्धि साप दिनमित्यर्थः तदतिक्रान्तं यत्तत् क्षेत्रातिक्रान्तम् । ( वृ० प० २९२ ) ४. 'कालाइक्कंतस्स' त्ति कालं - दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणमतिक्रान्तं कालातिकान्तम् । ( वृ० प० २१२ ) ५. ' मग्गाइक्कंतस्स' त्ति अर्द्धयोजनमतिक्रान्तस्य । ( वृ० प० २९२ ) ६. 'पमाणाइक्कंतस्स' त्ति द्वात्रिंशत्कवललक्षणमति( वृ० प० २९२ ) क्रान्तस्य । ८. गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण पाणखाइम साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहारमाहारेद्द, एस णं गोयमा ! खेत्तातिक्कते पाण-भोयणे । श० ७, उ० १, ढा० ११३,११४ २१७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. जे निग्रंथ निग्रंथी फासु एषणी, असणादिक च्यारूं आहार जिवार । पोहर पहिला माहै बहिरी करी, भोगवै चउथा पोहर मझार ।। ए कालातिक्रांत पाण भोजन कह्यो रे ।।। १०. जे निग्रंथ निग्रंथी फासु एषणी, असणादिक च्यारू आहार जिवार। योजन अर्द्ध तणी मर्याद थी, उपरंत ले जाइ करै आहार । ए मार्गातिक्रांत पाण भोजन कह्यो रे ।। ११. जे निग्रंथ निग्रंथी फास एषणी, बहिरी असणादिक चिहं जेह । बत्तीस कुकुड़ी अंड प्रमाण छै, ते मात्र-कवल थी अधिक जीमेह । ए प्रमाणातिक्रांत पाण भोजन कह्यो रे ॥ ६. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असणपाण-खाइम-साइमं पढ़माए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! कालातिक्कते पाण-भोयणे । १०. जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! मम्गातिक्कंते पाण-भोयणे । ११. जे ण निग्गथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं बत्तीसाए कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ताणं कवलाणं आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! पमाणातिक्कते पाण-भोयणे । सोरठा १२. कुकुड़ी अंडक जाण, जे प्रमाण है मान तस । ते परिमाण पिछाण, कुकुड़ी अंडग ते का । १३. तथा कुटी जिम जाण, जीव तणां आश्रय थकी । कुटी शरीर पिछाण, अशुच-बहुल थी कुकुटी ॥ १२. कुक्कुट्यण्डकस्य यत् प्रमाणं-मानं तत् परिमाणंमानं येषां ते तथा (वृ०प० २६२) १३. अथवा कुकुटीव कुटीरमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटी–शरीरं कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी (वृ०प०२६२) १४. तस्या अण्डकमिवाण्डकं-उदरपूरकत्वादाहारः (वृ०प० २९२) १५. तस्य प्रमाणतो मात्रा द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रा। (वृ० प० २६२) कुकुट्यण्डक १४. ककटी तन कहिवाय, तेहनां अंड तणी परै । अंडक आहारज थाय, उदर पूरक नां भाव थी। १५. ककटी अंड तद्रूप, प्रमाण थी मात्रा तस । बत्तीसम अंश रूप, अंड प्रमाण मात्रा तिका ।। १६. ककड़ी अंडग प्रमाण, कवल बत्तीस ए अर्थ धर । उदर प्रमाणे जाण, द्वितिय अर्थ ए जाणवू ।। १७. प्रथम अर्थ बत्तीस, कवल कह्या जे पुरुष नां । बहुलपण ए दीस, कहुं द्वितिय अर्थ नी वात्तिका ॥ वा०-जे उदर प्रमाण आहार नी बात कही, तेहनों ए अभिप्राय-जे पुरुष नों जेतलो आहार ते पुरुष नी अपेक्षा तिण आहार नों बत्तीसमो भाग कवल । जे चउसठ आदि कवल आहार पिण किण ही स्थाने प्रसिद्ध छ । तेमां पिण एहिज कवल मान नी अपेक्षाय बत्तीस कवलां थकी प्रमाणोपेतता सिद्ध थाय छ। चउसठ कवल नुं जेनों आहार अन ते बत्तीस कवल खावै तो प्रमाणोपेतता केम थाय ? केम के पोता नां भोजन - आधु आहार प्रमाण-प्राप्त भोजन नहीं थइ सके। १८. *आठ ककड़ी नां अंड प्रमाण जे, ते मात्र कवल नों करै आहार । अल्प आहारी कहिये तेहन, कवल नों लीज्यो न्याय विचार ॥ (वीर जिनेश्वर गोतम नैं कहै रे) । १७. प्रथमं व्याख्यानं तु प्रायिकपक्षापेक्षयाऽवगन्तब्यम् (वृ० प० २६२) वा०—अतस्तेषामयममिप्रायः—यावान् यस्य पुरुषस्याहार स्तस्याहारस्य द्वात्रिंशत्तमो भागस्तत्पुरुषापेक्षया कवलः, इदमेव कवलमानमाश्रित्य प्रसिद्धकवलचतु:षष्ट्यादिमानाहारस्यापि पुरुषस्य द्वात्रिंशता कवल: प्रमाणप्राप्ततोपपन्ना स्यात्, न हि स्वभोजनस्यार्द्ध भुक्तवतः प्रमाणप्राप्तत्वमुपपद्यते। (वृ० ५० २६२) १८. अट्ट कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे * लय: श्री जिनवर गणधर २१८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बारै ककड़ी नों अंड प्रमाण जे, ते मात्र कवल नों करै आहार। ___अपार्द्ध ऊणोदरि कहियै तेहनें, आधा सं ऊणो आहार तिवार । वा०--अवड्डोमोयरियत्ति अवम-ऊणो उदर न करवू अवमोदरिका कहिये । अपकृष्ट किंचित जे ऊण अर्द्ध जे उणोदरी नै विषे तिका अपार्द्धा। बत्तीस कवल नी अपेक्षा बारह कवल नै अपार्द्ध रूपपणां थकी, अर्द्ध ऊणोदरिका में चार कवल ऊणां ते माटै । २०. सोल ककड़ी नां अंड प्रमाण जे, ते मात्र कवल नो कर आहार । बे भाग अर्द्ध प्राप्ति तेहने कह्यो, अर्द्ध ऊणोदरिका ते सार ॥ १६. दुवालस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे अवड्ढोमोयरिए, वा०–'अवड्डोमोयरिय' त्ति अवमस्य-ऊनस्योदरस्य करणमवमोदरिका, अपकृष्टं-किञ्चिदूनमर्द्ध यस्यां साऽपार्द्धा द्वात्रिंशत्कवलापेक्षया द्वादशानामपार्द्धरूपत्वात् । (वृ० प० २६२, २६३) २०. सोलस कुक्कूडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे दुभागप्पत्ते, द्विभाग:-अर्द्ध तत्प्राप्तो द्विभागप्राप्त आहारो भवतीति गम्यम् (वृ० प० २६२) २१. चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाणे जाव आहारमाहारेमाणे ओमोदरिए, २१. चउवीस कुकड़ी नां अंड प्रमाण जे, जाव करतो ऊणोदरी जाण । ही ना अड प्रमाण जं, जाव करतो ऊणोदरी जाण। जाव शब्द में पाठ कह्या तिके, सूत्र उववाई' सू पहिछाण ॥ सोरठा २२. जाव शब्द में ताहि, कहियै प्राप्त उणोदरी । बीजा अर्द्ध रै मांहि, मध्य भाग प्राप्तज कह्यो। २३. कवल बत्तीस प्रसिद्ध, तीन भाग लीधा तिणे । चोथो भाग न लिद्ध, प्राप्त कहीजै तेहनें ॥ २४. कवल लिये इकतीस, किंचित ऊण उणोदरी । ए सहु अर्थ जगीस, जाव शब्द में जाणवा ॥ २५. *बत्तीस कुकुड़ी नां अंड प्रमाण जे, ते मात्र कवल नों करतो आहार । प्रमाण-प्राप्त आहार कहियै तसु, ए पुरुष मर्याद प्रमाण विचार ॥ २६. एहथी इक ग्रास--कवलिय ऊण जे, आहार करै श्रमण निग्रंथ । तसु अधिक सरसभोजी कहियै नहीं, सूत्रे इम भाख्यो छ भगवंत॥ २७. हे गोतम ! ए क्षेत्रातिक्रांत नां, कालातिक्रांत तणां वलि जाण । मार्गातिक्रांत प्रमाणातिक्रांत नां, पाण भोजन नां अर्थ पिछाण ॥ २५. बत्तीसं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे पमाणपत्ते, २८. अथ प्रभ! अग्नि आदि शस्त्रेकरी, ऊतर्यो ते शस्त्रातीत कहाय । कदा अपरिणत ह पहुंकादिक नी परै, तिण सुं हिव आगल कहियै ताय । २६. शस्त्र परिणमियो वर्णादिक फिर्या, अचित्त ए प्रासुक कहीजै ताय । विशुद्ध गवेषण करी गवेषियो, एसिय एषणीक सुखदाय ।। *लय : श्री जिनवर गणधर १. ओवाइय सू० ३ २. पृथुक, चिवड़ा। २६. एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गथे नो पकामरसभोईति बत्तव्यं सिया। २७. एस णं गोयमा ! खेत्तातिक्कतस्स, कालातिक्कतस्स, मग्गातिक्कतस्स, पमाणातिक्कंतस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते । (श०७।२४) २८. अह भंते ! सत्थातीतस्स, शस्त्राद्-अग्न्यादेरतीतं-उत्तीणं शस्त्रातीतं, एवंभूतं च तथाविधपृथुकादिवदपरिणतमपि स्यादत आह (वृ०प० २६३) २६. सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स, 'सत्थपरिणामियस्स' त्ति वर्णादीनामन्यथाकरणेनाचित्तीकृतस्येत्यर्थः, अनेन प्रासुकत्वमुक्तं, 'एसियस्स' त्ति एषणीयस्य गवेषणाविशुद्ध्या वा गवेषितस्य । (वृ० प० २६३) श०७, उ० १, ढा० ११४ २१६ Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. वेसिय विशेष थकी गवेषियो, अथवा जे विविध प्रकारे ताहि । ग्रहण भोगेषण करि विशुद्ध नै व्येषित अर्थ प्रथम वृत्ति मांहि ॥ ३१. अथवा मुनि वेष करीज गवेषियो मुनि नां आकार मात्र थी पामियो, पिण गुण कीर्तन करनें लीधो नाहि । वैषिक अर्थ द्वितीय वृत्ति मांहि ॥ सोरठा ३२. इण वचने करि जाण, तर्ज मुनी गुणस्त्राण, आगल तेह उत्पादन नां दोष फुन । कहीजिये ॥ ३३. * सामुदाणिक ते बहुला घर तणों, जे इक घर बहु लीधां आरंभ हुर्व लेवं मुनि पाणी भोजन सार । इण विध नहिं लेवै अणगार ॥ ३४. शस्त्रातीत नैं शस्त्रपरिणम्यो एसिय वेसिय नै समुदान । पाण भोजन नो अर्थ किसो कह्यो ? ए पांचू न पूछो अर्थ प्रधान ॥ ३५. श्री जिन भावे सांभल गोवमा ! निर्बंध अथवा निग्रंथी लोय केहवो निग्रंथ मुनीश्वर तेहना कहिये विशेषण आगल दोष || ३६. शस्त्र खड्गादिक मूसल छांडिया, * लय : श्री जिनवर गणधर १. पीठी २२० भगवती जोड़ पुष्पमाल वण्णक' चंदन चर्चण तज्यू, ए प्रथम विशेषण मुनि नों जाण । ए द्वितीय विशेषण मुनि नो माण | सोरठा ३७. मुनि उभय विशेषण स्वात हिव शस्त्रातीत प्रमुख तणुं । कवण अर्थ जगनाथ ! पूछयो ते कहियै अछे ॥ ३८. * भोगववा जोग जेह वस्तु विषे, उपनां वा आया जे कीड़ादि । ते वस्तु थी पोते इज न्यारा वया, ए ववगव शब्द नुं अर्थ संवादि ॥ ३२. असनादिक आहार सचित्त वस्तु अच्छे पुढवि जल अन्न प्रमुख कहिवाय । चय कहितां जंतु आफै चव्या अथवा जे पर थी चविया ताय ॥ ४०. भोगववा जोग अचित्त जे द्रव्य थी, त्रस चश्य कहितां अन्य पास कढाविया, हिवै थावर जीव प्रतै दातार । चत्तदेहं नो अर्थ विचार । ३०. वेसियस्स, विशेषेण विविधैर्वा प्रकाररेषितव्येषितं ग्रहीषणाप्रसंगवशोषितस्य (१०१०२३) २१. अथवा बेोमुनिनेपथ्यं स हेतुभिस्तद् वैषिकम् -- आकारमात्र दर्शनादवाप्तं न त्वावज्र्ज्जनया ( वृ० प० २६३ ) ३२. अनेनपुनरुत्पादनादोषापोहमाह ( वृ० प० २९३ ) ३३. सामुदाणियस्स ततस्ततो भिक्षारूपस्य । ३४. पाण- भोयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? ( वृ० प० २६३ ) ३५. गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा ३६. नित्यमुपमालवण-विलेवणे 'निक्सिसत्यमुले' विगादिशस्वमुनः 'ववगयमालावन्नगविलेवणे' त्ति व्यपगतपुष्पमाला चन्दनानुलेपनः ( वृ० प० २९३) ३८. ववगय व्यपगताः स्वयं पृथग्भूता भोग्यवस्तुसंभव आगन्तुका वा कृम्यादयः । (४० प० २९३ ) ३६. चुय च्युता — मृताः स्वत एव परतो वाऽभ्यवहार्यवस्त्वात्मकाः पृथिवीकायिकादयः । ( वृ० प० २६३ ) ४०. चइय 'य' तित्याजिता भोग्यद्रव्यात् पृचस्कारिता दायकेन । ( वृ० प० २९३ ) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. भोगविवा जोग अचित्त जे द्रव्य थी, देहं ते जीव सहित तन तास । ४१. चत्तदेह, चत्त दायक स्वयमेव जुदा किया, इहां देही अरु देह अभेद विमास ॥ 'चत्त' त्ति स्वयमेव दायकेन त्यक्ता-भक्ष्यद्रव्यात् पृथक्कृता । 'देहा' अभेदविवक्षया देहिनो यस्मात् स सोरठा तथा तमाहारं, (वृ० प० २९३) ४२. ववगयादि पद च्यार, वृद्ध व्याख्या कर तसं अरथ । आख्युं जेह उदार, तेह अर्थ कहिये हिवै। ४३. *वृद्ध व्याख्या तो ववगय ओघ थी, चेतन पर्याय थकी रहीत । ४३. वृद्धव्याख्या तु व्यपगत:-ओघतश्चेतनापर्यायादपेत: चुय जीवन-क्रिया थी भ्रष्ट छ, चइय आयु क्षय करी कथीत ॥ च्युतः-जीववक्रियातो भ्रष्टः च्यावितः-स्वत एवायुष्कक्षयेण भ्रशितः। (वृ० प० २६३) ४४. संसर्ग थकी जे असणादि विषे, आवी ऊपनां छै जे त्रस जीव । ४४. त्यक्तदेहः----परित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवोपचयः, आहार थकी जे जंतु नीकल्या, ए चत्तदेहं न अर्थ कहीव ॥ (वृ० प० २६३) ४५. पूर्वे स्यं बात कही ते हिवै कहै, जीवविप्पजढं फासु ताहि । ४५,४६. जीवविप्पजढं, अकयं, अकारियं, दायक मनि अर्थ आहार कियो नहीं, 'जीवविप्पजढं' ति प्रासुकमित्यर्थः । अकृतं-साध्वर्थफुन दायक अन्य पास करायो नांहि ॥ मनिर्वतितं दायकेन, एवमकारितं दायकेनैव, अनेन विशेषणद्वयेनानाधाम्मिक उपात्तः ।। सोरठा (वृ० प० २६३) ४६. साध अर्थे आहार, न कियो नहीं करावियो । ए उभय विशेषण धार, अणआधार्मिक तणां ।। ४७. *प्रारंभ्यो छै पोता नैं कारण, ४७. असंकप्पियं, तेह आहार निपजायो पिण निज काज । 'असङ्कल्पितं' स्वार्थ संस्कुर्वता साध्वर्थतया न मनि नैं अथ ते निपजायो नहीं, ते असंकल्पित लेवै मुनिराज ।। सङ्कल्पितं (वृ० प० २६३) सोरठा ४८. प्रारंभ्यो निज काज, ते पछै निपायो मनि अरथ । ४८. स्वार्थमारब्धस्य साध्वथं निष्ठां गतस्याप्याघाकम्मिकसंकल्पितक समाज, ते पिण आधार्मिकः ॥ त्वात । (वृ० प० २६३) ४४. प्रारंभ्यो स्व निमित्त, निपजायो पिण निज अरथ । ४६. अनेनाप्यनाधाकम्मिक एव गृहीतः । एह असंकल्पित्त, अणआधाकर्मी तिको॥ (वृ०प० २६३) ५०. *गृही कहै नित्य प्रति मुझ घर बहिरियै, ५०. अणाहूयं, ते नियपिंड नहिं लेवै मनिराय । न च विद्यते आहूतं-आह्वानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे अथवा साहमो आण्यो लेवै नहीं, ए अणाहूयं नो अर्थ कहाय ॥ पोषमात्रमन्नं ग्राह्यमित्येवंरूपं कर्मकराद्याकारणं वा साध्वर्थं स्थानान्तरादनाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूत: अनित्यपिण्डोऽनभ्याहृतो वेत्यर्थः। (वृ०१० २६३) ५१. कृतगड-मोल लियो लेवे नहीं, उद्देशक नहिं लेवै अणगार । ५१. अकीयकडं, अणुद्दिठं, नवकोडीपरिसुद्ध, नव ही जे कोटि करिनै विशुद्ध छ, कोटि विभाग आगल इम धार ॥ इह कोटयो विभागास्ताश्चेमा:- (वृ० प० २६४) सोरठा ५२. बीजादिक जे जीव, हणे हणावै नहिं मुनि । ५२. बीजादिकं जीवं न हन्ति, न घातयति, घ्नन्तं अनुमोदै न सदीव, कोटि विभागज तीन ए॥ नानुमन्यते ३, (वृ० प० २६४) * लय : श्री जिनवर गणधर श०७, उ० १, ढा० ११४ २२१ Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. पचवा नां पिण तीन, मोल लेवा नां तीन इम । ५३. एवं न पचति ३ न क्रीणाति ३ इत्येवंरूपाः, ए नव कोटि कथीन, तिण कर विशुद्ध लै मनि ।। (वृ०प० २६४) ५४. *शंकित मक्खित आदि देइ करि, एषणा नां दस दोष रहीत । ५४. दसदोसविप्पमुक्कं, ए दोष लागै ग्रहस्थ साधु थकी, वर्जे ते महामुनि वर नीत ॥ दोषा:-शङ्कितम्रक्षितादयः। (वृ० प० २६४) १५. आधाकर्मादि सोल उद्गम तणां, सोलै उत्पादन धाई आदि । ५५. उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसुद्ध, एषणा पिंड विशुद्धपणे करी, सुष्ठु परिशुद्ध पवर संवादि ।। उद्गमश्च-आधाकादि: षोडशविधः उत्पादना च-धात्रीदूत्यादिका षोडशविधैव उद्गमोत्पादने एतद्विषया या एषणा-पिण्डविशुद्धिस्तयासुष्टु परिशुद्धो यः स उद्गमोत्पादनेषणासुपरिशुद्धोऽतस्तम्, (वृ० प० २६४) ५६. आख्या अणआख्या इहां संग्रह किया, अंगार धूम दोष थी रहीत । ५६. वीतिगालं, वीतधर्म, संजोयणादोसविप्पमक्क ' संयोजन दोष करी विषमुक्त छै, इह वचने कर ग्रास एषणा रीत ।। अनेन चोक्तानुक्तसङ्ग्रहः कृतः वीताङ्गारादीनि क्रिया वा०-इहां पाठ में दश दोष-विप्रमुक्त कह्यो, तिहां वृत्तिकार शंकित, विशेषणान्यपि भवन्ति, प्रायोऽनेन च ग्रासैषणामेक्षितादिक कह्या । अनै पाठ में उद्गम, उत्पादन कह्या । तिहाँ वृत्तिकार विशुद्धिरुक्ता । (वृ० प० २६४) उद्गम ते आधाकर्मादि सोल प्रकार अनै उत्पादन ते धाई इत्यादिक सोलविध, अनै दस दोष एषणा नां-इम संक्षेप करिकै ४२ दोष कह्या । अनै भगवती टबा री, तेहनां पाना १८२२, तेहनै विषे अर्थ में सोले उद्गम तणां, सोले उत्पादन तणां, दस एषणा नां, और पांच मंडला ना-एवं ४७ दोष कह्या, तिण अनुसारे लिखिये छ। हिवं आहार ना ४७ दोष लिखिय छैतत्र षोडश दोषाः दातारतः समुत्पद्यते आहाकम्मुद्देसिय पूइकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए पाओयर कीयपामिच्चे ॥ परियट्टिए अभिहडे उब्भिन्ने मालोहडे य । अच्छिज्जे अणिसिट्ठ अज्झोयरए सोलस पिडुगम्मे दोसा ॥ अथ षोडश उद्गमदोषा:तत्र साधुनिमित्तं पाचयित्वा दीयते तदाधाकर्मिकं । यः आगमिष्यति तत्उद्दिश्य निष्पाद्यते तदुद्देशिकं । यदाधाकर्मी-आहार-खरंडित-दर्वी-प्रमुखेण ददाति स पूतिकर्मदोषः । यतिनिमित्तं कुटुंबनिमित्तं च एकत्र पाच्यते पश्चात् साधुभ्यो दीयते स मिश्रजातिदोष. । साधुनिमित्तं संस्थाप्य मुंचति स स्थापनादोषः । साधुनिमित्तं प्राघूर्णकान् पूर्व पश्चाद् वा भोजयति स प्राभृतिकादोषः । अंधकारस्थाने उद्योतं कृत्वाऽप्यति स प्रादुष्करणदोषः । विक्रीतं गृहीत्वा साधवे ददाति स क्रीतदोषः । उद्धारकं ग्रहीत्वा साधवे दद्यात् स प्रामित्यदोषः । दातव्यवस्तुनः परावर्त कृत्वा साधवेऽप्यति स परिवर्तितदोषः । आहारादिकं सन्मुखमानीयाऽर्पयति सोभ्याहृतदोषः । यंत्रकमुद्राकपाटादिकमुद्घाट्याऽर्पयति साधवे स उभिन्नदोषः। उच्चनीचतिर्यविकटभूमित: आहारमुत्तार्य साधवे ददाति स मालापहृतदोषः। स्वयं बलवत्तया अन्यनिर्बलपादिवदाल्य साधवेऽर्पयति सोऽच्छिद्यदोषः । वस्तुनः स्वामिनी द्वौ, भावं विना द्विस्वामिकं वस्तु *लय : श्री जिनवर गणधर २२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education Intermational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधवे ददाति सोऽनिसृष्टदोषः । साध्वाऽऽगमनं श्रुत्वा पच्यमानान्नविषयेऽध्यवपूरयत्यऽन्नं सोऽध्यवपूरकदोषः । एते षोडश दोषा उद्गमदोषा उच्यते । अथ षोडश दोषाः साधुतः समुत्पद्यते, तदाह धाई दूइनिमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए॥ पुविपच्छासंथव, विज्जामंते य चुण्णजोगे य । उप्पायणाइदोसा, सोलसमे मूलकम्मे य॥ तत्र धाइत्ति धात्री मातृवत् बालकस्य क्रीडां विधाय आहारं गृण्हाति स धात्रीदोषः । दूतवल्लोकानां संदेशं कथयित्वा आहारं गृण्हाति स दूतिदोषः । नैमित्तिकवन्निमित्तं भाषयित्वा आहारं गृह्णाति स निमित्तदोषः । आत्मनो जातिकुलादिक ज्ञापयित्वा आहारं गृण्हाति स आजीवदोपः। रंकवत् दीनत्वं भाषयित्वा आहार गृह्णाति स बनीपकदोषः । वैद्यवत् चिकित्सां विधाय आहारं गृह्णाति स चिकित्सादोषः । क्रोधेन आहारं गृह्णाति स क्रोध-दोषः । अहंकारेण आहारं गृह्णाति स मानदोषः । कपटेन वेषं परावर्त्य आहारं गृह्णाति स मायादोषः। लोभेन बहु आहारं गृह्णाति स लोभदोषः । आहारग्रहणात् पूर्वं पश्चाद्वा दातारं व्याख्याति संस्तौति स पूर्व-पश्चात्-संस्तवदोषः । कार्मणमोहनवशीकरणादिकं कृत्वा आहारं गृह्णाति स विद्या-दोषः । मंत्रतंत्रादिकं कृत्वा आहारं गृह्णाति स मंत्रदोषः । अक्षण: चूर्णं दत्वा आहारं गृह्णाति स चूर्णदोषः । सौभाग्यार्थं स्वपदे लेपं कृत्वा आहारं गृह्णाति स योगदोषः । यः आहारार्थं गर्भस्य सातनपातनादिकं करोति स मूलकर्मदोषः । एते षोडश उत्पादन दोषाः । एवं जाता द्वात्रिंशत् । अथ आहारस्य गवेषणायाः दश दोषानाह संकियमक्खियनिक्खित्तपिहियसाहरियदायगुम्मीसे । अपरिणयलित्तछद्दिय एसणदोसा दस हवंति ॥ संकियत्ति दायकस्य वा साधोः शंका समुत्पद्यते इदं शुद्ध अशुद्ध इति शंकादोषः । सचित्तपृथिव्यादिना खरंडितहस्तेन गृह्णाति स म्रक्षितदोषः । आहारः सचित्तवस्तूपरि मुक्तो भवति स निक्षिप्तदोषः। सचित्तेनाऽऽच्छादितं यद्भवति स पिहितदोषः । येन कटोरिकादिना दातुमिच्छति तस्मिन् सचित्तादिकमस्ति तदन्यत्र क्षिप्त्वा ददाति स संहृतदोषः । अंधादिदायकस्य हस्तेन गृह्णाति स दायकदोषः । अयोग्यंसचित्तमचित्तमेकत्र भवति तन्मध्ये अचित्तं गृह्णाति स उन्मिश्रदोषः । यद्वस्तुनि संपूर्णशस्त्रपरिणतो न भवति सोऽपरिणतदोषः । हस्तं खरंडयित्वा पश्चात् हस्तं प्रक्षालयति स लिप्तदोषः । अन्नादिकं विकीर्णमान: सन्मानयति स छदितदोषः । इमे दश एषणा दोषा उभयतः समुत्पद्यते । एवं जाता द्वाचत्वारिंशत् दोषाः । अथ संयोजनादि पंच दोषा भोजनसमये साधुभिस्त्याज्यास्तेषां नामान्याह संजोयणापमाणे इंगाल-धूम-कारणे । बसेहिं बहिरंतरे वा रसहेउं दव्वसंजोगा। स्वादहेतवे क्षीरखंडघृतादिकमेकत्रीविधाय पश्चाद् भुंक्ते स संयोजनादोषः । श०७, उ०१,ढा०११४ २२३ Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमात्रया प्रमाणमुल्लंघ्य आहारं करोति स प्रमाणदोषः दातृपुरुषस्य व्याख्यानप्रशंसाकरणत्वेन चारित्रस्य अंगारतुल्यं करोति स इंगालदोषः । नीरसाहारनिंदाकरणत्वेन चारित्रस्य धूम्रतुल्यं करोति स धूम्रदोषः । षट्कारणं विना आहारं गृह्णाति स कारणदोषः । षट् कारणान्याह वेयणवेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छठे पुण धम्मचिन्ताए ॥ (उ० २६।३२) ११ दोषों के नाम स्थानांग में-- (१) आहाकम्मिय (२) उद्देसिय (३) मीसजाय (४) पाओयर (अज्झोयरय) (५) पूतिय (६) कीत (७) पामिच्च (८) अच्छेज्ज (8) अणिसट्ट (१०) अभिहड (६।६२) (११) ठवणा नोट-ठाणं में पाओयर' के स्थान पर 'अज्झोयरय' पाठ मिला है और 'स्थापना' दोष का नाम उस प्रसंग में नहीं है । जयाचार्य को उपलब्ध किसी प्रति में ११ दोषों का नाम रहा होगा।] १५ दोषों के नाम निशीथ में (१) धाइपिंड (२) दूतिपिंड (३) णिमित्तपिंड (४) आजीवियपिंड (५) वणीमगपिंड (६) तिगिच्छापिंड (७) कोहपिंड (८) माणपिंड (६) मायापिंड (१०) लोभपिंड (११) विज्जापिंड (१२) मंतपिंड (१३) जोगपिंड (१४) चुण्णपिंड (१५) पुव्वंपच्छा (१३।६१ से ७५) [नोट-निशीथ में चौदह दोषों के नाम यथावत् हैं । वहां पुव्वंपच्छा के स्थान पर अंतद्धाणपिंड है । संभव है जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में यही नाम होगा।] २२४ -भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ दोष का नाम आचारांग में (१) परियट्ट ४ दोषों के नाम भगवती में (१) सइंगाल (२) सधूम (३) संजोयणा (७।२२) (४) पाहुडेभोइ [नोट-'पाहुडेभोइ' दोष भगवती की उपलब्ध प्रति में नहीं मिला ।] १ दोष का नाम प्रश्नव्याकरण में (१) मूलकम्म (२।१२) १३ दोषों के नाम दशवकालिक में (१) उभिन्न (५।११४५,४६) (२) मालोहड (५२११६६) (३) अज्झोयर (५।११५५) (४) संकिय (५।१।४४,७७) (५) मक्खिय (५।१।३३,३४) (६) निक्खित्त (१३५६,६१) (७) पिहिय (५।१।४५) (८) साहरिय (२१।३०) (६) दायग (५।२।१२) (१०) मिस्स (५।११५५) (११) असत्थपरिणय (५।२।२३) (१२) लित्त (२१।२१) (१३) छद्दिय (५।१।२८) [नोट-जयाचार्य ने छद्दिय दोष का उल्लेख किया है । दशवकालिक की मुद्रित प्रतियों में ऐसा कोई दोष उल्लिखित नहीं है। इसके स्थान पर परिसाडिय दोष का उल्लेख है । जयाचार्य ने 'छद्दिय' शब्द किस प्रति के आधार पर दिया ? यह अन्वेषणीय है। २ दोषों के नाम उत्तराध्ययन में (१) कारण (२६।३१) (२) अप्रमाण (१६।८) एवं सर्व मिली ४७ दोष थया । ५७. *सुर-सुर चव-चव शब्द करै नहिं, अति शीघ्र, अति धीरै न करै आहार । शाक शीतादिक नु अणछोडवू, इण विध आहार करै अणगार ॥ ५७. असुरसुरं, अचवचवं, अदुयं, अविलंबियं, अपरिसाडि, 'अदुयं' ति अशीघ्रम् 'अविलंबियं' ति नातिमन्थरं 'अपरिसार्डि' ति अनवयवोज्झनम् (वृ० प० २६४) * लय : श्री जिनवर गणधर श०७, उ०१, ढा० ११४ २२५ Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. गाडा नं पेडं जिम वांगण विना, चाल नहीं तिम विगयादि लेह । जिम ओषधि करि लेप करै वर्ण रूंधवा, तिम स्वाद रहित मुनि आहार करेह ।। ५६. संजम यात्रा चारित्र पालवू, तेहिज मात्रा कहिये एह । घणां आलंबन नों ए अंश छ, तिण अर्थे प्रवृत्ति आहार विषेह ।। ५८. अक्खोवंजण-वणाणुलेवणभूयं, अक्षोपाञ्जनं च-शकटधूम्रक्षणं व्रणानुलेपनं चक्षतस्यौषधेन विलेपनं अक्षोपाञ्जनवणानुलेपने ते इव विवक्षितार्थसिद्धिरशनादिनिरभिष्वङ्गतासाधाद् यः सोऽक्षोपाञ्जनव्रणानुलेपनभूतः (वृ० प० २६४) ५६. संजमजायामायावत्तियं, संयमयात्रा-संयमानुपालनं संव मात्रा-आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रामात्रा तदर्थं वृत्ति:--प्रवृत्तिर्यत्राहारे स संयमयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तम् । (वृ० प० २६४) सोरठा ६०. चरण पालण रा सोय, बहु आलंबण तेहनों । एक अंश अवलोय, मुनिवर आहार करे जिको । ६१. *संजम तेहिज भार कहीजिय, तसू वहिवं ते चरण पालवू सार । तेहिज अर्थ प्रयोजन छै तसु, ते संजम भार वहण अर्थ धार । ६१. संजमभारवहणट्ठयाए संयम एव भारस्तस्य वहनं-पालनं स एवार्थः संयम भारवहनार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्यै, (वृ०प० २६४) ६२. बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणणं आहारमाहारेइ, ६२. ते संजम भार वहण अर्थ कारणे, पूर्व रीत कही तिम सार । बिल विषे जिम पन्नग नी परै, __ निज आतम कर आहार करै अणगार ॥ सोरठा ६३. जिम भजंग बिल मांहि, करै प्रवेशज आत्म प्रति । निज पसवाड़ा ताहि, तेह प्रतै अणफर्शतो॥ ६४. इम मुनि पिण सुगुणेण, मुख कंदर पासा प्रतै । अफर्शत आहारेण, अशन प्रवेशै जठर-बिल ॥ ६३. यथा किल बिले सर्प आत्मानं प्रवेशयति पार्खानसंस्पृशन् (वृ० प० २६४) ६४. एवं साधुवंदनकन्दरपाॉनसंस्पृशन्नाहारेण तदसञ्चारणतो जठरबिले आहारं प्रवेशयतीति । (वृ० प० २६४) ६५. लोलपणे भावेह, फर्श नहिं मख पार्श्व प्रति । लोलपणां विण तेह, दोष नहीं छै फर्शवै ॥ ६६. *शस्त्रातीत शस्त्रपरिणत बलि, जावत पाण भोजन नुं धार । अर्थ परूप्यो गोयम ! एहवं, सेवं भंते! सेवं भंते! प्रभु वच सार॥ ६६. एस णं गोयमा ! सत्थातीतस्स सत्थपरिणामियस्स, जाव (सं० पा०) पाण-भोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते। (श० ७।२५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श०७।२६) ६७. सत्तम शतक उद्देशो धुर कह्य, आखी इकसौ चिहुंदसमी ढाल । भिक्ष नै भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति हरख विशाल ॥ सप्तमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥७॥१॥ * लय : श्री जिनवर गणधर २२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ११५ १. प्रथमोद्देशके प्रत्याख्यानिनो वक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु प्रत्याख्यानं निरूपयन्नाह- (वृ० प० २६४) दूहा १. प्रथम उदेश विषे कह्या, पचखाणी पहिछाण । द्वितीय उदेशक नै विषे, कहिये बलि पचखाण ।। _ *जिनजी जयकारी ।। (ध्र पदं) २. हे प्रभ ! ते निश्चै करी, सर्व प्राण सर्व भत रे । सर्व जीव सर्व सत्व नों, म्हे वध पचख्यो सूत रे ।। ३. इम कहितां ने स्वामजी, सुपचखाणज थाय ? दुपचखाण हुवै सही? इम पूछ ये जिन वाय ।। ४. सर्व प्राण जावत बली, सर्व सत्व में सोय । हणवा नों त्याग कियो अछ, इम कहै तेहने जोय ।। ५. सुपचखाण हुवै कदा, दुपचखाण किवार । किण अर्थे ? तब जिन कहै, सांभल मुनि सुखकार ।। वाल-सिय सुपच्चक्खायं सिय दुपच्चक्खायं इम प्रभु कह्यो। हिवै पहिला दुपचखाण नो न्याय प्रभ कहै ते किम ? तेहनो उत्तर-जे यथासंख्य न्याय ते अनुक्रम न्याय । जे पहिला सुपचखाण नुं वर्णन करिवू ते तजीनं यथाआसन्नता न्याय ते नजीकपणां नो न्याय अंगीकार करी. जे दुपचखाण शब्द नजीक ते माट ते नजीक अंगीकरी पहिला दुपचखाण नुं वर्णन करिय छ । ६. सर्व प्राण जाव सत्व नैं, म्हे पचख्या है सदीव । एम कहै तिण जीव नैं, न जाण्या जीव-अजीव ।। ७. एह जीव ए अजीव छ, ए त्रस स्थावर एह । इण रीते जाण्यां विना, बलि भाखै छै तेह ।। ८. सर्व प्राण जाव सत्व ने, म्हे पचख्या इम वाय । वदतां दुपचखाण छै, सुपचखाण न थाय ।। सोरठा ६. वृत्ति टबै ए वाय, जाण्यां विण जे जीवड़ा । ते पालै नहिं ताय, सुपचखाण न ते भणी ॥ १०. जीव न जाण जेह, जाण्यां विण जे जीव नां ॥ त्याग केम पालेह, तिण सूं दुःपचखाण छ । ११. *इम निश्चै करि गोयमा ! दुपचखाणी छ तेह । सर्व प्राण जाव सत्व नों, निज पचखाण वदेह ।। २. से नूर्ण भंते ! सव्वपाणेहि, सव्वभूएहिं, सव्वजीवेहिं, सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायं३. इति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति ? दुपच्चक्खायं भवति ? ४. गोयमा ! सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खाय मिति वदमाणस्स ५. सिय सुपच्चक्खायं भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति । (श०७।२७) से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ वा०-'सिय सुपच्चक्खायं सिय दुपच्चक्खायं' इति प्रतिपाद्य यत्प्रथमं दुष्प्रत्याख्यानत्ववर्णनं कृतं तद्यथासंख्यन्यायत्यागेन यथाऽऽसन्नतान्यायमङ्गीकृत्येति द्रष्टव्यम् । (वृ० प० २६५) ६,७. गोयमा ! जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स णो एवं अभिसमन्नागयं भवति इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, ८. तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स नो सुपच्चक्खायं भवति, दुपच्चक्खायं भवति । ९. ज्ञानाभावेन यथावदपरिपालनात् सुप्रत्याख्यानत्वा भावः, (वृ०प० २६५) ११. एवं खलु से दुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं । * लय : मामा ठग लागो श०७, उ०२, ढा० ११५ २२७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य १२. हे पचवाण कीधा असे इम कहिता ने जोय । भाषा बोले नहीं, मृषा बोले सोय ॥ १२. मृषावादी ते खरो इम निश्च करि धार सर्व प्राण जाव सत्व नों, त्रिविध-त्रिविध वधकार ॥ १४. करण करायण अनुमति एहिं करणे । ह मन वचन काया करे, मि जोगे करि तेह।। १५. त्रिविध-त्रिविध इम असंजती, अविरति विरति रहीत । पाप कर्म पचखाण थी, न हप्या हड़ी रीत ॥ १६. सकिरिए क्रिया सहीत, काइया प्रमुख विचार | असंवुडे अणसंवर्या, पांचूई आश्रव द्वार ॥ १७ एकांत कहितां सर्वथा, निश्चै दंडे - हण पर प्राण नै एगंत १८. तेहिज एकांत बाल छै, सर्वथा निश्च जेह | बाल-विरति नहि आदरी, अधिक अजाण कहेह || सोरठा १२. 'इहां जाण्यां विण जीव, त्याग कियां थी तेहनां । दुपचखाण कहीव, जाण्यां विण किम पालियै ॥ २०. जीव सादिक जेह जाणी तसु हणवा तणां । जो पचखाण करेह, पिण समदृष्टी ते नहीं ॥ दुपचखाण कहीजिये । २१. सुंबर आधी तास, आश्री संबर गुण सुविमास कर्म रोकण नो तसु नहीं ॥ २२. हिंसादिक पहिछाण त्यागी मिथ्याती त निर्जरा लेर्स जाण, सुध पचवाण कहीजिये ॥ २३. सप्तम उत्तरज्भयण, वर गाथा जे बीसमी । धुर गुणठाणे वयण कह्यो सुव्य स्वामजी ॥ २४. देश आराधक जाण, धुर गुणठाणां नों धणी । अष्टम शतक पिछाण, दशम उदेशे भगवती ॥ करि ते जान । दंड पिछान ॥ २२० भगवती -जोड़ 1 २५. सूत्र विपाक महार सुमुख दान दे मुनि भणी । कियो परित संसार मनुष्य आउखो बांधियो ॥ १२. पच्चक्खायमिति वदमाणे ना सच्चं भासं भासइ, मोसं भासं भासइ । १३. एवं खलु से मुसावाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि तिविहं तिविहेणं १४. 'तिविह' ति त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदभिन्नं योगमाश्रित्य 'तिविहेणं' ति त्रिविधेन मनोवाक्कायलक्षणेन करणेन ( वृ० प० २६५ ) १५, असंजय - विरय-पडिय-पच्चक्खायपावकम्मे, १६. सरिए 'सकिरिए' ति काविषयादिक्रियायुक्तः सम्वन्ध वात एव 'असंवुढे' ति तावद्वारः । ( ० १० २९५ ) १७. एगंत दंडे, एकान्तेन सर्वदेव परान् दण्डयतीत्येकान्तदण्डः । ( वृ० प० २२५) १५. एगंतबाले यावि भवति । २३. वेमायाहि सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया । ( उत्तरम्भणं ७।२० ) २४. ''''''''तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं — उवरए अविण्णायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते । (भगवई ० ८४५० ) २५. तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं मागणं दायकसुद्धेणं तिविद्वेगं तिकरणसुद्वेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परितीकए ( विपाक २।१।२३ ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। २६. गज भव मेषकुमार, परित संसार दया धुर गुणठाणे धार, नर आयू वांध्यो तिथे ॥ २७. असोच्ला अधिकार, प्रथम गुणठाणे जिन कह्यो । अपोह अर्थ विचार, धर्म ध्यान परिणाम शुभ || २८. इत्यादिक अवलोय, पहिला निरवद करणी जोय, ते खे गुणठाणां आज्ञा २६. ते माटै पहिछाण, तेहनां दुपचखाण संबर आधी जाण, निर्जरा आश्री छे वा० - 'अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे-इहां अट्टे ते आत्यों लोएएडी, मेहंद्री द्री, चउद्री पंचेंद्री न जीव तणी । मांहिली ॥ *लय : भामा ठग लागो परिजुणे - प्रशस्त ज्ञानादिक भाव विकल, वलि जे एहवो हुवै ते । दुस्संबोहे - प्रतिबोधिवा अशक्य ब्रह्मदत्त नीं परं ते । इहां पिण दुस्संबोहे नों अर्थ ब्रह्मदत्त नीं परं प्रतिबोधिवा अशक्य इम कियो, ते मार्ट इहां दु शब्द अभाव वाची संभवे । तिम दुपचखाण ते पचखाण नहीं, ए पिण दु शब्द अभाववाची संभवं । ए पचखाण नाम संबर नों छं । ए जीव, ए अजीव जाणें नहीं ते किम पाले ? अन प्रथम गुणठाणे जीवादिक ओलखी मैं पचखाण करें, तेहन संबर रूप पचखाण तो नथी, निर्जरा रूप पचखाण कहिये । तेही कर्म कछे, पिकं नहीं। ते । नहीं' ॥ (ज० स० ) विषय कषाय करी राशि, ते लोक ३०. * सर्व प्राण जाव सत्व नां, म्हे कीधा इण विध कहितां जीव ने बलि ते एहं ३१. ए जीव ए अजीव त्रस स्थावरा, जाण्या रूड़ी सर्व प्राण जीव सत्व नें, पचख्या छै धर ३२. हे पचखाण कीधा अछे ३३. इम तेह। इम कहितां ने सुपचखाण हुवै अ दुपचखाण न निश्चै करि गोयमा ! सुपचवाणी सर्व प्राण जाव सत्व नां, निज पचखाण वदेह ॥ ३४. हे पचखाण कीधा अर्थ इम कहितां नें सत्य भाषा बोलै तिका, मृषा कहिये ३५. इस निश्च करि गोयमा ! सत्यवादी अवितत्थ । नों त्रिविध-त्रिविध संयत्त ॥ ताहि । नांहि ॥ सर्व प्राण जाव सत्व पंचखाण । जाण ॥ रीत । प्रीत ॥ ताय । थाय ॥ २६. तए तुम मेहा ताए पापा भूषाणु! कंपयाए, जीवाणुकंपयाए सत्तागुकंपयाए संसारे परितीकए, माणुस्साए नि (नायामका ११८२) २७. तस्स णं छछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं....... ...... अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहि विसुज्झमाणीहि विसुज्झमाणीहि ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे समुप्पज्जइ (श० ६/३३ ) ******.. ३०. जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवति --- ३१,३२. इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति, नो दुपच्चक्खाय भवति । १२,२४. एवं खलु से सुपस्थाई सम्पाजाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणे सच्चं भासं भासइ, नो मोसं भासं भासइ । श० ७ उ० २ ढा० ११५ २२६ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. विरतिवंत अविरति नहीं, देख | पचलाणे करि पाप कर्म हणिया तिथे एहवो मुनि सुविशेख ॥ " ३७. अकिरिए किरिया नहीं, आगार आश्री संडे तिण संबऱ्या, रूध्या ३८. एकांत कहितां सर्वथा, सर्वचा निश्च करि एकांत पंडित करी, सर्वविरति ग्रहिवै ३६. तिण अर्थ करि जाव कवाचित ते सही, गोतमा सोरठा ४०. आख्या ए पचखाण, तेह कहिये वली सुजाण, भेद प्रवर ४१. *कितले भेदे हे प्रभु ! आख्या छै जिन भाखै पचखाण ते, प्रकारे ४२. वर मूलगुण पचखाण जे, मूल तुल्य महाव्रत गुणा, दोय चरण तेह मूलगुण माण || वा० - मूलगुण पचखाण नों अर्थ - चारित्र कल्पवृक्ष ने मूल तुल्य जे प्राणातिपातविरमणादिक ते रूप पचखाण - हिंसादिक निवृत्तिः, मूलगुण मूलगुण विषयक प्रत्याख्यान — अभ्युपगम - अंगीकरण मूलगुणपचखाण । गुण अथवा विचार | आश्रवद्वार || ते जाण । पिछाण ॥ इम कहिये खे ताय । दुपचखाणज थाय ॥ तणां अधिकार थी । पचखाण नां ॥ ४३. उत्तरगुण पचखाण छै, प्रवर मूल पेक्षाय ॥ उत्तरभूत गुण से तिके, तरु शाखा जिम थाय । ४४. प्रभु ! मूलगुण पचखाण नां, आख्या कितला जिन भाखे द्विविध कह्या, सांभलज्यो ४५. सर्व मूलगुण शोभता, देश मूलगुण सर्व मूलगुण नां प्रभु ! कितला भेद ४६. जिन भाख पंच विध कह्या यावत सर्व थकी वलि, परिग्रह २३० भगवती-जोड़ पचखाण ? पिछाण || कल्पतरु जाण । प्रकार ? विस्तार ॥ देख | विशेख ? सर्व हिंसा पचखाण । पचख्यो जाण ॥ ४७. देश कितला मूलगुण नां प्रभु ! आख्या जिन भाखै पंच विध कह्या, सांभल आण ४८. स्थूल थकी हिंसा हिंसा तणां जावजीव थकी वलि, परिग्रह पचख्यो जाण ॥ पचखाण । यावत स्थूल *लय : भामा ठग लागो भेद ? उमेद || ३६. एवं खलु से सच्चवादी सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्ते हि तिविहं तिविहेणं संजय विरय-पडिय-पच्चक्खायपावकम्मे, ३७. करिए, संडे, ३८. एगंतपंडिए यावि भवति । ३६. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव ( सं पा० ) सिय दुपच्चक्खायं भवति । (०७१२८) ४०. प्रत्याख्यानाधिकारादेव तद्भेदानाह ४१. कतिविहे णं भंते ! पच्चक्खाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा ४२. मूलगुणवताप, ( वृ० प० १६५ ) वा० चारिवकल्पस्य मूलकल्या गुणा: प्राणातिपातविरमणादयो जगुणास्तद्रूपं प्रत्यास्थान-निवृत्तिर्मूलगुणविषयं वा प्रत्याख्यानं - अभ्युपगमो मूलगुणप्रत्याख्यानं (०५०२६) (४०७/२९) ४३. उत्तरगुणपच्चक्खाणे य । मूलगुणापेक्षयोत्तरभूता गुणा वृक्षस्य शाखा इवोत्तरगुणास्तेषु प्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्यास्थानम् । (० ०२२६) ४४. मूलगुणपचखाने गं भंते! कतिविहे पणसे ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा ४५. सव्वमूलगुणपच्चक्खाणे य, देसमूलगुणपच्चक्खाणे य । ( श० ७/३० ) कतिविहे पम्पत्ते ? तं जहासम (सं० पा० ) सव्वाओ (०७२३१) ४७. देसमूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा४८. लाओ पापादयावाओ वेरमणं नाव (सं० पा०) लाल परिहाओ बेरमणं (श० ७ ३२ ) सब्वमूलगुणपञ्चकखाणे णं भंते! ४६. गोमा पंचविहे पण पाणाइवायाओ वेरमणं जाव परिग्गहाओ वेरमणं Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. सर्व मूलगुण देश मूलगुण ५०. * उत्तरगुण पचखाण नां, हे प्रभु! जिन भाखे सुण गोयमा द्विविध ! ५१. सर्व उत्तरगुण शोभता, देश सर्व उत्तरगुण नां प्रभु ! द्विविध ५२. जिन भाखै कोटीस हियं ५२. परिमाणकृत सोरठा सोय कह्या सर्वविरती जोय, देववती नां दशविध तणां । दाखिया || कितला प्रकार ? आख्या सार ॥ उत्तरगुण देख | कितला भेद विशेष ? नियंटियं निविशेष सर्व उत्तरगुण ए दशू मुनिवर नां कह्या, अनागत अतिक्रांत 1 सागार अणागार शांत ॥ ही, संकेत अद्धाकाल | ए न्हाल ॥ यतनी ताहि । पचखाण || ५४. 'अनागत' आगमिये काल, तप पर्युसणादि न्हाल घोर व्यावच नीं अंतराय, तसु भय थकी प्रथम कराय ॥ ५५. तप पहिला करि सकै नांहि, पछै ते तप करिबू ते 'अतिक्रांत' पहिचान, ए को बीजो ५६. आदि अंत से कोटि सरीस आदि में चउथ भक्त जगीस अंत में पिण चउथ भक्त, 'कोडीसहियं' तीजो ए व्यक्त ॥ ५७. रोगादिक कारणे पण जेह, तप में नहि छांडे तेह | नियमा तप जे कराव ते 'नियंत्रित' कहिवाय ॥ ५८. पंचमो ते 'आगार सहीत' तप छठो 'आगार रहीत' | " परिमाण ते दातो नं जाण, कवल पर भिक्षा द्रव्य परिमाण || वा० - केवल आगार रहित नैं पिण अजाणपणां नों आगार अनं सहसात्कारे मुखे खांडादिक नीं रज आफेइ आवी पड़े, ते पिण आगार । ५६ सव्वं असणं पाणं पचखाण, सव्वं खज्जं सव्वं पेज्जविहं जाण । सर्वे शब्द करिनें उच्चरि 'निरवशेष' आठम् धरि ॥ ६०. गांठ प्रमुख चाड नांय, त्यां लग असणादिक पचखाय । संकेत चिन्ह नुं करि ते 'संकेत' नवमो उच्चरितुं ॥ ६१. पोहरसी दोढ़ पोहरसी तास, इम मास यावत षट मास । काल नुं मान करि पचखेह, 'अढायचलाण' से एह ॥ १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ५४ से ६१ तक टीका के आधार पर लिखी हुई है, इस दृष्टि से यहां जोड़ के सामने टीका का पाठ उद्धृत करना जरूरी था । किन्तु इन गाथाओं से आगे वार्तिका में यही बात पुनः स्पष्ट रूप से लिखी गई है । उस टीका का पाठ वार्तिका के सामने रखना अधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ, इसलिए उक्त पद्यों के सामने टीका का उल्लेख नहीं किया गया है । *लय : मामा ठग लागो ४३. तत्र सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वविरतानां, देश मूलगुणप्रत्याख्यानं तु देशविरतानाम् । ( ० प० २४६ ) २०. उत्तरगुणपच्यक्वा पं भंते! कतिविहे पते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा११. सबुत्तरगुणपञ्चवाणे व देसुत्तरगुणवच (०७२३३) सत्तरगुणपचक्या भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? ५२, ५३. गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहाअगागयमदक्कत कोडसह नियंटियं देव सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं । संकेयं चेव अद्धाए पच्चक्खाणं भवे दसहा || (०७२३४ गाहा ) श० ७ ०२, ० ११५ २३१ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - १,२. अणागयमइक्कंतं, ३. कोडीसहियं, ४. नियंटियं चेव । ५, ६. सागारमणागारं ७ परिमाणकडं ८ निरवसेसं ॥ संकेयं चेव १०. अद्धाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा । 'अणाrयं कहितां अनागत करवा थकी । अनागत - पर्युषणादिक नैं विषे आचार्यादिक नीं वेयावच्च करिवं करी अंतराय नां सद्भाव थकी पर्युषणा पहिलां ईज ते तप नुं करितुं । आहच- होही पज्जोसपणा, मम य तथा अंतराइ गुरुवेयावच्चेणं, तबस्सगेलाए होन्ना । वा ।।२।। पर्युषणा हुस्यै अने मांहरै तिण काले गुरु नी वैयावृत्य नों, तपस्वी नी वैयावृत्य नों अथवा निज शरीर नैं विषे रोगादि करी ग्लानपण करी अंतराय थास्यै । उक्तं च सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अणागए काले । एवं पच्चक्खाणं अणागयं होइ नायव्वं ॥ ३॥ ते तप-कर्म पर्युषण काले गुरु देस्यै, ते तप कारण थी करी न सकै ते भणी पर्युषण तप करवा नों काल आयां पहिलां करें, ए पचखाण अनागत हुवै जाणवो । 'अइक्कतं कहितां अतिक्रांत काल, ते तप नों काल उल्लंघ्ये थके करं ते अतिक्रांत पचखाण कहिये । भावना पूर्ववत् । उक्तं च पज्जोसवणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए । गुरुवेयावच्चेणं तव स्सिगेलण्णयाए वा ॥४॥ पर्युषणा विषे अवश्य करिवुं ते अष्टमादि तप, ते कारण ऊपने छते न करें । कारण हीज देखाड़े छै-गुरु नीं वेयावच्च आदि। आह च सो दाइ तवोकम्मं, पडिवज्जद्द तं अइच्छिए काले । एयं पच्चक्खाणं, अतिस्तं होइ नाय ॥५॥ जे तप कर्म पर्युषण काले गुरु देस्य, ते तप कर्म पर्युषण तप नो काल अतिक्रम्ये थर्क करें, एतले पर्युषण में करवा जोग ते तप पर्युषण थी पछे करें, ए पचखाण अतिक्रांत हुवै इम जाणवो । "कोडीसहियं कहितां वे पचवाण नीं कोटी ते मिली तुभादि करीनें अनंतरहीज चतुर्थ भक्तादिक नुं करितुं इत्यर्थः । अवाचि च पट्ठवणओ उ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य । जहियं समेति दोन्नि उ, तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ ६ ॥ तप पूरो हुवै ते दिवस । कोटी सहित एतसे तप प्रारंभिक दिवस पचखाण नो वली निष्ठापनक ते जे तब मैं विधे मिलिद कोटी ते तप प्रतेक प्रारंभ्यो तिवारं प्रथम उपवास करी, पछै छठ भक्तादिक करीनं छेहड़े वलि उपवास कियो-ए कोटी सहित इम प्रथम छट्टादिक करी बीच में नोप, छठ, २३२ भगवती जो अनागतकरणादनागतं पर्युपणादाबाचार्यादिवयावृत्यकरणेनान्तरायसद्भावादारत एवं तत्तपः करणमित्यर्थः । एवमतिक्रान्तकरणादतिक्रान्तं भावना तु प्राग्वत्, कोटीसहितमिति मीलितप्रस्थापानद्वकोटि चतुर्यादि कृत्वाऽनन्तरमेव चतुषदिः करणमित्यर्थः Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नियंटितं चेव' नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितं, प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमात्कर्त्तव्यमिति हृदयं, अष्टमादि करीनै छेहड़े छठ करै। इम अष्टमादिक प्रारंभ काले अनैं चरम काले सरीखो कर ते कोडी-सहित । नियंटितं चेव कहितां नितरां अति ही यंत्र वश कीधी आत्मा ते नियंत्रित । प्रतिज्ञा कीधी ते दिनादिक नै विषे ग्लानपणांदिक अंतराय भाव छते पिण निश्चय थकी करिवू, इति हृदयं । यदाह मासे-मासे य तवो, अमुगो अमुगे दिणंमि एवइयो । हट्टेण गिलाणेण वा, कायक्वो जाव ऊसासो ॥७॥ अमुको तप मास-मास नै विषे अमुक दिन के विषे ए तप हृष्ट ते नीरोग छतां तथा रोगादिक ग्लानपणु पाम्यां छतां जिहां लगे उस्सास त्यां लगे करिवू । एवं पच्चक्खाणं, नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं ।। ___जं गेण्हंतऽणगारा, अणिस्सियप्पा अपडिबद्धा ॥८॥ धीर पुरिसे परूप्यो ए नियंत्रित पचखाण, ते अणगार जेहनी आत्मा ग्रहण कर, प्रामादिक नी नेत्राय रहित छ । "सागारं कहितां आगार सहित वर्ते ते सागार। आ-मर्यादा करी कीजिये ते आगार पचखाण । आगार ते हेतु महत्तरागारेणं इत्यादि । आगार सहित वर्ते ते साकार। अविद्यमान आकार ते अनाकार । जे विशिष्ट प्रयोजन ऊपजवा नै अभाव छते, कांतार दुभिक्षादिक नै विषे तथा सरीरादिक कारण पड़यां पिण महत्तरादिक आगार राख नहीं, ते अनाकार इति भावः । केवल अनाकार नै विषे पिण अजाणपण अनै सहसात्कारे ए बे आगार तो रहै हीज । काष्ठ अंगुली आदि मुख विषे प्रक्षेपवा थकी भंग नहीं हुवै । इण कारण थकी अजाणपण अनै सहसात्कार अपेक्षा करिक सदा आगार हीज । 'परिमाणकडं कहितां दात आदि करिक कीधो परिमाण । अभाणि च दत्तीहि व कवलेहि व घरेहि भिक्खाहिं अहव दव्वेहिं । जो भत्तपरिच्चायं करेति परिमाणकडमेयं ॥६॥ दाति करिक, कवल करिक, घर करिक, अन भिक्षा करिक, परिमाण कीधु अथवा जे साधु भक्त परित्याग कर परिमाणकृत ए पूर्वे का ते । “निरवसेसं कहितां संपूर्ण अशनादिक तजै । भणितं च सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सव्वखज्जपेज्जविहिं । परिहरइ सव्वभावेणेयं भणियं निरवसेसं ॥१०॥ सर्व अशन अनैं सर्व पाणी, खज्जं कहितां खावा जोग, पेज्जं कहि तां पीवा जोग नीं विधि परिहर सर्व भाव करिनै, ए निरवसेस पचखाण कह्यो । 'साकेयं चेव कहितां केत कहिये चिह्नः, केत-चिह्नः करी सहीत ते सकेत । प्राकृतपणां थकी सकार दीर्घ थयु, ते माटै साकेयं कह्म । अथवा संकेत युक्त हुवा थकी संकेत । संकेत ते अंगुष्ठ सहितादि । यदाह अंगुट्ठमुढिगंठीघरसेऊसासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहि अणंतणाणीहि ॥११॥ अंगुष्ठ, मुट्ठी, गंठी, डोरा, डाभ प्रमुख नी बीटी, घर, स्वेद, उच्छ्वास, पाणी नो बुबुदो, जोतिष्क ते दीवादिक वस्तु-धीर पुरुष अनंत ज्ञानी ए संकेत कह्यो, 'साकार' मिति आक्रियन्त इत्याकारा:-प्रत्याख्यानापवादहेतवो महत्तराकारादयः सहाकारर्वर्त्तत इति साकारम्, अविद्यमानाकारमनाकारं यद् विशिष्टप्रयोजनसम्भवाभावे कान्तारभिक्षादी महत्तराद्याकारमनुच्चारयद्धिविधीयते तदनाकारमिति भावः केवलमनाकारेऽप्यनाभोगसहसाकारावुच्चारयितव्यावेव, काष्ठाङ्ग ल्यादेर्मुखे प्रक्षेपणतो भङ्गो मा भूदिति, अतोऽनाभोगसहसाकारापेक्षया सर्वदा साकारमेवेति, 'परिमाणकृत' मिति दत्त्यादिभिः कृतपरिमाणम्, 'निरवशेष' समग्राशनादिविषयं, 'साएयं चेव' त्ति केत:-चिन्हं सह केतेन वर्तते सकेतं, दीर्घता च प्राकृतत्वात्, सङ्कतयुक्तत्वाद्वा सङ्केतम्-अङ्ग ष्ठसहितादि, स० उ०२, ढा० १५५ २३३ Jain Education Intemational | International Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतले मुट्ठी बंधी है जितरं आहार का त्याग, मुट्ठी खोल्यां पर्छ त्याग नहीं । इम अनेरा पण विचार लेवा । ए संकेत पचखाण | "अद्धाए कहितां अद्धा कहिये काल, तेहनों पचखाण ते पौरस्यादि काल नों नियम करितुं । आह चअद्धापच्चक्खाणं पुरिमपोसहि मुत्तममाहिं ॥१२॥ जे अद्धा पचखाण ते काल परिमाण नों छेद ते विभाग हुवै। पुरिम ते दोय प्रहर, पोरसी, मुहूर्त्त, मासखमण, अर्द्धमास करिकै ए अद्धा पचखाण कह्यो । ए दशविध सर्व उत्तरगुण पचखाण हुवै । जं तं कालप्पमाणछेएणं । प्रकार ? उदार ॥ प्रथम ६२. *देश उत्तरगुण नां प्रभु! आस्या थी जिन भाखं सप्तविध दिश व्रत श्री ६२. उपभोग नं परिभोग नौ करिखूं नों, दूजो व्रत ए दाखियो, हिव तसु अर्थ सुखान ॥ जे परिमाण । सोरठा ६४. एक बार अशन पान जे भोग, अनलेपनंआदि देइ सुप्रयोग, ते उपभोग कीजिये ॥ ६५. बारबार जे भोग, भूषण आसन शयन वथ । ते फुन वनितादि संयोग, परिभोग कहीजिये ॥ छांडवु, ६६. *अनर्थदंड नुं देशावगासी नैं बली, पवर पोषध ६७. अविरत नहि किणही तिथि विषे, तेह अतिथि सामयिक सुविमास । उपवास ॥ महाभाग । संलेखणा तसु अशनादिक आपवू, एह अतिथि संविभाग ॥ मारणांतिके, ६८. अपमि तेहनं सेविबू ते भूसणा, तास या सुख साव । अराधन भाव || 'अपच्छिममारतियसंवेणासणाराहयति इहां केवल पश्चिम कितला शब्द अमंगलीक हुवै, इण कारण अकार युक्त पश्चिम शब्द कह्यो । तिणसूं अपश्चिम मरण ते प्राण नुं तजवुं प्राण त्याग लक्षण । यद्यपि प्रतिक्षण आवीची मरण छै तो पिण ते इहां ग्रहण न कर्तुं तो स्यूं मरण इहां ग्रहण कर्तुं ? सर्व आयु क्षय लक्षण मरण वंछ्यो । मरणहीज अंत ते मरणांत, तेह मरणांत मैं विषे थइ ते मारणांतिक शरीर, कषायादिक नैं कृश - दुर्बल करें ते संलेखना तपोविशेष लक्षणा, ते अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना, अपश्चिम मारणांतिक संलेखना तु भूषणा - सेविवूं, तेहनी आराधना, ते अखंड काल कहितां भव पर्यंत करवी । तेहनुं भाव ते अपश्चिम मारणांतिक संलेखना झोसणा आराधनता । वली इहां दिशि व्रत आदि सप्त देश उत्तर गुणहीज छे। अने संलेखणा भजना करिकं देश उत्तर गुण छे। देश उत्तर गुणवंत नैं तिका संलेखणा देश उत्तर गुण *लय भामा ठग लागो २३४ भगवती - जोड़ 'अद्धाए' त्ति अद्धा -- कालस्तस्याः प्रत्याख्यानंपौरुष्यादिकालस्य नियमनम्, ( वृ० प० २६६, २६७ ) ६२. देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - दिसिव्वयं, ६३. उवभोगपरिभोगपरिमाणं, 7 १४. उपभोग भोगः स चाशनपानानुलेपनादीनां ( वृ० प० २६७) ६२. परिभोगस्तु पुनः पुनर्योगः, स चासनशयनवसनवनितादीनाम् । ( वृ० प० २१७) ६६. अगरथदंडवेरमणं, सामाइयं, देखाववासिय, पोसहोववासो, ६७. अतिहिसं विभागो । ६८. अपच्छिममारणंतियसले हासणाराहमता | , ( ० ७३५) पश्चिमेवामपरिहारार्थमपश्चिमा मरणं प्राणत्यागलक्षणम्, इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति तथापि न कि सहि ? विवक्षितसर्वायुष्कक्षयलक्षणं इति मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी संतिष्यते—मीयतेऽनवा शरीरकषायादीति संलेखना - तपोविशेषलक्षणा ततः कर्मधारयाद् अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्या जोषणं — सेवनं तस्याराधनम् — अखण्डकालकरणं तद्भावः अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधनता । इह च सप्त दिव्रतादयो देशोत्तरगुणा एवं संलेखना तु भजनया, तथाहि--या देशीत्तरगुणवतो देशोत्तरगुणः, आवश्यके तथाsभिधानात् इतरस्य तु सर्वो Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तरगुणः साकारानाकारादिप्रत्याख्यानरूपत्वादिति संलेखनामविगणय्य सप्त देशोत्तरगुणा इत्युक्तम्, अस्याश्चैतेषु पाठो देशोत्तरगुणधारिणाऽपीयमन्ते विधातव्येत्यस्यार्थस्यख्यापनार्थ इति । (वृ० प० २६७) कहिये, आवश्यक विषे तिण प्रकार करिक कहिवा थकी । अन सर्व उत्तर गुणवंत साधु नै साकार अनाकारादिक पचखाणरूपपणां थकी संलेखणा सर्व उत्तर गुण में कहिये । श्रावक रै सप्त व्रत देश-उत्तर-गुण कह्या । ते संलेखणा बिना कह्या छ तो सप्त देश उत्तरगुण नै विषे संलेखणा नो पाठ किम दियो ? देश उत्तर गुणधारी नै पिण ए संलेखणा मरणांते करवी, इण अर्थ नै जणावा नैं अर्थ इति । ए अर्थ वृत्तिकार कह्य छ । इहां वृत्ति में देश उत्तर गुणधारी रै संलेखणा देश उत्तरगुण में कही अनैं साधु रै दश पचखाणरूपपणां थकी संलेखणा सर्व उत्तरगुण में कही। अनैं इणहीज उद्देशे श्रावक र सर्व उत्तरगुण पचखाण कह्या छ, जो ए संलेखना श्रावक रै देश उत्तरगुण पचखाण हुवै तो श्रावक र सर्व उत्तरगुण पचखाण किसा? ते भणी ए संलेखणा श्रावक र देश थकी सर्व उत्तरगुण जणाय छ । वली केवली वदै ते सत्य । अन दश विध पचखाण मांहिला केयक पचखाण श्रावक र देश थकी सर्व उत्तरगुण में हुवै, ते पिण ज्ञानी वर्दै ते सत्य । सोरठा ६६. कह्या पूर्वे पचखाण, वली अपचखाणे करी । पद जीवादि पिछाण, कहियै छै ते सांभलो ।। ७०. *प्रभ! स्य मूल पचखाणी जीवा, उत्तरगुण पचखाणी अतीवा। कै अपचखाणी कहियै ताय ? जिन भाखै तीनूइ थाय ॥ ६६. अथोक्तभेदेन प्रत्याख्यानेन तद्विपर्ययेण च जीवादि पदानि विशेषयन्नाह-- (१० प० २६७) ७०. जीवा णं भंते ! कि मूलगुणपच्चक्खाणी ? उत्तर गुणपच्चक्खाणी? अपच्चक्खाणी? गोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी वि, उत्तरगुण पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि । (श० ७।३६) ७१. नेरइया णं भंते ! कि मूलगुणपच्चक्खाणी ? पुच्छा । गोयमा ! नेरइया नो मूलगुणपच्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी । (श०७३७) ७२. एवं जाव चउरिदिया । (श० ७।३८) पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा, ७१. पूछा दंडक चउवीस नी जाणी, जिन कहै नारक अपचखाणी । ते मलगण पचखाणी न होय, उत्तरगुण पचखाणी न कोय । ७२. इम जावत चरिंद्री तांइ, जे तिर्यंच पंचेन्द्री मांहि । वलि मनुष्य माहै पहिछाण, औधिक जीव तणी पर जाण ॥ ७३. नवरं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चो देशत एव मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, सर्वविरतेस्तेषामभावात् । (वृ० प० २६८) सोरठा ७३. नवरं पं. तिर्यंच, देश थकी जे मलगण । पचखाणी हुवै संच, सर्व विरति नहिं ते भणी ।। ७४. नवरं पाठ विशेख, सूत्र विषे खोल्यो नथी । पिण इहां न्याय अवेख, वृत्ति टबा थी आखियो । वा०-इहां तिर्यंच पंचेंद्रिय नैं देश मूलगुण नी अपेक्षाय मूलगुण पचखाणी कह्या, पिण सर्व मूलगुण पचखाणी ते नहीं। अनै मनुष्य नै सर्व मूलगुण अनै देश मूलगुण ए बिहु नी अपेक्षाय मूलगुण पचखाणी कह्या । *लय : मामा ठग लागो श०७७०२, ढा० ११५ २३५ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. *व्यंतर जोतिषि वैमानीक, कहिवा नारक जिम तहतोक । तीनां री अल्पबहुत्व अधिकार, प्रश्न उत्तर हिव कहिये सार । ७६. जीव प्रभ! मूलगुण पचखाणी, उत्तरगण पचखाणी जाणी । वलि अपचखाण मांहि कहेस, कुण-कुण थी जाव अधिक विशेष ? ७५. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । (श० ७।३६) अथ मूलगुणप्रत्याख्यानादिमतामेवाल्पत्वादि चिन्तयति (वृ० प० २६८) ७६. एएसि णं भंते ! जीवाणं मूलगुणपच्चक्खाणीणं, उत्तरगुणपच्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ७७. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी, ७८. उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, ७६. अपच्चक्खाणी अणंतगुणा । (श० ७४०) ७७. जिन कहै थोड़ा सर्व थी जाणी, जीव मलगण वर पचखाणी । सर्व देश गुण मूल सुहाया, ए दोनू ही इण में आया । ७८. तेहथी उत्तरगण पचखाणी, ए असंखगुणा पहिछाणी । पं० तिर्यंच उत्तर गुणवान, मूल थी असंखगणा ए जान ।। ७९. तेह थकी जे अपचखाणी, आख्या अनंतगणा जिन जाणी। वणस्सइ आदि जीव जे जोय, धुर चिहुं गुणठाणां नां होय ॥ वा०-देश थकी अथवा सर्व थकी जे मूल गुणवंत ते सर्व थी थोड़ा, तेह थकी देश उत्तरगुणवंत अनैं सर्व थकी उत्तरगुणवंत असंख्यातगुणा । इहां सर्व विरति नै विष जे उत्तरगुणवंत ते अवश्य मूल गुणवंत हुवै अनै जे मूल गुणवंत ते उत्तरगुणवंत स्यात् हुवै स्यात् नहिं पिण हुवै । इहां उत्तरगुण रहित मूलगुणवंत ग्रहिवा, ते उत्तरगुण पचखाणी थी थोड़ाहीज हुदै । बहुतर यती दश प्रत्याख्यान युक्त लाभ, तिण कारण निकेवल मूलगुण पचखाणी थोड़ा अनै तेहथी पिण सर्व उत्तरगुण पचखाणी संख्यात-गुणाहीज लाभ, पिण असंख्यात गुणा नथी । सर्व पिण साधु संख्याता छ तिणे कारणे । अनै देशविरति नै विषे मूल गुण थकी जुदा पिण उत्तरगुणवंत लाभ ते किम ? पंच अणुव्रत अंगीकार नहीं कीधा अन मधु मांसादिक विचित्र प्रकार नां अभिग्रह किया ते उत्तरगुण पचखाणी घणां लाभ। इण कारण देशविरति नां उत्तरगुण पचखाणी नै आश्रयी मूलगुण थी उत्तरगुण पचखाणी असंख्यात गुणा कह्या, इम वृत्ति माहै कह्यो। ८०. ए प्रभ! तिरि पंचेंद्री मांहि, पूछा कीधी गोतम ताहि । मूल उत्तरगुण अपचखाणी, कुण-कुण थी अल्पादिक माणी॥ ८१. जिन कहै तिरि पंचेंद्री जाणी, सर्व थोड़ा मूलगुण पचखाणी । असंखगणा उत्तरगुण त्यागी, अपचखाणी असंख गुण सागी॥ वा०—देशतः सर्वतो वा ये मूलगुणवन्तस्ते स्तोकाः, देशसर्वाभ्यामुत्तरगुणवतामसंख्येयगुणत्वात्, इह च सर्वविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणवन्तः, मूलगुणवन्तस्तु स्यादुत्तरगुणवन्तः स्यात्तद्विकलाः, य एव च तद्विकलास्त एवेह मूलगुणवन्तो ग्राह्याः, ते चेतरेभ्यः स्तोका एव, बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात्, तेऽपि च मूलगुणेभ्य: संख्यातगुणा एव नासंख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि संख्यातत्वात्, देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवद्भ्यो भिन्ना अप्युत्तरगुणिनो लभ्यन्ते, ते च मधुमासादिविचित्राभिग्रहवशाद बहुतरा भवन्तीति कृत्वा देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकृत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवद्भ्योऽसंख्यातगुणत्वं भवति । अत एवाह - 'उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुण' त्ति । (वृ० प० २६८, २९६) ८०. एएसि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। ८२. ए प्रभ! मनष्य विषे पहिछाणी, पवर मूलगुण जे पचखाणी ? पूछा कीधां कहै जिनराय, अल्पबहुत्व सुणज्यो चित ल्याय ॥ ८३. मनुष्य सर्व थी थोड़ा पिछाणी, सखर मूलगुण वर पचखाणी । संखगुणा उत्तरगुण त्यागी, अपचखाणी असंखगणा सागी॥ ८१. गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिदियतिरिक्खजोणिया मूल गुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । (श०७।४१) ८२. एएसि णं भंते ! मणुस्साणं मूलगुणपच्चक्खाणीणं पुच्छा। ८३. गोयमा! सब्बत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा। (श० ७४२) *लय:भामा ठग लागो २३६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०—मनुष्य नै विषे अपचखाणी असंख्यातगुणा कह्या ते छमूच्छिम मनुष्य नी अपेक्षाय, गर्भेज नै संख्यातपणां थकी । ८४. हे भगवंत! जोव स्यू जाणी, सर्व मलगण वर पचखाणी ? के देश मूलगुण पचखाणी छै, के अपचखाणी इम त्रिहुं पृच्छै ।। ८५. जिन कहै गोयम ! जीवा जाणी, सर्व मलगण वर पचखाणी । देश मूलगुण वर पचखाणी, अपचखाणी पिण पहिछाणी ॥ ५६. नारक पूछ्यां जिन कहै त्यांही, सर्व मूलगण त्यागी नांही । देश मूलगुण पिण नहिं कहिये, अपचखाणी नारक लहिये ।। ८७. एवं जाव चउरिंद्रिया ताम, पं. तिथंच पूछयां कहै स्वाम । पंचेंद्रिय तिर्यंच पिछाणी, सर्व मूलगुण नहिं पचखाणी ॥ ८८. देश मुलगण पचखाणी छै. ए पंचम गणठाण सही छै। अपचखाणी पिण तिरि कहिये, ए धुर चिहुं गुणस्थानक लहिये ।। ८९. मणसा जीव तणी पर जाणी, सर्व देश फून अपचखाणी । व्यंतर जोतिषि वैमानीक, नारकी जिम कहिये तहतोक ।। वा०-मनुष्यसूत्रे 'अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणे' ति यदुक्त तत्संमूच्छिममनुष्यग्रहणेनावसेयमितरेषां संख्यातत्वादिति । (वृ० प० २६६) ८४, जीवा णं भंते ! किं सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी? देसमूलगुणपच्चक्खाणी ? अपच्चक्खाणी? ८५. गोयमा ! जीवा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी वि, देसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि। (श० ७।४३) ८६. नेरइयाणं पूच्छा । गोयमा ! नेरइया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, नो देशमूलगुणपच्चक्ख णी, अपच्चक्खाणी । (श० ७.४४) ८७. एवं जाव चउरिदिया । (श० ७।४५) पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया नो सव्वमूलगुण पच्चक्खाणी, ८८. देसमूल गुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि । (श० ७।४६) ८६. मणुस्साणं भंते ! किं सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी ? देसमूलगुणपच्चक्खाणी ? अपच्चक्खाणी? गोयमा ! मणुस्सा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी वि, देसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि । (श० ७।४७) वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा नेरइया । (श०७।४८) १०. एएसि णं भंते ! जीवाणं सब्वमूलगुणपच्चक्खाणीणं, देसमूलगुणपच्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीण य ६१. कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा ? १२. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सव्वमूलगुणपच्च क्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, ६३. अपच्चक्खाणी अणंतगुणा । (श० ७१४६) यतनी ६०. प्रभु ! एह जीवा पहिछाणी, सर्व मुलगण पचखाणी । देश मूलगुण पचखाणी, वलि अपचखाणी जाणी ।। ६१. यांमें कुण-कुण थी सुविचार, अल्प हुवै अथवा बहु धार । तथा तुल्य वा अधिक विशेष, तसु उत्तर भाखै जिनेश ।। ६२. सर्व मूलगण पचखाणी, जीव सर्व थी थोड़ा जाणी। देश मूलगण पचखाणी, असंख्यातगुणा पहिछाणी ।। ६३. वलि तेहथी अपचखाणी, हुवै अनंतगुणा ए ठाणी । समचे जीव नी ए अवधार, कही अल्पबहुत्व जगतार ॥ ६४. इम अल्पबहुत्व त्रिहुं जाण, जिम प्रथम दंडक तिम माण । नवरं कहितां एतलो विशेष, तिणरो आगल भेद कहेस । १५. सर्व थोड़ा पंचेंद्रिय तिर्यंच, देश मलगण पचखाणी संच । __ तेहथी असंखगुणा अधिकाय, ए तो अपचखाणी ताय ।। सोरठा १६. तिर्यंच श्रावक तास, देश मूलगुणईज हुवै । सर्व मूलगुण राश, साधु बिना हुवै नहीं। १४. एवं अप्पाबहुगाणि तिणि वि जहा पढ़मिल्ले दंडए, नवरं६५. सव्वत्थोवा पंचिदियतिरिक्खजोणिया देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा। [सं० पा०] (श० ७।५०,५१) श०७, उ०२, ढा० ११५ २३७ Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहां एक अल्पबहुत्व जीव नों, दूजो अल्पबहुत्व पंचेंद्री तिर्यंच नों, तीनो अल्पवत्व मनुष्य न एती अल्पबहुत्व जिम मूलगुण पचखाणी, उत्तरगुण पचखाणी, अपचखाणी प्रथम दंडक नैं विषे का, तिम इहां पिण सर्वमूलगुण पचवाणी, देश मूलगुण पचलागी अने अपचलागी ए तीनूं नीं केहवी | णवरं पंचेंद्रिय तिर्यंच नैं विषे सर्व मूलगुण पचखाणी नथी, ते भणी देश मूलगुण पचखाणी अनैं अपचखाणी ए बेहुं बोल नीं अल्पबहुत्व छे। अने समचे जीव अन मनुष्य ए बे दंडके सर्वं मूलगुण पचखाणी, देश मूलगुण पचखाणी, अपचखाणी ए त्रिहुं बोल नीं अल्पबहुत्व प्रथम दंडक नीं परं जाणवी | यतनी १७. बहु जीव हे प्रभु ! स्यूं जाणी, सर्व उत्तरगुण पचवाणी । देश उत्तरगुण पचवाणी, कं अपचखाणी माणी ? १८. जिन भातै तीनूंह तेम पंचेंद्रिय तिरि नै मन् एम शेष अपच्चक्खाणी एक, जाव वैमानिक लग पेख ॥ , ९९. हे प्रभुजी ! ए जीवा जाणो, सर्व उत्तरगुण पचवाणी । अल्पबहुत्व तीनं पिण तेह, प्रथम दंडक जेम कहेह ॥ १००. जाव मनुष्य तणी कहिवाय, इम कह्यो सूत्तर ₹ मांय । जीव पं. तिरि मनुष्य नीं एम अस्पबहुत्व प्रथम दंडक जेम ।। वा० - इम इहां तीनूं पिण कहिवी । नवरं इत्यादि पंचेंद्रिय तिर्यंच पिण सर्व उत्तरगुण पचखाणी हुवै, इम जाणवूं । देशविरति नैं देश थकी सर्व उत्तरगुणपचखाग ने अभिमतपण वकी । 1 १०१. *बोंहिंतर नों देश ए, एकसौ पनरमीं ढालो । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जश' गण गुणमालो ॥ ढाल ११६ सोरठा १. मूल उत्तर पचखाण, वलि अपचखाणी छे संयत प्रमुख सुजाण, हि संजयादिक *लय : भामा ठग लागो २३८ भगवती जोड़ तिके । कहै ॥ वा०तकं जीवानामिदमेव द्वितीयं पञ्चेन्द्रियतिरखचा तुतीयं तु मनुष्याणाम् एतानि च यथा निर्विशेषणगुणादिप्रतिबद्धे दण्डके उक्तानि एवमिह त्रीण्यपि वाच्यानि, ( वृ० प० २६६ ) 1 1 ६७. जीवा णं भंते ! किं सव्युत्तरगुणपच्चक्खाणी ? देत्तरगुणपण्यवाणी ? अपच्यवाणी ? 1 १८. गोवमा ! जीवा सबुत्तरगुणपञ्चवाणी वि. देगुत्तरगुणपचवाणी वि, पाणी व पंचिदियतिरिक्ख जोणिया मणुस्सा य एवं चेव । सेसा अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया । (०७५२) ६६. एएसि णं भंते! जीवाणं सव्युत्तरगुणपच्चक्खाणीणं अयागाणि तिष्णि वि जहा पढमे दंडए १०. जाव मणुस्साणं । (०७१५३) वा० - इह च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यातियो भवन्तीत्येवं देशविरताना देशतः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानस्याभिमतत्वादिति । ( वृ० प० २९९ ) १. मूलगुणप्रत्याख्यानिप्रभृतयश्च संयतादयो भवन्तीति संयतादिसूत्रम् - ( वृ० प० २६६ ) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *वीर प्रभु नैं गोयम पूछ ॥ध्र पद।। २. जीव प्रभुजी ! स्यूं संजया छ ? के असंजया छै जीवा? के संजतासंजत जीव अछै ए ? जिन कहै तीन पिण कहीवा ।। ३. इम जिम पन्नवणा बत्तीसमै पद, तिमहिज भणव तेहो । जाव वैमानिक लग सह कहिव, जिन वचनामृत जेहो ॥ ४. अल्पबहुत्व पिण तिमहिज त्रिहं नीं, ए तीजा पद मांही। ते पिण केहवी छै इण रीते, सांभलज्यो चित ल्याई ।। वाल-समचे जीव पंचेंद्रिय तिर्यंच और मनुष्य ए त्रिहुं नै विषे संजतादिक नीं अल्पबहुत्व कहै छै । तिहां सर्व थोड़ा संजती जीव । संजतासंजती असंखेज्ज गुणा । अन असंजती अनंत गुणा । पंचेंद्रिय तिर्यंच में सर्व थोड़ा संजतासंजती। असंजती असंखेज्ज गुणा । मनुष्यों में सर्व थोड़ा संजती, संजतासंजती संखेज्ज गुणा । असंजती असंख्यातगुणा संमूच्छिम आश्रयी। ५. नो-संजति नो-असंजति वली, नो-संजतासंजती इच्छा । ए चोथा बोल नीं पूछा इहां न करी, पन्नवण चिउं नीं पृच्छा ।। २. जीवा णं भंते ! कि संजया ? असंजया ? संजया संजया? गोयमा ! जीवा संजया वि, असंजया वि, संजयासंजया वि। ३. एवं जहेव पण्णवणाए (३२।१) तहेव भाणियब्वं जाव वेमाणिया। ४. अप्पाबहुगं तहेव तिण्ह वि भाणियव्वं । (श० ७।५४) ___ वाo-जीवानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चा मनुष्याणां च, तत्र सर्वस्तोकाः संयता जीवाः, संयतासंयता असंख्येयगुणाः, असंयतास्त्वनन्तगुणाः, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्तु सर्वस्तोकाः संयतासंयता:, असंयता असंख्येयगुणाः, मनुष्यास्तु सर्वस्तोकाः संयताः, संयतासंयता: संख्येयगुणाः, असंयता असंख्येयगुणा इति । (वृ०प० २६६) ५. जीवा णं भंते ! कि संजया ? असंजया ? संजतासंजता ? णोसंजत-णोअसंजत-णोसंजयासंजया ? गोयमा ! जीवा संजया वि असंजया वि संजयासंजया वि णोसंजयणोअसंजयणोसंजतासंजया वि (पन्नवणा ३२।१) ६. संयतादयश्च प्रत्याख्यान्यादित्वे सति भवन्तीति प्रत्याख्यान्यादिसूत्रम् (वृ०प० २६६) ७. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणी? अपच्चक्खाणी? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि। (श० ७.५५) ८. एवं मणुस्साण वि । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आदिल्लविरहिया । सेसा सव्वे अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया। (श० ७.५६) ६. एएसि णं भंते ! जीवाणं पच्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीणं, पच्चक्खाणापच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा पच्चक्खाणी, १०. पच्चक्खाणापच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अणंतगुणा। सोरठा ६. आख्या संयत आद, ते पचखाणादिकपणे । तिण कारण विधिवाद, पचखाणादिक सूत्र हिव । ७. “जीव प्रभू ! स्य पचखाणी छ, के कह्या अपचखाणी । __ पचखाणापचखाणी जीव छ, ? जिन कहै तीन इ जाणी।। (वीर प्रभु कहै गोतम शिष्य नैं) ८. मनुष्य विषे ए तीन इ पावै, पंचेंद्री तिर्यंच में जाणी। ___ आदि संयत विन दोय कहीजै', शेष सर्व अपचखाणी॥ ९. अल्पबहुत्व तीन नीं पूछी, जीव तणे अधिकारो। जिनका जिन कहै सर्व थी थोड़ा जीव छै पचखाणी अणगारो॥ तण १०. पचखाणापचखाणी श्रावक, असंख्यातगणा होयो । ___ अपचखाणी च्यार गुणठाणां, अनंतगुणा अवलोयो । *लय : थिर थिर चेतन संजम पथे १. तिथंचपञ्चेन्द्री में प्रत्याख्यानी नहीं होते । क्योंकि वे संयती नहीं हो सकते । इसलिए वे प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी-ये दो ही होते हैं। श०७,०२, ढा०११६ २३६ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. पंचेंद्रि तिच सर्व थी घोड़ा पचखाणापचलाणी । अपचखाणी असंखगुणा छे, न्याय हिया में आणी ॥ १२. मनुष्य सर्व भी थोड़ा पचखाणी, पचखाणापचखाणी । श्रावक एह संखेज्जगुणा से अपचवाणी असंखगुणा जाणी || सोरठा । १३. छठा शतक मझार, चउथा उद्देशा म | श्री जिनवर जयकार पचखाणी आदि परुपिया ॥ १४. वली परूपण तेह, स्प कारण है हनों । तमु उत्तर बे एह. चित्त लगाई सांभली ॥ १५. अल्पबहुत्व कर रहीत सूत्र निकेवल त्यां कह्यो । इहां अल्पबहुत्व सहीत, वलि अन्य सम्बन्ध करी अस्यो । दूहा १६. जीव तणां अधिकार थी, जीव सास्वता जाण । के से जीव असास्यता ? हिवे प्रश्न ए आण ॥ १७. * हे भगवंत ! स्यूं सास्वता जीवा, कै असास्वता सुविचारो ? जिन कहे जीवा कदाच सास्वता, असास्वता छै किवारो ॥ १८. किण अर्थे तब श्री जिन भाखै, द्रव्यार्थपणें सुजाणी । सास्वता जीव छै त्रिहुं काल में, ए द्रव्य जीव पहिछाणी ॥ १९. भावमर्थपणे जीव असास्वता, नारकादि पर्यायो । तिण अर्थ का कदा सास्वता, कदा असास्वता ताह्यो' || २०. हे प्रभु! नेरइया सास्वता स्यू के असास्यता कहिवायो ? जेम जीव तिम नेरइया पिण, इम जाव वैमानिक ताह्यो । *लय : थिर थिर चेतन संजम पथे १. भगवती सूज के इसी सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए आचार्य भिक्षु ने कालवादी की चौपई ढाल ३ में कुछ पद्य लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं दरबे सासतो नैं भावे असासतो, जीव नैं कह्यो जिनराय हो । ते सूतर भगोती रं शतक सात मैं दूजा उदेसा मांय हो ||२७|| दरबे सासतो जीव ने यूं कह्यो, जीव रो अजीव न थाय हो । भावे जीव ने कह्यो छे असासतो, ते तो परजाय पलटे जाय हो ||२८|| नारकी देवता से मिनख तिरजंच हुवै, मिनख तिरजंच रो देवता थाय हो । इत्यादिक जीव रा भाव अनेक ही, ते और रो और हूय जाय हो ॥३७॥ भगवती-जोड़ २४० ११. पंचिदियतिरिक्खजोणिया सव्वत्थोवा पच्चक्खाणापच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । १२. मणुस्सा सव्वत्थोवा पच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । ( ० ७५७) १३, १४. ननु षष्ठशते चतुर्योद्देशके ( ६ । ६४,६५ ) प्रत्याख्यान्यादयः प्ररूपिता इति किं पुनस्तत्प्ररूपणेन ? ( ० १० २९९) १५. सत्यमेतत् किन्त्वपबहुत्वाचिन्तारहितास्तत्र प्ररूपिता इह तु तद्युक्ताः सम्बन्धान्तरद्वारायाताश्चेति । (४० १० २९९ ) १६. जीवाधिकारात्तच्छाश्वतत्वसूत्राणि - ( वृ० १० २९९) १७. जीवा णं भंते ! कि सासया ? असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया । ० ७५८ ) वुच्चइ - जीवा सिय गोयमा ! दव्वट्टयाए ( श० १८. से केणट्ठणं भंते ! एवं सासया ? सिय असासया ? सासया, 'दव्वट्टयाए' त्ति जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थः । ( वृ० प० २६९ ) १६. भावट्टयाए असासया । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - जीवा सिय सासया, सिय असासया । ( ० ७२९) 'भावट्टयाए' त्ति नारका दिपर्यायत्वेनेत्यर्थः । ( वृ० प० २६६ ) २०. नेरइया णं भंते ! कि सासया ? असासया ? एवं जहा जीवा तहा नेरइया वि । एवं जाव वेमाणिया । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. सिय सासया, सिय असासया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० ७।६०) . (श० ७.६१) २१. इण अर्थे जाव' कदा सास्वता, कदा असास्वता जाणी। सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम कहै गौतम वाणी।। २२. सातमा शतक नों बीजो उदेशो, एक सौ सोलमी ढालो। भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो। सप्तमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।७।२।। ढाल : ११७ १. जीवाधिकारप्रतिबद्ध एव तृतीयोद्देशकस्तत्सूत्रम् (वृ०प० २६६) १. जीव तणां अधिकार थी, प्रतिबद्ध ईज पिछाण । तृतीय उद्देशक पुनः, ते सूत्र वणस्सइ जाण ॥ *देव जिनेन्द्र दयाल गोयम नी, जग मांहि जुगती जोड़ी जी॥ध्र पद।। २. वनस्पतिकाय हे भगवंतजी, काल किस सुविचारो जी। सर्व थकी अल्प आहार करे छ, सर्व थकी महा आहारो जी? ३. श्री जिन भाख श्रावण भाद्रवे, पाउस ऋतू मझारो। आसोज काती वर्षा ऋतु में, सर्व थकी महा आहारो॥ २. वणस्सइक्काइया णं भंते ! कं कालं सव्वप्पाहारगा वा ? सव्वमहाहारगा वा भवंति ? ३. गोयमा ! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइ काइया सव्वमहाहारगा भवति । प्रावृट् श्रावणादिवर्षारात्रोऽश्वयुजादिः । (वृ० ५० ३००) ४. तदाणंतरं च णं सरदे, तदाणंतरं च णं हेमंते, 'सरदे' ति शरत् मार्गशीर्षादिस्तत्र । (वृ० प० ३००) ५. तदाणंतरं च णं वसंते, तदाणंतरं च णं गिम्हे । ४. तिवार पछै मृगसिर नैं पोस में, शरद ऋतु अल्प आहारो? तिवार पछै माह फागुण हेमंत, अल्प आहारी सुविचारो ।। ५. तिवार पछै जे चैत वैशाखे, वसंत ऋतु अल्प आहारो। तदनंतर जे ग्रीष्म ऋतु में, कहिये तास प्रकारो॥ ६. जेठ आसाढ ग्रीष्म ऋतु मांहै, वणस्सइकाय विचारो । सर्व थकी अल्प आहार करै छ, ए जिन वाण उदारो ॥ ७. जो प्रभु! ग्रीष्म मांहि वनस्पती, सर्व अल्प आहारवंतो। तो प्रभ ! ग्रीष्मे वनस्पति किम, पत्र फुल फल हंतो। ८. हरित नील वर्णे करिने जे, देदीप्यमान दीपंता । वन लक्ष्मी करि घj-घणुं ते, शोभायमान रहंता ? ६. गिम्हासु णं वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवंति । (श० ७.६२) ७. जइ णं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सब्वप्पाहारगा भवंति, कम्हा णं भंते ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुप्फिया, फलिया, ८. हरियगरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ? हरितकाश्च ते नीलका रेरिज्जमानाश्च देदीप्यमाना हरितकरेरिज्यमानाः । (वृ० प० ३००) ६. गोयमा ! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य, पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए वक्कमंति, ६. जिन भाखै ग्रीष्म ऋतु मांहै, बहु उष्णयोनिया जीवा । वलि पुद्गल पिण वनस्पतिपणे, वक्कमति कहितां उपजे अतीवा॥ १. अंगसुत्ताणि भाग २ सू० ७।६० में यह 'जाव' उपलब्ध नहीं है। *लय : शांतिनाय मेरे मन वसिया श०७, उ० ३, ढा० ११७ २४१ Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, ११. भगवई श० २।११३ ११. चयंति, उववज्जति । १०. विउक्कमति कहितां विणसै छै, ए बिहं पद नों अर्थ जाणी। तेह विपर्ययपण कहै छै. सांभलज्यो चित ठाणी॥ ११. चयंति कहितां तेह चवै छै, उववज्जंति कहिता उपजिये । ए चिहं पद नों अर्थ द्वितीय शतक पंचमद्देशे' तिम कहिये । १२. इम निश्चै ग्रीष्म ऋतु नै विषे, वनस्पती बह जीवा । पानवंत अरु पुष्पवंत ए, जावत तिष्ठ अतीवा ।। १२. एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुफिया, फलिया, हरिय गरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति। (श०७।६३) १३. से नूणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा, १४. जाव (सं० पा०) बीया बीयजीवफुडा (श० ७।६४) १३. मूल प्रभ ! मूल जीव संघाते, फा छै अधिकायो । कंद संघाते कंद जीव ते, फा छै ए ताह्यो। १४. जाव बीज ते बीज जीव थी, फा एम पिछाणी । गोतमजी इण विध प्रश्न पूछ्ये ? जिन कहै हंता जाणी॥ सोरठा १५. कंद जमी रै मांहि, गांठ रूप मध्य भाग जे । ते कंद थी नीकली ताहि, चिहुं दिशि जटाज मूल ते॥ १६. तिण सू मूलज जीव, पृथ्वी करी प्रतिबद्ध छ । मही-रस अधिक अतीव, तेह प्रतै ए आहरै। १७. कंद जीव मूल तणो छै तेह, रस मूल करी प्रतिबद्ध छ । जेह, तेह प्रतै ए आहरै ।। १६. मूलानि मूलजीवस्पृष्टानि केवलं पृथिवीजीवप्रति बद्धानि""तस्मात्' तत् प्रतिबन्धाद्धेतोः पृथिवीरसं मूलजीवा आहारयन्ति । (वृ० प० ३००) १७. कन्दाः कन्दजीवस्पृष्टा: केवलं मूलजीवप्रतिबद्धाः 'तस्मात्' तत्प्रतिबन्धात् मूलजीवोपात्तं पृथिवीरसमाहारयन्ति । (वृ०प० ३००) १८. जइ णं भंते ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीय जीवफुडा, कम्हा णं भंते ! वणस्सइकाइया आहारेंति ? कम्हा परिणामेंति ? १८. *जो प्रभ! मूल फो मूल साथै, जाव बीज फयों बीज साथो। ___ तो किम वणस्सइ आहार करै छै, केम परिणमै नाथो? सोरठा १९. मूल भूमि रै मांहि, बीज भूमि स्यू दूर छ । आहार सहु ने ताहि, वलि सहु ने किया परिणमैं ।। २०. *जिन कहै मल ते मूल जीव थी, फा एह अत्यंतो । पृथ्वी जीव संघात बंध्या छै, तिण सं आहार करै परिणमंतो ।। २१. कंद जीव कंद साथ फा छै, मूल जीव थी बंधाणो। तिण सू आहार करै नै परिणमैं, इम खंधादिक जाणो ।। २०. गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा पुढवीजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेति । २१. कंदा कंदजीवफुडा मूल जीवपडिबद्धा, तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति । एवं स्कन्धादिष्वपि वाच्यम् (वृ०प० ३००) २२. एवं जाव बीया बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति । (श०७।६५) २२. इम जाव बीज ते बीज जीव थी, फा थकाज अत्यंतो। फल जीव प्रतिबद्ध रस पाम्यां, तिण सूआहार करै परिणमंतो॥ *लय : शान्तिनाथ मेरे मन बसिया १. अंगसुत्ताणि (भाग २) ७।६३ में विउक्कमंति पाठ पाठान्तर में लिया गया है, मूल में तीन ही पद रखे गए हैं। दूसरे शतक (२।११३) में चारों पद उल्लिखित हैं। २४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. अथ प्रभ! आल मलो नैं आदो, हिरिलि सिरिलि ताह्यो । सिस्सिरिलि किट्रिका नै छिरिया, अनंतकाय कहिवायो ? २४. क्षीरविरालिया कृष्णकंद वलि, वज्रकंद सूरणकंदो। खेलूड में अद्दमत्था' पिंडहलिद्दा लोहि णीहू मंदो। २५. थीहू विभगा' बे भाग सरीखा, अश्वकर्णी सींहकर्णी । सिउंढी मसंढी सहु लोकरूढ़ि गम्य अनंतकाय ए वर्णी । २६. अन्य वलि जे एह सरीखी, अनंत जीव सहु मांह्यो । विविह सत्व वर्णादि भेद थी, बहु प्रकार कहिवायो॥ २३. अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्ठिया, छिरिया, २४. छीरविरालिया, कण्हकंदे, वज्जकंदे, सूरणकंदे, खेलूडे, भद्दमोत्था, पिंडहलिद्दा, लोही, णीहू, २५. थीहू, थिभगा, अस्सकण्णी, सीहकण्णी, सिउंढी, मुसंढी, एते चानन्तकायभेदा लोकरूढ़िगम्याः, (वृ० प० ३००) २६. जेयावणे तहप्पगारा सवे ते अणंतजीवा विविहसत्ता? विविधा-बहुप्रकारा वर्णादिभेदात् . (वृ० प० ३००) २७. 'विविहसत्त (चित्ताविहि)' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र विचित्रा विघयो-भेदा येषां ते तथा ते सत्त्वा येषु ते तथा। (वृ० प० ३००) २८. हंता गोयमा ! आलुए मूलए, जाव अणंतजीवा विविहसत्ता। (श० ७।६६) २७. विविह सत्ता किहांइक दीस, वि कहितां विचित्र कहीजै । विध कहितां भेद छै जेहनां, ते सत्ता जीवा लहीजै। २८. हे प्रभ! ए सह अनंतकाय छै? प्रश्न गोयम इम मत्ता । जिन कहै हंता आलू मूल ए, जाव अनंत जीव विविध सत्ता ।। दोहा २६. जीव तणां अधिकार थी, जीव नारकी आद । लेस्या करि तसु प्रश्न हिव, पूछ धर अहलाद ।। ३०. *कृष्णलेस्यावंत नारक हे प्रभु ! अल्पकर्मी किणवारै ? नील लेश्यावंत महाकर्मी छै? जिन कहै हंता जिवारै।। २६. जीवाधिकारादेवेदमाह (वृ० प० ३००) ३१. किण अर्थे तब श्री जिन भाखै, स्थिति पडुच्च कहीजै । तिण अर्थे जाव महा-कर्मवंत, न्याय हिवै इम लीजै ।। सोरठा ३२. नरक सातमी मांय, कृष्णलेस्यावंत नेरइयो । निज स्थिति घणी खपाय, अल्प रही वर्तं तहां ॥ ३३. नरक पंचमी मांहि, नीललेसी जे नेरइयो । सतर सागर स्थिति ताहि, ते तत्काल समप्पनो ॥ *लय : शान्तिनाथ मेरे मन वसिया १. इसके स्थान पर अंगसुत्ताणि भाग २ में 'भद्दमोत्था' पाठ है। 'अद्दमोत्था' को - वहां पाठान्तर माना गया है । २. इसके स्थान पर अंगसुत्ताणि भाग २ में 'थिभगा' पाठ है। 'विभगा' को वहां पाठान्तर माना गया है। ३. प्रस्तुत आगम की वृत्ति में नील लेश्या वाले नैरयिक की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागर की उल्लिखित है। जयाचार्य ने उसका अनुवाद मात्र किया है, ३०. सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए ? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? हंता सिय । (श० ७१६७) ३१. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए ? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? गोयमा ! ठिति पडुच्च । से तेणठेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए। (श० ७।६८) ३२. सप्तमपृथिवीनारक: कृष्णलेश्यस्तस्य च स्वस्थिती ___ बहुक्षपितायां तच्छेषे वर्तमाने। (वृ० ५० ३०१) ३३. पञ्चमपृथिव्यां सप्तदशसागरोपमस्थिति रको नीललेश्यः समुत्पन्नः, (वृ० प० ३०१) श०७, उ० ३, ढा०११७ २४३ Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. तमपेक्ष्य स कृष्णलेश्योऽल्पकर्मा व्यपदिश्यते, एवमुत्तर सूत्राण्यपि भावनीयानि । (वृ० प० ३०१) ३४. ते नील तणी अपेक्षाय, कृष्णलेसी अल्प कर्म छ। इम स्थिति आश्री ताय, सूत्र आगल पिण जाणिय ॥ ३५. *नील लेस्यावंत नारक प्रभजी ! अल्प कर्म किण वारै । कापोत नारक महाकर्मी छ ? जिन कहै हंता जिवारे॥ ३६. किण अर्थे ?तब श्री जिन भाखै, स्थिति आश्री कहिवायो । तिण अर्थे नील अल्पकर्मवंत, कापोत महाकर्म थायो । ३७. असुरकुमार पिण इमहिज भणवा, णवरं तेजू अधिकाइ । एवं जाव वैमानिक कहिवा, लेस पावै ते थाइ ॥ ३५. सिय भंते ! नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए ? काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए ? हंता सिय । (श०७।६६) ३६. से केणठेणं भंते ! ......"गोयमा ! ठिति पडुच्च । से तेणठेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए। (श० ७७०) ३७. एवं असुरकुमारे वि, नवरं-तेउलेसा अब्भहिया । एवं जाव वेमाणिया जस्स जइ लेस्साओ तस्स तत्तिया भाणियव्वाओ। ३८. जोइसियस्स न भण्णइ एकस्या एव तेजोलेश्यायास्तस्य सद्भावात् संयोगो नास्तीति । (वृ०प०३०१) ३६. जाव (श० ७७१) सिय भंते ! पम्हलेस्से वेमाणिए अप्पकम्मतराए ? सुक्कलेस्से वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता सिय । (श० ७७२) ४०. से केणठेणं? सेसं जहा नेरइयस्स (सं० पा०) जाव महाकम्मतराए। (श० ७१७३) ३८. जोतिषि नो दंडक नहि भणवो, लेस्या इक तिण मांही । लेस संयोग नहीं तिण माट, जोतिषि भणवो नांही।। ३६. जाव कदा पद्मलेसी वैमानिक, अल्पकर्मी किण वारै । महाकर्मी शुक्ललेसी वैमानिक ? जिन कहै हंता जिवारै॥ ४०. किण अर्थे प्रभजी! इम कहिये, शेष नरक जिम जाणी। जावत महाकर्मवंत कहीजै, न्याय पूर्ववत छाणी॥ ४१. कह्या हिवै सोरठा सलेसी जोय, वेदनवंत वेदना सोय, ते आगल हुवै तिके । कहियै अछ। ४१. सलेश्या जीवाश्च वेदनावन्तो भवन्तीति वेदनासूत्राणि (वृ०प० ३०१) *लय : शान्तिनाथ मेरे मन बसिया पर इस विषय में अपना कोई मत प्रदर्शित नहीं किया। इसकी समीक्षा में कोई वातिका या टिप्पण भी नहीं लिखा । उत्तराध्ययन (३४॥३५) के संदर्भ में यह अभिमत संगत नहीं है। वहां नीललेश्या वाले नैरयिक की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर बताई गई है। यह तथ्य आचार्यश्री तुलसी द्वारा निर्मित तीन सोरठों में निरूपित है। वे सोरठे इस प्रकार हैंवृत्ति विषे इम वाय, नीललेसी जे नेरइयो । सतर सागर स्थिति ताय, उपजे नरक पंचमी विषे । उत्तराध्ययन मझार, चउतीसम अध्ययन में । नील लेश्या स्थिति सार, दश सागर जाझी कही ।। तिणसू ए अप्रमाण, नीललेसी जे नेरियो । सतर सागर स्थिति माण, उपजे नहिं पंचमि नरक । २४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. *ते निश्चै प्रभ ! जिका वेदना, तिका निर्जरा कहिये । जिका निर्जरा तिका वेदना ? जिन कहै इम नहिं लहिये ।। ४३. किण अर्थे प्रभ ! जिका वेदना, तिका निर्जरा नांही। जिका निर्जरा नहिं ते वेदना ? हिव जिन भाखै त्याही । ४४. उदय कर्म हवे ते वेदना, निर्जरा कर्म अभावो । एहवा स्वरूप थकी तिण अर्थे, जुदा बिहु इण न्यावो ।। ४२. से नूणं भंते ! जा वेदणा सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदणा ? गोयमा ! णो इणठे समठे। (श० ७१७४) ४३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइजा वेदणा न सा निज्जरा? जा निज्जरा न सा वेदणा? ४४. गोयमा ! कम्म वेदणा, नोकम्मं निज्जरा । से तेण ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जा वेदणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेदणा । (श० ७७५) कम्मवेयण' त्ति उदयं प्राप्तं कर्म वेदना""नोकम्म निज्जरे' ति कर्माभावो निर्जरा तस्या एवं स्वरूपत्वादिति । (वृ० प० ३०२) ४५. नेरइया णं भंते ! जा वेदणा सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदणा? गोयमा ! णो इणठे समठे। (श० ७७६) ४६. से केण?णं भंते ! ........ गोयमा ! नेरइयाणं कम्मं वेदणा, नोकम्मं निज्जरा। से तेणठेणं गोयमा ! जाव (सं० पा०) न सा वेदणा। (श० ७।७७) ४७. एवं जाव वेमाणियाणं । (श० ७७८) ४५. नारकी ने प्रभ! जिका वेदना, तिका निर्जरा जोयो । जिका निर्जरा तिका वेदना ? जिन कहै इम नहि होयो। ४६. किण अर्थे ? तब जिन कहै नरके, कर्म उदय वेदन छ । कर्म अभाव निर्जरा कहिय, तिण अर्थे ए वचन छै॥ ४७. एवं जाव वैमानिक कहिवा, समचै एह बताया । काल त्रिहुं आश्री हिव आगल, प्रश्न उत्तर सुखदाया ॥ ४८. ते निश्चै प्रभ ! गया काल में, वेद्यो ते निर्जरयो कहिये । निर्जरियो कर्म वेद्यो कहिये ? जिन कहै इम न उच्चरियै ।। ४६. किण अर्थे ? तब श्री जिन भाख, जे वेद्यो ते कर्मो। निर्जरयो ते नोकर्म कहीजै, तिण कारण ए मर्मो । ५०. नारकी जे गये काले वेद्यो, ते निर्जरियो कहिये । पूरववत दंडक चउवीसे, इमज प्रश्नोत्तर लहिये । ५१. जे निश्चै प्रभ! हिवड़ां वेदै छ, ते निर्जरै इम कहिये । ते हिवड़ा निर्जरै ते वेदै ? जिन कहै इम नहिं थइयै ॥ ४८. से नूणं भंते ! जं वेदेंसु तं निज्जरेंसु ? जं निज्जरेंसु तं वेदेंसु ? णो इणठे समठे। (श० ७७६) ४६. से केणठेणं भंते ! गोयमा ! कम्मं वेदेंसु, नोकम्मं निज्जरेंसु । से तेण ठेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेंसु । (श० ७८०) ५०. एवं नेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया ॥ (श०७।८१) ५१. से नुणं भंते ! जं वेदेति तं निज्जरेंति ? जं निज्ज रेंति तं वेदेति ? गोयमा ! णो इणठे समझें। (श० ७.८२) ५२. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव नो तं वेदेति ? गोयमा ! कम्मं वेदेति, नोकम्म निज्जरेंति । से तेण द्रुणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति । (श० ७।८३) ५३. एवं नेरइया वि जाव वेमाणिया। (श० ७८४) ५२. किण अर्थे ? तब श्री जिन भाखै, वेदै ते कर्म पिछानो । निर्जरै ते नोकर्म कहीजे, तिण अर्थे ए जानो। ५३. एवं नारकी जाव वैमानिक, आख्यो ए वर्तमानो । काल अनागत नां हिव कहिये, सुणो सुरत दे कानो ॥ * लय : शान्तिनाथ मेरे मन बसिया श०७, उ० ३, ढा० ११७ २४५ Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. निश्चे जे प्रभु! कर्म वेदस्ये, ते निर्जरस्ये जे निर्जरस्ये तेज वेदस्ये ? जिन कहै इस न ५५. किण अर्थे ? तब श्री जिन भाखै, वेदस्ये ते कर्म सारो । निर्जरस्ये नोकमं भणी इज तिण अर्थ इम धारो ॥ ५६. एवं नारकी जाव वेदना ने निर्जरा यतनी ५७. प्रभु! वेदना समय से जेह, ते निर्जरा समय जे निर्जरा समयो होय, ते वेदना ५८. तब भाखै श्री जिनराय, अर्थ समर्थ for अर्थे ए प्रभु ! वाय? हिव श्री जिन ५६. जे समय वे ज्यांही ते समय निर्जरे वेदे छै जे समय निर्जरं जेह, ते समय वेदं नहि ६४. नारकी जे समय जे समय निर्जरं कहिये । सद्दहिये ॥ वैमानिक, काल त्रिहुं ₹ नहि कहिये, निर्जरा वेदना २४६ वेदंत, ते समय जेही, ते समय मांही । नांही ॥ ६०. वेदै समय अनेरा मांय, अन्य समय निर्जरा धाय । वेदना नो समय अन्य होय, निर्जरा नो समय अन्य जोय ॥ ६१. तिण अ अर्थे को ए मर्म, जे समय वेदे जे कर्म । ते समय निर्जरै न ताय, निर्जरै ते समय न वेदाय ॥ ६२. नारकी नैं हे भगवान ! जे समय वेदं कर्म जान तेहिज समय विषे कहिवाय निर्जरा ते कर्म नीं थाय ? ६३. जे समय निर्जरा जेह ते समय वेदना तेह ? जिन कहे अर्थ समर्थ नांय, किण अर्थ ? तब श्री जिन वाय ।। कहेह | समयो जोय ? ए न कहाय । दाखे न्याय || नाही । । तेहू ।। ६५. अन्य समय विषे वेदंत, अन्य समय वेदना नों समय अन्य जोय, निर्जरा नों ६६. तिण अर्थे जे समय विचार, वेदना निर्जरा नों न्यार । इम जाव वैमानिक तांई, अर्थ समझ लेवो मन मांही ॥ नहीं निर्जरंत । वेदै नहिं तेही ॥ विषे निर्जरंत | समय अन्य होय ॥ सोरठा ६७. वेदनवंत विमास, किणहि प्रकार करी प्रभु । कला सास्वता तास, सूत्र हि हिवै सास्वत तणुं ॥ ५४. से नूणं भंते! जं वेदिस्संति तं निज्जरिस्संति ? जं निज्जरिस्संति तं वेदिस्संति ? गोयमा गो हग सम ५५. से केणट्ठेणं जाव नो तं वेदिस्संति ? गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति, नोकम्मं निज्जरिस्संति । सेते जायनो तं निरिति । ५६. एवं नेरइया वि जाव वेमाणिया । (To WCX) ४८. पोइट्ठे समट्ठे । से के भंते! ५७. से नृपं भंते! जे वेदगासमए से निश्वरासमए ? वे निरास से बेगाराम ? (०७८६) ( श० ७ ८७ ) (०) ५६. गोयमा ! जं समयं वेदेंति नो तं समयं निज्जरेंति, जं समयं निज्जरेंति नो तं समयं वेदेति । ६०. अण्णम्मि समए वेदेति, अण्णम्मि समए निज्जरेंति । अण्गे से वेदणास असे समए । ६१. से तेणट्ठेणं जाव न से वेदणासमए, न से निज्जरासमए । ६२. जे वेदणासमए से निरासमए ? ( श० ७८९ ) ( श० ७१६० ) ******** ६३ जे निज्जरासमए से वेदणासमए ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । सेकेणट्ठेणं भंते !' ६४. गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदेति नो तं समयं निज्जरेंति, जं समयं निज्जरेंति नो तं समयं वेदेति ६५. अण्णम्मि समए वेदेति, अण्णम्मि समए निज्जरेंति । अण्णे से वेदणासमए, अण्णे से निज्जरासमए । ६६. से तेणट्ठेणं जाव न से वेदणासमए । ( श० ७/६१ ) एवं जाव वैमाणियाणं । (TO GIER) ६७. पूर्वकृतकर्मणश्च वेदना तद्वत्ता च कथञ्चिच्छाश्वतत्वे सति युज्यत इति तच्छाश्वतत्वसूत्राणि । (४० १० २०२) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. *स्यूं प्रभ ! नारकी कह्या सास्वता, असास्वता कहिवायो? श्री जिन भाखै कदाच सास्वता, कदा असास्वता थायो। ६६. किण अर्थे ? प्रभ ! सिय सास्वता, सिय असास्वता थायो ? जिन कहै इहां नय दोय परूपी, सांभलजे चित ल्यायो। ७०. अव्यवच्छित्ति-प्रधान नये करि, द्रव्य विच्छेद न पायो । एतले जे द्रव्य आश्री नेरइया, सास्वता छै इण न्यायो। ६८. नेरइया णं भंते ! कि सासया ? असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया। (श० ७६३) ६६. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइनेरइया सिय सासया ? सिय असासया ? ७०. गोयमा ! अव्वोच्छित्तिनयट्टयाए सासया । अव्यवच्छित्तिप्रधानो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थीद्रव्यमव्यवच्छित्तिनयार्थस्तभावस्तत्ता तयाऽव्यवच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यमाश्रित्य शाश्वता इत्यर्थः । (वृ० प० ३०२) ७१. वोच्छित्तिनयट्टयाए असासया । से तेण?णं जाव सिय सासया, सिय असासया। (श० ७।१४) व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नयस्तस्य योऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा व्यवच्छित्तिनयार्थता तया २-पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता नारका इति । (वृ०प० ३०२) ७२. एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ७६५,६६) ७१. विच्छेद-प्रधान जे नय अर्थे करि, पर्याय आश्री ताह्यो । नारक जीव असास्वता कहिये, तिण अर्थे ए वायो॥ ७२. एवं जाव वेमाणिया कहिवा, जाव कदा असास्वत जाणो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! गोयम वचन प्रमाणो॥ ७३. सातमा शतक नों तीजो उद्देशो, एक सौ सतरमीं ढालो । भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो। सप्तमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥७॥३॥ ढाल : ११८ १. तृतीय उदेशक नै विषे, संसारी जे जीव । सास्वत आदि स्वरूप थी, आख्या अधिक अतीव ।। २. तूर्य उदेश विषे हिवं, तेहिज प्रति सुविचार । भेद थकी कहियै अछ, प्रश्न उत्तर सुखकार ॥ ३. राजगह यावत इम कहै, प्रभ ! संसारी जीव । कतिविध? जिन कहै षटविधा, ते षट काय कहीव ।। १. तृतीयोद्देशके संसारिणः शाश्वतादिस्वरूपतो निरूपिताः । (वृ० प० ३०२) २. चतुर्थोद्देशके तु तानेव भेदतो निरूपयन्नाह (वृ० प० ३०२) ३. रायगिहे नयरे जाव एवं वयासी-कतिविहा णं भंते! संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! छन्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया । * लय : शान्तिनाथ मेरे मन बसिया १०७, उ० ३, ढा० ११७,११८ २४७ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. इम जिम जीवाभिगम में, जाव जिहां लगे जोय । सम्मत किरिया प्रति करें, मिच्छत किरिया सोय || ५. पटविध जीव काय ते, बादर पृथ्वी जेह । घट प्रकार नीं ते अछे, बलि स्थिति तास कहेह ॥ वा० - बादर पृथ्वी छह प्रकार नीं छे - श्लक्ष्णा, शुद्धा, वालुका, मनःशिला, शर्करा और खर पृथ्वी। ए पृथ्वी नां छह भेद कह्या ते जीव नीं स्थिति ६. जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तणी, उत्कृष्टी अवलोय | वर्ष बावीस हजार नीं, पृथ्वी नीं स्थिति जोय ॥ ७. भय स्थिती नरकादि नीं तसुं अन्तर्मुहुर्त आदि दे, तेतीस ८. काय स्थिति इणविध कही, जीवकाय में जीव । सदा काल रहियै अछै, इत्यादिक सुकहीव ॥ ९. निर्लेपन ते इह विधे, पृथ्वीकाय रे माय वर्तमान काले जिता, जीव ऊपजै आय ॥ १०. समय-समय अपहार करि, असंख्यात अवचार | अवसप्पिणी उत्सप्पिणी, तिण करिनें अपहार || ११. इम उत्कृष्ट पदे अपि जघन्य पद थी जाण । उत्कृष्ट पद असंखेज्ज गुण, इत्यादिक पहिछाण ॥ १२. अणगार नी वक्तव्यता ते इम-अविमुध-केस । वेदनादि समुद्घात करि, असमवहत सुविशेष ॥ १३. अविसुधलेसी सुर सुरी, बलि तीजो अणगार । देखे या तीनू भणी ? अर्थ समर्थ न धार ॥ १४. सम्मत्त मिच्छत्त बे क्रिया, अन्ययूथिक कहै ताय । एके समये करै अछै, जिन कहै मिथ्या वाय ॥ सामान्य कहत । सागर अन्त ॥ " १५. खेवं भंते! वार मे सप्तम शते विचार । तुर्य उदेशे अर्थ ए. हिव पंचम अधिकार ॥ सप्तमशते चतुर्थोद्देश कार्थः ॥७४॥ १६. संसारी नां भेद ए, तुर्य उदेशे वेद । तसु विशेष हिव पंचमे, पंचमे, योनी-संग्रह भेद ॥ १७. राजगृह जावत इम कहै, हे प्रभु! खेचर पंचेंद्री तिर्यंच नी, कतिविध जीव । योनि कहीव ? २४८ भगवती जो ४. एवं जहा जीवाभिगमे जाव एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरे तं वहा सम्म सकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा । (TO 19126) ५. जीवा छव्विह पुढवी जीवाण ठिती भवट्ठिती काए । ( वृ० प० ३०२ ) वा० - षड्विधा बादरपृथ्वी श्लक्ष्णा, शुद्धा, वालुका, मनःशिला, शर्करा, खरपृथिवीभेदात् तथैषामेव पृथिवीभेदजीवानां स्थिति (००३०२ ) ६. अन्तर्मुहर्त्तादिका यथायोगं द्वाविशतिवर्षसहस्रान्ता वाच्या । ७. तथा नारकादिषु भवस्थितिर्वाच्या, सा च सामान्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तादिका त्रयस्त्रिशत्सागरोपमान्ता । (००३०२ ) ८. तथा कार्यस्थितिर्वाच्या, सा च जीवस्य जीवकाये सर्वाद्धमित्येवमादिका । ( वृ० प० ३०३) " ६,१०. तथा निर्लेपनावाच्या सा चैवं - प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायिकाः समयापहारेण जघन्यपदेऽसंख्याभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपह्रियन्ते । ( वृ० प० ३०३ ) ११. एवमुत्कृष्टप किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदमसंख्येयगुणमित्यादि । ( ० १० २०३) १२,१३. अनगारवक्तव्यता वाच्या, सा चेयम् — अविशुद्धलेोऽनगारोऽमवतेनात्मनाऽवश्यं देवं देवीमनगरं जानाति ? नायमर्थ ( समर्थः ) इत्यादि । ( वृ० प० ३०३ ) १४. अन्ययूथिका एवमाख्यातिएको जीव एकेन समयेन क्रियेप्रकरोति समिति मिथ्या चैतद्विरोधादिति । (४० १० २०३) १५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (20 1125) १६. चतु संसारिणो नेदत उक्ताः पञ्चमे तु त णामेव योनिसंग्रहं भेदत आह- ( वृ० प० ३०३) १७. रायगिहे जाव एवं वयासी - खयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाण मंते । कतिनि जोगीसंग पण्णत्ते ? Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. जिन भाखै त्रिविध अछ, योनी-संग्रह ताय । अंडज पोतज संमच्छिम, जीवाभिगम भलाय ।। १६ जाव अनुत्तर देव नां, केता बड़ा विमान ? उदय अस्त रवि गगन नो क्षेत्र नव गुणो मान ।। २०. आठ लाख पचास सहस्र, सप्त सया चालीस । योजन किंचित अधिक वली, इतलो खेत्र कहीस ।। २१. एहवो जे इक पांवड़ो, कोइक देव भरेह । महापराक्रम नो धणी, एहवी चाल चलेह ।। २२. एक दोय त्रिण दिन लगे, जाव छह मास पिछाण । तो पिण पार लहै नहीं, एहवा बड़ा विमाण ॥ २३. वाचनांतरे पुनः वलि, इम दीसै छै ताह । एहवो आख्यो वृत्ति में, जे संग्रहणी गाह ।। १८. गोयमा ! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तं जहा अंडया पोयया, संमुच्छिमा । एवं जहा जीवाभिगमे १६. जाव ते णं भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता? गोयमा ! जावइयं च ण सूरिए उदेइ जावइयं च णं सूरिए अत्थमेइ यावताऽन्तरेणेत्यर्थः एवंरूवाई नव उवासंतराई। (वृ० प० ३०३) २१. अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे (वृ० प० ३०३) २२. जाव एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीईवएज्जा । ___ (वृ० ५० ३०३) नो चेव णं ते विमाणे वीतीवएज्जा, एमहालया णं गोयमा ! ते विमाणा पण्णत्ता। (श० ७।६८) २३. वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते जोणिसंगहलेसा दिट्ठी णाणे य जोगउवओगे । उववायठिइसमुग्घायचवणजाईकुलविहीओ ।। (वृ० ५० ३०३) २४. तत्र योनिसंग्रहो दशित एव, लेश्यादीनि त्वर्थतो दर्श्यन्ते । (वृ० प० ३०३) २५. एषां लेश्याः षड् दृष्टयस्तिस्रः ज्ञानानि त्रीणि आद्यानि भजनया अज्ञानानि तु त्रीणि भजनयव योगास्त्रयः (वृ० प० ३०३) २६. उपयोगी द्वौ उपपात: सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः (वृ० ५० ३०३) २७. स्थितिरन्तर्मुहुर्तादिका पल्योपमासंख्येयभागपर्यवसाना समुद्घाताः केवल्याहारकवर्जाः पञ्च । (वृ० ५० ३०३) २८. तथा च्युत्वा ते गतिचतुष्टयेऽपि यान्ति तथैषां जातौ द्वादश कुलकोटीलक्षा भवन्तीति । (वृ०प० ३०३) २६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० ७.१००) a . . २४. योनी-संग्रह ते इहां, प्रगट देखाइयो ईज । लेश्या आदिक नै हिवै, कहियै अर्थ थकीज ॥ २५. खेचर पं०तिर्यंच में, लेश्या छः दष्टि तीन । ज्ञान तीन, अज्ञान त्रिण, वलि त्रिण जोग कथीन । २६. बे उपयोग सागार जे, अणागार कहिवाय । ऊपजवो सामान्य थी, चिहुं गति थकीज आय ॥ २७. स्थिति अंतर्मुहुर्त जघन्न, उत्कृष्ट पल्ल नुं संच । असंख्यातमो भाग है, समुद्घात है पंच॥ २८. गति च्यारू में जाय ते, द्वादश लख कुल कोड़ । कही वात्तिका वृत्ति थी, वाचनांतरे जोड़ ।। २६. आयुषवंत अहो श्रमण, सेवं भंते ! स्वाम । सप्तम शतके पांचमो, कह्यो उदेशो ताम । सप्तमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥७।५।। ३०. पंचमदेश विषे कह्या, योनी-संग्रह आदि । आयुवंत नै ते हवै, छठ आयुष्का दि । ३०. अनन्तरं योनिसंग्रहादिरथं उक्तः, स चायुष्मतां भवतीत्यायुष्कादिनिरूपणार्थः षष्ठः । (वृ० प० ३०४) श०७, उ०५, ढा०११८ २४९ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *परम प्रभु जिन जयकारी। जिन जयकारी शासण सिणगारी, वाण सुधा अति प्यारी हो॥ (ध्र पदं) ३१. राजगह नगर जावत गोतमजी बोल्या इह विध वाय हो । जीव प्रभ ! जे नरक रै मांहै, ऊपजवा योग्य ताय हो । ३२. ते प्रभ ! इहां रह्यो पहिला भव में, नरकायु बंध करंत । ऊपजतो छतो नरकायु बांध, ऊपनां पछै बांधत ? ३१. रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए। ३२. से णं भंते ! कि इहगए नेरइयाउयं पकरेइ ? उव वज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ ? उववन्ने नेरइयाउयं पकरेइ ? ३३. गोयमा ! इहगए नेरइयाउयं पकरेइ, नो उबवज्ज माणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने नेरइयाउयं पकरेइ । ३३. जिन कहै इहां रह्यो पहिला भव में, नरकायु बंध करंत । ऊपजतो नरकायु न बांधै, ऊपनां पछै न बांधत ॥ गोयम शिष्य महागणधारी। महा गुणधारी शासण सिणगारी, परम विनीत उदारी हो। ३४. एवं असुरकुमार पिण कहिवा, एवं जाव विमानीक । जीव प्रभु ! जे नरक रै मांहै, ऊपजवा जोग तहतीक ॥ ३५. ते प्रभु ! इहां रह्यो पहिला भव में, नरक नो आयु वेदंत । के ऊपजतो नरकायु वेदै, के ऊपना पछै वेदंत ? ३६. जिन कहै इहां रह्यो पहिला भव में, नरकायु नहि भोगवंत । ऊपजतो छतो नरकायु वेदै, ऊपना पछै वेदंत ।। ३४. एवं असुरकुमारेसु वि, एवं जाव वेमाणिएसु । - (श० ७।१०१) जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, ३५. से णं भंते ! कि इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? ३६. गोयमा ! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उव वज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ । ३७. एवं जाव वेमाणिएसु । (श० ७.१०२) जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, ३८. से णं भंते ! कि इहगए महावेदणे ? उववज्जमाणे महावेदणे ? उववन्ने महावेदणे ? ३९. गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे, ३७. एवं जाव वैमानिक कहिवा, वलि गोयम पूछाय । जीव प्रभु ! जे नरक रै मांहे, ऊपजवा योग्य ताय ।। ३८. ते प्रभु ! इहां रह्यो पहिला भव में, महा वेदनावंत । के ऊपजतो महावेद नवंत छै, के ऊपनां पछ हंत? ३६. जिन कहै इहां रह्यो पहिला भव में, रोगादि कारणे जोय । . महावेदनावंत कोइक छै, अल्पवेदनवंत कोय । ४०. नरक विषे ऊपजतो छतो पिण, जीव कोइ एक जोय । महा वेदनावंत हुवै छै, अल्पवेदनवंत कोय ।। ४१. अथ हिव नरक विषे ऊपनां पछे, एकांत सर्वथा ताय । दुख रूप वेदन प्रति वेदै, साता किवारै थाय । ४०. उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे, सोरठा ४२. परमाधामी आदि, असंयोग अद्धा विषे । तीर्थंकर जन्मादि, कदाचित साता हुवै ।। ४३. *हे प्रभु ! असुरकुमार विषे इज, तास पूछा जिन वाय । जिन कहै कदा इहां रह्यो महावेदन, अल्प वेदन कदा थाय ।। *लय : परम गुरु ऊभा थे रहिज्यो ४१. अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, आहच्च सायं । (श० ७.१०३) सर्वथा दुःखरूपां वेदनीयकर्मानुभूतिम् (वृ० प० ३०५) ४२. कदाचित् सुखरूपां नरकपालादीनामसंयोगकाले । (वृ० ५० ३०५) ४३. जीवे गं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए, पुच्छा । गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे, २५. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४४. ऊपजतो छतो कदा महावेदन, अल्प वेदन कदा बाय ऊपनां पर्छ एकांत सुख वेदना, कदा असाता थाय ॥ सोरठा ४५. देवी प्रमुख वियोग, कदा तथा प्रहार प्रयोग, जावत ४६. *जीव प्रभु ! पृथ्वी विषे ऊपजै, तास पूछा जिन वाय । इहां रह्यो महावेदन कदाचित, अल्प वेदन कदा थाय ॥ असाता वेदना | थणियकुमार इम ॥ ४७. ऊपजतो थको पिण इम कहिवो, ऊपनां पछै अवलोय । बेमात्रा करि वेदना वेदे इम जाव मनुष्य में जोय ॥ ४८. व्यंतर जोतिषि जोतिषि वैमानिक में, ऊपजवा जोग ताय । प्रश्न उत्तर जेम असुर में उपजे तिम कहिवाय ॥ ४२. जीव जाणतो थको प्रभु स्वं आयु बांधे निपजाय । के बणजाणतो आउलो बांधे ? हिव भाखे जिनराय ॥ ५०. जाणतो थको आयु नहि बांधे, अजाणतो आयु बंधाय नारकी ने पिण इहविध कहिवो इम जाव वैमानिक पाय ।। 7 ५१. कर्कस रोद्र दुबे करि वेदं कर्म इसा दुखदाय | हे प्रभु! जीव करै छे उपार्जे ? हंता ए जिन वाय ॥ सोरठा विषे । । ५२. बंधक नां जे शीस, तेहनीं परं जगोस, पील्या पाणी ने कहियै कर्कस वेदनी ॥ । ५२. *किम प्रभु ! कर्कस बेदनी बांधे ? तब भाले जिन वाय पाप अठार करि नैं जीवा, कर्कस वेदनी उपाय || ५४. नरक प्रभु ! बांधे कर्कस बेदनी ? जिन कहे इमज कहाय । एवं जाव वैमानिक नैं, पाप सेव्यां बंधाय ॥ २२. हे प्रभु! जीव अकर्कस वेदनी, कर्म करे ते बंधाय ? पुन्य अत्यन्त अकर्कस कहिये, जिन कहै हंता वाय ॥ *लय: परम गुरु ऊभा थे रहिजो · ४४. उपजमा सिप महावेद सिव अपवेद आहे पं उववन्ने भवइ तओ पच्छा एगंतसातं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं । ४५. 'बहस' ति हारापनिपाताद (४० १० २०५) एवं जाव थणियकुमारेसु । ( श० ७ १०४ ) ४६. जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववज्जि - तए, पुच्छा । गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे । ४७. एवं उववज्जमाणे वि, अहे णं उववन्ने भवइ तभो पच्छा वेमायाए वेदणं वेदेति । एवं जाव मणुस्सेसु । ४८. वाणमंतर जोतिय-वेमानिए जहा असुरकुमारेसु । (०७१०५) ४६. जीवा णं भंते ! कि आभोगनिव्वत्तियाउया ? अणाभोगनिव्वत्तियाउया ? ५०. गोयमा ! नो आभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिव्वत्तियाउया । एवं नेरइया वि एवं जाव वेमाणिया । (०७१०६) ५१. अत्थि णं भंते ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता अत्थि । कर्कः पानि तानि कर्कशवेदनीयानि ( वृ० प० ३०५) ( वृ० प० ३०५ ) ५२. कानामिवेति (श० ७ १०७) ५३. कहण्णं भंते ! जीवाणं कक्कसवेय णिज्जा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! पाणाइवाएण जाव मिच्छादंसण सल्लेणंएवं खलु गोयमा ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति । (०७१०८) ५४. अत्थि णं भंते! नेरइयाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? एवं चेव । एवं जाव वैमाणियाणं । ( श० ७ १०९ ) ५५ अत्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? हंता अस्थि । ( श० ७ ११० ) श० ७, उ० ६ ढाल ११८ २५१ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५६. भरत प्रमख पहिछाण, चक्री नी परि जाणिवा । जबर पुन्य महिमाण, ते अकर्कस वेदनी॥ ५७. *हे प्रभ ! जीव अकर्कस वेदनी, ते कर्म केम बंधाय ? जिन कहै प्राणातिपात तूं निवर्त, ए त्याग आश्री कहिवाय ।। ५८. एवं जाव परिग्रह थी निवत्त, क्रोध तज क्षमताय । जाव मिच्छादसणसल्ल थी निवत्तै, अकर्कस वेदनी बंधाय ।। ५६. नेरइया नैं अकर्कस वेदनी, ते प्रभु ! कर्म बंधाय ? जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, संजम नहिं तिण मांय ।। ६०. एवं जाव वेमाणिया कहिवा, णवरं मनुष्य रै माय । बंध अकर्कस जीव तणी परि, संजम इण में पाय ।। ६१. प्राणातिपात नो वेरमण ते, वृत्ति में संजम कह्यो । ते भणी इक मनुष्य में इज, बंध अकर्कस लह्यो। ६२. नारकादिक मांहि संजम, नहीं छै तिण कारण । कर्म अकर्कस न बंध, वृत्तिए वर धारण ॥ ६३. *जीव प्रभ ! साता वेदनी बांधै ? हंता कहै जिनराय । हे भगवंत ! जीव साता वेदनी, कर्म ते केम बंधाय ? ५६. सुखेन वेद्यन्ते यानि तान्यकर्कशवेदनीयानि भरतादीनामिव, (वृ० प० ३०५) ५७. कहण्णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं ५८. जाव परिग्गहवेरमणेणं, कोहविवेगेणं जाव मिच्छा दंसणसल्लविवेगेणं-एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति । (श० ७१११) ५६. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? णो इणठे समठे। ६०. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं-मणुस्साणं जहा जीवाणं । (श० ७.११२) ६१. 'पाणाइवायवेरमणेणं' ति संयमेनेत्यर्थः । (वृ० प० ३०५) ६२. नारकादीनां तु संयमाभावात्तदभावोऽवसेयः । (वृ० ५० ३०५) ६३. अस्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जति? हंता अस्थि । (श० ७.११३) कहण्णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कति ? ६४. गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणु कंपयाए, सत्ताणुकंपयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए ६५. असोयणयाए अजूरणयाए 'असोयणयाए' त्ति दैन्यानुत्पादनेन 'अजूरणयाए' त्ति शरीरापचयकारिशोकानुत्पादनेन । (वृ० प० ३०५) ६६. अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए 'अतिप्पणयाए' त्ति अश्रुलालादिक्षरणकारणशोकानुत्पादनेन 'अपिट्टणयाए' त्ति यष्ट्यादिताडनपरिहा (वृ० प० ३०५) ६७. अपरियावणयाए-एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति । 'अपरियावणयाए' त्ति शरीरपरितापानुत्पादनेन । (वृ० प० ३०५) ६४. जिन कहै प्राण भूत जीव सत्व नी, अनकंपा करि ताय । प्राण भूत बहु जीव सत्व नै, दुख अणदेवै थाय ॥ . ६५. असोयणयाए दीनपणुं ते, अणकरिवै __ अजूरणयाए तनु क्षयकारी, सोग नहीं अधिकाय । उपजाय ।। ६६. अतिप्पणयाए आंसू लालादिक, सोग कारण न उपाय ॥ अपिट्टणयाए लाठी प्रमुख सू, ताड़णा न करै ताय ।। रेण । ६७. अपरियावणयाए शरीर में, परितापना न उपाय। तेणे करी जीव साता वेदनी, कर्म निश्चइ बंधाय ।। *लय : परम गुरु ऊभा थे रहिजो लिय: पूज मोटा भांज तोटा २५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. एवं नारकी जाव वेमाणिया, बुद्धिवंत जाणें न्याय । दुख न दियां बंधै साता वेदनी, पिण सुख दियां कह्यो नांय ।। ६६. जीव प्रभु ! बांधे असाता वेदनी ? हंता कहै जिनराय । हे प्रभ! जीव असाता वेदनी कर्म ते केम बंधाय ? ६८. एवं नेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं । (श०७।११४) ६६. अस्थि णं भंते ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता अस्थि । (श० ७।११५) कहण्णं भंते ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? ७०. गोयमा परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूरणयाए, ७१. परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरियावणयाए, ७०. जिन भाखै पर मैं दुख देव, पर ने दीन करै ताय । पर मैं झूरावै तनु क्षयकारी, तास सोग उपजाय ॥ ७१. आंसू लालादिक पर मैं करावं, सोग कारण उपजाय । लाठी प्रमख सूपर नैं ताड़े, पर परिताप उपाय ।। ७२. घणां प्राण भूत जीव सत्व नै, दुक्ख सोग उपजाय । जाव परितापना पर मैं उपावै, इम असाता वेदनी बंधाय । ७२. बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए, जूरणयाए, तिप्पणयाए, पिट्टणयाए, परियावणयाए–एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असाता वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति । ७३, एवं नेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं ।। (श०७।११६) ७६. गिहिणो वेयावडियं (दसवेआलियं ३।६) ७७. ......."संपुच्छणा....... (दसवेआलियं ३।३) ७३. एवं नारकी जाव वैमानिक, दुख दियां असाता बंधाय । दुख न दीधां बंध साता वेदनी, बुद्धिवंत जाणे न्याय ॥ सोरठा ७४. 'दुख नहि दीधा तास, दाखी साता वेदनी । जोवो हिये विमास, पिण सुख दीधां नहिं कह्यो । ७५. असंजती रो जाण, मरणो मैं वलि जीवणो । राग द्वेष पहिछाण, धर्म नहीं ते वंछियां ।। ७६. दशवकालिक मांय, गहस्थ नी व्यावच कियां । अणाचार कहिवाय तो गृहि-व्यावच में धर्म नहिं ।। ७७. साता पूछ सोय, अणाचार छ सोलमों। साता करेज कोय, धर्म किहां थी तेहमें ।। ७८. साधु नै अणाचार, श्रावक नै थाप धरम । वचन वदै अविचार, मिथ्यादृष्टी जीवड़ा । ७६. नशीत पनरमा मांय, गृहस्थ नै चिहुं आ'र दे । अनुमोदै मुनिराय, चोमासी दंड तेहनें । ५०. नशीत बारमै वाण, अनुकंपा त्रस नी करी । बांधे छोड़े जाण, अनुमोद्यां दंड मुनि भणी॥ ८१. इकवीसमें सूगडांग, वध म वध ए जीव नै । इम न कहै मुनि चंग, मरण जीवतव्य वांछनै ।। ८२. तिण कारण ए संध, सुख उपजायां पर भणी । साता वेदनी बंध, एह जिन आख्यो नहीं। (ज० स०) ७६. निसीहज्झयणं १५७६ ८०. जे भिक्खू कोलुणपडियाए अण्णयरि तसपाणजाति .... निसीहज्झयणं १२।१,२ १. ...""वज्झा पाणा अवज्झत्ति, इति वायं ण णीसिरे सूयगडो २।५।३० श०७, उ० ६, ढा० ११८ २५३ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. *अंक छिहतर देश कह्यो ए, एक सौ अठारमीं ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल । ढाल : ११६ दूहा १. परितापना उपजायवै, दुख पीड़ा अवलोय । .. १. दुःखप्रस्तावादिदमाह- (वृ० ५० ३०५) ते दुख नां प्रस्ताव थी, दुस्समदुसमा जोय ॥ *गोयम पूछ वीर नै रे । ए तो वीर प्रभु वडवीर, हरण पर पीड़ ने रे । (ध्र पदं) २. जंबूद्वीप में हे प्रभु ! रे, भरत मध्य सुविचार । २. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्समइण अवसप्पिणी काल में रे, दुस्समदुसमा आर ।। दुस्समाए समाए ३. उत्तम जे उत्कृष्ट ही, काष्ठ अवस्था धार । ३. उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभरत तणो केहवो हुसी, आकार भाव प्रकार ? भावपडोयारे भविस्सइ ? सोरठा ४. उत्तम काष्ठज प्राप्त, उत्तम ते उत्कृष्ट दुख । ४. 'उत्तमकट्ठपत्ताए' त्ति परमकाष्ठाप्राप्तायाम्, उत्तमाकाष्ठ अवस्था आप्त, ते उत्तम अवस्था नै विषे ।। वस्थायां गतायामित्यर्थः, ((वृ० ५० ३०५) ५. अथवा उत्तम कष्ट, परम कष्ट पाम्या विषे । ५. परमकष्टप्राप्तायां वा । (वृ० प० ३०५) भरत क्षेत्र नो दृष्ट, केहवो भाव आकार प्रभु ? _ *प्रभ कहै सांभलो रे । दुस्समदुसमा काल नो करड़ो मामलो रे॥ (ध्र पदं) ६. जिन कहै काल इसो हुसी, दुखार्त्त लोक कुसुत । ६. गोयमा ! कालो भविस्सइ हाहाभूए, हाहाकार करिस्यै बहु, काल तिको हाहाभूत ॥ हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं हाहोच्यते तद्भूतः-प्राप्तो यः काल: स हाहाभूतः । (वृ०प० ३०५) ७. गाय प्रमुख दुख पीड़िया, भां भां शब्द करीस । ७. भंभब्भूए, तिण कारण ए काल नै, भांभांभूत सरीस ।। भां भां इत्यस्य शब्दस्य दुःखार्तगवादिभिः करणं भंभोच्यते तद्भूतो यः स भंभाभूतः। (वृ०प० ३०६) ८. अथवा भंभा भेरि ते, अंतर्शन्य जिम काल । ८. भंभा वा भेरी सा चान्तःशून्या ततो भम्भेव यः जन-क्षय थी शून्य छै तिको, ते भंभाभूत निहाल । कालो जनक्षयाच्छून्य: स भंभाभूत उच्यते । (वृ०प०३०६) *लय: परम गुरु ऊभा थे रहिजो *लय : करेलणा नी (कोड़ी चाली सासरै रे) २५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. बहु पंखी दुख पीड़िया, तसु आरति असराल । कोलाहल करिस्यै घणो, कोलाहलभत काल ॥ १०. काल तणांज प्रभाव थी, फर्श अत्यन्त कठोर । एहवी धूल सहीत जे, मलिन वायु अति घोर ।। ६. कोलाहलभूए। कोलाहल इहार्त्तशकुनिसमूहध्वनिस्तं भूत:-प्राप्त: कोलाहलभूतः । (वृ० प० ३०६) १०. समाणुभावेण य णं खर-फरुस-धूलिमइला कालविशेषसामर्थ्यन........'खरफरुसलिमइल' त्ति खरपरुषा:--अत्यन्तकठोराः धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा । (वृ० प० ३०६) ११. दुन्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिति । 'संवट्टय' त्ति तृणकाष्ठादीनां संवर्तकाः (वृ० प० ३०६) १२. इह अभिक्खं धूमाहिति य दिसा 'धूमाहिति य दिसं' त्ति धूमायिष्यन्ते-धूममुद्वमिठ यन्ति दिशः, पुनः किंभूतास्ता:? (वृ० प० ३०६) १३. समंता रउस्सला रेणुकलूस-तमपडल-निरालोगा । ११. दुस्सह चित व्याकुल करै, वले भयंकर ताय । कर तृणादिक एकठा, एहवा वाजस्यै वाय ।। १२. वार-वार तिण काल में, दश दिश ●यर देख । वलि दिशि होस्यै केहवी? सांभलज्यो सुविशेष ।। १३. रज सहित हस्यै सगली दिशा, धल मलिनतम तास । तेह. पटल वृदे करी, दूर गयो छै प्रकाश ॥ १४. समय में लक्खपणे करी, रजनीकर पिण भर । शीत अपथ्य अति मकस्यै, अधिको तपस्यै सूर ।। १४. समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति । अहिय सूरिया तवइस्संति । 'अहियं न्ति अधिकं 'अहितं वा' अपथ्यं (वृ०प० ३०६) १५. अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा (१०५ १५. अन्य चिह्न वलि एहवा, अरसमेहा रस-रहीत । वार वार बहु वर्षस्यै, ते जल अधिक अप्रीत ।। १६. विरुद्ध रस छै जेहनो, विरसमेहा अधिकेह । खारमेहा साजी खार सा, बहुला वर्षस्यै मेह ॥ १७. खत्तमेहा ते करीष सम, रस जल सहित पिछान । खट्टमेहा दीस किहां, खाटा जल जिम जान ।। १८. अग्निमेहा अग्नि सारिखो, दाहकारी जल जेह । विज्जुमेहा वीजली, जल वजित वर्षेह ।। १६. विरसमेहा खारमेहा 'विरसमेह' त्ति विरुद्धरसा मेघाः, एतदेवाभिव्यज्यते'खारमेह' त्ति सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघाः । (वृ० प० ३०६) १७. खत्तमेहा 'खत्तमेह' त्ति करीषसमानरसजलोपेतमेघाः, 'खट्ट मेह' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्राम्लजला इत्यर्थः । (वृ०प० ३०६) १८. अग्गिमेहा विज्जुमेहा 'अग्गिमेह' त्ति अग्निवद्दाहकारिजला इत्यर्थः 'विज्जुमेह' त्ति विद्युत्प्रधाना एव जलवजिता इत्यर्थः (वृ० ५० ३०६) १६. विसमेहा असणिमेहा 'विसमेह' त्ति जनमरणहेतुजला इत्यर्थः 'असणिमेह' त्ति करकादिनिपातवन्तः। (वृ० प०३०६) २०. पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघाः ।। (वृ० प० ३०६) १६. विषमेहा जन-मरण नों, हेतू जल छै जेह । गड़ादि निपातवंत जे, अशनिमेह कहेह ॥ २०. अथवा गिरि प्रमख भणी, विदारवा ने जेह । समर्थ उदकपणे करी, ते अशनि वज्रमेह ।। श० ७, उ० ६, ढा० ११६ २५५ Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. अपिवणिज्जोदगा कया, पीवा जोग जल नांहि । वार वार बहु वर्षस्यै, दुस्समदुसमा मांहि ॥ २२. अजवणिज्जोदए किहो, पाठ इसो दीसेह न यापना प्रयोजन उदक जे, एहवो वर्षस्यै मेह || २३. व्याधि कुष्ठादिक ने कह्यो, स्थिर बहुकाल निहाल । रोग सूलादिक ने कह्यो, मरण है ततकाल ॥ २४. तेहथी उपनी वेदना, तास ऊदीरणहार । एहवो जल परिणाम छै, मन अणगमतो अपार ॥ २५. प्रचण्ड जे पवने हण्या, वेग सहित जल धार । तेहनों पड़वो छै घणो, जिण वर्षा र मझार ॥ २६. एहवे मेह वर्ष करी, भरतखेत्र २ मांय । । 1 | ग्राम आगर ने नगर ते सर्व विलय हुय जाय ॥ २७. खेड़ कवड़ मंडप वलि, द्रोणमुख पहिचान कवड़ पाटण आश्रम ने विषे, मनुष्य तणो घमसाण ॥ २८. चपद शब्दे महिषियां आदि देई जे ताय । गो शब्दे करि गाय से एलक अज्ज कहाय ॥ २६. खेचर पंखी समूह प्रति ग्राम अरण्य प्रचार तेहने विषे निरत अछे, वलि त्रस विविध प्रकार । ३०. ते त्रस बेदी प्रमुख तेहनां पणां प्रकार बेइंद्री रूख वादिक वलि गुच्छा वंगण प्रमुख विचार ॥ । ३१. गुल्म तिका नवमालिका, आदि देई कहिवाय । लता अशोकादिक तणी, विध्वंस होस्यै ताय ॥ ३२. वेल चीभड़ा प्रमुख नीं तृणा वीरणा आदि । पर्व सेलड़ी प्रमुख ते हरित तिके द्रोबादि ॥ ३३. ओषधि शालि प्रमुख कही, प्रवाल पल्लव जेह । अंकूरा ते धान्य नां, सूचक बीज नां एह ॥ । ३४. जादि शब्द थी जे कमल, केल प्रमुख बलि पेस तृण बलि बादर वणरसइ हस्ये विध्वंस विशेख | ३५. पर्वत गिरि डूंगर त्रिहूं, रूदा एकार्य एह तो पण इहां विशेष छै, तेहनो अर्थ सुणेह ॥ २५६ मतो २१. अपिवणिज्जोदगा, 'अप्पिवणिज्जोदग' त्ति अपातव्यजलाः ( वृ० प० ३०६ ) २२.ति मचि दृश्यते तायापनीयंन यापनाप्रयोजनमुदकं येषां ते अपापनीयोदकाः । ( वृ० प० ३०६ ) २३.२४. वाहिरोगवेदणोदीरणा परिणामसलिला अमपुष्णपाणियगा व्याधयः स्थिरः कुष्ठदय रोगाः सद्योघातिनः शूलादयस्तज्जन्याया वेदनाया योदीरणा संव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा । ( वृ० प० ३०६ ) २५. चंडानिलपयतिक्खधारा-निवायपरं चण्डानिलेन प्रहृतानां तीक्ष्णानां - वेगवतीनां धाराणां यो निपातः स प्रचुरो यत्र वर्षे ( वृ० प० ३०६ ) २६. वासं वासिहिति, जेणं भारहे वासे गामागर-नगर २७. खेड-ब्लड-दोगमुह-पट्टणासमयं जगव २०. ए. दह चतुष्पदशब्देन महिष्यादयो वृह्यन्ते गोमयेन गाव: एलकशब्देन तु उरभ्राः । ( वृ० प० ३०६) २६. खयरे य पक्खिसंघे, गामारण्ण-पयारनिरए तसे य पाणे, ३०. प्यारे-गुच्छ 'तसे पाहणारे' सि द्वीन्द्रियादीनित्यवं तत्र वृक्षा:- प्रतादव: गुच्छातामृत्तयः । ( वृ० प० ३०६ ) ३१. गुम्म-लय गुरुमा नवमालिकाप्रभृतयः लता अशोकलादयः ( वृ० प० ३०६ ) ३२. वल्लि - तण पव्वग-हरितयाभूतयः तृणानि वीरणादीनि पर्वगा - इक्षुप्रभृतयः हरितानि - दूर्वादीनि । ( वृ० प० ३०६ ) - ३३. ओसहि- पवालंकुरमादीए य औषध्यः - शाल्यादयः अंकुरा:- माल्यादिवीजसूचयः । (४० १० १०६) प्रवालाः --- पल्लवाङ्कुराः, ३४. आदिशब्दात् कदल्यादिवलयानि पद्मादयश्च जलज( वृ० प० २०६) विशेषा ग्राह्याः । तण वणस्सइकाइए विद्वंसेहिति, ३५. पव्वय - गिरिडोंगरुत्थल यद्यपि पर्वतादययातथापी विशेष ( वृ० प० ३०६ ) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. पर्व दिवस ओच्छव तणो, हुवै जिहां विस्तार । ते क्रीड़ा पर्वत कह्या, बेभारादिक सार ॥ ३७. गिरि शब्दकरं जिहां जे जन निवासभूत । चित्रकूट गोपालगिरि, आदि देइ वर सूत ॥ ३८. इंगर वृंद सिला तणो, उत्थल स्थल उन्नतेह | धूल उच्चय रूप एह स्थल, किहां उत् शब्द न एह ॥ ३६. धूल आदि वर्जित जमी, तेहनें भट कहिवाय । आदि शब्द थी शिखर वलि, प्रासादादिक ताय ॥ ४०. वैताद गिरी वर्जी करी पर्वत प्रमुख धार । सगलाई क्षय थायस्यै दुस्समदुसमा आर ॥ ४१. सलिल बिल ते भूमि थी, नीकरणा निकलत गर्दा कहितां वा है, दुर्ग खाइ गढ त ॥ ४२. विषम भूमि प्रतिष्ठ जे गंगा सिंधू वर्ज ने नीची ऊंची जेह | करस्यै सम भूमि तेह ॥ ४३. हे भगवंत! ते काल में भरतक्षेत्र में धार । भूमि तणो केहवो हुसी, आकार भाव प्रकार ? ४४. जिन भूमि इसी हस्ये लाल अंगार समान । मुरमुर कणिया अग्नि नां, छार सरीखी जान ॥ ४५. तप्त कवेलू सारिखी, ताप करी अवलोय । अग्नि सरीखी ते जमी, महा दुखदायी होय ॥ । ४६. धूल पणी बेलू घणी, पंक कर्दम बहु पेस पतलो कर्दम पणग जे, ते पिण बहुल विशेख ॥ , ४७. कर्दम चलण प्रमाण जे बलिणी कहिये ताय । ते चलिणी पिण छै घणी, छट्टा आरा मांय ॥ ४८. पृथ्वी विषे बहु जीव नें दुखे चालवो होय । चट्ठे आरे एहवी, पृथ्वी होस् सोय ।। ४६. हे भगवंत ! तिण काल में, भरतक्षेत्र में धार । मनुष्य तणो केहवो हृस्ये, आकार भाव प्रकार ? ५०. जिन कहे नर एहवा हुस्यै, दुष्ट रूप करि तास । वर्ण गंध रस पिण बुरो, वलि भूडो तनु फास ॥ उज्जयन्तभारादयः ३६.उत्सवविस्तारगात् पर्वताः कापता ( वृ० प० ३०६ ) ३७. गुन्ति-शब्दायन्ते वननिवासभूतत्वेनेति गिरयः गोपालगिरि चित्रकूटप्रभृतयः । ( वृ० प० ३०६, ३०७ ) २८. दुङ्गानां शिलादान उच्छ (रथ) सि उत् — उन्नतानि स्थलानि धूत्युच्छ्रयरूपाण्युच्छ (त्थ) लानि क्वचिच्छदो न दृश्यते (३०० ३००) ३९. भट्टिमादीए । पांश्वादिवजिता भूमयः शिखरादिपरिग्रहः । ४०. गिरिवज्जे विरावेहिति ४१. सलिलबिल-गड्डु-दुग्ग सलिलबिलानि वाणि दुर्गाणि च-भूमिनिर्झरा, गर्त्ताश्चप्राकारादिमाणि ( वृ० प० २०७) ४२. विसमनिष्णुन्नयाई च गंगा-सिंधुवज्जाई समीकरेहिति । ( श० ७ ११७ ) विषमाणि च - विषमभूमिप्रतिष्ठितानि । (३० १० २०७) ४३. तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आगारभाव - पडोयारे भविस्सति ? ४४. गोमा भुमी भविस्यति माया मुम्मुरब्भूवा छारियभूया "आदिशब्दात् प्रासाद( वृ० प० ३०७ ) ४५. तत्तकवेल्लयम्भूया तत्तसमोतिया तप्तेन तापेन समाः तुल्याः ज्योतिषा - वह्निना भूता-जाता या सा तथा । ( वृ० प० ३०७ ) ४६. धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणगबहुला पङ्कः कर्द्दमः, पनकः - प्रबल : कमविशेषः । (१०१० ३०७ ) ४७. चलणिबहुला चलनप्रमाणः कर्द्दमश्चलनीत्युच्यते । ( वृ० प० ३०७ ) ४६. ब धरणिगोयराणं सताणं दुनिमायावि भविस्यति । ( ० ७ ११८) श० क्रमः क्रमणं यस्यां 'दुन्निक्कम' त्ति दुःखेन नितरां सा दुर्निक्रमा | ( वृ० प० ३०७ ) मणुयाणं केरिसए ४६. तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे आगारभाव पडोयारे भविस्सइ ? ५०. गोयमा ! मणुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुग्गंधा दुरसा दुफासा श०७, उ० ६, ढा० ११६ २५७ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. अनिष्ट अकांत जाव ते, मन अणगमता होय । हीन दीन स्वर जाव ते, अणगमता स्वर सोय ॥ ५१. अणिट्ठा अकंता जाव (सं० पा०) अमणामा हीणस्सरा दीणस्सरा अणिट्ठस्सरा जाव (सं० पा०) अमणामस्सरा ५२. अणादेज्जवयणपच्चायाया, निल्लज्जा, कूड-कवड ५३. कलह-बह-बंध-वेरनिरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, ५२. अणआदरवा जोग वच, जन्म थकी पिण जाण । ___ निर्लज्जा लज्जा रहित, कूड कपट नी खान । ५३. कलह अने वध बंध विषे, रक्त वैर में जान । मर्यादा अतिक्रमण में, होस्य अतिहि प्रधान । ५४. पर स्त्री गमन प्रमुख जे, करिवा जोग न न्हाल । तेह अकार्य करण में, होस्यै नित उजमाल ।। ५५. मात पितादिक जे बड़ा, तेह विषे जे रीत । नियोग अवश्य जे विनय छ, तिण करिने जे रहीत ।। ५४. अकज्जनिच्चुज्जता, ५६. रूप असंपूरण विकल, वध्याज नख सिर केस । वघ्या केश दाढी तणां, बडा रोम तन शेष ॥ ५७. काला फर्श कठोर अति, वर्ण अनुज्वल एस । वीखरिया केश सिर तणां, पीला धवला केस । ५५. गुरुनियोग-विणयरहिया य, गुरुषु-मात्रादिषु नियोगेन-अवश्यतया यो विनयस्तेन रहिता ये ते। (वृ० प० ३०८) ५६. विकलरूवा, परूढ़नह-केस-मंसु-रोमा, 'विकलरूव' त्ति असम्पूर्णरूपाः। (वृ० प० ३०८) ५७. काला, खर-फरुस-झामवण्णा, फुट्टसिरा, कविल पलियकेसा, खरपरुषा:-स्पर्शतोऽतीव कठोराः, ध्यामवर्णाअनुज्ज्वलवर्णाः 'फुट्टसिर' त्ति विकीर्णशिरोजा इत्यर्थः, 'कविलपलियकेस' त्ति कपिलाः पलिताश्च शुक्लाः केशा येषां ते। (वृ० प० ३०८) ५८. बहुण्हारुसंपिणद्ध-दुइंसणिज्जरूवा, ५८. घणी नसां करिने बंध्यो, दुखे देखवा योग्य । एहवो रूप छै जेहनों, जोतां दुखम प्रयोग्य । ५६. संकोचाणो जेहनों, लीलरियै करि जोय । वीट्या छै अंग जेहनां, वृद्ध तणी परि होय॥ ६०. जरा करी परिणत स्थविर, ते नर जेहवा एह । विरल भग्न पडिवे करी, थइ दंत-श्रेणी तेह ॥ ५६. संकुडितवलीतरंगपरिवेढ़ियंगमंगा, ६०. जरापरिणतब्व थेरगनरा, पविरलपरिसडियदंतसेढ़ी, 'पविरलपरिसडियदंतसेढी' प्रविरला दन्तविरलत्वेन परिशटिता च दन्तानां केषाञ्चित्पतित्वेन भग्नत्वेन वा दन्तश्रेणि र्येषां ते, (वृ० प० ३०८) ६१. उब्भडघडामुहाविसमणयणा, उद्भटं-विकरालं घटक मुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते (वृ० प० ३०८) ६१. उद्भट जे विकराल अति, घट मुख जिम मुख तास । तुच्छ दशनच्छद-होठ छ, नयण विषम जे विमास ॥ ६२. नान्हा मोटा नेत्र छै, चक्षु नान्ही एक । एक मोटी चक्ष अछ, विषम नयण इम देख ।। ६३. महढे वांकी नासिका, वंक वक्र मुख जास । पाठंतरेण वंग ते, लंछण सहित विमास ॥ ६४. वलि लीलरियां तिण करी, बीहामणोज आकार । देखतां भय ऊपजै, एहवो मुख नों प्रकार ॥ ६५. व्याप्त पाम खसड़े करी, तीखा नख करि ताय । खाज खणेवै व्रण अतिहि, एहवो तनु दुखदाय ॥ ६३,६४. वंकनासा, बंक-वलीविगय-भेसणमुहा, वक-वक्रं पाठान्तरेण व्यङ्ग-सलाञ्छनं वलिभिविकृतं च बीभत्सं भेवणं-भयजनकं मुखं येषां ते । (वृ० ५० ३०८) ६५. कच्छु-कसराभिभूया, खरतिक्खनखकंडूइय-विक्खयतण, 'कच्छूकसराभिभूया' कच्छू:--पामा तया कशरैश्चखशरैरभिभूता-व्याप्ता ये ते."खरतिक्ख...' त्ति खरतीक्ष्णनखानां कण्डूयितेन विकृता-कृतव्रणा तनु:-शरीरं येषां ते, (वृ०प० ३०८) २५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. नान्हा कोढ विशेष करि, तन नी त्वचा कठोर । ते पिण फटी काबरी, एहवी चामड़ी घोर ।। ६७. वक्र बुरी गति ऊंट सी, टोल गती तसु धार । पाठांतर टोला गति, भूडो तसु आकार ।। ६८. विषम दीर्घ अथवा लघ, संधि-बंधन विकराल । ऊंचा नीचा अस्थि नां, जुआ-जुआ अंतराल । ६६. ददु-किडिभ-सिब्भ-फुडियफरुसच्छवी, चित्तलंगा, दद्रुकिडिमसिध्मानि क्षुद्रकुष्ठविशेषा: "चित्तलंग' ति कर्बुरावयवाः (वृ० प० ३०८) ६७. टोलगति टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः पाठान्तरेण टोला कृतयः-अप्रशस्ताकारा: (वृ० प० ३०८) ६८. विसमसंधिबंधण-उक्कुडुअद्विगविभत्त विषमाणि ह्रस्वदीर्घत्वादिना सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः उत्कुटुकानि-यथास्थानमनिविष्टानि अस्थिकानि-कीकसानि विभक्तानीव (वृ० ५० ३०८) ६६ दुब्बला कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया, दुर्बला-बलहीना: कुसंहनना:-सेवार्तसंहनना: कुप्रमाणा:-प्रमाणहीनाः कुसंस्थिताः-दुःसंस्थानाः । (वृ० १० ३०८) ७०. कुरूवा, कुट्ठाणासण-कुसेज्ज ६६. दुर्बल ते बल रहित छै. बुरो संघयण पिछाण । हीन प्रमाण करी बलि, बुरो आकार संठाण ॥ ७०. भंडो रूप कुरूप ते, भंडो स्थानक वास । भूडो आसण जेहनो, विरूई सेज्या तास ॥ ७१. भंडो भोजन वलि असुचि, नहीं ब्रह्मचर्य स्नान । बहु व्याधी रोगे करी, पीड़त अंग पिछान ॥ ७१. कुभोइणो, असुइणो अणेगबाहिपरिपीलियंगमंगा, _ 'असुइणो' त्ति अशुचयः स्नानब्रह्मचर्यादिवजितत्वात् । (वृ० प० ३०८) ७२. खलंत-विन्भलगती, अनेकव्याधिरोगपीडित्वात् (वृ० ५० ३०८) ७३. निरुच्छाहा, सत्तपरिवज्जिया, विगयचेटूनढतेया, ७२. स्खलत गती डिग-डिग पड़े, आकुल-व्याकुल चाल । अनेक व्याधिपणे करी, तसू एहवी गति न्हाल ।। ७३. वलि ओच्छाह-रहीत ते, सत्वे परिवर्जीत । चेष्टा करी रहीत छ, नष्ट तेज क्रांति रहीत ॥ ७४. वार-वार शीतोष्ण करि, खरधरू कठोर वाय । व्याप्त तिण करी मेल रज, धूले खरड़ी काय ॥ ७५. क्रोध मान बहु जेहने, माया लोभ सवाय । अशुभ विभागी दुख तणां, दुख प्रति भजता ताय । ७६. बहुलपणे करि धर्म नी, संज्ञा श्रद्धा नांहि । सम्यक्त करी परिभ्रष्ट ते, सम्यक्त नहीं त्यां मांहि ।। ७४. अभिक्खणं सीय-उण्ह-खर-फरुसवायविज्झडियमलिण पंसुरउग्गुंडियंगमंगा, ७५. बहुकोह-माण-माया. बहुलोभा, असुह-दुक्खभागी, ७७. उत्कृष्ट तनु इक हाथ नो, परम आउखो धार । कदाचित सोल वरस, वीस वरस किण वार ।। ७६. उस्सण्णं धम्मसण्णसम्मत्तपरिभट्टा, 'ओसण्णं' ति बाहुल्येन । 'धम्मसण्ण' त्ति धर्मश्रद्धा ऽवसन्ना गलिता सम्यक्त्वभ्रष्टा । (वृ० ५० ३०८,३०६) ७७. उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता, सोलस-वीसतिवासपर माउसो, रत्नेः हस्तस्य यत्प्रमाणं "इह कदाचित् षोडश वर्षाणि कदाचिच्च विशतिवर्षाणि परमायु र्येषां ते । (वृ० ५० ३०६) ७८. पुत्तनत्तुपरिवाल-पणयबहुला ७८. पुत्त नत्तु परिवाल जे, पणयबहुला तेह । पुत्र पोता दोहीतरा, परिवारे बहु स्नेह ।। श० ७, उ० ६, ढा० ११६ २५६ Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. पाठान्तरे 'पुत्तनत्तुपरिपालणबहुल' त्ति तत्र च पुत्रादीनां परिपालनं बहुलं-बाहुल्येन येषां ते । (वृ०प०३०९) ७६. पाठांतरेण पुत्तणत्त-पडिपालण-बहुलेह । पुत्रादिक नो पालिवो, बहुलपण करि तेह ।। सोरठा ८०. अल्प आउखा मांहि, पुत्रादिक बह तेहने । अल्प काल करि ताहि, जोवन नां सद्भाव थी॥ ८१. *गंगा सिंध महानदी, वैताढ नीं नेश्राय । बोहितर विल-वासि नां, कुटुंब निगोदा कहाय ।। ८०. अनेनाल्पायुष्कत्वेऽपि बह्वपत्यता तेषामुक्ताऽल्पेनापि ___कालेन यौवनसद्भावादिति । (वृ० प० ३०६) ८१. गंगा-सिंधूओ महानदीओ, वेयड्ढं च पब्वयं निस्साए बावत्तरि निओदा निगोदा:-कुटुम्बानीत्यर्थः। (वृ०प० ३०९) ८२. गिंगा नदि जिहां उत्तर दिशि वैताढ रै, नीचे प्रवेश करै तिहां बिहं पासै धरै । नव नव बिल छ एम अठारै बिल थया, इम गंगा दक्षिण वैताढ कनै कह्या ॥ ८३. उत्तर दिशि में अठार अठार दक्षिण दिशे, एवं बिल षट तीस तिहां जंतू वसे । इम सिंधू बिहं पास छतीस पिछाणिय, बोहिंतर बिल एम सर्व ही जाणियै ।। ८४. *बीज तणी परि बीज ते, जे आगमियै काल । जन समूह होस्य तसुं, हेतू एह निहाल । ८४,६५. बीयं बीयमेत्ता बिलवासिणो भविस्संति । (श० ७।११६) बीजमिव बीजं भविष्यतां जनसमूहानां हेतुत्वात् । (वृ० प० ३०६) ८५. बीज मात्र परिमाण जसु, अल्पईज अवलोय । ते नर बिलवासी हुस्यै, छठे आरे जोय।। ८६. देश छीहंतर, एक सौ एगणवीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : १२० १. ते णं भंते ! मणुया के आहारं आहारहिंति ? दूहा १. हे भगवंत ! मनुष्य ते, करिस्य किसो आहार ? जिन भाखै सुण गोयमा ! तास आहार अधिकार ।। * लय : करेलणा नों +लय : नदी जमुना रे तीर २६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *रे गोतम दुस्समदुसमा मझार ।(ध्र पदं) २. तिण काले ने तिण समय जी, गंगा सिंध विमास । दोनूई मोटी नदी जी, अल्प हस्य जल तास ॥ ३. रथ पथ जे गाडा तणां पेड़ा दोय विचार । ते प्रमाण मारग विषे, होस्यै जल विस्तार ॥ ४. अक्ष-स्रोत-रथ-चक्र नो, धुर-प्रवेश नो छिद्र । ते प्रमाण वहिस्यै तदा, उदक प्रवाह अनिद्र। २. गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा-सिंधुओ महानदीओ। ३,४. रहपहबित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिति 'रहपह' त्ति रथपथ:-शकटचक्रद्वयप्रमितो मार्गः । 'अक्खसोयप्पमाणमेत्तं' ति अक्षश्रोतः-चक्रधुर:प्रवेशरन्ध्र तदेव प्रमाणमक्षधोतः प्रमाणं तेन मात्रापरिमाणमवगाहतो यस्य तत् । (वृ०प० ३०९) ५. से वि य णं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव णं आउबहुले भविस्सति । ६. तए णं ते मणुया सूरुग्गमणमुहुत्तंसि य ५. ते जल में बहु माछला, वलि कच्छप अवलोय । तिण करि नै भरियो हुस्य, जलबहुलो नहि कोय । ६. तिण अवसर ते नर तिहां, रवि ऊगां थी जोय । महत एक लगै तिक, तिण वेला अवलोय ॥ ७. रवि आथमण थकी वलि, पहिला महत एक । ते प्रमाण जे काल छै, तेह विषे संपेख ॥ ८. नीकलस्य बिल बाहिरे, मच्छ कच्छप ने तिवार । स्थल नै विषेज स्थापस्यै, करिवा तेहनों आहार ।। ७. सूरत्थमणमुहुत्तंसि य ८. बिलेहितो निद्धाहिति, निद्धाइत्ता मच्छ-कच्छभे थलाई गाहेहिति, 'गाहेहिंति' त्ति"स्थलेसु स्थापयिष्यन्तीत्यर्थः । (वृ० प० ३०६) ६. गाहेत्ता सीतातवतत्तएहि मच्छकच्छएहि ६. शीत अनैं आतप करी, ते मच्छ कच्छप जीव । ___ सीझयां ते ले आवस्यै, नवा मांडस्यै अतोव ।। १०. इण रीते कर मानवी, वर्ष इकवीस हजार । आजीवका करता छता, तेह विचरस्य तिवार॥ ११. हे प्रभु ! व्रत रहित तिके, उत्तर गण करि रहीत । कुल मर्यादा रहित ते, नहि पचखाण सू प्रीत ।। (रे प्रभुजी ! अवधारो अरदास) १२. पोसह उपवास रहीत ते, बहुलपणे मंस आहार । मच्छ आहारी ते वलि, खोद्दाहारा विचार ।। सोरठा १३. धरतो प्रतै विदार, मच्छ खास्य अथवा वली। तसु मधु सहत आहार, खोद्दाहारा ते कह्या ॥ १४. *वसादि रस मृतक तणो, कुणिम आहारा जाण । काल करी जास्यै किहां? ऊपजस्यै किण स्थान ? १०. एक्कवीसं वाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्संति। (श० ७.१२०) ११,१२. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा, उस्सणं मंसाहारा मच्छाहारा खोद्दाहारा 'निस्सील' त्ति महावताणुव्रतविक ना: 'निग्गुण' त्ति उत्तरगुणविकला: 'निम्मेर' त्ति अविद्यमानकुलादिमर्यादा: 'ओसन्न' ति प्रायो मांसाहारा: (वृ० प० ३०६) १३. 'खोद्दाहार' त्ति मधुभोजिनः भूक्षोदेन वाऽऽहारो येषां ते क्षोदाहाराः (वृ० प० ३०६) १४. कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छि हिति ? कहि उववजिहिति ? कुणपः-शवस्तद्रसोऽपि वसादिः कुणपस्तदाहारा: (वृ०प० ३०६) १५. गोयमा ! उस्सण्णं नरग-तिरिक्ख जोणिएसु उववज्जिहिति । (श० ७.१२१) १५. जिन कहै बहुलपणे करी, नरक तिर्यच मझार । ऊपजस्य ते मानवी, बहल अधिक अवधार । * लय : धीरप जीव धरै नहीं रे श०७, उ०६, ढा० १२० २६१ Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ते प्रभु! सींह अरु वाघ ते तरु चढे वग तेह। चीता रींछ तरच्छ तिके, व्याघ्र विशेष कहेह ॥ १७. वलि अष्टापद जाणिये, अणुव्रत रहित पिछान । तिमज जाय मरनं तिके, उपजस्यं किण स्थान ? १८. जिन कहै बहुलपणे करी, नरक तियंच मकार । मरतां केइ बाकी रह्या, ते चउपद गति धार ॥ १६. ते प्रभु ! ढंका कागला, कंक विलक कहिवाय । मदुगा ते जलवायसा, मयूर निस्सीला ताय । २०. तिमहिज जाव बहुलपणे नरक तियंच मकार वे बार सेवं भंते! कहै, श्री गोयम गणधार ॥ २१. अंक छींहतर नों अस्यो, इक सौ बीसमीं डाल भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' हरष विशाल ॥ सप्तमशते षष्ठोद्देशकाथः ॥ ७६ ॥ ढाल १२१ वहा १. छठा उदेशा में कही, नरकादिक उत्पत्ति । असंवरी नैं ते हुवै, आस्रव वृत्ति प्रवृत्ति ॥ २. तास विपर्जयभूत जे समर्थ संवरवंत । वीतराग ते पिण मुनि, तेहनों हिवै उदंत ॥ "जिनेश्वर धिन धिन पांरो ज्ञान (ध्रुपदं ) ३. हे प्रभु! संबुडो मुनि जी ध्या आश्रव द्वार । आयुक्त उपयोग सहीत ते जी, चालतो तिण वार ॥ ४. जाव उपयोग सहित सूर्य, वस्त्र पात्र पिछाण कंबल ने पायपुच्छणो, लेवं मूकै जान | ** लय: क्षमावंत जोय भगवंत रो ज्ञान २६२ भगवती जोड़ १६. ते णं भंते ! सीहा, वग्घा, वगा, दीविया, अच्छा, तरच्छा 'अच्छ' त्ति ऋक्षाः 'तरच्छ' त्ति व्याघ्रविशेषाः । (२०१० २०९) १७. परस्सरा निस्सीला तहेव जाव कहि उववज्जिहिति ? 'परस्सर' त्ति शरभाः । (४० १० १०२) १५. गोमा उच्णं नरम-तिक्विजोगिए उपच ज्जिहति । ( श० ७ ११२ ) क्षीणावशेषाश्चतुष्पदाः केचन भविष्यन्ति १६. ते णं भंते ! ढंका, कंका, विलका, निस्सीला (२०१० २०२) मदुगा, सिही 'ढंक' त्ति काका: 'मदुग' त्ति मद्गवो - जलवायसाः "सिद्धि' ति मयूराः ( पृ० १० २०९) २०. तहेव जाव कहि उववज्जिहिति ? मोमा ! उसणं नरम-तिरिक्सजोणिए उदयविहित सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ७ १२३) (०७१२४) १. अनन्तशके नरकादास्पतिरक्ता सा चाकृतानाम्, ( वृ० प० ३०६ ) २. अथैतद्विपर्ययभूतस्य संवृतस्य यद्भवति तत्सप्तमोद्देशके आह( वृ० प० ३०९ ) ३. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स ४. जाव (सं० पा० ) आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थं पग्ग कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिव माणस्स वा, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. स्य प्रभ ! ते अणगार नैं, इरियावहिया बंधाय ? के होवै संपरायकी? तब भाखै जिनराय ।। ६. संवुडा अणगार ने, जावत तास कहाय । इरियावहि किरिया हुवै, संपरायकी नाय ।। ७. किण अर्थे प्रभ ! इम कह्यो, संवुडा ने जाव । संपरायकी क्रिया नहीं ? हिव जिन भाखै न्याव ।। ८. क्रोध मान माया लोभ ते, विच्छेद गया है जास । उपशम अथवा क्षय थया, इरियावहिया तास ॥ .. तहेव जाव इण शतक' में, प्रथम उदेशा मांय । पाठ तिके कहिवा इहां, जाव शब्द में आय ।। १०. उत्सूत्र ते सूत्र में कही, ते विधि विण चालंत । क्रिया तसु संपरायकी, जिन आणा लोपंत ॥ ११. ए संवुडो महामनि, सूत्रे विधि कही जेम । __ चाल छै तिण रीत सं, तिण अर्थ कह्य एम ।। ५. तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? ६. गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स....."जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । (श० ७.१२५) ७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुडस्स...." जाव नो संपराइया किरिया कज्जइ? ८. गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ । ६. तहेब जाव [सं० पा०] १०. उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ । सोरठा १२. आख्यो संवृत एह, काम-भोग छोड्यां हुवै । सूत्र-वृ'द हिव तेह, काम-भोग कहिये हिवै ।। १३. *हे प्रभ! रूपी काम छै, नहीं अरूपी काम ? जिन कहै रूपी काम छै, नहीं अरूपी ताम ॥ ११. से णं अहासुत्तमेव रीयइ । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव नो संपराइया किरिया कज्जइ । (श० ७.१२६) १२. संवृतश्च कामभोगानाश्रित्य भवतीति कामभोगप्ररूपणाय । (वृ० ५० ३१०) १३. रूवी भंते ! कामा ? अरूवी कामा ? गोयमा ! रूवी कामा, नो अरूवी कामा। (श० ७१२७) १४,१५ काम्यन्ते-अभिलष्यन्ते एव न तु विशिष्ट शरीरसंस्पर्शद्वारेणोपयुज्यन्ते ये ते (वृ० ५० ३१०) सोरठा १४. अभिलाषे ते काम, नहि विशिष्ट तन स्पर्श करि। उपयोगी अभिराम, काम्यन्ते कामा कह्या ।। १५. शब्द अने वलि रूप, कहियै काम बिहुँ भणी। श्रोत्र चक्षु तद्रूप, बिहुँ इंद्री नी विषय ए॥ १६. *हे प्रभु ! काम सचित्त छै, तथा अचित है ताम? जिन कहै काम सचित्त छै, वलि अचित्त पिण काम ॥ १६. सचित्ता भंते ! कामा ? अचित्ता कामा ? गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा । (श० ७.१२८) सोरठा १७. वृत्तिकार कहिवाय, सचित्त काम मन सहित जे । प्राणी छै जग मांय, तास रूप नी अपेक्षया ॥ १८. अचित्त काम तद्रप, शब्दज द्रव्य अपेक्षया । वलि असण्णि तन रूप, ते पिण काम अचित्त कह्या ।। १७. सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया, (वृ० ५० ३१०) १८. अचित्ता अपि कामा भवंति, शब्दद्रव्यापेक्षयाऽसज्ञि जीवशरीररूपापेक्षया चेति । (वृ० ५० ३१०) १. (श० ७, सू० २१) * लय: क्षमावंत जोय भगवंत रो ज्ञान श० ७, उ० ७, ढा० १२१ २६३ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. *जीव प्रभ ! ए काम छै, तथा अजीव है काम ? जिन कहै जीव पिण काम छै, अजीव पिण छै काम ॥ १६. जीवा भंते ! कामा ? अजीवा कामा? गोयमा ! जीवा वि कामा, अजीवा वि कामा । (श० ७।१२६) सोरठा २०. शरीर जीव सहीत, तेहनां रूप अपेक्षया । जीव काम इण रीत, अजीव काम हिवै कहूं ।। २१. अजीव काम कहाय, शब्द तणीज अपेक्षया । तथारूप पेक्षाय, चित्र पूतली आदि जे॥ २२. *प्रभू ! काम छै जीव रै, तथा अजीव रै काम ? जिन कहै जीव रै काम छ, अजीव रै नहि ताम ॥ सोरठा २३. जीव तणे हुवै काम, तास काम हेतूपणो । अजीव रै नहिं ताम, काम असंभव थी तसु॥ २०. जीवा अपि कामा भवन्ति जीवशरीररूपापेक्षया, (वृ० प० ३१०) २१. अजीवा अपि कामा भवन्ति शब्दापेक्षया चित्रपुत्रि कादिरूपापेक्षया चेति । (वृ० प० ३१०) २२. जीवाणं भंते ! कामा ? अजीवाणं कामा ? गोयमा ! जीवाणं कामा, नो अजीवाणं कामा। (श० ७.१३०) २४. *काम प्रभू ! कतिविध कह्या ? जिन कहै दोय प्रकार । शब्द रूप बिडं आखिया, दो इंद्री विषय विचार ।। २३. जीवानामेव कामा भवन्ति कामहेतुत्वात्, अजीवानां न कामा भवन्ति तेषां कामासम्भवादिति । (वृ०प० ३१०) २४. कतिविहा णं भंते ! कामा पण्णता? गोयमा ! दुविहा कामा पण्णता, तं जहा-सद्दा य, रूवा य । (श० ७.१३१) २५. रूवी भंते ! भोगा ? अरूवी भोगा? गोयमा ! रूवी भोगा, नो अरूवी भोगा । (श० ७।१३२) २५. हे प्रभ ! रूपो भोग छ, तथा अरूपी कहाय ? जिन कहै रूपी भोग छ, भोग अरूपो नांय ॥ सोरठा २६. गंध फर्श रस भोग, शरोर करि जे भोगवै । विशिष्टपण प्रयोग, गंधादिक ए त्रिहुं अछ। २७. घाणेंद्री अवलोय, रस इंद्री फर्श इंद्रिय । त्रिहुं इंद्री नो जोय, गंध प्रमुख त्रिहुं विषय छ । २८. *सचित्त प्रभु ! ए भोग छ, अचित्त भोग कहिवाय ? जिन कह सचित पिण भोग छ, भोग अचित्त पिण थाय । २६ भुज्यन्ते-शरीरेण उपभुज्यन्ते इति भोगाः विशिष्टगंधरसस्पर्शद्रव्याणि । (वृ० १०३१०) २८. सचित्ता भंते ! भोगा? अचित्ता भोगा? गोयमा ! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा। (श० ७१३३) सोरठा २६. सचित्त भोग इण न्याय, कोइक चित्त सहोत जे । जीव शरीर नां ताय, गंधादिक गण जाणिवा ॥ ३०. अचित्त भोग इण न्याय, कोइक चित्त रहीत जे । जीव शरीर नां ताय, गंधादिक पुष्पादि ते॥ २६. सचित्ता अपि भोगा भवन्ति गन्धादिप्रधानजीवशरीराणां केषाञ्चित् समनस्कत्वात् । (वृ० प० ३१०) ३०. तथाऽचित्ता अपि भोगा भवन्ति केषाञ्चिद्गन्धादिविशिष्ट जीवशरीराणाममनस्कत्वात् । (वृ०प०३१०) ३१. जीवा भंते ! भोगा? अजीवा भोगा? गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा । (श० ७१३४) ३१. *जीव प्रभू ! ए भोग छ, अजीव भोग ए होय ? जिन कहै जीव पिण भोग छै, अजीव पिण अवलोय ॥ * लय : क्षमावंत जोय भगवंत रो ज्ञान २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सोरठा जीव सहित तन् नां विशिष्ट । तेनां भाव बकी हुवे ॥ विशिष्ट गंध रस फर्श जे । भोगा ते कला || ३२. जीव भोग इम उक्त गंधादिक गुण युक्त, ३३. अजीव द्रव्य नां जोय, गुण सहीत पी होय, अजीव ३४. * जीव त प्रभु ! भोग छै, जिन कहै जीव र भोग थे, सोरठा ३५. भोग जीव रै होय, तास भोग हेतुपर्णं । अजीव र नहि कोय, भोग असंभव थी तसु ।। ३६. *भोग प्रभू ! कतिविध कह्या ? जिन कहै तीन प्रकार । गंध रस फर्श परूपिया, विशिष्ट तनु फर्श द्वार ॥ भोग अजीव रै थाय ? अजीव रं न कहाय ॥ ३७. काम-भोग प्रभु ! कतिविधा ? जिन कई पंच प्रकार । शब्द रूप गंध आखिया बनि रस फर्श विचार || ३८. जीव प्रभू ! कामी अछे, के भोगी छै अतीव ? जिन कहै कामी जीव छै, वलि भोगी पिण जीव ॥ ३६. किण अर्थे तब जिन कहै, श्रोत्र इंद्री छै ताय । आश्रयी, चक्षू इंद्री कामी जीव कहाय ॥ ४०. घाणेंद्री रसनेन्द्रिये, वलि फर्श इंद्री ते आधी भोगी कथा, तिण अर्थे ए " ४१. नरक प्रभू ! कामी अच्छे के भोगी अवधार ? जीव तणी पर जाणिवा, यावत थणियकुमार ॥ ४२. पूछा पृथ्वीकाय नीं, जिन नीं, जिन कहै कामी नांय । भोगी पृथ्वी पृथ्वी जीवड़ा, किण अर्थ ए वाय ? लय: क्षमावंत जोय भगवंत रो ज्ञान जाण । वाण ॥ ४३. जिन भाव कसेंद्रिय, ते आश्री कहिवाय । तिण अर्थे भोगी पृथ्वी, इम जाव वणस्सइकाय ॥ ४४. इम निश्चै बेइंदिया णवरं इतरो विशेष । आथवी पेख ॥ जीभिदिया फासि दिया, तेह ३२. 'जीवा वि भोग' त्ति जीवशरीराणां विशिष्टगन्धादिगुणयुक्तत्वात्, ( वृ० प० ३१०, ३११ ) ३३. 'अजीवा वि भोग' त्ति अजीवद्रव्याणां विशिष्टगन्धादिगुणत्वादिति । ( वृ० प० ३११ ) ३४. जीवाणं भंते ! भोगा ? अजीवाणं भोगा ? गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा । (श० ७२१२५) ३६. कतिविहा णं भंते! भोगा पण्णत्ता ? रसा, फासा गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तं जहा गंधा, ( ० ७ १३६) ३७. कतिविहा णं भंते! काम भोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा काम भोगा पण्णत्ता, तं जहासद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । (श० ७ १३७ ) ३८. जीवा णं भंते ! कि कामी ? भोगी ? गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि । ३६. से केणट्ठणं भंते ! गोवमा ! सोईदिय-सिंदिया पहुचकामी, ४०. घाणिदिय जिभिदिय- फासिंदियाइं पडुच्च भोगी । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- ******.. ४१. नेरइया णं भंते! कि कामी ? एवं देव जान पणियकुमारा । ४२. विकाइयाणं पुच्छा (स० ७११३८) सेकेणट्ठे जाव भोगी ? ४३. गोमा ( श० ७ १३६ ) भोगी ? ( श० ७ १४० ) गोयमा ! पुविकाइया नो कामी, भोगी । (स० ७१४१) फासिदिय पन्च से तेषं जाय भोगी एवं जाव वणस्सइकाइया । ४४. बेइंदिया एवं चेव, नवरं - जिब्भिदियफासिंदियाई पडुच्च । श० ७, उ० ७, ढा० १२१ २६५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. इम निश्चे तेइंडिया णवरं इंद्रिय पाण । जीभिदिया फासिंदिया, ते आश्री पहिछाण ॥ ४६. पूछा चउरिंद्री तणी, जिन कहै कामी होय । भोगी पिण चउरिद्रिया किण अर्थ इम जोय ? ४७. जिन कहै कामी है चरिद्रिया, ४८. घ्राणेंद्रिय जीभिद्रिय, ते आश्री भोगी कह्या, ४६. दंडक जे अवशेष . तिण अर्थे इम रह्या थाकता जीव तणी पर जाणिवा, जाव वैमानिक ५०. हे प्रभुजी ! ए जीवड़ा काम भोगी कामी नहि, भोगी नहीं, बलि भोगी ५१. कवण जाव विसेसाहिया ? तव भाखे सर्व थोड़ा छे जीवड़ा, कामी-भोगी चक्षु-इंद्रिय, ते आश्रयी ताय । हिव भोगी तो न्याय ॥ फशेंद्री पहिछाण । * लय: पूज मोटा भांजे तोटा + लय : क्षमावंत जोय भगवंत रो ज्ञान २६६ भगवती-जोड़ वाण ॥ जोह । तेह || संपेल । - तेह ५२. कामी भोगी बिहूं नहीं, अनंतगुणा भोगी अनंतगुणा कह्या, हिव तसु न्याय सुणेह ॥ ५३. *सर्व थोड़ा काम भोगी, चउरिंद्रिया पंचेंद्रिया । नहीं कामी नहीं भोगी, अनंतगुणा सिध वंछिया ॥ जे देख ॥ जिनराय । कहिवाय ॥ ५४. एकेंदिया बेदिया, तेइंदिया भोगी कह्या । अनंतगुणा ए सिद्ध सेती, न्याय जिन वच थी लह्या ॥ ५५. +देश सितंतर अंक नो, सौ इकवीसमी ढाल । भिक्खु भारीमात ऋपराय थी, 'जय जय' मंगल माल ॥ ४५. तेइंदिया वि एवं चेव, नवरं - घाणिदिय जिम्भिदिय फासिंदियाई पडुच्च । (०७११४२) ४६. चउरिदियाणं - पुच्छा । गोयमा ! चउरिदिया कामी वि, भोगी वि । से केणट्ठेणं जाव भोगी वि ? ४७. गोयमा ! चक्खिदियं पडुच्च कामी, ( श० ७ १४३ ) ४८. घाणिदिय जिब्भिदिय फासि दियाई पडुच्च भोगी । से तेणट्ठेणं जाव भोगी वि । ४६. अवसेसा जहा जीवा जाव वेमाणिया । ( श० ७ १४४ ) ५०. एएसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, नोकामीणं, नोभोगीणं, भोगीण य । ५१. करे करेहिनो जाब (सं० पा० ) वियेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा कामभोगी । ५२. नोकामी नोभोगी अनंतगुणा, भोगी अनंतगुणा । (० ७०१४५) ५३. 'सव्वत्थोवा कामभोग' त्ति ते हि चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च सुस्ते व स्वोका एक 'नो कामी नो भोगि' त्ति सिद्धास्ते च तेभ्योऽनन्तगुणा एव । ( ० १० २११) ५४. भौगि ति एकद्विीवास्ते च तेम्पोऽनन्तगुणा वनस्पतीनामनन्तगुणत्वादिति । (० ५० १११) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल १२२ १. भोगाधिकारादिदमाह (वृ० प० ३११) १. भोग तणां अधिकार थी, हिव भोगी कहिवाय । छउमत्थे इत्यादि हिव, च्यार सूत्र धुर आय ॥ *जी हो देव जिणेंद्र में देख, गोयम प्रश्न पूछचा भला। (ध्र पदं) २. जी हो छद्मस्थ नर प्रभ ! जान, सुरलोक कोयक ने विषे तिको । जी हो उपजवा जोग पिछाण, देवपणे उपजे जिको। ३. ते नर निश्चै भगवान ! क्षीण दुर्बल तन तसू थयो । वृत्तिकार कहि वान, तप रोगादिक करि भयो । २. छउमत्थे णं भंते ! मणसे जे भविए अण्णयरेस देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, ३. से नूणं भंते ! से खीणभोगी 'खीणभोगि' त्ति भोगो जीवस्य यत्रास्ति तद्भोगिशरीरं तत्क्षीणं तपोरोगादिभिर्यस्य सःक्षीणभोगी क्षीणतनुर्दुर्बल इति यावत् । (वृ०५० ३११) सोरठा ४. 'आख्यो तप रोगादि, तप ते ताव कहीजियै । पिण तपसा नहीं साधि, वा शब्द न कह्यो ते भणी ।। ५. तप ते ताव कहाय, तेहिज रोग छै आदि में । बह वच कहिवै ताय, अन्य रोग पिण जाणवा ।। ६. तिण रोगे करि जाण, दुर्बल तनु छै जेहनों । सुर गति योग्य पिछाण, पूछा नो अभिप्राय ए'। (ज० स०) ७. *उद्राणादिक करि जेह, भोगविवा समर्थ नहीं । हे भगवंत ! अर्थ एह, इमहिज आप कहो सही ? ७. नो पभू उट्ठाणेणं..........."भोग-भोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? से नूणं भंते ! एयम→ एवं वयह ? ८,६. पृच्छतोऽयमभिप्राय:-यद्यसौ न प्रभुस्तदाऽसौ भोगभोजनासमर्थत्वान्न भोगी अत एव न भोगत्यागीत्यतः कथं निर्जरावान् ? (वृ०प० ३११) ८. इहां प्रश्न नों अभिप्राय एहवो, भोग भोगविवा भणी । समर्थ नहि रोगादि करिने, क्षीण देह छै ते तणी ।। है. ते भणी भोगी जे नहीं बलि, तेह भोग-त्यागी नहीं । भोग त्याग्यां विना निर्जरवंत किम कहिये वही ? १०. अथवाज भोग त्याग्यां विना, किम देवलोके जायवो । ए अभिप्राय सूं प्रश्न पूछयो, इम वृत्तिकार जणायवो ॥ ११. *उत्तर दे जिनराय, एह अर्थ समर्थ नहीं । ते भोगी त्यागी नाय, सुर गति जोग नहीं सही। १२. उद्राणादिक करि जेह, भोग विस्तीर्ण अति घणं । ___ भोगवतो विचरेह, समर्थ छै तनु तेह तणुं॥ १०. कथं वा देवलोकगमनपर्यवसानोऽस्तु ? (वृ० प० ११) ११. गोयमा ! णो तिणठे समझें । १२. पभू णं से उट्ठाणेण वि......"विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, * लय : जी हो धनो नै सालभद्र दोय लय : पूज मोटा भांज तोटा श० ७, उ०७, ढा. १२२ २६७ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. ते भोगी कहिवाय, तेह भोग तजतो छतो। महानिर्जरा ताय, सुरलोके' ते जावतो।। १४. मनष्य अहो भगवान ! अल्प अवधि ज्ञानी थयं । नियत खेत्र सुज्ञान, सुर गति जोग तिको कह्य ।। १३. तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। (श० ७१४६) १४. आहोहिए णं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए. 'आहोहिए णं' ति 'आधोऽवधिकः' नियतक्षे. विषयावधिज्ञानी। (वृ० ५० ३११) १५. एवं चेव जहा छउमत्थे जाव (सं० पा०) महापज्ज वसाणे भवइ। १५. कह्यो छद्मस्थ आलाव, ए पिण इम हिज जाणवो । जाव पर्यवसान भाव, एह लग सह आणवो' ।। सोरठा १६. अवधिवंत मन साधि, रोगादिक तनु क्षीण तसु । उहाण प्रमुखे वादि, भोग भोगविवा नहिं प्रभ ? १७. सुर गति योग्यज एह, एम अर्थ कहो छो तुम्हे ? तब भाखै जिन तेह, एह अर्थ समर्थ नहीं ।। १८. उद्राण प्रमुख करेह, भोग भोगविवा छै प्रभु । ते भोगी भोग तजेह, महानिर्जरा ह तसु॥ १६. से नूणं भंते ! से खीणभोगी नो पभू उट्टाणणं, ........ भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? १७. से नूणं भंते ! एवमट्ठ एवं वयह ? गोयमा ! णो तिणठे समठे । १८. पभू णं से उट्ठाणेण वि......."भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे। (श० ७।१४७) १६. परमाहोहिए णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, १६.*परम अवधिज्ञानी पेख, ते प्रभ ! तिणहिज भव मही । मक्ति जावा योग्य देख, चरमशरीरी ते सही। २०. परम अवधिज्ञानी प्रवर, चरमशरीरी होय । तिण सं तिण भव शिव-गमन योग्य कह्या छ सोय ।। २१. *ते नर हे भगवान! दुर्बल देह रोगादि करी । छद्मस्थ नर जिम जाण, सर्व पाठ कहिवो फिरी ॥ २२. केवली मन भगवान, मक्ति जोग तिण भव मही। परम अवधि जिम जाण, जाव पर्यवसान ते हुई । २० परमाधोऽवधिकज्ञानी, अयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत आह-'तेणेव भवग्गहणणं सिज्झित्तए' इत्यादि । (वृ० प० ३११) २१. से नूणं भंते ! से खीणभोगी सेसं जहा छउमत्थस्स । (सं० पा०) (श० ७.१४८) २२. केवली णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं एवं चेव जहा परमाहोहिए जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणे भवति। (श० ७.१४६) * लय : जी हो धनो नै सालभद्र दोय १. यहां महापज्जवसाण का अनुवाद सुरलोक किया गया है। २. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है । इसके बाद की तीन गाथाओं में उस संक्षिप्त पाठ को पूरा कर दिया गया है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में यह पाठ दोनों प्रकार से था। अंगसुत्ताणि भाग २ में भी यही क्रम रखा गया है। २६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational cation International Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. अनन्तरं छद्मस्थादिज्ञानवक्तव्यतोक्ता, अथ पृथिव्याद्यज्ञानिवक्तव्यतोच्यते- (वृ०प० ३११) सोरठा २३. ज्ञानी छद्मस्थादि, वक्तव्यता तेहनी कही। अज्ञानी पृथिव्यादि, हिवै वार्ता तेहनी ।। २४. *हे भगवंत ! जे एह, मन रहित जे असन्निया । पुढवीकाइया जेह, जाव वणस्सइ सहु लिया । २५. छट्ठा त्रस केइ एक, संमच्छिम अन्य त्रस नहीं । ए सहु अंध जिम पेख, ज्ञान रहित कह्या सही। २६. मूढा-तत्व श्रद्धान ते पिण नहिं छै जेहनें । ओपम करिन जाण, कहिय छै हिव तेहनें ॥ . २७. तम प्रविष्ट जिम तेह, अंधकार विषे जाणियै । प्रवेश छै अधिकेह, ते तम प्रविष्ट जिम माणिय ।। २८. तम-पडल मोहजाल, तम-पडल जिम एह छ । __ज्ञानावरण मोह न्हाल, बिहुं जाले ढांक्या अछै ।। २४. जे इमे भंते ! असण्णिणो पाणा, तं जहा-पुढवि काइया जाव वणस्सइकाइया, २५. छट्ठा य एगतिया तसा-एए णं अंधा, 'एगइया तस' त्ति 'एके' केचन न सर्वे संमूच्छिमा इत्यर्थः, 'अंध' त्ति अंध इवान्धा-अज्ञानाः (वृ० प० ३१२) २६,२७. मूढ़ा, तमंपविट्ठा 'मूढ़' त्ति मूढ़ा: तत्त्वश्रद्धानं प्रति एत एवोपमयोच्यन्ते । 'तमंपविट्ठ' त्ति तमःप्रविष्टा इव तम:प्रविष्टाः । (वृ०प० ३१२) २८. तमपडल-मोहजालपडिच्छन्ना, तम.पटलमिव तम:पटल--ज्ञानावरण मोहोमोहनीयं तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां प्रतिच्छन्ना--- आच्छादिता ये ते। (वृ०प० ३१२) २६,३०. अकामनिकरणं वेदणं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! जे इमे असण्णिणो पाणा जाब वेदणं बेदेंतीति वत्तब्वं सिया। (श०७।१५०) अकामो-वेदनानुभावेऽनिच्छाऽमनस्कत्वात् स एव निकरणं-कारणं यत्र तदकामनिकरणं अज्ञानप्रत्ययमिति भावस्तद्यथा भवतीत्येवं 'वेदनां' सुखदुःखरूपाम् । (वृ० प० ३१२) २६. अकाम-निकरण जास, मन रहित इच्छा विना । निकरण कारण तास, भोगवै सुख दुख वेदना ।। ३०. असण्णी इम भगवान, मन विन वेदन भोगवै । कारण तास अज्ञान? जिन कहै हता अनुभवै ।। सोरठा. ३१. 'असण्णी में बे ज्ञान, दूजै गणठाणे हुवै। वमती सम्यक्त जान, ते इहां लेखविया नहीं। ३२. कडेमाणे कडे जाण, इहां अभिप्राय जणाय जे । वली बहुल वच माण, बुधवंत न्याय विचारिय'। (ज० स०) ३३. आख्या असन्नी एह, तास विपक्ष सन्नी तणी। वेदन हिवै कहेह, चित्त लगाई सांभलो॥ ३३. अथासज्ञिविपक्षमाश्रित्याह- (वृ० १० ३१२) ३४. *जीव अछै भगवान ! समर्थ पिण सन्नी छता। अकाम-निकरण जान, वेदन प्रति जे वेदता ।। ३४. अत्थि णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? * लय:जी हो धनो नै सालमत्र दोय श०७, २०७, दा० १२२ २६६ Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३५. जिम रूपादिक ज्ञान, समर्थ पिण मन्त्रीपण । इच्छा विण पहिचान, वेदन प्रति वेदे अर्थ । ३६. अकाम अर्थज एह, इच्छा विण जे जीवड़ा । निकरण कारण तेह, अनाभोग भी इम वृत्तौ ॥ ३७. अन्य आचार्य ताय, आखै छै इण रीत सूं । अकाम अर्थ कहाय, अनिच्छा पूर्वक जिके ॥ ३८. निकरण अर्थ कहाय क्रिया इष्ट फल शून्य जे । अकाम-निकरण ताय, केवल वेद वेदना ॥ ३६. * जिन कहै हंता तेम, बलि गोयम इम पूछता । समर्थ पिण प्रभु ! केम अकाम-निकरण वेदता ? 1 सोरठा ४०. सन्नीपणे करि जेह समर्थ पिण उपाय विण ते देव ने ४१. समर्थ पण इण न्याय, अणइच्छाई ताय, ४२. *जिन की समर्थ जेह रूप अंधारे दीवा विना । देखण समर्थ न तेह, पेखण मन छै जेहनां ॥ [ जिन कहै गोयम ! एह, अकाम-निकरण वेदना ] ॥ आख्या तेहन | समरव नहीं । आख्या ते समरथ नहीं । अकाम-निकरण वेदना ? ४३. आगल रूप छै जास, तो पिण चक्षु व्यापरयां बिना । देखी न सकै तास, अध्यवसाय देखण तणां ॥ ४४. पूठे रूप से जास, तो पाछे देखण समर्थ न तास, * लय: जो हो धनो ने सालभद्र दोय २७० भगवती जोड़ दृष्टि फेरघां बिना । जोवण मन छै जेहनां ॥ ३५. प्रभुरपि सञ्ज्ञित्वेन यथावद्रूपादिज्ञाने समर्थोऽपि । ( वृ० प० ३१२ ) ३६. 'अकामनिकरणं' अनिच्छात्ययमनाभोगात् ( वृ० प० ३१२) ३७. अन्ये त्वाहु: - अकामेन - अनिच्छया । (३० १०३१२) ३८. 'निकरणं' क्रियाया— इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यत्र वेदने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां वेदयन्ति । ( पृ० प० ३१२) ३९. हंता अस्थि । ( श० ७ १५१ ) कण्णं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? ४० यः प्राणी सञ्ज्ञित्वेनोपायसद्भावेन च हेयादीनां हानादी समर्थोऽपि 'नो पहु' त्ति न समर्थः । ( वृ० प० ३१२ ) ४२. गोयमा ! जे गं तो पभू विणा पदीवेणं अंधकारसि स्वाई पात्तिए, एस णं गोयमा ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ।" (श० ७ १५२) ४३. जे णं नो पभू पुरओ रुवाई अणिज्झाइत्ता णं पासितए, 'मन' व्यापार्य ( वृ० प० ३१२) ४४. जेणं नो पभू मग्गओ रूवाई अणवयक्खित्ता णं पासित्तए, 'अनवेक्ष्य' पश्चाद्भागमनवलोक्येति (०१० ३१२) १. यह पाठ सैंतालीसवीं गाथा के सामने दिए गए पाठ के बाद आता है और फिर सूत्र पूरा होता है। किन्तु जोड़ में बयालीसवीं गाथा के बाद नया ध्रुपद दिया गया है । उसमें इस पाठ का अनुवाद है। इसलिए १५२ वें सूत्र के अन्तिम अंश को यहां उद्धृत किया गया है । आगे ४७ वीं गाथा तक यही सूत्र चलेगा । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. जे शं नो पभू पासओ रूवाई अणवलोएत्ता णं पासि त्तए, ४६. जे शं नो पभू उड्ढं रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, ४५. रूप रह्या बिहुं पास, दृष्टि फेरचा बिण त्यां भणी । देखण समर्थ न तास, पिण इच्छा देखण तणी ।। ४६. ऊर्ध्व रूप छै सोय, अवलोकन कीधां बिना । जोवा समर्थ न कोय, देखण मन छै जेहनां ।। ४७. हेठे रूप छै जेह, अवलोकन कीधां बिना। देखण समर्थ न तेह, पेखण मन छै जेहनां ।। ४८. सन्नी छतो जे ताहि, समर्थ रूप देखण घणां । जोयां विण समर्थ नांहि, अध्यवसाय देखण तणां ।। ४७. जे णं नो पभू अहे रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए। (श० ७।१५२) सोरठा ४६. अकाम-निकरण देख, वेदन वेदै इम कह्य । तास विपर्जय पेख, प्रकाम-निकरण हिव कहै । ५०. *समर्थ पिण छै स्वाम ! प्रकाम-निकरण वेदना । वेदै छ ते ताम ? जिन कहै हंता छै घना ॥ ५१. हिव समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण, वेदनाज कहीजिये । समर्थ पिण जे रूप देखण, सन्नीपणे करि लीजिये ।। ५२. प्रकाम वांछित अर्थ नै, अणपामिवै करि जेहन । प्रवर्द्धमान भावे करी, प्रकृष्ट वांछा तेहनें ॥ ५३. तेहीज निकरण अछ कारण, तेह वेदना नै विषे । समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण, वेदना वेदै इसे ॥ ५४. अन्य आचार्य इम कहै छै, प्रकाम कहितां जाणियै । तीव्र अभिलाषा छते वा, अतिहि अर्थ पिछाणियै ।। ५५. निकरणं इष्टार्थ साधक, क्रिया नहीं जेहनै विषे । समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण वेदना वेदै तिसे ॥ ५६. *हे प्रभ ! किणविध ताम, समर्थ पिण सन्नी छता । __ प्रकाम-निकरण नाम, वेदन प्रति किम वेदता ? ५७. जिन कहै सन्नी जीव, समुद्र पार जावू वही । एहवी वांछा अतीव, पिण पार जावा समर्थ नहीं । [जिन कहै गोयम ! एह, प्रकाम-निकरण वेदना] । ५८. समद्र – जे पार, रूप देखण समरथ नहीं । पिण ते रूप उदार, देखण वांछा तीव्र ही॥ ५९. वलि देवलोक मझार, जावा मैं समरथ नहीं । त्यां जावा नी अपार, अभिलाषा तसु तीव्र ही॥ ६०. देवलोक नां रूप, देखण नैं समरथ नहीं । पिण तसं देखण चूप, मनसा छै तसु तीव्र ही ।। * : लय : जी हो धनो ने सालभद्र दोय :लय : पूज मोटा भांज तोटा ४६. अकामनिकरणं वेदनां वेदयतीत्युक्तम्, अथ तद्विपर्ययमाह (वृ० ५० ३१२) ५०. अत्थि णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति? हंता अस्थि । (श० ७.१५३) ५१. प्रभुरपि संज्ञित्वेन रूपदर्शनसमथौंऽपि । (वृ० ५० ३१२) ५२. प्रकामः-ईप्सितार्थाप्राप्तित: प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभिलाषः (वृ०प० ३१२) ५३. स एव निकरणं-कारणं यत्र वेदने तत्तथा । (वृ० ५० ३१२) ५४,५५. अन्ये त्वाहु:-प्रकामे-तीवाभिलाषे सति प्रकामं वा अत्यर्थ निकरणं-इष्टार्थसाधकक्रियाणामभावो यत्र तत् प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीत्येवं वेदना वेदयति । (वृ० प० ३१२) ५६. कहाण भते ! भू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? ५७. गोयमा ! जे णं नो पभू समुद्दस्स पारं गमित्तए, ५८. जे णं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए, ५६. जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, ६०. जे णं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई पासित्तए, १०७,०७, ढा० १२२ २७१ Jain Education Intemational cation Intermational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. हे गोतम ! कह्य एह, समरथ पिण जे जीवड़ा । प्रकाम-निकरण जेह, वेदन वेदै छै खरा ॥ ६२. सेवं भंते ! सितंतर साज, ढाल एक सौ बावीसमी । भिक्खु भारीमाल ऋषराज, 'जय-जश' गणवच्छल दमी ॥ सप्तमशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥७७।। ६१, एस णं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति (श० ७.१५४) ६२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० ७.१५५) ढाल १२३ १. सप्तमोद्देश कस्यान्ते छाद्मस्थिकं वेदनमुक्तमष्टमे त्वा दावेव छद्मस्थवक्तव्यतोच्यते, (वृ० प ३१२) २. छ उमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंत सासयं समय केवलेणं संजमेणं । ३. एवं जहा पढमसए चउत्थे उद्देसए तहा भाणियव्वं जाव अलमत्थु । (सं० पा०) (श० ७।१५६, १५७) १. सप्तमदेशक अंत में, छद्मस्थ वेदन जाण । अष्टमुदेशक आदि हिव, छद्म वारता आण॥ २. हे प्रभ ! नर छद्मस्थ जे, अतीत काल अनंत । सास्वत समय विषे तिको, 'केवल संजमवंत ॥ ३. इम जिम प्रथम-शते' कह्यो, चउथ उदेशक माय । तिमहिज भणवो ज्यां लगे, अलमत्थ कहिवाय ।। ४. जीव तणां अधिकार थी, जीव तणो पहिछाण । प्रश्न हिवै गोयम करै, ऊजम अधिको आण ।। ___ *जय-जय जिनराज तणी वाणी । (ध्र पदं) ५. हे प्रभ ! निश्चै ते परिखो, गज कंथ नो जीव अछै सरिखो? जिन भाखै हंता जाणी॥ ५. से नूणं भंते ! हथिस्स य कंथस्स य समे चेव जीवे? हंता गोयमा ! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे । ६. एवं जहा रायपसेणइज्जे (रायप० सू० ७७२) जाव खुड्डियं (सं० पा०) वा महालियं वा से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-हत्थिम्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। (श०७।१५८, १५६) ८. जीवाधिकारादिदमाह (वृ० प० ३१३) ६. इम जिम रायप्रश्रेणी मही, जाव नान्ही मोटी काय कही। तिण अर्थ जावत सम ठाणी।। ७. वाचनांतरे सर्व तिको, पाठ साख्यात लिखित दीसै छै जिको। वृत्ति मध्ये इहविध माणी ।। सोरठा ८. जीव तणो अधिकार, आख्यो छै तेहथी हिवै। वली जीव विस्तार, निसुणो चित्त लगाय नैं। ... *नारकी नै प्रभजी ! न्हालं, पाप कर्म किया जे गये कालं । हिवड़ा करै आगै करिस्य प्राणी ॥ १०. ते सर्व दुक्ख हेतू कहिये, तिके निर्ज रयां सूख हेतु लहिय? जिन भाखै हंता इम जाणी।। १. भगवती श० श२००-२०६। *लय : प्रभु वासपुज्य मजलै प्राणी २७२ भगवती-जोड़ ६,१०. नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे व कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सब्वे से दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे ? हंता गोयमा ! Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. इम जाव वैमानिक लग कहिवो, नारकादिक ने संज्ञा रहिवो। ११. एवं जाव वेमाणियाणं। (श० ७.१६०) तस संज्ञा सत्र हिवै आणी। नारकादयश्च सजिन इति सञ्ज्ञा आह----- (वृ०प०३१४) १२. केतली प्रभु ! संज्ञा' भाखी, जिन भाखै दश संज्ञा दाखी। १२. कति णं भंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ? आहार भय मिथुन परिग्रह जाणी॥ गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहार सण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, १३. क्रोध मान माया नै लोभ वली, ओघ संज्ञा--दर्शनोपयोग मिली। १३. कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगज्ञानोपयोग लोक संज्ञा माणी॥ सण्णा, ओहसण्णा'। ततश्चौधसज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसञ्ज्ञा तु ज्ञानोपयोग इति । (वृ० ५० ३१४) १४. नवमी लोक संज्ञा अन्य गणि भाखै, ओघ संज्ञा नै दशमी दाखै। १४. व्यत्ययं त्वन्ये । (वृ० प० ३१४) एहवी वृत्तिकार कहि छै वाणी। १५. फून अन्य आचारज इम आखे, ओघ संज्ञा सामान्य प्रवृत्ति दाखै। लोक संज्ञा लोक दृष्टी ठाणी॥ १६. इम जाव विमानिक नै कहिवी, दश संज्ञा सर्व दंडक लहिवी। प्रवर प्रभू वच पहिछाणी ॥ १५. अन्ये पुनरित्थमभिदधति-सामान्यप्रवृत्तिरोघसज्ञा लोकदृष्टिस्तु लोकसञ्जा। (वृ० प० ३१४) १६. एवं जाव वेमाणियाणं । (श० ७।१६१) १. जयाचार्य ने वृत्तिकार द्वारा व्याख्यात पाठ के क्रम से जोड़ लिखी है तथा अन्य आचार्यों का मत प्रदर्शित करते हुए पहले लोक संज्ञा और बाद में ओघ संज्ञा होने का निर्देश किया है। अंग सुत्ताणि (भाग २ श०७।१६१) में वृत्तिकार के 'व्यत्ययं त्वन्ये'-अन्य आचार्यों द्वारा सम्मत पाठ को ही मान्य किया है। इसलिए जोड़ के सामने जो पाठ उद्धृत है, उसमें नौवीं एवं दशवीं संज्ञा के नामों में विपर्यय है। १. संसार के बहसंख्यक प्राणियों में पाई जाने वाली एक विशेष प्रकार की वृत्ति का नाम संज्ञा है । संज्ञा की अनेक परिभाषाएं हो सकती हैं, उनमें से कुछ परिभाषाएं ये हैं• जिससे जाना जाता है, संवेदन किया जाता है, वह संज्ञा है। • मानसिक ज्ञान अथवा समनस्कता का नाम संज्ञा है । • भौतिक वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु के संरक्षण की व्यक्त अथवा अव्यक्त अभिलाषा का नाम संज्ञा है। • वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी में आहार आदि की प्राप्ति के लिए जो स्पष्ट या अस्पष्ट व्यग्रता अथवा सक्रियता रहती है, वह संज्ञा है। • मनोविज्ञान की भाषा में प्राणी जगत् की जो मूल वृत्तियां हैं, उन्हीं को जैन सिद्धान्त संज्ञा के रूप में प्रतिपादित करता है। ज्ञान, संवेदन, अभिलाषा, चित्त की व्यग्रता या मूल वृत्ति किसी भी शब्द का प्रयोग हो, वह जैन दर्शन में संज्ञा कहलाती है। भगवती ७।१६१ में उसके दस प्रकार बतलाए हैं । दस संज्ञाओं में आठ संज्ञाएं ऐसी हैं, जो अपने नाम से ही अपने स्वरूप का बोध करा देती हैं । शेष दो संज्ञा-लोक संज्ञा और ओघ संज्ञा का स्वरूप उनकी परिभाषा से स्पष्ट होता है । ___ लोक संज्ञा वैयक्तिक चेतना की प्रतीक है और ओघ संज्ञा सामुदायिक चेतना की । भगवती में सामान्य प्रवृत्ति को ओघ संज्ञा और लोक दृष्टि को लोक संज्ञा कहा गया है। संज्ञा के दस प्रकारों में प्रथम आठ संज्ञाओं को संवेगात्मक और अंतिम दो संज्ञाओं को ज्ञानात्मक माना गया है। श०७, उ०८, ढा० १२३ २७३ Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १७. समदृष्टी रै ज्ञान, अज्ञान मिथ्याती तणें। तिम ज्ञानावरण पिछान, क्षय उपशम थी बिहुं तणें ॥ १८. पंचेंद्री नै पेख, दश संज्ञा सुख समझिये। एगिदियादि विशेख, जिन वचने करि जाणियै ॥ १६. प्राय यथोक्त तद्रूप, क्रिया-निबंधनभूत जे। कर्मोदयादि रूप, एकेंद्रियादि ने संज्ञा ।। २०. जीव तणो अधिकार, कहिवा थी वलि जीव नो। कहियै छै विस्तार, चित्त लगाई सांभलो॥ २१. *नेरइया दशविध न्हाली, विरूइ वेदन महा विकराली। ए तो भोगवता विचरै जाणी॥ २२. शीत उष्ण नै क्षुधा आखी, वली तृषा खाज वेदन भाखी । परवस्यपणो अनंत जाणी॥ २३. ज्वर दाह भय सोग कही, दश वेदन वार अनंत लही। सुध श्रद्धा विण रुलियो प्राणी ॥ १८,१६. एताश्च सुखप्रतित्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियान धिकृत्योक्ताः, एकेन्द्रियादीनां तु प्रायो यथोक्तक्रियानिबन्धनकर्मोदयादिरूपा एवावगन्तव्या इति । (वृ० प० ३१४) २०. जीवाधिकारात् (वृ० ५० ३१४) २१. नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, २२. तं जहा-सीयं, उसिणं, खुह, पिवासं, कंडु, परज्झ 'परज्झ' त्ति पारवश्यम् । (वृ० ५० ३१४) २३. जरं, दाह, भयं, सोगं। (श० ७।१६२) सोरठा २४. आखी वेदन एह, तिका कर्म नां वस थकी। वली क्रिया थी जेह, जीव सहै छै वेदना ॥ २५. तिका क्रिया सम थाय, महा तन अल्प तन बिहुं तण । ते देखाड़ण ताय, गोयम प्रश्न कर हिवै। २४. प्राग वेदनोक्ता सा च कर्मवशात् तच्च क्रियाविशेषात् । (वृ० प० ३१४) २५. सा च महतामितरेषां च समैवेति दर्शयितुमाह (वृ० प० ३१४) २६. *ते निश्चै करि भगवानं, गज कंथ बिहं नैं सम जानं । अपचखाण क्रिया माणी? २७. जिन भाखै हता होयो, किण अर्थे प्रभ ! अवलोयो ? जिन कहै अव्रत आश्री ठाणी, तिण अर्थे जावत सम जाणी॥ २८. असंजती नै हिव संयत सोरठा जोय, अव्रत नी किरिया कही। में होय, आधाकर्मी जे क्रिया। २६. से नूणं भंते ! हथिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? २७. हंता गोयमा ! ......" (श० ७।१६३) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ- " गोयमा ! अविरतिं पडुच्च । से तेणठेणं जाव (सं० पा०) कज्जइ। (श० ७।१६४) २८. अनन्तरमविरतिरुक्ता सा च संयतानामप्याधाकर्मभोजिनां कथञ्चिदस्तीत्यतः पृच्छति ।। (वृ०प० ३१५) २६. अहाकम्मं णं भंते ! भुजमाणे कि बंधइ ? कि पक रेइ ? किं चिणाइ ? कि उवचिणाइ? ३०. एवं जहा पढ़मे सए नवमे उद्देसए (१।४३६) तहा भाणियब्वं । (सं० पा०) २६. *आधाकर्मी प्रभ ! जाणी, भोगवतो स्यं बांध ताणी। __ स्यूपकरै चय उपचय ठाणी? ३०. इम जिम प्रथम शते आख्यो , नवमे उदेशे जे भाख्यो । तिम इहां भणपहिछाणी ॥ *लय : प्रभु वासुपूज्य भजले प्राणी ! २७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. जाव सासतो पंडित जीवो, ए द्रव्य जीव आश्री कहीवो । पंडितपणो असासतो चरिताणी | ३२. सेवं भंते ! अष्टमंते । सेवं भंते! शत सप्तमुदेश ढाल एकसी तेवीसमीं वर वाणी ।। ३२. भिक्खु भारीमाल ने ऋषिराया, 'जय जश' सुख हरण संपति पाया । गण- वच्छल संत अज्जा स्याणी ॥ सप्तमशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥७८॥ दूहा १. अशुद्ध आहार भोजी कह्यो, प्रमत्तपणे करि जेह असंवरी आतम जिणे, नवमें पिण ढाल १२४ ४. असंवृत अणगार २. असंवृत अणगार प्रभु ! अशुभ जोग आतम वस कीधी नहीं, प्रमत्त कह्यो वृत्ति मांय ॥ २. पुद्गल बाह्य लियां बिना एक वर्ण इक विकुर्वण समरथ अछे ? जिन कहे नहि प्रभु ! बाहिर एक वर्ण इक रूप प्रति, ५. ते प्रभु स्यू' पुद्गल ग्रहै ! ते पुद्गल लेई लेई करी, वलि तेह || अपेक्षाय । पुद्गल जाय हंत लेय। विकुर्वेय ॥ इह नरलोके विकुर्वणा ६. तत्थगए वैक्रिय करि, जास्यै जे जिण तिहां रह्या पुद्गल ग्रही, करें विकुर्वण रूप । तद्रूप ॥ जेह करेह ॥ । स्थान | जान ? ७. अन्नत्थगत ए स्थान बे, तेह थकी अन्य स्थान | तिहां रह्या पुद्गल ग्रही, करै विकुर्वण जान ? ८. जिन कहै पुद्गल हो रह्या लेई विकुर्वेह इहां वैक्रिय करै ते स्थान नां, पुद्गल ग्रहण ६. तत्थगए वैक्रिय करि, जास्यै जे जिण तिहां रह्या पुद्गल ग्रही, विकुर्वे नहिं | करेह ॥ स्थान । जान ॥ ३१. जाव सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं । ( ० ७११६५) जीवः शाश्वतः पण्डितत्वमशाश्वतं चारित्रस्य भ्रंशादिति । ( वृ० प० ३१५ ) (४० ७ १६६) ३२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । वक्तम्यतोक्ता, १. पूर्वभाषाकर्म भोक्तुना शकेऽपि तद्वक्तव्यतोयते, २. असं भंते! अणगारे असंवृतः प्रमत्तः । ३. बाहिरए पोते अपरिवाइता पन् एव विव्वित्तए ? णो इणट्ठे समट्ठे । (१० ७११६७) ४. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउब्वित्तए ? हंता पभू । (श० ७ १६०) ५. से णं भंते! कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्ब ? 'इतान्' नरलोकव्यवस्थितान् (पृ० प० ३१५) ६. त्यए पोग्यले परिवाइता विद? 'तत्थए' त्ति वैक्रियं कृत्वा यत्र यास्यति तत्र व्यवस्थितानित्यर्थः । ( वृ० प० ३१५) ७. अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ ? 'अन्नस्थगए' ति उक्त्तस्थानद्वयव्यतिरिक्तस्थानाश्रितानित्यर्थ: । ( वृ० प० ३१५) ८. गोमा इन पोगले परिवादता विकु ६. नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ । नवमो (४० प० ३१५) ( वृ० प० ३१५) एवं श० ७, उ० ८, ६, ढा० १२३, १२४ २७५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अन्नत्वए ए स्थान वे तेह थकी अन्य स्थान । विहां रह्या पुद्गल ग्रही, विकुर्वे नहिं जान ॥ ११. एक वर्ण बहु रूप इम, गीताय । शत छट्ठे नवमें कह्य, कहिवाय ॥ १२. णवरं इतो विशेष छे, अणगार । इहां रह्या पुद्गल ग्रही, १३. शेष तिमज कहिवू सहु, तिहां रह्या पुद्गल विचार | ग्रहै, तेम इहां इण शतके विकुर्वणा तिण शतके आख्यू एहवूं पुद्गल प्रते १४. जाव लवल लुक्ख समर्थ प्रभु ! परिणामिवा ? ! परिणामिवा ? १५. ते प्रभु ! जाव अन्य १६. आरुपो ए पुद्गल तणो, जे परिणाम ते संग्राम विषे हुवै, तसु विशेष विशेष | हिव लेख ॥ * गुण जन ! सांभलो, वारू श्री जिन वयण विशाल || ( ध्रुपदं ) १७. जाण्यो सामान्य आगल वस्तु जे निद्धपणें हंता समर्थ स्यूं पुद्गल ग्रहै, इहां रह्या छै जेह । स्थानक रह्या, ग्रहि वैक्रिय न करेह ॥ १५. स्मृत नीं परे समरियो, महावीर महिमानिला, छानो देव । भेव ॥ अचलोय । । पकी सही जी, अरिहंत श्री वर्धमान । आखिये जी, सर्वज्ञपणां थी जाण ॥ * लय: अभड भड रावणो इंदा सूं अडियो रे २७६ भगवती जोड़ होय ॥ २२. महाशिलाकंटक संग्राम, दोय वार सूत्रे ते उल्लेख नुं ताम, अनुकरणे आख्यो २३. * महाशिला कंटक प्रभु ! संग्रामे कुण जीतो कुण हारियो ? उत्तर दे || १६. जाण्यो विशेषपणें करी, अरिहंत अतिसयधार । महाशिलाकंटक हिवै, संग्राम नों अधिकार ॥ प्रगटपणे प्रतिभास | नहि कोइ नहि कोइ तास | सोरठा २०. महाशिला इज जाण, कंटक ते जीवित तणां । विनाश करिये माण, महाशिला कंटक को ॥ कह्यो २१. तूण-शलाकादि करेह, हृण्या थका गज प्रमुख जे महाशिला प्रहारेह, हृप्यां जिसी वेदन हुवे ।। वचन । वृतौ ॥ वर्तमान । भगवान || १०. नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ । ११. एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो जहा छट्टसए नवमे उस (६।१६५) तहा इह विभागिय १२. नवरं अणगारे इह्ायं च इहगते चेव पोग्गले परियाइस विकुव्वद । १३. सेसं तं चैव तत्र तु देव इति तत्रगतानिति चोक्तम् । ( वृ० प० ३१५ ) १४. जाव लुक्खपोग्गलं निद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? हंता पभू । १५. से भंते! अथ १६. अनन्त सविशेषी भरतीति सामविशेषव्याघणनाय प्रस्तावयन्नाह ( वृ० प० ३१५ ) कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता जाव नो पोगले परिवाइसा निकुम्बई (सं०पा० ) (०७१६-१७२ ) परिणामविशेषउक्तः स प्रा , १७. नायमेयं अरह्या, ज्ञातं सामान्यतः 'एतत्' वक्ष्यमाणं वस्तु 'अर्हता' भगवता महावीरेण सर्वज्ञत्वात् (पृ० प० ३१६ ) १८. सुयमेयं अरया, । 'सूर्य' स्मृतमिय स्मृतं प्रतिभासभावात् । ( वृ० प० ३१६) १६. विष्णाय मेयं अरह्या - महासिला कंटए संगामे । विज्ञातं विशेषतः (०१० ३१६) कण्टकः २०. महाशिलैव कण्टको जीवितभेदकत्वात् महाशिला - ( पृ० प० ३१६) शाकादिनाऽप्यभिहतस्यात्यादेर्महा शिलाकण्टकेनेवाभ्याहतस्य वेदना जायते । ( वृ० प० ३१६) ( वृ० प० ३१६) २१. यत्र २२. चोवस्यानुकरणे, २३. महासिलाकंटए णं भंते! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के पराजइत्था ? 'जइत्थ' त्ति जितवान् 'पराजदाथ' त्ति पराजितवान् हारितवान् । (०१० ३१६) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गोयमा ! वज्जी, विदेहपुत्ते जइत्था, 'वज्जि' त्ति 'वजी' इन्द्रः 'विदेहपुत्ते' त्ति कोणिकः, एतावेव तत्र जेतारौ। (वृ० ५० ३१७) २५. नव मल्लई, नवलेच्छई-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो पराजइत्था । (श० ७.१७३) २४. बज्री विदेहपुत्र जीतियो, वज्री ते इंद्र पिछाण । विदेहपुत्र कोणिक कह्यो, ए बिहं जीता जाण ।। २५. नव मल्लकी नव लेच्छकी, कासी कोसल देश नां राय। अष्टादश गण राजवी, ते हाऱ्या कहिवाय ॥ सोरठा २६. जेह मल्लकी नाम, नव विशेष राजा जिके। कासी जनपद ताम, तेह संबंधी ए कह्या ।। २७. वले लेच्छकी नाम, नव विशेष राजा जिके । कोसल जनपद ताम, तेह संबंधी ए कह्या ।। २८. *प्रयोजन ऊपने छते, जे करै गण-समुदाय । गण प्रधान राजा तिके, गण-नृप सामंत ताय ।। २६. कोणक राजा तिण अवसरे, महाशिलाकंटक संग्राम । उपस्थित इम जाणने, सेवग ने कहै ताम ।। ३०. शीघ्र तुम्हे देवान प्रिया ! उदाई नामैं एह। गजराज प्रति सझ करो, चउरंगी सैन्य सझेह ।। २६,२७. 'नवमल्लई' त्ति मल्लकिनामानो राजविशेषाः 'नवलेच्छइ' त्ति लेच्छकिनामानो राजविशेषा एव 'कासीकोसलग' त्ति काशी-वाणारसी तज्जनपदोऽपि काशी तत्सम्बन्धिन आद्या नव कोशला-अयोध्या तज्जनपदोऽपि कोशला तत्संबंधिनो नव द्वितीयाः ।। (वृ० प० ३१७) २८. समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः सामन्ता इत्यर्थः । (वृ० प० ३१७) २६. तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटगं संगामं उठ्ठियं जाणित्ता कोडुबिय-पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी३०. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-पवर-जोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह, 'पडिकप्पेह' त्ति सन्नद्धं कुरुत। (वृ० प० ३१७) ३१. मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह । (श० ७।१७४) तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया ३२. जाव मत्थए अंजलि कटु एवं सामी! तहत्ति आणाए ३३. विणएणं वयणं पडिसुणंति, ३१. ए मुझ आज्ञा शीघ्र थो, पाछी सूपो आण । कोडुबिक कोणिक तणो, वच सुण हरष भराण ॥ ३२. यावत शिर अंजलि करो, एवं सामी ! तहत्त। जो आज्ञा तिण विध हुस्यै, आप तणो वच सत्त। ३३. इह विध वचन-विनय करो, राय वचन नैं तिवार । अंगीकार करै आदरै, सेवक पुरुष जिवार ॥ ३४. शीघ्रपणे डाहो तिको, युद्ध सिखावणहार । एहवो आचार्य तेहनो, जे उपदेश-दातार ।। ३५. तेहनी जे मति बुद्धि करी, कल्पना रचना पिछाण । तिण रचना करिनै रची अतिहि निपुण नर जाण ॥ ३६. जिम उववाई में कह्यो, यावत रोद्र संग्राम । तेह जोग गजराज ने, सज्ज करै तिण ठाम ।। सोरठा ३७. कह्य वृत्ति रै माय, वाचनांतरे वारता । सर्व लिखत देखाय, पाठ सहु साख्यात जे । *लय : अभड भड रावणो इंदा स्यू अड़ियो रे ३४,३५. पडिसुणित्ता खिप्पामेव छयायरियोवएसमति कप्पणा-विकप्पेहि सुनिउणेहि छेको-निपुणो य आचार्य:-शिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशाद् या मति:-बुद्धिस्तस्या ये कल्पनाविकल्पा: " (वृ०प० ३१७) ३६. एवं जहा ओववाइए सू० ५६, ५७ (सं०पा०) भीम संगामियं अओझं उदाई हत्थिरायं पडिकति । ३७. वाचनान्तरे त्विदं साक्षाल्लिखितमेव दृश्यत इति । (वृ० प० ३१८) श०७,०६, ढा० १२४ २७७ Jain Education Intemational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. *हय गय रथ भट सहित स, जाव सझी चतुरंग । कोणिक नप पै आय नै, बे कर जोड़ उमंग ॥ ३६. यावत कोणिक राय ने, आज्ञा सूपी जेह। कोणिक नुप तिण अवसरै, आयो मज्जण-गेह ॥ ४०. मज्जण-घर में पैसने, स्नान किया बलिकर्म। वृत्तिकार कह्यो देव नों, कृतबलिकर्म ए मर्म । ४१. तिलक मसी कोतुक किया, मंगलीक द्रोबादि। अशुभ स्वप्न नै टालिवा, प्रायश्चित ए साधि । ३८. हयगय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेंति, सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव (सं० पा०) ३६. कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पच्चप्पिणति । (श० ७.१७५) तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणधरं तेणेव उवागच्छति, ४०. उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता ण्हाए कयबलिकम्मे 'कयबलिकम्मे' त्ति देवतानां कृतबलिकर्मा । (वृ० ५० ३१८) ४१. कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानीव दुःस्वप्नादिव्यपोहायावश्यं कर्त्तव्यत्वात् प्रायश्चित्तानि येन स तथा, तत्र कौतुकानि-मषीपुण्ड्रादीनि मङ्गलानिसिद्धार्थकादीनि । (वृ० प० ३१८) ४२. सव्वालंकारविभूसिए सण्णद्ध-बद्धसन्नद्धः संहननिकया तथा बद्धः कशाबन्धनतः (वृ० प० ३१८) ४३,४४. वम्मियकवए उप्पीलियसरासणपट्टिए उत्पीडिता-गुणसारणेन कृतावपीडा शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डो येन स तथा, उत्पीडिता वाबाही बद्धा शरासनपट्टिका-बाहुपट्टिका येन सः । (वृ० प०३१८) ४५. पिणद्धगेवेज्ज-विमलवरबद्धचिंधपट्टे ग्रेवेयक-ग्रीवाभरणम् । (वृ० ५० ३१८) ४६. गहियाउहप्पहरणे गृहीतानि आयुधानि-शस्त्राणि प्रहरणाय-परेषां प्रहारकरणाय येन सः । (वृ०प० ३१८) ४२. सर्वालंकार तेणे करी, कियो विभूषित गात । सन्नद्ध कहितां सन्नाह ने, कसिणे करि बंधनात ।। ४३. वरमित तन रक्षा भणी, कवच भणी पहिरेह । पुणच पसारव करी, शरासन-पट्टिका जेह ।। ४४. एहवो धनुर्दडं छै तिको, बाहु विषे तिणवार । बांधी शरासन-पट्टिका, कोणिक नृपति जिवार ।। ४५. पहिया है आभरण कंठ नां, निमल पवर सुप्रधान । राज्य चिह्न नं पट्ट जिणे, ते बांध्यो छै जान ।। ४६. ग्रह्या आयुध बहु शस्त्र नैं, जेह प्रहरण कहाय । पर नैं प्रहार करण भणी, ए आयुध प्रहरणाय । सोरठा ४७. अथवा आयुध तेह, अक्षेप्य खड़गादी ग्रही। अधिक उलालि वधेह, पिण न्हाखै नहिं हाथ थी। ४८. क्षेप्य शस्त्र बाणादि, प्रहरण छै ए कर थकी। अधिक वेगला साधि, न्हाखै पर हणवा भणी॥ ४६. *कोरंटक नाम तरु तणां, पुष्पमाला करि सहीत । तेह छत्र धरिवै करी, पेखत पामै प्रीत ।। ४७. अथवाऽऽयुधानि अक्षेप्यशस्त्राणि खड्गादीनि (वृ० प०३१८) ४८. प्रहरणानि तु-क्षेप्यशस्त्राणि नाराचादीनि । (वृ० ५० ३१८) ४६. सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं 'सकोरिट...' ....... कोरिण्टकाभिधानकुसुमगुच्छ र्माल्यदामभिः-पुष्पमालाभिः। (वृ० ५० ३१८) ५०. चउचामरबालवीजियंगे मंगलजयसद्दकयालोए 'मंगल'...' .."जयशब्दः कृतः जन विहितः । (वृ०प० ३१८) ५०. चिउं चामर वाले करी, वीजित अंग सुजान। मंगल जय रव जन करै, दर्शन देखत पान ।। *लय : अभड़ भड़ रावणो इन्दा स्यूं अडियो रे २७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१,५२. जाव (ओ० सू० ६३) जेणेव उदाई हत्थिराया तेणेव उवागच्छइ, ५१. इम जिम उववाई विषे, लोक अनेक संघात । मज्जण घर थी नीकली, मन माहे हरष धरात ।। ५२. जिहां बाहिरली उवद्वाण साल छ, जिहां उदाई नाम । हस्ती नो राजा अछ, जाव आया तिण ठाम ।। ५३. उदाई हस्तिराजा प्रतै, थया आरूढ तिवार। कोणिक नृप तणो तदा, शोभ रह्यो दीदार ॥ ५४. प्रवर हार आच्छादन करी, सुकृत रचित सुरीत । ___ वक्ष हृदय तसु शोभतो, पेखत पामै प्रीत ॥ ५५. जिम उववाई विषे कह्यो, जावत चामर स्वेत । उर्ध्व कर छै तिणे करी, चउरंगी सेन्य समेत ।। ५६. मोटा जे भड़ तेहना, चडगर विस्तारवान । तेहनै संग वृदे करी, वीट्यो कोणिक राजान । ५७. जिहां महाशिलाकंटक संग्राम छै, आयो तिहां चलाय । तेह संग्राम आगै वलि, शक्र सुरिंद सुरराय ।। ५८. पर प्रहार लागे नहीं, अभेद्य कवच विशेख । एहवो मोटो एक विकुर्वे, वज्र सरीखो देख ।। ५६. बे इंद्र इम निश्चै करी, करै संग्राम सवाय ।। देविंद मणयिंद दीपता, शक्र कोणिक कहिवाय ।। ६०. इक गज करिन पिण तदा, समर्थ कोणिक राय । जीपवा पर वैरी भणी, शक्र सहाय थी ताय ।। ५३. उवागच्छित्ता उदाइं हत्थिरायं दुरूढ़े । (श० ७।१७६) ५४. तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकय-रइयवच्छे हारावस्तृतेन-हारावच्छादनेन सुष्ठु कृतरतिकं वक्षः-उरो यस्य स तथा (वृ० प० ३१६) ५५. एवं जहा उववाइए (सं० पा० सू० ६५) जाव सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं-उद्धव्वमाणीहि ह्यगय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे ५६. महयाभडचडगरविंदपरिक्खित्ते महाभटानां विस्तारवत्संघेन परिकरित इत्यर्थः (वृ० प० ३१६) ५७. जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासिलाकंटगं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के देविदे देवराया । ५८. एगं महं अभेज्जकवयं वइरपडिरूवगं विउवित्ता चिट्ठइ। ५६. एवं खलु दो इंदा संगाम संगामेंति, तं जहा-देविदे य, मणुइंदे य। ६०. एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जइत्तए, एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया पराजिणित्तए । (श० ७।१७७) ६१ तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटगं संगाम संगामे माणे ६२. नव मल्लई नव लेच्छई-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो ६३. हय-महिय-पवरवीर-घाइय हताः-प्रहारदानतो मथिता-माननिर्मथनतः प्रवरवीराः-प्रधानभटा धातिताश्च येषां ते । (वृ०प० ३१६) ६४. विवडियचिध-द्धयपडागे किच्छपाणगए दिसोदिसि पडिसेहित्था । (श० ७.१७८) 'किच्छपाणगए' त्ति कृच्छ्रगतप्राणान् कष्टपतितप्राणानित्यर्थः। (वृ०प० ३१६) ६१. कोणिक नुप तिण अवसरे, महाशिलाकंटक संग्राम । जबर युद्ध करतो छतो, प्रबलपणो दिल पाम ॥ ६२. नव मल्लकी नव लेच्छकी, ए गणराय अठार । कासी कोसल देश नां धणी, पराजित किया तिण वार ।। ६३. हता प्रहार देई करी, मथिता मथियो मान । प्रवर वीर भट जेहनां, परभव कियो प्रयाण ।। ६४. पाड़ी लूटी अवगणी, ध्वजा पताका जास । कष्ट-पतित प्राण देखन, गया दिशो दिशि न्हास ॥ श०७, उ० ६, ढा० १२४ २७६ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. किण अर्थे प्रभु इम कह्यो, महाशिलाकंटक संग्राम ? जिन भाखे सुण गोयमा ! गुणनिप्पन है नाम ॥ ६६. महाशिलाकंटक संग्राम में अश्व तथा गज ते तिहां, ६७. तृण करि वा काष्ठे करी, वर्तमान विषे सुभट सारथी पत्र करो में देख ॥। अथवा जे कांकरै करी, हणें वैरी न ६८. ते सहु जाणे एह महाशिला करि सोय इहां हणाणां म्हे सही, तिण अर्थे इम जोय ॥ ६९. महाशिलाकंटक संग्राम में प्रभु! किता मनुष्य नी घात ? जिन कहै चोरासी लख तणी, तेह हणाणा विख्यात ॥ 1 ७०. हे भगवंत ! मनुष्य तिके, शीव्रत करी रहीत। जाव पचक्खाण पोसा रहित, वलि मन तसु कोप सहीत ॥ ७१. शरीर विषे पिण सर्वथा दीसतो कोप विकार । उपशम रहित युद्धे मरी, ऊपनां किण गती मझार ? ७२. जिन कहै बहुलपणे करी, नरक तिथंच मकार । ऊपनां दुष्ट कर्मे करी, गया जमारो हार ॥ ७३. देश अंक गुण्यासी तणो, एकसौ चोबीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जय' हरष विशाल । दूहा १. जाण्यो ए अरिहंत जिन विशेष करि जाण्यो प्रभु ढाल १२५ जेह तेह ॥ पेख ५. कोणिक नृप तिण सज्ज थयो जाणी *लय : राघव आवियो हो २५० भगवती जोड़ स्मृत ए जिन नै ताम । रथ- मूसल संग्राम ॥ भदत ! रथ- मूसले, संग्रामे वर्तमान । कुण जीतो कुण हारियो ? भावे तब भगवान || २. यी ते सौधर्म इंद, कोणिरु २. हे 1 विदेहज पूत । चमर असुर तो इंद्र ते ए जीता युध जूत ॥ ४. नव मल्लकी नव लेच्छकी, अष्टादश ए राय । रथ-मूसल संग्राम में ए हाय अधिकाय ॥ *कोणिक आवियो हो ॥ ( ध्रुपदं ) अवसरे, रथ- मूसल संग्राम | करी चड़ियो देइ दमाम || । ६५. से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ - महासिलाकंटए संगामे ? गोयमा ! ६६. महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा ६७. तणेण वा, कट्ठेण वा, पत्तेण वा, सक्कराए वा, अभिहम्मति । ६८. सेवा महासिलाए अहं अभिहए से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - महासिलाकंटए संगामे | (४० ७११७९) ६. महासिलाकं णं भंते! संगामे बट्टमा कति जणसय साहसीओ वहियाओ ? गोयमा ! चउरासीइं जणसयसाहस्सीओ वहियाओ । (रा० ७ १८०) ७०. ते णं भंते! मणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निष्यच्चनलागोस होववासा का ७१. परिकुबिया समरवहिदा अगुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहि गया ? कहि उबवण्णा ? ७२. गोयमा ! उस्सणं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववण्णा । (श० ७ १८१) १. नायमेयं अरहया, सुयमेयं अरया, विष्णाय मेय अरया रहमुसले संगामे २. रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के पराजइत्था ? ३. गोवमा बन्जी, विदेहले चमरे असुरिये असुरकुमारराया जइत्था, ४. नव मल्लई, नव लेच्छई पराजइत्था । (श० १।१८२ ) ४. एणं से कूणिए राया रहनुसतं संगामं उबट्ठिमं जाणित्ता Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सेसं जहा महासिलाकंटए नवरं भूयाणंदे हत्थिराया, ७. जाव रहमुसलं संगामं ओयाए । ६. जिम महाशिलाकंटक कह्यो, तिमहिज शेष कहाय । णवरं इतलो विशेष छ, भतानंद गजराय।। ७. तेह गजेंद्र प्रते चढी, जाव जिहां लग जाण । रथमूसल संग्राम में, आयो ऊजम आण ।। ८. रथमसल संग्राम में, आगल शक्र देविंद । इम तिमहिज यावत रहै, सूत्रे एम कर्थिद ।। ६. ए वचने करि जाणिय, पूरववत पहिछाण । अभेद्य कवच मांडी रह्यो, बड़े टबे पिण जाण । १०. पूठ पाछै चमरे रच्यो, लोहमय मोटो एक । तापस-भाजन वंस नो, तास आकार विशेख ।। ८. पुरओ य से सक्के देविदे देवराया एवं तहेव जाब चिट्ठइ । (सं० पा०) ११. ते विकुर्वी नै रहै, करै तीनं इंद्र संग्राम । देविंद मणयिद दीपता, असुर-इंद वलि आम ।। १२. इक गज करिने पिण तिको, समर्थ कोणिक राय । जीपवा वेऱ्या भणी, शेष तिमज कहिवाय ।। १०. मग्गओ य से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयसं किढिणपडिरूपगं 'मग्गओ' त्ति पृष्ठतः 'आयसं' ति लोहमयं 'किढिणपडिरूवगं' ति किठिनं-बंशमयस्तापससम्बन्धी भाजन विशेषस्तत्प्रतिरूपकं तदाकारं वस्तु । (वृ०प० ३२२) ११. विउवित्ता णं चिट्ठइ। एवं खलु तओ इंदा संगामं संगामेंति, तं जहा-देविदे य, मणुइंदे य, असुरिंदे य । १२. एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जइत्तए तहेव जाव दिसोदिसि (सं० पा०)। (श० ७१८३-१८६) १३. तए णं से कुणिए राया रहमुसलं संगाम संगामेमाणे १४. नव मल्लई, नव लेच्छई-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो ह्य१५. महिय-पवरवीर-घाइय १६. विवडियचिध-द्धयपडागे किच्छपाणगए दिसोदिसि पडिसेहित्था। (श० ७।१८७) १३. कोणिक नूप तिण अवसरे, रथमसल संग्राम । प्रबल युद्ध करतो छतो, कोप करीनै ताम ।। १४. नव मल्लकी नव लेच्छकी, सामंत राय अठार । कासी कोसल तणां धणी, दीधो तास प्रहार ॥ १५. मान मथ्यो दहि नी परै, वीरा प्रवर पिछाण । घात घणां सुभटां तणी, परभव पूगा जाण ॥ १६. ध्वजा पताका जेहनां, पाड्या लूंट्या तास । प्राणे पड़ी अति आपदा, गया दिशो दिशि न्हास ॥ १७. जीत्यो कोणिक राजवी, हारया अठारै राय । दिशो दिशि न्हासी गया, कारी न लागी काय ॥ १८. हार हाथी ने कारण, बहु जन नो धमसाण । कोणिक निज नाना तणी, कांय न राखी काण ॥ १६. चेड़े एकीके शर हण्या, कालादि दश कुमार। निरावलिया' मांहे कह्यो, तेहनो बहु विस्तार ।। २०. हार हाथी तो ज्यांही रह्या, हाडे पड़ियो वैर । कोणिक नूप तिण अवसरे, इंद्र बोलाया खैर ।। २१. महाशिलाकंटक कियो, पहिलो जे युद्ध ताय । लाख चोरासी मनुष्य मुंआ, जीत्यो कोणिक राय ।। २२. रथमूसल ए दूसरो, दूजा युद्ध रै माय । जीतो कोणिक राजियो, हारया अठारै राय ।। १. सू० ११२-१०।१४७,१४८ १६. तए णं से चेडए राया......""कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ । (निरया० १११११४०) श०७, उ०६,ढा० १२५ २८१ Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो, रथमसल संग्राम ? जिन भाखै सुण गोयमा ! गणनिप्पन है नाम । २४. रथमसल संग्राम में, वर्तमान सुवदीत । इक रथ अश्व रहीत पिण, सारथि सुभट रहीत । २५. समसल ते मसल सहित, मोटो जन क्षय नाश ।। वध करै बहु जन तणो, मर्दन चूरण तास । २६. लोक तणो संहार अतिहि, कर्दम रुधिर करेह । __सर्व थकी चिहं दिशि विषे, दोड़तो रथ जेह । २७. तिण अर्थे करि गोयमा, म्है इम आख्यो ताम । रथमसल संग्राम नों, ए गणनिप्पन नाम ।। २८. रथमसल संग्राम में प्रभु ! मनुष्य मुआ के लाख ? जिन कहै छन्नू लख म आ, समय वचन वर साख । २६. व्रत रहित जे मानवो प्रभु ! जाव काल करि ताय । किहां गया किहां ऊपनां? हिव भाखै जिनराय ।। ३०. इक मछली री कूख में, दस हजार नर देख । ऊपजिया कर्मा वस, अशुभ जोग सूं पेख ।। ३१. इक देवलोके ऊपनो, सुकुल मनुष्य भव एक । शेष नरक तिर्यंच में, बहुलपणे सुविशेख ।। २३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-रहमुसले संगामे ? गोयमा ! २४. रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए, असारहिए, अणारोहए, २५. समुसले महया जणक्खयं, जणवह, जणप्पमद्द, 'महताजणक्खयं' ति महाजनविनाशं......"जणपमई' ति लोकचूर्णनम् । (वृ० ५० ३२२) २६. जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वओ समंता परिधावित्था । जनसंवर्त इव लोकसंहार इव । (वृ०प० ३२२) २७. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-रहमुसले संगामे। __ (श० ७१८८) २८. रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसय साहस्सिओ वह्यिाओ? गोयमा ! छण्णउति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ । (श० ७१८६) २६. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला""कालं किच्चा कहि गया ? कहिं उववन्ना? ३०. गोयमा ! तत्य णं दससाहस्सीओ एगाए मच्छियाए कुच्छिसि उववन्नाओ। ३१. एगे देवलोगेसु उववन्ने । एगे सुकुले पच्चायाए । अवसेसा उस्सणं नरग-तिरिक्ख जोणिएसु उववन्ना । (श० ७.१६०) ३२. कम्हा णं भंते ! सक्के देविदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रण्णो साहेज्जं दलइत्था ? ३३. गोयमा ! सक्के देविदे देवराया पुवसंगतिए, "पुवसंगइए" त्ति कात्तिकश्रेष्ठ्यवस्थायां शक्रस्य कूणिकजीवो मित्रमभवत् । (वृ० प० ३२२) ३४. चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए । 'परियायसंगइए' त्ति पूरणतापसावस्थायां चमरस्यासी तापसपर्यायवर्ती मित्रमासीदिति । (वृ० प० ३२२) ३५. एवं खलु गोयमा ! सक्के देविदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रण्णो साहेज्ज दल इत्था । (श० ७.१६१) ३२. हे भगवंत ! किण कारण, शक्र सुरिंद्र सुरराय । चमर असुर-इंद बेहुं थया, कोणिक नृपति सहाय ॥ ३३. जिन कहै शक्र सुरिंद्र सुरनूप, कोणिक जीव नो जोय । मित्र हुँतो भव पाछिले, कात्तिक भव अवलोय ॥ ३४. चमर असुर-इंद असुर-राजा पूरण तापस जीव । कोणिक नों पर्यायमित्रि, तापसपणां नों अतीव ।। ३५. इम निश्च करि गोयमा ! शक्र चमर बिहं इंद। स्हाज दियो कोणिक भणी, ए मोह राग कथिंद ।। ३६. देश अंक गण्यासी तणो, इकसौ पचीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति न्हाल ।। २२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १२६ दूहा लघु १. हे भदंत ! भव अंत प्रभु ! बहु इम कहे बायत इह विधे, करें २. इम निश्च करि बहु मनुष्य, तेह विषे सम्मुख थई, जूझे ३. शस्त्रे तेह हण्या छता, काल मास अन्य एक देवलोक में उपजे 1 ४. ते किम ए भगवंत ! इम ? बहु जन भाखे बात ए, जन माहोमांहि । परूपणा ताहि ॥ मोटा संग्राम | ५. पिण गोतम ! इम कहूँ, जाव पपू एम। सांभलजे इम निश्च करि गोयमा ! धर प्रेम ॥ * जिन भाखे गुण गोयमा ! सुगणा (धपदं) ७. तिन विशाला नगरी विषे वरुण नाग तणो ए पोतरो तेह ८. ते वरुण बड़ो ऋद्धिवंत खे धन करि गंज सर्क नहीं, ९. जीव अजीब ने जाणिया, जाव सूरा ताम ॥ करि काल । तेह विशाल || जिन कहै मोहोमाय । ते मिथ्या कहिवाय ॥ ६. तिग काले ने तिग समें सुगणा, गोयमज ! हो नगरी विशाला नाम । हुंती अति रलियामणी सुगणा, गोयम जी ! हो तसुं वर्णक बहू ताम ।। इसो त नाम । वसै तिण ठाम ॥ जावत अपरिभूत । भावक के शुभ सूत । श्रमण निग्रंथ | व्रत पालंत ॥ " असणादिक प्रतिलाभतो, श्रावक १०. बेले बेले पारो, बेले पारणो, अंतर - रहित तप करि आतम भावतो, विचरं छं ११. वरुण नागनत्तुओं तदा, एकदा ते राजा नीं आज्ञा करी, रायाभिओगेण धार ॥ १२. गण समुदाय ते न्यात नो, आज्ञा करी तिणवार । बलवंत नैं जोगे करी, युद्ध भणी हुओ १३. रथमूसल संग्राम में, नृप नी आज्ञा पाय । तिम अवसर छठ भक्त नों, अट्टम त्यार । दीधो ठाय ।। *लय : तपसी में गुण अति घणां इक धार । तिणवार ॥ किणवार । १. बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव पवेइ २. एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावएसु संगामेव ३. पया समाणा कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलए देवताए उववतारो भवति । (०७१२) ४. से कहमेव भते ! एवं ? गोमा ! जणं से बहुजण अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव... जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । ५. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्वामि जाव परूवेमि-एवं खलु गोयमा | ! ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्या-वगो | ७. तत्यानीए नगरीए वरुणे नाम नागन तुए परिवसइ ८. अडे जाव अपरिभूए समणोवासए १. अभिनयजीवाजीने जाम नफासु-एसि ज्जेणं असण- पाणपडिलाभेमाणे । १०. छट्ठछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (wo witer) ११. तए णं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कया रायाभिखोगे, १२. गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं १३. रहमुसले संग्रामे जाणते समा भलिए अद्रुमभतं बबट्टेति श० ७ ० ६; डा० १२६ २८३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. आदेशकारी पुरुष नैं, बोलावी कहै वाय। शीघ्र तुम्हे देवानप्रिया ! जेज करो मति काय ॥ १५. रथ चउघंट सहीत नैं, अश्व जोतरी जाण । रथ सामग्री संकलन करी, सज करिनै तुम आण ।। १४. कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी___खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! १५. चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेह, 'जुत्तामेव' त्ति युक्तमेव रथसामग्रयेति । (वृ०प०३२२) १७. हय-गय-रह-पवर जाव [सं० पा०] सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । (श० ७.१९४) १८. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता । सोरठा १६. जाव शब्द अवदात, पाठ तिके वाचनांतरे । दीसै छै साख्यात, वृत्तिकार इहविध कही। १७. *हय गय रथ यावत सझी, आज्ञा म्हारी एह । पाछी स्पो आणन, कारज सर्व करेह ।। १८. कोट बिक तिण अवसरे, वरुण तणो तिणवार । जाव विनय कर जोड़न, वचन कियो अंगीकार ।। १६. शीघ्र करे सझै रथ भणी, छत्र ध्वजा करि सहीत । जावत स्थापै आणने, प्रवर रथ सुप्रतीत ॥ २०. इहां जाव शब्दे पाठ छै ए, घंट सहित बखाणिय । पताका मोटी ध्वजा, तिण सहित रथ पहिछाणियै ।। २१. वलि प्रवर तोरण तिण करी, जे सहित रथ शोभावियै। रव नंदिघोष सहोत द्वादश, तूर्यध्वनि जन चावियै ।। २२. लघु घंटिका तेणे करी, जे सहित ही सुंदर कियो। वर हेमजाले करी रथ पर्यंत चिहुं दिशि वींटियो ।। १९. खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेंति, २०. यावत्करणादिदं दृश्य-सघंटे सपडागं (वृ० ५० ३२२) २१. सतोरणवरं सणंदिघोसं (वृ० प० ३२२) भंभा मउगमद्दलकडंब रुत्थिरि हुडुक्कू कंसालो। "काहलतिलिमावंसो संखो पणवो य वारसमो""। २२. 'सकिंकिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्तं' सकिङ्किणी केन-क्षुद्रधण्टिकायुक्तेन हेमजालेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्तो यः सः। (वृ० प० ३२२) १. जयाचार्य ने प्रस्तुत ढाल की २१वीं गाथा में बारह प्रकार की वाद्य ध्वनि का संकेत देकर नीचे एक गाथा उद्धृत की है। किन्तु वह किस ग्रन्थ से ली गई है, इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं किया। भगवती के इस शतक की वृत्ति में उसका कोई उल्लेख नहीं है । नौवें शतक की टीका पत्र ४७६ में कुछ वाद्यों का उल्लेख है, पर उनका इस गाथा के साथ पूरा मेल नहीं होता है। बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में बारह प्रकार के वाद्यों का उल्लेख है। किन्तु जयाचार्य द्वारा उल्लिखित गाथा में और उस गाथा में थोड़ा अन्तर है। इसलिए हमने मूल गाथा को 'जोड़' की गाथा के सामने उद्धृत किया है। बृहत्कल्प-वृत्ति में प्राप्त गाथा इस प्रकार हैभंभा मुकुंदमद्दल, कडंबझल्लरिहुडुक्ककंसाला । काहलत लिमासो, पणवो संखो य बारसमो।। (सनियुक्तिभाष्यवृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे पृ० १२) *लय : तपसी में गुण अति घणां लिय : पूज मोटा भांजे टोटा २८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. गिरि हेमवत नां नीपनां, जे चित्र विविध प्रकार नां । कठ तिनिश नामैं तरु तणां ते, कनक खंचित रथ तनां ॥ २४. अति भला जे चक्र जेहन मंडला वृत वाटला । धूरा पिण रमणीक अति शोभायमानज भिलमिला || २५. अय जेह कालायस विशेषज, तिण करी की भलू । नेमी तिका जे चक्रनुं वर, भाग ऊपरलू भिलू ॥ २६. तिण अय करी जे चक्र धारा, बांधवा नीं वर क्रिया । रथ चक नुं जे अम्र भागज, नेमि ते दृढ़ता लियो । २७. बलि जातिवंत वर तुरंगम, जोत ते रथ तणें । नर चतुर अवसर जान सारथि संग्रह्मा संवतपणें ॥ 3 २८. शर घालवा नां भातड़ा, बत्तीस करि मंडित वही । इक एक भातड़ विषे, सौ सौ बाण छै अति प्रवर ही ॥ २६. कवचे क़रीनें वली जेह, वतंस शेखर सहित ही । शिरत्राण शिररक्षा सुकारक, तिण करीने युक्त हो । ३०. फुन धनुष शर करिके सहित हविवार खड्गादिक बणां । डालादि करि संत सुसज्जित सुभट-रच रसियामणां ॥ ३१. पिंट हम रथ जोतरी, ए जाव शब्द विषे कृता । वलि वाचनांतर में सकल साख्यात पाठज दीसता ॥ ३२ * हय गय रथ जावत सभी सेवक पुरुष वरुण नागनतुओ जिहां जाव आज्ञा सूपै , ३३. वरुण नागणतुओ तदा मज्जणघर में आय || स्नान कियो कोणिक नीं पर, जाव प्रायश्चित ताय । सुजाण । आण || ३४. सर्व अलंकारे करो, कियो विभषित अंग सन्नद्ध वद्ध थयो तदा, बगतर टोप सुचंग ॥ सहीत । ३५. कोरंट नामा वृक्ष नां, फूलां री माल एह छत्र धरीजते, पेखत पाम प्रीत ॥ २६. बहू गणपति सामंत ते, जाव दूत संधिपाल । तेह संघाते परिवय, शोभित वरुण विशाल ॥ जिहां बाहिरली पेल दीवानखानो ए देख || ३७. मज्जणपर सू नीकल्यो, उवद्वाणशाला ओपती, *लय : तपसी में गुण अति घणां २३. 'हेमवयचित्ततेणिसकणगनिउत्तदाख्यागं' हैमवतानि - हिमवगिरिजातानि चित्राणि - विचित्राणि तैनिशानि - तिनिशा भिधानवृक्ष सम्बन्धीनि स हिमवतीति तद्ग्रहणं कनकनियुक्तानि नियुक्तकानि दारूणि ( वृ० प० ३२२) संविद्धे चक्रे यत्र मंडला (० ० १२२) कालायसेन यत्र सः । २४. संविद्धचक्क मंडलधुरागं' सुष्ठु च --- वृत्ता धूर्यत्र सः । २५.२६. 'कालायसने मितकम्' लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमे: - चक्रमण्डलमालाया यन्त्रकर्मबन्धन क्रिया यत्र सः । ( वृ० प० ३२२) २७. नवरयसंपत्तं' जात्यप्रधानाश्वः सुष्ठु संप्रयुक्तमित्यर्थः कुशल नरदेवसा रहिसुसंवाहियं ।' (४० प० ३२२) ( वृ० प० ३२२) २. 'सरसयवतीसयतोणपरिमंडियं ।' २६. 'सर्कस' सहय शेखरकं शिरस्त्राणभूतः सः ( वृ० प० ३२२ ) ३०. 'सचावसरपहरणावरणभरियजोह जुद्धसज्जं ' ( वृ० प० ३२२ ) लि वाचनान्तरे तु ( वृ० प० ३२२) ३१. 'बाउट बासरहं जुत्तामेव साक्षादेवेदं दृश्यते । ३२. हय-गय-रह जाव सण्णार्हेति, [सं० पा०] सण्णाहेत्ता जेणेव वरुणे नागनसुएजाय तमापत्तियं पच्चप्पि णंति । (०७१२५) ३३. तए णं से वरुणे नागनत्तुए जेणेव मज्जणघरे तेणेव उपागच्छति जहा कृषिजो जा (सं० पा० ) पायच्छिते । ३४. सब्वालंकारविभूसिए सण्णद्ध बद्धवम्मियकवए ३५. सकोरेंटमल्लदा मेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं, ३६. अणेगगणनायग जाव (सं० पा० ) दूय संधिपालसद्धि संपरिबुडे ३७. मराओ पडिनिक्स मति, परिनिमिता जेणेव बाहिरिया द्वाणसाला, श० ७ ० ६ वाल १२६ २०५ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. चउ- घंट रथ छै जिहां, तिहां आवी नैं तिवार चउ घंट हय रथ ऊपर, चढियो हर्ष अपार ॥ ३६. हय गय रथ जाव परिवर्यो, मोटा सुभट विख्यात । भाट प्रमुख जाव वींटियो, युद्ध करण नैं जात ॥ ४०. जिह्वां रथमूसल संग्राम ६. आयो तिहां अभिग्रह धार्यो एहवो, सांभलज्यो चित ल्याय ॥ चलाय । ४१. रथमूसल संग्राम जे करतो बकांज मोय । प्रथम हणें जे पुरुष नैं, हणवो कल्पै सोय । ४२. अन्य पुरुष ने मारिया, मुझ नहि कताम । एहवो अभिग्रह आदरी, करें रथमूसल संग्राम | ४३. वरुण संग्राम करता छतां इक नर आप सरीस त्वचा करी पण सारियो, सरिखो यय करि दीस ॥ ४४. भंड मत्त उपकरण सारिखा, भंड मत्त - शस्त्र कोशादि । उपकरण कंकट आदि दे, तेह सरीखा लाधि ॥ ४५. ते नर रथ करि वरुण नों, रथ प्रति आयो शीघ्र उतावलो, वरुण ने ४६. अहो वरुण ! नागणसुवा ! मुझ हुन इण विध ते नर वरुण ने, बोल्यो ४७. वरुण नागणत्तुओं तदा ते नर प्रति सांभल हे देवानुप्रिया ! म्हें धार्यो ४८. पहिला मोनें नहिं हर्णे, तेहनें हणवो मुझनें तो कल्पै नहीं, पहिला हण तू साहमो तेह। एम पदेह | शस्त्रे मार | दूजी वार ॥ कहै १. कवच २०६ भगवती जो एम । नेम ॥ ४६. तिण अवसर ते पुरुष हो, वरुण नागनत्तुयेह | एम को आसुरुत ही, जाव मिसिमिसेमाणेह ॥ सोय । मोय | सोरठा ५०. आसुरुते जाण, शीघ्र कोप नां उदय थी । ययो विमूढ अयाण स्फुरित कोष चिह्नोऽथवा ।। ५१. जाव शब्द में एह, रुट्ठे कुविए चंडिक्किए । रुट्ठे रुष्ट कहेह, उदय थयो छे क्रोध तसुं ॥ ३८. जेणेव चाउ घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्धंट आसरहं दुरुहइ । ३६. हय-गय-रह जाव (सं० पा० ) संपरिवुडे, महयाभड - चडगर विदपरिक्सित्ते । ४०. जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागछत्ता रहस संग्राम ओवाए (स०७१२६) तर से वरुणे नागनत्तए रहमुसलं संगामं भोपाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेन्हइ ४१. कप्पति मे रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स जे पुब्वि पहाड़ से पडिसिए ४२. अवसेसे नो कप्पतीति; अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेव्ह, अभिनेता रहस संगामं संग्रामेति । (०७११९७ ) ४३. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगामं हंगामेमाणरस एगे पुरिने सरिसए सरितए सरिम्बए ४४. सरिसभंडतोयगरणे सदृशी भाण्डमानाप्रहरणकोशादिया उपकर च -- कङ्कटादिकं यस्य सः । ४५. रहेणं पडिरहं हव्वमा गए । तएण से पुरिसे वरुणं नागनत्तुयं ४६. पहण भो वरुणा ! नागनत्तुया ! नागया! ४७,४८ एणं सेव ( वृ० प० ३२२ ) (श० ७ १६८) एवं वदासी पहण भो वरुणा ! ( श० ७ १६६ ) नागनत्तृए तं पुरिसं एवं वदासी नो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया ! पुव्वि अस्स पहणित्तए, तुमं चेव णं पुव्वि पहणाहि । ( ० ७२००) ४९. तसे पुरसे व नागनतुए बासुरते जाव मिसिमिसेमाणे एवं कुत्ते समाने (सं० पा० ) । ५०. 'गुरु' ति आशी रुप्तः कोपोदवाद विशुषः, स्फुरितको लिङ्गो वा । (० ० ३२२) ५१. यावत्करणादिदं दृश्यं 'रुट्ठे कुविए चंडिक्किए' त्ति तत्र ' रुष्टः ' उदितक्रोधः । ( वृ० प० ३२२ ) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. कुविए कुपित अत्यंत, बढतो क्रोधोदय तसु । चंडिक्किय फुन मंत, रोद्र रूप है प्रगट ही ॥ ५३. वली मिसिमिसेमाण, क्रोध रूप अग्नी करी। दीप्यमान जिम जाण, रक्त वर्ण मुख जेहनुं ॥ ५४. वलि ए शब्दज पंच कला इहाँ एकाथिका । अतिहि कोप विरंच, ते प्रतिपादन अर्थ ही || ५५. * धनुष ग्रहै निज हाथ में, धनुष्य लेई ताम । उस बाण प्रते ग्रहै, बाण ग्रही ने आम ॥ ५६. 'ठाणं ठा' नुं अर्थ ए, ठाणं पदन्यास विशेख । ठाइ कहितां करै तिहां, पदन्यास करीनें देख | ५७. आयत सामान्य थी ताणियो, तेहिज कर्ण लग ताण । एहवो बाण करी तदा एम करीने जाण ॥ 1 गाढ प्रहार | ५८. वरुण नागणसुया प्रतं कीधो कीधे छते, आसुरुत्ते धार ॥ शस्त्र घात यतनो ५६. जाव मिसिमिसेमान, ग्रहे धनथ्य प्रति जान । बलि लीधो है हाथ में बाण, कर्म लगे वाण ने ताण ।। ६०. तेह पुरुष प्रतै तिणवार, गाढो दीघो एक प्रहार । तिण सूं विलंब रहित जिवार, जीव काया होय गया न्यार ॥ ६१. जिम परवत नों कूट जाण, तिको पड़तो थको पहिछाण । काल विलंब करै नहिं जेह, तिम विलंब रहित मार्यो तेह || तदा, ६२. * वरुण नागणतओ लागां गाढ प्रहार | अत्थामे शक्ति-रहित थयो, सामान्य थी सुविचार || ६३. बल रहित ते शरीर नीं शक्ति रहित भयो ताम । वीर्य रहित ते मन तणी शक्ति घटी तिण ठाम ॥ ६४. पुरुषकार ते रह्यो नहि, पौरुष पुरुषाभिमान । कार्य forनकारी तिको, पराक्रम घट्यो जान || * लय: तपसी में गुण अति घणां ५२. 'कुपित:' प्रवृद्धकोपोदयः 'चाण्डिकित:' सञ्जातचण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः । ( वृ० प० ३२२ ) ५३. 'मिसिमिसीमाणे' त्ति क्रोधाग्निना दीप्यमान इव । ( वृ० प० ३२२ ) ५४. एकाथिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः । ( वृ० प० ३२२, ३२३ ) ५५. धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ५६. ठाणं ठाति 'ठाणं' ति पादन्यासविशेषलक्षणं 'ठाति' त्ति करोति । ( वृ० प० ३२३ ) ५७. आययकण्णाययं उसुं करेइ, करेत्ता 'आयय...' ति आयतः आकृष्टः सामान्येन स एव कर्णायतः कर्णमाकृष्ट आयतयतस्तम्, ( वृ० प० ३२३) २८. वरुण नाग वाढप्पहारी करे (०७/२०१) तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुते ५९. जाव मिसिमिसेमाणे (सं० पा० ) पशुं परामुसह परामुखित्ता उसुं परामुसद्द, परागुसित्ता आययाययं उसुं करेइ, करेता ६० तं पुरिस एमाचं कुडावं जीवियाओ वववेद। (श० ७२०२) ६१. कूटे व तथाविधपापागसंपुटादी कालविलम्बाभाव साम्यदात्या आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् । (४० १० १२३) ६२. तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे 'अस्थामा' सामान्यतः शक्ति विकलः । (४० १०३२३) ६३. अबले अवीरिए 'अयले' ति शरीरशक्तिवजित 'अपीरिए' ति मान सशक्तिवर्जितः । ( ० १० २२२ ) ६४. अपुरिसक्कारपरक्कमे पुरुषक्रिया पुरुषकारः - पुरुषाभिमानः स एव निष्पादित स्वप्रयोजनः पराक्रमः । ( वृ० प० ३२३) श० ७ ० ६ डा० १२६ २५७ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. अधारणिज्जमिति कटु तुरए निगिण्हइ, ६६. रहं परावत्तेइ, परावत्तेत्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमति । ६७. एगंतमंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हइ । ६५. निज आतम नै धारिवा, समर्थ पिण नहिं कोय । एहवो विचार तुरंग नै, चालता नैं ग्रहै सोय ॥ ६६. युद्ध थकी ते रथ प्रतै, ततखिण पाछो वाल । रथमसल संग्राम थी, नीकलियो तिण काल ।। ६७. एकांत मनुष्य-रहित जे, अंत कहितां भूमिभाग । तिहां जईनै हय प्रतै, चालता नी ग्रहै वाग ।। ६८. रथ थापी हेठो ऊतरी, मकै ताम तुरंग । सीख दीधी घोड़ा भणी, अधिक वेराग उमंग ।। ६६. दर्भ-संथारो संथरी, ऊपर बैठो आप । पूरव साहमो मुख करी, पल्यंक आसन स्थाप ।। ७०. कर तल जावत इम करी, तिहां बोले इह विध वाय । नमोत्थूणं कियो सिद्ध नै, धुर अरिहंत गण पाय ।। ताम तरंग। घोड़ा भणी, ६६. दर्भ ६८. रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता तुरए ____मोएइ, मोएत्ता तुरए विसज्जेइ । ६८. दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसणे ७०. करयल जाव कटु (सं० पा०) एवं वयासी नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगति नामधेयं ठाणं संपत्ताणं, ७१. नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदि गरस्स ७२. नाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मारियस्स धम्मोवदेसगस्स, ७३. वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, ७१. नमस्कार थावो मांहरो, भगवंत श्री महावीर । धर्म नी आदि करण धुरा, शासणनाथ सधीर ।। ७२. यावत मुक्ति जावा तणां, वांछक तमु अभिलाख । धर्म-आचारज मांहरा धर्मोपदेशक साख ॥ ७३. समवसरण में विषे रह्या, भगवंत श्री महावीर । ते प्रति हूं वांदूं अछ, इहां रह्योज सधीर ॥ ७४. देख रह्या मुझनै प्रभु, तिहां रह्या थका स्वाम । यावत वांदै इम कही, नमस्कार शिर नाम । ७५. नमस्कार वंदणा करी, बोलै इह विध संच । पहिला म्है वीर प्रभ कन्है, अणुव्रत धाऱ्या पंच ।। ७६. हिवड़ा पिण महावीर पे, सर्वथा प्राणातिपात । जावजीव पचखाण छै, खंधक जिम आख्यात ॥ ७४. पासउ मे से भगवं तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमंसइ, ७५. वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पुबि पि णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, एवं जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए ७६. इयाणि पि णं अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए एवं जहा खंदओ ७७. जाव (सं० पा०) एयं पि णं चरिमेहिं ऊसास नीसासेहि वोसिरिस्सामि त्ति कटु सण्णाहपट्ट मुयइ, ७८. सल्लुबरणं करेइ, करेत्ता आलोइय-पडिक्कते समा हिपत्ते आणुपुब्बीए कालगए। (श०७।२०३) ७६. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे पियबाल वयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे ८०. एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे जाव (सं० पा०) अधारणिज्जमिति कटु ७७. यावत एह शरीर नै, छहले उस्सास-निसास । वोसिरावस्यूं इम कही, मूकै सन्नाह पट्ट तास ॥ ७८. द्रव्य भाव सल्ल उद्धरी, आलोई पडिकमी न्हाल । पवर समाधिज पामियो, अन क्रम कीधो काल । ७६. तिण अवसर ते वरुण नों, वल्लभ इक अभिराम । बाल-मित्र पिण जूझतो, रथमूसल संग्राम । ८०. एक पुरुष वरुण-मित्र नै, दीधो गाढ प्रहार । जावत आतम धारिवा, समर्थ नहीं तिवार ।। २८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. वरुण भणी संग्राम थी, पाछो निकलतो देख । वरुण तणी पर अश्व नैं, सीख दीधी सुविशेख ।। ८१. वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्ख ममाणं पासइ, पासित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसज्जेति । ६२. पडसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे ५२. वरुण कियो दर्भ-सांथरो, तेहवो इण पिण कीध । ते ऊपर बेसी करी, पूरव साहमो प्रसीध । ८३. यावत बे कर जोड़ने, बोलै एहवी वाय । मझ वल्लभ बाल-मित्र नै, वरुण तणे जे ताय ॥ ५४. शीलव्रत गणव्रत जे, सामायक पचखाण । पोसह उपवास छै तिके, ते म्हारै पिण जाण ॥ ८५. इम कहि सन्नाहपट्ट नै, मूकै छोडै न्हाल । सल्य बाणादिक काढन, अनुक्रम कीधो काल ॥ ८३. जाव (सं० पा०) अंजलि कटु एवं वयासी-जाइ णं भंते ! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स ८४. सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई पच्चक्खाण-पोसहो ववासाई ताई णं 'ममं पि' भवंतु। २५. इति कटु सण्णाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेइ, करेत्ता आणुपुव्वीए कालगए । (श० ७२०४) ८६,८७. तए णं तं वरुणं नागनत्तयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे वुठे, दसवण्णे कुसुमे निवातिए, ८६. काल गयो जाणी वरुण नै, व्यंतर देव नजीक । जेह हुंता ते तिण समैं, महिमा कीधी सधीक ॥ ८७. वृष्टि सुगंध उदक तणी, पंच वर्ण पहिछाण । फूल तणी वर्षा करी, ऊजम अधिको आण ॥ ८८. वलि ते देव संबंधिया, गीत गायन मात्र संवाद । गंधर्व ते मादल तणी, ध्वनि सहित करै निनाद । ८९. तिण अवसर ते वरुण नै, प्रधान देव नी ऋद्धि । दिव्य देव नी कांति नै, सुर अनुभाग समृद्धि । ६०. सुर कृत महिमा ने कही, सुर अनुभाग प्रधान । ते निसुणी देखी वदै, लोक माहोमांहि वान । ६१. इम निश्चै देवान प्रिया ! नर बह जूझे ताम । ते सुरलोके ऊपजे, देव हुवै अभिराम ॥ ५८. दिब्वे य गीय-गंधब्वनिनादे कए यावि होत्था । (श०७।२०५) गीतं गानमात्र गन्धर्व-तदेव मुरजादिध्वनिसनाथं तल्लक्षणो निनाद:-शब्दो गीतगन्धर्वनिनादः । (वृ० ५० ३२३) ८६,६०. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवज्जुति दिव्वं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ६१. एवं खलु देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव (सं० पा०) देवलोएसु देवताए उववत्तारो भवंति । (श० ७२०६) ६२. वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे"उववन्ने । ६३. तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। (श० ७।२०७) १४. से णं भंते ! बरुणे देवे ताओ देवलोगाओ ........ चयं चइत्ता .... कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव (सं० पा०) अंतं करेहिति । (श०७।२०८) ६२. वरुण प्रभजी! किहां गयो ? काल मास करि काल । जिन कहै सुधर्म सुरपणे, ऊपनो ते सुविशाल ॥ ६३. अरुणाभ नाम विमान में, केइयक सुर नी सार । च्यार पल्योपम स्थिति कही, वरुण तणी पल्य च्यार ॥ ६४. वरुण देव चवनें किहां उपजस्यै जिन कहै महाविदेह में, करस्य सर्व भगवंत ! दुख अंत ॥ श०७,उ०६, ढा०१२६ २८९ Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. बाल मित्र प्रभु ! वरुण नों, किहां गयो करि काल ? जिन कहै उत्तम कुल विषे, मनुष्य थयो सुविशाल । ६६. ते प्रभु ! तिहां थी नीकली, अंतर-रहित विचार । किहां जास्य किण स्थानके, उपजस्यै जगतार ? ६७. जिन कहै महाविदेह में, सीझस्यै करि चित शंत । जाव करस्यै अंत दुख तणो, सेवं भंते ! सेवं भंत ॥ १८. अर्थ अंक गण्यासी तणो, इकसौ छबीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल । सप्तमशते नवमोद्देशकार्थः ॥७।६।। ६५. वरुणस्स णं भंते ! नागनत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं विच्चा कहिं गए ? कहि उववन्ने ? गोयमा ! सुकुले पच्चायाते । (श० ७।२०६) ६६. से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उब्वट्टित्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? ६७. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति । (श० ७२१०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ७।२११) ढाल : १२७ १. नवम उदेशक नै विषे, परमत निरास पेख । दशमें पिण तेहिज हिवै, वरणवियै सुविशेख । २. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह नाम । गणशिल चैत्यज जाव त्यां, पृथ्वी सिलपट्ट ताम ।। १. अनन्तरोद्देशके परमतनिरास उक्तो दशमेऽपि स एवोच्यते (वृ० १० ३२३) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था-वण्णओ। गुणसिलए चेइए-वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। ३. तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवति, तं जहा४. कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, ३. तिण गणसिल वर चैत्य थी, नहिं अति दूर नजीक । बस बहू अन्यतीथिका, हिव तसु नाम कथीक । ४. कालोदाई धुर कह्यो, सेलोदाई सोय । सेवालोदाई सही, उदक नाम अवलोय ॥ ५. नामदक नमुदक वली, अर्णपाल अन्नयुत्थ । सेलपाल संखपाल फुन, गाथापती सुहत्थ ।। ६. *एक दिवस अन्यतीर्थी ताय, सहिय कहितां एकत्र मिलाय । समुपागत जूजुवा स्थान थी आय, सन्निविट्ठ कहितां बैठा छै ताय॥ ५. नामुदए, नम्मुदए, अण्णवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थीगाहावई। (श०७।२१२) ६. तए णं तेसि अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिविट्ठाणं 'समुवागयाणं' ति स्थानान्तरेभ्य एकत्र स्थाने समागतानाम् 'सन्निविट्ठाण त्ति' उपविष्टानाम्, (वृ० प० २२४) ७. सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था'सन्निसन्नाणं' ति संगततया निषण्णानां सुखासीनानामिति यावत् । (वृ० ५० ३२४) ७. सन्निषण्ण ते सुखे स्थित जेह, तेह सह ने परस्पर एह । उपनो कथा तणो आलाप, निसुणो चित एकत्रित स्थाप ।। * लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी २६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. श्रमण ज्ञातसुत इह विध संच, अस्तिकाय परूपै पंच । प्रथम कहै धर्मास्तिकाय, जाव आगासत्थिकाय' कहाय ।। ८. एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मस्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकार्य। ६. 'अत्थिकाए' त्ति प्रदेशराशीन् । (वृ० ५० ३२४) सोरठा ६. अस्ति तेह प्रदेश, तास राशि जे काय प्रति । अस्तिकाय कहेस, शब्द तणू ए अर्थ है। *ज्ञातपुत्र वली कहै वाय, च्यार अजीव हुवै ते मांय । धर्मास्ति अधर्मास्तिकाय, आगासत्थि पुद्गलास्ति ताय । सोरठा ११. एह अजीव विमास, तेह अचेतन जाणवा । काय कही तसु राश, अजीवकाय अहीजिये। १०. तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीव काए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासस्थिकायं, पोग्गलत्थिकायं । १२. *श्रमण ज्ञातसुत वलि कहै वाय, पांचा में एक जीवास्तिकाय। अरूपीकाय परूप जोग, छै ज्ञानादिक तसु उपयोग ।। वा०-जीव ते जीव, ज्ञानादि उपयोगवंत । ते प्रधान काय ते जीवकाय ।' कोइक जीवास्तिकाय नै जड़पण करी अंगीकार करै । तेहनों मत दूर करवा नै अर्थे ए जीव नै ज्ञानादि उपयोगवंत कह्यो। १३. श्रमण ज्ञातसुत वलि कहै वाय, अस्तिकाय पंच रै माय । च्यार अरूपी अस्तिकाय, करै परूपण परिषद मांय ।। १४. धर धर्मास्तिकाय पिछाण, अधर्मास्ति दूजी जाण । आकाशास्ति जीवास्तिकाय, तास अरूपी आखै वाय ॥ १५. ज्ञातपुत्र वलि इम कहै वाय, अस्तिकाय पंच रै माय । पोग्गलत्थिकाय एक अजीव, रूपीकाय परूप अतीव ।। १६. से अथ किम ए अस्तिकाय, मन्ये वितर्क अर्थे वाय । आख्या एह अचेतन आद, विभाग करि किम हवै संवाद। ११. 'अजीवकाए' त्ति अजीवाश्च ते अचेतना: कायाश्च-राशयोऽजीवकायास्तान् ।। (वृ०प०३२४) १२. एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पण्णवेति । वा०-जीवनं जीवो-ज्ञानाद्युपयोगस्तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तं, कैश्चिज्जीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यतेऽतस्तन्मतव्युदासायेदमुक्तमिति । (वृ०प० ३२५) १३. तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए पण्णवेति, तं जहा१४. धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं । १५. एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकार्य रूविकायं अजीवकायं पण्णवेति । १६. से कहमेयं मण्णे एवं? (श० ७।२१३) अथ कथमेतदस्तिकायवस्तु मन्य इति वितर्कार्थः 'एवम्' अमुना चेतनादिविभागेन भवतीति । (प० ३२५) * लय : इण पुर बल कंकोय न लेसी भगवती के सातवें शतक (सू० २१३) में पांच अस्तिकाय का निरूपण है। वहां 'धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए' पाठ है । और उसके पाठांतर में पोग्गलत्थिकाए के स्थान पर छह प्रतियों में आगासत्थिकायं पाठ है। जयाचार्य को प्राप्त प्रति में पाठान्तर वाला पाठ रहा होगा, इसलिए उन्होंने इस गीत की आठवीं गाथा में 'जोड़' की रचना उसी क्रम से की है। इससे आगे उनतीसवीं गाथा में भी जोड़ का यही क्रम है । इन दोनों ही गाथाओं के सामने अंगसुत्ताणि (भाग-२) का पाठ उद्धृत किया गया है। इसलिए आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के क्रम का व्यत्यय है। श०७, उ० १०, ढा० १२७ २६१ Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. ति काले तिण समय विचार, जाव पधाया गुणसिल जाण १८. तिथ काले तिण समय विचार, भगवंत वीर तणो गणधार । अंतेवासी ज्येष्ठ उदार, इन्द्रभूति नामे अणगार ॥ १६. गोतम गोत्रे बीजो नाम, इम जिम बीजे शतके ताम । प्रवर निर्भय उदेशो पेख, पंचमुदेश विषे गुण देख ॥ २०. जाव भिक्षाचरी अटन करता, भातपाणी संपूर्ण लहंता । राजगृह नगर की नीकलिया जाय उतावल रहित संचारिया | भगवन श्री महावीर उदार । यावत परिषद गई ठिकाण ॥ २१. मन नां चपलपणां थी रहीतं, असंभ्रांत जावत सुध रीतं । ईर्ष्या शोधनकर्ता आप, स्थिर चित तन मन जयणा स्थान ॥ २२. अन्यतीर्थी बैठा खे तेह नहि अति दूर नजीक न जेह गोतम गमन करता देख, आपस में बतलावे विशेख | २३. अहो देवानुप्रिया ! अम्हे एह अस्तिकाय नौ कथा सुजेह । अनुकूल भावे कीधी तेह, प्रगट नहीं छं विशेषपणेह ॥ २४. ए अर्थ अविपकडा नां दोय, अविउप्पकडा पाठांतर होय । कथा विशेष अजाणपणेह, आपे पूर्वे कीधी एह ॥ २५. अथवा विशेष थकी पहिछाण, प्रबलपण करिनै वलि जाण । एह अर्थ नहि प्रगट सुजोय, पाठांतर नो अर्थ ए दोय ॥ २६. आपां सूं दूर नजीक न जेह, गोतम गमन करं छं एह । श्रेय देवानुप्रिया ! ए अम्हनें, पूछवू एह अर्थ गोयम नें ॥ २७. आपस में इम कही तिवार, कीधो एह अर्थ अंगीकार । गोतम भगवंत पासे आय, गोतम प्रति बोल्या इम वाय ॥ २८. इम निश्च गोतम ! अवलोय, पारा धर्माचारज जोय । धर्म त उपदेशक ताय, भ्रमण ज्ञातस्त इम कहिवाय ॥ २६. अस्तिकाय परूपै पंच, धुर धर्मास्तिकाय विरंच । आगासत्थिकाय तं चेव, यावत रूपी काय कहेव ॥ जाव २६२ भगवती जोड़ १७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे जाव परिसा पडिगया । (० ७२१४) १८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे वासी इंदई नाम अगगारे ११. गोमे गोते एवं जहा वितियसले नियंसए ( अंगसु० भाग २ पृ० ३१० पा० टि० २) २०. जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्त-पाणं पडिग्गाहित्ता रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमइ, अतुरियं २१. असं गंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरवो रियं सोहेमाणे सोहेमाणे २२. तेसि अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीईवयति । (४० ७२१५) तएषं ते बण्णउरिया भगवं गोयमं अदूरसामंते वोयमाणं पासंति, पासिता अग्गमणं सदावेंति सहावेता एवं बवासी २३. एवं खलु देवाचिया ! अम्हं दमा कहा अविष्यका इयं कथा - एषाऽस्तिकायवक्तव्यताऽप्यानुकूल्येन प्रकृता -- प्रक्रान्ता, अथवा न विशेषेण प्रकटा अविप्रकटा । (०१० ३२५) २४. 'अविउप्पकड' त्ति पाठान्तरं तत्र अविद्वत्प्रकृताः ( वृ० प० ३२५) २५. अथवा न विशेषत उत्- प्राबल्यतश्च प्रकटा अप्यु(ब्र० १० १२५ ) २६. अयं च णं गोयमे अम्हं अदूरसामंतेणं वीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं गोयमं एयमट्ठ पुच्छराए - त्प्रकटा । २७. इति कट्टु अण्णमणस्स अंतिए एवम पडिसुगंति, परिणिता जेणेव भगवं मोयमे तेणेव उपागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी २८. एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे नायपुत् २६. पंच अत्थिकाए पण्णवेति तं जहा - धम्मत्थिकार्य जाव पोग्गलत्थिकायं । तं चैव जाव रूविकार्य अजीवकार्य पण्णवेति । 1 १. यहां श० २।१०६ का उल्लेख किया गया है । अंगसुत्ताणि भाग २ में इस संदर्भ का पाठ अधूरा है । वहां शतक ११६ की भोलावण दी गई है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. हे गोतम ! ते किम छ एह ? तब बोल्या गोतम गुणगेह। ३०,३१. से कहमेयं गोयमा ! एवं? (श० ७।२१६) अहो देवान प्रिया ! सुण वाणी, इम निश्चै करि नैं पहिछाणी॥ तए णं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं ३१. छता भाव प्रत म्है जोय, अछता भाव कहां नहि कोय । वयासी-नो खलु वयं देवाणुप्पिया ! अस्थिभावं अछता भाव प्रतै पहिछाण, छता भाव नहि भाखां जाण ॥ नत्थि त्ति बदामो, नत्थिभावं अस्थि त्ति बदामो । ३२. अहो देवान प्रिया ! सुविमास, सगला छता भाव छै तास । ३२. अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अत्थिभावं अस्थि त्ति छता भावपण म्है भाखां, अछता भाव नै अछता आखां ॥ वदामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थि त्ति वदामो। ३३. अहो देवान प्रिया! तुम्ह जाणो, चेयसा-मन कर एह पिछाणो। ३३. तं चेयसा खलु तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयमह्र सयमेव तेह अर्थ स्वयमेव विचारो, तुम्हैज एह अर्थ अवधारो॥ पच्चुवेक्खह त्ति कटु ते अण्णउत्थिए एवं वदासी सोरठा ३४. पाठांतरे कहेह, वेअसा–ज्ञान प्रमाण कर। ३४. 'वेदस' त्ति पाठान्तरे ज्ञानेन प्रमाणाबाधितत्वलक्षणेन अबाधित लक्षणेह, स्वयं विचारो ए तुमे ॥ (वृ० प० ३२५) ३५. *इम कही गोतम चाल्या धीर, आव्या गुणशिल जिहां छै वीर । ३५. वदित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं __ जिम निग्रंथ उदेशे पिछाणी, जाव दिखाड़े भात नैं पाणी॥ महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव (एवं जहा नियंठुद्देसए जाव भ० २।११०) भत्त-पाणं पडिदंसेति । ३६. वीर प्रतै वांदे नमस्कार, नहि अति दूर नजोक तिवार। ३६. समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमजाव करै पर्युपासना सेव, अलगो करि नै निज अहमेव । सित्ता नच्चासण्णे जाव पज्जुवासति ।। (श० ७।२१७) ३७. तिण काले तिण समय विचार, भगवंत श्री महावीर तिवार। ३७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महाकथा महाजन नैं ताम, देशना देई प्रवर्त्या स्वाम॥ महाकहापडिवण्णे या वि होत्था । ३८. तिण अवसर ते कालोदाई, तेह भूमिका देश कहाई। ३८. कालोदाई य तं देसं हव्वमागए। शीघ्रपणे आव्यो छ ताम, बतलावै तसु त्रिभवन-स्वाम ॥ ३६. अहो कालोदाई ! इम बोले, वीर प्रभू वच अमृत तोल। ३६. कालोदाईति ! समणे भगवं महावीरे कालोदाइं एवं इम निश्चै हे कालोदाई ! मिलिया तुम्हे एकदा आई॥ वयासी-से नूर्ण भे कालोदाई ! अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं ४०. अन्य स्थानक थी बैठा इक स्थान, तिमहिज पूरव बात पिछान । ४०. समुवागयाणं सण्णिविट्ठाणं ""तहेव जाव से कहमेयं यावत किम ए बात मनाय, इम ते बोल्या माहोमांय॥ मण्णे एवं ? ४१. इम निश्च हे कालोदाई ! एह अर्थ समर्थ छै ताहि? ४१. से नूणं कालोदाई ! अत्थे समत्थे ? हंता अत्थि बोले जाची, वीर प्रभू कहै सगली साची॥ हंता अत्थि । ४२. हे कालोदाई ! शुभ संच, अस्तिकाय परूपू पंच। ४२. तं सच्चे णं एसमठे कालोदाई ! अहं पंचत्थिकायं __ धर्मास्तिकाय कहूं धुर ताय, यावत पुद्गल अस्तिकाय ॥ पण्णवेमि, तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थि कायं । ४३. अस्तिकाय तिहां हूँ च्यार, अजीवकाय परूपू धार । ४३. तत्थ णं अहं चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए यावत पुद्गलास्तिकाय, रूपीकाय कह इक ताय ॥ पण्णवेमि तहेव जाव (सं० पा०) एगं च णं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकायं पण्णवेमि । (श० ७।२१८) *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी श०७,७०१०, ढा० १२७ २९३ Jain Education Intemational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. तिण अवसर ते कालोदाई, वीर प्रते बोल्यो हित ल्याई। ४४. तए णं से कालोदाई समणं भगवं महावीरं एवं धर्मास्तिकाय विषे भगवान, अधर्मास्तिकाय विषे पहिछान ॥ वदासी एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकायंसि, अधम्मत्थिकायंसि, ४५. आकाशास्तिकाय विषे सुअतीव, एह अरूपीकाय अजीव । ४५. आगासत्थिक यंसि, अरूविकायंसि अजीवकायंसि तेह विषे प्रभजी ! अवलोय, बेसण सूवण समर्थ कोय? चक्किया केइ आसइत्तए वा ? सइत्तए वा ? ४६. अथवा ऊभो रहिवा देख, वलि विशेष वेसवो पेख । ४६. चिट्ठइत्तए वा ? निसीइत्तए वा ? तुयट्टित्तए वा ? तुयद्वित्तए वा निद्रा करिवा, समर्थ छै कोई अनसरिवा? ४७. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांय, हे कालोदाई ! सुण वाय । ४७. णो तिणठे समलै । कालोदाई ! एगंसि णं पुदगल अस्तिकायज रूपी, अजीवकाय विषे तद्रूपी । पोग्गलस्थिकायंसि रूविकायंसि अजीवकायंसि ४८. बेसण नै समर्थ छै सोय, जावत निद्रा लेवा जोय । ४८. चक्किया केइ आसइत्तए वा, सइत्तए वा, चिट्ठइत्तए इह विध भगवंत उत्तर दीधो, कालोदाई प्रश्न हिव सीधो॥ वा, निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा। (श० ७।२१६) ४६. हे प्रभ ! पुद्गल अस्तिकाय, रूपी अजीवकाय विषे ताय । ४६. एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि रूविकायंसि जीव नां पाप कर्म छ तेह, अशुभ विपाक संयुक्त करेह ॥ अजीवकायंसि जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवाग संजुत्ता कज्जति ? ५०. जिन कहै अर्थ समर्थ नहिं एह, जीव संबंधी पाप छ जेह । ५०. णो तिणटठे समठे। पुदगल विषे कदे नहिं होय, तेह अचेतनपण सुजोय ॥ जोवसम्बन्धीनि पापकर्माण्यऽशुभस्वरूपफललक्षण विपाकदायीनि पुद्गलास्तिकाये न भवन्ति, 'अचेतन त्वेनानुभववजितत्वात्तस्य । (वृ० ५० ३२५) ५१. कालोदाई ! ए जीवास्तिकाय, अरूपीकाय विषे इज ताय । ५१. कालोदाई! एयंसि णं जीवत्थिकासि अरूविकाजीवां रै पाप कर्म बंधेह, अघ फल विपाक युक्त करेह ॥ यंसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागस जुत्ता वा०-इहा कालोदाई पूछ्यो-पुद्गलास्तिकाय रूप काय-अजोवकाय नै विषे कज्जति । जीवसंबंधी पाप कर्म पाप फल विपाक संयुक्त करै ? एतले पुद्गलास्तिकाय नै विषे जीव बेस, सूऔ जाव निद्रा लेवे तिवारे जीवां रे बंध्या पाप कर्म तिके पाप फल संयुक्त पुद्गलास्तिकाय नै हुवै ? जीवां रै बंध्या तिके कर्म पुद्गल रै चहट-पाप फल संयुक्त पुद्गल हुवै । जद भगवंत कहै-'णो इणठे समठे' ए अर्थ समर्थ नहीं। जीव पुद्गल ऊपर बैठां सूतां जीवां रै पाप कर्म बंध्या तेहनां अशुभ फल संयुक्त पुद्गल हुवै नहीं। इहा ए भावार्थ-जीव संबंधी पाप कर्म अशुभ स्वरूप फल लक्षण विपाकदायक पुद्गलास्तिकाय नै विषे न हुवै अचेतनपण करी अनुभव वजितपणां थकी तेहनै । जीवास्तिकाय नै विषेज पाप कर्म नो विपाक संयुक्त हुवै अनुभवयुक्तपणां थी जीव नैं । ५२ इहां कालोदाई प्रतिबुझ्यो, ततखिण तिणनै संवलो सूझ्यो। ५२. एत्थ णं से कालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीर वीर प्रत वंदी तिण वार, नमण करी कहै वचन विचार ॥ बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी५३. हे प्रभु ! हूं वांछू तुझ पास, परम धरम सुणवो सुखरास। ५३. इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतियं धर्म निसामेत्तए । इम जिम खंधक दीक्षा लोधो, तिमहिज कालोदाइ प्रसीधी॥ एवं जहा खंदए तहेव पब्वइए, * लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. तिमहिज अंग इग्यारै सार, यावत विचरंतो गणधार। ५४. तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ जाव विचित्तेहिं चरण करण सीख्यो अणगार, तीन गप्त तसु अधिक उदार ॥ तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० ७।२२०) ५५. राजगह गणशिल थी तिणवार, अन्यदा भगवंत कियो विहार। ५५. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ राय बाहिर जनपद प्रभ विचरंता, जग-तारक जिनवर जयवंता॥ गिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्ख५६. देश सप्तम शत दशमो न्हाल, इकसौ सत्त वीसमी ढाल । मति, पडि निक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं भिक्ख भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, 'जय-जश' सुख संपति अहलाद। विहरइ । (श ७।२२१) ढाल : १२८ १. तेणं कालेण तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे गुण सिलए चेइए। २. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ जाव समोसड़े, ३. परिसा जाव पडिगया । (श० ७२२२) १. तिण काले में तिण समय, नगर राजगृह नाम । गणसिल नामे वाग थो, ईशाणकूणे ताम ।। २. तिण काले ने तिण समय, भगवंत श्री महावीर । . कदा अन्यदा जाव प्रभ, समवसरया गणहीर ।। ३. परिषद वंदन परवरी, वीर तणी सुण वान । नमस्कार वंदन करी, पोहती अपणे स्थान ॥ *कालोदाई इम वीनवै रे। (ध्र पदं) ४. मुनिवर रे, एक दिवस तिण अवसरे रे, ___कालोदाई मुनिराय हो लाल । वीर प्रत वांदी करि रे, नमण करी कहै वाय हो लाल ।। ५. हे प्रभ ! छै जोवां तणे, पाप कर्म नो बंध । अघ फल विपाकयुक्त छै? जिन कहै हंता संध ।। ६. हे प्रभ ! किम जीवां तणे, पाप कर्म उपजत । विपाक फल जे पाप नों, तेह युक्त किम हुँत ? ७. श्री जिन भाखै सांभलै, कालोदाई ! संत ! दे दृष्टांत कहूं अछं, जिन-वच महाजयवंत ॥ ८. कोई एक पुरुषे कियो, अधिक मनोहर पेख । थाली-पाक सुहामणो, मनगमतो सुविशेख ॥ ६. अन्य भाजन में पचावियां, नहिं तथाविध थाय । तिण कारण करिने इहां, थाली-पाक कहाय ।। १०. भक्त दोष वजित तिको, शुद्ध कह्यो इण न्याय । अष्टादश व्यंजन करी, संकुल संकीर्ण कहाय ।। *लय : हेम ऋषी भजिये सदा रे ४. तए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी५. अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग संजुत्ता कज्जंति ? हंता अस्थि । (श०७।२२३) ६. कहण्णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग संजुत्ता कज्जति ? ७,८. कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं ६. अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वा न तथाविधं स्यादितीदं विशेषणं । (वृ० ५० ३२६) १०. अट्ठारसवंजणाकुलं शुद्ध-भक्तदोषवजित । (वृ० प० ३२६) श०७,उ०१०, ढा० १२७,१२८ २९५ Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. दाल उदन जव-अन्न फुन, जलचर थलचर मंस । वली मंस खहचर तणु, गोरस सखर प्रशंस ।। १२. जूष मांडिया कह्य, मूग तंदूल तणूज । वलि जीरा मिरचादि न, रस नैं जूष काज ।। १३. भक्ष खंड खाजा प्रमुख, गलपापड़ी प्रसिद्ध । अथवा गलधाणी प्रत, गुललावणी कहिद्ध ।। १४. वली मूल फल एक पद, हरित कह्यो जीरादि । डाको ते बथुवा प्रमुख, भाजी तास संवादि ।। इक १५. वली रसाल चवदमों, बे पल प्रमाण घृत्त । इक पल प्रमाण मधु कह्यो, अढिक दहि मत्त॥ १६. मिरच वीस पल ह वलि, दश पल गुल अरु खंड । नृपति जोग ए तसु कह्य, प्रवर रसालू मंड ॥ १७. सुरा पान नैं जल वलि, पाणी फुन द्राक्षादि । शाक तक्र स्थनीपनों, व्यंजन अठ दश वादि । ११, १२. सूओदणो जवन्नं तिन्नि य मंसाई गोरसो जूसो । तत्र मांसत्रयं-जलजादिसत्कं 'जूषो' मुद्गतन्दुल जीरककटुभाण्डादिरसः । (वृ० प० ३२६) १३. भक्खा गुललावणिया 'भक्ष्याणि' खण्डखाद्यादीनि 'गुललावणिया' गुडपर्प टिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा। (वृ० ५० ३२६) १४. मूलफला हरियगं डागो मूलफलान्येकमेवपदं 'हरितक' जीरका दि 'डाको' वास्तुलकादिजिका। (वृ० ५० ३२६) १५,१६. होइ रसालू य 'रसालूः' मज्जिका, तल्लक्षणं चेदम्दो घयपला महुपलं दहियस्सद्धाढ्यं मिरियवीसा । दस खंडगुलपलाई एस रसालू निवइजोगो । (वृ० प० ३२६) १७. तहा पाणं पाणीय पाणगं चेव अट्ठारसमो सागो निरुवहओ लोइओ पिंडो। 'पानं' सुरादि 'पानीयं' जलं 'पानक' द्राक्षापानकादि शाक: प्रसिद्ध इति । (वृ०प० ३२६) १८. दो असतीओ पसती, दो पसतीओ सेतिया चत्तारि ___ सेतियाओ कुलओ, (अनु० सू० ३७४) १६. चत्तारि कुलया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढगं चत्तारि आढगाइं दोणो। (अनु० सू० ३७४) २०. सट्टि आढगाई जहण्णए कुंभे, असीइं आढ़गाई मज्झिमए कुंभे, आढ़गसतं उक्कोसए कुंभे । (अनु० सू० ३७४) २१,२२. स्यात् गुजाः पञ्च माषकः ।५४७। ते तु षोडश कर्षोऽक्ष: पलं कर्षचतुष्टयम् ।५४८। तुला पलशतं तासां विंशत्या भार आचितः ।५४६। (अभि० चिन्ता०, तृतीय काण्ड) १८. दोय खोभलै पुसलि इक, बे पुसली सेई एक । च्यार सेइ नो कुड़ब इक, वीर वचन ए पेख ।। १६. च्यार कुडब पाथोज इक, चिहं पथ आढक एक । आढा च्यार तणी वलि, द्रोणी एक सुलेख । २०. साठ आढा नो जघन्य कुंभ, असी आढं कुंभ मद्ध । सौ आठै उत्कृष्ट कुंभ, अनुयोगद्वार सुलद्ध ॥ २१. गंजा पंचक मास इक, सोल मास कर्ष एक । च्यार कर्ष नों एक पल, पल-शत तुला संपेख ॥ २२. वीस तुला नो भार इक, हेम ततोय कांड ताम । तोल मान ए आखियो, कहिवू जे जे ठाम ।। २३. *विष मिश्रित भोजन तिको, भोगवतां सूख पाय । पहिला मधुरपणां थकी, अधिक मनोहर थाय॥ २४. ते भोजन जोम्यां पछ, परिणम ते पहिछाण । दुष्ट रूप हेतूपण, दुर्गध पिण इम जाण ॥ २३. विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवइ, २४. तओ पच्छा परिणममाणे-परिणममाणे दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए दुगंधत्ताए *लय : हेम ऋषी भजिये सदा रे २९६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. जिम छठे शतके कह्य, तृतीय उदेश मझार । यावत तेहनै दुखपण, परिणमै वारंवार । २६. एणे दृष्टांते करी, कालोदाई अणगार । जीव प्राणातिपाते करी, जाव मिच्छादसण अवधार॥ २७. पाप अठारै सेवियां, सेवायां पिण जोय । वलि तेहने अनुमोदियां, प्रथम मद्र सुख होय ॥ २८. पाप स्थानक सेव्यां पछ, विपरिणममाणे जोय । विपरिणामांतर पामतो, दुष्ट रूप तसु होय ॥ २६. यावत तेहनै दुखपण, परिणमै बारंवार । कालोदाई ! इम जीव रै, पाप कर्म बंध धार ।। २५. जाव दुक्खत्ताए-नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति । षष्ठशतस्य तृतीयोद्देशको (६।२०) महाश्रवकस्तत्र यथेदं सूत्रं तथेहाप्यध्येयम् । (वृ० प० ३२६) २६. एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, २७. तस्स णं आवाए भद्दए भवइ तस्य प्राणातिपातादे: (वृ०प० ३२६) २८. तओ पच्छा विपरिणममाणे-विपरिणममाणे दुरूवत्ताए २६. जाव दुक्खत्ताए-नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति । एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति । (श० ७२२४) सोरठा ३०. पाप कर्म बंध एम, तसु विपक्ष पुन्य कर्म नों। बंध फल विपाक तेम, प्रश्न तास पूछे हिवे ।। ३१. *छै प्रभजी ! जीवां तणे, कल्याण ते शुभ कर्म । शुभ फलपणज परिणमैं ? हंता जिन वच पर्म ।। म ३२. किणविध प्रभ जीवां तणे, कल्याण कर्म उपजत । विपाक फल कल्याण नों, तेह युक्त किम हुँत ? ३३. कालोदाई ! सांभले, दाखू जे दृष्टंत । कोइक पुरुष मनोहरू, शुद्ध थालीपाक करत ॥ ३४. अष्टादश व्यंजन करी, संकीरण सुखदाय । तिक्त कटक औषधि करी, मिश्रत कीधो ताय ॥ ३५. ते भोजन नैं जीमतां, पहिला भद्र न होय । मनगमतो होवै नहीं, कटक तिक्त थी जोय ॥ ३६. ते भोजन जीम्यां पछ, परिणम ते पहिछाण । भला रूपपणे परिणमैं, भला वर्ण पिण जाण ॥ ३७. यावत सौख्यपणे सही, दुक्खपणे नहिं होय । ___ वार वार इम परिणमै, इण दृष्टांते जोय ॥ ३८. हे कालोदाई ! जीवां तण, प्राणातिपात पिछाण । ए हिंसा थी निवर्ते, शुभ जोगे करि जाण ।। ३६. यावत वलि परिग्रह थकी, निवर्त्तवै करि तेह । __क्रोध तजै यावत वलि, मिथ्यादर्शण तजेह ॥ ३१. अत्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाण फलविवागसंजुत्ता कज्जति ? हंता अस्थि । (श०७।२२५) ३२. कहण्णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफल विवागसंजुत्ता कज्जति ? ३३. कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थाली पागसुद्धं ३४. अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहमिस्सं औषधं-महातिक्तकघृतादि। (वृ० ५० ३२६) ३५. भोयणं भुंजेज्जा तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भद्दए भवइ। ३६. तओ पच्छा परिणममाणे-परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए ३७. जाव सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिण मति । एवामेव ३८. कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे ३६. जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसण सल्लविवेगे *लय : हेम ऋषी भजिये सदा रे १०७, उ० १०, ढा. १२८ २९७ Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. ए पाप अठारै टालतां पहिला तेहने पेख । भद्र मनोज्ञ हुवै नहीं, इन्द्रिय प्रतिकूल देख ॥ परिणम ते अवलोय । भला रूपपणें जोय ॥ ४१. पाप थकी निवत्यों पलै पुन्य कर्म करि परिणमैं ४२. यावत सुखपणै सही, सही, दुक्खपणे वार-वार इम परिणमै सुकृत्य फल ४३. इम निश्चै जीवां तणें, कालोदाई कल्याण शुभ कर्म बंध हुवै, शुभ फल विपाक नहि सुख ५७. कालोदाई अणगार, पाप कर्म पुन्य पूछा कीधी सार, तमु जिन उत्तर २१०] [भगवती जोड़ होय । सोरठा ४४. 'वृत्तिकार कहिवाय, विरमण पाप अठार थी । पुन्य कर्म उपजाय, शुभ रूपादि तेहथी ॥ ४५. यंत्र धर्मसी कीध पुन्य तणां फल नें विधे ओषधि मिश्र प्रसीध, दृष्टांत छे एहवू कह्य ं ॥ ४६. ते माटै ए मर्म, पुन्य कर्म छै जेहनें । आख्यो कल्याण कर्म, न्याय दृष्टि करि देखियै ॥ ४७. पाप-विरमण पाठ, तेह निर्जरा रूप नि करतां पुन्य शुभ जोग स्यू ॥ पंचम समवाये कह्या । हिंसादिक नो वेरमण ॥ ते संजम शुध पालतां । शुभ जोगे करि जाण, पुन्य कर्म बंधे अर्थ ॥ ५०. त्याग कियां विण ताय, पाप अठारै निवर्त्ते । । सुंदर पिण शिव वाट ४८. समवायंग सुसंच, निर्जर ठाणा पंच ४६. पाप तणां पचखाण, तेहथी पुन्य बंधाय, करणी आज्ञा मांहिली ॥ ५१. तिण सू को सुरूप, सुंदर वर्ण कह्यो वलि । कल्याण कर्म तद्रूप, प्रत्यक्ष फल ए पुन्य नां ॥ ५२. से पाप अठार, पाप कर्म बंधे तमु पाप सेवायां धार, पुन्य कर्म बंधे ५३. परिग्रह पंचम पाप, सेव्या सेवायां अनुमोचां संताप, पाप कर्म ५४. परिग्रह नवविध पेख, खेत्त वत्थू आदि दे । दियां गृहस्थ नैं देख, पुन्य किहां थी तेहनै ॥ बंधे होय ॥ अणगार ! सार ॥ ५५. सेवं पाप अठार, करणी आज्ञा बाखी। तेहनैं ? जोवो हिये विचार, पुन्य किम बंधै ५६. टालै पाप अठार, करणी आज्ञा मांहिली । ए शुभ जोग श्रीकार, तेहथी पुन्य बंधे अछे || नहीं ॥ बलि । अर्थ ॥ कर्म नीं । आपियो । ४०. तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ । इन्द्रियप्रतिकूलत्वात् (० ० ३२६) ४१. तओ पच्छा परिणममाणे- परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए ४२. जाव सुहत्ताए तो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ । ४३. एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कलागफल विवासंत्ता कज्जति ।। (०७२२६) ४८. पंच निज्जरट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं......... (सगवाओ २६) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. पाप अठारै पेख, प्रवः कोइ तेह में। बंधै पाप विशेख, विष-मिश्र भोजन नी परै॥ ५६. पाप अठार पिछाण, निवत्तै कोइ तेहथी। पून्य कर्म बंधाण, भोजन ओषधि-मिश्र तिम ॥' (ज० स०) ६०. *देश सप्तम शत दश तणो, सौ अठवीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगल माल । ढाल : १२६ १. अनन्तरं कर्माणि फलतो निरूपितानि, अथ क्रियाविशेषमाश्रित्य तत्कर्तृपुरुषद्वयद्वारेण कर्मादीनामल्पबहुत्वे निरूपयति । (वृ० प० ३२६) १. पूर्व कह्या फल कर्म नां, हिव आगल अधिकार। __कर्मादिक अल्प बहु तणो, पूछ प्रश्न प्रकार ।। *कालोदाई पूछ भगवान नैं । (ध्र पदं) २. दोय पुरुष प्रभु ! सारिखा, जाव सरीखा ताहि। भंड मात्र उपकरण छै, करै अग्नि आरम्भ माहोमांहि ॥ प्रभूजो! ३. इक नर अग्नि लगावतो, इक नर अग्नि बुझाय । हे प्रभु ! दोनू इ पुरुष में, महाकर्म किण रै बंधाय ? २. दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव (सं० पा०) सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं सद्धि अगणिकायं समारंभंति । ३. तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ । एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव ? ४. महाकिरियतराए चेव ? महासवतराए चेव ? महावेयणतराए चेव? ४. महा क्रिया प्रभ ! केहन, वलि महाआश्रव जोय । वलि बहुवेदन केहन, तिण कर्म करीनै होय ।। सोरठा ५. ज्ञानावरणी आदि, महाकर्म कहिये तसु । महाकिरिया संवादि, छै दाहरूपा तेहन।। ६. महाआश्रव कहिवाय, महावेदना थाय, जेह महाकर्म बंध-हेतुकः । थकी जोवां तण ।। ५. अतिशयेन महत्कर्म-ज्ञानावरणादिकं यस्य स तथा, एवं 'महाकिरियतराए चेव' त्ति नवरं क्रियादाहरूपा। (वृ० प० ३२७) ६. 'महासवतराए चेव' त्ति बृहत्कर्मबन्धहेतुक: 'महावेयणतराए चेव' त्ति महती वेदना जीवानां यस्मात् स तथा । (वृ० प० ३२७) ७. कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव ? अप्पकिरियतराए चेव ? अप्पासवतराए चेव ? अप्पवेयणतराए चेव ? ७. अल्प कर्म बंध केहन, अल्प क्रिया वलि जोय । अल्प आथव अल्प वेदना, किसा पुरुष रै थोड़ा होय ? *लय : हेम ऋषी भजिये सदा रे लय : कोसंबी नगर पधारिया श०७, उ०१०, ढा० १२८,१२९ २६६ Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. इक नर अग्नि उजालतो, इक नर अग्नि बुझाय । बोल च्यारूई केहन, प्रभ ! घणां थोड़ा कहिवाय? ६. जिन कहै कालोदाइ ! सांभलै, अग्नि उजाल तास । महाकर्म महाक्रिया हुवै, महाआश्रव वेदन रास ।। मुनीश्वर ! (वीर कहै कालोदाइ ! सांभलै) ८. जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? ६. कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणि कार्य उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव, महासवतराए, चेव महावेयणतराए चेव । १०. अग्नि बुझावै तेहने, अल्प कर्म बंधाय । जाव अल्प वेदन कही, कालोदाइ पूछ किण न्याय ? ११. जे नर अग्नि लगावतो, अति घणी पृथ्वीकाय । ___ आरंभ बहु करै जेहनों, वले हणे घणी अपकाय ।। १२. जीव थोड़ा तेउ नां हणे, जीव वायु नां बहुत हणंत । वणस्सइ जीव बहु हणे, त्रस नी बहु घात करंत ।। १३. जे नर अग्नि बुझावतो, थोड़ा पृथ्वी नां जीव हणंत । वले जीव हणें थोड़ा अप तणां, घणी तेउ नी घात करंत ॥ १०. तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव (सं० पा०) अप्पवेयणतराए चेव। (श० ७।२२७) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ११. कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविक्कायं समारभति, बहुतरागं आउक्कायं समारभति, १२. अप्पतरागं तेउक्कायं समारभति, बहुतरागं वाउकार्य समारभति, बहुतरागं वणस्सइकायं समारभति, बहुतरागं तसकायं समारभति । १३. तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निवावेइ, से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति, अप्पतरागं आउक्कायं समारभति, बहुतरागं तेउक्कायं समार भति । १४. अप्पतरागं वाउकायं समारभति, अप्पतरागं वणस्सइकायं समारभति, अप्पतरागं तसकायं समारभति । से तेणठेणं कालोदाई ! एवं वुच्चइ१५. तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव । १६. तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निवावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, अप्पवेयणतराए चेव । (श० ७।२२८) १४. अल्प जीव वायु नां हणे, वनस्पतो त्रसकाय। त्यांरा पिण जीव थोड़ा हणे, तिण अर्थे ए वचन कहाय । १५. अग्नि लगावै तेहनें, बहु पंच काय आरंभ। आरंभ अल्प तेऊ तणो, तिण सू महाकर्मादिक दंभ ।। १६. अग्नि बुझावे तेहनें, पांच काय नों थोड़ो आरंभ । तेऊ नी बहुत विराधना, तिण सूअल्पकर्मादि प्रारंभ। सोरठा १७. 'अग्नि लगावै ताय, आरंभ बह पंच काय नों। वली बुझावै लाय, अल्प आरंभ पांचू तणो ।। १८. तेऊकाय नों ताय, अग्नि लगावै तसु अल्प। वली बुझावै लाय, महा आरंभ तेऊ तणो। १६. पंच काय नों पाप, अग्नि लगावै तसु घणो। तेउ तणो संताप, तेहने लागै अल्प ही॥ २०. अग्नि बुझावै तास, पंच काय नों अल्प ही। तेऊ तणो विमास, बहुत पाप क्रिया त॥ ३०. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. इण वचने करि ताय, अग्नि बुझावै तेहनै । थोड़ो पाप बंधाय, पिण धर्म नहीं छै तेह में' ॥ (ज० स०) २२. अग्नि सचेतन तास, अधिक प्रकाश करै अछ। तेहनीं परै उजास, पुदगल अचित्त हिव कहै ।। २३. *अचित्त पुदगल पिण छै प्रभ ! जे करै अधिक प्रकाश । उजुयाले वस्तु भणी, उज्जोवेंति पाठ विमास ।। २४. तवेंति ताप करै तिके, पभासंति पहिछाण ? तथाविध वस्तू भणी कांइ, दाहकपणे करि जाण ? २२. अग्निश्च सचेतनः सन्नवभासते एवमचित्ता अपि पुद्गलाः किमवभासन्ते ? इति प्रश्नयन्नाह (वृ०प० ३२७) २३. अस्थि णं भंते ! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति ? उज्जोवेति ? 'उज्जोइंति' त्ति वस्तूयोतयन्ति । (वृ०प० ३२७) २४. तति ? पभाति ? 'तवंति' त्ति तापं कुर्वन्ति 'पभासंति' त्ति तथाविध वस्तुदाहकत्वेन प्रभावं लभन्ते । (वृ० ५० ३२७) २५. हंता अस्थि । (श० ७।२२६) कयरे णं भंते ! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभा संति ? उज्जोवेंति ? तवेंति ? पभासेंति ? २६. कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता २७. दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति । २५. हंता अस्थि जिन कहै, वलि कालोदाइ पूछत। पुदगल अचित्त किसा प्रभ ! ए तो प्रकाशादिक करंत ? २६. जिन कहै अणगार कोपियो, तेजूलेश्या तास । शरीर थकी बार नीकली, दूर गई जे विमास ।। २७. दूर वेगली जइ पड़े, गइ छती भमी-देश । भमि नैं देश जइ पड़े, कोप्या अणगार नी तेजुलेश । सोरठा २८. दूर गई छती जाण, दूर तिका अलगी पड़े। देश गई छती माण, तेह देश माहै पड़े। २८. 'दूरं गंता दूरं निवयइ' त्ति दूरगामिनीति दूरे निपत तीत्यर्थः, अथवा दूरे गत्वा दूरे निपततीत्यर्थः 'देसं गंता देसं निवयइ' त्ति (वृ० प० ३२७) २९, ३०. अभिप्रेतस्य गन्तव्यस्य क्रमशतादेर्देशे-तदभदौ गमनस्वभावेऽपि देशे तदर्भादौ निपततीत्यर्थः । (वृ० ५० ३२७) २६. वांछित शतादि पाय', तास देश अर्द्धादिके। गमन स्वभाव कराय, 'देश गता' नों अर्थ ए॥ ३०. 'देश निपतति' जाण, वांछित छै तसू देश जे। अर्धादिक में आण, पड़, ते तेजूलेश नुं । ३१. *जिहां जिहां दूर देश में, अथवा निकट प्रदेश । तिहां तिहां अचित्त पुद्गल पड़े, यावत प्रभासे तेजुलेश। ३२. अचित्त पुद्गल पिण इह विधे, हे कालोदाइ अणगार ! अधिक प्रकाश करै सही, वीर वचन ए सार ।। ३३. कालोदाइ तब वीर नैं, करि वंदणा नमस्कार । चोथ अठम बहु तप करी, जाव भावित आतम सार ।। ३१. जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव (सं० पा०) पभासेंति। ३२. एतेणं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभा संति, जाव (सं० पा०) पभासेंति । (श० ७।२३०) ३३. तए णं से कालोदाई ! अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बाहिं चउत्थछट्ठट्ठम जाव (सं० पा०) अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० ७।२३१) *लय : कोसंबी नगर पधारिया १. पग। प.७० १0ढा० १२६ ३०१ Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. जहा पढ़मसए कालासवेसियपुत्ते (११४३३) जाव (सं० पा०) सव्वदुक्खप्पहीणे। (श० ७।२३२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ७२३३) ३४. जिम पहिले शतके कह्य, पुत्र कालासवेसी संत। जाव सर्व दुख क्षय किया, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ॥ ऋषीश्वर ! . (धन्य धन्य कालोदाइ महामनि) ३५. शतक सातमा नों कह्यो, दशमों उदेशो देख । अर्थ सातमां शतक नों, संपूर्ण हवो अशेख । ३६. ढाल एक सौ गुणतीसमी, भिक्खु पाट भारीमाल । तीजै पाट ऋषिराय जी, सुख 'जय-जश' हरष विशाल । सुगण जन ! __ (बलिहारी भिक्षु ऋषिराज नीं) गीतक-छंद १. जिम वृद्ध नर लाठी ग्रही मंद-मंद पद स्थापन करी। इम चालतं जे पंथ मारग प्रति उल्लंघे हित धरी।। २. तिम शिष्ट जन उपदेश आणा-रूप-यष्टि ग्रही करी। वर सूत्र पद नीं अर्थ रचना-न्यास शनै शनै धरी ।। ३. वर शतक सप्तम तास विस्तर तेहिज पथ मारग भलो। उल्लंघियो वर जोड़ करि, नर वृद्ध इव शत गणनिलो॥ सप्तमशते दशमोद्देशकार्थः ॥७॥१०॥ १-३. शिष्टोपदिष्टयष्ट्या पदविन्यासं शनैरहं कुर्वन् । सप्तमशतविवृतिपथं लङ्घितवान् वृद्धपुरुष इव ।। (वृ० प० ३२७) ढाल : १३० सोरठा १. सप्तम शतक मझार, पुद्गल आदिक भाव नी । परूपणा वर सार, विविध प्रकारे वर्णवी ॥ २. इहां पिण तेहिज जाण, अन्य प्रकार करी प्रवर । परूपियै पहिछाण, अष्टम शतक विषे हिवै॥ ३. दस है तास उद्देश, ते संग्रह में अर्थ ए। गाथा आदि कहेस, श्रोता चित दे सांभलो॥ १. पूर्व पुद्गलादयो भावाः प्ररूपिताः । (वृ० प० ३२८) २. इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं संबद्ध मथाष्टमशतं विवियते। (वृ० प० ३२८) ३. तस्य चोद्देशसंग्रहार्थ 'पुग्गले' त्यादिगाथामाह (वृ० प० ३२८) ४. पुदगल नं पहिलं कह्य', आसीविष नों जाण । वृक्ष तणो तीजो अख्यो, चउथो क्रिया वखाण ।। ५. आजीवका नों पांचमो, छट्ठो प्रासुक दान । अदत्त-विचारण सप्तमो, प्रत्यनीक पहिछान ॥ *लय : कोसम्बी नगरी पधारिया ४,६. पोग्गल आसीविस रुक्ख किरिय आजीव फासुकमदत्ते। पडिणीय बंध आराहणा य दस अट्ठमंमि सते ।। (श० ८ संगहणी-गाहा) ३०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. रायगिहे जाव एवं वदासी ६. नवमों बंध तणों कह्यो, आराधना नों अर्थ । उद्देशक दस आखिया, अष्टम शते तदर्थ ।। ७. नगर राजगृह नै विषे, यावत गोतम स्वाम । वीर प्रत वंदन करी, इम बोले शिर नाम । *देव जिनेंद्र कहै गोयम नैं । (ध्र पदं) ८. पुदगल हे प्रभु ! कितै प्रकार, आप परूप्या स्वाम जी ? प्रभू प्रकाशै तीन प्रकार, आख्या पुद्गल आम जी।। ६. भेद प्रथम जे प्रयोग-परिणता, मीसा-परिणता नाम । तीजो भेद वीससा-परिणता, कहियै अर्थ तमाम ॥ १०. जीव व्यापारे शरीर आदिपण, करि परिणम्या ताम । ते पुदगल नै कहियै गोतम ! प्रयोग-परिणता नाम ।। ११. प्रयोग स्वभाव बिहुं करि परिणता, मीसा-परिणता ताय । बीजो भेद अछै पुद्गल नों, हिव कहिये तसु न्याय ।। १२. प्रयोग-परिणाम भणी अणतजतो, स्वभाव करिक दीस । अन्य स्वभाव प्रते पहुंचाया, जीव कलेवर मीस ॥ १३. अथवा ऊदारिकादिक नी वर्गणा, पुद्गल छै ते रूप । द्रव्य तिकेज स्वभाव करीन, निपजाया छता तद्रूप ॥ . जीव प्रयोगे एकेंद्रियादिक तन, प्रमखपणे पहिछाण । अन्य परिणाम प्रतै पहुंचाडया, ते मीसा-परिणता जाण ।। ८. कतिविहा णं भंते ! पोग्गला पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा६. पयोगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया । (श० ८।१) १०. 'पओगपरिणय' ति जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः (वृ० प० ३२८) ११. 'मीससा-परिणय' त्ति मिश्रकपरिणताःप्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः (वृ० प० ३२८) १२. प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रसया स्वभावान्तरमा पादिता मुक्तकडेवरादिरूपाः। (वृ० ५० ३२८) १३. अथवौदारिकादिवर्गणारूपा विस्रसया निष्पादिताः संतः (वृ० प० ३२८) १४. जीवप्रयोगेणकेन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणामान्तरमापा दितास्ते मिश्रपरिणताः। (वृ० ५० ३२८) १५. ननुप्रयोगपरिणामोऽप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः ? (वृ०प० ३२८) १६. सत्यं, किंतु प्रयोगपरिणतेषु विस्रसा सत्यपि न विवक्षिता इति । (वृ० प० ३२८) सोरठा १५. जे प्रयोग-परिणाम, ते पिण पुद्गल इमज छ । तो विशेष स्यू ताम, मीसा-पुद्गल नै विषे ? १६. सत्य बात छै एह, प्रयोग-परिणत नै विषे ।। वीससा छतेपि जेह, वांछा तेहनी नहिं करी॥ १७. मीसा-परिणत माण, द्वितीय भेद पुद्गल तणो । दाख्यो न्याय सुजाण, तृतीय भेद हिव वीससा ॥ परिणता भेद तीसरो, स्वभाव करिनं सोय । __ परिणमिया बादल प्रमुख ते, ए तीनू अवलोय ।। वा०-इहां धर्मसी कह्यो ते लिखिये छै-अथ पओगसा ते जीवां ग्रह्या जे आठ कर्म, बारह पर्याप्ता-अपर्याप्ता, पांच शरीर, पांच इन्द्री, वर्णादिक पच्चीसए ५५ बोल तथा पन्द्रह योग एवं-७० बोल जीवां ग्रह्या ते पयोगसा पुद्गल कहिये । मीसा ते, ७० बोल जोवां मूक्या ते रूप नथी मूक्यो, अनेरे रूप नथी परिणम्या अनै विस्रसाइं स्वभावांतर पहुंचाड़या, एतावता जीव रहित कलेवर मीसा पुद्गल कहिये । वीससा ते, ए ७० बोल जीवां मूक्या पछी अनेरे वर्णादिके २५ आभला प्रमुख * लय : कनकमंजरी चतुर विलक्षण १८. 'वीससापरिणय' त्ति स्वभावपरिणताः । (वृ० प० ३२८) श०८, उ०१ढा० १३० ३०३ Jain Education Intemational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं रूपे परिणम्या ते बीसा पुद्गल कहिये । ते पयोगसा कोणि कोणि जीवानां दंडक पहिये -पयोगपरिणयाणं भंते! पोग्गला कतिविहा ? गोयमा ! १. मी बारमी प्रमुख दस एकेंद्री, २. त्रिण विकलेंद्री - १३, ३. सात नारकी - २०, ४. तियंचपंचेंद्रिय जलचरादि संमूच्छिम पंच अनै गर्भेज पंच एवं दश – ३०, ५. संमूच्छिम ने गर्भेज मनुष्य - ३२, ६. दश भवनपति – ४२, ७. आठ वाणव्यंतर - ५०, ८. पांच जोतषी - ५५, ६. बारं वैमानिक – ६७, नव ग्रैवेयक – ७६, पांच अणुत्तर विमान – ८१, जीव नां ८१ भेद आठ कर्म नां पुद्गल ग्रह्या ते पओगसा कहिये, ए प्रथम दंडक समचं । अथ ८१ विमणा करिये तिवारे - १६२ था । संमुच्छिम मनुष्य पर्याप्ता नों नहीं ते एक ओछो करियै ते मार्ट - १६१ भेद । ए 8 दंडक पुद्गल ग्रहै पभोगसा नां ६ भेद जाणवा । - २०. एकेंद्रिय जाव पंचेंद्री २१. प्रभु! एकेंद्री १६. प्रयोग- परिणता पुद्गल प्रभुजी ! दाख्या कितलै प्रकार ? भगवंत भाख पंच प्रकारे सांभल तसु विस्तार ॥ [ प्रयोग- परिणत पुद्गल कहियै ] प्रयोग- परिणता, इम बेइंद्री जाण । प्रयोग - परिणता, ए पंच भेद पहिछाण || प्रयोग- परिणता, पुद्गल कितै प्रकार ? श्री जिन भाखै शिष्य अभिलाष, पंच प्रकार विचार ॥ २२. पुढवी एकेंद्री प्रयोग - परिणता, इम अप तेउ वाउकाय । पंचमी वणस्सइकाय एकेंद्रिय प्रयोग- परिणता ताय ॥ २३. पृथ्वी एकेंद्री प्रयोग-परिणता पुद्गल हे जिनराय ? कि प्रकार आप परूप्या ? जिन कहै द्विविध ताय ॥ २४. सूक्षम पृथ्वीकाय एकेंद्रिय, बादर पृथ्वीकाय एकेंद्रिय २५. अप एकेंद्री प्रयोग-परिणता 1 येथे भेद इसीविध कहिवा, जाव २६. इंद्रिय प्रयोग नीं पूछा, जिन लट गोंडोला अलसिया कृमिया २७. एवं तेइंद्री प्रयोग-परिणता चउरिद्री पिण बहु माखी, , २०४ भगवती जो प्रयोग - परिणता पेख | प्रयोग-परिणता देख ॥ इणहिज रीत कहाय । वणस्सइकाय || 3 2 कहै अनेक प्रकार । प्रमुख बहुविध धार ॥ कुंबु कीड़यां आदि । माछर प्रमुख संवादि ॥ १६. पयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा २०. एनिदिया जाय (सं० पा०) पंचिदिप पयोगपरिणया । (श० ८२) २१. एगिदियोपरिया गं भंते पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा२२. विकाइदियपयोगपरिणया, आउकाइएगिदि पयोग परिणया, ते उकाइयएगिदियपयोग परिणया, बाउकाइगिदियोगपरिणया, वणस्स इकाइयएगि दियपयोगपरिणया (स० ८३) भंते पोग्ला २३. पुढवादियोगपरिगया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा २४. सुमपुढ विकाइयएगिदियपयोगपरिणया, बादरपुढ़विकाइयए गिदियपयोगपरिणवा य २५. आउकाइए गिदियपयोगपरिणया एवं चेव । एवं दुओ भेदो जाव वणस्सइकाइया य । ( श० ८२४) परिणयाणं पुच्छा गोयमा ! अणेगविहा पण्णत्ता । पुलामिकादिभेदत्वाद द्वीद्रियाणाम् । २६. ( वृ० प० ३३१ ) २७. एवं इंदिय - चउरिदियपयोगपरिणया वि । (श० ८५) श्रीयियोगपरिगता अप्यनेकविषाः कंपिपीलिकादिभेदत्वात्तेषां चतुरिद्रियप्रयोगपरिणता अप्यनेकविधा एव मक्षिकामशकादिभेदत्वात्तेषाम् । ( वृ० प० ३३१ ) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. पंचेंद्रिय प्रयोग नीं पूछा, जिन नरक - पंचेंद्रि प्रयोग- परिणता, इम कहै प्यार प्रकार । तिरि मणु सुर धार ॥ । २१. नरक-पंचेंद्री प्रयोग नीं पूछा, जिन कहै तमु विध सात रत्नप्रभा नारक चेंद्री जाव तमतमा ख्यात ॥ ३०. तिरिखस-पंचेंद्री प्रयोग नीं पूछा, जिन कहे तीन प्रकार । जलचर-पंचेंद्री प्रयोग-परिणता, थलचर खेचर धार ॥ ३१. जलचर-पंद्री तिरि पूछा, जिन कहे तसुं विध दोय । संमूच्छिम - जलचर-पंचेंद्री, गर्भेज जलचर जोय ॥ ३२. थलचर - तिरि-पंचेंद्री पूछा, द्विविध कहै जिनराय । चोपद थलचर परिसर्प थलचर, ए बिहुं भेद कहाय ॥ ३३. चोपद थलचर फेरी पूछा, द्विविध कहूँ जिन स्वाम संमूच्छिम चोपद थलचर र गर्भज पलचर नाम ।। 1 ३४. इस आलावे करिने कहिया उरपरिसर्प हिया सूपाल, सू चाल, ३५. उरपरिसर्प द्विविध जिन आख्या द्विविध परिसर्प ह । भुज परिसर्प भुजेह ॥ संमूच्छिम गर्भज । । एवं भुजपरिसर्प द्विविध है, द्विविध है, खेचर एम कहेज ॥ · २६. मनुष्य-पंचेंद्री प्रयोग नीं पूछा, जिन कहे दोय प्रकार । मनुष्य-संमूच्छिम चउद स्थानकिया, गर्भज मनुष्य विचार ॥ ॥ २८. पंचिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा ने रइयचिदियोगपरिणवा, तिमि देवचिदिवयोगपरिणया । (०८६) २६. नेरइयपंचिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा | गोयमा ! सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा रयणष्पभपुढ़वि-नेरइयपंचिदियपयोगपरिणया वि जाव आहेसतमपुविनेयनिदियोगपरिणयावि (श० ८1७) ३०. तिरिक्खजोणिय पंचिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- जलचरतिरिक्खजोणियपंच दियपयोगपरिणया, थलचरतिरिक्ख .....खहचर तिरिक्ख'''परिणया ३१. जलचरतिरिक्खजोणियपंचिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोवमा | दुबिहा पष्णता जहासंमुच्छिमजला ! तं चरतिरिक्तजीणिपर्वचिदियपयोगपरिणवा, रामवक् तियजलचरतिक्जिोगियचिदिपरिणा ( श० दाह) ३२. यसरतिरक्ष जोगियपंचिदिययोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - चउप्पयथलचरति रिक्खजोणिय पंचिदियपयोगपरिणया, परिसप्प - थलचरतिरिक्खजोणियपंचिदियपयोगपरिणया । ( श० ८1१० ) २२. चढण्णपचलचरतिक्खि जोगियपंचिदिपयोगपरिण याणं पुच्छा । गोषमा ! दुबिहा पत्ता, तं वहा संमूमिउपपचलचरतिरिक्स विचिदिययोगपरिणया गब्भवक्कंतियच उप्पयथलचरतिरिक्खजोणिय पंचिदियपयोगपरिणया । (०८।११) ३४. एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- उरपरिसप्पा य भुयपरिसप्पा य । ३५. उपर दुबिहा पत्ता व जहासंमुमाव गव्वतिया व । एवं भुवपरिया वि एवं यह यरा वि । (२०१२) ३६. मोगपरिणयानं पुच्छा। गोवमा दुविहा पत्ता, तं जहा संमुच्छिममणुसपंचोपरा सम्भवनसंतियमणुस्सर्पचिदि पयोगपरिणया | (४०८११२) श०८, उ० १, ढा० १३० ३०५ 1 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. देव-पंचेंद्री प्रयोग नीं पूछा, जिन कहे प्यार भवनपति व्यंतर नैं ज्योतिषि वैमानिक सुर ३८. देव भवणवासी नीं पूछा, जिन कहै दसविध देख | असुरकुमारा जावत कहिवा, थणियकुमारा पेख ॥ ३६. इण आलावे करिनै कहिवा, बहु पिसाचा जाव गंधर्वा, ए मोटी ४०. पंच प्रकार परूप्या ज्योतिषी, जावत तार-विमाण ज्योतिषी हिव दोय प्रकारे, पवर अणुत्तर विषे ऊपनां, ४१. दोय प्रकार वैमानिक देवा, कल्प विषे उपपात । कल्पातीत विषे जे ऊपनां महा ऋद्धिवंत विख्यात ॥ ४२. कल्प विषे उपनां छे तेहनां दाख्या सुधर्म - कल्प विषे जे उपनां " द्वादश भेद | अच्युत वेद ॥ यावत ४३. कल्पातीतक ४४. संवेयक नवविध जिन यावत उवरिम उपरिम प्रकार । सार ॥ व्यंतर आठ प्रकार । पद्धि नां विचार ॥ वासी चंद्र - विमान । वैमानिक जान ॥ दाख्या, ए नव *लय पूज मोटा भांजे टोटा २०६ भगवती जोड मैवेयक पहिचान | कल्पातीत सुजान ॥ ४५. बणुतरोत्पन्न कल्पातीतक, सुर-पंचेंद्रिय प्रयोग | तेह परिणता पुद्गल प्रभुजी ! किर्ते प्रकार सुजोग ? ४६. जिन कहै पंच प्रकार परूप्या, विजय अणुत्तरोपपात । जाव सम्बसिद्ध विषय ऊपना, जाव परिणता स्यात ॥ सोरठा हेठिम-हेठिम होय । प्रवेयक अवलोय || ४७. को आदि दे । जीव नां ॥ प्रयोगसा । धर्मसी एम. सूक्षम पृथ्वी सम्बद्धसिद्ध लग तेम, भेद इक्यासी ४५. आठ कर्म छै तास, पुद्गल ते घर दंडक सुविमास, समचे इहविध ४६. एकेंद्रियादि सव्वट्टसिद्ध लग, जीव भेद विशेष थी । पुद्गल एह प्रयोग - परिणत, प्रथम दंडक उक्त थी । आखियो || २७. देवनिदियोगपरिणयानं पुच्छा । गोषमा ! चउबिहा पण्णत्ता से जहा भवगवासि देवपचिदियपयोगपरिणया एवं जाव वैमाणिया । (श० ८ १४ ) ३८. भवणवासिदेव चिदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा असुरकुमारदेवदियपयोगपरिणया जाव पणियकुमारदेवपचि दियपयोगपरिणया | ( श० ८।१५) २६. एवं एए अभिलावेणं अडविहा बाणमंतरा पिसाया जाव गंधव्वा । - ४०. जोतिसिया पंचविहारमत्ता तं जहा—पंदविमाणजोतिसिया जाव ताराविमाणजोतिसियदेव पंचिदियपयोगपरिणया । ४१. माणिया दुबिहा पत्ता जहा कप्पोवगवेमातं - णिया कप्पातीतगवेमाणिया । ४२. कप्पोमानिया दुमानसविहा पण्णत्ता जहासोहम कप्पोवगवेमाणिया जाव अच्चुयकप्पोवगवेमाणिया ४३. कप्पातीतगवेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गेवेजगण्यातीतमणिया अणुतरोवाकियातील गवेमाणिया । ४४. गेवेज्जगकप्पातीतगवेमाणिया नवविहा पण्णत्ता, तं जहा - हेट्ठिमहेट्ठिमगे वेज्जगकप्पातीतगवेमाणिया जाव उवरिमउवरिमगेवेज्जगकप्पातीतगवेमाणिया । (श० ८।१६ ) ४५. अत्तरोवातियकप्पातीत नवे माथिय देवचिदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? ४६. गोयमा! पंचविहा पण्यसा जड़ा-विजयअणतरी तं वातिय जाव सम्यसिद्धमवायिकप्पातीतनवैमाणियदेव पंचिदियपयोगपरिणया । (श० ८।१७ ) ४१. एकेन्द्रियादिसर्वार्थ सिद्धदेवान्त जीव भेदविशेषितप्रयोग परिणतानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डकः । (० ० ३३१) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा ५०. सूक्षम पृथ्वी आदिदे, पज्जत्तापज्जत्त विशेष कर, सव्व सिद्ध पर्यंत । द्वितियो दंडक हुंत ॥ ५१. सूक्षम पृथ्वीकाय एकेंद्रिय प्रयोग- परिणता जान । ते पुद्गल प्रभु ! किस प्रकार ? जिन कहै द्विविधमान ॥ पज्जत्तगा जाण । पर्याप्त आग || ५२. केइ प्रथम अपज्जत्तग भणै छै, पछै अपर्याप्त नैं पहिला भाले, पाछे ५३. पज्जत सूक्षम पृथ्वी नां, जाव परिणता अपर्याप्त सूक्षम पृथ्वी नां, जाव ५४. बादर पृथ्वीकाय एकेंद्री, जोय । परिणता होय || इमहिज करिव भेद । एवं जाव वनस्पति जीवा, भणवा आण उमेद || ५५. इक इक नां द्विविध करि कहिवा, सूक्षम बादर दोय तेनां वे वे भेवज कहिवा, पज्जन्त अपज्जत जोय || ५६. हिव बेइंद्रिय प्रयोग नीं पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । पज्जत्त-बेइंद्री - प्रयोग- परिणता, अपर्याप्त इम धार ॥ ५७. तेइंद्री नां भेद वे इमहिज, चउरिद्री पण एम पंचेंद्री नां भेद कहे हिव, सांभलज्यो घर प्रेम ॥ ५८. रत्नप्रभा नारकी नौ पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । पर्याप्त रत्नप्रभा जाब परिणत, अपर्याप्त इम धार ॥ ५६. एवं यावत नरक सातमी, करिवा बे बे हिव तिर्यच-पंचेंद्री केरा, सुणज्यो आण ६०. संमूमि जलचर - तिरि पूछा, जिन कहै दो पर्याप्त नैं अपर्याप्त नीं, इम गर्भेज भेद । उमेद ॥ प्रकार । विचार ॥ भेद ६१. संमूच्छिम चउपद-बलचर नां इस वे गर्भेज- चउपद-थलचर नां पिण, दोय भेद इम ६२. एवं जाव संमूच्छिम खेचर, इम गर्भेज पिछाण । इक इक नां बे भेदज भणवा, पज्जत्त अपज्जत्त जाण ॥ ६३. संमूच्छिम - मनुष्य- पंचेंद्रिय, दोय प्रकार सुजोय । पज्जत्त अपज्जत्त का पाठ में न्याय हिये अवलोय || · कहाय । थाय ॥ सोरठा ६४. भेद ग्यारमों एह, दोय भेद भेद किणविध तसु । नय वचने करि जेह, बुद्धिवंत न्याय मिलाविये ॥ *लय कनकमंजरी चतुर विचक्षण ५०. सुहुमपुढविकाइए' इत्यादि सर्वार्थसिद्धदेवान्त: पर्याप्तकापर्याप्तक विशेषणो द्वितीयो दण्डकः । ( वृ० प० ३३१) ५१. विकाइएदियोगपरिणया ां भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? गोमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १३.विकाइगिदियोगपरिणयाय, अपश्यत्ताहमपुद्धिकाइएदिपयोगपरिषयाव ५४. बादरपुढ़विकाइयएगिदियपयोगपरिणया एवं चैव । एवं जाव वणस्सइकाइया । ५५. एक्केका दुविहा- सुहमा य, बादरा य, पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियव्वा । (zo aita) ५६. बेइं दियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्तगबे इंदियपयोगपरिणया य, अपज्जत्तग जाव परिणया य । ५७. एवं तेइंदिया वि, एवं चउरिदिया वि । (४० वा१२) २८. रणविरइयपयोगपरिणयानं पृच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- पज्जत्तगरयणपभ जाव परिणया य अपज्जत्तग जाव परिणया य । ५६. एवं जाव आहेसत्तमा । (TO 5120) ६०. संजलचरतिरिवल छ । गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- पज्जत्तग अपज्जत्तग । एवं गब्भवक्कंतिया वि । ६१. संमुच्छिमच उप्पयथलचरा एवं चेव । एवं गब्भवक्कंतिया वि । ६२. एवं जाव संमुच्छिमखहय रगब्भवक्कंतिया य । एक्केके पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियव्वा । (श०८।२१) ६३ संचिदियपृच्छा। गोयमा ! एगविहा पण्णत्ता -- अपज्जत्तगा चेव । (४०८२२) श०८, उ० १, ढा० १३० ३०७ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. पर्याप्ति केतली जाण, बांधी छै तिण कारणे । पर्याप्तो पहिछाण, एहवं न्याय जणाय छै । ६६ पूरी पर्याप्ति तास, बांधी नहिं तिण कारणें । अपर्याप्तो विमास, न्याय इसो दीसै अछ । ६७. अथवा वाट वहंत, पर्याप्ति तिण बांधी नथी । अपर्याप्तो कहंत, ए आश्री पिण जाणिय ॥ ६८. किणहिक परत मझार, संमच्छिम जे मनष्य ते । एक हि विध अवधार, अपर्याप्तोज पेखियो । ६६. संमूच्छिम मन' बोल, जूनी परतज जेह छ । तालपत्र नी तोल, तेह मध्ये नथी दीसतु ॥ ७०. किणहिक टबा मझार, एहवं म्है देख्यं अछ । आख्यो तिण अनसार, सर्वज्ञ वदै तिकोज सत्य' ।। (ज० स०) ७१. *गर्भेज-मनष्य-पंचेंद्री पूछा, दोय भेद तसु देख । पज्जत्त अपज्जत्त मनुष्य-पंचेंद्री, प्रयोग-परिणत पेख ॥ ७२. असुरकुमार भवनपति पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । पज्जत्त अपज्जत्त इम बे भणवा, जावत थणियकुमार ॥ ७१. गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिदिय-पुच्छा । गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगगम्भवक्कंतिया वि, अपज्जत्तगगम्भवक्कंतिया वि । (श० ८।२३) ७२. असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगअसुरकुमार अपज्जत्तगअसुरकुमार। एवं जाव थणिय कुमारा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य । (श० ८।२४) ७३. एवं एतेणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया जाव गंधव्वा । चंदा जाव ताराविमाणा। ७४. सोहम्मकप्पोवगा जावच्चुतो । हेट्ठिमहेट्ठिम-गेवेज्ज कप्पातीत जाव उवरिमउवरिमगेवेज्ज । विजयअणुत्त रोववाइय ७५. जाव अपराजिय। (श० ८।२५) सव्वट्ठसिद्धकप्पातीत-पुच्छा । ७३. इण आलावे करि इम भणवा, बे बे भेद विचार । पिसाच व्यंतर जाव गंधर्वा, चंदा यावत तार ॥ ७४. सोधर्म यावत अच्युत सूधी, हेठिम-हेठिम एम । यावत उवरिम-उवरिम नवमों, विजय अणत्तर तेम ॥ ७५. यावत अपराजित पिण इमहिज, सर्वारथसिद्ध जाण । कल्पातीत पंचमो तेहनों, प्रश्न किये जिन वाण || १. मनुष्य २. जयाचार्य ने जिस पाठ के आधार पर जोड़ की, उस प्राचीन प्रति में संमूच्छिम मनुष्य के दो भेद किए हुए हैं । पर उस पाठ की संगति नहीं बैठती इसलिए जयाचार्य को गाथा ६४ से ७० तक सात सोरठों में इस विषय की समीक्षा कर न्याय मिलाना पड़ा । उन्हें एक आदर्श ऐसा भी मिला था जिसमें संमूच्छिम मनुष्य का एक ही भेद था, किन्तु वह प्रति प्राचीन नहीं थी । किसी टबा की प्रति में उनको उक्त पाठ उपलब्ध हुआ था, जिसका उन्होंने संकेत भी किया है। अंगसुत्ताणि भाग २ में एक भेद वाला पाठ ही रखा गया है। वहां किसी पाठान्तर की सूचना भी नहीं है। संगति भी इसी पाठ से बैठती है। इसलिए ६३ वीं माथा में दो भेदों का उल्लेख होने पर भी उसके सामने अंगसुत्ताणि का एक भेद वाला पाठ उद्धत किया गया है। *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण ३०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. दोय प्रकार परूप्या तेहनां, पज्जत्त सव्वट्ठसिद्ध जाण । अपर्याप्त सव्वसिद्ध यावत, परिणता पिण पहिछाण ॥ ७६. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तासम्बटु सिद्धअणुत्तरोववाइय, अपज्जत्तासब्वट्ठ जाव परिणया वि। (श० ८।२६) सोरठा ७७. सूक्षम-पृथ्वी आदि, सर्वार्थसिद्ध लग कह्य । पज्जत्त अपज्जत्त साधि, द्वितियो दंडक भाखियो । ७८. *अपज्जत्त-सूक्ष्म-पृथ्वी-एकेंद्री, प्रयोग-परिणता जेह । ओदारिक तेजस कार्मण तनु, प्रयोग-परिणता तेह ॥ ७६. जेह पर्याप्त सूक्षम जावत, परिणता ते कहिवाय । ओदारिक तेजस ने कार्मण तन, प्रयोग-परिणताय ॥ ८०. एवं जाव चरिंद्री पर्याप्त, णवरं वाय मांय । पर्याप्ता में वैक्रिय अधिको, ते इहविध कहिवाय ॥ ५१. पज्जत्त-बादर-वायु-एकेंद्रो, प्रयोग-परिणता जेह । आहारक विण चिहुं यावत परिणत, सेसं तं चेव कहेह ॥ ७८. जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते ओरालिय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया । ७६. जे पज्जत्तासुहुम जाव परिणया ते ओरालिय-तेया कम्मासरीरप्पयोगपरिणया । ८०. एवं जाव चउरिदिया पज्जत्ता, नवरं ८२. अपर्याप्त धुर नरक पंचेंद्री, प्रयोग-परिणता जेह । ते वैक्रिय तेजस कार्मण तन, प्रयोग-परिणतेह ।। ८३. इमहिज पर्याप्त पिण तेहनां, एवं यावत जाण । सप्तम नरक पज्जत्त अपज्जत्त में, तीन शरीर पिछाण ॥ ८४. अपज्जत्त संमूच्छिम जलचर नां, जाव परिणता जेह । तेह ओदारिक तैजस कार्मण तन, प्रयोग-परिणतेह ।। ८५. एवं पर्याप्ता पिण तेहनां, अपर्याप्ता गर्भेज । संमूच्छिम जलचर जिम तेह में, तीन शरीर कहेज ॥ ८६. पर्याप्ता तसु इमहिज कहिवा, णवरं च्यार शरीर। बादर-वायु पज्जत जिम जाणो, जलचर-पज्जत्त समीर ॥ ८७. जिम जलचर नां च्यार आलावा, संमूच्छिम नां दोय । पर्याप्ता ने अपर्याप्ता ए, बे गर्भज नां होय ॥ ८५. एवं चउपद उरपरिसर्प नां, भजपरिसर्प नां च्यार । खेचर नां पिण च्यार आलावा, भणवा न्याय उदार ॥ ८९. जे संमच्छिम मनुष्य-पंचेंद्री, प्रयोग-परिणता एह । ते औदारिक तेजस कार्मण तन, जावत परिणतेह ॥ सोरठा ६०. 'संमच्छिम मणु' मांहि, समचै तीन तनू कह्या । पजत्त अपज्जत्त ताहि, इहां बे भेद कह्या नथी । ८१. जे पज्जत्ताबादरवाउकाइयएगिदियप्पयोगपरिणया ते ओरालिय-वेउब्विय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया । सेसं तं चेव । (श० ८।२७) ८२. जे अपज्जत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियपयोग परिणया ते वेउब्विय-तेया-कम्मासरीरापयोगपरिणया ८३. एवं पज्जत्तगा वि । एव जाव अहेसत्तमा । (श० ८।२८) ५४. जे अपज्जत्तासमुच्छिमजलचर जाव परिणया ते ओरा लिय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया। ८५. एवं पज्जत्तगा वि । गब्भवक्कंतियअपज्जत्ता एवं चेव । ८६. पज्जत्तगा णं एवं चेव, नवरं—सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं । ८७. एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया। ८८. एवं चउप्पया-उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पखयरेसु वि __चत्तारि आलावगा भाणियव्वा। (श० ८।२६) ८६. जे समुच्छिममणुस्सपंचिदियपयोगपरिणया ते ओरा लिय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया। *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण १. मनुष्य श०८,उ०१, ढा० १३० ३०६ Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. शरीर-पर्याप्त जेह, तेहनै तीन शरीर है। भेद ग्यारमों एह, इहां समचै इज आखियो। (ज० स०) ६२. *इम गर्भेज मनुष्य अपर्याप्त, तोन शरीरज पाय। पर्याप्ता पिण णवरं इम हिज, पंच शरीर कहाय ॥ ६३. अपज्जत्त-असुर-भवनवासी ते, नारकी जेम विचार। इम पर्याप्त इम द्वि भेदे, जावत थणियकुमार ॥ १४. एवं पिसाचा जाव गंधर्वा, चंदा यावत तार। सोधर्मकल्प यावत अच्च लग, नव ग्रैवेयक सार ।। २. एवं गब्भवक्कंतिया वि। अपज्जत्तगा वि पज्जत्तगा वि एवं चेव, नवरं---सरीरगाणि पंच भाणियब्वाणि । (श० ८।३०) ६३. जे अपज्जत्ताअसुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव । एवं पज्जत्तगा वि । एवं दुयएणं भेदेणं जाव थणियकुमारा। ६४. एवं पिसाया जाव गंधव्वा । चंदा जाव ताराविमाणा। सोहम्मकप्पो जावच्चुओ। हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज्जग जाव उवरिमउबरिमगेवेज्जग । ६५,६६. विजयअणुत्तरोववाइय जाव सब्वट्ठसिद्धअणुत्तरो ववाइय । एक्केक्के दुयओ भेदो भणियब्वी जाव जे पज्जत्तासम्वद्रसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव (सं० पा०) परिणया ते वेउब्बिय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया। (श० ८।३१) ६७. 'जे अपज्जत्ता सुहुमपुढ़वी' त्यादिरीदारिकादिशरीर विशेषणस्तृतीयो दण्डकः । (वृ० १० ३३१) ६५. विजय अणुत्तर जाव सव्वट्ठसिद्ध, अपज्जत्त पज्जत्त सुचोन ॥ भणवा ए बे भेद पांचं नां, चरम भेद इम लीन । १६. अपज्जत्त सव्वदसिद्ध अणत्तर नां, जाव परिणता तेह । तेह वैक्रिय तेजस कार्मण तन, प्रयोग-परिणतेह ।। ६७. पर्याप्ता पिण इमहिज कहिवा, तीजो दंडक एह । ओदारिकादिक शरीर विशेषण, आख्यो जिन बचनेह ॥ १८. अपज्जत्त-सूक्ष्म-पृथ्वि ले, सव्वट्ठसिद्ध पर्यंत । इंद्रिय विशेषण हिव कहूं, चतुर्थ दंडक तंत ॥ १९. *अपज्जत्त सूक्ष्म पृथ्वी एकेंद्री-प्रयोग-परिणता जेह । ते फर्शद्री-प्रयोग-परिणता, इम पर्याप्ता लेह ॥ १००. अपज्जत्त-बादर-पृथ्वी-एकेन्द्री, इणहिज रीत कहाय । पर्याप्ता पिण इमहिज कहिवा, फर्शद्री प्रयोग ताय ।। १०१. सूक्ष्म-बादर-अपज्जत पज्जत्ता, चिउं भेद करि ताय । फर्शद्री प्रयोग-परिणता, जाव वणस्सइकाय ॥ १०२. जे अपज्जत्त-बेंद्री-प्रयोग-परिणता, जीभ फर्शद्री तेह । प्रयोग-परिणता पुद्गल कहिये, पर्याप्ता इम लेह ॥ १८. जे अपज्जत्तासुहुमपुढ़वी' त्यादिरिन्द्रियविशेषणश्चतुर्थी दण्डकः । (वृ० ५० ३३२) ६६. जे अपज्जत्तासुहुमपुढ़विकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते फासिदियपयोगपरिणया जे पज्जत्तासुहुमपुढविकाइय एवं चेव । १००. जे अपज्जत्ताबादरपुढ़विकाइय एवं चेव । एवं पज्जत्तगा वि। १०१. एवं चउक्कएणं भेदेण जाव वणस्सतिकाइया । (श० ८।३२) १०२. जे अपज्जत्ताबेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदिय फासिदियपयोगपरिणया, जे पज्जत्ताबेइंदिय एवं चेव। १०३. एवं जाव चउरिदिया, नवरं-एक्केक्कं इंदियं वड्ढेयव्व । (श० ८।३३) १०४. जे अपज्जत्तरयणप्पभपढ़विनेरइयपंचिदियपयोग परिणया ते सोइंदिय-चक्खिंदिय-घाणिदिय-जिब्मिदिय फासिं दियपयोगपरिणया । १०३. एवं जाव चउरिद्रिया कहिया, णवरं इक-इक तास । इंद्रिय अधिक बधावणी जेहन, यावत हिये विमास ॥ १०४. अपज्जत्त प्रथम नरक पंचेंद्री, प्रयोग-परिणता जेह । श्रोत्र चक्ष घ्राण जीभ फर्श द्रिय, प्रयोग-परिणता तेह॥ *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण ३१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ एवं पज्जत्तगा वि । एवं सव्वे भाणियव्या। १०५. पर्याप्ता पिण इमहिज कहिवा, प्रथम नरक जिम जाण । सर्व नरक भणवी इण रीते, इंद्रिय पंच पिछाण ॥ १०६. तिरि पंचेंद्री मनुष्य में देवा, जाव पर्याप्त जेह । सर्वार्थसिद्ध जाव परिणता, पंच इंद्रिय परिणतेह ॥ १०६. तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा जाव जे पज्जत्तासव्वट्ठ सिद्धअणुत्तरोववाइय जाव (सं० पा०) परिणया ते सोइंदिय-चक्खिदिय-पयोगपरिणया। (श० ८।३४) १०७. अपज्जत्त-सूक्ष्म-पृथ्वि ले, शरीर इंद्रिय जाण । एह विशेषण बिहुं तणुं, पंचम दंडक आण ॥ १०८. *जे अपज्जत्त-सूक्ष्म-पथ्वि-एकेंद्री, ओदारिकादिक तत्थ । तीन शरीर प्रयोग-परिणता, ते फर्शद्री परिणत्त ॥ १०६. इमज पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वी, बादर अपज्जत्त एम । बादर-पृथ्वी-पर्याप्त इमहिज, कहिवा पूरव जेम ॥ ११०. इण आलावे करिनैं जेहन, जेतली इंद्री होय । जेता शरीर हुवै ते कहिवा, जाव सव्वट्ठसिद्ध जोय ॥ १११. पर्याप्ता जे सव्वदसिद्ध नां, वैक्रिय तेजस तत्थ । कार्मण शरीर प्रयोग-परिणता, ते पंच इंद्रिय परिणत्त ।। १०७. 'जे अपज्जत्ता सुहुमपुढ़वी' त्यादिरौदारिकादिसरीर स्पर्शादोन्द्रियविशेषणः पञ्चमः । (वृ० ५० ३३२) १०८. जे अपज्जत्तासुहमपृढ़विकाइयएगिदियओरालिय तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते फासिदियपयोग परिणया। १०६. जे पज्जत्तासुहुम एवं चेव । बादरअपज्जत्ता एवं चेव । एवं पज्जत्तगा वि ।। ११०,१११. एवं एतेणं अभिलावेणं जस्स जति इंदियाणि सरीराणि य तस्स ताणि भाणियब्वाणि जाव जे पज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव (सं०पा०) देवपंचिदियवेउब्विय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते सोइंदिय-चक्खिदिय जाव फासिदियप्पयोगपरिणया । (श० ८।३५) ११२. 'जे अपज्जत्ता सुहुमपुढ़वी' त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्श संस्थानविशेषणः षष्ठः । (वृ० प० ३३२) ११३. जे अपज्जत्तासुहुमपुढ़विक्काइयएगिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि । ११४. नील-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलवण्णपरिणया वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया ११२. अपज्जत्त-सूक्ष्म-पृथ्वि ले, वर्ण गंध रस फास । फुन संस्थान विशेषणे, छट्टो दंडक तास ।। ११३. *जे अपज्जत्ता-सूक्ष्म-पृथ्वी, एकद्री प्रयोग-परिणत्त । __ वर्ण थकी ते कृष्णे वर्णे, परिणता तास कथित्त । ११४. नील रक्त पीला मैं धवला, गंध थकी अवलोय । सुगंध करि परिणत पुद्गल, दुर्गंध परिणत पिण होय ॥ वि। ११५. रस थी तिक्त परिणता पिण छै, कटक परिणत जेह । कसाय रस करि परिणत पिण ते, खाटा मीठा तेह ॥ ११६. फर्श थकी कक्खड़ परिणत पिण, यावत लूखा तत्थ । संठाण थी परिमंडल वट्ट फुन, तंस चउरंस आयत्त ॥ ११५. रसओ तित्तरसपरिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि, महुर रसपरिणया वि। ११६. फासओ कक्खडफासपरिणया वि, जाव लुक्खफास परिणया वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि, वट्ट-तंस-चउरंस-आयत-संठाणपरिणया वि । ११७,११८ जे पज्जत्तासुहुमपुढवि एवं चेव । एवं जहाणु पुवीए नेयव्वं जाव जे पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि। (श० ८।३६) ११७. जे पज्जत्तग सूक्षम पृथ्वी, एवं चेव सुदिट्ठ । इम जिम अनुक्रम करने जाणवू, जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठ। ११८. जे पर्याप्ता सव्वट्ठसिद्ध नां, जाव परिणता जाण । तेह वर्ण थी कृष्ण परिणता, जाव आयत संठाण ॥ *लय : कनकमंजरी चतुर विलक्षण श०८, उ०१, ढा० १३० ३११ Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. ओदारिक आदिक तन, वर्णादिक अवलोय । ए बिहुँनेज विशेषणे, सप्तम दंडक सोय ।। १२०. *जे अपज्जत्ता सूक्षम-पृथ्वी, एकेंद्रिय छै तत्थ । ओदारिक तेजस नै कार्मण, तन-प्रयोग-परिणत्त । १२१. तेह वर्ण थी कृष्ण-परिणता, जाव आयत-परिणत्त । जे पर्याप्ता सूक्षम-पृथ्वी, एवंविध अवितत्थ ॥ ११६. एवमौदारिकादि शरीरवर्णादिभावविशेषणः सप्तमः । (वृ० प० ३३२) १२० जे अपज्जत्ता सुहुमपुढ़विक्काइयएगिदियओरालिय तेया-कम्मासरीरपयोगपरिणया। १२१. ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयत संठाणपरिणया वि । जे पज्जत्ता सुहुमपुढविक्काइय एवं चेव । १२२, १२३. एवं जहाणुपुवीए नेयव्वं, जस्स जइ सरी राणि जाव जे पज्जत्ता-सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिदियवेउब्विय-तेया-कम्मा सरीरपयोगपरिणया । १२४. ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि। (श० ८।३७) १२२. इम जिम अनुक्रम करि नैं जाणवू, पूरव जेम सुदिट्ठ । जेहन जेता तनु ते भणवा, जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठ ।। १२३. जेह पर्याप्त सव्वदसिद्ध नां, देव पंचेंद्रिय देख । वैक्रिय तेजस कार्मण तन जे, जाव परिणता पेख ॥ १२४. तेह वर्ण थी कृष्ण वर्ण नै, पुद्गल-परिणत होय । जाव आयत-संठाण-परिणता, सप्तम दंडक सोय ।। १२५. इन्द्रियवर्णादिविशेषणोऽष्टमः । (वृ० प०३३२) दूहा १२५. अपज्जत्त-सूक्ष्म-पृथ्वि ले, इंद्रिय नैं वर्णादि । तास विशेषण नो हिवै, अष्टम दंडक आदि ।। १२६. जे अपज्जत्ता-सूक्षम-पृथ्वी, एकेंद्रिय अवलोय । फर्श द्रिय प्रयोग-परिणता, तेह वर्ण थी जोय ॥ १२७. कृष्ण वर्ण यावत आयत हि, संठाण-परिणता देख । पर्याप्ता-सूक्षम-पृथ्वी पिण, एवं चेव संपेख ॥ १२८. इम जिम अनक्रम पूर्व कह्यो तिम, जेहनै जेतली दिदै । इंद्रिय छ तसु भणवी तेतली, जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठ। १२६. पर्याप्ता जे सव्वदृसिद्ध वर, जाव पंचेंद्रिी पेख । श्रोतेंद्रिय जावत फर्श द्रिय-परिणता पुद्गल शेष ।। १३०. तेह वर्ण थी कृष्ण-परिणता, जाव आयत-संठाण । परिणता पिण पुद्गल आख्या छ, अष्टम दंडक जाण ॥ १२६. जे अपज्जत्तासुहुमपुढ़विक्काइयएगिदियफासिदिय पयोगपरिणया ते वण्णओ । १२७. कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पज्जत्तासुहुमपुढ़विक्काइय एवं चेव । १२८, १२६. एवं जहाणपुवीए जस्स जति इंदियाणि तस्स तति भाणियव्वाणि जाव जे पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिदियसो - तिदिय जाव फासिदियपयोगपरिणया। १३०. ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि। (श० ८।३८) दूहा १३१. अपज्जत्त-सूक्ष्म-पथ्वि ले, तन इंद्रिय वर्णादि । तास विशेषण नों हिवै, नवमों दंडक साधि ।। १३२. *जे अपज्जत्ता-सूक्षम-पृथ्वी, एकेंद्रिय अवलोय । तीन शरीर अनैं फर्शद्री, प्रयोग-परिणता सोय ॥ १३३. तेह वर्ण थी कृष्ण-परिणता, जाव आयत-संठाण । पर्याप्ता-सूक्षम-पृथ्वी नां, एवं चेव पिछाण ॥ *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण १३१. शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवमः । (वृ० ५० ३३२) १३२. जे अपज्जतासुहुमपुढविक्काइयएगिदियओरालिय तेया-कम्मापासिंदियपयोग-परिणया । १३३. ते वणो कालवणपरिणया वि जाव आयतसंठाण परिणया वि । जे पज्जतासुहमपुढविक्काइय एवं चेव। ३१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४. इम जिम अनुक्रम पूर्व कह्यो तिम, जेहनें जेतला जाण । तनु इंद्री तसु कहियै तेतली, जावत इम पहिछाण ॥ १३५. पर्याप्ता जे सब्बट्टसिद्ध अण, जाव सुर पंवेंद्रो पिछाण । वैक्रिय तेजस ने कार्मण, इंद्रिय पंच सुजाण ॥ १३६. ते वर्ष थी कृष्ण परिणता, जाब आयत-संठाण । परिणता पिण पुद्गल आख्या छै, ए नवमो दंडक जाण ॥ १३७. * प्रयोग-परिणता नां नव आख्या दंडक ऐन । श्री जिनराज तणां वच सरध्यां मुक्ति-वधू चित चैन ॥ १३८. पुद्गल मीसा-परिणता प्रभुजी ! आख्या कितले भेद ? जिन कहै पंच प्रकार परूप्या, सांभल आण उमेद || ( मीसा पुद्गल एह कह्या जिन । ) १३६. एकेंद्रिय मीसा-परिणत पिण, जाव पंचेंद्रिय मीस | प्रभु! एकेंद्री - मीसा - परिणता, पुद्गल कतिविध दोस ? १४०. जिन कहै पंच प्रकार परूप्या, नव दंडक आख्या तिमहिज नव, प्रयोग- परिणत जेम । मीसा- परिणत एम ॥ " , १४१. वरं मीसा-परिणता भगवा शेष तिमज कहिवाय । पूर्व ठाम प्रयोग-परिणता यहां मोसा-परिणताय ।। १४२. जाब पर्याप्त जेह सम्बद्धसिद्ध जाव आयत-संठाण । तेह परिणता पिण होवै छै, ए नव दंडक जाण ॥ १४३. ए न दंडक विद्ये जीव जे मुक्या पुद्गल तेह | ते मीसा- परिणता कहीजे, जीव-मुक्त तन् एह ॥ १४४. हे भगवंत ! वीससा - परिणता, पुद्गल कितै प्रकार ? जिन कहै पंच प्रकार परूप्या, ते कहियै अधिकार ॥ ( एह स्वभावे परिणम्या पुद्गल ) १४५. वर्ण-परिणता गंध- परिणता, रस-परिणता रेख । फास-परिणता भेद चतुर्थी, संठाण-परिणता शेष ॥ १४६. वर्ण-परिणता पंच प्रकारे, कृष्ण-वर्ण- परिणत । जाब शुक्ल वर्णे परिणत बहु, गंध द्विविध अवितत्थ । १४७. जे पद्मवणा धूर पद दाख्या, तिमज सर्व कहिवाय । यावत चरम सूत्र जिह्वां एह सांभलज्यो चित त्याय ॥ *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण १२४. एवं महापुब्बीए जस्स जति सरीराणि इंदियाणि य तस्स तति भाणियव्वाणि जाव । १३५. जे पज्जत्तासब्बट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेव पंचिदियवे उब्विय तेया- कम्मा-सोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया । १३६. ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि। १३७. एते नव दंडगा । (१००३९) १३८. मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा १३. गिदियमीतापरिणया जाव पंचिदियमीसापरिणया । (०८४०) एमिदियमीसापरिणयाणं मंते ! पोला कतिविहा पण्णत्ता ? १४०. एवं जहायोगपरिणएहि नव दंडगा भणिया, एवं मीसा-परिणएहि वि नव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेसं । १४१. नवरं - अभिलावो मीसापरिणया भाणियव्वं, सेसं तं चेव । १४२. जाव जत्तासच्च दृसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव आयतसंठाणपरिणया वि । (श० ८।४१.) १४४. वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा १४५. वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिगया, संठाणपरिणया । १४६. जे वण्णपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाकालवण्णपरिणया जाव सुक्किलवण्णपरिणया । जे गंधपरिणया ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा सुभि परिया, दुगंधपरिणया १४७. एवं जहा पण्णवणाए ( पद १४ ) तहेव निरवसेसं जाव । श० उ० १, ठा० १३० ३१३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८. जे संठाण थी आयत-परिणता, वर्ण थकी पिण तेह । कृष्ण-परिणता यावत लखा, फर्श-परिणता जेह ।। १४६. अंक इक्यासी नो देश कह्यो ए, एक सौ तीसमी ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल ।। १४८. जे संठाणओ आयतसंठाणपरिणया ते वण्णओ . कालवण्णपरिणया वि जाव लुक्खफासपरिणया वि । (श० ८।४२) ढाल : १३१ १. अथैकं पुदगलद्रव्यमाश्रित्य परिणामं चिन्तयन्नाह (वृ० प० ३३२) २. एगे भंते ! दब्वे किं पयोगपरिणए? मीसापरिणए? वीससापरिणए ? ३. गोयमा ! पयोगपरिणए वा मीसापरिणए वा वीससापरिणए वा। (श० ८।४३) ४. जइ पयोगपरिणए कि मणपयोगपरिणए ? वइपयोग परिणए ? कायपयोगपरिणए ? १. हिव इक पुद्गल द्रव्य जे, ते आश्री परिणाम । चितवन करता छता, पूछ गोतम स्वाम ।। २. *एगे भंते ! द्रव्य-पुद्गल पहचाहिए, तेह भणी स्यूं प्रयोग-परिणत माणियै । अथवा मीसा-परिणत तिण नै दाखियै, के वीससा-परिणते वचन इक आखिय? ३. श्री जिन भाखै प्रयोग-परिणत भाखिये, और मीससा-परिणत पिण ते आखियै । अन वीससा-परिणत ते द्रव्य जाणिय, यां तीन रै मांहि वचन इक आणियै ॥ ४. जो ते द्रव्य प्रयोग-परिणते ह सही, तो स्यूं मनज-प्रयोग-परिणत तसु कही । वचन-प्रयोग-परिणते तास वखाणिय, काय-प्रयोग-परिणत तेहनै जाणिय ? ५. जिन कहै मन-प्रयोग-परिणत छै जिको, अथवा वचन-प्रयोग-परिणत हतिको । अथवा काय-प्रयोग-परिणत तसु कह्यो, यां तीनं नो अर्थ वृत्ति थी इम लह्यो । यतनी ६. मनपणे करी परिणमै तेह, इक पुद्गल परिणम्यो जेह । मन-प्रयोग-परिणत तास, कहिये वर न्याय विमास ॥ ७. भाषा द्रव्य प्रतै जे आम, काय जोगे करी ग्रही ताम । वचन जोगे करी निकलतां, वच-प्रयोग-परिणत हुंतां ॥ ८. ओदारिकादिक जे काय जोग, तिण करिनै ग्रह्या ते अमोघ । ओदारिकादिक नी अवलोय, वर्गणा नां द्रव्य प्रति जोय ॥ *लय : नदी जमुना रै तीर उड़े दोय पंखिया ३१४ भगवती-जोड ५. गोयमा ! मणपयोगपरिणए बा, वइपयोगपरिणए वा, कायपयोगपरिणए वा। (श० ८।४४) ६. 'मणपओगपरिणए' त्ति मनस्तया परिणतमित्यर्थः । (वृ०प० ३३४) ७. भाषाद्रव्यं काययोगेन गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं वाक्प्रयोगपरिणतमित्युच्यते ।। (वृ० प० ३३४, ३३५) ८,६. औदारिकादिकाययोगेन गृहीतमौदारिकादिवर्गणा द्रव्यमौदारिकादिकायतयापरिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते । (वृ०प० ३३५) Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जइ मणपयोगपरिणए कि सच्चमणपयोगपरिणए ? मोसमणपयोगपरिणए? सच्चामोसमणपयोगपरिणए? ११. असच्चामोसमणपयोगपरिणए ? १२. गोयमा ! सच्चमणपयोगपरिणए वा, मोसमणपयोग परिणए वा, सच्चामोसमणपयोगपरिणए वा, असच्चामोसमणपयोगपरिणए वा। (श० ८।४५) १३. जइ सच्चमणपयोगपरिणए कि आरंभसच्चमणपयोग परिणए ? अणारंभसच्चमणपयोगपरिणए ? ६. ओदारिक प्रमख जे काय, तिण करिनै जे परिणत ताय । काय-प्रयोग-परिणत जाण, इम कहिये तास पिछाण ।। १०. *जो मन-प्रयोग-परिणत द्रव्य होवै अछ, स्य सत्य-मन-प्रयोग-परिणत जेह छै । असत्य-मन प्रयोग-परिणत दाखियै, सत्य-मृषा-मिश्र-मन-प्रयोग ते आखियै ॥ ११. असत्यामृषा-मन-प्रयोगज परिणते ? साच झूठ बिहु नां हिज मन व्यवहार ते । प्रश्न चिउं मन जोग तणो गोयम भणे, ___एक द्रव्य जगनाथ ! परिणमै किणपणे ? १२. श्री जिन कहै सत्य-मन-प्रयोगज-परिणते, तथा असत्य-मन-प्रयोग-परिणत द्रव्य ते । तथा मिश्र-मन-प्रयोग-परिणत छ जिको, अथवा मन-व्यवहार-प्रयोगे छै तिको ॥ १३. जो सत्य-मन-प्रयोग परिणत जेह छै, स्यू आरंभ-सत्य-मन-प्रयोगज तेह छ । अणारंभ-सत्य-मन-प्रयोग पिछाणिय ? परिणते सगले ठाम विचारी आणिय ।। १४. सारंभ-सत्य-मन-प्रयोग उवेखिये, असारंभ-सत्य-मन-प्रयोग विशेखियै । समारंभ-सत्य-मन-प्रयोग कहीजिये, असमारंभ-सत्य-मन-प्रयोग लहीजिये ।। यतनी १५. आरंभ जीव-घात अवलोय, सारंभ हणवा नों मन होय । ___ समारंभ कह्यो परिताप, अर्थ तीनूं तणों इम स्थाप । १६. *जिन कहै आरंभ-सत्य-मन-प्रयोग-परिणते, यावत असमारंभ-सत्य-मन द्रव्य ते । इहां आरंभ अणारंभ सत्य मन में कह्यो, सावध निरवद्य एह न्याय गणिजन लह्यो । १७. जो ए असत्य-मन-प्रयोग करी परिणत अछै, __ स्यू आरंभ-मृषा-मन-प्रयोगे जेह छै? जिम सत्य-मन तिम असत्य-मन पिण जाणिय, इम मिश्र-मन व्यवहार-मन इम ठाणिय ।। १४. सारंभसच्चमणपयोगपरिणए ? असारंभसच्चमण पयोगपरिणए ? समारंभसच्चमणपयोगपरिणए ? असमारंभसच्चमणपयोगपरिणए ? १५. आरम्भो-जीवोपघातः..."संरम्भो-वधसंकल्पः समारं भस्तु परिताप इति । (वृ० प० ३३५) १६. गोयमा ! आरंभसच्चमणपयोगपरिणए वा जाव असमारंभसच्चमणपयोगपरिणए वा। (श० ८।४६) १७. जइ मोसमणपयोगपरिणए कि आरंभमोसमणपयोग परिणए ? एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेण वि। एवं सच्चामोसमणपयोगेण वि। एवं असच्चामोसमणपयोगेण वि। (श० ८।४७) यतनी १८. 'अणारंभ असत्य मन जेह, तेह थी पिण पाप बंधेह । मन स्यू' जाणै दिन नै रात, इण में जीव तणी नहिं घात ॥ *लय : नदी जमुना रै तीर उड़े दोय पंखिया श. .बाल १२११५ Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ए मन असत्य आरंभ-रहीत, पिण साद्यव पाप-सहीत । इमहिज मिश्र व्यवहार, सावज्ज जिन आज्ञा बार' ॥ ( ज० स० ) २०. *जो वचन प्रयोग करी ने परिणत ओह . स्यू सत्य वचन-प्रयोग करी परिणत अछे ? मन-प्रयोग कह्यो तिम वच पिण जाणवो, असमारंभ - प्रयोग पिछाणवो ॥ २१. जो काय प्रयोग करी परिणत इक द्रव्य, यावत स्यूं ओदारिक शरीर काय प्रयोग छै ? ओदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोगे करी ? वेक्रिय तनु काय ते प्रयोग करी फिरी ? ते ? आहारक- तनु जे काय प्रयोग- परिणते ? २२. वेक्रिय - मिश्र - शरीर- काय प्रयोग आहारक- मिश्र वारीर-काय प्रयोग है? कार्मण शरीर काय प्रयोगे जोग है ? २३. जिन कहै औदारिक शरीरज काय जे, तास प्रयोग करी परिणत कहिवाय जे। यावत अथवा कार्मण शरीर जाणिये, तेहिज काय प्रयोग थी परिणत ठाणिये ॥ बा०-- वदारिक शरीर हीज पुद्गलखंधरूपपणे करी उपचीयमानपणा थकी काय कहिये, ते औदारिकशरीरकाय । तेह्नों जे प्रयोग ते ओदारिक- शरीरकाय प्रयोग अथवा ओदारिक शरीर नों जे काय प्रयोग ते ओदारिक- शरीर कायप्रयोग । इहां वृत्तिकार का - ए पर्याप्तक नैं हीज हुवै । 'इहां वृत्तिकार जे मत प्रकट कयूँ' ते विरुद्ध । पर्याप्तक अपर्याप्तक बिहुँ नैं विषे पावे ते मार्ट । इहां हीज एक द्रव्य नों सूत्रे पूछा कीधी । तिहां का - जे एक द्रव्य - प्रयोग - परिणत, मीसा-परिणत अथवा वीससा - परिणत । अनैं जे प्रयोगपरिणत ते मन प्रयोग वा वचन प्रयोग वा काय प्रयोग-परिणत पर्छ मन, वचन रा भेद कही का—जे काय प्रयोग- परिणत ते ओदारिक शरीर काय प्रयोगपरिणत जाव कार्मण- शरीर- काय प्रयोग- परिणत । जे ओदारिक- शरीर-काय प्रयोग परिणत ते एकेंद्रिय दारिक- सरीर का प्रयोग-परिणत जाव पंचेन्द्रिय-ओदारिकशरीर का प्रयोग-परिणत जे एकेंद्रिय मदारिक शरीर का प्रयोग-परिणत ते पृथ्वीकार्य एकेंद्रिय ओदारिक शरीर का प्रयोग-परिणत जाव वनस्पतिकायएकद्रय दारिक शरीर काय प्रयोग- परिणत जे पृथ्वी एकेंद्रिय ओदारिक- शरीर काय प्रयोग- परिणत ते सूक्ष्म पृथ्वीकाय जाव परिणत अथवा बादर-पृथ्वीकाय जाव परिणत जे सूक्ष्म पृथ्वीका जाव परिणत ते पर्याप्त पृथ्वीका जाय परिणत अथवा अपर्याप्ता सूक्ष्म पृथ्वीकाय जाव परिणत इम बादर पिण । सूपक अप वियेोदारिक शरीर काय प्रयोग को 'सेमा वृति में पर्याप्त में हीन ए हुने इम का विरुद्ध' (ज० स० ) लय नवी जमुना रे तोर उड़े दो पंखिया २१६ भगवती-जोह २०. जइ वइपयोगपरिणए कि सच्चवइपयोगपरिणए ? मोसesपयोगपरिणम् ? एवं जहा मणययोगपरिणए तहा वइपयोगपरिणए वि जाव असमारंभवइपयोग परिगए वा । (०८४८) २१. जर काययोगपरिषए कि ओरालिपसरी रकायपयोगपरिणए ? ओरानियमोसासरीरकाययोगपरिए ? उव्वयसरी काययोगपरिगए ? २२. यमीसासरीरका पपयोगपरिगए ? आहारसरीरकायपयोगपरिणए ? आहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए ? कम्मासरीरकायपयोगपरिणए ? २३. गोयमा ! ओरालियस री रकायपयोगपरिणए वा जाव कम्मासरीरकायपयोगपरिणए वा । (०४९) औदारिकशरीरमेव पुद्गलकरूपत्वेनोपचीमानत्वात् काय औदारिकशरीरकायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स तथा । अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत् परिणतं तत्तथा । ( वृ० प० ३३५ ) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारातियमिस्सा सरीरकावयओगपरिणए ओदारिकन उत्पत्ति काल ने विषे असंपूर्ण छतो मिश्र कार्मण करिकै ते ओदारिक मिश्र, तेहीज ओदारिक- मिश्रक, ते लक्षण शरीर ते ओदारिक मिश्रक शरीर । तेहीज काय, तेहनों के प्रयोग अथवा ओदारिक-मिन शरीर नों जे काय प्रयोग ते दारिक मिश्रक- शरीर काय प्रयोग । तिण करिकै परिणत जे ते ओदारिक-मिश्रक-शरीरकाय प्रयोग - परिणत । ए बली ओदारिक- मिश्रक- शरीर- काय प्रयोग उत्पत्ति काले ह से अपर्याप्त में हीज जाणवो । जीव, अतर कहितां व्यवन भी अनंतर ते अंतर रहित एतले प उत्पत्ति समय कार्मण जोगे करी आहार लिये तिण उपरंत मिश्र करिके आहार लिये ज्यां लगं शरीर नीपजे त्यां लगे इति गाथार्थः । इम प्रथम कार्मण करिकै ओदारिक शरीर नों मिश्र उत्पत्ति आश्री कह्यो, तेनां प्रधानपणां थकी । वली जिवारे ओदारिकशरीरी वैक्रिय-लब्धि सहित मनुष्य अन पंचेंद्रिय तिर्यञ्च तथा पर्याप्त बादर-वायुकायिक वैक्रिय करें, तिवार ओदारिक काययोग होग वर्तमान प्रदेशां पते विक्षेपी ने मंत्रिय शरीर योग्य पुद्गल प्रतं ग्रही नैं ज्यां लगे वैक्रियशरीर सम्पूर्ण न थयो त्यां लगे वैक्रिय करिकै ओदारिक शरीर नों मिश्रपणो । प्रारम्भकपणे करी ते ओदारिक ने प्रधानपणां थकीज ओदारिक मिश्र कहिये । इम आहारक करिकै पिण ओदारिक शरीर नों मिश्रपणो जाणवो । - वेव्वियसरी रकायप्पओगपरिणए - वैक्रिय शरीर काय प्रयोग- परिणत 1 इहाँ वृत्तिकार को—त्रिय वारीर काय प्रयोग क्षेत्रिय पर्याप्त हुए पिण विरुद्ध । इण वैक्रिय नैं अधिकारे हीज वैक्रिय शरीर काय प्रयोग देवता नां पर्याप्तक, अपर्याप्त विद्धं मैं कह पुं तिहां हवं एह पाठ - जाव पज्जत्तासम्बद्वसिद्धअणुत्तरोववाइय कप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिदिययेउसिरीरकायपयोगपरिणाए वा अपजत्ता सव्यद्धसिद्ध जाव कापपयोगपरिणते वा । इहां कह युं - सर्वार्थसिद्धि नां देवता पर्याप्ता, अपर्याप्ता बिहु में वैक्रिय शरीर काय प्रयोग हुवे । ते माटै वृत्ति में वैक्रिय शरीर काय प्रयोग पर्याप्तक में हीज कह, युं, ते विरुद्ध । 'वे उव्वियमीसासरीरकायपयोगप्परिणए ।' ए वैक्रिय - मिश्रक-काय प्रयोग देवता नारकी नैं विषे ऊपजता छता अपर्याप्ता नैं । तेहनों मिश्रपणो वैक्रिय शरीर नैं कार्मण करके ही ह अनं देवता नारकी नां पर्याप्ता ने कार्मण करिकै वैकिय नों मिथन हुवै, माटे देवता नारकी नां पर्याप्ता नैं वैकिय नुं मिश्र न कह्यं । अनै देवता नारकी भवधारणी उत्तर वैक्रिय करें, तिवारै पर्याप्ता नै वैक्रिय नुं मिश्र पन्नवणा सूत्रे कह्यं, छै, पिण ते अप्रधानपणां थकी तेहनुं कथन इहां कह्यं नथी । औदारिकमुत्पत्तिका सम्पूर्ण सत् मिथं कार्म्मणेनेति औदारिकमिश्रं तदेवौदारिकमिश्रकं तल्लक्षणं शरीरमौदारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिक मिश्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीरका प्रयोगस्तेन परिषत यत्तत्तवा, अयं पुनरीधारिक मिकसरी रकावप्रयोगो पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः । जोएण कम्मएवं बहारे अनंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्पत्ती ॥ उत्पत्त्यनन्तरं जीवः कार्मणेन योगेनाहारयति ततो यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः (शरीरपर्याप्तिः) तावदोदारिकमिश्रेणाहारयति । एवं तावत् कार्म्मणेनौदारिक शरीरस्य मिश्रता उत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात् यदा पुनरौदारिकशरीरी वेंक्रियलब्धिसंपन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादरवाकादिको वा जिय करोति तदा औदारिककाययोग एवं वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य शरीरयोग्यान्तानुपादाय याबद् पर्यायान पर्याप्त गच्छति ताणीदारिकशरीरस्य मिता प्रारम्भकत्वेन तस्य प्रधानत्वात्, एवमाहारकेणाप्पीदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति । इह शिरकावायोगो पिर्याप्तकस्येति इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेषूत्पद्य मानस्यापर्याप्तकस्य मित्रता ने त्रिशरीरस्य कार्मनैव । ( ० प० २३५) उत्तरक्रियामे च भवधारणीयं वक्रयमिषं तद्वलेनीत्रियारम्भात् भवधारणीयप्रवेशे पोसरयत्रियमिश्र, उत्तरक्रियबलेन भवधारणीये प्रवेशात् । (प्रज्ञा० ० ० ३२४) 1 श० प ० १ ठा० १३१ ३१७ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रतेति । इहाहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरनिर्वृत्ती सत्यां तदानीं तस्यैव प्रधानत्वात् । इहाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारकस्यौदारिकेण मिश्रतायां, स चाहारकत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य, एतदुक्तं भवति-यदाहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिक गलाति तदाहारकस्य प्रधानत्वादौदारिक प्रवेश प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत् सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति । ननु तत्तेन सर्वथाऽमुक्तं पूर्वनिर्वत्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृह्णाति ? सत्यं तिष्ठति तत् तथाऽप्यौदारिकशरीरोपादानार्थं प्रवृत्त इति गृह्णात्येवेत्युच्यत इति । अनं मनुष्य, तिर्यञ्च-पंचेंद्रिय और वायुकाय लब्धि-वैक्रिय परित्याग कर्ये छते ओदारिक प्रवेश काल नै विषे ओदारिक उपादान अर्थे प्रवृत्त्ये छते वैक्रिय नां प्रधानपणां थकी ओदारिक करिकै पिण वैक्रिय मिश्रपणो हुवै । ____ 'आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए।' आहारग-शरीर-काय-प्रयोग-आहारकशरीर नीपन छते ते वेला ते आहारक नां हीज प्रधानपणां थकी आहारक-शरीरकाय-प्रयोग कहिये । 'आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए' आहारक-मिश्रक-शरीर-काय-प्रयोग आहारक अनै ओदारिक नी मिश्रता थी हवे, ते आहारक तजवै करि ओदारिक ग्रहण सन्मुख नैं। एतले जे आहारकशरीरी थई कार्य करी वली ओदारिक प्रति ग्रह ते आहारक नां प्रधानपणां थकी ओदारिक प्रवेश प्रति व्यापार नां भाव थी, ज्यां लगै सर्वथा आहारक न तजै त्यां लगै ओदारिक करिक आहारक नों मिश्रपणो हुवै । इहां शिष्य पूछते ओदारिक शरीर प्रतै तेणे जीवे सर्वथा नथी मूक्यो, पूर्वे ओदारिक शरीर नीपनो रहै छै हीज, ते ओदारिक प्रत किम ग्रहै ? गुरु कहै-सत्य रहै छै, तो पिण ते ओदारिक-शरीर ग्रहण करिवा नै अर्थे प्रवर्तं । इम ग्रहण कर हीज, इमुं कहिये । 'कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए' कार्मण-शरीर-काय-प्रयोग विग्रह गति नै विषे वली केवली समुद्घात प्राप्त नै तीजे चोथै पंचमे समय नै विष हुवै । इम ओदारिक-शरीर-काय-प्रयोगादिक नी व्याख्या कही । वलि मिश्र-कायप्रयोगादिक नीं व्याख्या पंचम कर्म ग्रंथ तेहनी शतक टीका में कही तिम कहै छै-- ओदारिक-मिश्र ते ओदारिक हीज अपरिपूर्ण औदारिक-मिश्र कहिये । जिम गुडमिश्र दधि, गुडपण न कहिय, दधिपणे पिण न कहिये । ते मिश्र दधि' 'गुड' करिक अपरिपूर्णपणां थकी । इम ओदारिक-मिश्र कार्मण करिके हीज ओदारिकपणे करी अन कार्मणपण करी पिण कहि सकिय नहीं। अपरिपूर्णपणां थकी तेहनै ओदारिकमिश्र कहिये । इम वैक्रिय आहारक मिश्र पिण । इति ए शतक टीका नै अनुसारे कह्यो । वैक्रिय करिक ओदारिक मिश्र अनै आहारक करिक ओदारिक मिश्र इमहिज जाणवो तथा ओदारिक करिक वैक्रिय मिश्र अनै ओदारिक करिक आहारक मिश्र इमहीज विचारी कहिवो । सोरठा २४. जो ओदारिक जोय, तन-काय-प्रयोग-परिणते । स्यू एकेंद्री होय, यावत पंचेंद्री अछै ? इह कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति । प्रज्ञापनाटीकानुसारेणौदारिकशरीरकायप्रयोगादीनां व्याख्या, शतकटीकानुसारतः पुनर्मिश्रकायप्रयोगाणामेवं औदारिकमिथ औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्रं दधि, न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत् ताभ्यामपरिपूर्णत्वात्, एवमौदारिकं मिश्रं कार्मणेनैव नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाहारकमिश्रावपीति । (वृ० प० ३३५, ३३६) २५. तब भाखै जिनराय, एकेंद्री तन काय पिण । जाव पंचेंद्री-काय-प्रयोग-परिणत द्रव्य छ । २४. जइ ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए कि एगिदिय___ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए ? जाव पंचिदिय ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए? २५. गोयमा! एगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा जाव पंचिंदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा। (श० ८।५०) २६. जइ एगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए किं पुढ़विक्काइयएगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरि २६. जो एकेंद्री होय, तो स्यूं पृथ्वीकाय छ । जाव वणस्सइ सोय ? जिन कहै पांचू परिणते ॥ ३१८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. जो छै पृथ्वीकाय, स्यूं सूक्षम बादर पृथ्वी? जिन कहै बिहं कहिवाय, यावत प्रयोग-परिणते । णए ? जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए ? गोयमा ! पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा । (श० ८.५१) २७. जइ पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरकायपयोग परिणए कि सुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए ? बादरपुढविक्काइय जाव परिणए ? गोयमा ! सुहुमपुढविकाइयएगिदिय जाव परिणए वा बादरपुढ़विक्काइय जाव परिणए वा। (श० ८।५२) २८. जइ सुहुमपुढ़विक्काइय जाव परिणए कि पज्जत्ता सुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए ? अपज्जतासुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए ? गोयमा ! पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए वा, अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए वा। एवं बादरा वि । २६. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कओ भेदो। २८. जो सूक्षम पृथ्वीकाय, तो पर्याप्ता कै अपज्जत्ता। जिन कहै बिहुँ कहाय, बादर पृथ्वी पिण इमज ॥ २६. जाव वणस्सइ एम, सक्षम बादर भेद बे । पज्जत्त अपज्जत्त तेम, भेद बिहं सगलां तणां ।। ३०. बे० ते० चउरिंद्री ताय, पज्जत्त अपज्जत्त भेद बे। ओदारिक-तनु-काय, प्रयोग-परिणत द्रव्य ते॥ ३१. जो पंचेंद्री होय, स्यु तिरि-पंचेंद्री मनुष्य । जिन भाखै बिहं जोय, यावत परिणत द्रव्य छ । ३०. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं दुयओ भेदो- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । (श० ८।५३) ३१. जइ पंचिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए कि तिरिक्खजोणियपंचिदियओरालियसरीरकायपयोगपरिणए ? मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए ? गोयमा ! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा मणुस्स पंचिदिय जाव परिणए वा। (श० ८।५४) ३२. जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए कि जलचरतिरिक्ख जोणिय जाव परिणए ? थलचर-खहचर जाव परिणए ? ३३. एवं चउक्कओ भेदो जाव खहचराणं । (श० ८।५५) ३२. जो तिरि-पं०इम होय, स्य जलचर तिथंच थलचर खेचर जोय ? पूर्ववत चिउं भेद ते। ए॥ ३३.संमच्छिम बे भेद, पर्याप्त अपर्याप्तो। इम गर्भेज संवेद, च्यार भेद इम कीजिये ।। ३४. जो मनष्य-पंचेंद्री जान, तो संमच्छिम गर्भज मन ? जिन कहै दोन मान, हिव पूछा गर्भेज नीं। ३४. जइ मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए कि संमुच्छिम मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए ? गब्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए ? गोयमा! दोसु वि । (श० ८।५६) ३५. जइ गब्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए कि पज्जत्ता गब्भवक्कंतिय जाव परिणए ? अपज्जत्तागब्भवक्कंतिय जाव परिणए ? ३५. जो गर्भज-मन ताय, तो स्यू पज्जत्त अपज्जत्ता ? ___ जिन कहै बिहुं पाय, ओदारिक जाव परिणते ॥ । . . डा.१३१३१६ Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. ए सह ठाम कहाय, ओदारिक त प्रयोग-परिणत पाय कहियो अथवा ३७. आयो ऊदारीक - शरीर- काय प्रयोग सधीक, कहूं ओदारिक- मिश्र ओदारिक-मीस तन- काय प्रयोगे स्यूं एकेंद्रिय दीस, क यावत परिणत द्रव्य ३८. जो काय जे इक ॥ करि । हिव ॥ परिणते । पंचेंद्रिय ॥ द्रव्य ३९. उत्तर जिन समभाव, जोग ओदारिक आखियो । तिमहिज एह आलाव, जोग ओदारिक-मिश्र नौं । ४०. णवरं बादर वाय, गर्भज- तिरि गर्भोज-मन । पज्जत अपज्जत मांग, जोवारिक नो मिश्र हुवे ।। ४१. शेष तणां सुजगीस, अपर्याप्ता विषेज ओदारिक नो मीस, पर्याप्ता में नहि ४२. जो वैक्रिय शरीर काय प्रयोग तो एकेंद्री मांय, श्री ४३. उत्तर दे जगभाण, एकेंद्री जाव तथा पंचेंद्री जाण, जाव परिणते ४४. जो एकेंद्री मांय, तो स्यू वाऊकाय वलि अवाऊकाय, जाव एकेंद्री करी परिणत पंचेंद्री है । हुवै ॥ हुवै। वैक्रिय ? परिणते । अछै ॥ में । परिणते ? ४५. जिन कहै वाककाय, एकेंद्री जाव नहीं अवाऊलाय, वाऊ विण बेकं ४६. इण आलावे करि जाण, पन्नवण पद इकवीस अवगाहन संठाण, वैक्रिय शरीर तिहां ४७. तिणहिज रीत पिछाण, सर्व पाठ भणवो जाव पर्याप्तक जाण, सर्वार्थसिद्ध लग ४८. पज्जत्त सव्वट्टसिद्ध देव, पंचेंद्री वैक्रिय तनु । काय प्रयोग कहेव, परिणत है इक द्रव्य ते ।। ४६. तथा अपज्जत्ता जाण, सर्वार्थसिद्ध प्रवर सुर । जाव काय पहिछाण, प्रयोग-परिणत २०. जो वे मीस शरीर-काय प्रयोगज स्यू एकेंद्री समीर. कै यावत द्रव्य ते ॥ परिणते । पंचेंद्रिय ॥ १२० भगवती जोड़ परिणते । नहीं ॥ में को॥ इहां । अछे ॥ गोयमा ! पज्जत्तागब्भवक्कंतिय जाव परिणए वा, अपज्जत्ता गव्भवक्कं तिय जाव परिणए वा । ( ० ८५७) ओसरीरका यपयोगपरिए एगिदियओरालियमीसासरी रकाय पयोगपरिणए .....जाव पंचिदियओरालिय जाव परिणए ? ३८. जइ २९. गोयमा ! एगिदिवओरालियमीसासरी रापपयोगपरिणए एवं जहा ओरालियरी काययोगपरिषएवं आलावगो भणिओ तहा ओरालियमीसासरीरकायपयोगपरिगण वि आसावगी भाषियन्यो । ४०. नवरं — बादरवाउक्काइय- गब्भवक्कंतियपंचिदियतिरिक्ष-वक्कतियमानं एएसि पज्जत्तापज्जत्तगाणं । ४१. सेसाणं अपज्जत्तगाणं । किं ? - णं (श० ८५८) ४२. जइ वेउव्वियसरीरकायपयोगपरिणए कि एगिंदिय वे उब्वियसरी रकायपयोगपरिणए ? पंचिदिय वेउब्वियसरीर जाव परिणए ? ४३. गोयमा ! एगिंदिय जाव परिणए वा, पंचिदिय जाव परिणए वा । (५६) ४४. जगदिजाब परिण कि वाउक्काइदिय जाव परिणए ? अव उक्काइयएगिंदिय जाव परिणए ? ४५. गोमा वाक्काइएदिदिय जाव परिणए, तो अवाउनकाइएगिदिय जाव परिणए । ४६. एवं एएवं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे (प० २१ । ५०) वेडव्वियसरीरं भणियं । ४७, ४८. तहा इह वि भाणियव्वं जाव पज्जत्तासव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतावेमाणियदेवपंचिदिय वेउव्वियसरी कायपयोगपरिणए वा । वा । ४६. अपत्तासम्बसिद्धयत्तरोववाश्य जाव परिणए ( श० ८१६० ) ५०. जइ वे उब्वियमी सासरी रकायपयोगपरिणए कि एनिकायपयोगपरिणए ? जावपंचिदिय मीसासरीरकोपयोगपरिषए ? Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. आख्यो वैक्रिय णवरं एम, । है। वैक्रिय जेम, कहिवो वैक्रिय-मित्र तिम विशेष वैक्रिय-मिश्र केहन ? ५२. सुर नारकी अपज्जत, मिश्र वैक्रिय तेह में शेष तज पज्जत्त, जोग वैक्रिय - मिश्र ५३. 'इहां वैकिय-मीस, देव नारको नैं विषे । अपर्याप्त कहीस, पर्याप्ता में ५४. अपज्जत्त उत्पत्ति ताहि, मिश्र कार्मण पूर्ण वैक्रिय नांहि वैकिय-मिय पर्याप्त वेक्रिय तन् नहि कह्यो । जोग करि । त्यां लगे ॥ भवधारणी । ५५. नारक सुर उत्तर वैक्रिय व्याप्त करता ने बलि पेसतां ॥ ५६. भवधारणी तद्रूप, करतां उत्तर वैक्रिय । पूर्ण न थयो रूप, त्यांलग क्रियनुं मिश्र ॥ ५७. उत्तर-वैक्रिय धार, भवधारणी में उत्तर-किय नं विचार, करतां पेसतां । मिश्र ॥ कहिये तिणवार, छै ५८. भवधारणी उत्तर - वैक्रिय । नुं मिथ ॥ वचन रा । सदा ॥ वलि पेसतां धार, कहिये वैकिय ५९. नारक सुर सुजगीस, चितं मन ने चि वैक्रिय वैक्रियमीस, वैकियमीस, ए दस बहु बचने ६०. उत्पत्ति विरह निहाल, तिण वेला पिण ए दसू । पन्नयण सूत्र विशाल सोलम पद में आखियो' । पर्याप्त वैक्रिय मिश्र है । तास कथन इहां नांय, अप्रधानपणो ते ६२. भवधारण ६१. सुर नारकी इण न्याय, वेत्रैह, उत्तर वैक्रिय तिण वैक्रिय बिहुं कहेह, तिण सूं प्रधानपणो ६३. कार्मण जोगे मीस, तास प्रधानपणें अपर्याप्त कहीस, पर्याप्ता में ए ६४. नारक सुर इण न्याय, कार्मण करि नहीं पर्याप्त माय, तिण आश्रमी ए ६५. मनष्य तिर्यच पर्याप्त वैक्रिय शरीर करे तिको। करिया लागो वैक्रिय ॥ वैक्रिय पाठ है ॥ पूर्व ओदारिक व्याप्त, ६६. पूर्ण वैक्रिय नाहि, ओदारिक मिश्र यां लगे। ओदारिक नो ताहि, प्रधानपणुं छै ते भणी । - , भणी ॥ कियो । नहीं ॥ करी । नहीं ॥ मिश्र । १. प्रयोग गति के पन्द्रह प्रकार बतलाए गए हैं । नारक और देवों में उन पन्द्रह प्रकारों में से ग्यारह प्रकार पाए जाते हैं। यह उल्लेख पण्णवणा १६।२० में है । प्रस्तुत ढाल के ५६ वें और ६० वें पद्यों में जयाचार्य ने नारक और देवों के योग के दस प्रकार बतलाए हैं। यह विसंगति नहीं, विवक्षा है । नारक और देवों में कार्मण योग अपर्याप्तावस्था में ही होता है, उसके बाद नहीं । उसकी विवक्षा न करने के कारण यहां उनमें दस योग बतलाए गए हैं । २१. एवं जातिहा मी वि नवरं ५२. देवनेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पज्जत्तगाणं । श० ८०० १, डा० १३१ ३२१ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. प्रवेश करतां जोय, प्रधानपणो वैक्रिय तणो । तिण कारण अवलोय, जोग वैक्रिय मिश्र ए। ६८. इहां ओदारिक नों भेल, वैक्रिय पुदगल साथ जे । जे मनष्य तिर्यंच सुमेल, ओदारिक वैक्रिय मिश्र ॥ (ज० स०) ६६. जाव पर्याप्त जेह, सर्वार्थसिद्ध सूर प्रवर । जाव परिणत नहिं एह, वैक्रिय मिश्र प्रयोग प्रति । ७०. अपर्याप्त समीर, सव्वदृसिद्ध पंचेंद्रिय । वैक्रिय मिश्र शरीर, काय प्रयोगे परिणते ।। ७१. जो आहारक-तनु-काय-प्रयोग-परिणत द्रव्य ते । स्यू' मनुष्य आहारक थाय, कै मनुष्य बिना आहारक हुवै ? ७२. जिम ओगाहण संठाण, पन्नवण पद इकवीस में । यावत ऋद्धिपत्त जाण, प्रमत्तसंयत सम्यक्-दृष्टि ।। ७३. पर्याप्त संखेज्ज वास, आय तणो धणी तिको । आहारक शरीर तास, काय प्रयोगे परिणते ॥ ६६. जाव नो पज्जत्तासम्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणए ७०. अपज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिदियवेउ ब्वियमीसासरीरकायपयोगपरिणए। (श० ८।६१) ७१. जइ आहारगसरीरकायपयोगपरिणए कि मणुस्साहार गसरीरकायपयोगपरिणए ? अमणुस्साहारग जाब परिणए ? ७२,७३. एवं जहा ओगाहणसंठाणे (प० २११७२) जाव इड्ढ़िपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय जाव परिणए ‘जहा ओगाहणसंठाणे' त्ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमपदे। (वृ० प० ३३६) ७४. नो अणिढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तसंखेज्ज वासाउय जाव परिणए। (श० ८।६२) ७५. जइ आहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए कि मणुस्साहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए ?' ७६. एवं जहा आहारगं तहेव मीसग पि निरवसेसं भाणियब्वं । (श० ८।६३) ७४. रिद्ध पाम्या विण तास, प्रमत्त-संयत सम्यकदृष्टि । पर्याप्त संखेज्ज वास, आहारक जाव परिणत नहीं । ७५. जो आहारक मिश्र तन काय, प्रयोग करि परिणत हुई। तो मनुष्य विषे कहिवाय, कै मनुष्य विना आहारक मिश्र? ७६. आहारक आख्यो जेम, तिमहिज आहारक-मिश्र पिण। समस्त भणवो तेम, वृत्तिकार तिहां इम कह्म ॥ ७७. आहारक करत जगीस, पूर्ण न थये पूतलो । ओदारिक नों मीस, प्रधानपणो ओदारिक नों। ७८. आहारक तन निपजाय, ते कार्य करि पुनरपि । ओदारिक नां ताय, ग्रहण करै पुद्गल प्रतै ॥ ७६. प्रवेश में व्यापार, प्रधानपणों आहारक तणों । आहारक मिश्र तिवार, ऊदारिक सह मिश्रता ॥ ५०. जो कार्मण शरीर काय-प्रयोग करि परिणत हई। स्यू एकेंद्री थाय, कै यावत पंचेंद्रिय ? ७८,७६. यदा आहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौ दारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदरिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत्सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति', (वृ०प० ३३५) ८०. जइ कम्मासरीरकायपयोगपरिणए कि एगिदियकम्मा सरीरकायपयोगपरिणए ? जाव पंचिदियकम्मासरीर कायपयोगपरिणए ? ८१. गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायपयोगपरिणए, एवं जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इह वि १. पृ० ३१८ के दूसरे पेराग्राफ में वृत्ति का यह अंश उद्धृत है । किन्तु यहां जोड़ की गाथाओं में वही प्रसंग उल्लिखित है। इसलिए वृत्ति का वही अंश यहां उद्धृत किया गया है। ८१. भाखै तब जगभाण, एकेंद्रिय कार्मण तन । जिम ओगाहण संठाण, भेद कार्मण तिम इहां ।। ३२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुत्तर पर्याप्त सव्वट्ट-अणुत्तर उत्पन्न जाव सुर । पंचिदि-कम्मत दिद्रु काय प्रयोगे परिणते ॥ ३. अपर्याप्ता विचार, सव्वदुसिद्ध तणां । जाव परिणते धार, विकल्प करि इक द्रव्य ते ॥ वा० - 'इहां सर्वार्थसिद्ध नां देवता में पर्याप्ता में अथवा अपर्याप्ता में कार्मण का ते कार्मण शरीर जाणवो । पिण कार्मण जोग नो इहां कथन नथी । जे भणी तेहना अपर्याप्ता में कार्मण न हुवै, ते मार्ट इहां कार्मण जोग नो कथन न संभवे । पन्नवणानां इक्कीसमा पद नै विषे पिण कार्मण शरीर की शरीर इह सेखवणो।' ( ज० स० ) ८४. जो मीसा-परिणत होय, स्वं मन मीसा-परिणते ? वच मिश्र-परिणत जोय, काय-मिश्र-परिणत हुई ? श्री जिनराय, ५. भा मन मीसा-परिणत हुई । तथा वचन-मिश्र थाय, काय मिश्र-परिणत तथा ॥ ८६. जो मन मिश्र जगीस, जमीस, स्वं सत्य-मन-मीसा हुई ? के असत्य-मन-मीस के मिश्र मनपरिणत हुई ॥ ८७. प्रयोग- परिणत जेम, मीसा-परिणत पिण तिमज । भणवो समस्त एम, जाव पज्जत्ता सम्वसिद्ध | ८८. अणुत्तर उत्पन्न जोय, जाव देव पंचेंद्रिय । कर्मशरीरा सोय, मीसा-परिणत ह ह्वं तथा ॥ ८९. अपयता अपर्याप्ता विचार, सर्वार्थसिद्ध जाव ते । परिणत छै इक द्रव्य तथा ॥ परिणत ए स्वभाव करि । गंध रस फर्श संठाण ते ? वर्ण - परिणत द्रव्य इक । अथवा रस-परिणत हुई । ८२. जाव aε. करि । कर्म मिश्र अवधार, १०. जदि वीससा जोय, तो वर्ण- परिणत होय, ६१. आखे जिन अवितत्थ, तथा गंध-परिणत, ६२. अथवा परिणत फास, अथवा ठाणे परिणत होवे तास, एक द्रव्य पुद्गल तणो ॥ ६३. जो वर्ण- परिणत होय, तो स्यूं परिणत कृष्ण वर्ण । नील पीत अवलोय, रक्त शुक्ल परिणत हुई ? ४. भाखै श्री जिनराय, कृष्ण वर्णं परिणत हुई । अथवा जाव कहाय, शुक्ल वर्ण परिणत अछै ॥ ६५. जो गंध-परिणत होष, सुगंध दुर्गंध परिणत ? जिन कहै सुगंध जोय, अथवा दुर्गंध परिणते ॥ १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ८६ में मिश्र-परिणत मन के तीन भेद स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। सामने उद्धृत पाठ में समर्पण का पाठ है । इससे मूल प्रतिपाद्य में कोई अन्तर नहीं आता । २. यहां जोड़ में पाठ पूरा है, किन्तु अंगाणि में संक्षिप्त पाठ है, इसलिए सामने उसी को उद्धृत किया है। अगली गाथा में जोड़ भी संक्षिप्त पाठ के आधार पर है । २.व्यसिद्धअत्तरोषवाय कप्पातीतवैमाणियदेवचिदियकम्मास कपयोग परिषए था। ८३. अपज्जत्तासव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाहय जाव परिणए (श० ८/६४ ) वा । ८४. जइ मीसापरिणए कि मणमीसापरिणए ? वइमीसापरिणए ? कायमीसापरिणए ? ८५. गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वइमीसापरिणए वा, कायमीसापरिणए वा । (०८६५) ६. ज मणमीसापरिणए कि सच्चमणमीसापरिणए ? मोसम मी सापरिणए ? ८७८८. जहा पयोगपरिणए तहा मीसापरिणए वि भाषियन्वं निश्वसेस जाव पज्जन्तासम्बद्धसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देव ंचिदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा १. अपजतासिद्धअणुतरोयवाश्य जाय कम्मासरीरमीसापरिणए वा । (श०६६) १०. जर बीचसापरिषए कि वष्णपरिणए ? परिणए ? रसपरिणए ? फासपरिषए ? संठाणपरिणए ? ६१. गोयमा ! यणपरिगए वा गंधपरिए वा रसपरिपए वा १२. फासपरि वा संठाणपरिणए या (०८६०) ६३. जइ वण्णपरिणए कि कालवण्णपरिणए जाव सुक्कि लवण्णपरिणए ? २४. गोयमा ! कालवण्णपरिणए वा जाव सुक्किलवण्णपरिणए वा । (To Cite) ६५. ए कि मुब्धिपरिणए ? मगंध परिष? गोयमा ! सुब्भिगंधपरिणए वा दुब्भिगंध परिणए (०८६१) वा । ० उ० १, ढा० १३१ ३२३ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. जइ रसपरिणए कि तित्तिरसपरिणए ? पुच्छा। ६७. गोयमा ! तित्तिरसपरिणए बा, जाव महुररसपरिणए वा। (श० ८७०) ६८. जइ फासपरिणए कि कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए ? ६६. गोयमा ! कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए। (श० ८७१) १००. जइ संठाणपरिणए-पुच्छा। १६. जो रस-परिणत रेख, स्य तीखै रस परिणते ? पूछा तास संपेख, पांचूइ रस नी करी ॥ ६७. भाखै श्री जगभाण, तिक्त रसे परिणत हई । अथवा यावत जाण, परिणत मधुर रसे करी॥ १८. जो परिणत है फास, स्यू कक्खड़ परिणत हुई ? यावत लक्ख विमास, पूछा ए एक द्रव्य नीं॥ ६६. भाखै श्री जिन भेव, कक्खड़ फर्श परिणते । अथवा जाव कहेव, लक्ख फर्श करि परिणते ॥ १००. जो परिणत संठाण, तो परिमंडल वट वलि । परिणत तंस पिछाण, चउरंस आयत परिणते ? १०१. उत्तर दे जिनदेव, परिमंडल परिणत हुई। अथवा जाव कहेब, आयत परिणत द्रव्य इक ।। १०२. *इक द्रव्य आश्री एह त्रिविध करि आखिया, प्रथम जीव प्रयोग परिणते भाखिया । मीसा दूजो भेद के वीससा तीसरो, झीणी चरचा एह चतुर दिल में धरो॥ १०३. अष्टम शतके प्रथम उदेशक देश ही, सौ इकतीसमी ढाल विशाल विशेष ही । भिक्ष भारीमाल ऋषराय पसाय सोभावियो, 'जय-जश' संपति हरष परम सुख पावियो। १०१. गोयमा ! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव आयतसंठाणपरिणए वा। (श० ८।७२) ढाल : १३२ १. अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह- (वृ० प० ३३६) १. पूछा हिव बे द्रव्य नी, श्री गोतम गणखान । देव जिनेंद्र प्रतै कर, उत्तर दे भगवान । २. हे भदंत ! बे द्रव्य, स्यू प्रयोग-परिणता होय? मीस-परिणता छ प्रभु ! वलि बीससा जोय? ३. जिन कहै बे द्रव्य प्रयोग करि, तथा मीस बे चंग । तथा वीससा द्रव्य बे, एक संयोग त्रि भंग ।। ४. इक प्रयोग करि परिणते, मीस-परिणते एक । अथवा एक प्रयोग करि, एक वीससा देख ॥ *लय : नदी जमुना रै तीर उड़े दोय पंखिया १. यहां जोड़ में पाठ पूरा है, पर अंगसुत्ताणि में संक्षिप्त पाठ है । इसलिए सामने वही पाठ उद्धृत किया गया है । ३२४ भगवती-जोड़ २. दो भंते ! दव्वा किं पयोगपरिणया ? मीसा परिणया ? वीससापरिणया ? ३. गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा। ४. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे मीसापरिणए, अहवेगे पयोगपरिणए, एगे वीससापरिणए, Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. अथवा इक मीसा-परिणत, एक वीससा जाण । द्विकसंजोगिक भंग त्रिण, आख्या एह पिछाण ॥ ६. जो प्रयोग करि परिणता, तो स्यू मनः-प्रयोग ? वचन-प्रयोगे परिणता, काय-प्रयोगे जोग ? ७. जिन कहै मन-प्रयोग बिहं, तथा वचन बिहं चंग । तथा काय-प्रयोग बिहुं, एक संजोग वि भंग ।। ८. मन-प्रयोग करि इक द्रव्य, वचन-प्रयोगे एक । अथवा इक मन द्रव्य करी, इक द्रव्य काय संपेख ।। ९. अथवा इक द्रव्य वचन करि, काय प्रयोगे एक । द्विकसंजोगिक ए बिहुँ, आख्या भंग विशेख ॥ १०. *जो मन-प्रयोगे परिणत होय, स्यू सत्य-मन-प्रयोगे जोय । असत्य-मन मिश्र-मन जान, मन असत्यामृषा पिछान ? ११. जिन कहै सत्य-मन-प्रयोग दोइ, अथवा बिहं असत्य-मन होइ । जाव बिहुं द्रव्य मन व्यवहार, इक संयोगिक भंग ए च्यार। १२. अथवा इक द्रव्य सत्य-मन देख, इक द्रव्य असत्य-मन संपेख । अथवा इक सत्य-मन-प्रयोग, इक मिश्र-मन-प्रयोगे जोग ।। ५. अहवेगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए । (श० ८७३) ६. जइ पयोगपरिणया कि मणपयोगपरिणया? वइपयोग परिणया? कायपयोगपरिणया ? ७. गोयमा ! मणपयोगपरिणया वा, वइपयोगपरिणया वा, कायपयोगपरिणया वा। ८. अहवेगे मणपयोगपरिणए, एगे वइपयोगपरिणए, अहवेगे मणपयोगपरिणए, एगे कायपयोगपरिणए । ६. अहवेगे वइपयोगपरिणए, एगे कायपयोगपरिणए । (श० ८।७४) १०. जइ मणपयोगपरिणया कि सच्चमणपयोगपरिणया ? असच्चमणपयोगपरिणया ? सच्चमोसमणपयोगपरि णया? असच्चमोसमणपयोगपरिणया ? ११. गोयमा ! सच्चमणपयोगपरिणया वा जाव असच्चमोस मणपयोगपरिणया वा। १२. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे मोसमणपयोगपरि णए। अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे सच्चमोस मणपयोगपरिणए। १३. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे असच्चमोसमण पयोगपरिणए, अहवेगे मोसमणपयोगपरिणए, एगे सच्च मोसमणपयोगपरिणए १४. अहवेगे मोसमणपयोगपरिणए, एगे असच्चमोसमण पयोगपरिणए, अहवेगे सच्चमोसमणपयोगपरिणए, एगे असच्चमोसमणपयोगपरिणए। (श०८७५) १५. जइ सच्चमणपयोगपरिणया कि आरंभसच्चमणपयोग परिणया? जाव असमारंभसच्चमणपयोगपरिणया ? १६. गोयमा ! आरंभसच्चमणपयोगपरिणया वा, जाव असमारंभसच्चमणपयोगपरिणया वा १७. अवेगे आरंभसच्चमणपयोगपरिणए, एगे अणारंभ सच्चमणपयोगपरिणए । एवं एएणं गमेणं दुयासंजोएण नेयव्वं, सव्वे संजोगा जत्थ जत्तिया उठेति ते भाणियव्वा। १८. तेष्वेकत्वे षड् द्विकयोगे तु पञ्चदश सर्वेऽप्येकविंशतिः । (वृ० ५० ३३७) १६. जाव सव्वट्ठसिद्धगत्ति । (श० ८७६) १३. अथवा इक द्रव्य सत्य-मन-प्रयोग, एक असत्यामृषा-मन-जोग । अथवा इक द्रव्य असत्य-मन, एक मिश्र-मन-प्रयोग जन ॥ १४. अथवा एक मृषा-मन जोय, एक व्यवहारज-मन अवलोय । अथवा इक मिश्र-मन प्रयोग, एक असत्यामृषा-मन जोग ।। १५. जो सत्य-मन-प्रयोग-परिणता, स्य आरंभ-सत्य-मन वर्त्तत्ता ? जावत असमारंभ-सत्य-मन ? षट पद' आरंभ प्रमुख कथन ।। १६. जिन कहै आरंभ-सत्य-मन दोइ, अथवा जावत इहविध होइ। असमारंभ-सत्य-मन बेह, इक संयोगिक षट भंग एह ॥ १७. अथवा आरंभ-सत्य-मन एक, एक अणारंभ-सत्य-मन पेख । दोय संजोगिया भांगा एम, भणवा जे जिहां उठ तेम ।। . १८. वृत्तिकार कही एहवी वाय, एकत्वे षट विकल्प कहिवाय । द्विकसंजोगिया पनर जाणी, एवं सहु इकवीस पिछाणी ।। १९. जाव सव्वट्ठसिद्ध गति सुखदानी, त्यां लग कहिवा छै पहिछानी। एह प्रयोग परिणता पेख, बे द्रव्य आश्री भांगा देख ।। * लय : वनमाला ए निसुणी जाम १.१. आरंभ २. अनारंभ ३. सारंभ ४. असारंभ ५. समारंभ ६. असमारंभ । २०८, उ० १, ढा० १३२ ३२५ Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. जो मीसा-परिणता कहाय, स्यूं मन-मीसा-परिणता थाय ? मीसा-परिणता सुजोय, प्रयोग-परिणता जिम अवलोय ॥ जदि वीससा-परिणता देख, तो स्यं वर्ण-परिणता पेख? गंध-परिणता आदि सुजोय, वीससा-परिणता पिण इम होय॥ २२. जाव तथा समचउरंस एक, एक आयत-संठाण संपेख । द्विकसंयोगिक ए दस भंग, वीससा-परिणत एह प्रसंग ।। २३. हे भगवंत ! तीन द्रव्य जेह, स्यं प्रयोग-परिणता कहेह । मीसा-परिणता तास कहीजै? वलि वीससा-परिणता लीजै ? २४. जिन कहै प्रयोग-परिणता तीन, अथवा मीसा-परिणता चीन। अथवा तीन द्रव्य पिछान, तेह वीससा-परिणता जान ।। २५. अथवा इक द्रव्य प्रयोग जाण, दोय द्रव्य मीसा पहिछाण । अथवा प्रयोग-परिणत एक, दोय वीससा-परिणता देख ।। २६. तथा प्रयोग-परिणता दोय, इक द्रव्य मीसा-परिणत होय । अथवा दोय प्रयोग विशेख, एक वीससा-परिणत देख ।। २७. अथवा इक द्रव्य मीसा होय, अनै वीससा कहिये दोय । अथवा दो मीसा कहिवाय, एक वीससा-परिणत पाय ।। २८. तथा प्रयोगे परिणत एक, इक द्रव्य मीसा-परिणत पेख । एक वीससा-परिणत जाण, त्रिकसंजोगियो एक पिछाण ।। २६. जदि प्रयोग-परिणता जोय, तो स्य मन-प्रयोगे होय । वचन-प्रयोग-परिणता कहिये? काय-प्रयोग-परिणता लहिये? ३०. जिन कहै मन-प्रयोग-परिणता, इहविध भांगा तास वर्त्तता। इकसंयोगिक त्रिण भंग थाय, द्विकसंयोगिक षट कहिवाय॥ ३१. तीन द्रव्य त्रिण पद मे चीन, इकसंयोगिक भांगा तीन । द्विक संयोगिक विकल्प दोय, भांगा तेहनां षट अवलोय ।। २०. जइ मीसापरिणया कि मणमीसापरिणया ? एवं मीसापरिणया वि। (श०८७७) २१. जइ वीससापरिणया कि वण्णपरिणया ? गंधपरि णया? एवं वीससापरिणया वि २२. जाव अहवेगे चउरससंठाणपरिणए, एगे आयतसंठाणपरिणए। (श० ८७८) १३. तिण्णि भंते ! दवा कि पयोगपरिणया? मीसा परिणया? वीससापरिणया? २४. गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा। २५. अहवेगे पयोगपरिणए, दो मीसापरिणया, अहवेगे पयोगपरिणए, दो बीससापरिणया २६. अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीसापरिणए, अहवा दो पयोगपरिणया, एगे वीससापरिणए । २७. अहवेगे मीसापरिणए, दो वीससापरिणया, अहवा दो मीसापरिणया एगे वीससापरिणए। २८. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए। (श० ८७९) २६. जइ पयोगपरिणया कि मणपयोगपरिणया ? वइपयोग परिणया? कायपयोगपरिणथा ? ३० गोयमा ! मणपयोगपरिणया वा, एवं एक्कासंयोगो दुयासंयोगो ३१. तिन्नीत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः द्विकसंयोगे तु षट् । (वृ० प० ३३८) ३२. तियासंयोगो य भाणियब्वो। (श०८।८०) त्रिकयोगे त्वेक एवेत्येवं सर्वे दश । (वृ० प० ३३८) ३३. जइ मणपयोगपरिणया कि सच्चमणपयोगपरिणया ? असच्चमणपयोगपरिणया ? सच्चमोसमणपयोगपरि णया ? असच्चमोसमणपयोगपरिणया? ३४. गोवमा ! सच्चमणपयोगपरिणया वा जाव असच्च मोसमणपयोगपरिणया वा । ३५. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, दो मोसमणपयोग परिणया एवं दुयासंयोगो, ३२. त्रिकसंयोगिक भांगो एक, विकल्प पिण तसु एक संपेख । तीन द्रव्य नां त्रिहुं पद मांय, ए दस मांगा सगला थाय ।। ३३. जो मन-प्रयोग-परिणता होय, स्यू सत्य-मन-प्रयोगे जोय ? इम चिउं मन नीं पूछा जाण, हिव उत्तर देवै जगभाण ।। ३४. त्रिहं सत्य-मन-प्रयोग-परिणता, जावत त्रिहुं व्यवहार वर्त्तता। इकसंयोगिक भांगा च्यार, हिवै द्विकसंयोगिक अधिकार ।। ३५. अथवा सत्य-मन-प्रयोग एक, दोय मृषा-मन-प्रयोग देख । इम द्विकसंयोगिक भंग बार, जूजुआ करिवा न्याय विचार।। सोरठा ३६. चिहं पद सत्य-मनादि, तीन द्रव्य द्विकयोगिका। तसु विकल्प बे साधि, इक विकल्प नां भंग षट। ३६,३७. सत्यमनः प्रयोगादीनि तु चत्वारि पदानीत्यत एकत्वे चत्वारो द्विकसंयोगे तु द्वादश । (वृ० ५० ३३८) ३२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. एहनां विकल्प दोय, षट भांगा दुगना कियां । द्वादश भांगा होय, तेह विचारी कीजिये। ३८. *त्रिकसंयोगिक भंग है च्यार, विकल्प तास एक अवधार।। त्रिण द्रव्य चिहं पद विषे उचार, ए सह भांगा वीस विचार ।। ३६. पूर्व मन वच काया ताम, भेद थकी जे प्रयोग परिणाम । वर्णादिक भेद करी तेह, कह्या वीससा पूर्वे जेह ॥ ४०. तेह इहां पिण कहिवा जोय, अंत सूत्र ए आगल होय । जाव तथा इक तंस संठाण, इक चउरंस आयत इक जाण ॥ ३८. तियासंयोगो भाणियव्वो, त्रिकयोगे तु चत्वार इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति । (व० प०३३८) ३६. तत्र च मनोवाक्कायप्रभेदतोः यः प्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वर्णादिभेदतश्च विधसापरिणाम उक्तः (वृ० प० ३३८) ४०. स इहापि वाच्य इति भावः, किमन्तं तत्सूत्रं वाच्यम्? (वृ० प० ३३८) एत्थ वि तहेव जाव अहवेगे तंससंठाणपरिणए, एगे चउरंससंठाणपरिणए, एगे आयतसंठाणपरिणए । __ (श० ८८१) ४१. इह च परिमण्डलादीनि पञ्चपदानि तेषु चैकत्वे पञ्च विकल्पाः द्विकसंयोगे तु विंशतिः त्रिकयोगे तु दश । (वृ० प० ३३८) ४१. परिमंडलादिक पद है पंच, इकसंयोगिक पंच विरंच । द्विकसंयोगिक वीस विचार, विकसंयोगिक दस अवधार।। सोरठा ४२. परिमंडलादिक संच, त्रिण द्रव्य पंच पद नै विषे । इकसंयोगिक पंच, इक विकल्प है तेहनों। ४३. द्विकसंयोगिक बीस, विकल्प है बे तेहनां । इक विकल्प नां दीस, भांगा दस ह ते भणी ।। ४४. दस भांगा मैं देख, बे विकल्प माटै इहां । दुगणा कोधां पेख, वीस भंग द्विकयोगिका ।। ४५. त्रिण द्रव्य पंच पद स्थान, त्रिकयोगिक दस भंग ह। विकल्प एक पिछाण, सर्व भंग पैतीस इम ॥ ४६. इकसंयोगिक पंच, वोस भंग द्विकयोगिका । त्रिकयोगिक दस संच, सर्व भंग पैतीस इम ।। ४७. *हे प्रभ ! च्यार द्रव्य सं होय, कह्या प्रयोग-परिणता सोय ।। मीस-परिणता कहिये ताय, तथा वोससा ते कहिवाय? ४८. जिन कहै च्यारू प्रयोग-परिणता, अथवा च्यारू मोस-वर्तता । तथा वोससा च्यारू होय इकसंयोगिक ए त्रिण जोय ॥ ४६. अथवा इक प्रयोग पेख, मोस-परिणता विहं द्रव्य देव । अथवा इक द्रव्य प्रयोग जाण, तीन द्रव्य वोससा पिछाण ।। ५०. अथवा दोय प्रयोग-परिणता, बे द्रव्य मोसा विषे वर्त्तता। तथा प्रयोग-परिणता दोय, दोय वीलसा ते अवलोय ॥ ५१. अथवा तोन प्रयोगे पेख, मोसा-परिणत इक द्रव्य देख । अथवा तीन प्रयोगे पिछाण, एक वीससा-परिणत जान ।। *लय : वनमाला ए निसुणी जाम ४७. चतारि भंते ! दव्वा कि पयोगपरिणया? मीसा परिणया ? वीससापरिणया ? ४८. गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, बीससापरिणया वा । ४६. अहोगे पयोगपरिणए, तिण्णि मीसापरिणया । अहवेगे पयोगपरिणए, तिण्णि बीससापरिणया ५०. अहवा दो पयोगपरिणया, दो मीसापरिणया । अहवा दो पयोगपरिणया, दो वीससापरिणया । ५१. अहवा तिणि पयोगपरिणया, एगे मीसापरिणए । अहवा तिण्णि पयोगपरिणया एगे वीससापरिणए। श०८, उ० १, ढा० १३२ ३२७ Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. अथवा इक द्रव्य मीसा थाय, तीन द्रव्य वीससा कहाय । अथवा बे द्रव्य मीस-परिणता, दोय वीससा विषे वर्त्तता ॥ ५३. अथवा त्रिण द्रव्य मीसा जाण, एक वीससा परिणत माण । द्विक्संयोगिक ए नव भंग, तेहनां विकल्प तीन प्रसंग ॥ सोरठा ५४. इक विकल्प भंग तीन, त्रिण विकल्प माटै तसु । त्रिगुणा कियां सुपीन, नव भांगा द्विकयोगिका ॥ ५५. * अथवा प्रयोग- परिणत एक, इक द्रव्य मीसा- परिणत पेख । दोय द्रव्य वीससा बखान, त्रिकसंयोगे धूर भंग जान || ५६. अथवा प्रयोग-परिणत एक, मीस-परिणता वे द्रव्य देख । एक वीससा - परिणत होय, ए बीजो भांगो अवलोय ॥ ५७. तथा प्रयोग- परिणता दोय, इक द्रव्य मीसा-परिणत होय । एक द्रव्य वीससा बखाण, ए तीजो भांगो पहिछाण ॥ 1 ५८. इकसंयोगिक भांगा तीन द्विक्संयोगिक नव भंग चीन । त्रिसंयोगिक त्रिहं भंग होय, सर्व भंग पनरे अवलोय || ५६. जदि प्रयोगे करिनें परिणता, तो स्यूं मन-प्रयोग वर्त्तता । वचन-प्रयोगे काय प्रयोग, इम अनुक्रम करि कहिया जोग ।। ६०. प्यार द्रव्य तो प्रकरण कहियो, पूरव अनुसारे करि लहियो । सूत्र संठाण लगे पहिचान, भांगा सगला भगवा जाण ॥ ६१. पंच द्रव्य षट द्रव्य पिछाण यावत वली द्रव्य दस जाण । द्रव्य संख्यात अनें असंख्यात, भणवा द्रव्य अनंत विख्यात ॥ ६२. द्विक्संयोगिक भंगा जेह, वलि त्रिकसंयोगिक पिण तेह | जावत दस संयोग करेह, द्वादश संयोगे करि जेह ॥ ६३. वर उपयोग करी सुप्रयोग, जिहां जिता ऊठे संयोग । तेह सर्व भगवा धर प्यार, वारु बुद्धि सूं न्याय विचार ॥ सोरठा द्रव्य अवलोय, प्रयोग सादि त्रिहुं पदे । इक-संयोग होय, इक विकल्प है तेहनों || ६५. तीन पदे लिक-योग, इक विकल्प नां भंग त्रिण | तमु विकल्प चिहुं-योग कियां चोगुणा वार भंग ।। ६६. तीन पदे त्रिक-योग, इक विकल्प नों भंग इक । तसु विकल्प षट योग, त्रिकयोगिक इम ६४. पंच भंग षट ॥ * लय: वनमाला ए निसुणी जाम ३२५ भगवती-जोड़ , ५२. अह्वेगे मीसापरिणए, तिण्णि वीससापरिणया | अहवा दो मीसापरिणया, दो वीससापरिणया । ५३. अहवा तिणि मीसापरिणया एगे वीससापरिणए । ५४. प्रयोगपरिगतादित्रये एकले यो द्विसंयोगे तु (२० प० ३३०) वृ० २५. अपयोगपरिगए एगे मौसापरिषए, दो बीसापरिणया ५६. अयेगे पयोगपरिषए दो मौसापरिणया, एंगे दोपरिए ५७. अहवा दो प्रयोगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए । ( ० ८०२) नव । ५८. य एव भवन्तीत्येवं सर्वेऽपि पञ्चदश । ( वृ० प० २३९) ५६. जइ पयोगपरिणया कि मणपयोगपरिणया ? वइपयोगपरिणया ? कायपयोगपरिणया ? ६०. द्रव्यचतुष्कप्रक रणमुपलक्षितं तच्च पूर्वोक्तानुसारेण संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं समस्तमध्येयमिति । ( वृ० प० ३३९ ) ६१. एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेज्जा असंखेज्जा अनंता य दव्वा भाणियव्वा । जाव दससंजोएणं ६२. जोतियासंजोए बारससंजोएणं । 7 ६२. उबजुजिक जस्थ जत्तिया संजोगा उट्ठेति ते सच्चे भाषिया ६४,६५. चत्वारो विकल्पा द्रव्यपञ्चकमाश्रित्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयो द्विकसंयोगास्ते च चतुर्भिर्गुणिताः ( वृ० प० ३३९ ) द्वादश । ६६. त्रिकयोगे तु षट् कथं ? त्रीण्येकमेकं च १ एकं त्रीण्येकं च २ एकमेकं त्रीणि च ३ द्वे द्वे एकं च ४ द्वे एकं द्वे च ५ एकं द्वे द्वे च ६ इत्येवं षट् 1 ( वृ० प० ३३६ ) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. चिहुं पद सत्य-मनादि, इकसंयोगिक भंग चिहुं । द्विकयोगिक नां लाधि, चिहं विकल्प है तेहनां ॥ ६८. इक विकल्प षट भंग, चिहं विकल्प माटै तस् । कियां चोगुणा चंग, द्विकयोगिक चोबीस भंग ॥ ६७. तत्र च द्रव्यपञ्चकापेक्षया सत्यमनः-प्रयोगादिषु चतुर्षु पदेषु द्विकत्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति । (वृ० प० ३३६) ६८. तत्र च द्विकसंयोगाश्चतुर्विंशतिः, कथम् ? चतुर्णां पदानां षट् द्विकसंयोगाः, तत्र चैकैकस्मिन् पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पाः षण्णां च चतुभिर्गुणने चतुर्विशतिरिति । (वृ० प० ३३६) ६६. त्रिकसंयोगा अपि चतुर्विंशतिः, कथम् ? चतुर्णा पदानां त्रिकसंयोगाश्चत्वारः एकैकस्मिश्च पूर्वोक्तक्रमेण षड् विकल्पाः, चतुर्णां च षड्भिर्गुणने चतुर्विशतिरिति । (वृ० प० ३३६) ७०. चतुष्कसंयोगे तु चत्वारः। (वृ० प० ३३६) ६६. त्रिकयोगिक भंग च्यार, इक विकल्प नां ह तसु । षट विकल्प इहां धार, षट-गुण कियां चोबीस भंग ॥ ७०. चउयोगिक भंग च्यार, करिवा तेह विचार नैं। ए सगला अवधार, च्यार चोबीस चोबीस चिहुं । ७१. एकेंद्रियादिक जाण, तथा परिमंडल प्रमुख जे । पंच पदे पहिछाण, भंग पंच द्रव्य आथयी ।। ७२. इकसंयोगिक पंच, द्विकयोगिक चालोस भंग । विकल्प च्यार सुसंच, इक विकल्प नां दस हुवै ॥ ७३. त्रिकयोगिक ए अंग, षट विकल्प है तेहनां । ___ इक विकल्प दस भंग, षटगुणा कियां भंग साठ ह्व॥ ७१. एकेन्द्रियादिषु तु पञ्चसु पदेसु द्विकचतुष्कपञ्चकसंयोगा भवन्ति। (वृ० प० ३३६) ७२. तत्र च द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत्, कथम् ? पञ्चानां पदानां दशद्विकसंयोगा एककस्मिश्च द्विकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पा दशानां च चतुभिर्गुणने चत्वारिंशदिति। (वृ० प० ३६६) ७३. त्रिकसंयोगे तु षष्टिः, कथम् ? पञ्चानां पदानां दश त्रिकसंयोगा:एकैकस्मिश्च त्रिकर्मयोगे पूर्वोक्तक्रमेण षड़ विकल्पाः दशानां च षड्भिर्गुणने षष्टिरिति । (वृ० प० ३३६) ७४. चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः, कथम् ? पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पञ्च विकल्पा एककस्मिश्च पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो भङ्गाः पञ्चानां चतुभिर्गुणने विशतिरिति । (वृ० ५० ३३६) ७५. पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति (वृ० प० ३३६) ७४. चिहं संयोगिक चंग, विकल्प च्यार हवै तसु । इक विकल्प पंच भंग, पंचगुणा कियां भंग बीस ह ॥ ७६,७७. एवं षट्का दिसंयोगा अपि वाच्याः, नवरं षट्कसंयोग आरम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदान्याश्रित्य । (वृ०प० ३३६) ७५. पंचयोगिक भंग एक, एह पंच पद नै विषे । पंच द्रव्य आश्री पेख, भंग विकल्प नी आमना । ७६. इम षट आदि संयोग, नवरं षट पद नाम ए। आरंभ-सत्य-मन-योग, अणारंभ-सत्य-मन वलि ॥ ७७. सारंभ असारंभ, समारंभ ए पंचमो । असमारंभ मन लंभ, मन षट पद इम वच प्रमुख ॥ ७८. भणवा सप्त संयोग, नाम सप्त पदनांज ए। ओदारिकादि योग, सप्त द्रव्य ने आश्रयी ।। ७९. अष्टसंयोगिक ख्यात, नाम अष्टपदनांज ए। अठ व्यंतर नी जात, अष्ट द्रव्य नैं आश्रयो । ८०. नवसंयोगिक न्हाल, तसु नव पद नां नाम ए। नव ग्रैवेयक भाल, ते नव द्रव्य नैं आश्रयी ॥ ७८. सप्तकसंयोगस्त्वौदारिकादिकायप्रयोगमाश्रित्य । (वृ० प० ३३६) ७६. अष्टकसंयोगस्तु व्यन्तरभेदान् (वृ० प० ३३६) ८०. नवकसंयोगस्तु ग्रैवेयकभेदान् (वृ० प० ३३६) १.८,०१, ढा.१३२ ३२९ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. दससंयोगिक वेद, तसु दस पद नां नाम ए। भवनपति दस भेद, ते दस द्रव्य नै आश्रयी। ८२. ग्यारसंयोगिक ताहि, सूत्र विषे आख्यो नथी । पूर्व कह्या पद मांहि, तास असंभव थी इहां ।। ८३. बारसंयोगिक ताय, कल्पोत्पन्न सुर भेद नै । वा वैक्रिय तन काय, प्रयोग तणी अपेक्षया । वा०—इहां बार संयोगी नां जघन्य बारै द्रव्य हुवै पिण ओछा द्रव्य न हुवै । ८४ *नवमैं शतक बतीसमदेश, गंगेय नों विस्तार कहेस ।। गति नरकादि प्रवेश विचार, ते आगल कहिसू अधिकार ॥ ८१. दशकसंयोगस्तु भवनपतिभेदानाश्रित्य (वृ० प० ३३६) ८२. एकादशसंयोगस्तु सूत्रे नोक्तः पूर्वोक्तपदेषु तस्यासंभवात् (वृ० प० ३३६) ८३. द्वादशसंयोगस्तु कल्पोपन्नदेवभेदानाश्रित्य वैक्रिय शरीरकायप्रयोगापेक्षया वेति । (वृ० प० ३३६) ८४. एए पुण जहा नवमसए पवेसणए (81८६-१२०) भणिहामो। नवमशतकसत्कतृतीयोद्देशके गाङ्गेयाभिधानानगार कृतनरका दिगतप्रवेशनविचारे। (वृ० प० ३३६) ८५. तहा उवजुजिऊण भाणियव्वा जाव असंखेज्जा। ८६. अणंता एवं चेव, णवरं--एक्कं पदं अब्भहियं । ८५. तिण अनसारे इहां विचार, द्रव्य उपयोग करी नैं धार । जाव असंख्याता कहिवाय, हिवै विशेष अनंत द्रव्य मांय ।। ८६. द्रव्य अनंता इमहिज जान, नवरं इक पद अधिको आन । गंगेय स्थान कह्या असंखज, इहां अनंत पद अधिक कहेज ॥ ८७. जाव अनंत परिमंडल जाण, जाव अनन्त आयत संठाण । अल्पबहुत्व तास कहाय, पूछ गोतम महामुनिराय ।। ८८. पूदगल प्रभजी ! प्रयोग-परिणता, मीस वीससा विषे वर्त्तता। कुण-कुण थकी अल्प बहु होय, तुल्य विशेषाधिक अवलोय ? ५६. सर्व थोड़ा पोग्गला प्रयोग, मीसा अनन्तगणा ए जोग । वीससा अनंतगणा वत्तंत, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ॥ ८७. जाव अहवा अणंता परिमंडलसंठाणपरिणया जाव अणंता आयतसंठाणपरिणया। (श० ८।८३) अर्थतेषामेवाल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह (वृ० प० ३४०) ८८. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं, मीसा परिणयाणं, वीससापरिणयाणं य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ८६. गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मीसापरिणया अणंतगुणा, वीससापरिणया अणंतगुणा। (श० ८८४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ८८५) वा०-'सव्वत्योवा पुग्गला पओगपरिणय' त्ति कायादिरूपतया, जीवपुद्गलसम्बन्धकालस्य स्तोकत्वात्, 'मीसापरिणया अणंतगुण' त्ति कायादिप्रयोगपरिणतेभ्यः सकाशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः, यतः प्रयोगकृतमाकारमपरित्यजन्तो विश्रसया ये परिणामान्तरमुपागता मुक्तकडेवराद्यवयवरूपास्तेऽनन्तानन्ताः, विश्रसापरिणतास्तु तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः, परमाण्वादीनां जीवाग्रहणप्रायोग्याणामप्यनन्तत्वादिति । (वृ०प० ३४०) वा०-सर्व थी थोड़ा पुद्गल प्रयोगसा कायादिरूपपणे करी, जीव पुद्गल संबंध काल नां स्तोकपणां थकी। तेहथी मीसा-परिणता अनंतगुणा । जे भणी जीव प्रयोगे करी कीधो आकार, ते प्रति अणछांडतो छतो स्वभावे करी जे अन्य परिणाम प्रति पाम्या मुक्त कलेवरादिक नां अवयव रूप अनंतानंत तेह थकी। विश्रसापरिणता अनंतगुणा परमाणु आदि नै जीव अग्रहण प्रयोग्य नैं अनंतपणां थकी। १०. इक्यासी नो अंक विशाल, इक सौ बत्तीसमी ढाल । भिक्ष भारीमाल नै ऋषिराय प्रसाद, 'जय-जश' सुख संपति आह्लाद ॥ अष्टमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१॥ *लय : वनमाला ए निसुणी जाम ३३० भगवती-जोर Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ढाल : १३३ दूहा १. प्रथम उदेशक नै विषे, पुद्गल नू परिणाम । द्वितिये तेहिज आसीविष-द्वारे करि कहूं ताम ॥ २. हे भदंत ! आसीविषा, आख्या कितै प्रकार? । जिन कहै आसीविष तणां, दोय प्रकार विचार ॥ ३. प्रथम जाति-आसीविषा, कर्म-आसीविष ताय । न्याय कह हिव तेहनों, अर्थ सुगम कहिवाय ॥ ४. जेहनी दाढादिक विषे, जन्म थकी विष होय । तास जाति-आसी विषा, कहियै छै अवलोय ॥ ५. कर्म क्रिया तेणे करी, सराप प्रमुख सोय । तिण करि घात करै तिको, कर्म-आसीविष जोय ।। १. प्रथमे पुद्गलपरिणाम उक्तो, द्वितीये तु स एवाशीविषद्वारेणोच्यते । (वृ० प० ३४०) २. कतिविहा णं भंते ! आसीविसा पण्णत्ता? __ गोयमा ! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, तं जहा३. जातिआसीविसा य, कम्मआसीविसा य । (श० ८।८६) ४. 'आशीविषाः' दंष्ट्राविषाः 'जाइआसीविस' त्ति जात्या-जन्मनाऽऽआशीविषा जात्याशीविषाः । (वृ० प० ३४१) ५. 'कम्मआसीविस' त्ति कर्मणा—क्रियया शापादिनोपघातकरणेनाशीविषाः कर्माशीविषाः । (वृ० प० ३४१) ६. तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्तका एव (वृ० प० ३४१) ७. एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषा भवन्ति (वृ० प० ३४१) ८. शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः, एते चाशीविषलब्धिस्वभावात् सहस्रारान्तदेवेष्वेवोत्पद्यन्ते । (वृ०प० ३४१) ६. देवास्त्वेत एव ये देवत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामनुभूतभावतया कर्माशीविषा इति । (वृ० प० ३४१) ६. कर्म-आसीविष केहनें ? पंचेंद्री तिर्यच । अथवा मनष्य बिहं तणां, पर्याप्ता में संच ॥ ७. ए निश्चै तपसा थकी, तथा अन्य गुण तास । तेह थी आसीविष हुवै, लब्धि स्वभाव विमास ॥ ८. ते सराप देई हणे, उत्कृष्ट गति सहसार । एहवी लब्धिज फोड़व्यां, आगल गमन न कार ॥ ६. देवपण जे ऊपनो, अपजत भाव अवस्थ । अनभूत भावपणे करी, कर्म-आसीविष तत्थ ॥ ११. उक्तञ्च शब्दार्थभेदसम्भवादि भाष्यकारेण-आसी___दाढ़ा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा। (वृ० प० ३४१) १०. अपर्याप्त है ज्यां लगै ते सुर नैं कहिवाय । कर्म-आसीविष लब्धिवंत, पर्याप्ते न थाय ॥ ११. शब्दार्थ नां भेद करि, भाष्यकार का एह । आसी–दाढा तन विषे, विष आसीविष तेह ॥ _ *देव जिनेन्द्र नीं अमृत वाणी ॥ (ध्र पदं) १२. जाति-आसीविष कतिविध ? प्रभुजी ! जिन कहै च्यार प्रकारो रे। बिच्छ मंडक्क सर्प नै मनुष्य, ए कह्या आसीविष च्यारो रे॥ १२. जातिआसीविसा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउविहा पण्णत्ता, तं जहा–विच्छुयजातिआसीविसे, मंडुक्कजातिआसीविसे, उरगजातिआसीविसे मणुस्सजातिआसीविसे । (श० ८८७) १३. विच्छ्यजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? १३. बिच्छ जाति-आसीविष नों प्रभ ! केतलो एक सूजाणी। विष नों गोचर विषय परूपी ? जिन कहै सांभल वाणी ॥ *लय : एक दिवस रुकमण हरि बोले श.८, उ०२, ढा० १३३ ३३१ Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. विच्छू जाति-आसीविष समर्थ छै, अर्द्ध भरत नै प्रमाणो। १४,१५. गोयमा ! पभू णं विच्छ्यजातिआसीविसे अद्धभर दोय सो त्रेसठ जोजन साधिक, तेहिज मात्रा जाणो । हप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं विसद्रमाणं १५. जेहनों एहवो शरीर हुवै तो, निज विष करिने जेहो। पकरेत्तए । विषपणां प्रतै द्विधाभूत जे, करिवा समर्थ तेहो ॥ अर्द्धभरतस्य यत् प्रमाणं-सातिरेकत्रिषस्ट्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा--प्रमाणं यस्याः सा तथा तां 'बोंदि' ति तनुं 'विसेणं' ति विषेण स्वकीयाशीप्रभवेण करणभूतेन 'विसपरिगय' ति विष भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य विषतां परिगता-प्राप्ता विषपरिगताऽतस्ताम्, अत एव "विसट्टमाणि" ति विकसन्ती-विदलन्तीं । (वृ० प० ३४१,३४२) १६. विच्छू विष इतरी भूमि व्याप्त, पिण निश्चय करि न्हालो। १६. विसए से विसट्ठयाए, नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, न करै नहिं करसी. इमए तोनड कालो ॥ करेंति बा, करिस्संति वा । (श०८1८८) १७. मंडक जाति-आसीविष पूछा, तब भाखै जिनरायो। १७, १८. मंडुक्कजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवतिए भरत प्रमाण काया विष गोचर, शेषं तं चेव कहायो । विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे भरहप्पमाणसोरठा मेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव १८. जाव करिस्संतीह, तीन काल विषे तिको । (सं० पा०) करिस्संति । (श० ८।८६) संप्राप्ती न करीह, विषय मात्र आख्यो अछै॥ १६. *एवं सर्प जाति-आसीविष, णवरं विशेष वदंति । १६. एवं उरगजातिआसीविसस्स वि, नवरं-जंबुद्दीवप्पजंबू प्रमाण तन विष गोचर, तं चेव जाव करिस्संति ॥ माणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) करिस्संति । (श० ८६०) २०. मनष्य जाति-आसीविष पिण इम हिज, णवरं द्वीप अढाई। २०. मणुस्सजातिआसीविसस्स वि एवं चेव, नवरंतन ह तो इतरो विष व्याप, पिण त्रिहुं काल न थाई ॥ समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) करिस्संति । (श० ८६१) २१. वलि गोयम पूछ जिनवर ने, जो कर्म-आसीविष होयो। २१. जइ कम्मआसीविसे कि नेरइयकम्मआसीविसे ? तो नारकी तिर्यंच मनुष्य सुर, कर्म-आसीविष जोयो ? तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे ? मणुस्सकम्मआसी विसे ? देवकम्मआसीविसे ? २२. जिन कहै नारकी में नहिं पावै, तिर्यंच मनष्य नैं देवा । २२. गोयमा ! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरिक्खजोणियए त्रिहं गति माहै कर्म-आसीविष, लब्धि प्रभावज लेवा ॥ कम्मासीविसे वि, मणुस्सकम्मासीविसे वि, देव कम्मासीविसे वि । (श० ८६२) २३. जो तिर्यंच ह कर्म-आसीविष, स्यू एकेंद्री तिर्यंचो। २३. जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कि एगिदियजाव पंचेंद्री तिर्यंच विषे ए, कर्म-आसीविष संचो ॥ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव पंचिदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविसे ? २४. जिन कहै एकेंद्री में नहिं पावै, जाव चरिंद्री में नांही। २४. गोयमा ! नो एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कर्म-आसीविष तो पावै छै, तिर्यंच पंचेंद्री मांही ॥ जाव नो चरिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे , पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे । *लय । एक दिवस रुकमण हरि बोले ३३२ गवती-जोर Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. जो तियंच पंचेंद्री मांहे, कर्म आसीविष पायो । तो स्यू संमूच्छिम तिरि पंचेंद्री, के गर्भज तिरि मांह्यो ? ॥ २६. इम जिम वैक्रिय शरीर तणां जे भेद कह्या तिम कहिये । जाव पर्याप्त संल वर्षायु, गर्भेज तिरि पं० लहिये ।। सोरठा २७. वैकिय शरीर भेद, जाव सुणज्यो आण उमेद, जाव २८. *संमूच्छिम तिर्यंच पंचेंद्री, कर्म-आसीविष तो लहियै छै, पज्जत्ता आखिया । शब्द में अर्थ ए ॥ कर्म-आसी विष नांही । गर्भेज तियंच मांही ॥ वर्ष २९. जो गर्भज- तिरि कर्म आसीविष, स्थू आयु वर्ष असंख तणां जे तियंच, ए किण माही संलेजो । कहेजो ? ३०. जिन कहै संख वर्ष नां तिर्यंच, कर्म-आसीविष ताह्यो । वर्ष असं आयु नां तिर्यंच, नहि पावे तिन मांह्यो । ३१. जो संख वर्ष नां आयु वाला में तो पर्याप्ता मह्यो । कै अपज्जत्त संखेज्ज वर्ष नां, जाव शब्द में ए आयो ? ३२. जिन कहै पर्याप्त संख वर्ष तिरि, कर्मभूमि गर्भेजो । अपज्जत्ता संखेज्ज वर्ष आयु में, कर्मासीविष न लहेजो ॥ २३. बलि गोयम पूर्व जो मनुष्य में, 1 कर्म-आसीविष होयो । स्वं संमूच्छिम मनुष्य में पावे के गज में जोयो ? ३४. जिन कहै मच्छिम में नहि पावे, गर्भेज मनष्य में पायो । इम जिम वैयि शरीर भेद तिम, कहिवो इहां पिण ताह्यो । ३५. जाव पर्याप्त संख वर्षायु, कर्मभूमि गर्भेजो। तेह मनुष्य में कर्म-आसीविष, अपर्याप्त न लहेजो ॥ ३६. जो सुर कर्म-आसीविष होवै, तो स्यूं भवनपति जोयो ? जाव वैमानिक देव विषे ए कर्म-आसीविष होयो ? ३७. जिन कहै भवनपति में पिण छे, वाणव्यंतर पिण लहिये । जोतिषी देव वैमानिक मांहै, कर्म आसीविष कहिये || * लय : एक विवस रुकमण हरि बोल २५. जइ Fr पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे संमुच्छिम पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ? गब्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे ? २६. एवं जहा वेडव्वियसरीरस्स भेदो जाव । २८. गोयमा ! नो संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गब्भवक्कंतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे । ( वृ० प० ३४२) २६. जइ गब्भवक्कं तियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संखेज्जवासाउयगब्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्जोयिकम्मासीबिये, असंसेजवासाज्य जाव कम्मासीविसे ? ( वृ० प० ३४२ ) ३०. गोयमा ! संखेज्जवासाज्य जाव कम्मासीविसे नो असंखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे । ( वृ० प० ३४२ ) ३१. जइ संखेज्ज जाव कम्मासीविसे कि पज्जत्तसंखेज्ज जाव कम्मासीविसे अपज्जत्तसंखेज्ज जाव कम्मासीविसे ? ( वृ० प० १४२) ३२. पज्जत्तासेन्जवासा उपगभवनकतियपचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे । (श० ८/६३) २२. जइ मणुस्तकमासीविले कि मुडममकम्मासीविसे ? गव्भवक्कंतियमणुस्तकम्मासीविसे ? ३४. गोयमा ! नो संमुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गब्भवक्कं तियमणुस्तक म्मासीविसे एवं जहा वेउव्वियसरीरं । २४. जान पत्तज्जवासा उदकम्म भूमा गन्भननमंतिय मणुस्तकम्मासीविसे, नो अपज्जत्ता जाव कम्मासीविसे । ( श० ८/१४) ३६. जय देवकम्मासीविसे किं भवणवासिदेव कम्मासीबिसे जाव वैमाणियदेवकम्मासीविसे ? ३७. गोयमा ! भवणवासिदेवकम्मासीविसे, वाणमंतर जोतिसियवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि । श० ८ ७० २ डा० १३३ ३३३ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. जो भवनपति होवै कर्म-आसीविष, तो स्य असुरकुमारो? यावत थणियकुमार विषे ए, कर्म-आसीविष धारो॥ ३६. जिन कहै असुरकुमार विषे पिण, कर्म-आसीविष जाणी। एवं यावत थणियकुमार में, कर्म-आसीविष माणी॥ ४०. जो असुरकुमार में कर्म-आसीविष, ते स्यू' पज्जत्त अपज्जत्तो? जिन कहै अपर्याप्ता में होवै छै, पर्याप्ता में न पत्तो।। ३८. जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे किं असुरकुमार भवणवासिदेवकम्मासीविसे जाव थणियकुमारभवण वासिदेवकम्मासीविसे ? ३६. गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे वि जाव थणियकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे वि । ४०. जइ असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे कि पज्जत्ताअसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे ? अपज्जत्ताअसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे ? गोयमा ! नो पज्जत्ताअसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे, अपज्जत्ताअसुरकुमारभवणवासिदेव कम्मासीविसे। ४१. एवं जाव थणियकुमाराणं । ४१. एवं यावत थणियकुमार में, अपर्याप्ता रै मांह्यो। पाछिल भव नों कर्म-आसीविष, ऊपजतां इहां पायो॥ ४२. जो वाणव्यंतर देव कर्म-आसीविष तो स्यू पिसाच रै मांही। एम सह नां अपर्याप्ता में, पर्याप्ता में नांही॥ ४३. जोतिषी सर्व नां अपर्याप्ता में, पर्याप्ता में न होयो। जो छै वैमानिक तो स्यू कल्प में, के कल्पातीत जोयो ? ४४. जिन कहै कल्प विषे जे ऊपनां, कर्म-आसीविष त्यांही। कल्पातीत देव छै ज्यां मे, कर्म-आसी विष नाही॥ ४५. जो हुवै कल्प विष उपनां में, तो स्यू सोधर्म मझारो ? जाव अचू कल्प ऊपनां ज्यांमे, कर्म-आसीविष धारो? ४६. जिन कहै सोधर्म-कल्प ऊपनां, कर्म आसीविष पावै। यावत अष्टम स्वर्ग लगै छै, आगल ए नहिं थावै॥ ४२. जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे कि पिसायवाणमंतर देवकम्मासीविसे? एवं सवेसि अपज्जत्तगाणं । ४३. जोइसियाणं सव्वेसि अपज्जत्तगाणं । जइ वेमाणियदेवकम्मासीविसे कि कप्पोबावेमाणियदेवकम्मासीविसे ? कप्पातीयावेमाणियदेवकम्मा सीविसे ? ४४. गोयमा ! कप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे, नो कप्पातीयावेमाणियदेवकम्मासीविसे। ४५. जइ कप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे कि सोहम्म कप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे जाव अच्चुयकप्पोवा वेमाणियदेवकम्मासीविसे ? ४६. गोयमा ! सोहम्मकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे वि जाव सहस्सारकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीबिसे वि, नो आणयकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे जाव नो अच्चुयकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे । ४७. जइ सोहम्मकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे कि पज्जत्तासोहम्मकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे ? अपज्जत्तासोहम्मकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे ? ४८. गोयमा ! नो पज्जत्तासोहम्मकप्पोवावेमाणियदेव कम्मासीविसे, अपज्जत्तासोहम्मकप्पोवावेमाणियदेव कम्मासीविसे । ४६. एवं जाव नो पज्जत्तासहस्सारकप्पोवावेमाणियदेव कम्मासीविसे, अपज्जत्तासहस्सारकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे । (श० ८।६५) ४७. जो सोधर्म-स्वर्गे कर्म-आसीविष, तो पर्याप्ता लहिये ? तथा अपर्याप्ता में पावै छै ? हिव जिन उत्तर दइये ॥ ४८. सोधर्म-स्वर्गे पर्याप्ता में, कर्मासीविष नहिं अपर्याप्ता में ए पावै छ, पूर्व भव थी ले था। आवै॥ ४६. इम जाव अष्टम कल्प नां देवा, पर्याप्ता अवलोयो। कर्म-आसीविष त्यांमे नहि छै, अपर्याप्ता में होयो ।। ५०. अंक बयासी नो देश अर्थ ए, इक सौ तेतीसमी ढालो । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो। ३३४ भगवती-जोग Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १३४ चूहा १. पूर्व एह प्रति अवलोय । नहि कोय | जाणें ॥ वस्तु प्रति देख कहिये सुविशेख ॥ कही तिके, वस्तु ज्ञान रहित जे जीव थे, वे २. ज्ञानी पिण कोइ एक जे, दश किहि प्रकार जाणें नहि, ते *देव जिनेंद्र नी हो भवियण ! सरस सुधारस वाण ॥ ( ध्रुपदं ) ३. छग्रस्थ दश स्थानक प्रत हो भवियण! सर्व भाव करि सोय । जाणं नहि देख नहीं हो, भवियण! तास नाम अवलोव के ॥ ४. धुर धर्मास्तिकाय ने. वले अधर्मास्तिकाय | वलि आकाशास्तिकाय नैं तृतीय बोल ए थाय ॥ ५. जीव शरीर रहित जिको ए सिद्ध जीव कहाय शब्द गंध नें वाय ॥ परमाणु 1 प्रत, पुद्गल वा०- परमाणु पुद्गल पंचमे बोल कह्यो । तेहनां उपलक्षण थकी द्विप्रदेशिकादिक खंध पिण न जाणें । ६. प्रत्यक्ष ए प्राणी तिको, थास्यै जिन वीतराग । जिन होये नहीं, नयमों बोल सुमाग ।। अथवा ७. प्रत्यक्ष ए प्राणी तिको, करिये सर्व दुख अंत | अथवा ए करिस्यै नहीं, दशमों एह कहंत ॥ ८. वृत्तिकार इहां हम कह्यो अवधि प्रमल अवलोय | अतिसय ज्ञान रहीत ते, छद्मस्थ ग्रहिवो सोय ॥ ९. अवध्यादिके सहित फुन, अमूर्तपणे करि तेह | धर्मास्तिकायादि प्रति, अजाणतो पिण जेह ॥ १०. जाण परमाण प्रमुख थी एह । विशिष्ट अवधि करेह ॥ वा०—- अथ ननु सर्व भावे करि न जाणै, इम का । वली तिण कारण थकी ते दश वस्तु किहि प्रकार करिकै अवध्यादिक सहित जाणतो छतो पिण अनंत पर्यायपण करी न जाणें इति । मूर्तपणां कुन सहू मूर्त विषय यकी , इम जो ए सत्य तो दश संख्या नो नियम ते निरर्थक हुवै घटादिक अतिहि घणां पदार्थ नै अकेवली सर्व पर्यायवर्णं करी जाणवा असमर्थपणां थकी । एतले 'सव्वभावेणं न जाणइ' एहनों अर्थ- सर्व भाव ते अनंत पर्याय करिकै ए दश वस्तु न जाणे, इम अर्थ कीजं तो घटादिक अनेक वस्तु अवध्यादिक सहित * गुण गुण साधुजी हो मुनिवर १. एतच्चोक्तं वस्तु अज्ञानो न जानाति (२०१० १४२ ) २. ज्ञान्यपि कश्चिदश वस्तूनि कथञ्चिन्न जानातीति दर्शयन्नाह - ( वृ० प० ३४२ ) ३. दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा ४. धम्मत्थिकार्य अधम्मत्थिकायं आगासत्थिकार्य ५. जीवं असरीरपडिबद्धं परमाणुपोग्गलं, सद्दं, गंधं, वातं । "जीव असरीरपडिव' ति देहविषमित्यर्थः । ( वृ० प० ३४२) वा०- परमाणुश्वासौ पुद्गलश्चेति उपलक्षणमेतत्तेन यणुकादिकमपि कश्चिन्न जानातीति । ( वृ० प० ३४२ ) ६. अयं जिणे भविस्सइ वा न वा भविस्सइ अयमिति प्रत्यक्षः कोऽपि प्राणी जिनो वीतरागो भविष्यति न वा भविष्यतीति नवमम् । ( वृ० प० ३४२) ७. अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ । स्थानच्या गृह्यते । ( वृ० १० २४२) ६,१०. अन्यथाऽमूर्त्तत्वेन धर्मास्तिकायादीगजानन्नपि परमायादि जानात्वेवासी मुसंख्यात्तस्य समस्तमूर्तविषयत्वाच्चावधिविशेषस्य ( वृ० प० ३४२ ) बा० अथ सर्वभावेनेत्युक्त ततश्व तत् कथञ्चिज्जानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति संस्थानियमी व्यर्थ: स्वाद पटादीनां सुबहनामर्थानामवलिना सर्वपर्यात ज्ञातुमशक्यत्वात् सर्वभावेन च साक्षात्कारं चक्षुः प्रत्यक्षेणेति हृदयं शानादिना त्वसाक्षात्कारेण जानात्यपि । ( वृ० प० ३४२) ०८, ४०२, ढा० १३४ ३३५ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण अनंत पर्याय करिक न जाणे तो दश स्थानक कहिण रो नेम निरर्थक हुवै । ते माटे 'सवभावेणं न जाणइ' एहनों अर्थ-साक्षात्कार ते चक्षु प्रत्यक्षे करी दश बोल अवध्यादिक सहित अतिशयज्ञानी पिण न जाण, ए तात्पर्य । वली श्रुतज्ञानादिक करिक असाक्षात पणे करी जाणे पिण साक्षातपणे करी न जाण । ११. छद्मस्थ अतिशय-रहित ते, नहिं जाणें दस स्थान । अन्यथा अवधि सहित जे, परमाण आदिक जान ।। १२. सव्वभावेणं पाठ नों, सर्व प्रकारे सोय । स्पर्श रस गंध रूप ने, जाणवै करी सूजोय ।। १३. ए प्रत्यक्ष जिन केवली, होस्य तथा न होय । दसमें ठाणे वृत्ति में, अर्थ कियो इम जोय ॥ ११-१३. नवरं छद्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योऽन्य थाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि जानात्येव, सव्वभावेणं ति सर्वप्रकारेण स्पर्शरसगन्धरूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः तत्रायमिति प्रत्यक्षज्ञानसाक्षात्कृतो जिनः केवली भविष्यति न वा भविष्यतीति । (ठाणं वृ० प०४८४) १४. उक्तव्यतिरेकमाह (वृ० प० ३४२) दूहा १४. कह्यो तास व्यतिरेक हिव, प्रवर केवली पेख । तसु अधिकार कहै हिवै, सांभलज्यो सुविशेख ।। १५. *एह दसू निश्चै करी, उत्पन्न ज्ञान दर्शन । धरणहार छै तेहनों, अरहा केवली जिन ॥ १६. सर्व भाव करिनें सही, वर साक्षात विशेख । जाणे केवलज्ञान स्य, केवलदर्शण करि देख ॥ १५. एयाणि चेव उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली १६. सव्वभावेणं जाणइ-पासइ, 'सव्वभावेणं जाणई' त्ति सर्वभावेन साक्षात्कारेण जानातिकेवलज्ञानेनेति हृदयम्। (वृ० प० ३४२) १७. धम्मत्थिकायं जाव (सं० पा०) करेस्सइ वा न वा करेस्सइ। (श० ८६६) १७. धर धर्मास्तिकाय नै, यावत ए दुख अंत । करिस्यै ए करिस्यै नहीं, ए दस बोल उदंत ॥ १८. जानातीत्युक्तमतो ज्ञानसूत्रम् । (वृ० प० ३४२) सोरठा १८. जाणे केवलधार, एहवो आख्यो ते भणी । ज्ञान-सूत्र हिव सार, कहियै छै गुण-आगलो॥ १६. *कतिविध ज्ञान परूपियो, जिन कहै पंच प्रकार । आभिनिबोधिक ज्ञान ते, हिव शब्दारथ सार ।। १६. कतिविहे णं भंते ! नाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणि बोहियनाणे २०. अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वात् नियतोऽसंशयरूपत्वाबोधः (वृ०प० ३४३) २०. अभि संमख जे अर्थ नैं हो गोयम!अविपरीत विचार । नियत असंशय रूप जे होगोयम!बोधि जाणवो सार। (सांभल गोयमा!हो मुनिवर!आभिनिबोधिक ज्ञान)। वा०-आभिनिबोधिक ज्ञान ते पांच इंद्रिय अनैं नोइंद्रिय-मन, ते निमित्त बोध। २१. शब्द कारण श्रुत ज्ञान नों, अवधि मर्याद पिछान । मनपर्यव केवल तणो, अर्थ वृत्ति थी जान ।। वा-आभिनिबोधिकज्ञानम् - इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोधः। (वृ० प० ३४४) २१. सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे, केवलनाणे । (श० ८।६७) श्रूयते तदिति श्रुतं--शब्दः स एव ज्ञानं भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानम् । (वृ० प० ३४४) *लय : सुण सुण साधूजी हो मुनिवर ३३६ भगवती-जोर Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २२. सुणवा थकीज ज्ञान, इंद्रिय मनो निमित्त जे । ते श्रुत ज्ञान पिछान, श्रत ग्रंथ अनुसारी तिको॥ हे; हेर्छ जेह, विस्तृत जे वस्तु प्रति । जिण करिक जाणेह, अवधि ज्ञान कहिये तसु ॥ २४. तथा मर्याद करेह, रूपी द्रव्यज जाणियै । अन्य प्रति नहिं जाणेह, द्वितीय अर्थ ए अवधि नुं ॥ २५. मन चितवता जेह, मनोद्रव्य नां पर्यवा । जिण करिक जाणेह, ते मनपर्यव ज्ञान छ । २६. वा मन नां पर्याय, पर्याय तेह विचारणा । ते प्रति जाणे ताय, मनपर्याय सुज्ञान छै॥ २७. केवल एक कहाय, मतिज्ञानादिक रहित ए। अथवा शुद्ध सुहाय, आवरण रूप कलंक विन ।। २८. अथवा सकल उदार, प्रथमपणे करिनैज ते । विशेष थकी विचार, संपूरण जे ऊपजै ।। २६. तथा साधारण नांय, अन्य नहीं एह सारखो । तथा अनंत कहाय, अनंत वस्तु ने जाणवै॥ ३०. यथा अवस्थित देख, तीन काल नी वस्तु नैं। शील प्रकाशन पेख, एहत् केवलज्ञान छ । ३१. *हिव स्यूं आभिनिबोधि ते?जिन कहै च्यार प्रकार। - अवग्रह ईहा अवाय छै, वलि धारणा सार । २२. श्रुताद् वा.--शब्दात् ज्ञानं श्रुतज्ञान-इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रुतग्रन्थानुसारी बोध इति। (वृ० प० ३४४) २३. 'ओहिणाणे' ति अवधीयते-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः स एव ज्ञानम् । (वृ०प० ३४४) २४. अवधिना वा-मर्यादया मूर्तद्रव्याण्येव जानाति नेतराणीति व्यवस्थया ज्ञानमवधिज्ञानम् । (वृ०प० ३४४) २५. मनसो मन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यवः–परिच्छेदो मनःपर्यवः स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानम् । (वृ प० ३४४) २६. मनःपर्यायाणां वा—तदवस्थाविशेषाणां ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानम्। (वृ० प० ३४४) २७. केवलमेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात् । (वृ० प० ३४४) २८. सकलं वा-तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः। (वृ० ५० ३४४) २६. असाधारणं वाऽनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् । . (वृ० प० ३४४) ३०. यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति . भावना तच्च तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानम् । ३१. से किं तं आभिणिबोहियनाणे? आभिणिबोहियनाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा । ३२. 'उग्गहो' ति सामान्यार्थस्य-अशेषविशेषनिरपेक्ष स्यानिर्देश्यस्य रूपादेः। (वृ० ५० ३४४) ३२. अवग्रह अर्थ ग्रहण करै, सामान्य थी कहिवाय । अशेष विशेष तेहनी, विचारणा तसु नांय॥ सोरठा ३३. अव नों अर्थ कहाय, प्रथम थकी जे अर्थ प्रति । ग्रहण जे करिवो ताय, अवग्रह शब्दार्थ वृत्तौ ॥ ३४. *ईहा छता अर्थ भणी, आलोचना विशेख । अवाय कह्या जे अर्थ नों, निशेष निश्चय देख ।। ३५. धारण जाण्या अर्थ नैं, विशेष दिल में धार । एह अर्थ नहिं वीसरै, भेद कह्या ए चार ॥ ३३. अव इति-प्रथमतो ग्रहणं-परिच्छेदनमवग्रहः । (वृ० प० ३४४) ३४. 'ईह' ति सदर्थविशेषालोचनमीहा, 'अवाओ' त्ति प्रक्रान्तार्थविनिश्चयोऽवायः। (वृ० प० ३४४) ३५. 'धारणे' त्ति अवगतार्थविशेषधरणं धारणा । (वृ० प० ३४४) *लय : सुण सुण साधूजी हो मुनिवर स. ८, उ०२, ढा० १३४ ३३७ Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. रायप्रश्रेणी में कला, भेद कह्या, ज्ञान नां जाण । तिमहिज इहां भणवा सहु, यावत केवलनाण ॥ ३७. कतिविध प्रभु ! अज्ञान से ? जिन कहे तीन प्रकार । मति अरु श्रुत अज्ञान छे, विभंगनाण अवधार ॥ वा०विभंग नाग ए पाठ नो अर्थवृत्ति में विषे तथा विरूप अवधि नों भेद ते विभंग । इम अकार करी विभंग ज्ञान का, ते अर्थ मिलतुं नथी । विभंग तो अयोगवार (सू० २०५) में क्षयोपशम भाव कह्यो है, ते उज्जल जीव छे' तेहनां विरुद्ध भांगा नथी । वले अवधिज्ञान अनैं विभंग नुं दर्शण एक छे, ते मार्ट ए विरुद्ध नथी । अनं विरूप पिण नथी । विभंग विरुद्ध हुवै तो ए विभंग नो दर्शन अवधि ते पण विरुद्ध विरूप हुवै। अनैं जो अवधि-दर्शन विरुद्ध विरूप हुवै तो अवधि ज्ञान नों पिण एहिज दर्शन छै, ते भणी अवधि ज्ञान पिण विरुद्ध विरूप हम अवधिज्ञान विरुद्ध विरूप नहीं तो अवधि दर्शन अनं विभंग अज्ञान ए विरुद्ध विरूप नहीं । ? तेहनों उत्तर - जद कोई पूछे – ए विरुद्ध नहीं तो विभंग नों अर्थ स्यूं इहांइज लद्धी में क ु - विभंग नाणे कतिविधे ? जद भगवान कहै- - अनेकविध । ते भणी विविधा मंगा जेहने विषे ते विभंग इम अर्थ संभव, ते विरुद्ध गंगा गो अर्थ न संभव | जद कोइ पूछें — ठाम ठाम विभंगनाण सूत्र में क्यूं कह्यो ? तेहनो उत्तरहे माचार्य कृत प्राकृत व्याकरण में सूत्र नां शब्द साध्या । तिहां एहवुं सूत्र छ, ते कहै 'लुक' 'स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लु भवति' एहनों अर्थ- स्वर परे हो तो पाउला स्वर नो बहुप विहाक तुहियक नवं ते मार्ट बहुत शब्द कह्यो । कहा- विरुद्धा गंगा जेहन विशेषित विभंग में स्थापित विभंग अनाण इसो शब्द हुंतो । इहां 'लुक्' सूत्रे करी गकार मांहिला अकार नुं लुक् थयुं अनैं स्वर हीन गकार अनाण शब्द नां अकार में मिल्यां विभंगनाण शब्द सिद्ध थयुं । यसी पंच वर्णा फूल में सूत्रे दसवण्णकुसुम पाठ कहां रहा पण दस अद्ध शब्द हंतो 'लुक' सूत्रे करी सकार मांहिला अकार नों लुक् थयुं । स्वर हीन सकार अद्ध शब्द नां अकार में मिल्यां दसद्ध शब्द सिद्ध थयुं । तथा सर्वार्थ सिद्ध नै 'सव्वट्टसिद्ध' पाठ कहां । इहां पिण सव्वअट्ठसिद्ध शब्द हुंतो । 'लुक' सूत्रे करी व्वकार मांहिला अकार नुं लुक् थयुं । स्वरहीन व्वकार अट्ठ शब्द नां अकार में मिल्यां सव्वट्ट शब्द सिद्ध थयुं । इत्यादिक अनेक ठामे 'लुक' सूत्र करी पाछला स्वर नों लुक् हुवै छं । तिम विभंग नाण शब्द पिण जाणवो । -- तिवारे कोई पूछे - विभंग अनाण इसो पाठ किहांइ कह्यो छे ? तेहनों उत्तरभगवती शतक ९ । ३३ में असोच्चा नै अधिकारे कह्यो - निरंतर छठ छठ तप, सूर्य • स्हामी आतापना, प्रकृति भद्रक, स्वभावे उपशांत, स्वभावे पतला क्रोध मान मायालोभ, तिणे करी मृदु-- कोमल, मार्दवसंपन्न, अल्लीण इन्द्रियां वश्य करी, भद्रिक, २३८ भगवती-जोह २६. एवं जहा रावप्यसेगरजे (७१२-०४६) नागाणं भेदो तहेव इह भाणियव्वो जाव सेत्तं केवलनाणे । ( श० ८ / ६८ ) ३७. ते कतिविहे पणते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - मइअण्णाणे, सुरणाचे, विभंगनाथे । ( श० ८ / ६६ ) विरुद्धा भङ्गा - वस्तुविकल्पा यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच्च तज्ज्ञानं च अथवा विरूपो भङ्गः – अवधिभेदो विभङ्गः स चासो ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम् । ( वृ० प० ३४४ ) --- Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनीतपणे करी एकदा प्रस्तावे शुभ अध्यवसाये करी शुभ परिणामे करी विशुद्ध लेश्याई करी तदारणी कर्म नां क्षयोपशम करी हापोहमम्गणनवेसणं करेमाणस्स हा हितां अर्थ- चेष्टा - ज्ञान सन्मुख विचारवो । अपोह नों अर्थ वृत्तिकार तो विपक्ष कियो अन बड़ा टब में कह्यो — धर्म ध्यान बीजा पक्ष रहित निर्णय करवो । मग्गण कहितां तेहिज धर्म नीं आलोचना । गवेषणं कहितां अधिक धर्म नीं आलोचना करतां छतां विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पज्जति - विभंग नामैं अज्ञान ऊपजै । जघन्य आंगुलनों असंख्यातमो भाग उत्कृष्ट असंख्याता हजार जोजन जाणें, देखें ते विभंग ज्ञान करिकै जीव पिण जाणै, अजीव पिण जाण । पाखंड ने विषे रह्या ते महाआरंभी ने संक्लिश्यमान जाण । तेहनी अपेक्षाये अल्पआरंभी ने विशुद्धमान जाणै | जद प्रथम समक्त्व पामै साधु धर्म प्रतै रोचर्व, सद्दहै, बांछे, चारित्र परिवर्ज, लिंग परिवर्ज— 3 तस्म णं तेहि छिन परिमाणेहि परिहायमानेहि सम्मदंसणपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहि परिवड्ढमाणेहि से विब्भंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ- तिथे मिथ्यात्व पर्याय करी परिहीयमान होवे करी, सम्यन् दर्शन नां पर्याय तिग करी परिवर्तमान होते थके, ते विभंग नामा अज्ञान सम्यग्दर्शन परिगृहीत छतो उतावलो हीज अवधिज्ञान हुई । इहां प्रत्यक्ष पाठ में कह्यो - विभंग नामे अज्ञान ऊपजै । वलि कह्यं सम्यक्त पाम्ये छते 'विभंगे अण्णाणे' विभंग अज्ञान शीघ्र अवधि हुवै । इहां 'लुक्’ सूत्रे करी पाछला स्वर नों लुक् नथी थयुं । बहुलपणै लुक् कह्यं. छै ते मार्ट इहां लुक् न थयुं । 9 अनं विभंग नाण शब्द हुवै तिहां गकार मांहिला अकार नो लुक् हुवै पिण अनाण शब्द नां अकार नों लुक् न थयुं ते मार्ट विभंग नामैं अज्ञान कहीजै पिण ज्ञान न कहीजे जो विभंग में अकार नो अर्थ हुई तो विभंगे अनाणे एहयो सूत्रे क्यूं कह्यो ? तथा इहां सूत्रे बाल तपस्वी नैं विभंग ऊपजै ते विभंग ऊपजवा नो कारण सूत्रे कहां, निरंतर छठ छठ तप, सूर्य की आतापना, भद्रिक, विनीत, क्रोधादिक पातला, मृदुमार्दव, आलीन एहवा गुण कह्या । वलि भला अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या की तदावरणी कर्म नां क्षयोपशमे करी भली विचारणा करी (अयं में कह्यो) धर्म ध्याने करी विभंग अज्ञान ऊपजै । ए विभंग उपजवा नां कारण कह्या । विभंग विरुद्ध हुये तो शुभ अव्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध-लेश्या तदावरणी नों क्षयोपशम ए अभितर शुद्ध ऊपजवा नां कारण क्यूं कह्या ? वली को विभंग अज्ञान करी जीव पिण जाणें, अजीव पिण जाणे, पाखंड्यां न जाणे, सम्यक्त्व पामैं, जो ए विभंग विरुद्ध थी जीव अजीव किम जाणें ? पाखंड्यां नै किम ओलखे ? सम्यक्त्व किम पामै ? ते मार्ट ए विरुद्ध नथी । कर्म नां क्षयोपशम थी ए उपजे ते उज्जल जीव विरुद्ध नथी । अज्ञानी रा भाजन मार्ट विभंग अज्ञान कह्य ु अनैं सम्यक्त्व पामे ज्ञान रा भाजन मार्ट तेहने अवधिज्ञान कहियै । सम्यग् दृष्टि पूर्व भण्यो तेहन ज्ञानी रा भाजन माटे ज्ञान कहिये अने ते एक बोल कंधो श्रद्ध्यां छतां ते पूर्व नां ज्ञान नैं अज्ञानी रा भाजन माट श्रुत अज्ञान कहियै । एक बोल ऊंधो श्रद्ध, यो ते मिथ्यात आश्रव छे, पिण तेहने अज्ञान न कहिये । श० ८, उ० २, ठा० १३४ ३३९ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार ज्ञान तीन अज्ञान तो क्षयोपशम भाव छ। ऊंधो श्रद्धे ते मोहकर्म नों उदयनिष्पन छै । मति ज्ञानावरणी नों क्षयोपशम थयां थकां मति ज्ञान, मति अज्ञान नीपजै । श्रुत ज्ञानावरणी रो क्षयोपशम थयां श्रुत ज्ञान, श्रुत अज्ञान नीपजै । अवधि ज्ञानावरणी रो क्षयोपशम थयां अवधिज्ञान, विभंग अज्ञान नीपज । मनःपर्याय ज्ञानवरणी रो क्षयोपशम थयां मनःपर्याय ज्ञान नीपज । केवलज्ञानावरणी नों क्षय थयां केवलज्ञान नीपजे । ते भणी ए च्यार ज्ञान, तीन अज्ञान क्षयोपशम भाव छ । केवलज्ञान क्षायिक भाव छै। ऊजला लेखै निरवद्य छ। ते माट अज्ञान विरुद्ध विरूप नथी जिम टकसाल थकी एक रूपयो भंगी ले गयो, एक रूपयो ब्राह्मण ले गयो। भंगी कनै ते भंगी रो रूपयो बाजे, ब्राह्मण कनै ते ब्राह्मण रो रूपयो बाजै । इम भाजन लारै जुदो नाम बाजे, पिण रूपयो चांदी रो छै, चोखो छै । इम ज्ञानावरणी रा क्षयोपशम रूप टकसाल थी च्यारज्ञान, तीन अज्ञान नीपना. ते ऊजल जीव छ । कर्म अलगा थयां जीव ऊजलो हुवै, तेहनै विरुद्ध विरूप किम कहिये । अज्ञानी केइ बोल ऊंधा श्रद्ध छ, ते तो मिथ्यात आश्रव छै। ते मोह कर्म नां उदय थी नीपनों छै, ते अज्ञान नथी । अन अज्ञानी रै जेतलो शुद्ध जाणपणो छै ते ज्ञानावरणी रा क्षयोपशम थी नीपनो छै, तेहन अज्ञान कहीजै । ते माटै ऊंधी श्रद्धा नै अज्ञान जुदा-जुदा छै, तेहन कर्म अलगा थयां जीव ऊजलो हुवै छ, ज्ञान अज्ञान नीपज ते ऊजल जीव ने विरुद्ध कहै ते महा अन्याय है। वलि इहांइज लद्धी में पांच ज्ञान, तीन अज्ञान रा पजवा कह्या, ते कहै छैसर्व थी थोड़ा मनपर्याय ज्ञान रा पजवा । तेहथी विभंग अज्ञान नां पजवा अनंतगुणा । तेहथी अवधिज्ञान नां पजवा अनंतगुणा । तेहथी श्रुत अज्ञान नां पजवा अनंतगुणा । तेहथी श्रुत ज्ञान नां पजवा विसेसाहिया। तेहथी मति अज्ञान नां पजवा अनंतगुणा । तेहथी मतिज्ञान नां पजवा विसेसाहिया। तेहथी केवलज्ञान नां पजवा अनंतगुणा । इहां मनःपर्याय ज्ञान थकी विभंग अज्ञान नां पजवा अनंतगुणा कह्या अनै अवधि ज्ञान थकी श्रुत अज्ञान नां पजवा अनंतगुणा तीर्थंकरे कह्या, ते मार्ट ए विभंग अज्ञान विरुद्ध नथी। तीनूं अज्ञान रो क्षयोपशम भाव ऊजल जीव है, न्याय दृष्टि करी विचारी जोयज्यो।' (ज० स०) ३८. हिव स्यू मति अज्ञान ते ? जिन कहै च्यार प्रकार । अवग्रह ईहा अवाय छै, वले धारणा सार । ३६. हिव स्यूते अवग्रह कह्यो ? जिन कहै दोय प्रकार । अर्थ अवग्रह जाणिय, व्यंजन अवग्रह धार ।। ३८. से कि तं मइअण्णाणे? मइअण्णाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा–ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा। (श० ८/१००) ३६. से कि तं ओग्गहे ? ओग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। ४०. एवं जहेव आभिणिबोहियनाणं तहेव, नवरं एगट्ठियवज्ज। ४१, ४२. इहाभिनिबोधिकज्ञाने 'उग्गिण्हणया अवधारणया सवणया अवलंबणया मेहे, त्यादीनि पञ्च पञ्चकाथिकान्यवग्रहादीनामधीतानि । ४०. जिम आभिनिबोधिक कह्यो, तिमहिज णवरं एह । एकार्थ वर्जी करी, तास न्याय इम लेह । ४१. ज्ञान आभिनिबोधिक विषे, ओगिण्हणया जेह । अवधारणया सवणया, अवलंबणया मेह ।। ४२. इत्यादिक जे आखिया, पंच पंच जे भेद । एक अर्थ छै तेहनों, अवग्रहादिक नां वेद ।। ३४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. मति अज्ञान विषे वली, ते नहिं कहिवा भेद । तिण कारण एकाथिका, वा आण उमेद ।। ४४. जाव नोइंद्री धारणा, कही धारणा एह । मति अज्ञान ए आखियो, भाव क्षयोपशम जेह ॥ ४५. हिव स्य श्रुत अज्ञान ते? तब भाखै जिनराय । ए अज्ञानी नां रच्या, मिच्छदिट्री नां ताय । ४६. जिम नंदी सूत्रे कह्या, भारत रामायण आदि । यावत वेद चिउं वली, अंग उपंगज साधि । ४७. शिक्षादिक षट अंग छै, उपंग तसु व्याख्यान । श्रुत अज्ञान ए आखियो, हिव तसु न्याय पिछान । सोरठा ४८. मिथ्यादृष्टी जाण, स्वछंद बुद्धि मति रच्या । भारतादि पहिछाण, श्रुत अज्ञान कह्यो तसु॥ वा०--तिहां अवग्रह, ईहा बुद्धि अने अवाय, धारणा मति स्वच्छंद ते पोता नां अभिप्राय करिक । तत्व थकी सर्वज्ञ प्रणीत अर्थ अनुसार विना बुद्धि अनै मति ए बिहु करिक विकल्पित ते रच्या, ते स्वच्छंद बुद्धि मति विकल्पित कहिये, ते भारतादिक। ४३. मत्यज्ञाने तु न तान्यध्येयानीति भावः । (वृ० प० ३४५) ४४. जाव नोइंदियधारणा । सेत्तं धारणा, सेत्तं मइअण्णाणे । (श०८/१०१) ४५, ४६. से कि तं सुयअण्णाणे? सुयअण्णाणे-जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिद्विएहि सच्छंदबुद्धि-मइ-विगप्पियं, तं जहा--भारहं, रामायणं जहा नंदीए (सू० ६७) जाव चत्तारि वेदा संगो वंगा। ४७. इहाङ्गानि-शिक्षादीनि षट् उपाङ्गानि च तद्व्याख्यानरूपाणि । (वृ० प० ३४५) सेत्तं सुयअण्णाणे । (श० ८/१०२) वा०-'सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं तं जहा-भारहं रामायण' मित्यादि तत्रावग्रह बुद्धिः अवायधारणे च मतिः स्वच्छन्देन--स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं । (वृ०प० ३४५) ४६. 'निज शास्त्र रै मांहि, जिन-मत मिलती वारता । तसु जाणपणो ताहि, कहियै श्रुत अज्ञान ते ॥ ५०. पूरव भण्यो पिछाण, समदृष्टि रै ज्ञान श्रुत । मिथ्याती रै जाण, श्रुत अज्ञान कहीजिये ।। ५१. तिम निज रचित विचार, जिन मत मिलती बात जे । तसु जाणपणो सार, श्रुत अज्ञान कह्यो अछ । ५२. ज्ञानवरणी देख, क्षयोपशम थी नीपनों । ज्ञान अज्ञान संपेख, अनुयोगद्वार विषे कह्यो । ५२. से कि तं खओवसमनिप्फण्णे ? खओवसमनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णते, तं जहा--- खओवसमिया आभिणिबोहियनाणलद्धी........ खओवसमिया विभंगनाणलद्धी (अणुओग सू० २८५) ५३. तस्स णं छठंछट्टेणं........से विभंगे अण्णाणे सम्मतपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ । (श० ६ उ० ३१ सू०३३) ५३. असोच्चा अधिकार, विभंग मिथ्या ष्टि तणें । सम्यक्त आयां सार, अवधिज्ञान कहियै तम् ।। ५४. इहविध न्याय पिछाण, अवधिज्ञान समदृष्टि रै। आयां धर गणठाण, विभंग अज्ञान कहीजिये ॥ ५५. विभंग अवधि जे ज्ञान, दर्शण एक बिहुँ तणो । अवधि नाम पहिछाण, भाव क्षयोपशम ते भणी ।। ५६. जिन आगम अवलोय, समदृष्टो रै ज्ञान ते । भणे मिथ्याती कोय, कहिये तास अज्ञान ते ।। ५७. भाजन लारै जान, ज्ञान अज्ञान कहीजिये । समदृष्टी रै ज्ञान, अज्ञान अज्ञानी तणें ॥ श० ८, उ०२, ढा०१३४ ३४१ Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६-६३. चंदपण्णत्ती १।२५ (सूरपण्णत्ती) ५८. केइ अजाण कहंत, जे मिथ्यादृष्टी तणें । भणवो जितरो हंत, ऊंधो जाणपणो सरव ॥ ५६. चंदपन्नती मांय, पहिला पाहुड़ा तणां । सप्तम जे सुखदाय, पाहुड पाहुड में कह्यो । ६०. अट्ट पडिवत्ती जाण, अन्यतीथि नी कहण ते । मंडल नो संठाण, जुओ-जुओ भाखै तिके ॥ ६१. इक कहै समचउरंस, मंडल नो संठाण छै । एक विषम चउरंस, संस्थाने मंडल कहै । ६२. सम चउकोण संठाण, एक विषम चउकोण कहै । सम चक्रवाल पिछाण, एक विषम चक्रवाल कहै ।। ६३. चक्र अर्द्ध चक्रवाल, एक छत्र आकार कहै । ए तसू कहण निहाल, पडिवत्ती अठ तेहनी ॥ ६४. जिन कहै छत्राकार, ए नय करिने जाणवी । स्वमत ए अंगीकार, सात पडिवत्ती नहिं मिलै ॥ ६५. इम अन्यतीर्थक बात, जिन-मत सू मिलती तिका । मानी श्री जगनाथ, अणमिलती मानी नथी। ६६. तिम तसु ग्रंथ मझार, जिन-मत मिलती वारता । ते शुद्ध जाणे सार, तिण रै ए अज्ञान है। ६७. तिण कारण अज्ञान, क्षय उपशम भावे कह्य । अज्ञान निसुणी कान, भरम कोई भूलो मती' ॥ (ज० स०) ६८. *अथ स्य विभंग अनाण ते? जिन कहै विविध प्रकार । ग्राम तणे संठाण छ, नगर संठाण विचार ।। ६८. से किं तं विभंगनाणे ? विभंगनाणे अणेगविहे पण्णते, तं जहा-गामसंठिए, नगरसंठिए, ६६. जाव सण्णिवेससंठिए, दीवसंठिए, समुद्दसंठिए, ६६. यावत सण्णिवेस नैं, संठाणे पहिछाण । द्वीप तण संस्थान ते, समुद्र तणे संठाण ।। ७०. वास भरत प्रमुख कह्या, क्षेत्र तणे संठाण । वर्षधर हिमवंत आदि दे गिरि संठाणे जाण ॥ ७१. पर्वत गिरि सामान्य ते, तास संठाण विचार । तरु थूभ हय गज वली, तेह तणे आकार ॥ ७२. नर किन्नर किंपुरुष नैं, महोरग गंधर्व जाण । उसभ पशु आकार ते, कहियै विभंग अनाण ॥ ७३. पसय द्विखर अटवी तणां, चउपद तणां विशेष । पंखी नै बांदर तणा, आकारेज कहेस । ७०. वाससंठिए, वासहरसंठिए, 'वाससंठिए' नि भरतादिवर्षाकारं 'वासहरसंठिए' त्ति हिमवदादिवर्षधरपर्वताकारं। (वृ०प० ३४५) ७१. पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभसंठिए, हयसंठिए, ___ गयसंठिए, ७२. नरसंठिए, किन्नरसंठिए, किंपुरिसमंठिए, महोरगसंठिए, गंधब्वसंठिए, उसभसंठिए, पसुसंठिए, ७३. पसयसंठिए, विहगसंठिए, वानरसंठिए ----- तत्र पसयः-आटव्यो द्विखुरपचतुष्पदविशेषः । (वृ० प० ३४५) ७४. नाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । (श० ८/१०३) ७४. वलि नाना प्रकार नां, संठाणे करि सोय । विभंग तणो आकार छ, एह विभंग अवलोय ।। *लय : सुण सुण साधुजी हो मुनिवर ३४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. देश बयांसी अंक मुं, सौ चउतोसमी ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' गण गुणमाल ।। ढाल १३५ दूहा १. आख्या ज्ञान अज्ञान ए, हिव आगल अधिकार । ज्ञानी अज्ञानी तणो, कर निरूपण सार || २. जीव दंडक चउवीस जे, वलि गत्यादिक द्वार। ज्ञान अनैं अज्ञान नी, नियमा भजना सार ।। *जय जश दायक संपति लायक, नायक नाथ निमल नाणी। देव जिनेंद दिनेंद अमंद, सुधा-रस चंद सरस वाणी ॥ (ध्र पदं) ३. हे प्रभ ! जीवा स्य नाणी छै, के तसु कहिये अज्ञानी ? जिन कहै जीवा ज्ञानी पिण छै, अज्ञानी पिण पहिछानी॥ ४. जे ज्ञानी ते केइ बे ज्ञानी, केइ एक छै त्रिण ज्ञानी। केइ चउज्ञानी केइ इक ज्ञानी, हिव एहनों निर्णय जानी ।। ५. बे ज्ञानी ते मति श्रुत ज्ञानी, त्रिण ज्ञानी इहविध जानी। ___मति श्रुत अवधि तथा मति श्रुत मनपज्जव तीजो गुणखानी ॥ १. अनन्तरं ज्ञानान्यज्ञानानि चोक्तानि, अथ ज्ञानिनोऽ ज्ञानिनश्च निरूपयन्नाह- (वृ०प० ३४५) २. गइइंदिए य काए सुहुमे पज्जत्तर भवत्थे य । भवसिद्धिए य सन्नी लद्धी उवओग जोगे य ।।१।। लेसा कसाय वेए आहारे नाणगोयरे काले । अन्तर अप्पाबहुयं च पज्जवा चेह दाराई ।।२।। (व०प०३४६) ३. जीवा णं भंते ! कि नाणी? अण्णाणी? गोयमा ! जीवा नाणी वि, अण्णाणी वि। ४. जे नाणी ते अत्यंगतिया दुण्णाणी, अत्थेगतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, अत्थेगतिया एग नाणी। ५. जे दुण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी य । जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, अहवा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी, मणपज्जवनाणी। ६. जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपज्जवनाणी। जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी। ७. जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। ८. जे दुअण्णाणी ते मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य । जे तिअण्णाणी ते मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगनाणी। (श० ८/१०४) ६. नेरइया णं भंते ! किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। १०. जे नाणी ते नियमा तिण्णाणी, तं जहा—आभिणि बोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी। सम्यग्दृष्टिनारकाणां भवप्रत्ययमवधिज्ञानमस्तीतिकृत्वा ते नियमात् त्रिज्ञानिनः। (वृ० प० ३४५) ६. चउज्ञानी ते मति श्रुत अवधि, अनें मनपज्जव पहिछानी। ___ इक ज्ञानी ते नियमा निश्चै, केवलज्ञानी सुध ध्यानी ।। ७. जे अज्ञानी जीव अछ ते, कितरा इक बे अज्ञानी ? केइ एक छै तीन अज्ञानी, तसु निरणय आगल जानी ॥ ८. जे बे अज्ञानी छै तेहनें, कहिये मति श्रुत अज्ञानी। तीन अज्ञानी जेह जीव ते, मति श्रत विभंग विहं जानी ॥ है. प्रभ ! नारक स्यू' ज्ञानी छ ? के नारक छै अज्ञानी ? जिन कहै नारक ज्ञानी पिण छ, अज्ञानी पिण ते जानी। १०. ज्ञानी ते नियमा त्रिहुं ज्ञानी, मति श्रुत अवधि ज्ञान जानी। समदृष्टी जे नरके जावै, ए त्रिहुं सहित गमन ठानी। *लय : चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु श.८, उ० २, ढा० १३४,१३५ ३४३ Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जे अज्ञानी ते केइक में, दोय अज्ञान कह्या नाणी । तीन अज्ञान केइक में लाभ, भजना तीन अनाणाणी ॥ सोरठा १२. असन्नी नरके जाय, नरक विभंग न लाभे ताय, बे अज्ञान १३. सन्नी मिध्याती तिको विभंग ले ताय, जाय, १४. "असुरकुमार तणी पूछा, जिन नियमा तीन ज्ञान तणी थे. नरक विषे जे ऊपजै । भवप्रत्यय छँ ते भणी ॥ १५. एवं यावत थणियकुमारा, हिव पुढवी पूछा जानी । जिन कहै पुढवी ज्ञानी नहिं छै, नियमा दोय अनाणाणी ॥ अपर्याप्त विषे । इण कारणे ॥ १६. एवं जाव यणस्सइ कहिये, ज्ञानी नहि ते अज्ञानी । कर्म ग्रंथ जो गुणठाणो, आस्यो तेह विरुध जानी ॥ १८. जे अज्ञानी ते नियमा थी, इमहिन ते इंद्री में कहिये । कहे नरक जिम पहिचाणी । भजना तीन अनागाणी || १७. बे इंद्री नीं पूछा जिन कहै, ज्ञानी ने वलि अज्ञानी । जं ज्ञानी ते नियमा वे थे, मति श्रुत ज्ञान तास जानी ॥ ३४४ भगवती-जोड कहियै मति श्रुत अज्ञानी । इमहिज चरी जानो । १६. सम्यक्त सोरठा वमतो जाण, विकलेंडी में ऊप ! सास्वादन गुणठाण, अपर्याप्त विषे हुवे ॥ २०. पंचेंद्री तियंच नी पूछा, जिन भाखे सुण सुखदानी । तिरियचेंद्री ज्ञानो पिण, अज्ञानी पिण ते जानी ॥ २१. जे ज्ञानी ते केइक में बे, केइक तिर्यंच त्रिण ज्ञानी । इम त्रिण ज्ञान वणी छे भजना भजना तोन अज्ञानानो ॥ *लय चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु : गाणी अगतिवा तिअण्णाणी । एवं तिष्णि अण्णाणाणि भयणाए । (श० ८ / १०५) ११. ते अगतिया १२. असञ्ज्ञिनः सन्तो ये नारकेषूत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्वयज्ञानिनः । ( वृ० प० २४५) १२. ये तु माम् उत्पद्यन्ते तेषां भवत्यो विभङ्गो भवतीति ते शानिन (५० प० ३४५) १४. असुरकुमारा णं भंते ! कि नाणी ? अण्णाणी ? जब रइया तब तिष्णि नापाणि नियमा, विष्ण अण्णाणाणि भयणाए । , १५. एवं जाव णयकुमारा । (श० ८ / १०७) (००/ १०६) पुढविक्काइया णं भंते ! किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । जे अण्णाणी ते नियमादुष्णाणी मदनगाणी गुपवण्याची व १६. एवं जाव वणस्सइकाइया । सव्वजियठाणमिच्छे सग सासणि.... .....सग' ति सप्त जीवस्थानानि सासादने भवन्ति । तद्यथा पञ्चापर्याप्ताः' बादरकेन्द्रियोऽपर्याप्तः..... (देवेन्द्रसूरिविरचित चतुर्थ कर्म० १७६) १७. बेइंदियाणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । जे नाणी ते नियमा दुण्णाणी तं जहा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य । १०. नियमा दुअण्णाणी, तं जहा मइ अण्णाणी, गाणी य एवं तेईदिय चउरदिया वि । (श० ८ / १०८ ) १९. द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यग्दर्शनमावेनापतिकावस्थायां भवन्तीत्पत उच्यते । ( वृ० प० ३४५) २०. नितिरिक्तोणिया पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि । २१. जे नीतिगामी अत्येतिया तिण्णाणी । जे अण्णाणी ते अत्येगतिया दुअण्णाणी, अतियाताणी, एवं तिष्णि नाणानि, तिग्णि अण्णाणाणि भयणाए । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. मणुसा जीव कह्या जिम कहिवा, पंच ज्ञान भजना ठानी। तीन अज्ञान तणी छै भजना, अखिल न्याय दिल में आनी ।। २३. बाणव्यंतरा जेम नारकी, जोतिषी वैमानिक ख्यानी। तीन ज्ञान बलि तीन अज्ञान तणी, नियमा निश्चै मानी। २४. सिद्धां नीं पूछा जिन भाखै, ज्ञानी छै नहिं अज्ञानी। केवलज्ञान तणी छै नियमा, आतमीक सुख गुणखानी ॥ २२. मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच नाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। २३. वाणमंतरा जहा नेरइया । जोइसिय-वेमाणियाणं तिण्णि नाणाणि, तिण्णि अण्णाणि नियमा। (श० ८/१०६) २४. सिद्धाणं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी, नियमा एगनाणीकेवलनाणी। (श० ८/११०) वा०–अनन्तरं जीवादिषु षड्विंशतिपदेषु ज्ञान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः, अथ तान्येव गतीन्द्रियकायादिद्वारेषु चिन्तयन्नाह (वृ० प० ३४५) २५. निरयगतिया णं भंते ! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । २६. तिण्णि नाणाई नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए। (श० ८/१११) वा०--जीवादि छब्बीस पद नै विषे ज्ञानी अज्ञानी चितव्या, हिवै तेहिज गति, इंद्रिय, कायादि द्वार नै विषे चितवन करता छता कहे छ २५. नारकगतिया जीवा प्रभुजी ! स्य ज्ञानी के अज्ञानी ? श्री जिन भाखै ज्ञानी पिण छ, अज्ञानी पिण पहिछानी ।। २६. तीन' ज्ञान तणी छ नियमा, भजना तीन अज्ञानानी। नरक विषे नर तिरि ऊपजता, वाटे वहिता ए जानी ॥ सोरठा २७. पंचेंद्री तिर्यंच, वलि मनष्य थी नरक में। उत्पत्तिकामी संच, एह विचालै बरतता॥ २८. सम्यगदृष्टी जेह, नियमा तोन ज्ञान नीं। मिथ्यादृष्टी तेह, भजना तीन अज्ञान नी । २९. असन्नी नरके जाय, वाटे दोय अज्ञान तसु । सन्नी मिथ्याती ताय, वाटे तीन अज्ञान ह॥ २७. ये पंचेन्द्रियतिर्यगमनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगतौ वर्त्तन्ते ते निरयगतिका विवक्षिताः । (वृ० ५० ३४६) ३०. तिण कारण अवलोय, नियमा तीन ज्ञान री। अज्ञान त्रिहं नी सोय, भजना छै इण कारणे ।। ३१. *तिर्यंचगतिया जीवा प्रभजी ! स्य ज्ञानी के अज्ञानी ? जिन कहै दोय ज्ञान में दोय अज्ञान तणी नियमा जानी।। २६. असज्ञिनां नरके गच्छतां द्व अज्ञाने अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सज्ञिनां तु मिथ्यादृष्टीनां त्रीण्यज्ञानानि भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावाद् । (वृ० प० ३४६) ३०. एतत्प्रयोजनत्वाद् गतिग्रहणस्येति तिन्नि नाणाई नियम' त्ति... अतस्त्रीण्यज्ञानानि भजनयेत्युच्यत इति । (वृ० प० ३४६) ३१. तिरियगतिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी? गोयमा ! दो नाणा, दो अण्णाणा नियमा। (श०८/११२) ३२. तिर्यक्षु गतिः---गमनं येषां ते तिर्यग्गतिकास्तेषां तद पान्तरालत्तिनां 'दो नाण' त्ति सम्यग्दृष्टयो अवधिज्ञाने प्रपतिते एवं तिर्यक्षु गच्छन्ति तेन तेषां द्वे एव ज्ञाने 'दो अन्नाणे' ति मिथ्यादृष्टयोऽपि हि विभङ्गज्ञाने • प्रतिपतिते एव तिर्यक्षु गच्छन्ति तेन तेषां द्वे अज्ञाने (वृ० प० ३४६, ३४७) सोरठा ३२. तिथंच में आवंत, वाटे ज्ञान अज्ञान बे। अवधि विभंग न हुँत, तिण स्य नियमा बे तणी॥ इति । *लय: चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु श०८, उ०२ ढा० १३५ ३४५ Jain Education Interational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. मणुस्सगतिया णं भंते! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी? गोयमा ! तिष्णि नाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। ३३. *मनुष्यगतिया जीवा प्रभुजी ! स्यज्ञानो के अज्ञानी ? जिन कहै भजना तीन ज्ञान नीं, नियमा बे अज्ञानानि ॥ सोरठा ३४. मन गति में आवंत, वाटे वहितां नै विषे। अवधि सहित गच्छंत, तीर्थंकरवत कोइक में । ३५. कोइक अवधि तजेह, आवै बे ज्ञाने करी। तिण सू एम कहेह, भजना ए त्रिण ज्ञान नीं। ३६. अज्ञानी आवंत, मनुष्य विषे जे वाट में। विभंग अनाण न हुंत, नियमा दोय अज्ञान नीं। ३४. मनुष्यगतौ हि गच्छन्तः केचिद्ज्ञानिनोऽवधिना सहैव गच्छन्ति तीर्थङ्करवत् । (वृ० प० ३४७) ३५. केचिच्च तद्विमुच्य तेषां त्रीणि वा द्वे वा ज्ञाने __ स्यातामिति । (वृ० प० ३४७) ३६. ये पुनरज्ञानिनो मनुष्यगतावुत्पत्तुकामास्तेषां प्रति पतित एव विभङ्ग तत्रोत्पत्तिः स्यादित्यत उक्तं 'दो अन्नाणाई नियम' ति। (व०प० ३४७) ३७. देवगतिया जहा निरयगतिया । (श० ८/११३) सिद्धगतिया णं भंते ! जीवा कि नाणी? जहा सिद्धा। (श० ८/११४) ३७. *सरगतिया जिम नारकगतिया, सिद्धगतिया प्रभु!स्यू ज्ञानी? सिद्ध जेम सिद्धगतिया कहिवा, सर सिद्ध न्याय हिवै जानी ।। सोरठा ३८. जे ज्ञानी सर हुँत, अंतराल तेहनै अवधि। भव-प्रत्यय उपजंत, देवायु धुर समय में ।। ३६. इण कारण तसु ख्यात, नारक जिम त्रिण ज्ञान नीं। नियमा निश्चै थात, इहविध आख्यो वृत्ति में। ४०. फुन अज्ञानी जेह, ऊपजता असन्नी थकी। बे अज्ञान कहेह, अपर्याप्त में विभंग नहीं। ४१. सन्नी थी उपजंत, विभंग व भवप्रत्यय । तस नारक जेम कहंत, भजना तीन अज्ञान नीं। ४२. प्रथम समय सिद्ध पेख, सिद्धि-गतिका तेहनें। कह्या वाटे वहिता देख, सिद्धा ते सह सिद्ध गिण्या ॥ ४३. सिद्धा सिद्धि-गतिकाज, अन्य विशेष न बिहुँ मझे। वलि गति द्वार समाज, तिण सू देखाड्या इहां ।। ३८. देवगतो ये ज्ञानिनो यातुकामास्तेषामवधिर्भवप्रत्ययो देवायुः प्रथमसमय एवोत्पद्यते। (वृ० प० ३४७) ३६. अतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते 'तिन्नि नाणाई नियम' (वृ० प० ३४७) ४०. ये त्वज्ञानिनस्तेऽसज्ञिभ्य उत्पद्यमाना द्वयज्ञानिनः, अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् । (वृ० प० ३४७) ४१. सचिभ्य उत्पद्यमानास्त्वज्ञानिनो भवप्रत्ययविभङ्ग स्य सद्भावाद् अतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते---- 'तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' त्ति। (वृ० प० ३४७) ४४. इम अन्य द्वार मझार, अकाइया प्रमख कह्या । द्वार वले अधिकार, पुनरुक्त दोष न जाणवू॥ ४५. *हे भगवंत ! सइंदिया जीवा, स्य ज्ञानी के अज्ञानी ? जिन कहै च्यार ज्ञान ने तीन अज्ञान तणी भजना जानी॥ सोरठा ४६. सइंदिया में जाण, गुणठाणा बारै अछ । तिण कारण पहिछाण, केवल वर्जी चिउं कह्या ॥ वा......इंद्रिय उपयोगवंत ते सइंदिया ज्ञानी नै कदाचित् बे, कदाचित् तीन, कदाचित् च्यार ज्ञान हुवै । तेहन केवलज्ञान नहीं, अतीन्द्रिय ज्ञानपणां थकी। दोय ४३. यद्यपि च सिद्धानां सिद्धिगतिकानां चान्तरगत्यभावान्न विशेषोऽस्ति तथाऽपीह गतिद्वारबलायातत्त्वात्ते दशिताः । (वृ० प० ३४७) ४४. एवं द्वारान्तरेष्वपि परस्परान्तर्भावेऽपि तद्विशेषा. पेक्षयाऽपौनरुत्त्क्यं भावनीयमिति । (वृ० प० ३४७) ४५. सइंदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिणि अण्णाणाईभयणाए। (श०८/११५) वा० सेन्द्रियाः' इन्द्रियोपयोगवन्तस्ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां चत्वारि ज्ञानानि भजनया स्यात् द्वे स्यात् त्रीणि स्याच्चत्वारि, केवलज्ञानं तु नास्ति *लय : चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु ३४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि ज्ञान हुवै ते लब्धि अपेक्षया । उपयोग नी अपेक्षाय करिक सर्व नै एक काल नै विषे एक हीज ज्ञान हुई। तेषाम् अतीन्द्रिययज्ञानत्वात्तस्य, द्वयादिभावश्च ज्ञानानां लब्ध्यपेक्षया, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम् (व०प०३४७) ४७. एगिदिया णं भंते ! जीवा कि नाणी? जहा पुढ़विकाइया । ४७. *हे प्रभ ! एगिदिया जीवा ते, स्य ज्ञानी कै अज्ञानी ? पृथ्वीकाय जेम नो नाणी, नियमा बे अज्ञानानि । वा०--तिहां जे प्रथम द्वारे जीव पद, चउवीस दंडक सिद्ध पद---ए छब्बीस पद नै विषे पृथ्वीकाय नै कह्यो नो नाणी अज्ञानी छ, तेहनै बे अज्ञान नियमा इम कह्यो । तिम एकेन्द्रिय – पिण कहि । ४८. बेइंदी नै तेइंद्री, वलि चरिंद्री पहिछानी । दोय ज्ञान नैं दोय अज्ञान तणी नियमा निश्चै ठानी।। सोरठा ४६. विकलेंद्री अपजत्ति, सास्वादन ज्ञानी विषे । ज्ञान दोय निष्पत्ति, षट आवलिका मान तसु ।। ४८. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया णं दो नाणा, दो अण्णाणा नियमा। ५०. *पंचिंदिया सइंदिया जिम छ, अणिदिया पूछा ठानी । सिद्ध जेम केवल नी नियमा, इंद्रिय द्वार समाप्तानी ॥ ४६. 'बेइंदिये' त्यादि, एषां द्वे ज्ञाने, सासादनस्तेषूत्पद्यत इति कृत्वा,सासादनश्चोत्कृष्टतः षडावलिकामानोऽतो द्वे ज्ञाने तेषु लभ्येत इति (वृ० प० ३४७) ५०. पंचिदिया जहा सइंदिया। (श०८।११६) अणिदिया णं भंते ! जीवा कि नाणी! जहा सिद्धा । (श० ८।११७) ५१. सकाइया णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी? गोयमा ! पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए। ५१. सकाइया जीवा हे. भगवंत ! स्य ज्ञानी के अज्ञानी ? पंच ज्ञान नै तीन अज्ञान तणी भजना दिल पहिछानी ।। सोरठा ५२. काय ओदारिक आदि, तेणे करी सहित जे । सकाइया संवादि, पृथ्वी प्रमुखज काय षट । ५३. *पृथ्वी जावत वनस्पती ते, ज्ञानी नहिं छै अज्ञानी । बे अज्ञान तणी नियमा, मति श्रुत अनाण तणी जानी ॥ ५४. तसकायिक ते सकाइया जिम, पंच तीन भजना ठानी। अकाइया नी पूछा कीधां, जिन कहै सिद्धां जिम जानी।। ५२. सह कायेन-औदारिकादिना शरीरेण पृथिव्यादिषट कायान्यतरेण वा कायेन ये ते सकायास्त एव सकायिकाः । (वृ० ५० ३४७) ५३. पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया नो नाणी, अण्णाणी-नियमा दुअण्णाणी तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य। ५४. तसकाइया जहा सकाइया (श० ८।११८) अकाइया णं भंते जीवा कि नाणी? जहा सिद्धा। (श० ८।११६) ५५. सुहुमा णं भंते ! जीवा कि नाणी? जहा पुढ़विक्काइया । (श० ८। १२०) ५६. बादरा णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सकाइया। (श० ८।१२१) ५७ नोसुहुमा-नोबादरा णं भंते ! जीवा किं नाणी ? जहा सिद्धा। (श० ८।१२२) ५८. पज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सकाइया। (श० ८।१२३) ५५. सूक्ष्म जीव प्रभु ! स्यज्ञानी? जिम पृथ्वी तिम पहिछानी । दोय अज्ञान तणी छै नियमा, नहिं कहिये तेहने ज्ञानी॥ ५६. बादर जीवा स्यू प्रभु ! ज्ञानी ? सकाइया जिम ए जानी। पंच ज्ञान नै तीन अज्ञान तणी भजना तिण में मानी॥ ५७. नोसूक्षम नोबादर जीवा, सिद्ध जेम आख्यातानी । केवल ज्ञान तणी छै नियमा, सूक्ष्म द्वार समाप्तानी ।। ५८. पर्याप्ता प्रभु ! स्यू ज्ञानी छै ? सकाइया जिम ए जानी । पंच ज्ञान नैं तीन अज्ञान तणी भजना सांभल ध्यानी॥ *लय : चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु श०८, उ० २, ढा० १३५ ३४७ Jain Education Intemational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. पर्याप्ता नारकी हे भगवंत ! स्य ज्ञानी कै अज्ञानी? तीन ज्ञान नै तीन अज्ञान तणी नियमा निश्चै ठानी। वा.--अपर्याप्तक असंज्ञी नारक नै विभंग नहीं, इण हेतु थकी पर्याप्तक अवस्था नै विषे ते असन्नी नारकी नै अज्ञान तीनहीज हुई। तक ६०. पर्याप्ता दस भवनपति ते, जेम नारकी तिम जानी। पज्जत पृथ्वी ते जिम एगिदिया, जाव चरिंदिया इम ठानी॥ ६१. पर्याप्ता तिर्यंच पंचेंद्री, स्य ज्ञानी कै अज्ञानी? तीन ज्ञान ने तीन अज्ञान तणी भजना हे मनि ! जानी॥ ५६. पज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी ? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा नियमा । वा. ----अपर्याप्तकानामेवासज्ञिनारकाणां विभङ्गा. भाव इति, पर्याप्तकावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति । (वृ० प० ३४७) ६०. जहा नेरइया एवं थणियकुमारा । पुढ़विकाइया जहा एगिदिया । एवं जाव चउरिदिया। (श० ८।१२४) ६१. पज्जत्ता णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया कि नाणी? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। वा० -पर्याप्तकपञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिविभङ्गो वा केषाञ्चित्स्यात् केषाञ्चित् पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानान्य ज्ञानानि वा। ६२. मणुस्सा जहा सकाइया। वा०—पर्याप्ता पंचेंद्री तिर्यच नै अवधि ज्ञान अथवा विभंग अज्ञान किणहिक में हुवै, किणहिक में न हुवै । तिण सू तीन ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना कही। ६२. पज्जत्त मणुस्सा सकाइया जिम, पंच ज्ञान भजना जानी । तीन अज्ञान तणी छै भजना, अदल न्याय हृदये आनी ।। ६३. पर्याप्त व्यंतर नैं जोतिषी, वैमानिक सुर सुखदानी । नरक पज्जता जिम त्रिण ज्ञान, अज्ञान तणी नियमा ठानी। ६४. अपर्याप्त जीवा हे भगवंत ! स्य ज्ञानी कै अन्नाणी ? तीन ज्ञान में तीन अज्ञान तणी भजना कहियै छाणी।। ६५. अपर्याप्ता नारक प्रभजी! स्य ज्ञानी कै अज्ञानी ? तीन ज्ञान नी नियमा कहिये, भजना तीन अज्ञानानी॥ ६६. एवं जावत थणियकुमारा, अपज्जत्त पंच स्थावर जाणी। जेम एकेंद्री तिम नहिं ज्ञानी, नियमा मति श्रत अन्नाणी॥ .६७. अपज्जत्त विकलेंद्री फुन तिर्यंच पंचेंद्री अपज्जत्त जानी । दोय ज्ञान नैं दोय अज्ञान तणी नियमा निश्चै ठानी। ६३. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । (श० ८।१२५) ६४. अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा-भयणाए। (श० ८।१२६) ६५. अपज्जत्ता णं भंते ! नेरइया कि नाणी ? अण्णाणी ? तिणि नाणा नियमा, तिणि अण्णाणा भयणाए। ६६. एवं जाव थगियकुमारा । पुढविक्काइया जाव वणस्सइ काइया जहा एगिदिया। (श० ८।१२७) ६७. बेइंदियाणं पुच्छा। दो नाणा, दो अण्णाणा-नियमा। एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । (श० ८।१२८) वा०-अपर्याप्तकद्वीन्द्रियादीनां केषाञ्चित् सासादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने केषाञ्चित्पुनस्तस्या सद्भावाद् द्वे एवाज्ञाने। (वृ० प० ३४७) ६८. अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा कि नाणी ? अण्णाणी ? तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अण्णागाई नियमा। वा०-अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभावे त्रीणि ज्ञानानि यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु द्वे एवाज्ञाने, विभङ्गस्या पर्याप्तकत्वे तेषामभावात् (वृ० प० ३४७) ६६. वाणमंतरा जहा नेरइया । वा०-विकलेन्द्री तिर्यच पंचेन्द्री नां अपर्याप्तक में कोइक में सास्वाद हवे तिण में वे ज्ञान नी नियमा, कोइक में सास्वादन नहीं हवै, तेह में दोय अज्ञान नीं नियमा। ६८. अपर्याप्ता मनुष्य हे भगवंत ! स्य ज्ञानी के अज्ञानी ? तीन ज्ञान नी भजना कहिये, नियमा दोय अज्ञानानी ।। वा......अपर्याप्तक मनुष्य सम्यग्दृष्टि नै अवधि हुवै तिवारे तीन ज्ञान जिम तीर्थंकर में । जिण में अवधि न हुवै तिग में बे ज्ञान । मियादृष्टि में वे अज्ञान हीज, मनुष्य अपर्याप्तक विष विभंग न हुवे, ते माटे बे अज्ञान नी नियमा। ६६. अपर्याप्ता जे वाणव्यंतरा, अपज्जत्त नारका जिम जानी ।। तीन ज्ञान नी नियमा कहिय, भजना तीन अनाणानी ॥ ७०. अपज्जत्त जोतिषि नैं वैमानिक, तत्र सन्नी ऊपजे आनी । तीन ज्ञान नैं तीन अज्ञान तणी नियमा निश्चै जानी ।। ७०. अपज्जत्तगाणं जोइसिय- वेमाणियाणं तिणि नाणा, तिण्णि अण्णाणा-नियमा (श० ८।१२६) ३४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. नोपर्याप्त नोअपज्जता, स्यूं प्रभु ! ज्ञानी अज्ञानी ? जेम सिद्ध तिम पाठन कहियो द्वार पर्याप्त ए जानी ॥ ७२. नरक-भवस्था उत्पत्ति स्थानक, पाम्या ते प्रभु ! स्यूं नाणी ? नरक -गतिया तिम ए कहिवा, बुद्धिवंत लीजो पहिचाणी ॥ ७३. तिरिय भवस्था तियंच उत्पत्ति स्थानक पाम्या ते जानी । तीन ज्ञान में तीन अज्ञान तणी भजना कहिये ध्यानी || , ७४. मनुष्य भवस्था सकाइवा जिम, उत्पत्ति-स्थानक प्राप्तानी । पंच ज्ञान ने तीन अज्ञान तणी भजना मुनिवर जानी ॥ ७५. सुरभवस्था जिम नरक-भवस्या, उत्पत्ति-स्थानक प्राप्तानि । ज्ञान तीन नीं नियमा कहिये, भजना तीन अज्ञानानि ॥ ७६. अभवस्था भव विषे रह्या नहि, सिद्ध जेम आख्यातानि । ज्ञान एक केवल नीं नियमा, भवस्थद्वार समाप्तानि ॥ ७७. भवसिद्धिया प्रभु ! स्यू ज्ञानी छ ? सकाइया जिम पहिछानी । पांच ज्ञान ने तीन अज्ञान तणी भजना ए कथियानी || ७८. अभवसिद्धिया पूछा जिन कहै, ज्ञानी नहिं छै अज्ञानी । तीन अज्ञान तणी छँ भजना, ए तो प्रत्यक्ष ही जानी ॥ ७६ नोभव ने नोअभव- सिद्धिया जीवा प्रभुजी ! स्यूं नाणी ? सिद्ध जेम इक केवल नियमा भवसिद्धिक ए द्वारानी ॥ ८०. सन्नी पूछा जेम सइंदिया, च्यार तीन भजना जानी । असली जेम बेईदिया तिम, दोय-दोष नियमा ठानी ॥ सोरठा ८१. असन्नी अपज्जत्त मांहि सास्वादन में ज्ञान बे । जिहां सास्वादन नाहि, निश्चय तिहां अज्ञान वे ॥ ८२. *नोसन्नी - नोअसन्नी केवलि, सिद्ध जेम कहियै ध्यानी । सन्नीद्वार को ए नवमों, जीव सहित आख्यातानी ॥ ८२. अंक बवांसी देश ढाल ए सौ पेंतीसम पहिचानी । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति सुखदानी ॥ *लय : चेत चतुर नर कहै तन सतगुरु ७१. नोपज्जत्तगा-नोअपज्जत्तगा णं भंते! जीवा किं नाणी ? जहा सिद्धा । ( श० ८।१३० ) ७२. निरयभवत्था णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी ? जहा निरयगतिया । (० ०१३१) निरयभवे तिष्ठन्तीति निरयभवस्थाः प्राप्तोत्पत्तिस्थानाः । ( वृ० प० ३४८) जीवा किं नाणी ? ७३. तिरियभवत्था णं भंते ! अण्णाणी ? ७४. मणुस्सभवत्था ? जहा सकाइया । ७५. देवभवत्था णं भंते ! जहा निरयभवत्था ७६. अभवत्था जहा सिद्धा । तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए । ७७. भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सकाइया । ७८. अभवसिद्धियाणं पुच्छा । ( श० ८।१३२) (०८११२२) ( ० ८१३४) ८२. नोसण्णी - नोअसण्णी जहा सिद्धा । गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ७६. नो भवसिद्धिया-नो अभवसिद्धिया णं भंते! जीवा कि नाणी ? जहा सिद्धा (०८१२७) ८०. सण्णीणं पुच्छा । जहा सइंदिया असण्णी जहा बेइंदिया | (श० ८।१३५ ) ८१. अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वयमपि सासादनतया स्यात्, पर्याप्तावस्थायार्थः । ( वृ० प० ३४८ ) (०२१३८) (० ०१३६) श० ८, उ०२, ढा० १३५ ३४९ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १३६ १. हे प्रभ ! लद्धी कतिविहा? दाखै श्री जिनदेव । दस प्रकार लद्धी कही, इहां वृत्तिकार कहेव ।। २. कर्म-क्षयादिक थी हुवै, ज्ञानादिक गण जाण । ___ तास लाभ लद्धी तिका, तसु दस भेद पिछाण ।। ३. ज्ञान-लद्धी दर्शन-लद्धी, चारित्र-लद्धी चाय । लद्धी चरित्ताचरित्त फुन, दान-लद्धि कहिवाय ।। ४. लाभ-लद्धी नै भोग-लद्धी, वलि लद्धी उपभोग । वीर्य नैं इंद्रिय-लद्धी, ए दस लद्धी अमोघ ॥ ५. ज्ञानावरणी कर्म क्षय, तथा क्षयोपशम होय । तिण करिने जे लाभ ते, ज्ञान-लद्धि अवलोय ॥ ६. दर्शण मोहनी कर्म ते, उपशम क्षायक होय । तथा क्षयोपशम थी हुवै, दर्शन-लद्धी सोय ।। वा०—इहां दर्शन-लद्धी में जे उदय भाव-ऊंधी श्रद्धा ते लब्धि में किम न लेखवी ? उत्तर---ए लब्धि उज्जल जीव छ, निरवद्य छ । अनैं ऊंधी श्रद्धा मिथ्यात आश्रव बिगडयो जीव छ, सावद्य छै ते माटे । मिथ्यादष्टि रे वा मिथदष्टि रै जेतली शुद्ध श्रद्धा क्षयोपशम भावे छै अनै सम्यग्दृष्टि रै सर्व शुद्ध श्रद्धा छै, ते दर्शण लद्धी में लेखवी। ७. चारित्र मोहनी कर्म ते, उपशम क्षायक होय । तथा क्षयोपशम थी हुवै, चारित्र-लद्धी जोय । ८. चारित्र मोहनी कर्म ते, क्षयोपशम थी होय । लद्धी चरित्ताचरित्त ते, श्रावकपणो सुजोय ॥ १. कति विहा णं भंते ! लद्धी पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं जहा२. तत्र लब्धि :—आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः । (वृ० प० ३५०) ३. नाणलद्धी दंसणलद्धी चरित्तलद्धी चरित्ताचरित्तलद्धी दाणलद्धी। ४. लाभलद्धी भोगलद्धी उवभोगलद्धी वीरियलद्धी इंदियलद्धी। (श० ८।१३६) ५. तत्र ज्ञानस्य-विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिनिलब्धिः । (वृ० प० ३५०) माय॥ ७. चारित्रं-चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः (वृ० प० ३५०) ८. चरित्रं च तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रं-संयमा संयमः, तच्चाप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणाम: । (वृ० प० ३५०) ६-१३. दानादिलब्धयस्तु पञ्चप्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसम्भवाः । (वृ० ५० ३५०) ६. दान अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, दान-लद्धि अवलोय ।। १०. लाभ अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, लाभ-लद्धि अवलोय ।। ११. भोग अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय। अथवा क्षयोपशम थकी, भोग-लद्धि अवलोय ॥ १२. उपभोग अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय। अथवा क्षयोपशम थकी, उपभोग-लद्धि अवलोय ॥ १३. वीर्य अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, वीर्य-लद्धी जोय ॥ १४. दर्शणावरणी कर्म नां, क्षय उपशम थी जेह । इंद्रिय-लद्धी ऊपज, भावे इंद्रिय एह ॥ १५. 'दानादिक पांच लब्धि, उज्जल जीव पिछाण । देव ते तो जोग छै, सावद्य निरवद्य जाण ॥ ३५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम तो १८. माह उदय बहुलो १६. मोह कर्म नां उदय थी, दिय कुपात्र दान । मोह नां क्षयोपशम थकी, दान सुपात्र जान ।। १७. दान अंतराय कर्म नों, क्षयोपशम तो होय । पिण मोह उदय बहुलो हुवै, जद दियै कुपात्र सोय ।। १८. दान अंतराय कर्म नों, क्षयोपशम पिण होय । वलि क्षयोपशम मोह नों, दियै सुपात्र सोय'। (ज० स०) १६. एक बार जे भोगवै, असणादिक ते भोग? १६. इह च सकृद्भोजनमशनादीनां भोगः, पौनःपुन्येन वस्त्रादिक बहु वार ते, जे उपभोग प्रयोग ।। चोपभोजनमुपभोगः, स च वस्त्रभवनादेः । *सो ही सयाणा जिन वच साधे, जिन वच साधे आण आराधै ॥ (ध्र पदं) (वृ० प० ३५०) २०. ज्ञान-लद्धी प्रभ ! कितै प्रकार? जिन कहै पंच प्रकार उदार । २०. नाणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? आभिनिबोधिक ज्ञान-सुलद्धी, जावत केवलज्ञान प्रसिद्धी ।। गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-आभिणिबोहियनाणलद्धी जाव केवलनाणलद्धी। (श० ८।१४०) २१. अज्ञान-लद्धि प्रभ! कितै प्रकार ? ताम स्वाम कहै त्रिविध विचार। २१. अण्णाणलद्धी णं भंते ! कतिबिहा पण्णता? मति अज्ञान श्र अनाण लद्धी, विभंग अनाण नी लद्धी प्रसिद्धी॥ गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-मइअण्णाणसोरठा लद्धी सुयअण्णाणलद्धी विभंगणाणलद्धी। २२. 'ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम सेती लहै। (श० ८।१४१) २२. से किं तं खओवसमनिप्फण्णे ? ज्ञान अज्ञान पिछाण, अनयोगद्वारे आखियो ।। खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा२३. अज्ञानी रै ताम, सम जाणपणो जेतलो। खओवसमिया आभिणिबोहियनाणलद्धी......."खओवअज्ञान तिण रो नाम, भाजन लारै वाजियो ।। समिया विभंगनाणलद्धी (अणुओग० सू० २८५) २४. जाणे गाय नैं गाय, दिवस भणी जाण दिवस। इत्यादी कहिवाय, जाणपणो सम छै तिको॥ २५. तिण सू क्षयोपशम भाव, निरवद्य उज्जल लेख ए। देख विचारो न्याव, इण कारण लद्धी कही। २६. ज्ञानावरणी कर्म, पंच प्रकृति है तेहनीं। जोवो एहनो मर्म, मति ज्ञानावरणी प्रमख ।। २७. मति ज्ञानावरणी जेह, क्षयोपशम तेहनों थयां। वर मति ज्ञान लहेह, मति अज्ञान पामै बलि ॥ २८. श्रुत ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम तेहनों थयां । वर श्रुत ज्ञान प्रधान, श्रुत अज्ञान लहै वली। २६. अवधि ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम तिण रो थयां । अवधि ज्ञान लद्धीह, विभंग अनाण लहै वली ।। ३०. तदावरणी कर्म सोय, क्षय उपशम थी विभंग ह। ३०. तस्स णं छठंछठेणं......."से विभंगे अण्णाणे सम्मत्तसूत्र भगवती जोय, इकतीसम नवमै अख्यं ॥ परिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ । ३१. अवधि विभंग न जान, आवरणी तो एक है। (श०६, उ० ३१, सू० ३३) तेहनं नाम पिछाण, अवधि ज्ञानावरणी अछ। *लय : सो ही सयाणा अवसर साधे श० ८, उ०२, ढा० १३६ ३५१ Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. तसु क्षय उपशम होय, अवधि विभंग दोनुं लहै । क्षय उपशम जे थाय, मति ए दोनुं नो जोय, अवधि दर्शन पिग एक है। २२. विभंग ज्ञानावरणीह, क्षय उपचम यी विभंग हो । पिण ए भेद सुलीह, अवधि ज्ञानावरणी तनुं ॥ ३४. जाती-समरण पाय, समदृष्टि नें मिच्छदिट्टी । ज्ञानावरणी तणुं ॥ ३५. ज्ञाता गज भव जाती- समरण कपनों मति ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम थी वृत्ति में ॥ ३६. समदृष्टी सोय, ₹ वर मतिज्ञान को उस मिच्छदिट्टि १ जोव, ₹ मति अज्ञान कहीजिये ॥ ३७. विण सुं धूर त्रिज्ञान, बलि तीनू अज्ञान से । ईह. 1 क्षयोपशम ए जान, लद्धी उज्जल जीव ए' ॥ ( ज० स० ) ३५. *दर्शन-लद्धि प्रभु ! कि प्रकार? जिन कहे तीन प्रकार विचार | समदर्शण ने मिथ्यादर्शन, समामिथ्या दर्शन संस्पर्शन || सोरठा ३२. दर्शन मोह उपाधि, उपशम क्षायक क्षयोपशम । सम्यक्त उपशम आदि, समदर्शण लद्धीतिको ॥ ४०. दर्शण मोह पिछाण, क्षयोपशम थी नीपजै । मिथ्यादृष्टि सुजाण, दृष्टि समामिच्या वली ॥ ४१. मिध्याती है ताम, ऊंधी श्रद्धा जेतली । मिथ्यादृष्टिज नाम, एह उदय भावे कही ॥ ४२. मिय्याती १ इष्ट, सूधी थढा ए पिण मिथ्यादृष्ट, पिण ४३. अनुयोगद्वार मकार, उदय जेवली | क्षयोपशम भाव ए ॥ निष्पन्न रा बोल में मिध्यादृष्टि विचार, ए उदय भाव अंधी श्रद्वा ॥ ४४. ए आश्रव मिथ्यात, दर्शण मोह उदय पकी । लद्धि में न कहात, उदय भाव ४५. अनुयोगद्वार मकार, क्षय उपशम तीन दृष्टि सुविचार, भाव क्षयोपशम शुद्ध ४६. तिण सू मिथ्यादृष्ट, क्षय उपशम भावे उज्जल जीव सुइष्ट, जीव सुइष्ट, लडी में आली ४७. समामिथ्यादृष्ट, भाव क्षयोपशम जिन कही । मिश्र गुणठाणे इष्ट, तसु शुद्ध श्रद्धा जेतली' ॥ ( ज० स० ) ४८. रिद्धि प्रभु! किते प्रकार? जिन कहै पंच प्रकार विचार। सामायक चारित्र प्रसिद्धी, वली छेदोपस्थापनिक लद्धी || *लय : सो ही सयाणा अवसर साधे ३५२ भगवती-जोड़ मिथ्यादृष्टि ॥ निप्पन्न विषे । श्रद्धा ॥ तिका । इहां ॥ ३५. जातिस्मरणावरणीयानि णीयभेदाः । क्षयोपशम उदितानां तोदयत्वम् । ३८. दंसणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धी, समामिच्छादंसणलद्वी । (श० ८।१४२) २६. ह च सम्यग्दर्शनमिय्यात्वमोहनीयकर्मावेनोपशमक्षक्षयोपशमसमुत्थ आत्मपरिणामः । ( १०० ३५०) कर्माणि मतिज्ञानावर क्षयोऽनुदितानां वि (ज्ञाता वृ० प०७४) ४१. मिध्यादर्शनमशुमध्यात्वदनोदयसमुत्यो परिणामः । ४३. अणुओगदारा सू० २७५ ४५. अणुओगदाराई सू० २८५ -- जीव ( वृ० प० ३५० ) ४८. चरितलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- सामाइयपरिसबी, छेदोषद्वावचिती । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. परिहार-विशुद्धि सूक्ष्म-संपराय, चारित्र मोह क्षयोपशम थाय। ४६. परिहारविसुद्धिचरित्तलद्धी सुहुमसंपरायचरित्तलद्धी यथाख्यात पंचम प्रसिद्धी, उपशम क्षायक चरित्त सुलद्धी ॥ अहक्खायचरिनलद्धी । (श० ८।१४३) ५०. चरित्ताचरित्त लद्धी भगवान ! कितै प्रकार परूपी जान ? ५०. चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? जिन कहै एक आकार प्रकार, देश विरत क्षयोपशम सार। गोयमा ! एगागारा पण्णत्ता । ५१. दान लद्धी जाव उपभोग लद्धी, इक इक तास प्रकार प्रसिद्धी । ५१. एवं जाव उवभोगलद्धी एगागारा पण्णत्ता। अंतराय क्षय क्षयोपशम होय, तेहथी उज्जल जीव सुजोय ॥ (श० ८।१४४) ५२, वीर्य लद्धि प्रभ ! कितै प्रकार? जिन कहै तीन प्रकार विचार। ५२. वीरियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? बाल वीर्य लद्धी अवधार, चिहं गणठाणे शक्ति उदार ॥ गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-बालवीरियलद्धी, ५३. पंडित वीर्य लद्धी पिछाण, ए मनिवर नी शक्ति सूजान । ५३. पंडियवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी। बाल पंडित वीर्य ए लद्धी, श्रावक नी ए शक्ति प्रसिद्धी ।। (श० ८।१४५) ५४. इंद्रिय लद्धि प्रभ!कितै प्रकार ?जिन कहै पंच प्रकार विचार । ५४. इंदियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? सोइंदि जाव फर्शद्री लद्धी, दर्शणावरणी क्षयोपशम सिद्धी ॥ गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा—सोइंदियलद्धी जाव फासिदियलद्धी। (श० ८।१४६) ५५. ज्ञानलद्धिया हे प्रभु ! जीवा, स्यू ज्ञानी अज्ञानी कहीवा? ५५. नाणलद्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी? अण्णाणी ? जिन कहै ज्ञानी कहिये तास, अज्ञानी नहिं कहिये जास॥ गोयमा ? नाणी, नो अण्णाणी। ५६. केइक बे ज्ञानी अवलोय, केइक त्रिण चिउं ज्ञानी होय । ५६. अत्थेगतिया दुण्णाणी, एवं पंच नाणाई भयणाए । केइक एक केवल शुद्ध खेम, पंच ज्ञान नी भजना एम ।। (श० ८।१४७) ५७. तास अलद्धिया प्रभु!स्यू नाणी?जिन कहै नोज्ञानी छै अन्नाणी। ५७. तस्स अलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? केइक बे अज्ञानी न्हाल, भजना तीन अज्ञान नी भाल ॥ अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । अत्थेगतिया दुअण्णा णी,तिण्णि अण्णाणा भयणाए। (श० ८।१४८) ५८. आभिनिबोधिक ज्ञानलद्धिया, स्य ज्ञानी अज्ञानी कहिया ? ५८. आभिणिबोहियनाणलद्धिया णं भंते ! जीवा कि जिन कहै अज्ञानी नहिं जेह, च्यार ज्ञान नी भजना भणेह। नाणी? अण्णाणी? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थेगतिया दुण्णाणी चत्तारि नाणाई भयणाए। (श०८।१४६) ५६. तास अलद्धिया जे कहिवाय, मतिज्ञान न लहै जे मांय । ५६. तस्स अलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? ते ज्ञानी कहियै भगवान ! के अज्ञानी कहियै जान? अण्णाणी? ६०. जिन कहै ज्ञानी पिण कहिवाय, अज्ञानी पिण छै वलि ताय। ६०. गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे नाणी ते जे ज्ञानी ते नियमा एक, केवलज्ञानी कहिये विशेख ॥ नियमा एगनाणी--केवलनाणी । ६१. जे अज्ञानी ते इम जान, कितलाइक में दोय अज्ञान । ६१. जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णा तीन अज्ञान केइक में तेम, भजना त्रिण अज्ञान नी एम ॥ णाई भयणाए। ६२. मतिज्ञानलद्धियो कह्यो सोय, श्रतज्ञानलद्धियो इम जोय । ६२. एवं सुयनाणलद्धिया वि । तस्स अलद्धिया वि जहा मतिज्ञान में अलद्धियो जान, तिम श्रतज्ञान अलद्धियो मान ॥ आभिणिबोहियनाणस्स अलद्धीया। (श०८।१५०) ६३. पूछा अवधिज्ञानलद्धिया नी, जिन कहै ज्ञानी छै न अज्ञानी। ६३. ओहिनाणलद्धियाणं पुच्छा । के इक तीन ज्ञानी कहिवाय, केइक चिउंनाणी मनिराय ।। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी । अत्थेगतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया चउनाणी। ६४. जे त्रिणज्ञानी ते इम कहिये, मति श्र त अवधिज्ञान त्रिहं लहिये। ६४. जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, जे चिउंनाणी ते कहिवाय, मति श्र त अवधि रु मनपर्याय ।। ओहिनाणी। जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी मणपज्जवनाणी। (श० ८।१५१) श० ८, उ० २, ढा० १३६ ३५३ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. अवधि ज्ञान नां अलद्धिया नी, गोयम पूछा करी पिछानी। जिन कहै ज्ञानी पिण छ तेह, अज्ञानी पिण छै वलि जेह ॥ ६६. अवधि ज्ञान वर्जी में एम, च्यार ज्ञान नी भजना तेम । भजना तीन अज्ञान नी भणिय, अवधिज्ञान वर्जी इम गणिय ।। ६७. पूछा मनपज्जव लद्धिया नीं, जिन कहै ज्ञानी छै न अज्ञानी। केइक त्रिण ज्ञानी मनिराय, केइक चिउं ज्ञानी सुखदाय ॥ ६८. जे त्रिण ज्ञानी ते इम जाणी, मति श्रुत ने मनपज्जवनाणी। जे चउनाणी ते इम थाय, मति श्रत अवधि रु मनपर्याय ।। ६६. ते मनपज्जव अलद्धिया नीं, पूछा नों उत्तर इम जानी। मनपज्जव वर्जी चिहुं ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना जान ।। ७०. केवलज्ञानलद्धियो भगवान ! स्य ज्ञानी अज्ञानी जान ? जिन कहै ज्ञानी छै न अज्ञानी, नियमा एक केवल नी मानी ।। ७१. पूछा केवल नां अलद्धिया नीं, केवलज्ञान वर्ज पहिछानी। च्यार ज्ञान ने तीन अज्ञान, ए बेहुं नी भजना जान ।। ६५. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । ६६. एवं ओहिनाणवज्जाइं चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। (श० ८।१५२) ६७. मणपज्जवनाणलद्धियाणं पुच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थेगतिया, तिण्णाणी, अत्थेगतिया चउनाणी। ६८. जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, मण पज्जवनाणी । जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपज्जवनाणी। ६६. तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि। मणपज्जनाणवज्जाइं चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए। (श० ८।१५४) ७०. केवलनाणलद्धियाणं भंते ! जीवा कि नाणी अण्णाणी? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । नियमा एगनाणीकेवलनाणी। (श० ८।१५५) ७१. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि । केवलनाणवज्जाई चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए । (श० ८।१५६) ७२. अण्णाणलद्धियाणं पुच्छा। गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । तिण्णि अण्णाणाईभयणाए। (श० ८।१५७) ७३. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी। पंच नाणाई भयणाए। ७४. जहा अण्णाणस्स य लद्धिया अलद्धिया य भणिया, एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स य लद्धिया अलद्धिया य भाणियव्वा । ७५. विभंगनाणलद्धियाणं तिण्णि अण्णाणाई नियमा। तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। (श० ८।१५८) ७६. दंसणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी? गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि। पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए। (श० ८।१५६) ७२. पूछा अनाण नां लद्धिया नीं, जिन कहै नो ज्ञानी छै अज्ञानी। भजना तीन अज्ञान नी भाल, तिण में बे किहां तीन निहाल ।। ७३. पूछा अज्ञान नां अलद्धिया नीं, जिन कहै ज्ञानी छ न अज्ञानी। पंच ज्ञान नी भजना पेख, बे त्रिण चिउं किहां एक विशेख ॥ ७४. अनाणलद्धिया अल द्धिया भणिया, तिणहिज विध आगल ए थणिया । मति अज्ञान में श्र त अज्ञान, तसु लद्धिया अलद्धिया जान ।। ७५. पूछा विभंग तणां लद्धिया नी, तीन अज्ञान नी नियमा जानी। तास अलद्धिया में पंच नाण, भजना नियमा दोय अन्नाण ॥ ७६. दर्शणलद्धिया प्रभु ! स्यू नाणी? जिन कहै नाणी – अन्नाणी। पंच ज्ञान में तीन अज्ञान, भजनाई भणिवो बुद्धिवान ॥ ३५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. दर्शण-अलद्धिया प्रभु ! जीवा, स्य ज्ञानी ए प्रश्न कहीवा ? ७७. तस्स अलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? जिन कहै तास अलद्धियो नाही, तीन दष्टि विण जीव न थाई॥ अण्णाणी ? गोयमा ! तस्स अलद्धिया नत्थि । ७८. समदर्शण-लद्धिया पंच ज्ञान, भजना बे त्रिण चिउं इक मान। ७८. सम्मदंसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए। तस्स तास अलद्धिया में त्रिण अज्ञान, भजना किहां बे किहां त्रिण जान ।। अलद्धियाणं तिणि अण्णाणाइं--भयणाए। ७६. मिथ्यादर्शन-लद्धिया मांय, तीन अज्ञान नी भजना पाय। ७६. मिच्छादंसणलद्धियाणं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । तास अलद्धिया में पंच नाण, तीन अज्ञान नी भजना पिछाण । तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाइं, तिण्णि य अण्णाणाई भयणाए। वा०-मिथ्यादर्शन नां अलद्धिया ते सम्यग्दृष्टि अनै मिश्रदृष्टि नै अनुक्रम वा०—मिथ्यादर्शनस्यालब्धिमतां सम्यग्दृष्टीनां करिके पंच ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना। मिश्रदृष्टीनां च क्रमेण पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि च भजनयेति । (वृ० प० ३५३) ८०. समामिथ्यादर्शन-लद्धिया नीं, तास अलद्धिया नीं वलि जानी। ८०. समामिच्छादसणलद्धिया, अलद्धिया य जहा मिच्छामिथ्यादर्शन लद्धि अलद्धी, तेह कह्या तिम भणव प्रसिद्धी ॥ दसणलद्धिया अलद्धिया तहेव भाणियन्वा । (श० ८।१६०) ८१. चारित्र-लद्धिया स्यप्रभ ! नाणी? पंच ज्ञान नी भजना जानी। ८१. चरित्तलद्धिया णं भंते! नीवा कि नाणी? अण्णाणी? किहां बे ज्ञान किहां त्रिण जोय, किहां चिउं ज्ञान किहां इक होय ॥ गोयमा ! पंच नाणाई भयणाए । ८२. तेह चरित्र नां अलद्धिया में, मनपज्जव वर्जी ए ठामें। ८२. तस्स अलद्धीयाणं मणपज्जवनाणवज्जाइं चत्तारि भजना च्यार ज्ञान नी भाल, तीन अज्ञान नी भजना न्हाल ॥ नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई-भयणाए। (श.८।१६१) वा०-चारित्र-अलद्धिया दूजे, चोथै, पांचमै गुणठाण बे ज्ञान वा तीन ज्ञान वा०-चारित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपर्यवअनै सिद्धा में एक केवलज्ञान । तेह. विषे चारित्र लब्धि नथी ते माट। अनै पहिले, वर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया भवन्ति, कथम् ? तीज गुणठाणे दो अज्ञान वा तीन अज्ञान । असंयतत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं तत् त्रयं वा, सिद्धत्वे च केवलज्ञानं, सिद्धानामपि चरित्रलब्धिशून्यत्वाद, यतस्ते नोचारित्रिणो नोअचारित्रिण इति, ये त्वज्ञा निनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया । (वृ० प० ३५३) ५३. सामायक-चारित्र-लद्धिया नीं, पूछा जिन भाखै छै ज्ञानी। ८३. सामाइयचरित्तलद्विया णं भंते ! जीवा कि नाणी? वर्जी केवलनाण उदार, च्यार ज्ञान नी भजना सार ।। अण्णाणी? गोयमा ! नाणी. केवलवज्जाइं चत्तारि नाणाई भयणाए। ५४. ते सामायक चारित्र सोय, तास अलद्धिया में अवलोय। ८४. तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई पांच ज्ञान नैं तीन अज्ञान, भजनाइं करि भणिवा जान ॥ भयणाए। वा०--सामायिक-चारित्र नो अलद्धियो ते छेदोपस्थापनी आदि पाम करी वा०-सामायिकचरित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां अथवा सिद्ध भावे करी ए ज्ञानी में पांच ज्ञान नी भजना । अने प्रथम, तीज गुणठाणे पंच ज्ञानानि भजनया, छेदोपस्थापनीयादिभावेन सिद्धअज्ञानी। तिहां तीन अज्ञान नी भजना । भावेन वा, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया। (वृ० प० ३५३) ८५. सामायक-चारित्र नां जेम, लद्धि अलद्धी आख्या तेम। ८५. एवं जहा सामाइयचरित्तलद्धिया अलद्धीया य भणिया, जाव यथाख्यात इम जोय, लद्धि अलद्धी में अवलोय ॥ एवं जाव अहक्खाय-चरित्तलद्धीया अलद्धीया य भाणियव्वा। ८६. णवरं यथाख्यात-लद्धिया में, पंच ज्ञान नी भजना पाम। ८६. नवरं-अहक्खायचरित्तलद्धीयाणं पंच नाणाई भयणाए। बेत्रिण चिउं इक ज्ञान उदार, चरम परम गणस्थानक च्यार ॥ (श० ८/१६२) श०८, उ०२, ढा०१३६ ३५५ Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७. चरित्ताचरित्त-लद्धिया जीवा, स्यू नाणी अनाणी कहीवा? ८७. चरित्ताचरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी ? जिन कहै ज्ञानी श्रावक एह, अज्ञानी नहिं कहीजै तेह ।। अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । ८८ केयक मांहे छै बे ज्ञान, केयक में त्रिण ज्ञान पिछान। ८८. अत्थेगतिया दुण्णाणी, अत्थेगतिया तिण्णाणी। जे बे ज्ञानी ते मति श्रत सार, त्रिण ते मति श्रुत अवधि विचार ।। दुण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य । जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहि नाणी। ८६. तास अलद्धिय में पंच ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना जान । ८६. तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाईश्रावक विण संसारी सिद्ध, चरित्ताचरित्त अलद्धिया लिद्ध । भयणाए। (श० ८/१६३) १०. दान-लद्धिया में पंच ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना जान । ६०. दाणलद्धियाणं पंच नाणाई तिण्णि अण्णाणाई-भयचवदै गणठाणे ए कहिये, सिद्धां मांहे ए नहिं लहियै ।। णाए। (श०८/१६४) ६१. पूछा तेहनां अलद्धिया नी, ज्ञानी छै ते नहिं अज्ञानी। १. तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा। नियमा निश्चै छै इक नाणी, केवलनाणी सिद्ध सूहाणी॥ गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी। नियमा एगनाणी केवलनाणी। ६२. एवं यावत वीर्य लद्धी, वलि तसु अलद्धिया गणवृद्धी। १२. एवं जाव वीरियस्स लद्धीया अलद्धीया याभाणियव्वा । वीर्य लद्धी वीर्य आतम, तास अलद्धी सिद्ध सुखातम॥ ६३. पूछा बालवीर्य-लद्धिया नीं, तीन ज्ञान नी भजना जानी। १३. बालवीरियलद्धियाणं तिण्णि नाणाई तिण्णि अण्णा भजना तीन अज्ञान नी कहिय, धर ए चिहं गणठाणे लहिये। णाई-भयणाए। ६४. ते बालवीर्य नां अलद्धिया नीं, पंच ज्ञान नी भजना ठानी। ४. तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए। श्रावक साध नैं सिद्ध लहिये, धर चिहुं गणठाणा विण कहिये ।। ६५ वलि पंडितवीर्य-लद्धिया नीं, पच ज्ञान नी भजना जानी। ५. पंडियवीरियल द्धियाणं पंच नाणाई भयणाए। छट्ठा गुणठाणा थी कहिये, चउदसमें गणठाणे लहिये ।। .६६. पंडितवीर्य तणो अलद्धियो, मनपज्जव वर्जी मैं कहियो। ६६. तस्स अलद्धीयाणं मनपज्जवनाणवज्जाइं नाणाई, च्यार ज्ञान में तीन अज्ञान, भजना एह मनी विण जान । अण्णाणाणि य भयणाए। ६७. बालपंडितवीर्य-लद्धिया नीं, तीन ज्ञान नी भजना जानी। ६७. बालपंडियवीरियलद्धियाणं तिण्णि नाणाई भयणाए। तास अलद्धिया में पंच ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना आन ॥ तस्स अलद्धीयाणं पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए। (श० ८/१६५) ६८. वलि पूछा इंद्री-लद्धिया नी, च्यार ज्ञान नी भजना जानी। ८. इंदियलद्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी ? तीन अज्ञान तणी है भयणा, धुर द्वादश गुणठाणे वयणा ।। अण्णाणी? गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाईभयणाए। (श० ८/१६६) EE. पूछा इंद्री-अलद्धिया नीं, जिन कहै ज्ञानी छै न अज्ञानी। ९६. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। नियमा एक केवल वर नाणी, इंद्री भाव तिहां नहिं जाणी॥ गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी। नियमा एगनाणी केवलनाणी। (श० ८/१६७) १००. पूछा सोइंदिय-लद्धिया नीं, जिम इंद्री-लद्धिया तिम जानी। १००. सोइंदियलद्धिया णं जहा इंदियलद्धिया। च्यार ज्ञान नी भजना कहिये, भजना तीन अज्ञान नी लहिये ।। (श०८/१६८) १०१. पूछा सोइंदिय-अलद्धिया नीं, जिन कहै ज्ञानी वलि अज्ञानी। १०१. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। जे ज्ञानी ते के बे नाणी, कितलायक इक नाणी जाणी॥ गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । जे नाणी ते अत्थे गतिया दुण्णाणी, अत्यंगतिया एगनाणी। ३५६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. जे बे नाणी ते पहिछाणी, आभिनिबोधिक नै श्रत नाणी। बे ते चोरिद्री अपजत्त में, सास्वादन सम्यक्त ह तिण में ।। १०२. जे दुण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी। तेऽपर्याप्तकाः सासादनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रियाः (वृ० प० ३५४) १०३. जे एगनाणी ते केवलनाणी। १०३. जे इक नाणी ते पहिछाणी, केवलज्ञानी सिद्ध वखाणी। वलि तेरम चवदम गणठाणे, भावे सोइंद्री नहिं माणे ॥ १०४. जे अन्नाणी ते वलि जाणी, नियमा बे मति श्रुत अन्नाणी । कहियै छै ए सर्व एकेंद्री, मिच्छदिट्ठी बे ते चउरिंद्री । १०५ जिम सोइंदी लद्धि अलद्धी, तेम चा-इंद्रिय प्रसीद्धी। वलि घ्राणेंद्री लद्धि अलद्धी, भणवा न्याय करी बद्धि-वृद्धी ॥ १० पळा रमटि-लडिया नीं च्यार जान नीं भजना आनी। वलि भजनाई तीन अनाणं, बे ते चउ पंचेंद्री जाणं ॥ १०४. जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइ अण्णाणी य सुयअण्णाणी य । १०५. चक्खिदियघाणिदियाणं लद्धीया अलद्धीया य जहेव सोइंदियस्स। (श० ८/१६६) १०६. जिभिदियलद्धियाणं चत्तारि नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई-भयणाए। (श० ८/१७०) १०७. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। १०८. जे नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलनाणी । जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य १०६. फासिदियलद्धीया अलद्धीया य जहा इंदियलद्धिया अलद्धिया य । (श० ८/१७१) १०७. रसइंद्रि-अलद्धिया मांय, ज्ञानी अज्ञानी कहिवाय । एकेंद्रिया केवली तास, रस-इंद्रि लाधै नहिं जास ॥ १०८. जे ज्ञानी ते नियमा एक, केवलज्ञानी कहियै विशेख । अज्ञानी ते नियमा दोय, मति श्रुत अज्ञानी अवलोय ॥ १०६. फसेंद्री नों लडियो जाण, इंद्रि-लद्धिया जेम पिछाण । फसेंद्री-अलद्धियो जेह, इंद्री-अलद्धिया जिम एह ॥ ११०. फसेंद्री-लद्धिया में जाण, पहिला थी बारम गणठाण । तास अलद्धिया केवलज्ञानी, लद्धि अलद्धी द्वार पिछानी ।। १११. अंक बयांसी देश निहाल, एफसी ने छत्तीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, __'जय-जश' सुख संपति अहलाद ।। ११०. स्पर्शनेन्द्रियालब्धिकास्तु केवलिन एव । (वृ०प० ३५४) ढाल : १३७ दहा १. लद्धि अलद्धि घमंड' सू, कह्यो अधिक विस्तार । उपयोगादिक द्वार हिव, सांभलज्यो धर प्यार ॥ २. *सागारोवउत्ता प्रभ ! जीवा, स्यज्ञानी अज्ञानी कहीवा ? जिन कहै पंच ज्ञान नी पेख, भजना तीन अज्ञान नी देख ॥ २. सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए। (श० ८।१७२) १. स्वाभिमान *लय : विना रा भाव सुण सुण गूंज श०८, उ०२, ढा० १३६-१३७ ३५७ Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - आकार ते विशेष तिण करीके सहित जे बोध ते साकार, विशेष ग्राहक बोध इत्यर्थः । तेनैं विषे उपयुक्त ते साकार नां अनुभव कर्त्ता ते साकारोपयुक्त ३. पांच ज्ञान तीन अज्ञान, अणागार दर्शण है प्यार, ४. आभिनिबोधिक ज्ञान सागार, सागारोवउत्ता अठ जान । बुद्धिवंत हिये अवधार ॥ स्यूं ज्ञानी अज्ञानी धार ? जिन कहै भजना चि नाण, दोय तीन प्यार इम जाण ॥ ५. इम श्रुतज्ञान सागार अवधिज्ञान सागार विचार । अवधिज्ञान-लद्धिया ज्यू जाण, च्यार ज्ञान नीं भजना आण ॥ ६. मनपज्जवज्ञान सागार, मनपज्जवलद्धी जिम सार । प्यार ज्ञान नीं भजना कहिये किहां तीन किहो चिडं लहिये ॥ ७. केवलज्ञान सागार सुखेम केवलज्ञान लडिया जेम । हिवै मति अज्ञान सागार, भजना तीन अज्ञान प्रकार ॥ 3 ८. इम त अज्ञान सागार, भजना तीन वलि विभंग अज्ञान सागार, नियमा तीन ६. अगागारोवउत्ता जीवा भगवंत ! स्यू' भजना पंच ज्ञान त्रि अज्ञान, सिद्ध ने १०. इस चक्तु अक्खु पिछाण, नवरं भजना केवलज्ञान बक्स में न पाव, ११. पूजा अवधि दर्शन अणागार, ज्ञानी ते के त्रिण ज्ञानी, अज्ञान नीं धार । अनाण विचार || ज्ञानी कहोबा ? चवदे गुणस्थान || ॥ करि चिरं नाण भजना तीन अज्ञान कहाय ॥ ज्ञानी अज्ञानी हुं विचार । केइ च्यार ज्ञानी गुणखानी ॥ १२. जिके तीन ज्ञानी पहिछानी, तिके मति श्रुत अवधि सुज्ञानी । जिके च्यार ज्ञानी कहिवाय, तिके केवल विण चिउं पाय ॥ १३. जे अज्ञानी ते अवलोय, नियमा तीन अज्ञान नीं सोय । मति श्रतविभंग विचार कह्यो अवधि दर्शण नों प्रकार | १४. केवल दर्शण जे अणागार, केवलज्ञान- लढिया ज्यं सार । 3 ए तो आस्यो उपयोग द्वार हि जोग द्वार सुविचार || १५. प्रभु ! जीवा राजोगी स्यू ज्ञानी ? जिम सकाइया तिम जानी । पंच तीन नी भजना पिछाण इणमें पाये तेरे मुगठाण || १६. इम मन वच नै काय जोगी, पंच तीन नीं भजना प्रयोगी । अजोगी केवली सिद्ध जेम कह्यो जोगद्वार घर प्रेम ॥ १७ सलेसी जीवा स्यू प्रभु ! ज्ञानी ? ए पिण सकाइया जिम जानी । भजना पंच ज्ञान त्रि अज्ञान, इणमें पावे तेरे गुणस्थान | २५८ भगवती-जोड़ वा - आकारो - विशेषस्तेन सह यो बोधः स साकारः, विशेषग्राहको बोध इत्यर्थः तस्मिन्नुपयुक्ताः तत्संवेदका ये ते साकारोपयुक्ताः । ( पृ० प० १५५) ४. भिवोहियाणसागारोवउत्ता गं भंते ? चत्तारि नाणाई भयणाए । ५. एवं सुयनाणसागा रोवउत्ता वि । ओहिनाणसागारोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्विया । ६. मणपज्जवनाणसागारोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणलडीया । ७. केवलनाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणल डीया । म अण्णाणसागा रोवउत्ताण तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । ८. एवं सुयअण्णाणसागारोवउत्ता वि । विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिष्णि अण्णाणाई नियमा। (श० ८।१७३) ६. अणागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए । १०. एवं असणमणागात वि नवरं चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाईभयणाए । (स० १०४) ११. गागारोवउत्ताणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । जे नाणी ते अत्थेगतिया तिष्णाणी, अत्थेगतिया चउनाणी । १२. जे तिष्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी ओहीनागी के बढ़नाणी ते आभिणिलोहियनागी जाव मणपज्जवनाणी | १३. जे अण्णाणी ते नियमा ति अण्णाणी, तं जहा - मइअण्णाणी, सुपाणी, विभंगगाणी । १४. केवल दंसणअणागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया । (१० १७५) १५. सजोगी णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी ? जहा सकाइया । १६. एवं मणजोगी वइजोगी कायजोगी वि । अजोगी जहा सिद्धा । (०८।१०६) १७. सलेस्सा णं भंते ! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? जहा सकाइया । ( श० ८।१७७ ) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. कृष्णलेसो प्रभु ! स्यज्ञानी ? ए तो सइंदिया जिम जानी। १८. कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी? भजना च्यार ज्ञान त्रि अज्ञान, कहियै धुर षट गुणस्थान ॥ जहा सइंदिया। १६. इम नील कापोत विचार, च्यार तीन नी भजना धार । १६. २० एवं जाव पम्हलेस्सा। तेज पदम सप्त गुणस्थान, भजना च्यार ज्ञान त्रि अज्ञान ।। सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा । अलेस्सा जहा सिद्धा। २०. शुक्ललेसी सलेसी ज्यू जान, भजना पंच ज्ञान त्रि अज्ञान । (श० ८।१७८) इण में पावै तेरै गणठाण, अलेसी सिद्ध जेम वखाण ॥ २१. प्रभ ! सकषाई स्यू नाणी ? ए तो सइंदिया जिम जाणी। २१. सकसाई णं भंते । किं नाणी? अण्णाणी? भजना च्यार तीन कहिवाई, इम यावत लोभ-कषाई ॥ जहा सइंदिया । एवं जाव लोभकसाई। (श० ८।१७६) २२. अकषाई प्रभ ! स्यू नाणी ? पंच ज्ञान नी भजना जाणी। २२. अकसाई णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी ? दोय तीन च्यार इक ज्ञान, लहै चरम च्यार गणस्थान ।। पंच नाणाई भयणाए । (श० ८।१८०) २३. सवेदी जीवा स्यूप्रभु ! नाणी ? ए तो सइंदिया जिम जाणी। २३. सवेदगा णं भंते ? जीवा कि नाणी ? अण्णाणी ? भजना च्यार ज्ञान त्रि अज्ञान, धर नव गणठाणे जान ॥ जहा सइंदिया। २४. इम स्त्री पुं नपुंसक जोय, अवेदी अकषाई जिम होय । २४. इत्थिवेदगा वि, एवं पुरिसवेदगा वि, एवं नपुंसगवेदगा पंच ज्ञान नी भजना पिछाण, ऊपरला षट गणठाण ॥ वि । अवेदगा जहा अकसाई। (श० ८।१८१) २५. आहारगा जीवा स्यूप्रभु! ज्ञानी? ए तो सकषाई जिम वानी। २५. आहारगा णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी? णवरं केवलज्ञान पिण जान, भजना पंच ज्ञान त्रि अज्ञान । जहा सकसाई, नवरं-केवलनाणं पि । (श० ८.१८२) २६. अणाहारका जीवा स्य ज्ञानी ? मन पज्जव वर्जी पिछानी। २६. अणाहारगा णं भंते ! जीवा कि नाणी? भजना च्यार ज्ञान त्रि अज्ञान, सिद्ध अपज्जत्त जिन-गुणस्थान' ॥ अण्णाणी? २७. अंक बंयासी देश निहाल, एक सौ सैंतीसमी ढाल । मणपज्जवनाणवज्जाइं नाणाई, अण्णाणाई तिण्णि---- भिक्खु भारीमाल ऋषिराय, सुख संपति 'जय-जश' पाय ।। भयणाए। (श० ८।१८३) ढाल १३८ १. अथ ज्ञानगोचरद्वारे- (वृ० प० ३५६) दूहा १. हिवै ज्ञान-गोचर कहूं, द्वार सतरमों सार । अधिक उदार विचार थी, वारू करि विस्तार ॥ २. *आभिनिबोधिक ज्ञान नी, विष किती जगतार ? श्री जिन भाख संक्षेप थी, दाखी च्यार प्रकार ॥ २. आभिणिबोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते? गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहावा०-समासतः' सङ्क्षपेण प्रभेदानां भेदेष्वन्तर्भावेनेत्यर्थः । (वृ० प० ३५७) वा०-अनेरा भेद ते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप भेद नै विषे अंतर्भावे करि कहिये ते संक्षेप करि । १. तेरहवें गुणस्थान में केवलसमुद्घात के समय *लय :प्रभवो मन माहै श०८, उ०२, ढा० १३७-१३८ ३५६ Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. द्रव्य थकी ने खेत्र थी, काल थकी कहिवाय । ३. दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। भाव थकी भणियै वलि, तास अर्थ वृत्ति मांय ॥ वा०----द्रव्य थकी-द्रव्य जे धर्मास्तिकायादि, ते प्रतै आश्रयी नै । क्षेत्र वा० -द्रव्यतो-द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्याश्रित्य, थकी-ते जे द्रव्य नै आधारे जेतलो क्षेत्र अथवा आकाशमात्र क्षेत्र आश्रयी क्षेत्रतो-द्रव्याधारमाकाशमात्रं वा क्षेत्रमाश्रित्य, नैं । काल थकी-तीन काल प्रतै अथवा द्रव्य पर्याय अवस्थिति प्रतै आश्रयी कालतः—अद्धां द्रव्यपर्यायावस्थिति वा समाश्रित्य, नैं। भाव थकी-औदयिकादिक भाव प्रतै अथवा द्रव्य नां पर्याय प्रत भावतः--औदयिकादिभावान् द्रव्याणां वा पर्यायान् आश्रयी नै । समाश्रित्य । (वृ०प० ३५७) ४. आभिनिबोधिक ज्ञानी द्रव्य थी, पाठ आएसेणं तंत । ४. दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाई अर्थ सामान्य विशेष थी, सह द्रव्य जाणें देखंत ।। जाण इ-पासइ। ५. वृत्तिकार इहां इम कह्य, आएसेणं रो अर्थ । ५. आदेश:-प्रकारः सामान्यविशेषरूपः । ___ आएस तेह प्रकार छै, सामान्य विशेष तदर्थ ।। (वृ०प० ३५७) । ६. ते सामान्य विशेष बिहुं विषे, ओघ सामान्य थी जेह । ६,७. तत्र चादेशेन-ओघतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गतजे द्रव्य मात्रपणे करि, जाणें देखै तेह ।। सर्वविशेषापेक्षयेति भावः, (वृ० प० ३५७) ७. पिण जे द्रव्य विषे रह्या, सर्व विशेष विचार । तेह अपेक्षा ए नहीं, वारू न्याय उदार ।। ८. अथवा आएसेणं तणो, अर्थ दूजो एह । ८. अथवा आदेशेन श्रुतपरिकम्मिततया श्रत-अभ्यासपणे करी, जाणै देखै जेह ॥ (वृ० प० ३५७) ६. सर्व द्रव्य षट द्रव्य नै, जाण देखै केम ? ६. सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति । । __ एहनों न्याय टीका मझे, आख्यो छै एम ॥ (वृ० ५० ३५७) १०. अवाय धारणा पेक्षया, जाणे छै सोय । १०. अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, ज्ञानस्यावायधारणारूपअवाय धारणा रूप ए, ज्ञान छै अवलोय ॥ त्वात्, (वृ० प० ३५७) ११. अवग्रह ईहा अपेक्षया, जाण जेह सुजन्न । ११. 'पासई' ति पश्यति अवग्रहहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेतेह पासइ कहीजिये, अवग्रह ईहा दर्शन्न । हयोदर्शनत्वात्, (वृ० प० ३५८) १२. भाष्यकार पिण इम कह्यो, अवाय धारणा ज्ञान । १२, १३. आह च भाष्यकार:अवग्रह नै ईहा भणी, दर्शण वांछयो पिछान ।। नाणमवायधिईओ दसणमिळं जहोग्गहेहाओ । १३. तथा तत्व नी रुचि तिका, सम्यक्त्व शोभाय । तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जइ जेण तं णाणं । जेणे करी तत्व रोचवै, तास ज्ञान कहिवाय ।। (व० प० ३५८) १४. सामान्यग्राही दर्शन अछ, विशेषग्राही ज्ञान । १४. जं सामन्नग्गहणं दसणमेयं विसेसियं नाणं तिण सौं अवग्रहादिक चिहुं, दर्शन ज्ञान पिछाण ।। (वृ० प० ३५८) १५. सामान्य अर्थ ग्रहण विषे, अवग्रह ईहा थाय । १५. अवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे अवायधारणे च विशेष ग्रहण स्वभाव में, धारणा नै अवाय ।। विशेषग्रहणस्वभावे इति । (वृ० प० ३५८) वा०-इहां शिष्य पूछ-हे भगवन ! अठाईस भेदमान आभिनिबोधिक वा०-नन्वष्टाविंशति भेदमानमाभिनिबोधिकज्ञानज्ञान कहिये । जे नंदी सूत्रे (सू०५१) को छै मति ज्ञान नां अठाईस भेद । अने मुच्यते, यदाह--'आभिणिबोयिनाणे अट्ठावीसं हवंति इह व्याख्याने पांच इंद्रिय अन मन-ए षट नां अवाय अनै धारणा इम द्वादश विध पयडीओ' ति इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन मतिज्ञान हुवै । अनै पंच इंद्रिय अनै मन ए षट ना अर्थावग्रह अनै ईहा, एवं पड़ोदतवावापधारणयोद्वदिशविधं मतिज्ञानं प्राप्त, बारह भेद अनै च्यार व्यजनावग्रह एवं सोलह चक्षु आदि दर्शन हुवै । एतले नंदी तथा श्रोत्रादिभेदेनैव षड्भेदतयाऽर्थावग्रहईहयोमें तो मतिज्ञान नां अठाईस भेद कह्या अने इण व्याख्याने अवाय धारणा ए wञ्जनावग्रहस्थ च चतुर्विधतया षोडशविध द्वादशविध नै ज्ञान कह्या, शेष सोलह नै चक्षु अचक्षु दर्शण कह्यो । ए आपस . चक्षुरादिदर्शनमिति प्राप्तमिति कथं न विरोधः? ३६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माही विरोध किम नथी? गुरु कहै-सत्य, किंतु मतिज्ञान अनैं चक्षु आदि दर्शण ए बिहुं नो भेद ते जुदापणो अणवांछी नै मतिज्ञान अठावीसविध कहिये । इति पूज्य परम गुरु कहै । १६. आभिनिबोधिक ज्ञानी, तिको क्षेत्र थी सर्व खेत । आदेसेणं ते ओघ थी, जाण देखै तेथ ।। १७. अथवा श्रत अभ्यास थो, श्रत भणवै करि सार । जाणे देखे सर्व क्षेत्र में, लोकालोक विचार ॥ १८. काल थकी पिण इमज छै, भाव थकी पिण एम । भाष्यकार इहां इम कह्यो, ते सुणज्यो धर प्रेम ॥ जान सत्यमेतत् किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनयो दं मतिज्ञानमष्टाविंशतिघोच्यते इति पूज्या व्याचक्षत इति । (वृ० प० ३५८) १६. खेत्तओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ-पासइ । १७. 'आदेसेणं' ति ओघतः श्रुतपरिकर्मिततया वा 'सव्वं खेत्तं' ति लोकालोकरूपं । (वृ० प० ३५८) १८. कालओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ-पासइ। भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ-पासइ। (श० ८/१८४) १९, २०, आएसोत्ति पगारो ओघादेसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थिकाइयाइं जाणइ न उ सव्वभावेणं ।। (वृ० प० ३५८) १६. आदेसेणं ते प्रकार थी, ते ओघादेसेण । सामान्य प्रकारे करी, षट द्रव्य जाणे तेण ॥ २०. पिण सर्व पर्याय जाणे नहीं मतिज्ञानी ताय । केवलज्ञानी अछै तिके, जाण सर्व पर्याय ।। २१. खेत्र थकी लोकालोक ने, काल थकी त्रिहुं काल । भाव थकी पंच भाव नैं, जाण देखै विशाल ॥ २१. खेत्तं लोगालोगं कालं सब्वद्धमहव तिविहंपि । पंचोदइयाईए भावे जन्नेयमेवइयं । (वृ० प० ३५८) २२,२३. आएसोत्ति व सुत्तं सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं । पसरइ तब्भावणया विणावि सुत्ताणुसारेणं ।। (वृ० प० ३५८) २२. अथवा आदेश ते सूत्र छ, सूत्र विषै जे अर्थ । भणवै करिने पदार्थ जे, जाण्ये छते तदर्थ ॥ २३. सूत्र भावना बिना अपि, सूत्र ने अनसार । पसरै ज्ञान-मति तेहनों, एम कह्यो भाष्यकार ।। २४. वाचनांतरे न पासइ कह्यो पाठांतरेण । नंदी टीका कृत आखियो, एहिज पाठ नी श्रेण ॥ २५. पाठ आदेश प्रकार ते, सामान्य विशेख । तेणे करी जाण अछै, तास न्याय इम देख ॥ २६. तिहां द्रव्य जाति सामान्य थी, जाणे सहु द्रव्य ख्यात । एह धर्मास्तिकायादि छै, द्रव्य रूप ए जात ।। २७. विशेष थी पिण इह विधे, ए धर्मास्ति कहेस । धर्मास्ति नो देश ए, इत्यादिक जाणेस ॥ २८. न पासइ नों न्याय ए, सर्व धमास्तिकायादि । वलि शब्दादि पुद्गल सहु, नहिं देखै संवादि ।। २६. योग्य देश अवस्थित प्रत, देखै पिण तेह । देखवा जोग पुद्गल तणां, देश प्रतै देखेह ॥ ३०. श्रुत ज्ञान नी केतलो, विषय कही भगवान ? जिन भाखै संक्षेप थी, च्यार प्रकारे जान ।। ३१. द्रव्य थकी नै क्षेत्र थी, काल थकी कहिवाय । भाव थकी कहियै वली, हिवै एहनों न्याय ॥ २४. इदं च सूत्र नन्यामिहैव वाचनान्तरे 'न पासइ' त्ति पाठान्तरेणाधीतम्, एवं च नन्दिटीकाकृता (नन्दी वृ० प० १८५) व्याख्यातम् । (वृ० प० ३५८) २५. आदेश:-प्रकारः स च सामान्यतो विशेषतश्च । (वृ०प० ३५८) २६. तत्र द्रव्यजातिसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्ति कायादीनि जानाति । (वृ० प० ३५८) २७. विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश इत्यादि (वृ० प० ३५८) २८,२६. न पश्यति सर्वान् धर्मास्तिकायादीन् शब्दादींस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपीति । (वृ० प० ३५८) ३०. सुयनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-- ३१. दब्बओ, खेतओ, कालओ, भावओ। श०८, उ० २, ढा० १३८ ३६१ Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. द्रव्य थी श्रतज्ञानी तिको, उपयुक्त है जेह । जाणें देखै ते द्रव्य सहु, खेत्र काल इम लेह ।। ३३. भाव थी श्रतज्ञानी तिको, उपयुक्त है जेह । जाणे देखे सर्व भाव ते, इहां वृत्तिकार कहेह ॥ ३४. उवउत्ते उपयोग-सहित ते, भावश्रुत उपयुक्त । पिण उपयोग रहित न, एह विशेषण उक्त ।। ३५. धर्मास्तिकाय आदि दे, सर्व द्रव्य छै जेह । श्रत ज्ञान नी विषय नां, विशेष थी जाणे तेह ।। ३६. देखे ते श्रुत अनुवति करी, मन अचक्षु दर्शन्न । तेणे करी सर्व द्रव्य ने, श्रुत विषे जे प्रपन्न ॥ ३७. तदा पूर्ण दस पूर्व थी, चवद पूर्वधर जाण । श्रतकेवलि ते बाहुल्यपणे, जाण देखै पिछाण ॥ ३८. ऊणा दस पूरवधरा, भजना करि तेह । ते वलि मति विशेष थी, जाणवा जोग्य जेह ॥ ३६. वृद्ध कहै देखे वलो, ते किण रीत देखाय ? दर्शण जोग्य न सकल हि, कहिये एहन न्याय ॥ ३२. दवओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्बदव्वाइं जाणइ पासइ । एवं खेत्तओ वि कालओ वि । (सं० पा०) ३३. भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणइपासइ। (श० ८/१८५) ३४. 'उवउत्ते' त्ति भावश्रुतोपयुक्तो नानुपयुक्तः । (वृ० प० ३५८) ३५. 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि जानाति' विशेषतोऽवगच्छति, श्रुतज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वात् (वृ० प० ३५८) ३६. पश्यति च श्रुतानुवत्तिना मानसेन अचक्षुर्दर्शनेन, सर्वद्रव्याणि चाभिलाप्यान्येव जानाति । (वृ०प० ३५८) ३७. पश्यति चाभिन्नदशपूर्वधरादिः श्रुतकेवली। (वृ० प० ३५८) ३८. तदारतस्तु भजना, सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञातव्येति । __ (वृ० ५० ३५८) ३६. वृद्धः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक्तं-ननु पश्यतीति कथं ? कथं च न सकलगोचरदर्शनायोगात् ? अत्रोच्यते (वृ० प० ३५८) ४०. प्रज्ञापनायां (३०/२) श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः प्रतिपादितत्वात् । (वृ० प० ३५८) ४१. अनुत्तरविमानादीनां चालेख्यक रणात् । (वृ० प० ३५८) ४२. सर्वया चादृष्टस्यालेषकरणानुपपत्तेः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयमिति (वृ० ५० ३५८) ४३. अन्ये तु न 'पासइ' त्ति पठन्तीति । (वृ० प० ३५८) ४०. पन्नवणा तीसमां पद विषे, पासणया श्रत ज्ञान । ते अंगीकारपणां थकी, पेखै कहिव पिछाण ॥ ४१. अनुत्तर विमान आदि दे, आलंकी देखाय । बहुलपणे केइ वस्तु नै, देखवो इम थाय ॥ ४२. वलि सर्व प्रकार अदृष्ट मुं, नहीं थाय आलेख । द्रव्य थकी ए आखियो, इम क्षेत्रादिक देव ॥ ४३. अन्य आचार्य इम कहै, जाणइ पाठ जोय । ण पासइ इहविध पठे, ते कहै देखै न कोय ॥ ४४. भाव थी श्र तज्ञानी, तिको उपयोग-सहीत । सर्व भाव जाणे अछ, एहवो आख्यो वदीत ।। ४५. पिण छद्मस्थ जाणे नहीं, सर्व पजवा पिछाण । इहां सर्व भाव जाणें कह्या, तास न्याय इक जाण ॥ ४६. सूत्र विषे इहां सर्व ते, पंच संख्या कहिवाय । भाव ते उदय प्रमुख भणी, ग्रहण करेवा ताय ।। ४७. ते पंच भाव सर्व प्रत, जाति थकी जाणेह । भाव विषय जे सर्व रह्या, ते नहिं जाणे तेह ।। ४८. अथवा कहिवा जोग भाव नों, अनंतमें भागहीज । गणधरे सूत्रपणे रच्या, द्वादश अंग कहीज ॥ ४६. तो पिण प्रसंग अनुप्रसंग थी, सहु कहिवा जोग जेह । श्रत विषय कहिये तसु, ते सहु भाव जाणेह ॥ ४४,४५. 'ननु भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणइ' इति यदुक्तमिह तत् 'सुए चरित्ते न पज्जवा सव्वे' त्ति अनेन च सह कथं न विरुध्यते ? (वृ०प० ३५८) ४६. इह सूत्रे सर्वग्रहणेन पञ्चौदयिकादयो भावा गृह्यन्ते । (वृ० प० ३५८) ४७. तांश्च सर्वान् जातितो जानाति । (वृ० प० ३५८) ४६. अथवा यद्यप्य भिलाप्यानां भावानामनन्तभाग एव श्रुतनिबद्धः । (वृ० प० ३५८) ४६,५०. तथापि प्रसङ्गानुप्रसङ्गतः सर्वेऽप्यभिलाप्याः श्रुतविषया उच्यन्ते अतस्तदपेक्षया सर्वभावान ३६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानातीत्युक्तम् । (वृ० प० ३५८, ३५६) ५०. कहिवा जोग भाव अपेक्षया, जाणे सह भाव सोय। भाव कहिवा जोग जे नहीं, तास अपेक्षा न होय ।। ५१. अभिलाप्य भाव जिके नहीं, श्रत विषय नहीं जेह। ते सह पजवा जाणे नहीं, इति विरोध न एह ।। ५२. अवधि ज्ञान नी केतली, विषय कही भगवान् ? जिन भाखै संक्षेप थी, च्यार प्रकारे आख्यान । ५३. द्रव्य थकी वलि क्षेत्र थी, काल थकी कहिवाय । भाव थकी भणिय वली, आगल तेहनों न्याय ।। ५४. द्रव्य थी अवधि ज्ञानी तिको, रूपी द्रव्य जाणें देखै । जेम नंदी सूत्रे कह्या, जाव भाव थी अवेखै ।। ५५. वृत्तिकार कह्यो द्रव्य थी, तेजस भाषा जेह । बिहुं विच द्रव्य रह्या तिके, जघन्य थकी जाणेह ।। ५१. अनभिलाप्यभावापेक्षया तु 'सुए चरित्ते न पज्जवा सब्वे' इत्युक्तमिति न विरोधः। (वृ०प० ३५६) ५२. ओहिनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा५३. दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। ५४. दवओ णं ओहिनाणी रूविदब्वाइं जाणइ-पासइ जहा-नंदीए (सू० २२) जाव (सं० पा०) भावओ। ५५. 'दव्वओ ण' 'मित्यादि अवधिज्ञानी रूपिद्रव्याणि पुद् गलद्रव्याणीत्यर्थः, तानि च जघन्येनानन्तानि तैजस भाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्तीनि । (वृ०प० ३५६) ५६. उक्कोसेणं सब्वाई रूविदव्वाइं जाणइ-पासइ। उत्कृष्टतस्तु सर्वबादरसूक्ष्मभेदभिन्नानि जानाति । (वृ० ५० ३५६) ५६. अवधिज्ञानी उत्कृष्ट थी, सहु द्रव्य पिछाण । सूक्ष्म बादर भेद जुजूआ, जाण देखै सुजाण ।। ५७. जाणे विशेषपणे करी, तेह ज्ञान सागार। देखै सामान्यपणे करी, ते दर्शन अणागार ।। ५८. अवधिज्ञानी रै अवश्य हवै, अवधि दर्शन संपेखै । जाणे ए अवधि ज्ञाने करी, अवधि दर्शन करि देखै ।। ५७,५८. जानाति विशेषाकारेण, ज्ञानत्वात्तस्य, पश्यति सामान्याकारणावधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनस्यावश्यम्भावात् । (वृ० प० ३५६) सोरठा ५६. इहां कोई प्रश्न करेह, धुर देखग थी ज्ञान ह। ते अनक्रम तजेह, जाण इम धर किम कहो।। ६०. इहां अवधिज्ञान अधिकार, प्रधान कहिवा में अर्थ । आदि ज्ञान अवधार, कह्य पाठ धुर जाणइ ।। ६१. अवधि-दर्शन नो जेह, अवधि विभंग साधारण करि । तसु अप्रधानपणेह, पछै पाठ है पासइ ।। ६२. तथा साकारोपयुक्त, तेहनै लब्धिज ऊपजै । अवधि ज्ञान लब्धि उक्त, ते उपजै साकार में । ५६. नन्वादी दर्शनं ततो ज्ञानमिति क्रमस्तकिमर्थ मेनं परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् ? (वृ० प० ३५६) ६०. इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादी जानातीत्युक्तम् । (वृ०प० ३५६) ६१. अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभङ्गसाधारणत्वेनाप्रधानत्वात् पश्चात्पश्यतीति । (वृ० प० ३५६) ६२. अथवा सर्वा एव लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्प द्यन्ते लब्धिश्चावधिज्ञानमितिसाकारोपयोगोपयुक्तस्या वधिज्ञानलब्धिर्जायते । (वृ०प० ३५६) ६३. इत्येतस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं साकारोपयोगाभिधायक जानातीति प्रथममुक्तं ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति । (वृ० प० ३५९) ६३. ते अर्थ जाणवा ताय, धुर साकारज जाणइ । पाछै अनक्रम आय, उपयोग प्रवृत्ति पासइ ।। दूहा ६४. अवधिज्ञानी जे क्षेत्र थी, जधन्य आंगल नै तेथ । असंख्यातमैं भाग जे, जाण देखै खेत ।। ६४. खेत्तओ णं ओहिनाणी जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं जाणइ-पासइ। श०८, उ०२, ढा० १३फ ३६३ Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण । ६५. *लोक जेतला अलोक में, खंड असंख शक्ति जाणण देखण तणी, उत्कृष्ट थी जाण ॥ ६६. अवधिज्ञानी जे काल थी, आवलिका में विख्यात । असंख्यातमा भाग नीं जाणं जघन्य थी बात ।। ६७. उत्कृष्ट असंख्याती कही, अव उत्सप्पिणी लेख भाव । अतीत अनागत विषे रह्या, रूपी द्रव्य जाणें देख ॥ ६८. भाव थी जधन्यपणें करी, अनंता जे आधार द्रव्य अनंत थी, जाणें देखे सोरठा कहाव ॥ I ६६. जे पर्याय आधार, द्रव्य नां अनंतपणां थकी पर्याय पण सुविचार, अनंतपणो इम आखियो || ७०. पिण इक द्रव्य मांहि पर्याय अनंत अनंत थे। ते सहु जाणें नांहि जाणें अनंत पर्याय अनंत द्रव्य नीं ॥ ७१. *उत्कृष्ट पण जे भाव में जाणें देखे अनंत । उत्कृष्ट पद सहु पज्जव थी, भाग अनंतमे हुंत ॥ सोरठा ७२. इक इक द्रव्य रे मांहि असं असंच पर्याय प्रति जानें देखे ताहि अवधिनाणी उत्कृष्ट श्री ॥ ७३. * प्रवर ज्ञान मनज्जव नीं, विषै किती भगवान ? जिन भाले संक्षेप थी, प्यार प्रकारे जान ॥ ७४. द्रव्य थकी नैं क्षेत्र थी, काल थको कहिवाय । भाव थकी भणियै वली, हिव जूजुओ ताय ॥ ७५. द्रव्य थकी ते ऋजुमती, द्रव्य अनंता जेह । अनंतप्रदेशिया खंध में जाणें देखें तेह ॥ ७६. द्रव्य थकी जे ऋजुमती, अनंत ही अवलीय अनंतप्रदेशिक संध में जाणें देखें सोव ॥ ७७. जिम नंदी सूत्रे कम कहि तेम छै | ज्यां लगभाव थी त्यां लगे, सुणज्यो धर प्रेम ॥ सोरठा ७८. ऋजु कहितां पछाण, जे सामान्यज ग्राहिणी । मति ते कहियै ज्ञान, ऋजुमती कहियै तसु ॥ ७८. घट चितवियो एण, ए अध्यवसाय निमित्त जे । मनोद्रव्य जाणेण ते सामान्यजग्राहिणी ॥ ८०. तथा उजुमती जास, ऋज्वी मति कहिये तिका । ऋजुमतिमान विमास, तेहिज ग्रहियै छै इहां ॥ *लय : प्रभवो मन मह ३६४ भगवती-जोड़ ६५. उक्कोसेणं असंखेज्जाई अलोगे लोयमेत्ताई खंडाई जाणइ-पासइ । ६६. कालओ णं ओहिनाणी जहणेणं आवलियाए असंखेज्जइ भागं जाणई-पासइ । ६७. उक्कोसेणं असंखेज्जाओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं जाणइ पासइ । ६८. भावओ णं ओहिनाणी जहणणं अनंते भावे जाणइपासइ । भावतोज्यधिज्ञानी जघन्येनानन्तान् भावानाधारद्रव्यान्तत्वान्जानाति पश्यति । ( वृ० प० ३५९ ) ७०. न तु प्रतिद्रव्यमिति ( ० ० ३५१ ) ७१. उक्कोसेण वि अनंते भावे जाणइ-पासइ, सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ-पासइ । (श० ८११८६ ) तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति । ( वृ० प० २५९) ७३. मणपज्जवनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा७४. दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । — ७५. दव्य उमती अते अतपदेसिए बंधे जाणइ-पासइ । ७६. अनंते' ति 'अनन्तान्' अपरिमितान् 'अनंत एसिए' त्ति अनन्तपरमाण्वात्मकान् ( वृ० प० ३५६ ) ७०. वहा नंदीए (०२५) जाव (सं० पा०) भावओ ७८. सामान्याहिणी मतिः ऋजुमतिः । ( वृ० प० ३५२) ७६. घटोsनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः ( वृ० प० ३५१ ) ८०. अथवा ऋज्वी मतिर्यस्यासावृजुमतिस्तद्वानेव गृह्यते । (० ० ३५९) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. अनंत प्रदेशिक खंध, विशिष्ट इक परिणाम करि । ८१. तत्र स्कन्धान विशिष्टकपरिणामपरिणतान । परिणत प्रत प्रबंध, जाणै देखै अनंत प्रति ।। (वृ० प० ३५६) ८२. अढी अंगुल जे हीन, अढी द्वीप बे समुद्र नां । ८२. सञ्जिभिः पर्याप्तकैः प्राणिभिरर्द्धतृतीयद्वीपससन्नी पर्याप्त चीन, मन द्रव्य जाणै ऋजुमती॥ मुद्रान्तत्तिभिर्मनस्त्वेन परिणामितानित्यर्थः । (वृ० प० ३५६) ८३. मनपर्याय ज्ञानावरण, क्षयोपशम ने पटपणे । ८३. 'जाणइ' त्ति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमस्य साक्षात करि उच्चरण, जाणे ए मन द्रव्य नैं ।। पटुत्वात्साक्षात्कारेण । (वृ० प० ३५६) ८४. विशेष नो जे जाण, भूयिष्ठ प्रचुरता तणो । ८४. विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदात् जानातीत्युच्यते पथककरण थी माण, घट चितव्यो पिण पट न तु॥ (व० प० ३५६) ८५. जाणे इम कहिवाय, पूर्व न्यायज दाखियो । बलि देखे ते ताय, तेहनो न्याय कहीजिये ।। ८६. मन करि आलोचित्त, पुनः घटादिक अर्थ प्रति । ८६,८७. तदालोचितं पुनरर्थं घटादिलक्षणं मनःपर्यायज्ञानं तुर्य ज्ञान सुपवित्त, प्रत्यक्ष थी जाणें नहीं। स्वरूपाध्यक्षतो न जानाति किन्तु तत्परिणामान्यथाऽनु८७. किंतु तसु परिणाम-अन्यथा-अनुपपत्ति करी । पपत्त्याऽतः पश्यतीत्युच्यते। (वृ० ५० ३५६) जाणे घट नै ताम, देखै कहिये तेहनैं ।। ८८. भाष्यकार इम ख्यात, जाणे जे अनमान थी। ८८. उक्तञ्च भाष्यकारेण-'जाणइ बज्झेऽणुमाणाओ' त्ति बाह्य वस्तु अवदात, ए अंगीकार करिव इहां ।। इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यम् । (वृ० प० ३५९) ८६. जे मनपज्जव ज्ञान, रूपी द्रव्य आलंबने । , ८६,९०. यतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं, मन्तारश्चामूर्त्तमपि करतो थको सुजान, · अमूर्त पिण वलि चितवै॥ धर्मास्तिकायादिकं मन्येरन् । न च तदनेन साक्षात् १०. धर्मास्तिकायादि, चितवतो पिण इण करी । कत्तुं शक्यते । साक्षात थकी संवादि, समर्थ नहीं ते जाणवा ।। (वृ० प० ३५६) ६१. तथा चतुर्विध जेह, चक्ष आदि दर्शन कह्यो । ६१. तथा चतुर्विधं च चक्षुर्दर्शनादि दर्शनमुक्तमतो भिन्नाभिन्न आलंबन एह, विशेष आलंबन तिको । लम्बनमेवेदमवसेयम् (वृ० प० ३५६) ६२. तेह विषे फुन धार, दर्शन नां संभव थकी। ६२. तत्र च दर्शनसम्भवात्पश्यतीत्यपि न दुष्टम् । . पेखै इम वच सार, कहितां पिण नहिं दुष्ट ते ॥ (वृ० प० ३५६) वाल---भिन्न आलंबन ते विशेष आलंबनईज ए मनपर्याय ज्ञान छ, पिण दर्शण आलंबन नथी ते विशेष आलंबन नै विष मनपर्याय ज्ञान दर्शन संभव थकी। पासइ कहितां देखै एह, कहिब पिण दुष्ट नथी । एक प्रमाता नी अपेक्षा करी तदनंतर भाविपणां थकी। इहां ए हाई-घटादिक अर्थ प्रति चितवतो परोक्ष साक्षातईज मनपर्याय ज्ञान । नों धणी मनोद्रव्य प्रतै प्रथम जाण वलि तेहिज मन अचक्षु दर्शन करके चितवै । तेहनी अपेक्षया पासइ कहितां देखै इम कहिये । तिवार पछै एकईज मनपर्याय ज्ञानी जाणतो मन-पर्याय ज्ञान थकी वा०–एकप्रमात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाच्चोअनंतरईज मन अचक्षु दर्शन ऊपजे । इम एहवो एकईज प्रमाता मनपर्याय पन्यस्तमित्यलमतिविस्तरेण । (वृ०प० ३५६) ज्ञाने करी मनोद्रव्य जाणे अनें तेहिज अचक्षु दर्शने करी देखै एहवं कहिये, इत्यलं विस्तरेण। एतले मनपर्याय ज्ञानी ऋजुमती द्रव्य थकी अनंता अपरिमित अनंतप्रदेशिक खंध प्रत जाण देखै । हिवै विपुलमति द्रव्य थकी जाण तेहनों अधिकार कहै छै श०८, उ०२, ढा०१३० ३६५ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. विपुला-विशेषग्राहिणी मति विपुलमतिः (वृ० प० ३५६) ६५. घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रक: (वृ० प० ३५९) ६६,६७ अद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिः (वृ० प० ३५६) ६३. विपुलमती कहिवाय, तेहिज खंध विषे वलि । मनोद्रव्य पर्याय, जाणे एह विशेष थी। ६४. विपुला कहितां जोय, विशेष थी जे ग्राहिणी । मति संवेदन होय, विपुलमति कहिये तसु॥ ६५. इण घट चित्यो ताहि, छै ते घट सोना तणो । पाडलिपुर रै मांहि, तेह घड़ो निष्पन्न छ । ६६. वली नीपनो आज, वलि ते घट मोटो इतो । इत्यादिक तसु साज, जाण एह विशेष थी। ६७. चिंतित अध्यवसाय, हेतुभूत अछे जिके । मनोद्रव्य पर्याय, जाणे विपुलमति प्रवर ॥ ६८. अथवा विपुला जान, मति जेहनी ते विपुलमति । अछे विपुलमतिवान, तेहिज विपुलमति का। 88. *तेहिज विपुलमति तिको, अब्भहियतराणि । अधिक द्रव्यार्थपणे करी, जाणे एह सुनाणी ॥ सोरठा १००. ऋजुमति देख्या खंध, तेह अपेक्षा अति बहु । द्रव्यपणे करि संध, वर्णादिक करिकै बलि ॥ १०१. *विउलतराए पाठ ए, विस्तीर्णपणे देख । विसुद्धतराए विशेष थी, निर्मलपणे संपेख ।। १०२. वितिमिरतराए कहितां वलि, अतिसय करि तेह । गया अंधकार तणी परै, ते प्रति जाणें देखेह ।। ६८. अथवा विपुला मतिर्यस्यासौ विपुलमतिस्तद्वानेव । (वृ० प० ३५६) ६६. ते चेव विउलमई अब्भहियतराए। १००. ऋजुमतिदृष्टस्कन्धापेक्षया बहुत रान् द्रव्यार्थतया वर्णादिभिश्च । (वृ० प० ३५६) १०१. विउलतराए विसुद्धतराए । १०३. क्षेत्र थकी जे ऋजुमति, हेठे जावत जाण । ए प्रत्यक्ष रत्नप्रभा पृथ्वी, तेह तणो पहिछाण ॥ १०४. उवरिम हेट्ठिल क्षल्लक जे, प्रतर प्रतै माणै । नीचो देखै एतलो, मनोगत भाव जाणे ॥ सोरठा १०५. तिरिछा लोक में मध्य, रुचक अछ तेहथी अधो। नव सय जोजन बुद्ध, त्यां ए रत्नप्रभा तणों ।। १०६. उवरिम क्षुल्लकज ताय, प्रतर तिहां कहीजिये । क्षल्लकपणो तसु पाय, अधोलोक प्रतर नी पेक्षया ॥ १०७. तेह थकी पिण हेठ, सौ जोजन जइये तिहां । विजय ऊंडी बे नेठ, हेट्रिल क्षल्लक प्रतर जिहां ॥ १०८. रुचक थकी इम धार, नीचो जोजन सहस्र जे । जाणे देखै सार, भाव मनोगत छै तिके । *लय: प्रभवो मन माहै ३६६ भगवती-जोड़ १०२. वितिमिरतराए जाणइ-पासइ । वितिमिरतरा इव–अतिशयेन विगतान्धकारा इव ये ते वितिमिरतरास्त एव वितिमिरतरका अतस्तान् । (वृ० प० ३५६, ३६०) १०३. खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए १०४. उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डागपयरे मनोगतान् भावान् जानाति पश्यतीति योगः । (वृ० प० ३६०) १०५,१०६. तत्र रुचकाभिधानात्तिर्यग्लोकमध्यादधो यावन्न वयोजनशतानि तावदमुष्या रत्नप्रभाया उपरिमाः क्षुल्लकप्रतराः क्षुल्लकत्वं च तेषामधोलोकप्रतरापेक्षया। (वृ० प० ३६०) १०७. तेभ्योऽपि येऽधस्तादधोलोकग्रामान् यावत्तेऽधस्तनाः क्षुल्लकप्रतराः (वृ० प० ३६०) Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. उड्ढ़े जाव जोइसस्स उवरिमतले । १०६. *ते ऊंचो जिहां लग जाणवो, जोतिष चक्र नो जेह । उवरिम तल मन द्रव्य ने, जाणे देखै तेह ॥ ११०. ऊवं यावज्ज्योतिषश्च-ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं । (वृ० प० ३६०) १११. तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते । सोरठा ११०. रुचक थकी अवधार, नव सय जोजन ऊर्द्ध जे । जोतिष चक्र नों सार, तेहनों ऊपर तल लगै ।। १११. *तिरिछो जावत एतलं, मनुष्य क्षेत्र में अंत । एहिज विभाग थकी हिवै, कहिय धर खंत ।। ११२. अढी द्विप बे समुद्र में, पनर कर्मभूमि खेत । तीस अकर्म भमि विषे, छप्पन अंतरद्वीप तेथ ।। ११३. सन्नी पंचेंद्री पर्याप्त नां, मनोगत भाव तास । जाणे देखै ऋजुमति, पाठ विषे ए विमास ।। ११४. तं चेव तेहिज विपुलमति, अधिको आंगुल अढाइ । आठ्इ जे दिशि विषे, जाण देखै ताहि ।। ११२. अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णए अंतरदीवगेसु । ११३. सण्णीणं पंचिदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पास। ११४. तं चेव विउलमई अड्ढाइज्जेहिमंगुलेहिं अब्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरं खेत्तं जाणइ-पासइ । ११५. इह क्षेत्राधिकारस्य प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वित जीवाधारं क्षेत्रमभिगृह्यते। (वृ० प० ३६०) ११६. तत्राभ्यधिकतरकमायामविष्कम्भावाश्रित्य विपुलतरकं बाहल्यमाश्रित्य । (वृ० प० ३६०) सोरठा ११५. तं चेव अर्थ कथित, इहां क्षेत्र प्रधानपणां थकी। तेहिज मन द्रव्य सहित, जीवाधार क्षेत्र संग्रह्य । ११६ *अब्भहियतरागं पाठ ए, लांब विखंभ आश्रित्त । विपुलतरागं पाठ ए, बाहुल्य आश्री कथित्त ।। सोरठा ११७. मनोद्रव्य जिह खेत, तसु लांब चोड़ जाडापणुं । क्षेत्राधिकार एथ, तिण सुं बिहुं पद अर्थ इम ।। ११८. *विसुद्धतरागं निर्मल अति, वितिमिरतरागं जेह । तदावरणी जे कर्म नां, विशिष्ट क्षयोपशम लेह ।। ११६. ए पूर्वे कह्या ते क्षेत्र नां, सन्नी पर्याप्ता नां भाव । जाणे देखै निर्मलपणे, विपुलमति नो ए न्याव । १२०. काल थकी जे ऋजुमति, जघन्य थकी ए माग । पल्योपम छै तेहनों, असंख्यातमों भाग ।। १२१. उत्कृष्ट पिण पल्योपम तणो, असंख्यातमो भाग । अतीत अनागत काल नां, जाणे देखै सुमाग ।। सोरठा १२२. अतीत अनागत जेह, मनोद्रव्य बिहं काल नां । जाणें देखै तेह, पल्य नुं असंख भाग जे । *लय : प्रभवो मन मांहै ११८. 'विसुद्धतरक' निर्मलतरकं वितिमिरतरकं तु तिमिरकल्पतदावरणस्य विशिष्टतरक्षयोपशमसभावादिति । (वृ०प० ३६०) १२०. कालओ णं उज्जुमई जहाणेणं पलिओवमस्स असंखि ज्जयभागं १२१. उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखिज्जयभागं अतीय मणागयं वा कालं जाणइ-पासइ । श०८, उ०२, ढा० १३८ ३६७ Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३. *तं चैव कहितां तेहिज अद्धा, अतीत अनागत जान । पल्य नों भाग असंख्यातमों, जघन्य उत्कृष्ट पिछान ॥ १२४. जाणे देखे विपुलमति, अतिहि अधिक द्रव्य मन । अतिहि विपुल नैं विशुद्ध घणुं, अतिहि वितिमिर जन ॥ १२५. भाव थकी जे ऋजुमति, अनंत भाव अवलोय । द्रव्य तणां पर्याय में, जानें देखे सोय ॥ १२६. सर्व भाव वर्णादिक वर्णादिक तणां, पर्याय कहाय । तेहनो भाग अनंतमो, जाणें देखे ताय ॥ १२७. तेहिज भाव विपुलमति, अतिहि अधिक अवेखे । विपुल विशुद्ध में वितिमिर हि अतिसय करि जाणें देखे ॥ सोरठा १२०. मनोद्रव्य जेह, छै 1 जेह, वर्णादिक पर्याय तसु । जाणें देखे तेह, मनपज्जव धर भाव थी । १२६. जहा नंदीए जान एह पाठ अनुसार थी। नंदी यकी वखाण, भाव लगे इस आखियो । १३०. हे प्रभु ! केवल ज्ञान नीं विषय किती कहियाय ? च्यार प्रकार संक्षेप थी, द्रव्य क्षेत्र काल भाव ॥ द्रव्य १३१. केवलज्ञानी द्रव्य थी, सहू जाणें देखे । एवं जावत भाव थी, नंदी मांहि विशेख ॥ १३२. क्षेत्र की सर्व क्षेत्र ने काल घकी सर्व काल । भाव थकी सर्वभाव नैं केवलज्ञाने न्हाल ॥ १३२. इहां सर्व द्रव्य कहिये करो धर्मास्तिकायादि । आकाश द्रव्य ग्रहण थयो, स्यू' बलि क्षेत्र संवादि ॥ १३४. क्षेत्रपणें करि रूढ छ, ग्रहण कियो आकाश | तिण कारण वलि क्षेत्र थी, अंगीकार कियो तास ॥ १२५. हे प्रभु | मति अज्ञान नीं विषय किती कहिवाब ? च्यार प्रकार संक्षेप थी, द्रव्य क्षेत्र काल भाव ॥ १३६. मति अज्ञानी द्रव्य विषय आया जे १३७. अपाय नें धारणा करी, देखें अवग्रह ईहा करी, इम "लय : प्रभवो मन महि २६० भगवती-जोड़ थी, मवि अज्ञान र जेह । द्रव्य नें जाणें देखें तेह | द्रव्य तेह जाणंत वृत्तिकार कहंत ॥ १२३,१२४. तं चैव विउलमई अन्भहियत रागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरत रागं जाणइ पासइ । १२५. भावओ णं उज्जुमई अनंते भावे जाणइ-पासइ । १२६. सव्वभावाणं अनंतभागं जाणइ-पासइ । १२७. तं चैव लिई अम्मतिरागं वितरागं विमुद्धतरागं वितिमिरत रागं जाणइ पासइ । (TTO CIPES) १२६ ( नंदीसुतं सू० २५) १३०. केवलनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ ३३१. दव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ । एव जाव (सं० पा० ) भावओ । तावत्केवल विषयाभिधायि नन्दी ध्येयमित्यर्थः १३२. खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं (सू० १३) ( वृ० प० ३६० ) जाणइ-पासइ । जाणइ पासइ । भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे जाणइ-पासइ । (२०८११८८) १३३,१३४. इह धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्या द्रव्यस्य ग्रहणेऽपि यत्पुनरुपादानं तत्तस्य क्षेत्रत्वेन स्वत्वादिति । ( वृ० प० ३६० ) १३५. मइअण्णाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ । १३६. दव्वओ णं मइअण्णाणपरिगयाइं दव्वाइं जाणइ पासइ । १३७. जानात्पापादिना पश्यत्यवग्रहादिना । ( वृ० प० ३६० ) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८. एवं जावत भाव थी, मति अज्ञानी संपेक्ष । मति अज्ञान विषय जे, द्रव्य आया जाण देखै ॥ १३८. जाव (सं० पा०) भावओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाण परिगए भावे जाणइ-पासइ । सोरठा १३९. जाव शब्द में जाण, क्षेत्र थकी नै काल थी। जाण देखै माण, ते कहियै छै इह विधे । १४०. 'मति अज्ञानी क्षेत्र थी, मति अज्ञान रै जोय । विषय आया जे क्षेत्र ने, जाणें देखें सोय ॥ १४१. मति अज्ञानी काल थी, मति अज्ञान रै जेह । विषय आया जे काल में, जाणें देखै तेह ।। १४२. हे प्रभु ! श्रत अज्ञान नीं, विषय किती कहिवाव ? च्यार प्रकार संक्षेप थी, द्रव्य क्षेत्र काल भाव । १४३. श्रुत-अज्ञानी द्रव्य थी, श्रुत अज्ञान रै जेह । विषय आया जे द्रव्य नै, आघवेइ कहेह ।। १४४. पण्णवेइ भेद थकी कहै, परूपै ए विशेष । वाचनांतरे ए वली, कहियै पाठ विशेष ।। १४५. दंसेइ ओपमा मात्र थी, यथा गौ तथा रोझ । निदंसेइ थाप तिको, हेतु दृष्टांत सोझ ।। १४६. उवदंसेइ उपनय करी, फून निगमन करि आखै । वा अन्य मत ने देखाड़वै, वाचनांतरे दाखै । १४७. इमहिज क्षेत्र थी काल थी, श्रुत अज्ञान में जेह । विषय क्षेत्र अरु काल नैं, आघवेइ प्रमुखेह ॥ १४०. खेत्तओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाणपरिगयं खेत्तं जाणइ-पासइ। १४१. कालओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाणपरिगयं कालं जाणइ-पासइ। (श० ८।१८६) १४२. सुयअण्णाणस्स गं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। १४३. दब्वओ णं सुपअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयाइं दव्वाई आघवेइ, १४४. पण्णवेइ, परूवेइ। 'प्रज्ञापयति' भेदतः कथयति 'प्ररूपयति' उपपत्तितः कथयतीति वाचनान्तरे पुनरिदमधिकमवलोक्यते । (वृ० ५० ३६०) १४५,१४६. 'दंसेति निदंसेति उवदंसेति' त्ति तत्र च दर्शयति उपमामात्रतस्तच्च यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निदर्शयति हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्शयति उपनयनि गमनाभ्यां मतान्तरदर्शनेन वेत्ति। (वृ० प० ३६०) १४७. खेत्तओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयं खेत्तं आघवेइ, पण्णवेइ, परवेइ। कालओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयं कालं आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ । १४८. भावओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगए भावे आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ। (श० ८।१६०) ३४६. विभंगनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। १५०. दव्वओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाइं दवाई जाणइ-पासइ। १४८. श्रुत अज्ञानी भाव थी, श्रुत अज्ञान नैं वादि । विषय आया जे भाव ने, आघवेइ इत्यादि । १४६. हे प्रभु ! विभंग अज्ञान नीं, विषय किती कहिवाव । च्यार प्रकार संक्षेप थी, द्रव्य क्षेत्र काल भाव ॥ १५० विभंग अज्ञानी द्रव्य थी, विभंग अज्ञान र जेह । विषय आया जे द्रव्य नैं, जाणें देखै तेह ।। सोरठा १५१. विभंग अज्ञान करेह, जाणे द्रव्य तसु विषय जे । अवधि दर्शन करि तेह, देखै तेहिज द्रव्य प्रति ।। *लय : प्रभवो मन माहै १५१. 'जाणइ' त्ति विभङ्गज्ञानेन 'पासई' त्ति अवधिदर्शनेनेति (वृ० प० ३६०) श० ८, उ० २, ढा० १३८ ३६६ Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. एवं जाव (सं० पा०) भावओ णं विभङ्गनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ-पासइ (श० ८।१६१) १५२. *एवं यावत भाव थी, विभंग अज्ञान रै जेह। विषय आया जे भाव नैं, जाण देखै तेह ।। १५३. अंक बयासी नो देश ए, सौ अड़तीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। ढाल: १३६ १. जीव सहित अष्टादशम, कालद्वार कहिवाय । ___ ज्ञानी को ज्ञानी प्रभु ! काल कितो रहिवाय ? २. जिन कहै ज्ञानी द्विविधे, आदि-सहित अवधार । पिण ते अंत-रहित कह्यो, एह केवली सार ॥ ३. अथवा आदि-सहित जे, अंत-सहित अवधार । आभिनिबोधिक प्रमुख जे, चउ नाणीसुविचार ।। ४. तत्र आदि करि सहित जे, अंत-सहित अवलोय। जघन्य स्थिति है जेहनी, अंतर्मुहर्त जोय ॥ ५. धर बे ज्ञानी आश्रयी, जघन्य थकी इम जाण । ____ अंतर्मुहर्त मात्र है, वारू न्याय विनाण ॥ ६. स्थिति उत्कृष्टी एतली, छासठ सागर तास । जाझेरी जिनवर कही, तसु इम न्याय विमास ॥ ७. विजयादिक में वार बे, तथा अच त्रिण वार । नर भव अधिक कहीजिय, एक जीव अधिकार ।। वा०—पन्नवणा पद १८ में पर्याप्ता रो पर्याप्तो उत्कृष्ट पृथक सौ सागर रहै इम कां । तेहर्नु न्याय--बीच अपर्याप्तो हुवै, पिण ते अपर्याप्तपणे मरै नहीं। तिम इहां पिण ६६ सागर जाझेरो कह्यो, ते बीच नर भव में कदाचित ज्ञान न हुवै तो पिण अज्ञानीपणे मरै नहीं, एहवू न्याय जणाय छै । ८. जीव अनेकज आश्रयी, सर्वकाल सुखकार । ज्ञान त्रिहुं लाधे सदा, वारू न्याय विचार । ६. ज्ञानी मतिज्ञानी वलि, यावत केवल न्हाल । अज्ञानी मति श्रुत विभंग, ए दस नों जे काल ।। १०. ए दस नी संचिट्ठणा, अवस्थित जे काल । यथा काय स्थिति पन्नवणा, अठारमें पद न्हाल ।। १. अथ कालद्वारे-'साइए' इत्यादि। (व०प०३६०) नाणी णं भंते ! नाणी त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? २. गोयमा ! नाणी दुविहे पण्णत्ते. तं जहा---सादीए वा अपज्जवसिए इहाद्यः केवली। (वृ० प० ३६०) ३. सादीए वा सपज्जवसिए। द्वितीयस्तु मत्यादिमान् । (वृ० प० ३६०) ४. तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतो मुहत्तं । ५. आद्यं ज्ञानद्वयमाश्रित्योक्तं, तस्यैव जघन्यतोऽन्तर्महर्त्तमात्रत्वात् । (वृ० प० ३६१) ६. उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं सातिरेगाई। (श० ८।१६२) ७. दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नच्चुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं । (वृ०प०३६१) वा०-पज्जत्तए णं भते ! पज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम सयपुहत्तं सातिरेगं। (पण्णवणा पद १८।११३) ८. णाणाजीवाण सव्वद्धं । (वृ०प० ३६१) ६,१०. ज्ञान्याभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञान्यवधिज्ञानिमनःपर्यवज्ञानिकेवलज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभङ्गज्ञानिनां 'संचिट्ठणे' ति अवस्थितिकालो यथा कायस्थिती प्रज्ञापनाया अष्टादशे पदे (७६-८४) ऽभिहितस्तथा वाच्यः । (वृ० प० ३६१) *लय : प्रभवो मन माहै ३७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *जय जशकारी हो ज्ञान जिनेन्द्र नो (ध्र पदं)॥ ११. आभिनिबोधिक श्रुतज्ञानी धुरे, अंतर्मुहुर्त काल हो, भविकजन ! छासठ सागर जाझेरो कह्यो, उत्कृष्ट काल निहाल हो, भविकजन ! ११, आभिणिबोहियनाणी णं भंते ! आभिणिबोहियनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा एवं चेव । (श०८।१६३) एवं सुय नाणी वि। (श० ८।१६४) आभिनिबोधिकज्ञानादिद्वयस्य तु जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकाणि षट्षष्टिः सागरोपमाणि । (वृ० ५० ३६१) १२. ओहिनाणी वि एवं चेव, नवरं-जहणणं एक्क समयं । (श० ८।१६५) यदा विभंगज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत् प्रथमसमय एव विभङ्गमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते । (वृ० प०३६१) १२. अवधिज्ञानी इक समय जघन्यपणे, विभंग तणो अवधि होय । समय एक रही ते पाछो पड़े, इम इक समय सुजोय ॥ सोरठा १३. अवधिज्ञान विलाय, पिण समकित जाती नथी। जघन्य स्थिति पिण ताय, अंतर्महतं नी तेहथी। १४. अवधिज्ञान जसु होय, मति श्रुत नियमा ह तसु । इक समय अवधि रहि जोय, मति श्रुत ज्ञान विषे रहै । वा०-विभंग अज्ञानी नो अवधिज्ञानी किम हुवै ? अन तेहनी एक समय नी थिति किम ? देवता, नारक, मनुष्य, तिथंच-पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टि तेहनै तीन अज्ञान हुवै । हिवै मिथ्यादृष्टि नो समदृष्टि थयो, तिवारे तीन अज्ञान नां ज्ञान थया, विभंग नो अवधि थयो। तिवारै एक समय पछज तेहनो आयु पूर्ण थयो अथवा अनेरे प्रकारे एक समय ते अवधि रही पाछो पड़ यो, पिण सम्यक्त नहीं गई । कारण मति, ध्रुत ज्ञान नी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त नी छ, सम्यक्त नीं पिण एतलीज छै । इण न्याय अवधिज्ञान नी स्थिति जघन्य एक समय नीं। १५. *अवधिज्ञान उत्कृष्टपणे रहै, छासठ सागर देख । जामो काल कह्यो ते ऊपरे, न्याय पूर्ववत पेख ॥ १६. मनपज्जव इक समय जघन्य रहै, अप्रमत्त में उपजत। समय एक रही तेह विनष्ट ह, इम वृत्तिकार कहंत ॥ १५. अवधिज्ञानिनामप्येवं नवरं जघन्यतो विशेषः । (वृ० ५० ३६१) १६. मणपज्जवनाणी णं भंते ! मणपज्ज्जवनाणी ति काल ओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं । संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्न तत उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं चेत्येवमेकं समयं । (वृ०प० ३६१) १७. उक्कोसेणं देसूणं पुश्वकोडिं। (श० ८.१९६) तथा चरणकाल उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी, तत्प्रतिपत्तिसमनन्तरमेव च यदा मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नमाजन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति। (वृ० प० ३६१) १७. मनपर्यवज्ञानी उत्कृष्ट थी, देसूण पूर्व कोड़। चरण लियां मनपर्यव ऊपजै, जावजीव लग जोड़। * लय : पूजजी पधारो हो नगरी श०८, उ० २, ढा० १३६ ३७१ Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. केवलज्ञानी आदि-सहित छै, अंतर-रहित अवधार । सिद्धां में पिण केवल सास्वतो, वारू न्याय विचार ।। १६. अज्ञानी मति श्रुत अनाण नां, तीन भेद सुप्रयोग्य । आदि-रहित में अंत-रहित जे, अभव्य सिद्ध-अयोग्य ।। २०. आदि-रहित ने अंत-सहित जे, मुक्तियोग्य भव्य इष्ट । __ आदि-सहित ने अंत-सहित ते, पडिवाई समदृष्ट ।। १८. केवलनाणी णं भंते ! केवलनाणी ति कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए। (श० ८।१९७) १६. अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य तिविहे पण्णते, तं जहा-अणादीए वा अपज्जवसिए। अभव्यानाम् । (वृ० प० ३६१) २०. अणादीए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। भव्यानाम् .. प्रतिपतितसम्यग्दर्शनानाम्। (वृ० प० ३६१) २१. तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं। सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तर्मुहत्तोपरि सम्यक्त्वप्रतिपत्ती। (वृ० प०३६१) २२. उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंता ओसप्पिणी उस्सप्पि जीओ कालओ। २३. खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं । (श० ८।१६८) २१. आदि-सहित मैं अंत-सहित जे, अंतर्महत जघन्न । सम्यक्त भ्रष्ट अंतर्मुहुर्त रही, वलि सम्यक्त उप्पन्न । २२. उत्कृष्टो ए काल अनंत है, अव-उत्सर्पिणी अनंत । काल थकी ए श्री जिन आखियो, हिव क्षेत्र थकी वतंत। २३. पुद्गलपरावर्त आधो कह्यो, देश ऊण अवलोय । उत्कृष्ट पडिवाई इतरो रुलै, क्षेत्र थकी ए जोय ।। वा०-द्रव्यादिक भेदे करिकै च्यार प्रकार नों पुद्गलपरावर्त। ते मध्य ए क्षेत्र थकी पुद्गलपरावर्त्त जाणवो । २४. विभंग अनाणी जघन्य पदे रहै, एक समय तसु रीत । विभंग ऊपनां समय रही पड़े, श्री जिन वचन प्रतीत ।। वा०-जेहन अवधिज्ञान होय ते मिथ्याती थये छते तेहनै विभंग अज्ञान थयो । पछै एक समय रही पाछो गयो । तिवारै मति श्रुति अज्ञान में रह्यो । इण न्याय विभंग अज्ञान नी जघन्य स्थिति एक समय नी । २५. उत्कृष्ट सागर तेतीस अधिक ए, देसूण पूर्व कोड़। मनष्य विषे जे विभंगपणे रही, नरक सातमी जोड़ ।। २४. विभंगनाणी णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं । उत्पत्तिसमयानन्तरमेव प्रतिपाते। (वृ० प० ३६१) २६. ज्ञान पंच ने तीन अज्ञान नों, अंतर सर्व विचार । जीवाभिगम विषे जिम भाखियो, कहिवं तिम अधिकार ।। २७. आभिनिबोधिक अंतर काल थी, अंतर्मुहर्त जघन्न । उत्कृष्ट पुद्गल अर्द्ध देसूण नों, काल अनंत उप्पन्न ।। २५. उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुवकोडीए अब्भहियाई। (श० ८।१६६), देशोनां पूर्वकोटि विभङ्गितया मनुष्येषु जीवित्वाऽप्रति ष्ठानादावुत्पन्नस्येति। (वृ० प० ३६१) २६, पञ्चानां ज्ञानानां त्रयाणां चाज्ञानानामन्तरं सर्वं यथा जीवाभिगमे (पडिवत्ती ८ सू० १६०-१६५) तथा वाच्यं । (वृ० प० ३६१) २७. आभिणिबोहियनाणिस्स णं भंते ! अंतरं कालो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं । (श० ८।२००) २८. सुयनाणि-ओहिनाणि-मणपज्जवनाणीणं एवं चेव।। (श० ८।२०१) केवलनाणिस्स पुच्छा। गोयमा ! नत्थि अंतरं। (श० ८।२०२) २८. इमहिज श्रुत अवधि मनपज्जव नो, अंतर कहिये तास । केवलज्ञान तणो नहिं आंतरो, पूरण नाण प्रकाश । ३७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६,३०. मइअण्णाणिस्स सुयअण्णाणिस्स य पुच्छा। ३१. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, २६. मति श्रुत अज्ञान नां त्रिण भेद छ, आदि-रहित अवलोय । अंत-रहित ते अभव्य आसरी, तसू अंतर नहिं होय ।। ३०. आदि-रहित ने अंत-सहित ते, भव्य आश्री पहिछाण । शिव गति जावा जोग तिके कह्या, अंतर तास म जाण ॥ ३१. आदि-सहित - अंत-सहित ते, ए पडिवाई पेख । जघन्य अंतर्महतं नों आंतरो, विमल नेत्र करि देख ।। ३२. उत्कृष्टो छासठ सागर तणो, जाझेरो कहिवाय। सम्यक्त नी स्थिति इतरी भोगवी, फेर अनाणी थाय ।। ३३. विभंग अनाण रो अंतर जघन्य थी, अंतर्मुहर्त न्हाल । उत्कृष्टो तसु अंतर एतलो, बनस्पति नो काल ॥ वा०—असंख्याता पुद्गलपरावर्त वनस्पति में रहै-आवलिका रै असंख्यातमें भाग जेतला समा, तेतला पुद्गलपरावर्तन रहै । ३४. अल्पबहत्व त्रिण तीजा पद विषे, धर पंच ज्ञान नी जाण। दूजी अल्पबहुत्व तीन अज्ञान नीं, तीजी उभय नी माण। ३५. आभिनिबोधिक ज्ञानी हे प्रभु ! जाव केवली देख । अल्पबहु कुण-कुण थी ते अछ, तुल्य अधिक सुविशेख ? ३६. सर्व थी थोड़ा मनपज्जवधरा, मुनिवर में ए होय । अवधिज्ञानी ए असंखगणा अछ, गति च्यारू में जोय ॥ ३२. उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई साइरेगाई। (श० ८।२०३) ३३. विभंगनाणिस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो। (श० ८।२०४) ३७. मति थ त ज्ञानी माहोमां तुल्ला, विसेसाहिया अवलोय। केवलज्ञानी अनंतगुणा अछ, अल्पबहुत्व धुर जोय ।। ३४. अल्पबहुत्वानि त्रीणि ज्ञानिनां परस्परेणाजानिनां च ज्ञान्यज्ञानिनां च (वृ० प० ३६२) ३५. एतेसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं ..."केवलनाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ३६. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी, ओहि नाणी असंखेज्जगुणा तत्र ज्ञानिसूत्रे स्तोका मनःपर्यायज्ञानिनो, यस्माद् ऋद्धिप्राप्तादिसंयतस्यैव तद्भवति, अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु सन्तीति तेभ्योऽसंख्येयगुणाः (वृ० प० ३६२) ३७. आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी दो वि तुल्ला विसेसा हिया, केवलनाणी अणंतगुणा। (श ८।२०५) ३८. एतेसि णं भंते ! जीवाणं.... गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा विभंगनाणी, अज्ञानिसूत्रे तु विभङ्गज्ञानिन: स्तोकाः, यस्मात् पंचे न्द्रिया एव ते भवति। (वृ० प० २६२) ३६. मइअण्णाणी सुयअण्णाणी दो वि तुल्ला अणंतगुणा। (श० ८।२०६) यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः । (वृ० प० ३६२) ४०. एतेसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीण.... गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी ओहिनाणी असंखेज्जगुणा ३८. तीन अनाणी में सर्व थोड़ा अछ, विभंग-अनाणी जोय । __एह सन्नी पंचेंद्री में अछ, ते भणी थोड़ा होय ।। ३६. मति श्रु त अनाणी ए बिहुँ कह्या, तुल्ला माहोमांय । विभंग थकी ए अनंतगणा अछ, अनंतकाय रे न्याय ।। ४०. हिवै आठां में सर्व थोड़ा अछ, मनपज्जव मुनिराय। अवधिज्ञानी ते असंखगणा अछ, तेहनों छै इम न्याय ।। श० ८, उ०२, ढा० १३६ ३७३ Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरठा ४१. सुर नारक समदृष्ट, अवधिज्ञान तेहनें अवश्य । तिरि मनु सन्नी इष्ट, समदृष्टि कोइक विषे ।। ४२. *मति श्र त ज्ञानी परस्परे तुल्ला, अवधि ज्ञान थी एह। विसेसाहिया अधिक विशेष ते, सह समदष्टी लेह ॥ ४३. विभंग अनाणी असंखगुणा कह्या, सुर नारक सुविचार । अवधिज्ञानी छै तेह थकी घणां, विभंग असंखगुणा धार॥ ४४. केवलज्ञानी अनंतगणा अख्या, सिद्ध भगवंत रै न्याय । उभय अनाणी तुल्य अनंतगुणा, वनस्पति में पाय ।। ४५. आभिनिबोधिक नां पजव किता ? अनंत कहै जिनराय । पंच ज्ञान नैं तीन अज्ञान नां, इमज अनंत कहाय॥ ४२. आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य दो वि तुल्ला विसे साहिया। ४३. विभंगनाणी असंखेज्जगुणा आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभंगज्ञानिनोऽसंख्येयगुणाः कथम् ? उच्यते, यतः सम्यग्दृष्टिभ्यः सुरनारकेभ्यो मिथ्यादृष्टयस्तेऽसंख्येयगुणा उक्तास्तेन विभङ्गज्ञानिन आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्योऽसंख्येयगुणाः । (वृ० प० ३६२) ४४. केवलनाणी अणंतगुणा, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा। (श० ८।२०७) केवलज्ञानिनस्तु विभङ्गज्ञानिभ्योऽनन्तगुणाः, सिद्धानामेकेन्द्रियवर्जसर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चान्योन्यं तुल्यांः केवलज्ञानिभ्यस्त्वनन्तगुणाः, वनस्पतिष्वपि तेषां भावात्, तेषां च सिद्ध भ्योऽप्यनन्तगुणत्वादिति। (वृ० प० ३६२) ४५. केवतिया णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता। (श० ८।२०८) केवतिया णं भंते ! सुयनाणपज्जवा पण्णत्ता ? एवं चेव । (श० ८।२०६) एवं जाव केवलनाणस्स । एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स। (श० ८।२१०) केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता। (श० ८।२११) ४७. आभिनिबोधिकज्ञानस्य पर्यवाः-विशेषधर्मा आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः स्वपरपर्यायभेदात् । (वृ० प० ३६२) ४८. तत्र येऽवग्रहादयो मतिविशेषाः क्षयोपशमवैचित्र्यात्ते स्वपर्यायास्ते चानंतगुणाः, कथम् ? (वृ० प० ३६२) सोरठा ४६. वृत्ति विषे छै ताय, पज्जव तणोज न्याय जे । बहु विस्तारज आय, कहियै तिण अनसार थी। ४७. आभिबोनधिक ज्ञान नां, पर्यव विशेष धर्म । स्व पर पज्जव भेद थी, द्विविध इम तसु मर्म ।। ४८. मति-विशेष अवग्रह-प्रमुख, क्षयोपशम थी त । तास विचित्रपणां थकी, स्व पर्याय अनन्त ॥ *लय : पूजजी पधारो हो नगरी १. जोड़ की प्रस्तुत गाथा बहुत संक्षिप्त है । भगवती में किसी संक्षिप्त पाठ की सूचना नहीं है। इसलिए इस पद्य के सामने भगवती का पूरा पाठ रखा गया है। ३७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. एकस्मादवग्रहादेरन्योऽवग्रहादिरनन्तभागवृद्ध्या विशुद्धः (वृ०प० ३६२) ५०. अन्यस्त्वसंख्येयभागवृद्ध या अपरः संख्येयभागवृद्ध्या अन्यत रः संख्येयगुणवृद्ध या (वृ० प० ३६२) ५१. तदन्योऽसंख्येयगुणवृद्ध या अपरस्त्वनन्तगुणवृद्धया। (वृ० प० ३६२) ५२. एवं च संख्यातस्य संख्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चासंख्यातभेदत्वात् (वृ० प० ३६२) ५३. अनन्तस्य चानन्तभेदत्वादनन्ता विशेषा भवंति । (वृ० ५० ३६२) ५४,५५. अथवा तज्ज्ञेयस्यानन्तत्वात् प्रतिज्ञेयं च तस्यभिद्यमानत्वात् । (वृ० प० ३६२) ४६. एक अवग्रहादिक थकी, आदि अनंत ही भाग । वृद्धि करिनै विशुद्ध है, उज्जल गुणे अथाग । ५०. अन्य असंखिज्ज भाग ही, वृद्धि करि गुण रिद्ध। अपर भाग संखेज्ज वृद्धि, अन्य संखगण वृद्ध । ५१. तेहथी अन्य असंखगुण, वृद्धि करि पहिछान । अपर अनंत ही गण वृद्धि, ऊजल गण सुविधान ।। ५२. इम संख्याता नां अछ, प्रवर भेद संख्यात । तथा असंख्याता तणां, भेद असंख विख्यात ॥ ५३. तथा अनंता नां वलि, अनंत भेद थी जोय । हुवै अनंता पजव इम, प्रथम न्याय ए होय ॥ ५४. तथा ज्ञेय जे वस्तु छ, घटादि जाणण जोग । एक-एक वस्तु नै विषे, छ मति नौं उपयोग । ५५. ज्ञेय नां भिन्नपणां थकी, जुदो-जुदो उपयोग । इम अनंत द्रव्य जाणवै, पज्जव अनंत प्रयोग ।। वा०--अथवा मति ज्ञान नैं जाणवा जोग पदार्थ नां अनंतपणा थकी । अनै एक-एक ज्ञेय ते जाणवा जोग पदार्थ प्रति ते मतिज्ञान नै भिद्यमानपणां थकी भिद्यमान ते भिन्नपणां थकी। ५६. अथवा जे मति ज्ञान नां, केवल बुद्धि कर ताय । भेद्यां खंड अनंत ह, इम अनंत पर्याय ।। वा०---अथवा मति ज्ञान प्रति अविभाग-परिच्छेद ते खंड तेणे करी केवलज्ञान-रूपणी बुद्धि करिक भिन्न ते जूजुआ कियां थकां अनंत खंड हुवै इण प्रकार करी अनंता ते मति ज्ञान नां पर्याय हुवै । ५७. ए स्व-पज्जव पेक्षया, कह्या अनंत उदार । हिव पर-पज्जव आश्रयी, आख्या वृत्ति मझार ॥ वा०-तथा जेह पदार्थ मतिज्ञान परिच्छित्त घटादिक वस्तु थकी व्यतिरिक्त जे अनेरा पदार्थ तेहनां पर्याय ते मतिज्ञान नां पर-पर्याय । ते स्व पर्याय थकी अनंतगुण, पर नै अनंत गुणपणां थकी। ढेि शिष्य प्रेरणा करै छ५८. जो ते पर पर्याय छै, तो इहां ग्रहण न युक्त। पर संबंधीपणां थकी, ते मति नां किम उक्त ? ५६. जो मतिज्ञान तणां गिणो, तो नहिं पर पर्याय ? ___ इम शिष्य तर्क कियां थकां, कहियै छै तसु न्याय ।। ६०. जेह थकी मति नै विषे, असंबद्ध ते थाय । तेह थकी जे तेहनां, कहियै पर पर्याय ॥ ६१. वा श्र तज्ञानादिक तणां, छै पज्जव जे सार । ते मतिज्ञान तणां नहीं, परित्यज्यमान विचार ।। ६२. जेह भणी मतिज्ञान तसु, परित्यज्यमानपणेह । तिण प्रकार करि एहन, स्व पर्याय कहेह । ५६. अथवा मतिज्ञानमविभागपरिच्छेदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनन्तखण्डं भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यवाः । (वृ० प० ३६२) वा०–तथा ये पदार्थान्तरपर्यायास्ते तस्य परपर्यायास्ते च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तगुणत्वादिति । (वृ० प० ३६२) वा०---तथा ये पदार्थान्तरपर्यायास्ते तस्य परपर्यायास्ते च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तगुणत्वा दिति । ५८. ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति न व्यपदेष्टु युक्त, परसंबंधित्वात् । (वृ० प० ३६२, ३६३) ५६. अथ तस्य ते तदा न परपर्यायास्ते व्यपदेष्टव्याः, स्वसंबंधित्वादिति, अत्रोच्यते, (वृ० प० ३६३) ६०. यस्मात्तत्रासंबद्धास्ते तस्मात्तेषां परपर्यायव्यपदेशः । (वृ० प० ३६३) ६१,६२. यस्माच्च ते परित्यज्यमानत्वेन तथा स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एते इत्येवं विशेषणहेतुत्वेन च तस्मिन्नुपयुज्यन्ते तस्मात्तस्य पर्यवा इति व्यपदिश्यन्ते । (वृ० प० ३६३) श०८, उ० २, ढा० १३६ ३७५ Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. असंबद्ध पिण धन यथा, स्व धन इम कहिवाय । तेम असंबद्ध मति थकी, तो पिण तसु पर्याय ॥ aro - इहां शिष्य पूछ्यूँ - हे भगवान ! जे ते पर पर्याय है तो ते मतिज्ञान नां न कहिवा, परसंबंधिपणां थकी । अथ ते पर्याय मतिज्ञान नां छै तो ते परपर्याय न कहिवा, स्वसंबंधी थी ? हिर्व आचार्य कहै छे— जेह थकी ते मतिज्ञान के विषे असंबद्ध छै ते कारण थकी तेहने पर पर्याय कहिये । अथवा जेह थकी ते परित्यज्यमानपणें करी जे श्रुतज्ञानादिक पजवा ते मतिज्ञान नां पर्यवा नहीं इण प्रकार करिकै परित्यज्यमानपणुं -- त्यज्यवापणुं मतिज्ञान में छै, तिण प्रकार करिकै ए स्व पर्याय नां विशेषण हेतु करि ते मतिज्ञान के विषे जुड़े । जिम असंबद्ध पिण धन स्वधन कहिये, उपयुज्यमानपण बकी। ६४. अनंत पज्जव श्रुतज्ञाननां ते द्विविध कहिवाय । स्व पज्जव पर पज्जव फुन, निसुणो तेहनों न्याय ॥ ६५. तिहां स्व पज्जव रह्या अछे, जे श्रुत ज्ञानज मांय । अक्षर तादि भेद तसु, चतुर अनें दस पाय ॥ ६६. पजवा तास अनंत इस क्षयोपशम विचित्त । वलि श्रुतज्ञाने ग्राह्य द्रव्य, ए विहं कर अवितत्व ॥ ६७. त अनुसारी बोध नुं, अनंतपणां श्री अनंत । वलि बुद्धि कर श्रुतज्ञान नां, खंड अनंता हुंत ॥ ६८. पर पर्याय अनंत ही सर्व भाव नां सोय । मति नीं पर अवलोय ॥ अनुसारे ज्ञान । अकरादि पहिचान ॥ तेह प्रसिद्धज जाणवा, ६९. अथवा श्रुत जे ग्रंथ नै त थपज वर्ण ही ग्रंथपणुंज ७०. इक इक अक्षर नें विषे, जथाजोग अवलोय | उदात्त ने अनुदास फुन, स्वरित भेद थी सोय ॥ ७१. वलि सानुनासिक कह्य, निरनुनासिक भेद । अल्पप्रयत्न महाप्रयत्न नां, भेदादिक करि वेद । ७२. फुन संयुक्त संयोग ही, असंयुक्त संयोग । यादि संयोग भेद थी, नाम अनंत ही जोग ॥ ७३. भिद्यमान करिकै तिके, भेद अनंत ही थाय । तेहनां जे पर्याय ने कहिये स्व पर्याय || ७४. फुन तेहथी अन्य पजव नैं कहियै पर पर्याय । तेह अनंतज जाणवा, निमल विचारो न्याय ॥ वा० - इहां जाव शब्द में अवध्यादिक जाणवो । । ७५. अनंत पज्जव है अवधि नां, स्व पर्याय कहाव नारक सुर भव प्रत्ययः, नर तिरि क्षयोपशम भाव ॥ बा० - च्यार गति में अवधि हुवै ते स्वामी नां भेद थकी असंख्याता भेद । ते अवधिज्ञान नीं विषयभूत द्रव्य अन पर्याय नां भेद थकी अनंता पज्जवा । वलि २०६ भगवती-जोड़ ६३. सम्बद्धमपि धनं स्वधनं उपयुज्यमानत्वादिति । ( वृ० प० ३६३ ) वा०--- -जइ ते परपज्जाया न तस्स अह तस्स न परपज्जाया । ( आचार्य आह ) - जं तंमि असंबद्धा तो परपज्जायववएसो || चावसज्यायविसेसणादमा तस्स जगुवज्जति । सधणमिवासंबद्ध हवंति तो पज्जवा तस्स ।। (बृ० प० ३६३) ६४. अनन्ताः श्रुतज्ञानपर्यायाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, ते च स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च । ( वृ० प० ३६३ ) ज्ञानस्य स्वतोऽक्षरतादयो ६५ तंत्र स्वपर्याया ये भेदाः । ( वृ० प० ३६३ ) ६६. ते चानन्ताः क्षयोपशम चित्र्यविषयानन्त्वाभ्याम् । ( वृ० प० २६२) ६७. श्रुतानुसारिणां बोधानामनन्तत्वात् अविभागपलिच्छे( वृ० प० ३६३) ६८. परपर्यायास्त्वनन्ताः सर्वभावानां प्रतीता एव । दानन्त्याच्च । ( वृ० प० ३६३) ६२. अवधानुसार ज्ञानं श्रुतज्ञानं तवाक्षरात्मकः, अक्षराणि चाकारादीनि । ( वृ० प० ३६३ ) ७०. तेषां कमरं यथायोगमुदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् । ( वृ० प० ३६३) ७१. सानुनासिकनिरनुनासिकभेदात् अल्पप्रयत्नमहाप्रयत्नभेदादिभिश्च । (बु० प० ३६३) ७२. संयुक्तसंयोगातसंयोगभेदाद्यादिसंयोगभेदादभि धेयानन्त्याच्च । (बु० प० ३६३) ७३. भिद्यमानमनन्तभेदं भवति, ते च तस्य स्वपर्यायाः । ( वृ० प० ३६३) ७४. परपर्यायाश्चान्येऽनन्ता एवं एवं चानन्तपर्यायं तत् । ( वृ० प० २६२) ७५. तत्रावधिज्ञानस्य स्वपर्याया येऽवधिज्ञानभेदाः भवप्रत्ययक्षायोपशमिकभेदात् नारकतिर्यग्मनुष्यदेवरूप(बु०प०३६३) वा० - स्वामिभेदाद् असंख्यात भेदतद्विषयभूतक्षेत्रकालभेदाद् अनन्तभेदतविषयद्रव्यपययभेदादविभागप Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविभाग पलिच्छेद ते पिण अनंता । मनः पर्याय ज्ञान स्वामी नां भेद थकी संख्याता भेद । ते मनपर्याय ज्ञान नीं विषयभूत द्रव्य अन पर्याय नां भेद थकी अनंता स्व पर्याय । वली अविभाग पलिच्छेद ते पिण अनंता । हिवै केवलज्ञान नां स्वामी नां भेद थकी अनंता भेद अनंता द्रव्य अन पर्याय नी अपेक्षा करिकै अनंता स्व पर्याय अन अविभाग पलिच्छेद अपेक्षा करिकै पिण अनंता । इम मति अज्ञानादिक तीनुं नैं विषे पिण अनंत पर्यायपणुं विचारी कहियो । स्व पर पर्याय नीं अपेक्षा करिकै तो सर्व नैं सरीखापणां छे ते, माटे स्व पर्यायनी अपेक्षा करिकै अल्पवक है। ७६. *पंच ज्ञान नां पज्जवा नैं विषे, कुण-कुण थी अवलोय । अल्प बहुत्व तुल्य अधिक विशेष छै ? हिव जिन उत्तर जोय ॥ ७७. सर्व थकी थोड़ा पज्जव कह्या, मनपज्जव नां माण । मनो मात्र द्रव्य क्षेत्र समय विधे, तास विषय पहिचान ॥ ७८. मनपज्जव नां पज्जव थी वलि, अवधि ज्ञान नां एम । अनंतगुणा पजवा वर आखिया, तसु न्याय सुणो घर प्रेम ॥ सोरठा ७६. मनपज्जव थो पाय, द्रव्य अनैं पर्याय थी। अवधिज्ञान ने ताय, विषय अनंतगुण भाव थी । ८०. अवधिज्ञान नां जे पजवा धकी, वर श्रुत ज्ञान वणज । अनंतगुणा पजवा अधिका अछे, हिवै तसु न्याय समाज ॥ सोरठा ८१. रूपी अरूपी जेह, द्रव्य विषय भावे करी। विषय अनंत गुण एह कहिये इस भूत ज्ञान नें ॥ श्रुत ८२. *जे श्रुत ज्ञान तणां पजवा थकी, वर मतिज्ञान नां जाण । पजवा परम अनंतगुणा तसु, अदल न्याय हिव आण ॥ सोरठा करी । ८३. अभिलाप्य अनभिलाप्य, द्रव्यादि विषयपणें विषय अनंत गुण प्राप्य, आभिनिबोधिक अनंतगुण || यः पुत्रज पधारो हो नगरी इह च स्वर्यायापेक्षपामल्पबहुत्वमवसेयं स्वपरपर्यायापेक्षया तु सर्वेषां तुल्यपर्यायत्वादिति । ( वृ० प० ३६३) ७६. एसि णं भंते! आभिणियोहियनागपज्जव य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? वा ? विसेसाहिया वा ? तुल्ला गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा । तत्र सर्वस्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यायास्तस्य मनोमात्र( वृ० प० ३६३) । ७८. ओहिनाणपज्जवा अनंतगुणा । ७७. लिच्छेदाच्च ते चैवमनन्ता इति, मनः पर्यायज्ञानस्य, केवलज्ञानस्य च स्वपर्याया ये स्वाम्यादिभेदेन स्वगता विशेष्यास्ते चानन्ता अनन्तद्रव्यपययपरिच्छेदापेक्षया विभागपलिन्दापेक्षया मेति एवं मत्यज्ञानादित्रयेऽप्यनन्तपययत्यमूह्यमिति । J ०२. मनःपर्यायज्ञानापेक्षयाऽवधिज्ञानस्य द्रव्यपर्यायतोऽनन्त गुणविषयत्वात् । ( वृ० प० ३६३ ) ८०. सुयनाणपज्जवा अनंतगुणा । ८१ ततस्तस्य स्वरुपद्रव्यविषयत्वेनानन्तगुणविषयत्वात् । (बु० १० २६३) ८२. आभिणिबोहियनाणपज्जवा अनंतगुणा । ८३. ततस्तस्यानभिलाप्यद्रव्यादिविषयत्वेनानन्तगु( वृ० प० २६३, २६४ ) णविषयत्वात् । श०८, उ०२, ढा० १३६ ३७७ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. *तेहथी पजवा केवलज्ञान नां, अनंतगणा अधिकाय । सगला द्रव्य नैं पर्याय नै, विषयपणे करि ताय ।। ८५. मति श्रुत विभंग त्रिहं अज्ञान नां, पजवा माहै पेख । कुण-कुण थी यावत विसेसाहिया ? हिव जिन उत्तर देख ॥ ८४. केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा। (श० ८।२१२) सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात्तस्येति । (वृ० प० ३६४) ८५. एएसि णं भंते ! मइअण्णणपज्जवाणं सुयअण्णाण पज्जवाणं विभंगनाणपज्जवाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? ८६. गोयमा! सव्वत्थोवा विभंगनाणपज्जवा, सुयअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, मइअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा । (श० ८।२१३) ५६. सर्व थी थोडा पज्जव विभंग नां, अनंतगणा श्रत साव। मति अज्ञान नां अनंतगणा वली, त्रिहुं क्षयोपशम भाव ।। सोरठा ५७. अज्ञान नो अवधार, अल्पबहत्व नों न्याय जे। सूत्र तणे अनुसार, इहां भाव नां इमज ए॥ ८८. *ए प्रभु ! आभिनिबोधिक ज्ञान नै, यावत केवल पेख । मति श्रुत विभंग नां पजवा वली, कुण-कुण जाव विशेख ? ८७. एवमज्ञानसूत्रेऽप्यल्पबहुत्वकारणं सूत्रानुसारेणोहनीयं । (वृ० प० ३६४) ८८. एएसि णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं जाब केवलनाणपज्जवाणं, मइअण्णाणपज्जवाणं, सुयअण्णाणपज्जवाणं, विभंगनाणपज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा। ८६. गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा। ८९. श्री जिन भाखै थोड़ा सर्व थी, मनपज्जव नां ताहि। मनो मात्र द्रव्य विषयपणे करी, समयक्षेत्र रै मांहि ।। १०. मनपज्जव नां पज्जव थकी वली, अनंतगणा अधिकाय । विभंग अज्ञान तणा पजवा अछ, क्षयोपशम थी पाय ।। ६०. विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा । सोरठा ६१. मनपज्जव थी जाण, पजवा विभंग अनाण नां। अनंतगणा पहिछाण, अतिसय करि बहु विषय तसु॥ १२. ऊर्द्ध अधो इम हुँत, नवमी ग्रैवेयक थकी। सप्तम पृथ्वी अंत, इतरो देखै विभंगधर ॥ ६३. तिरछै लोके जोय, असंख्यात द्वीपोदधि । तेह विषे अवलोय, रूपी द्रव्यज मांहिला॥ १४. केइक द्रव्य जाणेह, केइक तसु पर्याय प्रति । जाणे विभंग करेह, अनंतगुणा इण कारण। ६१. तेभ्यो विभङ्गज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः मनःपर्यायज्ञानापेक्षया विभङ्गस्य बहुतमविषयत्वात् । (वृ प० ४६४) १२. विभङ्गज्ञानमूधि उपरिमग्रैवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यन्ते । (वृ० प० ३६४) ६३. क्षेत्रे तिर्यक् चासंख्यातद्वीपसमुद्ररूपे क्षेत्रे यानि रूपिद्रव्याणि । (वृ० प० ३६४) ६४. तानि कानिचिज्जानाति कांश्चित्तत्पर्यायांश्च, तानि च मनः पर्यायज्ञानविषयापेक्षयाऽनन्तगुणानीति । (वृ० प० ३६४) ६५. ओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा । ६५. *विभंग अनाण तणां पजवा थकी, अवधिज्ञान नां ताय। अनंतगणा पजवा अधिका अछ, तास न्याय कहिवाय ।। सोरठा ६६. सहु रूपी द्रव्य ताय, एक-एक जे द्रव्य नीं। असंख-असंख पर्याय, जाण अवधि ज्ञाने करी॥ *लय : पूजजी पधारो हो नगरी ६६, ६७. अवधेः सकलरूपिद्रव्यप्रतिद्रव्यासंख्यातपर्यायविषयत्वेन विभङ्गापेक्षया अनन्तगुणविषयत्वात् । (वृ० प० ३६४) ३७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. इम विभंग पेक्षाय, प्रवर अनंतगुण विषय थी । अवधि ज्ञान अधिकाय, पज्जव अनंतगुणा कह्या ॥ १८. *वधिज्ञान नां जे पज्जव थकी, अनंतगुणा अधिकाय । कहियै पज्जव श्रुत अज्ञान नां, ए जिन वच हिव न्याय ॥ सोरठा ६६. श्रुत अज्ञान करेह, जे श्रुत करेह, जे श्रुत ज्ञान तणी सामान्य करि जाणेह, मूर्त अमूर्त १०० ते द्रव्य नी पर्याय जाण सामान्य अवधिज्ञान पेक्षाय विषय अनंतगुण समस्त विधि अधिक परं १०१. जे श्रुत अज्ञान नां पजवा थकी, विशेषाधिक कहिवाय । वर भूत ज्ञान तणां पजवा अर्थ, हिव कहिये तसु न्याय || " *सय पुरजी पधारो हो नगरी । आया सोरठा १०२. विशेषाधिक भूत ज्ञान, भूत अज्ञान नी विषय में । के पर्याय पिछान, नहि छै तेहनें ॥ १०३. विषयीकरण थी जेह, जे माटे श्रुत श्रुत ज्ञान करि । प्रगटपणे जाणेह, तिण वा०—जिम ऋजुमति थकी विपुलमति निर्मलपणे जाणे, पिण ते ऋजुमति मेलो नथी। तिम श्रुत-अज्ञान थकी श्रुत ज्ञानवंत स्पष्ट — प्रगटपणं जाणं, पिण ते श्रुत-अज्ञान मेलो नथी, क्षयोपशम भाव छे ते माटे । सं ए विसेसाहिया || १०८. विशेषाधिक मति ज्ञान, मति अज्ञान नीं के पर्याय विद्वान, नह आया द्रव्य ॥ करी । । इम । १०४. जे श्रुत ज्ञान नां पजवा थकी, अनंतगुणा अधिकाय कहिये पजवा मति अज्ञान नां, तास न्याय हिव आय || सोरठा १०५. जे माटे श्रुत ज्ञान, जे अभिलाप्यज वस्तु नों। विषय तास पहिचान न कहा अनभिवाप्य नों ॥ १०६. जाणें मति अज्ञानेह, जे वस्तु अभिलाप्य प्रति । प्रवर अनंतगुण जेह, अनभिलाप्य नुं विषय पिण । १०७. जे मति अज्ञान नां पजवा बकी, विशेषाधिक कहियाय । उज्जल पजवा मति ज्ञान नां, ए केवल उतरतो ताय ।। सोरठा विषय में । छे तेहने ॥ ६८. सुयअण्णाणपज्जवा अनंतगुणा । १६.१०० ताज्ञानस्य श्रुतज्ञानवदोषादेशेन समस्तमूमूर्त्तद्रव्य सर्व पर्यायविषयत्वेनावधिज्ञानापेक्षयाऽनन्तगुणविषयत्वात् । ( वृ० प० ३६४ ) १०१. विसेसाहिया १०२,१०२. या तज्ञानपर्यचा विशेषाधिकाः, केवाचित् श्रुताज्ञानाविषयीकृतपर्यायाणां विषयीकरणाद यतो ज्ञानत्वेन स्पष्टावभासं तत् । (१० १० २६४) १०४. मइअण्णाणपज्जवा अनंतगुणा । १०५. यतः श्रुतज्ञानमभिलाप्यवस्तुविषयमेव । ( वृ० प० ३६४ ) १०६. मत्यज्ञानं तु तदनन्तगुणानभिलाप्यवस्तुविषयमपीति । (१० १० १६४) १०७. नागपज्जना विसेसाहिया १०८,१०६. केषाञ्चिदपि पीकरणात् मत्यज्ञानाविषयीकृतभावानां स्कूल रमिति । ( वृ० प० ३६४) श०८, उ०२, डा० १३६ ३७६ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. विषयीकरण थी जेह, ते मार्टमति अति प्रगट जाणेह, तिण तिण ११०. कुन मति ज्ञान तणां पजवा थकी, अनंतगुणा अधिकाय केवलज्ञान तणां पजवा कह्या ए पूर्ण ज्ञान शोभाय ॥ स ए सूं ए सोरठा १११. सर्व काल भाविन्य, जाणें द्रव्य पर्याय एह सरीख न अन्य, सहु ज्ञान समाया इह ११२. * अष्टम शतक उदेशो दूसरो, सौ नवतीसमी ढाल । भिक्षु भारीमात ऋषिराव थो, 'जय जय' हरष विशाल || अष्टमशते द्वितीयोदेशकार्यः || ८|२|| ढाल १४० ज्ञान करि । विसेसाहिया || सह विषे ॥ वहा १. पजवा काज ज्ञान नां ज्ञाने करि तरु आदि। अर्थज जाणे ते भणी, तृतीय वृक्ष संवादि ॥ जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों ॥ ( ध्रुपदं ) २. तरु प्रभु ! किता प्रकार नां ? जिन कहै त्रिविधा वृक्षो रे । संखजीविया जे विषे जीव संखेज्ज प्रत्यक्षो रे ॥ ३. असंखजीविया ने विषे जीव असंख्या जाणो । अनंतजीविया ने विषे, अनंत जीव पहिछाणो ॥ ४. संखेज्जजीविया कवण ते! जिन कहै अनेक प्रकारो । ताल तमाल रु तक्कलि, वली तेतली धारो ॥ *लय : पूजजी पधारो हो नगरी लय: सल कोई मत राखजो ३८० भगवती जोड़ ५. जेम पन्नवणा धूर पदे जान खजूर नालेरो। अन्य वलि तथा प्रकार नां, संखेज्जजीविया हेरो ॥ ६. असंखजीविया कवण ते ? जिन कहै द्विविध देखो। एक अस्थिका फल विषे कुलियो बीज सुएको ॥ 1 । ११०. केवलनाणपज्जवा अनंतगुणा । (०२१४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति (०२१५) १११. सर्वाद्धाभाविनां रणावभासनादिति । समस्तद्रव्यपर्यायाणामनन्यसाधा (१० १० ३६४) वृ० १. अनन्तरमाभिनिवोधिकादिकं ज्ञानं पर्यवतः प्ररूपितं तेन च वृक्षादयोऽर्था ज्ञायन्तेऽतस्तृतीयोद्देशके वृक्षविशेषानाह-(० ० ३६४) 1 २. कतिविहा णं भंते ! रुक्खा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तं जहासंजजीविया 'संखेज्जजीविय' त्ति संख्याता जीवा येषु सन्ति ते संख्यातजीविकाः । ( वृ० प० ३६४) ३. संजीविया जीव ( श० ८।२१६ ) ४. से किं तं संखेज्जजीविया ? संखेज्जजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा -- ताल तमाले तक्कलि, तेयलि । ५. जहा पण्णवनाए [ १०४३] जाव (सं० पा० ) नातिएरी जे यावण्णे तप्पगारा । सेत्तं संखेज्जजीविया । (श० ८२१७ ) ६. से किं तं असंखेज्जजीविया ? अजीविया दुबिहा पण्णत्ता तं जाएगा बहुगाव 'एगट्टिया' यत्ति एकमस्थिकं फलमध्ये बीजं येषां ते एकास्थिकाः । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. बहुबीजा जे फल विषे, बीज घणां कहिवायो। तेह अनेकज अस्थिका, द्वितीय भेद ए थायो। ८. एकअस्थिका कवण ते? जिन कहै अनेक प्रकारो। नींब अंब जंबू तरू, इत्यादिक सुविचारो॥ 8. इम जिम पन्नवण धर पदे, जाव फले बहुबीजो। एह असंखिज्जजीविया, उभय प्रकार अहीजो । १०. अनंतजीविका कवण ते ? जिन कहै अनेक प्रकारो। आलू मूलो आद्रकः, इत्यादिक सुविचारो ॥ ११. इम जिम सप्तम शतक में, जाव मसंडी जेहो। अन्य वलि तथा प्रकार नां, अनंतजीविया एहो । १२. अथ हिव भगवंत काछवो, पुनः कूर्म-पंक्ति लेणी। गोह अनैं गोह-पंक्ति जे, सर्प अनै अहि-श्रेणी॥ १३. मनष्य नै पंक्ति मनुष्य नी, महिष महिष नी पंति । दोय खंड करि तेहनां, अथवा त्रिखंडे हंति ॥ १४. तथा संख्याता खण्ड करै, छेद्यां विच अंतरालो। जीव प्रदेशे फशिया ? हंता फा न्हालो ।। १५. हे प्रभु ! कोई पुरुष जे, विचला प्रदेशां ने सोयो। हस्ते करी तथा पग करी, आंगलिये करि कोयो। १६. अथवा सिलाकाई करी, काष्ठ करी अवलोयो। अथवा लघु काष्ठे करी, तेह प्रदेश में कोयो॥ ७. 'बहुबीयगा य' त्ति बहूनि बीजानि फलमध्ये येषां ते __बहुबीजका:-अनेकास्थिकाः। (वृ०प० ३६४) ८. से किं तं एगट्टिया? एगट्ठिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-निबंब जंबु । ६. जहा पण्णवणापदे (११३५) जाव [सं० पा०] फला बहुबीयगा । सेत्तं बहुबीयगा। सेत्तं असंखेज्जजीविया । (श० ८।२१६, २२०) १०. से कि तं अणंतजीविया ? अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-आलुए मूलए सिंगबेरे११. एवं जहा-सत्तमसए (७।६६) जाव सिउंढ़ी मुसुढ़ी। जेयावण्णे तहप्पगारा । सेत्तं अणंतजीविया । (श० ८।२२१) १२. अह भंते ! कुम्मे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणा गोणावलिया, 'कूर्मावलिका' कच्छपपंक्तिः ‘गोहे' ति गोधा सरीसृपविशेषः। (वृ०प० ३६५) १३. मणुस्से, मणुस्सावलिया. महिसे, महिसावलिया एएसि णं दुहा वा तिहा वा। १४. संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते वि णं तेहिं जीव पएसेहिं फुडा ? हंता फुडा। (श० ८।२२२) १५. पुरिसे भंते ! अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलि याए वा १६. सलागाए वा कट्ठण वा किलिचेण वा 'कलिचेण व' त्ति क्षुद्रकाष्ठरूपेण । (वृ० प० ३६५) १७. आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा .. आमृशन् ईषत् स्पृशन्नित्यर्थ ........संमृशन् सामस्त्येन स्पृशन्नित्यर्थः........आलिखन् ईषत् सकृद्वाकर्षन् । (वृ०प० ३६५) १८,१६. विलिहमाणे वा अण्णयरेण वा तिक्खेणं सत्थ जाएणं आछिदमाणे वा विछिंदमाणे वा, विलिखन् नितरामनेकशो वा कर्षन् ।............ईषत् सकृद्वा छिन्दन् ...........नितरामसकृद्वा छिन्दन् (वृ० प० ३६५) २०. अगणिकाएण वा समोडहमाणे तेसि जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा विवाहं वा उप्पाएइ ? 'आबाहं व' त्ति ईषद्बाधां........व्याबाधां-प्रकृष्टपीडाम्। (वृ० प० ३६५) १७. अल्प थोड़ो सो फर्शतो, फर्श समस्त प्रकारो। लिगारैक लिखतो थको, तथा खांचे एक वारो॥ वा, १८. विशेष थी लिखतो थको, तथा खांचे बह वारो। अनेरे तीखे शस्त्रे करी, छेदै प्रदेश अपारो॥ १६. लिगारेक छेदतो थको, तथा छदै एक वारो। विशेष अत्यंत छेदतो, तथा वार-वार धारो॥ २०. अगनी करिने बालतो, जीव प्रदेशां रै ताह्यो। ईषत पीड़ा ऊपज, वलि बहु पीड़ा थायो । श०८, उ०२, ढा० १३६ ३२१ Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. छविच्छेदं वा करेइ ? णो तिणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । (श० ८।२२३) २१. अथवा जीव नीं चामड़ी, तेहनो छेदज होयो ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, करण समर्थ न कोयो।। २२. जीव तणां प्रदेश में, शस्त्र अग्न्यादिक जाणी। संक्रमै नहीं निश्चै करी, वारू ए जिन वाणी।। सोरठा २३. कच्छप प्रमुख जीव, तेह तणो अधिकार जे । पूर्वे कह्य अतीव, प्रदेश नी श्रेणी करी॥ २४. जंतु उत्पत्ति खेत, रत्नप्रभादिक ने हिवै। चरिमाचरिम कहेत, विभाग देखाड़ण अरथ ॥ २५. *पृथ्वी कही प्रभु ! केतली, जिन कहै पृथ्वी आठो। रत्नप्रभा जाव सातमी, इसिपब्भारा सुघाटो॥ २३,२४. कूर्मादिजीवाधिकारात्तदुत्पत्तिक्षेत्रस्य रत्नप्रभादेश चरमाचरमविभागदर्शनायाह- (वृ०प० ३६५) २६. रत्नप्रभा पृथ्वी प्रभु ! स्यू चरिमा के अचरिमा ? चरम पद दशमों कह्यो, सर्व विस्तारज वरिमा ॥ ___वा०—पृथ्वी स्यूं एक वचने चरिम छै—-पर्यंतत्ति छै—चरमशरीरवत छ ? के एक वचने अचरिम छै—मध्यवर्ती छै? कै ते पृथ्वी नां तथाविध एकत्व परिणाम रूप द्रव्य चरिम-पर्यंतवति सर्व छै कै अचरिम सर्व मध्यवर्ती छ ? ए बे प्रश्न बहुवचनांत जाणिवा । कै चरिमांत-प्रदेश छ ? के अचरिमांत-प्रदेश छ ? ए बे प्रश्न पृथ्वी प्रदेशाश्रयी बहुवचनांत जाणवा । हे गोतम ! ए रत्नप्रभा पृथ्वी चरिम-अंत्यवर्ती नथी। कोइक वस्तु नीं अपेक्षाई चरिम, अचरिम कहिवाइ। पिण अपेक्षा बिना काइ कहिवाइ नहीं। अने इहां तो अपेक्षा रहित केवल रत्नप्रभा पृथ्वी नुं प्रश्न पूछ्यूँ छ, ते माटै चरिमा नहीं । तिम इणज' युक्ते अचरिम.....मध्यवर्ती पिण नहीं । तिम रत्नप्रभा पृथ्वी नैं विष तथाविध एकत्व परिणाम रूप बहु वचने घणां द्रव्य छ, ते पिण सर्व चरिम---- अंत्यवर्ती नथी, अपेक्षा रहित माट। तिम अचरिम-मध्यवर्ती पिण नथी, अपेक्षा रहित माटै । तिम ते पृथ्वी नां प्रदेश असंख्याता छ, ते प्रदेश पिण चरिमअंत्यत्ति नथी, पृथ्वी अपेक्षा रहित माटै । तेहनां प्रदेश नुं प्रश्न पिण अपेक्षा रहित केवल पूछ्यूं छै, ते माटै । तिम इणिज युक्त ए पृथ्वी अचरिमांत प्रदेशे पिण नथी, कल्पना नां असंभव माट। तो हिवै ए रत्नप्रभा पृथ्वी कहवी छ ? ते कहै छै—निश्चज एक वचने अचरिम अनै बहु वचने चरिम-अंत्यत्ति छै । ते किम तेहनो स्थापना यंत्र ए आकारे छै.. २५. कइ णं भंते ! पुढ़वीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ पुढ़वीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा ईसीपब्भारा । (श० ८।२२४) २६. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढ़वी कि चरिमा ? अचरिमा ? चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं, वा०-"इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढ़वी कि चरिमा अचरिमा ? चरिमाई अचरिमाइं? चरिमंतपएसा अचरिमंतपएसा? तत्र किं चरिमा अचरिमा ? इत्येकवचनांतः प्रश्नः 'चरिमाइं अचरिमाइं' इति बहुवचनांतः प्रश्नः । ‘गोयमा ! नो चरिमा नो अचरिमा' चरमत्वं ह्येतदापेक्षिकं, अपेक्षणीयस्याभावाच्च कथं चरिमा भविष्यति ? अचरमत्वमप्यपेक्षयैव भवति ततः कथमन्यस्यापेक्षणीयस्याभावेऽचरमत्वं भवति ? यदि हि रत्नप्रभाया मध्येऽन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्याश्चरमत्वं युज्यते, न चास्ति सा, तस्मान्न चरमासौ, तथा यदि तस्या बाह्यतोऽन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्या अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमाऽसाविति.... कि तहि नियमात् नियमेनाचरमं च चरमाणि च । | च । अच । *लय : सल कोई मत राखजो Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश आधी चरिमांत-प्रदेश अचरिमांत-प्रदेश छ, एहनों परमार्थ कहिये छएहवी अखंड रूप चितवी ने पूछीइं तो पूर्वोक्त छ भांगा मांहिले एके भांगे कहिवावै नहीं। अनै जो असंख्यात प्रदेशावगाढ़ अनेकावयव विभाग रूप चितवीइं तो यथोक्त'णियमा अचरिमं चरिमाणि य चरिमंतपएसा अचरिमंतपएसा य' एह एक भांगो कहिवाई ते किम ? रत्नप्रभा पृथ्वी ए आकारै छ, एह पृथ्वी नां प्रत्येक तथाविधएकत्व परिणत छेहला जे खंडुक ते चरिम कहिई। अनैं जे वलि विचलं जे मोटू एक रत्नप्रभा नुं खंडुक तथाविध एकत्व परिणाम युक्त माट एकपणे चितव्यं ते अचरिम---मध्यवत्ति कहीइं-एतल अचरिम-चरिमाणि य । ए बे मिली नै एक भांगो जाणवो । अखंड एक पृथ्वी माहै ए बे नी समुदाय चिंतवणी माट। एतलै एह अवयवावयवीरूप चिंतवणी नों भांगो कह्यो । हिवै जो प्रदेशपणे चितवीइं तो 'चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य', एह भांगो कह्यो। ते किम ? जे बाह्य खंडगत प्रदेश ते चरिमांत-प्रदेश अनै जे मध्य एक खंडगत प्रदेशे ते अचरिमांत-प्रदेशे कहीइं। तथा यथोक्त रूप रत्नप्रभा प्रांते एकप्रदेशिक श्रेणि पटलगत प्रदेशे ते चरिमांत-प्रदेश कहीइं अनैं मध्य भाग गत प्रदेश ते अचरिमांत-प्रदेश कहीइं । इम सर्वत्र भावना जाणवी। एवं जाव अहे-सत्तमा पुढ़वी । सोहम्माइं जाव अणुत्तरविमाणाणं एवं चेव ईसिप्पभारावि लोगे वि एवं चेव एवं अलोगे वि इत्यादि । २७. यावत प्रभू ! वेमाणिया, फर्श चरिम करि जोयो। स्य चरिमा के अचरिमा? जिन कहै दोनू होयो । एतदुक्त भवति–अवश्यंतयेयं केवलभङ्गवाच्या न भवति, अवयवावयविरूपत्वादसंख्येयप्रदेशावगाढ़त्वाद्यथोक्तनिर्वचनविषयवेति । ___ एवमवस्थितायां यानि प्रान्तेषु व्यवस्थितानि तदध्यासितक्षेत्रखण्डानि तानि तथाविधविशिष्टकपरिणामयुक्तत्वाच्चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद् रत्नप्रभा. क्रान्तं क्षेत्रखण्डं तदपि तथाविधपरिणामयुक्तत्वादचरमं तदुभयसमुदायरूपा चेयमन्यथा तदभावप्रसङ्गात् । प्रदेशपरिकल्पनायां तु चरमांतप्रदेशाश्चाचरमांत प्रदेशाश्च, कथं ? ये बाह्यखण्डप्रदेशास्तेचरमांतप्रदेशाः ये च मध्यखण्डप्रदेशास्तेऽचरमांतप्रदेशा इति, ... एवं शर्करादिष्वपि। (वृ० प० ३६५,३६६) सोरठा २८. जे वेमानिक देव, न लहै भव संभव फरस । तत्र अनुत्पति हेव, मुक्तिगमन थी फरस चरम । २७. जाव (श० ८।२२५) वेमाणिया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा ? अचरिमा ? गोयमा चरिमा वि अचरिमा वि। (श० ८।२२६) २८. ये वैमानिकभवसम्भवं स्पर्श न लप्स्यन्ते पुनस्तत्रानुत्पादेन मुक्तिगमनात्ते वैमानिका: स्पर्शचरमेण चरमाः । (वृ० प० ३६६) २६. ये तु तं पूनर्लप्स्यन्ते ते त्वचरमाः । (वृ०प० ३६५,३६६) ३०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ८।२२७) २६. जे वैमानिक देव, फुन लहिस्य भव संभव फरस । __ अचरिम फर्श कहेव, तिण सू फर्श चरिमाचरिम । ३०. *सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम कहै गोतम स्वामी। अष्टम शतक नों आखियो, तृतीय उद्देशक धामी ।। अष्टमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥८॥३॥ सोरठा ३१. तृतीय उदेशक अंत, वेमानिक सुर आखिया। ते छै किरियावंत, तुर्य उदेशे हिव क्रिया। ३२. *गोतम राजगृह नै विषे, जाव बोल्या इम वायो। क्रिया कही प्रभ ! केतली ? जिन कहै पंच कहायो॥ ३१. अनंतरोद्देशके वैमानिका उक्तास्ते च क्रियावंत इति चतुर्थोद्देशके ता उच्यते। (वृ०प० ३६६) ३२. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णताओ,तं जहा *लय : सल कोई मत राखजो थ०८, उ०३, ढा० १४० ३८३ Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३३. काइया नै अधिकरणिया, एम पन्नवणा मझारो। क्रिया पद बावीसमों, भणवो सर्व विस्तारो॥ ३३. काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया पाणाइवायकिरिया-एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्वं । ३४. जाव मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ। (श० ८।२२८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श०८/२२६) ३४. जाव क्रिया मायावत्तिया, विसेसाहियाओ अंतो। सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति, अंक चोरासी शोभंतो॥ अष्टमशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।८।४॥ सोरठा ३५. पाउसिया फुन जाण, पारितावणिया चतुर्थी। प्राणातिपातकी माण, इत्यादि पन्नवणा मझे॥ ३६. अल्पबहुत्व है अंत, सर्व थकी थोड़ा अछ। मिथ्यातकी धुर हुँत, प्रथम तृतीय गुणठाण ए॥ ३७. अपच्चखाणिया जाण, तेह थकी विसेसाहिया। धुर च्यारू गुणठाण, सर्व अविरति आश्रयो । ३५. (पण्णवणा पद २२/१) ३६. सव्वत्थोवा मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ' मिथ्यादृशामेव तद्भावात्। (वृ०प० ३६७) ३७. 'अप्पच्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ' मिथ्यादृशामविरतिसम्यग्दृशां च तासां भावात् । (वृ० ५० ३६७) ३८. परिग्गहियाओ विसेसाहियाओ पूर्वोक्तानां देशविर तानां च तासां भावात् । (वृ० ५० ३६७) ३६. 'आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानां प्रमत्तसंयतानां च तासां भावात्। (वृ०प० ३६७) ४०. 'मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानामप्रमत्त संयतानां च तद्भावादिति । (वृ० प० ३६७) ३८. परिग्रहिया पहिछाण, तेह थकी विसेसाहिया। देशविरति गुणठाण, तेह विषे संभव थकी ।। ३६. आरंभिया पहिछाण, तेह थकी विसेसाहिया। पूर्व पंच गुणठाण, प्रमत्त-संजति में बली ।। ४०. मायावत्तिया माण, तेह थकी विसेसाहिया। पूर्वोक्त गुणठाण, फुन अप्रमत्त दसवां लगै॥ वा०--सर्व-अविरत तथा देश-अविरत सहित रै मूर्छा ते परिग्रह की क्रिया कहिय । अनै अविरत बिना मूर्छा छठे गुणठाणे, ते अशुभ-योग रूप आरंभकी क्रिया कहिय, पिण परिग्रहकी क्रिया न कहिये । आरंभकी क्रिया में जीव हणवा रो नियम नथी। छठे गुणठाणे जीव हण, झूठ बोल, चोरी करै, मिथुन रा परिणाम–अतिचारादिक लगावै, वस्त्र पात्रादिक विष ममत्व भाव कर, ते सर्व अशुभजोग छ । तेहन आरंभकी क्रिया कहीजे । अन सातमा थी दसमां तांई मायावत्तिया कहिये । मायावत्तिया में माया रो नियम नहीं। क्रोधादिक माहिला एक कषाय नो उदय सूक्ष्म हुवै, तेहनै पिण मायावत्तिया क्रिया कहिये । ४१. *एक सौ नै चालीसमी, ढाल रसाल विशालो। भिक्ख भारीमाल ऋषिराय थी, जय-जश' मंगल मालो। *लय : सल कोई मत राखजो ३८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल १४१ १. तुर्य उद्देश कही परिग्रहादि क्रिया उद्देश | कहेस ॥ २. राजगृह यावत वर्द, गोसालक शिष्य स्वाम | स्थविर भगवंत प्रतै इसी, वाण वदै छै ताम ॥ चूहा हिव पंचम क्रिया, विषय, विचार इहां ३. गोसालक शिष्य स्थविर नैं, श्रावक नीं अपेक्षाय । प्रश्न पूछपा है जिके, गोतम पूछे ताय ॥ * हो म्हारा देव जिनेन्द्र दयाल, प्रभु नीं वाण सुधा रस बारू ॥ (पद) ४. समणोपासक करि सामायक, बेठो रं स्थानो । साधु कोइक पुरुष वस्त्रादिक वस्तु ते भंड अपहरे जानो ॥ वा०-- घर के विषे रही तथा साधु ने उपाश्रय रही ते वस्तु अपहरै । ५. हे प्रभु! सामायक पारघा पर्छ, भंड गवेष जोवंत। पोता नां भंड भणी जे गये के पर-भंड गवेत ? सोरठा ६. इहां जे पूछणहार, तेहनों ए अभिप्राय थे | भंड जे वस्तु उदार, कहियै छै पोता तणो ॥ ७. पिण सामायक जाण, पडिवजतां जे परहऱ्या किया तास पचवाण, ते पोता नो किम हुवै ॥ ८. ते मार्ट पूछत, गवेषणा गवेषणा निज भंड तनी । कै पर भंड नी हुंत ? ताम स्वाम उत्तर दियै ॥ ९. *जिन कई सामायक पार्यो पछे, निज भंड ते गवेषंत पारको भंड गवेषे नहीं ते, वलि गोयम पूछंत ॥ १०. ते प्रभु ! अणुव्रत गुणधारक, जे वेरमण ते सामाय । पचखाण ते नवकारसी प्रमुख, बस पर्व दिने पोषध मांय ॥ सोरठा . ११. इहां शीलव्रतादि ग्रहण किये पिण सामायक पोसादि, अछै प्रयोजन *लय हो म्हांरा राजा रा गुरुदेव बाबाजी जाणवो । एहनों ॥ परियहादिक्रियाविषय (२० प० २६७) २. रायगिहे जाव एवं वयासी- आजीविया णं भंते ! मेरे भगवने एवं नयासी वृ० 'आजीविका' गोशालक शिष्याः । (१० १० १६०) ३. प्रत्यवादिपुस्तद्गीतमः स्वयमेव पृच्छन्नाह ( वृ० प० ३६७) १. किवाधिकारात्पञ्चमोद्देश विचार दा ४. समणोवासगस्स णं भंते ! वस्सए अच्छमाणस्स केइ मंड 'भंडं' ति वस्त्रादिकं वस्तु । वा०-- गृहवत्त साधूपाश्रयवत्ति अपहरेत् । ५. से गं भंते! असा गयेस ? परायनं भंडं अणुगवेस ? सामाइयकडस्स समणोअवहरेज्जा | ( वृ० प० ३६० ) वा 'अवहरेज्ज' त्ति ( वृ० प० २६८) कि समं अणु ६. पृच्छतोऽयमभिप्रायः -- स्वसम्बन्धित्वात्तत्स्वकीयम् । ( वृ० प० २६८) ७. सामायिक प्रतिपत्तौ च परिग्रहस्य प्रत्याख्यातत्वादस्वकीवम् । ( वृ० प० ३६८ ) ८. अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं - ( वृ० प०३६८) ६. गोयमा ! सभंड अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेस | ( ० २३०) - वेरमण-पच्च १०. तस्स ! तेहसील क्वापवासेहि, रात्र शीलतानि अगुव्रतानि गुणा गुणवतानविरम णानि - रागादिविरतयः प्रत्याख्यानं - नमस्कारसहितादिपौषधीपवासः पदिनोपवसनम् । ( वृ० प०३६८) ११. १२. इह च शीलव्रतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्ययोगविरत्या विरमणशब्दोपात्तया प्रयोजनं । ( वृ० प० ३६८ ) श० ८, उ०५, ढा० १४१ ३८५ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. सावज्ज जोग पचखाण, सामायक प्रमख विषे । वलि धुर प्रश्न पिछाण, सामायक नों इज कियो। १३. *हे भगवंत ! सामायक मांहै, भंड अभंडज होय? १३. से भंडे अभंडे भवइ? अपरिग्रह नै निमित्तपणे करि ? जिन कहै हंता जोय ।। हंता भवइ। (श० ८।२३१) तस्या एव परिग्रहस्यापरिग्रहतानिमित्तत्वेन । (वृ० प०३६८) १४. तो किण अर्थे प्रभ ! इम कहिय, स्व भंड ते गवेषंत । १४. से केणं खाइ णं अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-सभंड पारका भंड प्रत न गवेष ? हिव जिन उत्तर तंत ॥ अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ ? १५. हे गोतम ! जे सामायक मांहे, एहवा हुवै परिणाम । १५. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-नो मे हिरण्णे, नो नहिं मझ रूपो नहिं मझ सुवरण, नहिं मझ कांसी ताम ॥ मे सुव्वण्णे नो मे कसे । १६. नहिं मुझ वस्त्र नहिं म्हारो धन, विस्तीर्ण गणिमादि। १६. नो मे दूसे, नो मे विपुलधणकणग, अथवा गवादिक धन नहिं म्हारो, कनक प्रसिद्ध संवादि॥ धन-गणिमादि गवादि वा कनक-प्रतीतं । (वृ० प० ३६८) १७. रत्न कर्केतनादिक नहिं म्हारा, मणी चंद्रकांतादि। १७. रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालमोती ने संख बेहुं ए प्रसिद्ध, सिल प्रवाल विद्रम बादि ।।। रत्नानि-कतनादीनि मणय:---चंद्रकांतादयः मौक्तिकानि शङ्खाश्च प्रतीताः शिलाप्रवालानि-विद्र माणि । १८. अथवा शिला ते स्फटिक शिला छै, विद्रुम मग प्रवाल । १८. रत्तरयणमादीए रक्त-रत्न ते पद्मरागादिक प्रमुख न म्हारा न्हाल ॥ अथवा शिला--मुक्ताशिलाद्याः प्रवालानि-विद्र माणि रक्तरत्नानि-पदमरागादीनि । १६. संत विद्यमान सार द्रव्य ते, ए पिण म्हारा माहिं।। १६. संतसारसावदेज्जे एहवी भावना भाय रह्यो छै, श्रावक सामायक मांहि ।। 'संत' त्ति विद्यमानं 'सार' त्ति प्रधानं सावएज्ज' त्ति स्वापतेयं द्रव्यम् । (वृ०प०३६८) २०. भंड अभंड सामायक मांहै, किम निज भंड गवेख। २०. अथ यदि तद्भाण्डमभाण्डं भवति तदा कथं स्वकीयं एहवी आशंका टालण काजै, आगल जिन वच पेख ॥ तद् गवेषयति ? इत्याशंक्याह- (वृ० प० ३६८) . २१. ममत्व भाव तिणे नहिं पचख्यो, सामायक में ताम । २१. ममत्तभावे पुण से अपरिण्णाए भवइ । हिरण्यादिक परिग्रह विषय छै, जे ममता परिणाम ॥ ममत्वभावः पुनः-हिरण्यादिविषये । सोरठा (वृ० प० ३६८) २२. परिग्रह आदि विषेह, करण करावण ने विषे। . २२. परिग्रहादिविषये मनोवाक्कायानां करणकारणे तेन मन वच काया जेह, तिण करिने पचख्यो तिणें ।। प्रत्याख्याते। . (वृ०१० ३६८) २३. कुन ममता परिणाम, जे हिरण्यादिक नै विषे ।। । २३. ममतापरिणामः पुन: 'अपरिज्ञातः' ? अप्रत्याख्यातो ते नहिं पचख्यो ताम, अनुमति न अणत्यागवै॥ भवति, अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् । (वृ० प० ३६८) २४. ममत्व भाव फुन ताय, अनमतिरूपपणां थको । २४. ममत्वभावस्य चानुमतिरूपत्वादिति । वृत्ति विषे ए न्याय, इमज टबा में आखियो। (वृ० प० ३५८) २५. कह्यो धर्मसी एम, ममता तेणे सवथा। उतारी नहिं तेम, श्रावक सामायक मझे। २६. 'आख्यो भिक्षु स्वाम, श्रावक षट अठ नव भंगे। सामायक में ताम, न तजी ममता सर्वथा । *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी ३८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. से केणठेणं ....... गोयमा ! समणोवासगस्स णं सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवइ। (श० ७.५) २७. भांगा गणपच्चास, थावक तणां कह्या अछ । ते माटै सुविमास, नव भांगे उत्कृष्ट थी॥ २८. बाह्यपणे ते त्याग, नव भंगे पिण जाणज्यो। अभ्यंतर अनुराग, ममत्वभाव त्याग्यो नथी। २६. सामायक रै मांहि, अधिकरण तसुं आतमा। शतक सातमै ताहि, प्रथम उदेशे भगवती ॥ ३०. अधिकरण कहिवाय, शस्त्र छै छ काय नों। तीखो यत्न कराय, ए पिण सावज जोग छै॥ ३१. पोसह जे नव भंग, मास-मास षट-षट करै। ब्याज तास धन संग, ममत्व भाव इत्यादिके ॥ ३२. तिण अर्थे कहिवाय, निज भंड तणी गवेषणा। पर-भंड कहिये नांय, बद्धिवंत न्याय विचारज्यो॥ ३३. *श्रावक प्रभु ! सामायक करिने, बैठो छै मनि-स्थान । कोइ एक नर ते श्रावक नी, स्त्री प्रति सेवै जान ॥ ३४. हे भगवंत ! स्य ते श्रावक नी स्त्री भार्या प्रति सेवै। के सेवै छै तास अभाऱ्या ? हिव जिन उत्तर देवै॥ ३५. श्री जिन भाखै ते श्रावक नीं भार्या प्रति सेवंत । तास अभाऱ्या प्रति नहिं सेवै, वलि गोयम पूछंत ॥ ३६. हे प्रभु ! तास शील-गण-व्रत में, वेरमण ते सामाय । पच्चक्खाण ते दशमा व्रत नों, वलि पोसह में ताय ॥ ३७. भार्या जेह अभार्या होवै ? जिन कहै हंता हुंत । तो किण अर्थ प्रभु ! इम कहिये, तसु भार्या सेवंत ॥ ३२. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-सभंडं अणु__गवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ । (श० ८।३३२) ३३. समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणो वस्सए अच्छमाणस्स केइ जायं चरेज्जा । ३४. से णं भंते ! कि जायं चरइ ? अजायं चरइ ? ___ 'जायां' भार्यां 'चरेत्' सेवेत । (वृ० प० ३६८) ३५. गोयमा ! जायं चरइ, नो अजायं चरइ । (श० ८।२३३) ३६. तस्स णं भंते ! तेहिं सीलब्वय-गुण-वेरमण- पच्च क्खाण-पोसहोववासेहिं । ३७. सा जाया अजाया भवइ? हंता भवइ। (श० ८।२३४) से केणं खाइ णं अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-जायं चरइ ? नो अजायं चरइ ? .. ३८. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-नो मे माता, नो मे पिता, नो मे भाया, ३६. नो मे भगिणी, नो मे भज्जा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो मे सुण्हा। ४०. पेज्जबंधणे पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जायं चरइ, नो अजायं चरइ । (श० ८।२३५) ४१. अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् प्रेमानुबंधस्य चानुमतिरूपत्वादिति । (वृ० प० ३६८) ४२. अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा....... (दशाश्रुतस्कन्ध ६।१८) ३८. जिन कहै तेहने सामायक में, छै एहवा परिणाम । नहिं मुझ माता नहिं मुझ तातज, नहिं मुझ बंधव नाम । ३६. ए भगनी पिण म्हारा नहिं छै, नहिं म्हारी ए नारी। नहिं मुझ बेटा नहिं मुझ बेटी, पुत्र बहू नहिं म्हारी ॥ ४०. पिण प्रेमरागरूप बंधण ते, छेद्यो नहिं तिणवार । तिण अर्थे तिण री स्त्री सेवै, तास अभार्या म धार ॥ सोरठा ४१. अनमति अपचखाण, अनुमतिरूपज प्रेम बंध । वृत्ति विषे ए वाण, ते माटे तेहनीज स्त्री। ४२. 'दशाश्र तखंध देख, पडिमा जे श्रावक तणी। एकादशमी पेख, करै ज्ञात नीं गोचरी। *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी श० ८, उ०५, ढा० १४१ ३८७ Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. तिहां पिण पाठ छेदाणो नहि ४४. पेज बंधण रं मांय, निमल विचारो न्याय, ४५. आनंद अणसण मांय, गृहस्थावास वसाय, तो 1 विमास ज्ञात पेज्ज बंधण तिको। तास, ज्ञात गोचरी गोचरी ते भणी ॥ कही ज्ञात नीं गोचरी । जिन आज्ञा नहि दे आयो है ग्रहस्थ पड़िमा ते किहां ४६. गृहस्थ नैं दे दान, दंड चोमासी जान, ४७. गृहि व्यावच मुनिराय कालिक मांय, ४८. तिण कारण इम जाण, ममत्वभाव पचखाण, सर्व वहा १. श्रमणोपासक हे प्रभु सुध श्रद्धा दिल में धरी, ४९. *देश पच्यासी नों ढाल कही ए, एक सौ ने इकताल भिक्खू भारीमाल ऋषिराम प्रसावे, 'जय जय' हरष विशाल | देतां ने अनुमोदियां। नशीत उदेशे पनरमे ॥ ढाल १४२ *लय हो म्हारा राजा रा गुरुदेव ३ भगवती जोड़ तसु ॥ छ । रही ॥ कृत कार्य अनुमोदवें । अणाचार अठावीसमों ॥ श्रावक सामायक मभै । थकी कीधा नयी' ॥ ( ज०स० ) २. स्थूल प्राणातिपात नां, तेह पचखतो हे प्रभु! ३. वाचनांतरे वृति में एह पाठ मैं स्थानके, ४. पच्चाइक्खमाणे इसे, पाठ तणे जे पच्चलावेमाणे इसो, दी ५. पच्चवखाए नो अर्थ ए स्वयमेव पञ्चलाएमाणे तिको, सुगुरु ६. इम पोते पचखाण करि वर पचखाणज धारतो, प्रभु ! पूर्व काले पेस पवर विशेख ॥ सम्यक्त्व धुर न किया पचखाण । किसुं करते जाण ? अपच्चखाए पञ्चस्साए ई ताम । आम ॥ स्थान । पाठ सुजान ॥ किया पचवाण । करायो जाण ॥ अथवा सुगुरू पास स्यूं करें विमास ? ४५. तए णं से......जइ णं भंते! गिहिणो हिमज्भावसंतस्स ओहिणाचे समुप्यन एवं खलु मम पि गिहिणो 1 ४६. जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा (४) देति, देतं वा सातिज्जति । निसी ४७. गिहिणो वेयावडियं । १५७६) ( दसवे० ३।६ ) १. समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव प्राक्कालमेव सम्यक्त्व प्रतिपत्तिसमनन्तरमेवेत्यर्थः । ( वृ० प० ३७० ) २. थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ ? ३. वाचनांतरे तु 'अपच्चक्खाए' इत्यस्य स्थाने पच्चक्खाए' त्ति दृश्यते । ( वृ० प० २००) ४. 'पच्चाइक्खमाणे' इत्यस्य च स्थाने 'पच्चक्खावेमाणे ' ति दुश्यते । ( वृ० प० ३७० ) ५. तत्र च प्रत्याख्याता स्वयमेव प्रत्याख्यापयंश्च गुरुणा । ( वृ० प० ३७० ) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिन कहै काल अतोत जे. पडिकमै निवर्त्त, तास ८. वर्त्तमान में संवरै, हिंसा पाप करे नहीं. ६. अनागत पच वलि, हिंसा हूं करसूं नहीं, कोधो निंदा करि प्राणातिपात । विछतात ॥ वर्तमान जे काल । संबर अर्थ निहाल ॥ काल अनागत त्याग प्रतिज्ञा मांहि । ताहि ॥ *जय जय जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों रे ॥ (ध्रुपदं ) १०. गया काल नां प्राणातिपात ने रे, पटिकमतो स्यूं प्रयोग स्यं त्रिविध त्रिविधे करि पडिकमै रे, तीन करण तीन जोग ? ११. करण करावण ने अनुमोद, कला करण ए तीन । मन वच काया जि जोगे करी, अंक तेतीस नो लीन' ॥ , , १२. त्रिविध दुविध करने जे पडिकमै, तोन करण बे जोग । अंक वत्तीय तणुं ए आलियो प्रगटपणं प्रयोग ॥ १३. त्रिविध एकविध करिनैं पडिकमै तीन करण इक जोग । अंक को छेए इकतीस नों ओलख दे उपयोग ॥ १४. दुविध-त्रिविध करिनं जे परिकर्म करण दोष जोग तीन । अंक तेवीस नै काल अतीत नै निंदै जेह दुचीन ॥ १५. दुविध दुविध करिनें जे पडिकमै, दोय करण जोग दोय । अंक बावीसे काल अतीत नों, अब कृत निर्दे जोय || १६. दुविध एकविध करिने परिकर्म, दोय करण जोग एक । एकवीस ने ए अंके करी, निर्द आण विवेक || १७. इकविध त्रिविध करोनें पडिकमै एक करण त्रिण जोग । तेरम अंके काल जतीत नी, निर्द हिस प्रयोग ॥ १८. इकविध दुविध करोनें पदिकर्म एक करण वे जोन ए द्वादश नैं अंक करी इहां, निंदै टाली सोग ॥ १६. इकविध - एक विधे करि पटिकमै एक करण शक जोग । अंक इग्यार करी हिंसा प्रतं निर्द एह प्रयोग || २०. तेतीस बत्तीस ने इकतीस नों, तेवीस नें बावीस । इकवीस तेर बार इग्वार ना विकल्प नव पूछीस । *लय : साधजी नगरी में आया सदा भला रे १. टीकाकार ने मन, वचन और काय को करण कहा है तथा कृत, कारित और अनुमत को योग कहा है । जयाचार्य ने जोड़ में इसका व्यत्यय करते हुए मन, वचन और काय को योग तथा कृत, कारित और अनुमत को करण कहा है। यह सापेक्ष चिन्तन है । गोयमा ! तीयं पडिक्कमति अतीतकालकृतं प्राणातिपात द्वारेण निवर्त्तत इत्यर्थः । ८. पडुप्पन्नं संवरेति प्रत्युत्पन्नं - वर्तमानकालीनं प्राणातिपातं 'संवृणोति' न करोतीत्यर्थः । ( वृ० प० ३७०) ६. अणामयं पच्चक्खाति । अनागतं भविष्यत्कालविषयं करिष्यामीत्यादि प्रतिजानीते । ७. 'प्रतिक्रामति' तो निदा( वृ० प० ३००) ( श० ८ २३६ ) 'प्रत्याख्याति' न ( वृ० प० २७० ) १०. ती परिमाणे कि तिविहं तिविप मति ? ११. 'त्रिविधं' त्रिप्रकारं करणकारणानुमतिभेदात् प्राणातिपात योगमिति गम्यते, त्रिविधेन मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति । ( वृ० प० २७०) १२. तिविहं दुविणं पडिक्कमति ? १२. पिमिति ? १४. दुविहं तिवि पस्किमति ? १५. दुहिं विपक्किमति ? १६. दुविहं एगविहे पडिक्कमति ? १७. एगतिविि १८. एहिं विपदिकमति ? १९. एगवि एमवि पक्किमति ? श०८, उ०५, ढा० १४२ ३८६ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. गोयमा! तिविहं वा तिविहेणं पडिक्कमति, तिविहं वा दुविहेणं पडिक्कमति, एवं चेव जाव एगविहं वा एगविहेणं पडिक्कमति । २२. तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नानुजाणइ मणसा वयसा कायसा । २१. जिन कहै त्रिविध त्रिविध करी पडिकमै, त्रिविध दुविध पडिकम्मत । इम यावत इकविध इकविध करी, प्रतिक्रमै गणवंत ॥ २२. विविध विविध करि पडिकमतो छतो, न करै नहीं कराय। __ करता प्रति पिण अनुमोदन नहीं, मन वच काया ताय॥ सोरठा २३. अतीत वध कृतवंत, तेहनै निंदववै करी । न करै ते सम हुँत, तिण सुं न करेइ कह्य ॥ २४. "न कर प्राणातिपात मने करी, हा मझ हणियो एण । तिण दिन म्हैं इणनै हणियो नहीं, इसा ध्यान थी तेण ।। २५. न करावै मन करि हिंसा प्रतै, हा ! तिण हणियो मोय । अन्य पास हैं न हणावियो, इम चिंतन थी सोय ॥ २३. 'न करोति' न स्वयं विदधाति अतीतकाले प्राणातिपातं । (वृ० ५० ३७०) २४. मनसा हा हतोऽहं येन मया तदाऽसौ न हत इत्येवमनुध्यानात् । (वृ० प० ३७०,३७१) २५. 'न' नैव कारयति मनसैव यथा हा न युक्तं कृतं यदसौ परेण न घातित इति चिंतनात् । (वृ० प० ३७१) २६,२७. 'कुर्वन्त' विदधानमुपलक्षणत्वात् कारयंत वा समनुजानंतं वा परमात्मानं प्राणातिपातं 'नानुजानाति' नानुमोदयति, मनसैव वधानुस्मरणेन तदनुमोदनात् । (वृ० प० ३७१) २६-३१. एवं न करोति न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति वचसा, तथाविधवचनप्रवर्तनात् (वृ० ५० ३७१) २६. करता प्रति जे अनमोदै नहीं, उपलक्षण थी आम । करावता प्रति अनुमोदै नहीं, अनुमोदता प्रति ताम ।। २७. वध पर-कृत अथवा आतम कियो, अनुमोदै नहिं जेह । मन कर वध चिंतववै करि तसं, अनमोदन थी तेह ।। २८. काल अतीत तणी हिंसा प्रतै, न करै मन करि एम । न करावै अनुमोदै न मन करी, त्रिहं निवत्तै तेम ।। २६. इम न करै हिंसा वचने करी, हा मुझ हणियो एण । तिण दिन मैं इणने हणियो नहीं, इम बोल्यां थी तेण ॥ ३०. करावै वच करि हिंसा प्रतै, हा तिण हणियो मोय । ____ अन्य पास तसु म्हैं न हणावियो, इम बोल्यां थी सोय ।। ३१. वध प्रति अनुमोदै नहिं वच थकी, अतीत हिंसा प्रतेह । अनुमोदै ते सरावै वच करी, रूड़ो हणियो एह ।। ३२. काय करी न करै नहिं कारवै, अनमोदै नहिं काय । अंग विशेष तथाविध करण थी, अतीत काल कृत ताय ।। ३३. काल अतीत विषे जे वध प्रतै, मन प्रमख संताय । न करै न करावै नहिं अनुमोदै, निंदवै करि निवर्ताय । ३२. एवं न करोति न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन तथाविधाङ्गविकारकरणादिति । (वृ० ५० ३७१) ३३. अथवैवमेषाऽतीतकाले मनःप्रभृतीनां कृतं कारित मनुज्ञातं वा वधं क्रमेण न करोति, न कारयति, न चानुजानाति तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवत्तंत इत्यर्थः (वृ० प० ३७१) ३४. तन्निन्दनस्याभावे हि तदनुमोदनानिवृत्तेः (वृ० प० ३७१) ३५-३७. कृतादिरसौ क्रियमाणादिरिव स्यादिति । (वृ०प० ३७१) ३४. तेह अनिंदवै करिने बध तणो, अनमोदन अनिवृत्ति । काल अतीत नों वध निंदवै करी, निवृत्ति हसुप्रवृत्ति ॥ ३५. गये काल हिंसा कीधी तिका, अनिंदवै ते सोय । वर्तमान काले हिंसा करै, तेह सरीखी होय ।। *लय : साधूजी नगरी आया सदा भला रे ३६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. काल अतीत करा जे हिंसा, अनिदवे करि जाण । वर्तमान करावं ते हिंसा, तेह सरीखी ३७. गये काल अनुमोदी जे हिंसा, अनिंदवं वर्तमान अनुमोदं ते जिसी, न्याय वा० - इहां यथासंख्य ते अनुक्रम न्याय नथी । न करें मन करिकै, न करावे वचन करिकै, नहीं अनुमोदै काया करिकै इण प्रकार करिकै न कह्य ं । सर्व न्याय वली आगल कहिस्यै ते विकल्प नां अयोग्यपणां 1 वक्ता नैं वंछा आधीनपणां थकी थकी । माण || करी जेह । विचारी लेह ॥ ३५. अंक तेतीस तणो इहविधे, आस्यो भांगो एक । अंक बतीस तणां कहियै हिवै, भांगा तीन विशेख ॥ ३६. त्रिविध दुविध करि पडिकमतो थको, न करें करावै नांहि । करतां प्रति जे अनुमोदन नहीं, मन कर बच कर ताहि ॥ ४०. अथवा न करें ने नहीं कारवे, करतां प्रति बलि जाण । अनुमोद नहि मन काया करी, द्वितीय भंग पहिचान || ४१. अथवा न करे में नहीं कारने करतां प्रति अवलोय | अनुमोद नहीं बच काया करो, तृतीय भंग ए होय ॥ ४२. अंक बतीस वणां ए आखिया, भांगा तीनू एम। इस अंक तणां भंग त्रिण हुवै, सांभलज्यो धर प्रेम ॥ ४३. विविध एकविध पदिकमते छते न करें नहीं कराय । करतां प्रति पति अनमोद नहीं, मन कर धुर भंग वाय ।। ४४. अथवा न करें नैं नहि कारवे, करतां प्रति वलि तेह | अनुमोद नहि वच जोगे करी, द्वितीय भंग से एह । ४५. अथवा न करें नैं नहि कारवै, करतां प्रति वलि तेम । अनुमोदं नहि कावाई करो, तृतीय भंग खै तेम ॥ ४६. भांगा तीन कला इकतीस नां, हिवे तेवीस नौ अंक | तास भंग हिव तीन कहूं अछ, सांभलज्यो त संक ।। ४७. दुविध - त्रिविध करि पडिकमते छते, न करै नांहि कराय । मन वच काया ए त्रिहुं जोग थी, प्रवर भंग धुर पाय ॥ ४८. अथवा न करें न करता प्रसे मन वच कायाई भंग दूसरे ४६. अथवा न करावे करतां प्रतै, अनुमोद नौह ताय । काल अतोत पेशाय ॥ नहिं ताम । अनुमोदं मन वच कायाई भंग तीसरे, निदवे करने आम || ५०. अंक तेवीस तणां ए आखिया, तंत भंग ए तीन । नव भंग अंक बावीस तणां हिवै, सुणज्यो धर आकोन' ॥ ५१. दुविध दुविध करि पडिकमते छते, न करें नहीं कराय । मणसा वयसा वे जोगे करी, ए घर धुर भांगो १. कोन, विश्वास थाय ।। वा० न चेह यथासंख्यन्यायो न करोति मनसा न कारयति वचसा नानुजानाति कायेनेत्येोऽनुसरणीयो, वात्सर्वन्यायानां वक्ष्यमाणविकल्पा( वृ० प० २७१) योगाच्चेति । ३६. तिविहं विषं पक्किममाणे न करे, न कारखेड, करें नाणुजाण मणसा वयसा । ४०. अहवा न करेइ न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा, ४१. अह्वा न करेइन कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा ४३. तिविहं एगविणं पडिक्कममाणे न करेइ न कारवेइ करें नाणुजाण मणसा । ४४. अहवा न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ वयसा ४५. अहवा न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ कायसा ४७. दुविहं तिविष पान करे, न कारवेद, मणसा, वयसा, कायसा । ४८. अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा, वयसा, कायसा ४६. अहह्वा न कारवेइ, करेतं नाणुजाणइ मणसा, वयसा, कायसा ५१. दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ न कारवेश मणसा वयसा श० ८, उ०५, ढा० १४२ ३६१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. अहवा न करेइ न कारवेइ मणसा कायसा, अहवा न करेइ न कारवेइ वयसा कायसा ५३. अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा, अहवा न करेइ करेंत नाणुजाणइ मणसा कायसा ५४. अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजागइ मणसा वयसा ५५. अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा ५२. अथवा न करे ने नहीं कारवै, मणसा कायसा जोय । अथवा न करै करावै नहीं, वयसा कायसा सोय ॥ ५३. अथवा न करै अनमोदै नहीं, मणसा वयसा जेह । अथवा न करै अनमोदै नहीं, मणसा कायसा तेह ।। ५४. अथवा न करै अनुमोदै नहीं, वयसा कायसा जाण । अथवा न करावै अनुमोदै नहीं, मणसा वयसा आण ।। ५५. अथवा न करावे अनुमोदै नहीं, मणसा कायसा देख । अथवा न करावै अनमोदै नहीं, वयसा कायसा पेख ।। ५६. अंक बावीस नां नव भांगा कह्या, हिव इकवीस नों अंक । नव भांगे हिंसा जे अतीत नीं, निदै छाडै बंक ॥ ५७. दुविध एकविध पडिकमते छते, न करै नांहि कराय। मणसा मनजोगे करिने तिको, पढम भंग ए थाय । ५८. अथवा न करै नैं नहीं कारवै, वयसा दूजो भंग । अथवा न करै ने नहीं कारवै, कायसा तृतीय प्रसंग ।। ५६. अथवा न करै नैं करतां प्रतै अनमोदै नहिं मनेह । अथवा न कर न करतां प्रतै अनमोदै न वचेह ।। ६०. अथवा न करै नैं करतां प्रतै अनुमोदै न कायेण । अथवा न करावै करतां प्रतै अनमोदै न मणेण ।। ६१. अथवा न करावै करतां प्रतै अनमोदै न वचेह। अथवा न करावै मैं करतां प्रतै अनमोदै न कायेह ।। ६२. अंक कह्यो छ ए इकवीस नों, हिवै तेर नं अंक । त्रिण भांगे करी हिंसा अतीत नीं, निंदै छांडी वंक ॥ ६३. इकविध-त्रिविधे पडिकमते छते, न करै पोते जेह । मणसा वयसा ने वलि कायसा, प्रथम भंग छै एह ।। ६४. वलि न करावै मन वच काय थी, दूजो भांगो देख । वलि करतां प्रति अन मौदै नहीं, मन वच काया पेख ।। ६५. अंक कह्यो छै एतेरै तणो, हिवै बारै नो जाण । नव भंगे कर हिंसा अतीत नीं, निदै चतुर सुजाण ॥ ६६. इकविध दुविधे पड़िकमते छते, न करै मणसा वाय। अथवा न करै मणसा कायसा, न करै वयसा काय ।। ५७. दुविहं एक्कविहेणं पडिक्कममाण न करेइ न कारवेइ मणसा ५८. अहवा न करेइन कारवेइ वयसा अहवान करेइन कारवेइ कायसा ५६. अहवा न करेइ करेंतं नाण जाणइ मणसा अहवान करेइ करेंतं नाणजाणइ वयसा ६०. अहवा न करेइ करेंतं नाणजाणइ कायसा अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा ६१. अहवा न कारवेइ करेतं नाणुजाणइ वयसा, अहवा न कारवेइ करेंत नाणुजाण इ कायसा ६३. एगविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ मणसा वयसा कायसा ६४. अहवा न कारवेइ मणसा वयसा कायसा, अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा ६७. अथवा न करावै मन वच करी, चोथो भांगो न्हाल । अथवा न करावै मन काय थी, पंचम भंग संभाल । ६८. अथवा न करावै वच कायसा, छठो भांगो एह । अथवा करतां प्रति अनमोदै नहीं, मनसा वयसा तेह ॥ ६६. अथवा करतां प्रति अनमोदै नहीं, मणसा कायसा जाण। अथवा करतां प्रति अनमोदै नहीं, वयसा कायसा पिछाण ।। ७०. अंक बारै नो एहिज आखियो, हिवै इग्यार नों इंत। नव भंगे करि हिंसा अतीत नीं, निंदवै करि निवर्तत ॥ ३६२ भगवती-जोड़ ६६. एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कमाणे न करेइ मणसा वयसा, अहवा न करेइ मणसा कायसा अहवा न करेइ वयसा कायसा ६७. अहवान कारवेइ मणसा वयसा, अहवा न कारवेइ मणसा कायसा ६८. अहवा न कारवेइ वयसा कायसा अहवा करेंतं नाण जाणइ मणसा वयसा ६६. अहवा करेंत नाणुजाणइ मणसा कायसा अहवा करेंत नाणुजाणइ वयसा कायसा Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. एगविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ मणसा अहवा न करेइ वयसा, अहवा न करेइ कायसा ७२. अहवा न कारवेइ मणसा, अहवा न कारवेइ वयसा अहवा न कारवेइ कायसा ७३. अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा (श० ८/२३७) ७१. पडिकमतो इकविध-इकविध करी, न करै मणसा ताय । अथवा न करै वयसा वचन थी, अथवा न करै काय ।। ७२. अथवा न करावै जे मन करी, वलि न करावै वाय। अथवा न करावै काया करी, छठा भांगा मांय ।। ७३. अथवा अनुमोदै नहीं मन करी, अनमोदै नहि वाय । अथवा अनुमोदै नहीं कायसा, करतां प्रति ए ताय ।। ७४. पडिकमवो ते निवर्त्तवो अछ, गये काल कृत पाप । ते निंदन द्वारे करि पडिकमै, करण जोग चित स्थाप ।। ७५. गये काल हा अरि म्हैं नहि हण्यो, इम चिता न करंत । तिण कारण न करेइ पाठ छ, मन वच काये हुँत ।। ७६. गये काल हा अरि न हणावियो, इम चिता न करंत । तिण सं न करावेइ पाठ छ, मन वच काये हंत ।। ७७. गये काल किणहि अरि मारियो, ते नहिं अनमोदंत । अनमोदै नहि ते माटे कह्यो, मन वच काया हंत ॥ ७८. अंक तेतीस नों भांगो एक छै, बत्तीस नां त्रिण भंग। इकतीस तेवीस नैं तेरै तणां, त्रिण-त्रिण भंग प्रसंग ।। ७६. बावीस इकवीस बार इग्यार नां, नव-नव भंगा तास । काल अतीतज आश्री आखिया, भांगा गणपच्चास ॥ ८०. वर्तमान काले हिंसा प्रतै, संवरतो स्यूं हुत? त्रिविध-त्रिविध करिने जे संवरै, इत्यादि प्रश्न पूछंत ॥ ८१. इम जिम पडिकमवा साथे कह्या, भांगा गणपच्चास। भणवा इमहिज संवरते छते, चालीस नव भंग तास ।। ७८, ७६. एवं त्रिविधं त्रिवेधेनेत्यत्र विकल्पे एक एव विकल्प: तदन्येषु पुद्वितीयतृतीयचतुर्थेष त्रयः त्रयः पञ्चमषष्ठयो नव नव सप्तमे त्रयः अप्टमनवमयो नव नवेति, एवं सर्वेप्येकोनपञ्चाशत् (वृ० प० ३७१) ८०. पडुप्पन्नं संवरेमाणे कि तिविहं तिविहेणं संवरेइ ? ८१. एव जहा पडिक्कममाणेणं एगणपन्नं भंगा भणिया एवं ... संवरमाणेण वि एगूणपन्नं भंगा भाणियन्वा । (श० ८/२३८) ८२,८३. अणागयं पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ ? एवं एते चेव भंगा एगणपन्नं भाणियब्वा जाव अहवा करत नाणुजाणइ कायसा । (श० ८/२३६) ५२. अनागत काल आश्री हिंसा प्रतै, पचखाण करतो जेह। जीव घात नहि करसू एहवी, प्रतिज्ञा चित धारेह ।। ८३. स्य पचखै त्रिविधे त्रिविधे करी, एवं तिमहिज तास । भणवा इम भांगा पूर्व विधे, वारू गुणपच्चास ॥ ८४. काल अनागत आश्री एम छै, न करै मन करि जेह । ते प्रति हणसू काल आगामिके, इम चिंतन थी तेह ॥ ८५. न करावै मन करिनै इह विधे, काल आगमिया मांहि । एह तणी हूं घात करावसू, इम चितन थी ताहि ॥ ८६. अनमोदै नहि मन करि इह विधे, काल अनागत मांहि । ए वध करसी इम निसुणी करी, हर्ष करण थी ताहि ॥ ८७. जिम मन चिंतवियो तिम वचन थी, बोल्यां वयसा थाय । अंग विकार करण थी कायसा, लीज्यो न्याय मिलाय।। ५८. ए गणपन्न भंग काल अतीत नां, वर्तमान पिण न्हाल । काल अनागत नां पिण एतला, एक सौ नै सैंताल ॥ ८४. भविष्यत्कालापेक्षया त्वेवमसौ-न करोति मनसा तं हनिष्यामीत्यस्य (चिन्तनात्) (वृ० प० ३७१) ८५. न कारयति मनसैव तमहं घातयिष्यामीत्यस्य चिन्तनात् (वृ० प० ३७१) ८६. नानुजानाति मनसा भाविनं वधमनुश्रत्य हर्षकरणात् (वृ० प० ३७१) , ८७. एवं वाचा कायेन च तयोस्तथाविधयोः करणादिति (वृ० प० ३७१) ८८. सर्वेषां चैषां मीलने सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवति (वृ० प० ३७१) श० ८, उ० ५, ढा० १४२ ३६३ Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ समणोपासक पहिला इज प्रभु ! स्थूलज मृषावाद । नहि पचख्यो ते पाछै पचखतो, प्रश्न पूछ इत्याद ।। १०. भंग एकसौ सैंताली कह्या, जीव हिंसा नां जेह । तिमहिज मृषावाद तणां इता, काल त्रिहं करि तेह ।। ६१. स्थूल अदत्तादान तणां इता, स्थूल मिथुन इम न्हाल । स्थूल परिग्रह नां पिण एतला, एकसौ नैं सैंताल । ८६. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव थूलए मुसावाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ ? ६०. एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणियं, तहा मुसावायस्स वि भाणियव्वं । ६१. एवं अदिन्नादाणस्स वि एवं थूलगस्स वि मेहुणस्स, थूलगस्स वि परिग्गहस्स जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ६२. एते खलु एरिसगा समणोवासगा भवति । १२. भांगा पांचुइ अणुव्रत नां, काल त्रिहं नां जाण । सर्व सातसौ में पैंतीस छै, एहवा श्रावक माण ।। ६३. मन कर करण करावणो, अनुमोदन किम होय? उत्तर जिम वच काय नु, तिमहिज मन नो जोय ॥ ६४. जिम वच तनु जोगे करी, करण करावण होय । अनमोदन पिण ह्व अछ, तिम मन करि पिण जोय ॥ ६३,६४. अथ कथं मनसा करणादि ? उच्यते, यथा वाक्काययोरिति आह च-आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य? जह वइतणुजोगेहि करणाई तह भवे मणसा ॥ (वृ० प० ३७१) ६५,६६. तयहीणता वइतणुकरणाईणं च अहव मणकरणं । सावज्जजोगमणणं, पन्नत्तं वीयरागेहि ॥ (वृ० प० ३७१) ९७,६८. कारावण पुण मणसा चितेइ करेउ एस सावज्ज । चितेई य कए उण सुठ्ठ कयं अणुमई होइ॥ (वृ० प० ३७१) ६५. वच काया नां जोग बिहुँ, तेह तणोज कथीन । मन आधीनपणां थकी, मन नां करणज तीन ।। १६. अथवा सावज-जोग नी, चितवणा चित माय। वीतराग देव तसु, मन नां करण कहाय ॥ ६७. ए सावज करिवं मुझे, इम चितवन करेह । सावज एह करावि, द्वितीय करण चितेह ।। १८. फून सावज कोध छते, रूड़े कीg एण। इम मन करने चितवै, मन करि अनमत तेण ॥ ६६. ए सगलो अधिकार छै, वृत्ति विषे विस्तार । ते अनसारे आखियो, लीज्यो न्याय विचार ।। वा०-इहां त्रिविध-त्रिविधे करी ए विकल्प आश्रयी आक्षेप-परिहार । आक्षेप ते प्रश्न, परिहार ते उत्तर । वृद्ध को ते इम-न करै, न करावै, करतां प्रतै अनुमोदै नहीं मन, वचन, काया करी नै, इति एवंरूप त्रिक देशविरति गृहस्थ रै किम हुवै ? स्व विषय थी बाहर अनुमति तो पिण निषेध हुवै, इण कारण थकी त्रिविध-त्रिविधे करी ए विकल्प हुवै। केयक इम कहै---गृहस्थ नै त्रिविध-त्रिविध करी संवरवू नहीं, ते सम्यक नहीं । जे कारण थकी इणहिज सूत्र नै विषे ते संवरण का । तो पूर्वोक्त नियुक्ति नी गाथा में अनुमोदन नां प्रत्याख्यान नो निषेध किम कीधो? ऐहनो उत्तर–ते स्वविषय अनै सामान्य प्रत्याख्यान नै विषे निषेध छ । अन्यत्र-स्वविषय थी बाह्य विशेष पचखाण में एहनो निषेध नथी। जेम स्वयंभूरमण समुद्र नां मत्स्यादिक नै हणवानां त्रिविध-त्रिविधे त्याग कीधे स्यं दोष? वा०-इह च त्रिविधं त्रिवेधेनेति विकल्पमाश्रित्याक्षेपपरिहारौ वृद्धोक्तावेवम्न करेइच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स ? भन्नइ विसयस्स बहि पडिसेहो अणुमईए वि ॥ (वृ० प० ३७१) केई भणंति-गिहिणो तिविहं तिवेहेणं नत्थि संवरणं। तं न जओ निद्दिट्ट इहेव सुत्ते विसेसेउं ।। तो कह निज्जुत्तीए ऽणुमइनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामन्ने वऽन्नत्थ उ तिविहं तिविहेण को दोसो॥ ३९४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह च सविसयंमि' त्ति स्वविषये यथानुमति रस्ति 'सामन्ने व' त्ति सामान्ये वाऽविशेषे प्रत्याख्याने सति 'अण्णत्य उ' त्ति विशेषे स्वयं भूरमणजलधिमत्स्यादौ । पुत्ताइसंतइनिमित्तमेत्तमेगारसिं पवण्णस्स । जपंति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि।। यथा च त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्राक्षेपपरिहारौ कृतौ तथाऽन्यत्रापि कायौं । (वृ० प० ३७१) केइक कहै.-दीक्षाभिमुख कोई गृहस्थ पुत्रादिक सन्तति मात्र निमित्त थी एकादसवीं प्रतिमा प्रतिपन्न छ, ते गृहस्थ नै त्रिविध-त्रिविध त्याग थइ सके । ___जिम विविध-त्रिविध इहां प्रश्न उत्तर कह्यो, तिम और ठिकाणे पिण करवो। ए वृद्ध उक्त वार्ता वृत्ति में कही, तिम इहां लिखी छ। बुद्धिवंत न्याय { विचारी लेईज्यो तथा वली त्रिविध-त्रिविध पचखाण नों हीज न्याय कहै छै-- १००. त्रिविध-त्रिविध श्रावक तणे, त्याग बाह्य थी जोय । देशव्रती रे सर्व थी, भितरपणे न होय ॥ १०१. इग्यारमी पडिमा मझ, समण सरीखो जेह । पेज्जबंधण जे ज्ञाति नं, छूटो नहीं कहेह ।। वा०-'कोइ कहै-इग्यारमी पडिमा में 'समणभूए' कह्यो छै ते माटै ए त्रिविधे-त्रिविधे त्याग छ, इणरै अविरत किसी रही ? सावज्ज-जोग किसो रह्यो ? तेहनो उत्तर---प्रथम तो ए देशविरती छ ते माटै देश अविरती बाकी रही। बलि इग्यारमी पडिमा वहै जिता काल तांईज त्याग छै, आगमिया काल में पंच आश्रव सेवा रो आगार तथा आसा यूं की यूं छै । कोइ कहै-जाबजीव कुशील का त्याग करो। जद पडिमाधारी कहै-जावजीव त्याग करवा रा भाव नहीं। इण लेख आगमिया काल नी आसा मिटी नहीं । इग्यारमी पडिमा में कोइ पूछ-थार पांच आश्रव का त्याग जायजीव छ के नथी ? जद कहै....इग्यारै मास तांइ छ, तठा पछै पंच आश्रव द्वार नों आगार छै । इण लेख आगमिया काल नी अविरती यूं की यूं छ, मिटी नथी। हिवं वर्तमान काल नो लेखो कहै छै—दशाश्रुतखंध सूत्र कह्यो-न्यातीला नो पेज्जबंधण तूटो नथी, ते भणी न्यातीलां नी गोचरी करै। इग्यारमी पडिमा में 'नायपेज्जबंधणे अव्वोच्छिन्ने भवइ एवं से कप्पइ नायविहं एत्तए'। इहां कह्योन्यातीलां रो पेज्जबंधण विच्छेद हुवो नथी, इम तेहनै कल्पै न्यात विधे गोचरी करै आहार नै जाये। इहां न्यातीलां रा पेज्जबंधण के खाते तेहनी गोचरी कही ते माटै पेज्जबंधण पिण जिन आज्ञा बाहिर सावज्ज छै अनै गोचरी पिण आज्ञा बाहिर सावज्ज छ । ___जद कोइ कहै-ए सावज्ज छै तो कल्पै न्यातीलां रै घरे जायवू, इम क्यूं का ? तेहनों उत्तर सूत्रे करी कहै छै । उववाइ सूत्रे कह्यो ___ अम्मड परिव्राजक नै कल्पै मगध देश संबंधी अर्द्ध आढो मान विशेष पाणी नों ग्रहिवं । ते पिण वहितो नहीं अवहितो, इम थिमिए ते पाणी नीचे कादो नथी, पसण्णे ते अतिहि निर्मल परिपूर ते छाण्यो पिण अछाण्यो नथी, ते पिण ए सावज्जपापसहित इम कहीन लेवो, पिण निरवद्य कही न लेवो। ते पिण जीव कहीन लेवो पिण अजीव कही न लेवो । ते पिण दीधो लेवो कल्पै पिण अणदीधो न लेवो । ते पिण हाथ, पग, चरू, हांडली, चरम, चाटुड़ा -- प्रमुख उपगरण नै पखालवा-धोवा भणी अनै पीवा निमित्त पिण कल्प, स्नान निमित्त नहीं कल्प। इहा अम्मड नै कल्पै काचो पाणी लेवो इम का, तेहनो जे कल्प-आचार हतो ते बतायो पिण ते सावज्ज कल्प में केवली की आज्ञा नथी। तिम पडिमाधारी नै पिण कल्प---आचार जे हूंतो ते का, पिण ते सावज्ज कल्प जिन-आज्ञा बारै छ । तिण सूं न्यातीला नीं गोचरी सावज्ज छै । अम्मडस्स कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणए, से वि य थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए, से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं अबहुप्पसण्णे, से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, से वि य सावज्जे त्ति काउं णो चेव णं अणवज्जे, से वि य जीवा त्ति काउं णो चेव णं अजीवा, से वि य दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे, से वि य हत्थ-पाय-चरू-चमस-पक्खालणट्ठयाए पिबित्तए वा णो चेव णं सिणाइत्तए (ओवाइयं सू० १३७) श०८, उ०५, ढा० १४२ ३९५ Jain Education Intemational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहा में छै । वली कोडांगमे धन तेहनां परिग्रहा में ईज छ । नफा तोटा रो मालक तेहीज छै । हजारां रूपइया नो व्याज आवै तेहनीं अभितरपणां में अनुमोदना छे । जिम न्यातीला रो पेज्जबंधण तिम अभितरपण परिग्रह नीं मूर्च्छा जाणवी । किणही ₹ लाख रूपइया नो धन हूंतो ते मित्री ने भलाय इग्यारवीं पडिमा वहै तो ते धन किण रा परिग्रहा में ? मित्री रैं तो हजार रूपइया उपरांत राखवा रा त्याग छे अने ते लाख रुपइया नी सार-संभाल मित्री करें, पिण मन में जाणै ए धन म्हारो नथी, ते भणी लाख रुपइया पाडिमाधारी रा बलिदाने को इग्वामी पहिमा में सर्वधर्मी रचि जाव उद्दिष्ट भक्त नां त्याग । इहां पहिली पडिमा में तो सर्व धर्म नीं रुचि अनैं दशमी पडिमा में उद्दिष्ट-भक्त ते तिण र अर्थे कीधो ते भोगविवा रा त्याग अन जाव शब्द में व्रत सामायक, देशावगासी, पोसह आदि विचली पडिमा में त्याग हूंता ते सर्व इग्यारमी पडिमा में कह्या, ते मार्ट इग्यारमी पडिमा में सामायिक-पोसह पिन करें ते सामायक-पोसहा में सावज्ज जोग रा त्याग छ । ते सामायक-पोसहा में खाणो-पीणो ए सावज्ज, तेहनां त्याग करें ते माटै ए खाणो-पीणो सावज्ज छे। अने ते अविरत में छै । - वलि इग्यारमी पडिमा में तपसा री केवली आज्ञा देव अन पारणा री केवली आज्ञा न देवं । गोतम ने पारणं गोचरी री आज्ञा दीधी। तिम एहन गोचरी नीं आज्ञा न देव । ते माटै ए गोचरी सावज्ज छै । पडिमा विच तो संथारो बड़ो, ते संथारे में आणंदे गोतम नैं कह्यो – हूं गृहस्थ गृहस्थावास वसतां नैं एतलो अवधि ऊपनों, ते माटै इग्यारमी पडिमाधारी नैं पिण गृहस्थ कहिये । अने नशीत उदेश पन्द्रह में गृहस्थ नै असणादिक देवे देतां प्रतै अनुमोदे तो साधु नैं चोमासी प्रायश्चित कह्यो । त्रीकरण अनुमोद्यां प्रायश्चित, तो पहिले करण देणवाला नै धर्म किहां थकी ? अन जो देवाला नै धर्म हुवै तो धर्म नी अनुमोदनां कियां प्रायश्चित किम आवे ? दशवैकालिक अध्ययन तीन में गृहस्थ नी वेयावच्च करें, करावे, करता नैं अनुमोदै तो साधु नैं अठाईसमों अणाचार कह्यो । अनैं गृहस्थ नी साता पूछे तो सोलमों अणाचार कह्यो । तथा भगवती शतक सात उदेश एक में सामायक में श्रावक री आत्मा अधिकरण कही। अधिकरण छै ते छ काय रो शस्त्र छ । तिमहीज इग्यारमी पडिमा में आत्मा अधिकरण जाणवी । ते माटै अभितरपणां में पेज्जबंधण - ममत्वभाव छूटो नथी । अ द्वारिका नगरी प्रत्यक्ष देवलोकभुत कही । तथा चक्रवर्ती नां घोड़ा नैं ऋषि नीं पर क्षमावंत कह्यो, तिम इग्यारमी पडिमा में समणभुए कह्यो, ए ओपमावाची शब्द छ । उत्तराध्ययन अध्येन पांच में एकेक भिक्षु थकी गृहस्थ संजम करिकै प्रधान अन सर्व गृहस्थ थकी साधु संजम करी प्रधान । गृहस्थ में श्रावक पिण सगला आया, ते पडिमाधारी सरीखो किम हुवै । पि ओपम दीधां दोष नथी' । साधु (ज० स० ) १०२. 'अम्मड' नां शिष्य सातसय पाप अठार ताहि । सर्व थकी त्याग न किया, को उनवाई मांहि ॥ १०३. देशविरति गुणठाण ए तिण सूं त्यागज बाह्य ए, २९६ भगवती-जोड़ सर्व थकी विमल किम होय ? न्याय अवलोय ॥ (दशाभूतस्कन्ध ६।१८ ) तए णं से आणंदे...... मम वि गिहिणो गिहमज्भावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पण्णे । १७६) जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा (४) देति देतं वा सातिज्जति । ( निसीहझयणं १५/७६ ) गिहिणो वेयावडियं............. (दसवे० ३।६) (दगवे० २२६) समणोवासयस्स णं ..संपुच्छणा.. से केणट्ठेणं..........गोयमा ! सामाइय कडस्स अहिगरणी एवं खलु जंबूं........वारवती नामं नयरी होत्या.... पच्चक्खं देवलोगभूया । ............ समणोवस्सए अच्छमाणस्स आया (TO UIX) (नाया० ११५५२) ( जम्बू० ३।१०६ ) इसिमिव खंतिखमाए । संति एहि हि गारा संजमुत्तरा गाराहि सह साहबो संजमुरा ॥ (उत्तरा० ५।२० ) १०२, १०३. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसया..... (जोबा सू० ११५) तए णं ते परिव्वाया.....पुव्वि णं अम्हेहि अम्मडस्स Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४. उववाई वृत्ति में कह्यो, देशविरति फल जन्न । आराधक परलोक नां, नहिं ब्रह्मलोक गमन्न ।। १०५. परिव्राजक-क्रिया तणो, फल ब्रह्मलोकज ख्यात । अन्य पिण मिथ्याती कपिल-प्रमख ब्रह्म उपपात ।। १०६. इण वचने करि एहनें, मत नी टेक जणाय । तिण सुं ब्रह्म कल्पे गया, बाह्य त्याग इण न्याय ॥ १०७. आश्रव पंचज सर्व ही, त्याग्या मींडक ख्यात । ज्ञाता तेरह में कह्यो, न्याय बाह्य थी थात ॥ परिव्वायगस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चवखाए ........इंयाणि अम्हे समणस्स भगवओ........सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए......... (ओवाइयं सू० ११७) १०४,१०५. एते च यद्यपि देशविरतिमन्तस्तथापि परि ब्राजकक्रियया ब्रह्मलोकं गता इत्यवसेयम् अन्यथैतद्भणनं वृथैव स्याद्, देशविरतिफलं त्वेषां परलोकाराधकत्वमेवेति, न च ब्रह्मलोकगमनं परिव्राजकक्रियाफलमेषामेवोच्यते, अन्येषामपि मिथ्यादृशां कपिलप्रभृतीनां तस्योक्तत्वादिति। (औपपातिक वृ० ५० १८२) १०७. तए णं से दद्दुरे अथामेत इयाणि पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि । (नाया० १३।४२) १०८. एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्स वि। (पण्ण० २२।६६) १०८. पन्नवण पद बावीसमें, सर्व हिंसा पचखाण । मनुष्य विनाज हुवै नहीं, तिण सं मनि रै जाण ॥ १०६. षट पोसह इक मास में, त्रिविध विविध कृत कोय । हुवै बोहित्तर वर्ष में, अष्ट पोहरिया जोय ॥ ११०. गुमासता तसु सइकड़ां, लाभ खरच नों जाण । मालक तो एहीज छ, भितर अनुमति माण ।। १११. पोसह नां दिवसां तणो, ब्याज आवै घर माय । वलि लाखों रुपयां तिके, तसु परिग्रह में थाय ।। ११२. तिमहिज पडिमा ग्यारमी, तेह विषे पहिछाण । तिण सुं त्रिविधे बाह्य छ, भिंतरपणे म जाण' ॥ (ज० स०) ११३. *देश पच्यासी ढाल कही भली, एक सौ में बयांलीस । भिक्ष भारीमाल राय 'जय-जश' तणी, संपति विस्वाबीस ॥ ढाल १४३ १. पूर्वे भाख्या तेहवा, निग्रंथ तणांज न्हाल । श्रावक ह गुणसुंदरू, प्रवर शीलवत पाल । निश्चै करिने नहिं हुवै, आजीविक गोसाल । तास उपासक एहवा, ए जिन वचन निहाल । *लय : साधूजी नगरी में आया सवा मला रे १. अथानंतरोक्तशीलाः श्रमणोपासका एव भवन्ति । (वृ० प० ३७२) २. नो खलु एरिसगा आजीविओवासगा भवंति । (श० ८।२४०) थ० ८, उ० ५, ढा० १४३ ३९७ Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. आजीवियसमयस्स णं अयमढे ३. आजीविक गोसाल नां, सिद्धांत न ए अर्थ । परूपियो छै ते हिवं, कहियै सुणो तदर्थ ॥ ४. जसु आयु क्षय नहिं हुओ, अप्रासुक अक्षीण । ते प्रति भोगविवा तणो, तास शील है हीण ॥ ते ५. सर्व सत्व प्राणी-वरग, असंजती - हंता-हणि लकुटादिके, आहार करंत जीव । अतीव ॥ ६. खडगादिक करिनै वली, छेदी द्विधा भाव । भेदी सूलादिक करी, भिन्न करो अधिकाव ॥ ४. अक्खीणपडिभोइणो अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभृञ्जत इत्येवंशीला अक्षीणपरिभोगिनः । (वृ० प० ३७२) ५. सव्वे सत्ता, से हंता 'सर्वे सत्वाः' असंयताः सर्वे प्राणिनः यद्येवं ततः किम् ? इत्याह—से हंते' त्यादि 'से' त्ति ततः 'हंत' त्ति हत्वा लगुडादिना अभ्यवहार्य प्राणिजातं । (वृ० प० ३७२) ६. छेत्ता, भेत्ता 'छित्वा' असिपुत्रिकादिना द्विधा कृत्वा 'भित्त्वा' शूलादिना भिन्नं कृत्वा। (वृ० प० ३७२) ७. लुंपित्ता विलुपित्ता 'लुप्त्वा' पक्षादिलोपनेन विलुप्य' त्वचो विलोपनेन । (व० प० ३७२) ८. उद्दवइत्ता आहारमाहारेति । (श० ८।२४१) 'अपद्राव्य' विनाश्याहारमाहारयति । (वृ० प० ३७२) ७. पंखादिक नै खोसवै, लंपित्ता कहिवाय । त्वचा विलोपन छोलि करि, एह विलुपित्ताय ।। ८. उपद्रव तास विनाश करि, आहार प्रत आहारंत । आजीविक श्रावक इसा, भाखै इम भगवंत ॥ है. कह्यो धर्मसी अचित करि, आहार प्रत आहारंत । इतलै ते छेद्यां बिना, फलादि नहिं खावंत ॥ १०. हननादिक दोषे निपुण, वर्ग असंजत सत्त । तिण में मैं बारै प्रमुख, निज मत में उन्मत्त ॥ ११. आधारभत अथवा जिको, आजीवक मत जाण । श्रावक गोशाला तणां, बारै तिहां पिछाण ।। १२. श्रावक आणंदादि जे, वीर तण दश ख्यात । तिम एहनै ए बार है, अन्य बहु नाम धरात ॥ १३. ताल इस नामै प्रथम, द्वितियो तालप्रलंब । उविध संविध अवविधे, उदक नामदक दंभ ।। १४. नमुदक अनुपालक नवम, शंखपाल अभिधान । वलि अयंपुल कातरक, ए बार ही जान॥ १५. आजीविक नां मुख्य ए, उपासक कहिवाय । जाणे गोसालक भणी, अरिहंत देव इच्छाय ॥ १०. तत्थ खलु 'तत्थ' त्ति 'तत्र' एवं स्थितेऽसंयतसत्त्ववर्गे हननादि दोषपरायणे इत्यर्थः । (वृ० प० ३७२) ११. इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहा आजीविकसमये वाऽधिकरणभूते द्वादशेति विशेषा नुष्ठानत्वात् परिगणिताः। (वृ० ५० ३७२) १२. आनन्दादिश्रमणोपासकवदन्यथा बहवस्ते। (वृ० प० ३७२) १३. ताले, तालपलंबे, उविहे, संविहे, अवविहे, उदए, नामुदए। १४. णम्मुदए, अणुवालए, संखवालए, अयंपुले, कायरए इच्चेते दुवालस । १५. आजीविओवासगा अरहंतदेवतागा 'अरिहंतदेवयाग' त्ति गोशालकस्य तत्कल्पनयाऽहत्त्वात्। (वृ० प० ३७२) १६. अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफलपडिक्कंता (तं जहा उंबरेहि १७. वडेहि, बोरेहि, सतरेहि, पिलक्खूहि) १६. मात पिता नीं सुश्रुषा, करणहार अधिकार । छांड्या छ फल पंच जिण, ऊंबर धुर अवधार ।। १७. बड फल पीपर बोर ते, सतर अंजीर पिछाण । पिलक्ख पीपल जात है, किया तास पचखाण ।। ३९८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. अपर पिलंडु लसण वलि, कंद मूल वर्जेह । १८. पलंडुल्हसुणकंदमूल विवज्जगा अणिल्लंछिएहिं अणक्ककर्मनिलंछण नाक भिन्न, वृषभ-प्रमख न करेह ।। भिन्नेहिं गोणेहिं । १६. वृषभादिक त्रस प्राण नैं, तनु अति पीड़ वर्जत । १६. तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्ति कप्पेमाणा तेणे करि आजीविका करता ते विचरंत ।। विहरंति । २०. विशिष्ट योग्यता स्य विकल, ए पिण बंछ एम । २०. एए वि ताव एवं इच्छंति करिवू धर्माचरण वर, निज मत में दृढ़ नेम ॥ एतेऽपि तावद्विशिष्टयोग्यताविकला इत्यर्थः (वृ० ५० ३७२) २१. स्य कहिवो वलि आर्य ए, श्रमणोपासक होय । २१. किमंग ! पुण जे इमे समणोवासगा भवति, ____ अति विशिष्ट गुरु देव नो, स्वीकृत प्रवचन सोय ॥ विशिष्टतरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रितत्वात्तेषाम् । (वृ० प० ३७२) २२. नहिं कल्पै छै जेहनें, ए आगल कहिवाय । २२. जेसि नो कप्पंति इमाइं पन्नरस कम्मादाणाई । कर्म तणां हेतू पनर, कर्मादानज ताय ।। २३. ते पोते करिवा वलि, करायवा अन्य पाय । २३. सयं करेत्तए वा, कारवेत्तए वा करेंतं वा अन्नं करतां प्रति अनुमोदवा, नहिं कल्पै अधिकाय ।। समणुजाणेत्तए तं जहा.२४. *इंट-लीहालादि अग्नि आरंभ करि, आजीवका करि २४. इंगालकम्मे विणज व्यापार । एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्टकापाकादिक कर्म सोनार लोहार ठठारा भठारा, भडभजादिक कर्म अंगार । तदङ्गारकर्मोच्यते अङ्गारशब्दस्य तदन्योपलक्षणत्वात्। अंगालकर्म कहीजे तेहनें । (वृ० ५० ३७२) २५. आजीवका करै वणस्सइ बेची, बेचै साग पत्र कंद मूल । २५. वणकम्मे फूल तृणादि बेचै वनराई, फल बीजादिक धान तंदूल । वनकर्म-वनच्छेदनविक्रयरूपं, एवं बीजपेषणाद्यपि । एवणकर्म कहीजै दूजो ॥ (वृ० प० ३७२) २६. पल्यंक पाट बाजोट गाडा रथ, किवाड नै थंभादिक जाण । २६. साडीकम्मे एह बणावी बणावी बेचै, तथा मोल लेइ बेचै पिछाण। शकटानां वाहनघटनविक्रयादि। (वृ०प० ३७२) ते साडीकर्म कहीजै तीजो॥ २७. भाडो करै ऊंट बलदादिक नों, हाट हवेली भाई आपै । २७. भाडीकम्मे गाडादिक नैं भाड़े देव, रोकड़ नाणो ब्याजै थापै । भाट्या-भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिभाड़ीकर्म कहीजे चोथो ॥ र्देशांतनयरनं गोगृहादिसमर्पणं वा भाटीकर्म । (वृ० प० ३७२) २८. हल कुदालादिक करि महि फोड़े, करै आजीवका नालेर फोड़ी। २८. फोडीकम्मे धान पीस दल पत्थर फोड़े, वलि अखरोट सोपारी तोड़ी। स्फोटि:-भूमेः स्फोटनं हलकुद्दालादिभिः सैव कर्म ते फोडीकर्म पंचमो कहियै ॥ स्फोटीकम। (वृ० ५० ३७२) २६. शंख मोती जवारातादिक बेचै, कस्तूरी कवडा गजदंता । २६. दंतवाणिज्जे हाड चर्म सींग त्रस तणां वलि, तास व्यापार करै मतिभ्रंता । दंतानां-हस्तिविषाणानाम् उपलक्षणत्वादेषां चर्मदंतविणज छठो कर्मादान ए॥ चामरपूतिकेशादीनां वाणिज्यं-क्रयविक्रयो दंत वाणिज्यं । ३०. मैंण आल केसर नै कस्बो , बेचै लाख गली हरियाल । (वृ० प० ३७२) ३०. लक्खवाणिज्जे करै व्यापार साजी साबू नो, धाहरियादिक रंग नो न्हाल । ते लक्खविणज कहीजै सातमो॥ *लय : आ अनुकम्पा जिन आज्ञा में श०८,०५, ढा०१४३ ३६६ Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. बेचै केस युक्त द्विपद चौपद नैं, कर आजीविका ए बेची नैं , ३२. तेल घृत दही दूध नें मीठो करं व्यापार इत्यादिक रस ३३. सोमल-खार ने सींधीमोहरो, हरवंसी निरवंसी विणजे, ३४. परटी घाणी चरमी नों फेरवो यंत्र करी तिल इथु आदि ने नों ऊन रूइ रेशम थान बणाय । ते केसविणज कहीजै ताय । कर्मादान को ए बाठमो ॥ मधु मांस माखण नै दारू | नवमो ते रसविणज प्रकारू । ए कर्मादान कही नवमों ॥ नीलोथुथो बछनाग विचार । आफु हरताल प्रमुख व्यापार । ए विषविणज कहीजै दसमों ॥ अर फेरवो कोटवा मांय । पीले ते वृति विषे कहियाय । जंतपीलण कर्म इग्यारमों ए ॥ नाक बींधे कान फाड़े ताय । चाम छेदी करें आजीवकाय । 3 ३५. दोपद चोपद नै आंक देवै, बलदादिक ने तणी न्हखावै, ३६. दाम साठे वाले ग्राम आजीवका अर्थ दव कर्मनिबंधन बारमों कहिये ॥ नगर पुर, अटव्यादिक ने देव लगाय । देवे वाले बलि मुरड़ादिक ताय । ३७. आजीवका अर्थ दाम साटै, दवग्गिदावणया कर्म तेरमों ॥। सर द्रह तलाब कुओ नैं बावी । तसु जल सोखवै बाहिर काढ, गोधूमादिक में घालं जल पावी । सरद्रह तलाव सोसनिया पवदमो ॥ ३८. साधु बिना सघला पोखीजै, असइपोसणया तसु केहवै । रोजगार लेइ त्यां ऊपर रहवै, खाणो पीणो असंजती नै देवै ॥ पनरमों ए कर्मादान कहीजं ॥ चरावे, हय गय बलद कुर्कट ऊंट मोर । रहे, पोखी ने करें आजीविका पोर असइपोखणिया पनरमो को ए ॥ ३६. दानशाला ऊपर रहे पशु प्रमुख पशु पंखी पोषण ऊपर सोरठा ४०. वृत्ति विषे इम वाय, असइ पोसणिया तणो । दासी-पोषण ताय, ते भाड़ो प्रहिवा ग्रहिवा अरथ ॥ ४१. बलि कुर्क मंजार, आदि क्षत्र जे जीव में। पोखे ते पिण धार, एहवुं अर्थ कियो ति ॥ ४२. आदि मांहि अवलोय, हिंसक अन्य पिण आविया त्यांन पोरयां सोय, धर्म नहीं तसु लेख लेख पिण ॥ अंग प्रपन्न, अर्थ वृत्ति मांहै इसुं । पोखे दासी जन्न, भाई आजीविका ४३. सप्तम अरथ ॥ ४०० भगवती-जोड़ २१. वाजे केसबजीवानां गोमहिपस्त्रीप्रभूतिकानां विनयः । ( वृ० प० ३७३ ) ( वृ० १० ३७३) ३२. रसवाणिज्जे मद्यादिरसविक्रयः । ३३. विसवाणिज्जे ३४. जंतपीलणकम्मे यंत्रेण तिलेश्वादीनां यत्पीडनं तदेव कर्म्म यंत्रपीडनकर्म्म | ( वृ० १० १७३) ३५. निल्लं छणकम्मे वद्धितककरणमेव कर्म निलञ्छनकर्म्म । ३६. दवग्गिदावणया दवस्य दापनंदाने प्रयोजकत्वमुपलक्षणत्वादान दवाग्निदापनं । (बृ० प० २७३ ) ३७. सर- दह-तलागपरिसोसणया । ३८. असतीपोसणया । (१० १० २७३ ) ४०. दास्याः पोषणं तद्भाटीग्रहणाय । ( वृ० प० ३७३ ) ४१. अनेन च कुर्कुटमार्जारादिक्षुद्रजीवपोषणमप्याक्षिप्तं दृश्यमिति । ( वृ० प० ३७३) ४३. सतीजनपोषणता असतीजनस्य शसीजनस्य पोषणं उद्भादिकोपजीवनार्थं यत्तत् तथा ( उपासकदशा वृ० प० ४३ ) Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. एवमन्यदपिक्रूरकर्मकारिणः प्राणिनः पोषणमसतीजन___ पोषणमेवेति ! (उपासकदशा बृ० प० ४३) ४४. एवं अन्य पिण जंत, कूड़ कर्मकारक जिके। प्राणी प्रति पोषंत, असतीजन-पोषण का ॥ ४५. ए वृत्ति तणे पिण न्याय, कड़ कर्म माहै सहु । हिंसक जीव गिणाय, तसु पोख्यां नहिं धर्म पुन्य ।। ४६. पनरै कर्मादान, आजीविका मैं अरथ ए। कियां करायां जान, अनुमोद्यां पिण धर्म नहीं । ४७. विण आजीविक सोय, चवदै सेव्यां पाप बंध । तिमज पनरमों जोय, हिंसक पोख्यां पाप हवै'। (ज० स०) ४८. *एहवा निग्रंथ तणां छै श्रावक, शुक्ल ते उज्जल मच्छर-रहीत । कृतज्ञ भला व्रत नां पालक, हित अनुबंधी वली शुद्ध रीत ।। ४६. शुक्ल अभिजात ते शुक्ल ही प्रधान, शुद्ध ववहार नां धणी थइ नै । इक देवलोक में सुरपणे ऊपजै, काल नै अवसर काल करी नैं । ४८. इच्चेते समणोवासगा सुक्का _ 'सुक्क' त्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च । (वृ० प० ३७३) ४६. सुक्काभिजातीया भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । (श० ८।२४२) 'शुक्लाभिजात्याः' शुक्लप्रधानाः। (वृ० प० ३७३) सोरठा ५०. देवलोक अवतार, श्रावक नै पूर्वे कह्यो । देव प्रतै इज सार, भेद थकी कहिये हिवै। ५१. *देवलोक प्रभ ! कितै प्रकार? जिन कहै चउविहा छै देवलोगा। भवणपति जाव वेमाणिया ए, सेवं भंते ! सेवं भंते ! सुजोगा। ५०. अनंतरं देवतयोपपत्तारो भवंतीत्युक्तमथ देवानेव भेदत आह (वृ० प० ३७३) ५१. कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ? गोयमा! चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया। (श० ८।२४३) ५२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ८।२४४) ५२. अष्टम शतक - पंचमदेशो, एक सौं नै तयांलीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति हरष विशाल ॥ अष्टमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥॥ *लय : आ अनुकम्पा जिन आज्ञा में श०८, उ०५ ढा० १४३ ४०१ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रहा १. पंचमुदेशक में विषे धावक नो अधिकार । " आख्यो छ तेहिज हिवै, छठे उदेशै सार ॥ ढाल : १४४ * रुड़े विविध प्रकारे रे, प्रश्न गोयम पूछंता ॥ ( ध्रुपदं ) २. हे प्रभुजी ! श्रमणोपासक ते तथारूप भ्रमण प्रति धारो । माहण मूल गुणे करि कहिये, बिहुं नामे अणगारो ॥ ३. एहवा मुनि ने श्रमणोपासक, फासु—- जीव-रहीतो । 2 एषणीक निर्दोष आहार चिउं, प्रतिलाभ धर प्रीतो ॥ ४. स्यूं फल होवै ते श्रावक नैं ? तब भाखे जिनरायो । एकंत तेहने दुवै निर्जरा, पाप कर्म नहि थायो ॥ ५. हे प्रभु! श्रमणोपासक ते तथारूप भ्रमण प्रति धारो । माहण मूल गुणे करि कहिये विहं नामें अणगारो ॥ ६. आहार अफासु सचित्त कह्यो इहां, वलि ते अनैषणीको । असण पाण खादिम ने स्वादिम, व्यारू' आहार सधीको ॥ ७. प्रतिलाभ्यां फल स्यूं श्रावक नें ? तब भाखे जिनरायो । तास निर्जरा हुवे बहुतर पाप अल्पतर यायो । ८. पाठ मांहे ए बात परूपी समचं श्री जिनरायो । जाण अजाण भेद नहि खोल्यो, भिक्षु न्याय बतायो । सोरठा २. कोवृति में ताय, कारण पड़ियां ए अच्छे अन्य आचार्य वाय, अकारणे पिण ते कहे ॥ आख्यो इहां । तिकोज से ।। १०. विरुद्ध बिहु ए अर्थ, छैहड़े वलि केवलिगम्य तदर्थ, जे फुन तत्व ११. भिक्षू गुणभंडार, अर्थ कियो छे एहनो । सांभज्यो सुखकार, ढाल कहूं हिव तास कृत ' ॥ * गरम न कीजे रे सतगुरु सीमाड़ली १. भगवती सूत्र श० ८ सूत्र २४६ के पाठ की व्याख्या कई आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से की है। इससे वह पाठ विवादास्पद बन गया। कुछ आचार्यों ने साधु को अप्राक और अनेषणीय आहार देने में अल्प पाप, बहुत निर्जरा का सिद्धान्त स्वीकृत किया है, पर उनमें भी कुछ आचार्य इसे आपयादिक मानते हैं और कुछ भगवती-जोड़ ४०२ १. पञ्चमे श्रमणोपासकाधिकार उक्तः षष्ठेऽप्यसावेवोच्यते । ( वृ० प० ३७३) २. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा । ३. फामु-एमभिन्नेषं असण-पान-खाइम- साइमे पछिलाभमाणस्स । ४. कि कज्जइ ? गोमा ! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ । (TO NIR४५) ५. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा । ६. अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण- खाइम-साइमेणं । पडिला माणस्स कि कज्जइ ? ७. गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । (२० २४६) ९. इह च विवेचका मन्यन्ते – असंस्तरणादिकारणत एवाप्रासुकादिदाने बहुतरां निर्जरा भवति नाकारणे.... अन्ये त्वाहुः - अकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशाद्बहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं कर्मेति । (१० १०३७३) १०. यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यमिति । ( वृ० प० ३७४ ) Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा 'भिष्ट भागल विकल हुआ तके, करें असुध बेहरण री थाप चोर ज्यू अशुद्ध अर्थ हेरता, थोथा करें अज्ञानी विलाप ॥ १ ॥ किहांइक पाट छै सूतर में, तिण रो न्याय मेलै नहि मूढ । साघां ने अध बेहरायां धर्म कहै, एहवी करें अज्ञानी रूढ ॥ २ ॥ साधां ने असुध वेहरावियां, तिणमें धर्म नहि अंसमात । धर्म कहै असुध वहिरावियां, तिण रा घट में घोर मिथ्यात ॥ ३॥ च्यार आहार सचित ने असूझता, श्रावक वेहराव जाण जाण । तिण में पाप अलप बहोत निर्जरा, एहवी करें अज्ञानी ताण ॥४॥ ए पाठ भगोती सूतर मकै, शतक आठमा मांय । तिण रो अर्थ करणवालो पिण डरपियो, तिण केवलियां नें दियो भलाय ॥ ५ ॥ देवै aura अर्थ करें इहां तिणरो केवली जाणे कदा कोइ बुधवंत बुध थकी, उनमान थी जाण अफासु थापियां, वीर वचन सूतर सू पिण मिले नहीं, ते प्रतष दीसे साध ने सचित नें असुध दियां, कहै बोहत निरजरा तिण ऊंधी श्रद्धा रो निरणो कहूं, ते सुणजो चुपचाप ॥ ८ ॥ अलप पाप । (ध्रुपदं ) *असुध वहरण री बाप करे ते अज्ञानी ( असुध वहरण री थाप करो मति कोई ) अफासु आहार ने सचित को जिण, न्याय । बताय || ६ || ते साधां नै श्रावक जाणे वेहराव, विगटाय | अन्याय ||७|| अणेस णिज्जेणं ते असूझतो पावै । तिण र अल्प पाप ने बोहत निरजरा बतावे ॥२॥ ** लय: आ अनुकम्पा जिन आज्ञा में सामान्य । जयाचार्य ने उक्त दोनों मंतव्यों को विरुद्ध बताते हुए टीकाकार के उस अभिमत का उल्लेख किया है, जिसमें वृत्तिकार ने इस प्रसंग को केवलिगम्य कहकर छोड़ दिया है । आचार्य भिक्षु ने अपनी कृति 'श्रद्धा निर्णय की चौपई' में इस संबंध में सांगोपांग विवेचन किया है। उन्होंने कारण या अकारण किसी भी स्थिति में माधु को अप्राक और अनेषणीय आहार देने में अल्प पाप, बहुत निर्जरा के सिद्धान्त का खण्डन कर अपनी प्रज्ञा से भगवती के उक्त पाठ की व्याख्या की है जपाचार्य ने श्रद्धा-निर्णय की चौपई की २१ वी डाल, जिसकी दोहों सहित ७० गाथाएं हैं, अविकल रूप से इस प्रसंग में उद्धृत की है। उस ढाल की अलग पहचान के लिए गाथाओं के अंक उनसे पहले न देकर बाद में दिए गए हैं। ५. भगवती ८।२४६ श० ८, उ० ६, दा० १४४ ४०३ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोरो अन सचित नै असूझतो छै, ते साधां ने श्रावक जाण वेहरावै । तिण में जिणमारग रा अजाण अज्ञानी, अलप पाप ने बोहत निरजरा बतावै ॥१०॥ काचो पाणी सचित नै असूझतो छ, ते साधां नै श्रावक जाण वेहरावै । तिण में जिण मारग रा अजाण अज्ञानी, __ अलप पाप नै बोहत निरजरा बतावै ॥११॥ काचा फल दाडमादिक असूझता छ, ते साधां नै श्रावक जाण वेहरावै । तिण दीधां में मढ मिथ्याती जीवड़ा, - अल्प तो पाप नै बहोत निरजरा बतावै ॥१२॥ सचित पान डोडादिक असूझता छै, ते साधां नैं श्रावक जाण वेहरावै । तिण दीधां में मूढ मिथ्याती जीवा, ___अल्प तो पाप नैं बोहत निरजरा बतावै ॥१३॥ च्यारू आहार सचित नै असूझता छ, ते साधां ने श्रावक जाण वेहरावै । तिण दीधां में मूढ मिथ्याती जीव, तिण नै अल्प पाप नैं बोहत निरजरा बतावै॥१४॥ साधां नै आहार सचित नै असुध वेहरावै, तिण श्रावक रो बारमो व्रत भागो । साधु जाणे नैं सचित असूझतो लेवै तो, ओ पिण व्रत भांगे नैं होय गयो नागो ॥१५॥ साधां रै आहार सचित नै असुध लेवण रा, जीव ज्यां लग छै पचखाण । रोगादिक पीड़यां साधु रा प्राण जाये तो ही, - सचित नै असूझतो नहिं लेवै जाण ॥१६॥ असल श्रावक ते साधां नैं असुध न देव, सुध साधां रा जाता देखै तो ही प्राणो । असुध देई ने साधां रो साधपणों न लट, पोता रा लीधा चोखा पालै पचखाणो ॥१७॥ कदा राग रो घाल्यो असुध वेहरावै, तिण में संवर निर्जरा रो अंस न जाणै । व्रत भागो नैं पाप लागो छै तिण रो, प्राछित ले व्रत राखै ठिकाण ॥१८॥ च्यारू आहार सचित नै असूझता छै, ते साधां ने श्रावक जाणे केम वेहरावै। ४०४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध साधु तो जाणे ने असुध न बेहरं, अफासु ने अणेस णिज्जे तिन पाठ से अर्थ सूधो कहणी नावे जथातथ तिण से अर्थ करे तो, अल्प पाप ने बोहत निर्जरा किम धावे ।। १६ ।। पाठ सूतर में, तिण रा झूठा झूठा अर्थ अनेक बतावे, वले विविध प्रकारे घणां लोकां में सेखी उड़ जावे ॥२०॥ ओ तो पाठ भगोती सूतर में पिण, कदे कारण पड़ियां रो नाम बतावै । चलाइ घाले ने, भारीकर्मा भोलां लोकां नै भरमावै ॥२१॥ आंधार अंतरंग नहीं है पिछाणो । आहार सचित नैं असूझता दीघां में, बोहत निरजरा किहां थी होसी रे अयाणो ॥ २२ ॥ ने देवे धावक, साधु फासु एषणीक ठाम ठाम ते सचित असुध जाणे किम देवे धावक, बहु सूतरां रं मांहि । बले बहुत निरजरा जाने किम त्यांहि ॥ २३॥ इण पाठ ने मूंहढे आण वारूंवार, त्यारा सचित ने असुध खावा रा परिणाम | जो अमुख बेहरण रा परिणाम नहीं थे, तो यूँ ही क्योंने बकसी बेकाम ||२४|| आहार सचित ने असुध बेहरावे, तिम रे तो अल्प आउलो बंधाय भगोती पांच में शतक छठे उदेशे, वलै तीजे ठाणे ठाणाअंग मांय ॥ २५ ॥ साधु ने आहार सचित नें असुध वेहराव, अल्प पाप ने बोहत निरजरा बा | जब तो ठाणाअंग नें भगोती सूतर रो, पाठ नै अर्थ दोनू ई ऊथप जाय ॥ २६ ॥ साधु ने जाण ने आधाकर्मी बेहराव, ते तो चारित्र धर्म रो लूटणहार । ते पिण नरक निगोद में भींषां खावे, उत्कष्टो से तो अनंतो कान ||२७|| आधाकर्मी हरायां छे एकंत पाप, सचित ने अध बेहराया जो पिण पाप । च्या आहार सचित नें असुध वेहरायां, तिण में मूड करे बोहत निरजरा से बाप ॥ २८ ॥ २५. कहण्णं भंते ! अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोमाहावं समणं वा पडिलानेता-(म० श० ५।१२४) तिहि यहि जीवा अण्णा उपत्ताए कम्मं परति तंजहा -- ....... तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पान-खाइम साइमेणं पडिला भेत्ता भवति......... ( ठाणं ३ | १७ ) श० ८, उ० ६, डा० १४४ ४०५ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. निरयावलिया (३।३।२७) ..."तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। (भ० श० १८।२१४) नायाधम्मकहाओ (५१७३) ३१,३२. वसित्ता बंभचेरंसि आणं 'तं णो' ति मण्णमाणा। (आयारो प्रथम श्रुत० ६७८) ३३. इहमेगेसि आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवति,....... अदुवा अदिन्नमाइयंति । (आयारो ८।३,४) साधां ने असुध आहार तो अभष कह्यो जिण, ते अभष आहार देव दातारो। तिण रै अल्प दोष बोहत निरजरा कहै ते, भूल गया मूढ बिना विचारो॥२६॥ साधां नै असुध आहार तो अभष कह्यो जिण, निरावलिका भगोती गिनाता माय । तो अभष आहार साधां ने श्रावक वेहरायां, अल्प पाप नै बोहत निरजरा किम थाय ?३०॥ कुसीलिया ते हीण-आचारी, विना विचारियां बोलसी वेणो। रोगीयादिक गिलाण ने अर्थे, आधामियादिक जाणे ने लेणो ॥३१।। ए तो आचारंग रै छठे अधेने, ते जोयलो चोथा उद्देशा मांय । तो सचित नै असूझतो साधां ने दीधा, अल्प पाप नै बोहत निरजरा किम थाय ?३२॥ नहीं कल्पै ते वस्तु साधु वेहरै तो, तिण ने तो चोर कह्यो जिनराय । कह्यो छै आचारंग पहिले सतखंधे, __ आठमाधेन पहिला उद्देशा मांय ॥३३॥ ठाम-ठाम सूतर में नषेध्यो, साधां नैं असुध लेणो नहिं काई । श्रावक नै पिण असुध न देणो, असुध दियां में धर्म छै नांहो ॥३४॥ च्यार आहार सचित में असूझता छ, त्यां नै श्रावक तो निसंक सूजाणै सुध मान । आपरी तरफ सूसुध व्यवहार करने, साधां नै हरष सू दियो छै दान ॥३५॥ तिण री पाग में सचित पंखीयादिक न्हाख्यो, अथवा सचित रजादिक लागी छै आय । तिण री श्रावक नै कांई खबर नहीं छ, पिण व्यवहार सूसुध जाण दियो वेहराय ॥३६॥ इण रीते आहार सचित ने असूझतो छ, पिण श्रावक तो सुध जाणे ने वेहरावै। अल्प पाप ते पाप तणो छै नकारो, चोखा परिणाम सं बोहत निरजरा थावै ॥३७॥ कै तो अजाणपण साधु नैं वेहरावै, तिणरी तरफ सू फासू नैं सूझतो जाण । इण रीते ए पाठ नों अर्थ हुवै तो, ते पिण केवलज्ञानी वदै ते प्रमाण ॥३८॥ ऊनो पाणी निसंक स श्रावक जाण छ, तिण पाणी नै घर रा बावर दियो ताय । ४०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिम ठाम में काचो पाणो घर रा चाल्यो, तिणरी तो श्रावक नें खबर न काय ॥ ३६ ॥ तिण पाणी में श्रावक उनो जाणे नं निसंक साधां ने दियो बेहराय बोहत निरजरा हुवै तो, तिण रै अल्प पाप नै ते पिण केवलज्ञानी नें देणो भलाय ॥ ४० ॥ कोरा चिंणा पड़या छे भंगड़ादिक में, सचित गोहूं पड़घा घाणी मांय तिणरी श्रावक नें खबर न कांइ, सूझता जाणी साधां ने दिया बेहराव ॥४१॥ अचित दाखां में सचित दालों पड़ी घं. अचित खादम में सचित खादम छै ताय । तिणरी श्रावक नैं तो खबर न कांइ, ते सूझतो जाण नै दियो बेहराय ॥४२॥ इत्यादिक अनेक सचित वस्त छ, ते धावक निसंक सू अचित जाण । ते पिण आपरी तरफ सू चोकस करने, साधां ने बेहरावं पणो हरष आण ॥४३॥ इण रीते श्रावक र बोहत निरजरा होवे, तो पिण केवलज्ञानी जाणें । म्हैं तो अटकल सू उनमान कर्यो छै, बले सूतर] रा अनुसारा प्रमाण ||४४|| आधाकर्मी साधु जाणे ने भोगवे तो, नरक निगोद में झींषां खावे असुध देवे ते संजम रो लटणहारो, चिउ गति में घणो दुख पावे ॥४५॥ आधाकर्मी साधु बजाने भोगवे तो, पाप रो अंस न लागो लिगार । तिण दातार ने पूछे निरणो करि लीधो, संका सहित पिण नहीं लियो तिगवार ॥४६॥ आधाकर्मी आहार कियो तिज पर उण रं तो घरे साधु बेहरण गयो नाही । ते आहार अनेक घरां रे आंतरे, निरणो करे वेहर्यो पातरा मांही ॥४७॥ तिण आहार भोगवतां सुध साधु रे, पाप रो लेप न लागो कांइ । सूयगडांग इकवीस में अधेने, जोय करो निरणो घट मांही ॥४८॥ च्यार आहार सचित नैं असूझता है, तिणरी धावक ने खबर नहीं हूं निगार ते सूकता जाणे साधा ने बेहरावे, तिणरा छे निरवद जोग व्यापार ॥ ४९ ॥ ४७४०. महाकम्याणि भुजति अणमपे सम्मुणा । उवलितेति जाणिवा अवलितेति वा पुणो ॥ एएहि दोहि अपेहि बहारो विज एहि दोहि ठाहि अगादारं विजाणए । (सूयगडो २५६, ६) श० ८, उ० ६, ढा० १४४ ४०७ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यार आहार अचित नैं सूझता छै, पिण श्रावक रै संका पड़ी तिण वार । ते संका सहित साधां नै वेहरावै, तिण रा सावज्ज जोग व्यापार ॥५०॥ सावज्ज जोग सू एकंत पाप लागै छै, निरवद जोग सू निरजरा नैं पून थाय । थोड़ो पाप नैं बोहत निरजरा बतावै, तिण नैं पूछीजे किसा जोगां सू हवै ताय ॥५१॥ संका सहित आहार साधां नै वेहरायो, तिण घर रो माल खोय नै पाप लगायो। तो सचित – असूझतो जाण नैं देसी, तिण रै बोहत निरजरा किण विध थायो ॥५२।। सुध साधां भेलो तो अभवी रहै छ, तिण रो साध देखै छै सुध ववहार । तिण अभवी नैं साध वांदै पूजै छ, तिणरो साधां नै दोष न लागै लिगार ॥५३।। साधां भलो रहै चोथा व्रत रो भागल, ते तो छानो छै तिण रो न पड़यो उघाड़ो। तिणनें वांदै पूजे आहार पाणी देवै छै, तिणरो साधां नै दोष न लागो लिगारो ॥५४॥ अभवी भागल नै जाणे मांहे राखै, जब सर्व साधां रो साधुपणो भाग। ज्य सचित नै असूझतो जाणे वेहरायां, तिणरै निश्चैइ एकंत पापज लागै ॥५५।। सचित नैं असूझतो आहार दियां में, अल्प पाप नै निरजरा सरधै किण लेखे । दोय वाना सरध्यां मिश्र दान थपै छ, मिश्र उथाप्यो तिण सांहमो क्यू नहिं देखे ॥५६॥ मिश्र वाला री श्रद्धा नै खोटी कहै छ, पोते पिण मिश्र थापै छै मढ़ मिथ्याती। आपरा बोल्यां री आपने समझ न कांइ, ते तो हीयाफूट गधा रा साथी॥५७।। मिश्र थापण वाला री तो सरधा खोटी छै, ते कहै मिश्र में मन राखां छां ताय । मिथ दान रा सूस न करावा म्है किणनै, त्यांनै पिण त्यांरा झठ री खबर न कांय ॥५८।। साधां नै आहार असुध देवण रो, ए त्याग करावै छै किण न्याय ? ४०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्प दोष नें बोहत निरजरा जाणें छे, तिण र निरजरा री कांय देवे अंतराय ॥ ५६ ॥ वले साधां रे अंतराय आहार री पाड़ी, दातार नैं ने अंतराय दीधी विशेष । अल्प दोष थकी बोहत निरजरा हुंती थी, तिणनें सूस करायो किन लेखे ॥ ६०॥ असुध जाण ने वेहराव, तिणने धर्म ने पाप दोनू इ जाणो । रा पचखाणो ॥ ६१॥ मूल सू कहे मिश्र तिणनें असू दान देवण किस लेखे करावी दान तणां म्हें, किणनेंइ सूस करावां रासू स सूस कराया, थांरी श्रद्धा री वरग वूहा नहिं कांई ॥ ६२ ॥ मूला गाजर जमीकंद दान देवै छै, नांही । इण मिश्र दान तिनमें धर्म घोड़ो ने घणो कहे पाप । चुपचाप ॥६३॥ तिण दान तणां पचखाण करावो । श्रावक साधां ने तिण दान रा स करावो नाही, मिश्रदान जाणी रहो अल्प पाप नैं बोहत निरजरा जाणो छो, बोहत पाप ने निरजरा अल्प जाणो थे, तिन दान रा स करावो छो कि न्यावो १६४॥ कोइ कहै या तो सूतर से पाठ उचाप्यो मोह मतवाला च्या आहार सचित ने अनुभता छै पिण पोते उथाप्यो ते खबर न कांय | ज्यू बोले अज्ञानी ते सांभलजो मविवण चित स्याय ।। ६५ ।। त्यांरा श्रावक त्यांने क्यूं न वेहरावै । अल्प अप पाप में बोहत निरजरा कहे थे. त्यांनै वेहरावता संका क्यू ल्यावै ॥ ६६॥ च्यार आहार सचित ने असूझता बेहरे, जब तो यां पाठ साचो करि थाप्यो । च्यार आहार सचित ने असुध न लेवे जब पोतैईज थाप्यो नें पोतै उथाप्यो ॥६७॥ प्यार आहार सचित साधां ने बेहरावे, जब श्रावकांड पाठ साचो करि थाप्यो । च्या आहार सचित नें असुध न देवे, जब त्यांइज थाप्यो नै त्यांहीज उथाप्यो ॥ ६८ ॥ श०८, उ० ६, ढा० १४४ ४०६ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसाइ साध ने जेसाइ यां दोयां रा जैसा कं तैसा आय मिलिया छै, ऊंट रे तारे ऊंटा बांधी कतारो ॥ ६६ ॥ अल्प पाप ने बोहत निरजरा ऊपर, जोड़ कीधी गंगापुर ग्राम मझार । समत अठार वर्ष सतावने पोह सुद आठम मंगलवार ||७०॥ श्रावक, घट मांहै घोर अंधारो । J सोरठा १२. 'फासु सूझतो जाण, दियै अफासू सुध व्यवहार पिछाण, अल्प पाप ते १३. अल्प अभाव सुजान, उत्तराज्झयणे अल्प अंडादिक स्थान, आहार करे मुनिवर १४. अल्प वर्षा में बिहार, प्रभु कियो पनरम शतक में। अर्थ वृत्ति में सार, अल्प वर्षा ते नहिं वर्षा ॥ १५. अल्प- अंडादि स्थान, आहार द्वितीय आचारग जान, प्रथम १६. आधाकर्मी स्थान, सेव्यां सुध स्थानक पहिछाण, सेव्यां १७. अल्प अभाव कहाय, पिग मुनि भणी । पाप नहीं ॥ धुर भयण । तिहां ॥ परिठवै महामुनि । भवण उदेश धर || महासावज क्रिया । अल्पसावज़ क्रिया ॥ महासावज पेक्षया । अल्पसावज क्रिया घाय, ते सावज थोड़ी नहीं ।। १८. द्वितीय आचारंग मांहि, द्वितीय अध्येन विषे अ " द्वितीय उदेश ताहि, महासावज अल्पसावज क्रिया ।। १२. तिम बहु निर्जर पेक्षाय पाप अल्प थोड़ो नथी । अल्प अभाव कहाय, अल्प क्रिया तिम अल्प अघ ॥ २०. अल्प आतंक पिछाण, ठाम ठाम सूत्रे कह्यो। अल्प अभावज जाण आतंक ते रोगे करी ॥ २१. इम बहु सूत्रां मांय, अल्प अभाववाची कह्यो । इहां पिण तेम जणाय, अल्प पाप ते पाप नहीं' ॥ ( ज० स० ) , २२. हे प्रभजी ! श्रमणोपासक ते तथारूप असंजती जाणो । विरतरहित तिण पाप कर्म नां न किया से पचखाणो ॥ २३. फास अचित्त अफासु सचित्तज, एषणीक निर्दोषं । तथा अनेषणीक जे कहियै, असूझतो अवलोकं ॥ २४. असण पाण यावत स्यूं फल ? तब प्रभु भाखं त्यांही । एकांत पाप कर्म तेहनें, नथी निर्जरा कांई ॥ *लय : गरब न कीजे रे सतगुरु सोखड़ली ४१० भगवती-जो १२. अप्पानीयम्म पच्छिलंमि संबुडे । समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसाडियं ॥ (उत्तर० १०३५) १४. गोमा !..अणबुद्धिकावंशि.. (भ० ० १५५७) 'अप्पaट्टिकायंसि' त्ति अल्पशब्दस्याभाववचनत्वादविद्यमानवर्ष इत्यर्थः । ( वृ० प० ६६५) १५. से यह परिणाहिए सियाडे, अप्पा (आयारचूला १/२ ) १६-१८. इह खलु पाईणं वा दुपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया वि भवइ || " (आयारचूला २२४१) इह खलु'--'अप्पसावज्जकिरिया वि भवइ । (२०४२) २२. समोवारागरस भंते! तहारूवं अस्संजय विरयपडिलावपावकम्म २३. फासुएण वा, अफासुएण वा, एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा २४. असण-पाण- खाइम - साइमेणं पडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ? गोमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्थि से काइ निज्जरा कज्जइ । (०२४७) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २५. वृत्ति विषे सुविचार, प्रथम अर्थ तो सुध कियो । असंजती अवधार, अगुणवान ए पात्र है । २६. फा अफासू आदि दियां पाप कर्म फलपणे । निर्जरा अभाव वादि, आख्यो तेहनों न्याय इम ॥ २७. फासू अफासू दान दियां असंजम न हो। उपष्टंभ तुल्य मान, एकंत पाव को अर्थ ॥ २८. कुन प्रासुकादि मांहि जंतु यात अभाव अप्रालुक में ताहि, जीव घात सद्भाव २१. पाप तपोज विशेख, तिको अत्र नहि निर्जर-अभाव पेख, पाप कर्म ३०. प्रथम अर्थ ए शुड, टीकाकार शुद्ध, आगल एम विरुद्ध विस्ताय ३१. मोक्ष अर्थ पहिचान, तेह दान करि करि ॥ वंछियो । कुन बंछियो । कियो अछे । । ते हिव कहूं ॥ इहां चितव्यो । बलि अनुकंपा दान, उचित दान नहि चितव्यो । ३२. ते निषेध्यो नाहि, विरुद्ध एम विस्तारियो । धुर बाप्यो वृत्ति मांहि, तिण कर विरुवण ऊपप्यो । ३३. असंजती में नैं दान, अनुकंपा आणी दिये। उपष्टंभ ते जान अच्छे असंजम नो तिको । ३४. ते माटै ए दान, कारण कहियै पाप बहु सूत्रे जिन वान, संक्षेपे ते हिव ३५. 'आख्यो आद्रकुमार, द्वितीय सूगडांग नें जावै नरक मकार, बे सहस्र द्विज जीमावियां ॥ 3 छठे । 1 नो । ३६. चवदम उत्तरायण, द्विज जीमायां तमतमा । तसु धुर-गाथा वयण, कुंवर विमासी नें वद । कहूँ । ३७. अन्यतीर्थी तसु देव धडा श्रद्धा भ्रष्ट मुनी भणी । असणादिक चितं भेव, नहि यूं देवाबू' नहीं ॥ ३८. सप्तम अंग मकार, आणंद ए अभिग्रह 'छ खंडी आगार समायक में से , लियो । तर्ज || ॥ नीं । ३६. प्रसंस सावज दान, हिंसा कही छ काय प्रथम सूगडांग जान एकादशम अझयण में ॥ ४०. तीजै करण प्रसंस, घातो ते षट- काय नों । धुर करण नों ॥ तो दे दान निधंस, स्यूं कहिवो २५. 'अस्संजयअविरये' त्यादिनाऽगुणवान् पात्रविशेष उक्तः । (बु०प०२०४) पापकर्मफलता निर्जराया (२०१० ३७४) २७. असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् । २६. प्राकाप्राकादेनस्य अभावश्चोक्तः ( वृ० प० ३७४ ) २८. यश्च प्रासुकादी जीवघाताभावेन अप्रासुकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेषः । ( वृ० १० २७४) २६. सोऽत्र न विवक्षितः, पापकर्म्मणो निर्जराया अभावस्यैव च विवक्षितत्वादिति । ( वृ० प० ३७४ ) ३१. सुत्रत्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यद्दानं तच्चिन्तितं, यत् पुनरनुकम्पादानमचिदा वा तन्न चिन्तितम् ॥ (२०१० २०४) ३५. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहषाणं । ते पुण्णखंधं सुमहज्जणित्ता, भवंति देवा इइ वेयवाओ ।। (पगडी २६४४) ३६. या अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥ (उत्तर० १४/१२) ३७, ३८. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए... नन्नत्थ गाणं बलाओगे, गुरुनि वित्तिकतारे 1 रायाभिओगेणं देवयाभिओगेणं ( उवा० १/४५ ) ३६-४१. जे य दाणं पसंसंति, वधमिच्छति पाणिणं । जे मगं पडिसेतिते ॥ (सूयगडो १।११।२० ) श०८, उ० ६, ढा० १४४ ४११ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. वर्तमान जे काल, निषेध्यां अंतराय छ । पिण उपदेशे न्हाल, हुवै जिसा फल मनि कहै। ४२. अन्यतीर्थी गृहि ताय, दान दियां अनुमोदियां । दंड चोमासी आय, नशीत उदेश पनरमें ।। ४३. परिम्रमण संसार, हेतू सावज दान नैं। जाण तज्यो अणगार, सूयगडांग नवमै कह्यो । ४२. जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा (४) देति, देत वा सातिज्जति । (निसीहज्झयणं १५७६) ४३. उद्देसियं कीयगडं पामिच्चं चेव आहडं । पूति अणेसणिज्जं च तं विज्ज ! परिजाणिया ।। (सूयगडो १।९।१४) ४४,४५. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्त एवं वयासी (उवासगदसाओ ७१५१) ४४. वीर तणां गण सार, कीधा तिण कारण तुझे । पीढ फलग पाडिहार, देऊं सेज्या साथरो॥ ४५. पिण धर्म तप नहिं कोय, इम कहिने सकडालसुत । दिया कुशिष्य नै सोय, सप्तम अंग रै सातमैं ।। ४६. मृगालोढो देख, गोतम पूछ्यो वीर नै । किं दच्चा सुविशेख, तेहनां फल ए भोगवै॥ ४७. चोथै ठाण पंडर, कह्या कुक्षेत्र कुपात्र नैं । पुन्य रूप अंकूर, त्यां बायो ऊगै नहीं । ४६. से णं भंते ! पुरिसे पुब्वभवे के आसि ?........कि वा दच्चा कि वा भोच्चा.... (विवागसुयं ११४२) ४७. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा—खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी, अखेत्तवासी णाममेगे णो खेत्तवासी.... (ठाणं ४१५३७) क्षेत्रवर्षी-पात्रे दान-श्रुतादीनां निक्षेपकः, अन्यो विप रीतो....... (ठाणं वृ० प० २६०) ४८,४६. कोहो य माणो य वहो य जेसि, मोसं अदत्त परिग्गहं च । ते माहणा जाइविज्जाविहूणा, ताई तु खेत्ताई सुपावयाई॥ (उत्तर० १२।१४) ५०. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मिहिलाए बहूणं राई सर जाव सत्थवाहपभिईणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्म च.."उवदंसेमाणी विहरइ । (नायाधम्मकहाओ ८।१४०) ४८. पापकारिया क्षेत्र ब्राह्मण उत्तरायण में । बारम झयण सुतेत्र, हरकेसी मुख जख कह्या । ४६. क्रोधी कपटी मान, मुनि मुख जख द्विज नैं कह्यो । ए स्थापै सत्यवान, तो ते पिण सत्य जाणजो॥ ५०. दान धर्म शौच-मूल, चोखी सिन्यासण कह्यो । तास केडायत स्थूल, सावज दाने पुन्य कहै । ५१. इत्यादिक बहु ठाम, असंजती नैं दान रा। कह्या कटुक फल स्वाम, न्याय दृष्टि निर्णय करो। ५२. कोइ कहै तथारूप, मत-धोरी' ए असंजती। प्रतिलाभ तद्रूप, गरु बुद्धि दीधां पाप है। ५३. इम करै अर्थ विरुद्ध, पिण ए तो जाणे नहीं । श्रमणोपासक शुद्ध, दायक श्री जिनवर कह्यो । ५४. असंजती नै तेह, श्रावक गुरु किम जाणस्य ? वलि गुरु जाणी जेह, किम दै सचित्त असूझतो ? ५५. तथारूप श्रमण माहन्न, अचित्त सूझतो तसु दियां । एकांत निर्जर जन्न, तिण में सहु मनि आविया ।। ५६. तथारूप असंजत मांहि, सर्व असंजत आविया । पाप न पचख्या ताहि, एहवा लछ' तिहां कह्या ।। १. सम्प्रदाय का प्रमुख २, लक्षण ४१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६-६१. तिहि ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्म पगरेति, तं जहा-पाणे अतिवातित्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता णिदित्ता खिसित्ता गरहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अमणण्णेणं अपीतिकारतेणं असणपाणखाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ-इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति । (ठाणं ३।१६) (भगवती ५।१३६) ५७. तथारूप असंजति मांहि, मत नो धोरी जे कहै । तो तथारूप श्रमण में ताहि, तीर्थंकर तसु लेख है। ५८. पडिलाभेइ तास, गुरु बुद्धि अर्थ कर तसु । ते पिण बिना विमास, प्रत्यक्ष अशुद्ध पिछाणजो । ५६. ठाणांग तीजै ठाण, पंचम शतके भगवती । छठे उदेशै जाण, बंध अशुभ दीर्घायु नों॥ ६०. जीव हिंसा में झूठ, तथारूप श्रमण माहण भणी । हेली निंदी आकूट, गरही वलि खिसी करी ॥ ६१. अपमानी चिउं आहार, अमनोज्ञ अप्रीतिकारियो । प्रतिलाभ्यां थी धार, अशुभ दीर्घायू बंधै ॥ ६२. हेली निंदी आहार, अमनोज्ञ अप्रीतिकारियो । गरु जाणी दातार, किण विध देवै एहवो॥ ६३. मनि नो द्वेषी एह, ते हेली निंदी करी । अणगमतो पिंड देह, पडिलाभेइ पाठ त्यां। ६४. तिण कारण अवधार, पडिलाभेइ नों अरथ । देवा तणो विचार, प्रतिलाभै कहितां दिये ।। ६५. जब कोइ कहै वाय, श्रमण माहण – दै तिहां । पडिलाभेइ ताय, अन्य स्थान पडिलाभ नहीं । ६६. सेठ सुदर्शन सोय, शुकदेव भणी प्रतिलाभतो । विचरै भाख्यो सोय, ज्ञाता अध्येन पंचमै ॥ ६७. इहां शकदेव विचार, अन्यतीर्थी कहै ते भणी । विस्तीर्ण बहु आहार, प्रतिलाभै गणधर कह्यो । ६८. प्रतिलाभ मनि स्थान, थाप्यो ते पिण नां मिल्यो । तिण कारण इम जान, मनि नो पिण कारण नहीं। ६६. पडिलाभेइ ताम, देवा तणंज नाम छ । मनि अन्यतीथिक आम, गरु बद्धि ए त्रिहं नियम नहि ॥ ७०. दक्खिणाए पडिलंभ, दान तणो लेवो जिहां । मौन रहै मनि बंभ, सूगडांग इकवीसमे ॥ ७१. दक्षिणाए कहितां दान, पडिलंभ प्राप्ति तेहनी । दान ग्रहण पहिछान, मौन अद्धा वर्तमान ए॥ ७२. इहां पिण सावज दान, असंजती नैं जे दिये । पडिलंभ पाठ पिछान, सूत्र देख निर्णय करो॥ ७३. इत्यादिक अवलोय, प्रतिलाभै कहितां दिये । संक्षेपे हिव सोय, पूर्वोक्त कहूं वारता । ७४. तथारूप श्रमण माहन्न, श्रावक प्रतिलाभैज शुद्ध । अष्टम शतक वचन्न, छठे उदेशै भगवती॥ ७५. तथारूप श्रमण माहन्न, प्रतिलाभ हेली निदी । वलि अणगमतो अन्न, पंचम शत उद्देश छठ॥ ६६,६७. तए ण से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा हट्ठतु?' सुयस्स अंतिए सोयमूलयं धम्मं गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभमाणे संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (नायाधम्म० ५१५६) ७०. दक्खिणाए पडिलंभो अत्थि वा नत्थि वा पुणो । ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमग्गं च बूहए ।। (सूयगडो २१॥३२) ७४. भगवती ८।२४५ ७५. भगवती ५।१३६ २०८, उ० ६, ढा० १४४ ४१३ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. नायाधम्मकहाओ २५६ सूयगडो २१५१३२ ७६. ज्ञाता मांहि अदंभ, प्रतिलाभ सुकदेव नैं । दक्खिणाए पडिलंभ, सूगडांग इकवीसमें । ७७. श्रावक देवै सोय, पडिलाभ पाठ कह्यो तिहां । धर्मद्वेषी दे कोय, त्यां पिण पडिलभ पाठ है। ७८. साधु नैं दे सोय, त्यां पिण पडिलभ पाठ है । दै अन्यतीर्थक – कोय, त्यां पिण पडिलभ पाठ है ।। ७६. अन्य असंजति देह, त्यां पिण पडिलभ पाठ है । तिण कारण वच एह, गुरु बुद्धि रो कारण नहीं । ८०. केइक निपट अजान, श्रमण कहै साधू भणी । माहण श्रावक दान, एकांत निर्जर तसु कहै ।। ५१. प्रथम पाठ नों अर्थ, विरुद्ध करै इण रीत सू । पिण पडिलाभ तदर्थ, इहां पिण पाठ अछै इसो ।। ८२. पडिलभ गुरु बुद्धि होय, तो माहण श्रावक भणी । गुरु बुद्धि किम दे सोय, तसु लेखै पिण ऊथप्यो । ८३. पडिलभ गुरु बुद्धि होय, तो माहण श्रावक नहीं । माहण श्रावक सोय, तो पडिलभ गरु बुद्धि नहीं। ८४. तसु लेखे पिण एम, विरुद्ध परस्पर अर्थ इम । परम दृष्टि धर प्रेम, निमल न्याय चित में धरो॥ ८५. माहण धावक अर्थ, पडिलभ नों गुरु बुद्धि कहै । ए दोनूइ तदर्थ, विरुद्ध अर्थ पहिछाणज्यो ।। ८६. श्रावक भणीज ताहि, माहण तसु कहियै नहीं । पडिलभ गुरु बुद्धि नांहि, पडिलभ नाम देवा तणो ।। ८७. ते माटै पहिछाण, श्रावक असंजती भणी । प्रतिलाभ दै दान, तेहने एकांत पाप ह॥' (ज०स०) ८८. दानाधिकारादेवेदमाह (वृ० प० ३७४) दूहा ८६. दान तणां अधिकार थी, दान तणोज विचार । कहियै छै ते सांभलो, वीर वचन हितकार ॥ ८६. *निग्रंथ गृहस्थ घरे गोचरी, पिंड न पड़ जाणी । मुझ पात्रा में होइस एहवी, बुद्धि कर गयो पिछाणी॥ १०. दोय पिंड कोइ गृहस्थ निमंत्रे, हे आउखावंतो ! एक पिंड तो तुम्हें जीमजो, एक स्थविरा नै दितो॥ ११. निग्रंथ ते पिंड प्रति लेइने, स्थविर तणी पहिछाणी। गवेषणा करवी मन साचै, ऊजम अधिको आणी।। ८६. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्प विट्ठ पिण्डस्य पातो मम पात्रे भवत्वितिबुद्धयत्यर्थः (वृ० प० ३७४) १०. केइ दोहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा-एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, एग थेराणं दलयाहि । ११. से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियव्वा सिया *लय : गरब न कीज रे सतगुरु सोखड़ली ४१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. गवेषणा करतांज कदाचित, जे स्थानक में तासो। स्थविर प्रतै देखै छै त्यांहिज, देणो पिंड हलासो।। १३. गवेषणा करतां निश्चै करि, कदा स्थविर नहिं देखै । ते पिंड प्रति पोते न भोगवै, ए जिन आण अवेखे। ६४. स्थविर बिना अन्य मनि नैन दियै, अदत्त प्रसंग कहीजै। गृही कह्यो स्थविर प्रतैज दीजिय, अन्य भणी नहिं दीजै ॥ ६२. जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्प दायव्वे सिया। ६३. नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुजेज्जा ६४. नो अण्णेसि दावए अदत्तादानप्रसंगात्, गृहपतिना हि पिण्डोऽसौ विवक्षितस्थविरेभ्य एव दत्तो नान्यस्मै इति । (वृ०प० ३७५) ६५. एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले 'एगते' त्ति जनालोकजिते 'अणावाए' त्ति जनसंपातवजिते (वृ० प० ३७५) ६६,६७. बहुधा प्रासुकं बहुप्रासुकं तत्र, अनेन चाचिरकालकृते विकृते विस्तीर्णे दुरावगाढे त्रसप्राणबीजरहिते चेति संगृहीतं द्रष्टव्यमिति । (वृ० प० ३७५) ६५. ताम जायवो एकांत स्थानक, गृही नांव नवि देखे । __ तेह अचित्त बहुप्रासुक जे, स्थंडिल प्रतै अवेखै ॥ सोरठा ६६. बहु विध फासू जोय, बहु प्रासुक कहियै तसु । अचित्त भूमि अवलोय, अल्पकाल तेहने थयो । ६७. विस्तीरण पहिछाण, वली दूर अवगाढ़ ते । नहीं बीज त्रस प्राण, बहु प्रासुक कहियै तसु॥ १८. *दष्टि करि पडिलेही स्थंडिल, जंतू पूजी सोयो । ते पिंड परिठविवो विध सेती, ए जिन आज्ञा होयो । ... गृही घर आहार लेवा नैं साधु, कियो प्रवेश पिछाणी । तीन पिंड कोइ गृहस्थ धाम, बोलै इह विध वाणी ।। १००. एक पिंड पोते भोगवजो, दोय स्थविर नै दीजै । तेह पिंड ले स्थविर गवेष, शेष तिमज विध कीजै ॥ . १०१. यावत प्रासुक स्थान परिठवै, इम यावत अवलोयो । दस पिंड कोइ गृहस्थ निमंत्र, णवरं विशेषज होयो । १०२. एक पिंड पौत भोगविज, नव स्थविरां में दीजै । शेष तिमज यावत परिठविवो, आज्ञा ले जीमीजै ॥ १८. पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वे सिया। (श० ८।२४८) ६६. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्प विट्ठ केइ तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा. १००. एग आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि से य ते पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियव्वा सेसं तं चेव १०१. जाव (सं० पा०) परिट्ठावेयव्वा सिया। एवं जाव दसहि पिडेहिं उवनिमंतेज्जा नवरं१०२. एरा आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, नव थेराणं दल याहि । सेसं त चेव जाव परिदावेयव्वा सिया । (श० ८।२४६) १०३. निग्गंथं च णं गाहावइ जाव (सं० पा० ) केइ दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा-एगं आउसो ! अप्पणा पडिभुंजाहि, एग थेराणं दलयाहि । १०४. से य तं पडिग्गाहेज्जा तहेव जाव (सं० पा०) तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा, नो अण्णेसिं दावए। १०५. सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) परिढावेयब्वे सिया । एवं जाव दसहिं पडिग्गहेहिं । १०३. निग्रंथ गृही घर यावत कोई, दोय पात्र धामीजै । एक पात्र पोते भोगवजो, एक स्थविर मैं दीजै ।। १०४. तेह पात्र ग्रही तिमहिज यावत, स्थविर न लाधां तेहो। पोते पात्र विषे नहिं जीमै, अन्य भणी नहिं देहो । १०५. शेष जाव तिमहिज परिठविय, इम यावत पहिछाणी । पात्र दसू तांइ ए कहिवो, पिंड तणी पर जाणी ॥ *लय : गरब न कीज रे सतगुरु सीखड़ली थक, उ०६, ढा०१४ ४१५ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. वक्तव्यता जिम कही पात्र नीं, गोच्छो तिमज सुमंडो । रजोहरण ने चोलपटो, बलि कंबल लाठी दंडो ॥ १०७. संथारा नी वक्तम्पता पिण, कहिवी इणहिज रीतं । यावत दस संधारा धार्म, जाव परिठवे प्रीतं ॥ १०८ अंक छयांसी देश ढाल ए, एक सौ चोमालीसं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे, 'जय' मुख विस्वावी ॥ ढल १४५ वहा १. निग्रंथ नां प्रस्ताव थी, निर्बंध तणो विचार । पद आराधक पामियै, तेह तणो अधिकार ॥ * साहिब ! परम पियारा हो । परम पियारा, परम पियारा, परम पियारा हो । जगत प्रभु ! तुझ वचनामृत पान, लागे परम पियारा हो । ( ध्रुपदं ) २. निर्धन्य गृहस्थ में परे कोइ गयो आहार ने ताहि । अकृत्य स्थान अकारण सेम्यो, मूल गुणादिक माहि ॥ ३. पश्चाताप ऊपनों पाछे, जद मन एहवी धार । हाईज हिवड़ाए स्थानक हूं, आलोवू सुविचार ॥ सोरठा ४. आचार्य ने जान चित्त विधे स्थापन करी । आलोवि गुणखान, एहवी मन में चितवी ॥ ५. आचार्य अवधार, दोय प्रकारे दालिया । गणाचार्य सुविचार, तथा वाचनाचार्य कुन ॥ ६. आसातना अधिकार, तुर्य अध्येने आवश्यक । आचार्य कही सार कह्या वाचनाचार्य कुन ॥ ७. पडिक मिच्छामिदुक्क यू नि हूं निज साख । गर्दा गुरु नीं साख करीने इम चित में अभिलाख ॥ *लय : कांइन मांगा जी ४१६ भगवती बोह १०६. एवं जहा पहिम्मत्तव्वया भगिया एवं गोच्छ ग- रयहरण-चोलपट्टग- कंबल-लट्ठि १०७. संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा जाव दसह संथार एहि उवनिमंतेज्जा जाव परिट्ठावेयव्वा सिया । ( ० २५०) १. निस्यादिदमाह २. नवे व गाव पिटवायपडियाए पवि अगवरे विद्वापविए मूलगुणादिप्रति सेवा रूपोऽकार्यविशेषः । ( वृ० प० ३७६ ) ३. तस्स णं एवं भवति — इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि तस्य निर्ग्रन्थस्य सञ्जातानुतापस्य । ( वृ० प० ३७६ ) ( वृ० प० ३७५ ) ४. 'आलोचयामि' स्थापनाचार्यनिवेदनेन । (१० प० २०६ ) बावरिया आसा ........ वायणारियस्स आसायणाए......... ( आवस्यं ४८ ) ५.६. तीसा आसावणाहि यणाए....... ७. पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि 'प्रतिक्रमामि' मिष्यादुष्कृतदानेन, 'निदामि' स्वसम स्वस्याकृत्वस्थानस्य वा कुत्सनेन गहँ गुरुसमक्षं रणनेन। ( वृ० प० ३०६) Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८. गुरु सा सुखकार, गणपति ते आचार्य गुरु । साखे फुन दीक्षा दातार ते दीक्षा गुरु दीपता ॥ ९. इहां गुरु साये जाण, निदे दुःकृत कर्म ने। ते गुरु दिल में आण, ते आश्री ए वचन है ॥ १०. जगरण अवसर जाण, रायप्रश्रेणी में को। ह. प्रदेशी पहिछाण, आस्यो छे इण रीत सू ॥ ११. पूर्वे केशी पास, अणुव्रत म्हैं आदर्या । सर्व थकी हिव तास, तेह समीपे हिव करूं ॥ १२. तिम इहां पिण अवलोय, आपण गुरु साल थी। पै दुःकृत निर्द सोय, ते गुरु याद करी दहां ॥' (ज० स० ) १३. विजट्टामि तेनां बंधन नं विसोहेमि कहितां दंड लेवू, तोड़ खेडूताम पंक पखालू आम ॥ १४. अनकरिये करिनें हूं ऊठ् | पई अधिक उजमाल । यथायोग्य जे प्रायश्चित्त, पडिवजुं तपसा न्हाल ॥ १५. ए गीतार्थपणा यकी अन्य भणी ए नांय ह्व े, गीतार्थ नहीं ते पिण मन में, पश्चाताप कराय ॥ १६. ते मन चि मिच्छामिदुक्कडं पोते देखूं ताय तठाप स्थविर समीपे ले आलोयण जाय ॥ १७. यावत तपोकर्म पडिवज इम चितव मन मांहि । स्थविर समीपे आलोयणादिक, करिवा चाल्यो ताहि ॥ १८. स्थविरां पासे ते नहिं पूगो, सुणियो मारग मांय । स्थविर निर्वाच बया वायादिके, मुख बोल्यो नहि जाय ॥ सोरठा 1 १६. आलोचनादिक हेत, तसू परिणाम छते अपि । स्थविरां स्वस्थ सचेत, नवि आलोचन करि सकै ॥ २०. *तिण कारण ए प्रश्न पूछयो, आराधक एस्वाम । अथवा तास विराधक कहिये ? इम पूछे अभिराम ॥ २१. जिन कहै मोक्ष मार्ग नों आराधक नहीं विराधक जेह । आलोयण ने सन्मुख मार्ट भाव शुद्ध थी एह ॥ 1 २२. द्वितीय आलावे ते मूर्ति चाल्यो, पूगो नहि स्थविरां पाय । आप निर्वाच थयो वायादिक थी, मुख बोल्यो नहि जाय ॥ *लय : कांइ न मांगा जी १०,११. तए णं से पएसी राया सूरियकंताए देवीए अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला.... पुब्विं पि मए के सिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए .... सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहं पि आहारं जावज्जीवाए पच्चक्खामि । ( रायपसेणइय सू० ७९६) १३. विउट्टामि विसोहेमि वित्रोटयामि तदनुबन्ध छिन 'विशोधयामि' प्रायश्चित्तपङ्कं प्रायश्चित्ताभ्युपगमेन । ( वृ० प० २७६) १४. अकरणमा अन्टमि बहारि पारतियो पडिवज्जामि । १५. एतच्च गीतार्थतायामेव भवति नान्यथा ( वृ० प० ३७६ ) १६. तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि १७. जाव तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि । १. से संपएि असंपत्ते, वेरा व पुज्यामेव अमुहा सिवा अमुखाः निर्वाचः स्र्वातादिदोषात ( वृ० प० ३७६) १६. ततश्च तस्यालोचनादिपरिणामे सत्यपि नालोचनादि संपद्यते । (५०० २७६) २०. इत्यतः प्रश्नयति । ( वृ० प० ३७६ ) से णं भंते ! कि आराहए ? विराहए ? २१. गोयमा ! आराहए, नो विराहए । 'आराहए' त्ति मोक्षमार्गस्याराधकः शुद्ध इत्यर्थः भावस्य शुद्धत्वात् । (२०१० ३०६) २२. से य संपट्टिए असंपत्ते, अप्पणा य पुव्वामेव अमुहे सिया श०८, उ० ६, ठा० १४५ ४१७ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? जिन भाखे सद्भाव । तेह आराधक नहीं विराधक, ए दूजो आलाव ॥ २४. बलि आलोयणादिक में चाल्पो पुगो नहि स्वविरां पास | मार्ग मांहि सुण्यो काल कीधो, स्थविर बड़ा गुण-रास ॥ २५. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? तब भाले भगवान | से आराधक नहीं विराधक, तृतीय आलावो जान ॥ २६. वलि आलोयणादिक नैं चाल्यो, पूगो नहिं स्थविरां पास | विच में पोते काल कियो प्रभु ते मुनिवर गुणरास ॥ २७. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? तब भासे भगवान । छै आराधक नहीं विराधक, तुर्य आलावो जान ॥ सोरठा च्यार २५. चाल्यो पहुंती नांव, आलावा तसु कह्या । पहुंतो स्थविरा पाय तसु चिहुं आलावा कहूं ॥ २६. * आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविरां पास स्थविर निर्वाच थया वायादिक थी, बोलणी नांवे तास ॥ ३०. हे प्रभु! ते मूनि स्यू आराधक तथा विराधक जेह ? जिन कहै कहिये तास आराधक नहीं विराधक तेह || ३१. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्ववि पाय | आप निर्वाच थयां आराधक नहीं विराधक ताव || ३२. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविर काल कीधां आराधक, मुनी स्थविरां पाय विराधक नांय ॥ पाय । ३३. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविरां पोते काल कियां आराधक, तेह विराधक नांय ॥ ३४. स्थविर कनें अणपूगां नां धुर, चिहुं तिमज स्थविर पासे पहुंता नां ए सह ३५. निर्व्रय स्थानक बाहिरे कांइ, स्थंडिल आलावे भाव । अठ आलाव । भूमी जाय । तथा सञ्झाव करण नौकलियो, त्यां कोई दोष लगाय || ३६. दोष निवर्ती इम मन चितं पोते हूँ आलोय । एम इहां पिण तिमहिज भणवा, आठ आलावा जोय ॥ । ३७. मुनि ग्रामानुग्राम विचरतां विहार करता जोव करिया जोग नहीं ते स्थानक, दोषण सेव्यो कोय ॥ ३८. ते मन चिंत प्रथम आलोइस, पछे स्थविर पाय । इहां पिण तिमहिज आठ आलावा जाव विराधक नांय ॥ 1 *लय : कांइ न मांगा जी ४१८ भगवती - जोड़ २३. से णं भंते ! कि आराहए ? विराहए ? गोमा ! आराहए, नो विराहए। २४. से य संपट्टिए असंपत्ते, थेरा य कालं करेज्जा । २५. से णं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। २६. से य संपट्टिए असंपत्ते, अप्पणा य पुव्वामेव कालं करेज्जा । २७. से णं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। २६. से य संपट्टिए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया । ३०. से णं भंते ! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा आहए, नो विराहए। 1 ३१. से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य अमुहे सिया से णं भंते कि आराहए ? बिराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। ३२. से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य कालं करेज्जा । सेणं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। ३३. से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य कालं करेज्जा । से जं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए नो विराहए। (श०८।२५१ ) ३४. इत्येवं चत्वारि संप्राप्तसूत्राणि संप्राप्तसूत्राप्यप्येवं वायें एवमेतान्यष्टौ । ( वृ० प० ३७६ ) ३५. निरयेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खतेणं अण्णयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए ३६. तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। (०२५२) २७. निर्माण व नामानुगामं दृश्यमाणेणं अणवरे अचिट्ठाणे डिसेविए ३८. तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि - एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। (श० ८१२५३) Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. गहपति-घर पिंड-अर्थ साधवी, पैठां दोष लगाय । तसु मन इम ह इहां इज पहिला, हं आलोविस ताय ।। ४०. यावत तप मन सू' पडिवजसू, पछै पवित्रणी पाय । आलोवणादिक करिसू यावत, पडिवजसू तप ताय ।। ३६. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणु पविट्ठाए अण्णयरे अकिच्चट्टाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि ४०. जाव तवोकम्म पडिवज्जामि, तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्म पडिवज्जि स्सामि । ४१. सा य संपट्ठिया असंपत्ता, पवत्तिणी य अमुहा सिया। ४१. आलोयणादिक लेवा चाली, पिण पहुंती नहिं ताय । पवित्रणी निर्वाच हुई तब, मख बोल्यो नहिं जाय ॥ ४२. तिका साधवी आराधक प्रभ! है क विराधक तेह ? श्री जिन भाखै तिका आराधक, नहीं विराधक जेह ।। ४३. निग्रंथ नां त्रिण गमा कह्या जिम, निग्रंथी नां तीन । गोचरी दिशा सज्झाय-भमिका, वलि विहार नां चीन । ४४. जाव आराधक तिका साधवी, नथी विराधक जेह । किण अर्थे प्रभजी ! इम भाख्यो? हिव जिन उत्तर देह ॥ ४२. सा णं भंते ! कि आराहिया ? विराहिया ? गोयमा ! आराहिया, नो विराहिया। ४३. सा य संपट्टिया जहा निग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं निग्गंथीए वि तिणि आलावगा भाणियव्वा । ४४. जाव आराहिया नो विराहिया। (श० ८।२५४) से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चइ-आराहए ? नो विराहए? ४५. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं उण्णा लोमं वा, ""सणलोमं वा, कप्पासलोमं वा ४६. तणसूर्य वा दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेज्जा 'तणसूर्य व' त्ति तृणाग्रं वा (वृ०प० ३७६) ४७. से नूणं गोयमा ! छिज्जमाणे छिण्णे ४५. यथा दृष्टांते कोयक नर इक, मोटो ऊर्णालोम' । सण नां लोम प्रतै अथवा वलि, कपास नां जे रोम ।। ४६. अथवा तृण नां अग्र प्रतै वलि, बे त्रिण संख प्रकार । छेदीने जे अग्निकाय में, प्रक्षेपै तिणवार ॥ ४८. पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते दज्झमाणे दड्ढे त्ति वत्तव्वं सिया ? ४६. ता भगवं ! छिज्जमाणे छिण्णे, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, दज्झमाणे दड्ढ़े त्ति वत्तब्वं सिया ४७. ते निश्चै करिने हे गोतम ! छेदवा मांड्यो जान । छेद्यो तास कहीजै छै ते, इम पूछे भगवान ॥ ४८. प्रक्षेपवा मांडयो तेहने, प्रक्षेप्यो कहिजै ताय । दह्यमान बालवा मांड्यू, बाल्यू दग्ध कहाय ? ४६. गोतम भाखै हता भगवन ! छिद्यमान ते छिण्ण । जाव बालिवा मांड्यो तेहने, बाल्य कहियै जन्न । सोरठा ५०. क्रिया-काल नै जाण, निष्ठा-काल तणे वली। अभेद करि पहिछाण, खिण-खिण निष्पत्ति कार्य नीं॥ ५१. वर्तमान जे काल, क्रिया-काल कहिये तसु । निष्ठा-काल निहाल, अद्धा-समाप्ति भणी कह्य॥ ५२. ए बेहूं नो तेथ, अभेद करि खिण-खिण प्रतै । कार्य निष्पत्ति समेत, छिज्जमाण छिन्न ते भणी ।। ५३. इम मनि भाव उचित्त, आलोचना परिणत छतै । आराधना प्रवृत्त, ते आराधक ईज छै । १. अंगसुत्ताणि में 'उण्णालोमं' के बाद गयलोम' पाठ है। जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में शायद यह पाठ नहीं होगा, इसलिए इसकी जोड़ नहीं है । ५०. क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तेः (वृ० प० ३७६) ५२. छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते (वृ० प० ३७६) ५३. एवमसावालोचनापरिणती आराधक एवेति । सत्यामाराधनाप्रवृत्त (वृ० प० ३७६) ०८, ३०६, ढा० १४५ ४१९ Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. *यथा दृष्टांत वली ए दूजो, कोइक पुरुष विचार । नवो वस्त्र अथवा धोयो ते, तंतुगतं वा धार । ५५. तुरी वेमादिक थकी ऊतर्यो, मजीठ रंग नों जाण । तेहनी द्रोणि भाजन में घाल, रंगवा नै पहिछाण ।। ५४,५५. से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा धोतं वा तंतुग्गयं वा मंजिट्ठ-दोणीए पक्खिवेज्जा 'अहतं' नवं 'धोयं' ति प्रक्षालितं तंतुग्गय' ति तन्त्रोद्गतं तूरिवेमादेरुत्तीर्ण मात्र मंजिट्ठादोणीए' त्ति मञ्जिष्ठारागभाजने (वृ० प० ३७६) ५६. से नूणं गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते ? ५७. पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते रज्जमाणे रत्ते त्ति बत्तब्वं सिया? ५८. हंता भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्वित्ते ५६. ते निश्चै करिने हे गोतम ! वस्त्र प्रत जे ताय । उखेलवा मांड्यो छै तिण नै, उखेलियो कहिवाय ।। ५७. प्रक्षेपवा मांडयो भाजन में, प्रक्षेप्य कहिवाय । रंगवा मांड्य छै वस्त्र नैं, रंग्यो कहीजै ताय ? ५८. गोतम भाख हंता भगवं ! जेह वस्त्र नै ताय । उखेलवा मांड्यो छै तेहने, उखेल्यो कहिवाय ।। ५६. यावत रंगवा मांड्यो तिण नै, रंग्यो कहीजै स्वाम । तिण अर्थे गोतम ! इम भाख्यो, तेह आराधक ताम ।। ६०. अंक छयांसी देश ढाल ए, एक सौ पैंतालीस । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय' सुख विस्वावीस ।। ५६. जाव (सं० पा० ) रते त्ति वत्तब्वं सिया । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-आराहए, नो विराहए। (श० ८।२५५) ढाल : १४६ १. प्रवर आराधक महामुनि, दीपक जिम दीपंत । दीप तणोज स्वरूप हिव, ए अधिकार कहंत ।। २. दीवो बलै ते स्यू प्रभु ! दीवो बलैज ताय? लट्ठी शिखा प्रमुख जे, दीवा नों समुदाय ॥ ३. लट्ठी दीप-शिखा बलै, अथवा वाट बलंत । तेल बल कै ढाकणो, दीवा तणो जलंत? १. आराधकश्च दीपवद्दीप्यत इति दीपस्वरूपं निरूपयन्नाह (वृ० प० ३७६) २. पदीवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाइ ? प्रदीपो दीपयष्टयादिसमुदायः । (वृ० प० ३७७) ३. लट्ठी झियाइ? वत्ती झियाइ ? तेल्ले झियाइ ? दीवचंपए झियाइ? 'लट्ठि' त्ति दीपयष्टिः 'वत्ति' त्ति दशा 'दीवचंपए' त्ति दीपस्थगनकं । (वृ० प० ३७७) ४. जोती झियाइ ? गोयमा ! नो पदीवे झियाइ जाव (सं० पा०) नो दीवचंपए झियाइ (श० ८।२५६) 'जोइ' त्ति अग्निः (वृ० प० ३७७) ४. अथवा अग्नि बल अछै? तब भाखै जिनराय । दीवो न जल जाव तसू, बलै ढाकणो नांय ।। *लय : कांइ न मांगा जी ४२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वेळ-अग्नि बले अच्छे वाय । ए निश्चय-नय अग्नि तणां प्रस्ताव थी, वलि तेहिज कहिवाय ॥ ६. गृह आगार ते खरकुटी, हे प्रभु! जलते जेह स्यू' आगार कुटीगृह बले? कुडा भीति बह? ७. के कणावाटी जसे. वलहरण - आधार धारणा ताय ? वली जं धूणी बलै बलै कहाय ? ८. अथवा वलहरणा जलै ? धारण ऊपर ताम । तिरछो लांब लाकड़ो, मोभ प्रसिद्धज नाम ।। १. जसे बंश छजावटी, छित्वर आधारभूत । के मस्ला यांना बले ? कुड्या अवष्टंभ सूत ॥ - वंशादि नां, १०. बाग - मूंज नां बंधनभूत हिवर ते वंशादिमय, छादन आधार ११. छान दर्भादिमय पटल ? के प्रभु अग्नि बलेह ? इम गोयम पूछै छते हिव जिन उत्तर देह || बह जेह ॥ १२. आगार कुटीगृह नहिं जलै, न बलै भींति तिवार । यावत छान जलै नहीं, बलै अग्नि अवधार ।। १३. आखी ज्वलन-क्रिया इहां परतन-आधी तेह परतनु-आश्रित हिय क्रिया, जीव नारकादेह ॥ | | * भवियण ! जिन वच महा जयकारो । स्वाम-वयण री आसवा राख्यां पामे भवदधि पारी (पदं) १४. एक जीव ने हे भगवंत जी ! अन्य पृथिव्यादि जाण । तेहनां जे एक ओदारिक आधवी, केतली क्रिया पिछाण ? १५. जिन कहै कदा क्रिया त्रिण थावे, कदा क्रिया हुवे च्यार । कदाचित पंच क्रिया होई, कदा अकिरियां उदार ॥ सोरठा १६. एक जीव नें जोय, ते आधी अवलोय, *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणा पृथव्यादिक इक जीव तन् । कदा तीन क्रिया कही ॥ " ५. जोती भियाइ । ज्वलनप्रस्तावादिदमाह ( वृ० प० २७०) ६. अगारस्स णं भंते ! भियायमाणस्स कि अगारे भिवाह ? कुद्धा भिवाइ ? इहनावारफुटीगृहं कुतः (बु०प०२७७) ७. कडणा भियाइ ? धारणा भियाइ ? 'क' त्ति पट्टिका 'धारण' ति बलहरणाधारभूते ( वृ० प० ३७७) ८. बलहरणे झियाइ ? 'बलहरणे' त्ति धारणयोरुपरिवत्ति तिर्यगायतकाष्ठं 'मोभ' इति यत्प्रसिद्धम् ( वृ० प० ३७७ ) ६. वंसा झियाइ ? मल्ला भियाइ ? 'वंस' त्ति वंशाश्छित्त्व राधारभूताः 'मल्ल' त्ति -कुड्यावष्टम्भन स्थाणवः बलहरणाः मल्ला: ( वृ० प० ३७७) १०. वागा भियाइ ? छित्तरा कियाइ ? 'या' त्ति वत्कान्निभूतादिवचः 'छित्तर' त्ति छित्व राणि - वंशादिमयानि छादनाधारभूतानि जानि । ( वृ० प० ३७७ ) ११. छाणे भियाइ ? जोती भियाइ ? 'छाणे' ति छादनं दर्भादिमयं पटलमिति । ( वृ० प० २०७ ) १२. गोयमा ! नो अगारे झियाइ, नो कुड्डा झियाइ जाव नो छाया, जोति भिवाह (०८२५७) १३. इत्थं च तेजसां ज्वलनक्रिया परशरीराश्रयेति परशरीरमौदारिकाद्याश्रित्य जीवस्य नारकादेश्च किया अभिधातुमाह( वृ० प० ३७ ) १४. जीवे णं भंते ! ओरालियस राओ कतिकिरिए ? औदारिकरीत् परकीयमोदारिशरीरमाथित्य कतिक्रियो जीवः ? ( वृ० प० ३७७) १५. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए सिय पंचकरिए । सियअकिरिए । (श० ८२५८) १६. कोथिन्यादेः सम्यन्यदारिकशरीरमाश्रित्य कार्य व्यापारयति तदा त्रिक्रियः । ( वृ० प० २७७ ) श०८, उ० ६, ढा० १४६ ४२१ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. एक तथा बे जोय, इहविध तो पावै नहीं । जो किरिया तसु होय, तो तीनां सूनहिं घट ।। १७. एतासां च परस्परेणाविनाभूत्वात् स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं न पुनः स्यादेकक्रियः स्याद्विक्रिय इति । ___ (वृ० ५० ३७७) १८. उक्तञ्च प्रज्ञापनायामिहार्थे- (व०प० ३७८) १८. पन्नवण सूत्रे पेख, बावीसमां पद नै विषे । जेह जीव ने देख, क्रिया होवै इह विधे ।। १६ क्रिया काइया तास, नियमा तसु अधिकरणकी । अहिगरणिया जास, नियमा तसु काइया तणी ।। २०. इत्यादिक सुविचार, माहोमांहि त्रिहुं क्रिया । नियमा कहि जगतार, ते माटै इक बे न ह॥ १६, २०. जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कज्जति, जस्स अहिगरणिया किरिया कज्जइ तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जइ ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स अहिगरणी नियमा कज्जति, जस्स अहिगरणी किरिया कज्जति तस्स वि काइया किरिया णियमा कज्जति । जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स पाओसिया किरिया कज्जति ? जस्स पाओसिया किरिया कज्जति तस्स काइयाकिरिया कज्जति ? गोयमा ! एवं चेव। (पन्नवणा २२।४८,४६) २१. जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ इत्यादि । (वृ० प० ३७८) २२. ततश्च यदा कायव्यापारद्वारेणाद्यक्रियात्रय एवं वर्तते न तु परितापयति न चातिपातयति तदा त्रिक्रिय एवेत्यतोऽपि स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं, यदा तु परितापयति तदा चतुष्क्रियः । (वृ०प० ३७८) २३. यदा त्वतिपातयति तदा पञ्चक्रियः । (वृ० ५० ३७८) २४. जस्स पुण पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स काइया नियमा कज्जति । (पन्नवणा २२।५०) २१. वली काइया ताय, भजना . परितावणिया तणी । इमज पाणाइवाय, दोय तणी भजना कही॥ २२. ते माटै धर तीन, तनु व्यापार करी हुवै । जो परितापन कीन, तो चउथी परितापकी । २३. जीव काया ह न्यार, तो पाणाइवाय पिण । तास पंच सुविचार, तेहनों न्याय वली कहं ।। २४. परितावयणा जास, नियमा तसु काइया तणी । इत्यादिक सुविमास, पाठ पन्नवणा में कह्या ।। २५. 'अप्रमत्त इक जीव, तसु अन्य ओदारीक इक । ते आश्रयी कहीव, पाठ अकिरिया न्याय इम ।। २६. काइया नां बे भेद, अशुभ जोग अविरति नी । बावीसम पद वेद, द्वितीय ठाण उदेश धुर ।। २७. अविरति चिउ गणठाण, पंचम अविरति देश थी । अशुभ जोग नी जाण, छठा लग आगे नहीं। २८. ते माट ए वाय, क्रिया काइया धुर तिका । अप्रमत्त में नांय, अशुभ जोग है जद छठे ।। २६. जिहां काइया जाण, अहिंगरणी पाउसिया तणी । नियमा कहि जगभाण, पद बावीसम पन्नवणा॥ ३०. अहिगरणिया जाण, वलि पाउसिया छै तिहां । काइया नी पहिछाण, तिण ठामें नियमा कही । ४२२ भगवती-जोड़ २६. काइया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-अणुवरयकाइया य दुप्प उत्तकाइया य । (पन्नवणा २२।२) (२६. पन्नवणा २२ । ४८, ४६) Jain Education Intemational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. तिण कारण अवधार, काइयादि पांच क्रिया । प्रमत्त लगै विचार, पिण अप्रमत्त माहे नहीं। ३२. मायावत्तिया एक, सप्तम थी दसमा लगै । कषाय आश्री पेख, काइयादिक थी ए जुदी॥ ३३. आत्मादि आरंभ, अशुभ जोग आश्री कह्या । पेखो पाठ अदंभ, छ8 गणठाण प्रगट । ३४. अणारंभी अप्रमत्त, शुभ जोगां आश्रयो प्रमत्त । अणारंभी अवितत्थ, धर शतके उद्देश धुर । ३५. अणारंभी अप्रमत्त, आत्मादि आरंभ रहित । तिण कारण ए वत्त, अप्रमत्त में पंच नहिं । ३४, ३५. तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा, तं जहा-पम त्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया, ते सुहं जोगं पड़च्च नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। (भ० श० ११३४) ३६. से केणठेणं जाव अधिकरणं पि? गोयमा ! पमायं पडुच्च.... (भ० श० १६।२४) ३८. नेरइए णं भंते ! ओरालियसरीरामो कतिकिरिए ? ३६. लब्धि फोड़वै तास, प्रमाद आश्री अधिकरण । शतक सोलमें जास, प्रथम उदेशा नै विषे॥ ३७. ते माट ए न्याय, काइयादि पांचं क्रिया। ___ अप्रमत्त में नांय, ते शुभ जोगी जिन कह्या ॥' (ज० स०) ३८. *हे भगवंत ! एक नेरइया नें, पृथिव्यादिक जे जाण । एक ओदारिक शरीर आश्रयी, केतली क्रिया पिछाण ? ३६. जिन कहै कदाचित तीन क्रिया, ते फां भय पाय । कदा च्यार परिताप पमायां, जीव हण्यां पंच थाय ।। ४०. हे प्रभु ! जे इक असुरकुमार ने, पृथव्यादिक जे ताय । एक ओदारिक शरीर आश्रयी, केतली क्रिया कहाय ? ४१. कदा तीन कदा च्यार कदा पंच जाव वैमानिक एम । णवरं मनष्य जीव जिम कहिवो, अक्रिया अप्रमत्त तेम ।। ४२. हे भगवंतजी ! एक जीव ने, अन्य बहु पृथव्यादि जीव । तास ओदारिक बहु तनु आश्रयी, केतली क्रिया कहोव? ३६. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। (श० ८।२५६) ४०. असुरकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कति किरिए ? ४१. एवं चेव । एवं जाव वेमा णिए, नवरं ----मणुस्से जहा जीवे । (श० ८।२६०) ४२. जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कतिकिरिए ? औदारिकशरीरेभ्य इत्येवं बहुत्वापेक्षोऽयमपरो दण्डकः । (वृ०प० ३७८) ४३. गोयमा ! सिय तिकिरिए जाव सिय अकिरिए। (श० ८।२६१) ४४. नेरइए णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कतिकिरिए ? ४३. जिन कहै कदा तीन बहु फां, कदा चिहुं बहु ताप । कदा पंच बहु जीव हण्यां थी, कदा अक्रिया स्थाप॥ ४४. हे भगवंत ! एक नेरइया नें, अन्य पृथव्यादि बहु जीव । तास ओदारिक बहु तन आश्रयी, केतली क्रिया कहीव ? ४५. कदा तीन कदा च्यार कदा पंच, प्रथम दंडक जिम जाण । एक वचन नों भाख्यो छ तिम, बहु वचने पिण आण ।। ४६. एवं जाव वैमानिक कहिवा, णवरं एतो विशेख । मनष्य विषे कहिवो जीव तणी पर, अक्रिया अधिक संपेख ।। ४५. एवं एसो वि जहा पढ़मो दंडओ तहा भाणियब्वो। ४६. जाव वेमाणिए, नवरं-मणुस्से जहा जीवे । (श० ८।२६२) *लय रे भवियण सेवो! रे साधु सयाणा श० ८, उ०६, ढा० १४६ ४२३ Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. हे भगवंतजी ! चणा जीवां ने, अन्य पृथव्यादि बहु जीव । तास ओदारिक इक तनु आश्रयी, केतली क्रिया कहोव ? ४८. जिन कहै तीन कदा इक फर्थ्यो, कदा चिउं इक ताप । कदा पंच इक जीव हयां थी, कदा अकिरिया स्थाप ॥ ४६. हे भगवंत ! बहु नेरइया नें अन्य पृथव्यादि जीव । तास ओदारिक इक तन आश्रयी, केतली क्रिया कहीव ? ५०. कदा तीन कदा च्यार कदा पंच, प्रथम दंडक कह्यो ज्यांही । तिणहिज रीते ए सह भणवो, जाव वैमाणिया' ताई ॥ ५१. हे भगवंतजी ! बहु जीवां नैं, अन्य पृथव्यादि जीव । सास ओदारिक बहू तनु आश्री केतली क्रिया कहीव ? ५२. जिन कहै तीन कदा बहु फय, कदा चिहुं बहु ताप । कदा पंच बहु जीव हण्यां थी, कदा अकिरिया स्थाप ॥ ५३. हे भगवंत ! बहु नेरइया नें अन्य पृथव्यादि जीव तास ओदारिक बहु तन आथवी, केतली क्रिया कहीब ? ५४. त्रिण विण चि पिण पंच या पिन, एवं जाव बेमाणिया । नवरं मनुष्या जोव तणी पर अधिक अकिरिया भणिया || ५५. हे भगवंतजी ! एक जीव ने जे अन्य वैत्रिय एक ते श्री केतली क्रिया ? हिव जिन उत्तर देस ॥ ५६. कदा तीन क्रिया भय उपजायां कदा अकिरियावंत हुवै छै, सोरठा ५७. वे वाला जीव, माया न मरे तेह थी। प्राणातिपात अतोय, क्रिया न कही पंचमी ॥ ५८. अव्रत आश्री तास ते नहि वांछी इम हणवो कार्य विमास, ते आश्री नहि २६. हे भगवंत एक वृत्तौ । पंचमी ॥ यो एक वेत्रिय तनु साथ । ते आधी केतली क्रियावंत ? हिव भाखे जगनाथ ॥ ६०. कदा तीन क्रिया भय उपजायां, कदा चिउं परिताप । इम जाव वैमानिक पिन णवरं, मनुष्य जीव जिम स्थाप || परितापना थी च्यार । अप्रमत्त नैं अवधार ॥ 1 *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणा १. अंगसुत्ताणि भाग २ में 'वैमाणिया' के बाद 'नवरं - मणुस्सा जहा जीवा' पाठ है। जयाचार्य ने इसकी जोड़ नहीं की है। संभवतः जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में यह पाठ नहीं होगा । ४२४ भगवती-यो ४७. जीवा णं भंते ! ओरालियस राओ कतिकिरिया ? ४८. गोयमा ! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया । (०८२६२) ४६. नेरइया णं भंते ! ओरालियस राओ कतिकिरिया ? ५०. एवं एसो वि जहा पढ़मो दंडओ तहा भाणियव्वो जाब वेमाणिया, नवरं - मणुस्सा जहा जीवा । (०८/२६४) ५१. जीवा पं यं ! ओलिहितो कतिकिरिया ? ५२. गोमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि (० ०२६५) ओसरीरहित कतिकिरिया ? ५२. ५४. गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि पंचकिरिया वि । एवं जाव वैमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । (श० ८।२६६ ) ५५. जीवे णं भंते ! वेउव्वियसरीराओ कतिकिरिए ? जीवः परकीयं वैक्रियशरीरमाश्रित्य कतिक्रियः ? ( वृ० प० ३७८ ) सय तिकिरिए यि चकिरिए सिय ५६. गोमा अकारेए । (००२६७) ५७ नोच्यते प्राणातिपातस्य वैरीरिणः कर्त्तमत्वाद् । ५८. अविरतिमात्रस्य चेहाविवक्षितत्वाद् । ( पृ० प० २७८) ( वृ० प० ३७८) ५६. नेरइए णं भंते ! वेउब्वियसरीराओ कतिकिरिए ? ६०. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए। एवं जाव वैमाणिए, नवरं - मणुस्से जहा जीवे । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. एवं जहा ओरालियसरीरेणं चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउब्वियसरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियब्वा । ६२. नवरं-पंचमकिरिया न भण्णइ, सेसं तं चेव । ६६. एवं जहा वेउव्वियं तहा आहारगं पि, तेयगं पि कम्मगं पि भाणियव्वं-एक्केक्के चत्तारि दंडगा भाणियव्वा ६१. इम जिम ओदारिक शरीर नां, च्यार दंडक कह्या तेम । वे शरीर तणां पिण कहिवा, दंडक च्यारू एम ॥ ६२. णवरं पंचमी क्रिया न भणवी, वे मारया मरै नांहि । शेष विस्तार ते तिमहिज कहिवो, च्यारूइं दंडक मांहि ॥ सोरठा ६३. एक जोव नैं जाण, इक वेकै तन आश्रयी । ___ एक जीव ने माण, वे बहु तनु आश्रयी॥ ६४. घणां जीव नै जोय, इक वेकै तन आश्रयी । बहु जंतू मैं सोय, बहु वेकै तनु आश्रयी ॥ ६५. नारकादिक चउवीस, इक-इक नां दंडक चिउं । कहिवा सर्व जगीस, वारू न्याय विचारियै ॥ ६६. *जेम वैक्रिय तिम आहारक पिण, तेजस कार्मण एम । एक-एक नां दंडक च्यारू', भणवा छै धर प्रेम ।। सोरठा ६७. अधोलोक रै मांहि, नरक जीव वत्तै अछ । आहारक शरीर ताहि, मनष्य लोकवर्तीपणे ॥ ६८. ते नारक मैं जास, आहारक नी क्रिया तणो । विषय नहीं छै तास, स्थान जूजुआ ते भणी ॥ ६६. आहारक आश्रयो केम, नारक – त्रिण चउ क्रिया ? तेहनों उत्तर एम, न्याय वृत्ति थी सांभलो ।। ७०. नरक पूर्वभव माय, शरीर वोसिरायो नहीं। तेणे तन निपजाय, ते परिणाम तज्यो नथी । ७१. प्रथम पूर्व जे भाव, प्रज्ञापन नय मत करी । शरीर तास कहाव, नरक जीव नों ईज इम ।। ७२. घृत काढ्यो पिण तास, कहियै घृत नों ते घड़ो । वारू न्याय विमास, धर नैगम नय नै मते ॥ ७३. तिम नारक नो जीव, पूर्व भव नी देह तस् । नारक-देह कहीव, घृत-घट नैं न्याये करी॥ ७४. मनुष्य लोक में तेह, तास हाड प्रमुख करी । आहारक तनु फशंह, तथा हुवे परितापना ।। ७५. आहारक आश्रयी एम, नारक – त्रिण चउ क्रिया । धुर त्रिहुं क्रिया तेम, ते तो अवश्य हुवै तदा ।। ६७,६८. अथ नारकस्याधोलोकवत्तित्वादाहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकत्तित्वेन तक्रियाणामविषयत्वात् । (वृ० प० ३७८) ६६. कथमाहारकशरीरमाश्रित्य नारकः स्यातिक्रियः स्याच्चतुष्क्रिय इति ? अत्रोच्यते। (वृ०प० ३७८) ७०. यावत् पूर्वशरीरमव्युत्सृष्टं जीवनिर्वतितपरिणामं न त्यजति । (वृ० प० ३७८) ७१. तावत्पूर्वभावप्रज्ञापनानयमतेन निवर्त्तकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते । (वृ० प० ३७८) ७२,७३. घृतघटन्यायेनेत्यतो नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव। (वृ० प० ३७८) ७४. तद्देशेन च मनुष्यलोकत्तिनाऽस्थ्यादिरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा। (वृ० प० ३७८) ७५. तदाहा रकदेहान्नारकस्त्रिक्रियश्चतुष्क्रियो वा भवति, कायिकीभावे इतरयोरवश्यंभावात् परितापनिकीभावे चाद्यत्रयस्यावश्यंभावादिति । (वृ०प० ३७८) ७६. एवमिहान्यदपि विषयमवगन्तव्यम्। (वृ० प० ३७८) ७६. इम इहां अवलोय, अन्य विषय पिण जाणवी । तेजस कार्मण दोय, तास न्याय निसुणो हिवै॥ *लय : रे भवियण सेवो रे साधु सयाणा श०८, उ०६, ढा० १४६ ४२५ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. तेजस कार्मण दोय, ते आश्री त्रिण चिउं क्रिया । तेहनें भय नहिं होय, पीड़ न ह तो केम कही ? ७८. तेजस कार्मण बेह, शरीर अपेक्षया करी । जीव भणी फर्शह, अथवा परितापन हुवै ।। ७९. जे ओदारिक आदि, ते आश्रितपणे करी । तेजस कार्मण लाधि. निश्चै करि ए बिहं हवै।। ८०. *जाव प्रभु ! बहु वैमानिक नैं, बहु कार्मण शरीर । ते आश्री केतली क्रिया छ ? हिव जिन उत्तर हीर ।। ७८. यच्च तैजसकार्मणशरीरापेक्षया जीवानां परितापकत्वम् । (वृ० प० ३७८) ७६. तदौदारिकाद्याश्रितत्त्वेन तयोरवसेयं । (वृ० प० ३७८) ८०. जाव (श० ८।२६८) वेमाणिया णं भंते ! कम्मगसरीरेहितो कति किरिया ? ८१. गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि। (श० ८।२६६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ८।२७०) ८१. तीन क्रिया पिण होवे तेहनें, च्यार क्रिया पिण हंत । जाव शब्द कही चरम प्रश्न ए, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ८२. अष्टम शतक नो छठो उदेशो, इकसौ छयालीसमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल । अष्टमशते षष्ठोद्देशकार्थः ॥८६॥ ढाल १४७ दहा १. षष्ठोद्देशके क्रियाव्यतिकर उक्त इति क्रियाप्रस्तावात् सप्तमोद्देशके (वृ० प० ३७६) २. प्रद्वेषक्रियानिमित्तकोऽन्ययूथिकविवादव्यतिकर उच्यते (वृ० प० ३७६) १. छट्ठा उद्देशक विषे, आख्यो क्रिया स्वरूप । क्रिया नां प्रस्ताव थी, सप्तमदेश तद्रूप ॥ २. प्रद्वेष क्रिया - हिवै, कारण जे कहिवाय । विवाद अन्यतीर्थिक तणुं, तसू विचार हिव आय ।। 'अंतेवासी वीर नां जी, प्रवर स्थविर भगवंत (ध्र पदं) ३. तिण कालै नै तिण समै जी, नगर राजगृह नाम । गणसिल वाग सुहामणो जी, ईसाणकूण रै ठाम ।। ४. जाव पृथ्वी सिलपट्ट तिहां, ते गणसिल थी हुंत । नहिं अति दूर नजीक नां, बहु अन्यतीथिका वसंत ॥ ५. तिण कालै नै तिण सम, भगवंत श्री महावीर । निज तीर्थ में धर्म नीं, आदि करण गुणधीर ॥ यावत गणसिल बाग में, समवसरया भगवान । जाव परषदा वीर नां, वच सुण गई निज स्थान ।। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे-वण्णओ गुणसिलए चेइए–वण्णओ ४. जाव पुढविसिलावट्टओ । तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति । ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आदिगरे ६. जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया। (श०८/२७१) *लय : रे भवियण सेवो रे साधु सयाणा लिय : शिव गतिगामी जीवड़ा जी ४२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. तिग काले ने तिण समे, वीर तजां बहु शीस भगवंत स्थविर सुहामणा, जाति-संपण्णा जगीस, ॥ प. पितृ पक्ष कुल संपण्णा, पंचम उद्देशे कह्या, अखिल ६ जाव आस जीवण तणी, बीजे शतके जेम । स्थविर गुण एम ॥ मरण तणो भय नांहि । अतिहि नजीक न ताहि ॥ ध्यान-कोठा र मांय । संजम तप कर आतमा, भावत विचरै प्राय ॥ ११. अन्यतीथिका ते तदा, जिहां स्थविर भगवंत । तिहां आवी स्थविरां प्रतै इहविध वाण वदंत ॥ वीर थकी अति दूर नां, १०. जानु उर्द्ध अधो सिरा, " 1 १२. हे आर्यो ! तुम्हे अछो, त्रिविध त्रिविध करि जाण । असंजती ने अविरती न किया पाप पचखान ॥ १३. जिम सप्तम शतके को द्वितीय उदेशे न्हाल | सर्व पाठ भणवा इहां, यावत एकांत बाल ॥ १४. ते थेरा तिण अवसरे, महिमागर मतिवंत । ते अन्यतीथियां प्रतै, इहविध वाण वदंत ॥ १५. किण कारण आर्यो ! अम्है, त्रिविध-त्रिविध करि न्हाल | असंजती में अविरती, यावत एकांत बाल ॥ १६. तिण अवसर अन्यतीचिका स्थविरां प्रति कठै एम अणदीधो ग्रहो छो तुम्हे, अणदियो भोगवो तेम ॥ १७. वले अनुमोदो अनदियो, अगदियो ग्रहता आम अदत्त भोगवता छता, अदत्त अनुमोदता ताम ॥ १८. त्रिविध- त्रिविध करिनें तुम्हे, असंजती इम न्हाल | त्रिविध-त्रिविध वलि अव्रती यावत एकांत बाल ॥ १९. ते पेरा तिण अवसरे, अन्यपुचिका में कहे एम किण कारण आर्यो ! अम्है, अदत्त ग्रहां धर प्रेम ? २०. अणदीधो किम भोगवां ? अदत्त अनुमोदां केम ? अणदीयो ग्रहता अम्हे, जाव अनुमोदता तेम ॥ २१. त्रिविध- त्रिविध करिनें अम्हे, असंजती कहिवाय । यावत एकांत बाल छां ? इम पूछे मुनिराय ॥ २२. तिण अवसर अन्यपूचिया स्थविर भगवंत ने ताय । वयण इसी विश्व बोलता, सांभलज्यो चित ल्याय ॥ २३. हे आये कोई तुम्ह भणी, देवा मांड्यो तास अणदी कहिये तसु, काल भित्र थी विभास ॥ , ७. तेण कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अन्तेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना ८. कुलसंपन्ना जहा बितियसए ६. जाब (सं० पा०) जीविवास मरणमयविष्यमुक्का समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते । १०. उजा अहोसिरा झाणकोट्टोवगया संगमेण तवसा बयाणं भावेमाणा विहरति । (श० ८।२७२ ) ११. तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी १२. तुमे असो तिविद्धं तिविहेषं असंख्य- विरयपहिय १३. जहा सत्तमसए बितिए उद्देसए जाव (सं० पा० ) एतबाला या विभवह । (०८२७३) १४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी १५. केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय - विरय जाव एगंतबाला (सं० पा० ) या वि भवामो ? (श० ८।२७४) १६. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीतुम्भे में अग्यो ! अदिन्नं हह, अविन्नं मुंह, १७. अदिनं सातिज्जहए णं ते तुम्भ अदिन्नं ह माणा, अदिन्नं भुंजमाणा, अदिन्नं सातिज्जमाणा १५. तिविहं तिविद्वेष अस्संजय - विश्व जाव एवंवाला या वि भवह ( श० ८।२७५) १६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेण कारणेणं अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, जाम अदिन्न सातिनामो जए णं अम्हे अदिन्नं हाणा जाव (सं० प्रा० ) अदिन्नं साति २०. ज्जमाणा २१. तिहिं तिविहे स्व-विरय-विपचना पावकम्मा जाव एगंतबाला या वि भवामो ? - ( ० ८२२७६) २२. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी २३. तुब्भण्णं अज्जो ! दिज्जमाणे अदिन्ने, श०८, उ० ७, ढा० १४७ ४२७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. दीयमानस्य वर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालबत्तित्वाद् । (वृ० प० ३८१) २५. वर्तमानातीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाहीयमानं दत्तं न भवति । (वृ० प० ३८१) २६. दत्तमेव दत्तमिति व्यपदिश्यते। (व०प० ३८१) २७. पडिगाहेज्जमाणे अपडिग्गाहिए, निस्सिरिज्जमाणे अणिसिट्ठ २८. तत्र दीयमानं दायकापेक्षया प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया (वृ० प० ३८१) २६. निसृज्यमान' क्षिप्यमाणं पात्रापेक्षयेति (वृ० प० ३८१) ३०. तुब्भणं अज्जो ! दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा ३१. केइ अवहरेज्जा गाहावइस्स णं तं, नो खलु तं तुब्भं, २४. देवा मांड्यो शब्द नै, कहिये वर्तमान काल । दीधो ए तो शब्द छै, काल अतीत निहाल ।। २५. वर्तमान जे काल थी, काल अतीत बलि ताहि । अत्यंत भिन्नपणे करी, देवा मांडयं ते दोधो नांहि ।। २६. दीधो अतीत काल में, तेहिज दीधो ताय । देवा मांडयं तेहन, अणदीधो कहिवाय ।। २७. ग्रहिवा लेवा मांडियो, अणली, कहिवाय । पात्रे मांड्यं घालवा, ते अणघाल्यु थाय ।। २८. देवा मांडयं शब्द ए, दायक नी अपेक्षाय । ग्रहिवा मांड्यं शब्द ए, ग्राहक अपेक्षा ताय ।। २६. णिसिरिज्जमाणे शब्द ए, पात्र तणी अपेक्षाय । शब्द तीनइ जजुआ, इण कारण कहिवाय ।। ३०. हे आर्यो ! कोइ तुम भणी, देवा मांड्युं तेह । तुझ पात्रे पड़ियो नथी, बिच में वर्त जेह ॥ ३१. अंतराल कोइ अपहरै, गाथापति नुं ते आहार । निश्चै करि नहिं तुम तणो, पात्रे न पड़ियो तिवार ।। ३२. अणदीधो इण कारणे, तुम्है ग्रहो छो सोय । जावत अणदीधो तुम्है, अनुमोदो छो जोय । ३३. अणदीधो ग्रहता तुम्है, जावत एकांत बाल । ए वच अन्यतीथिक तणो, अति विपरीत निहाल । ३४. ते थेरा भगवंत तदा, अन्ययुथिया ने कहै वाय । हे आर्यो ! निश्चै अम्है, अणदीधो ग्रहां नाय ।। ३५. अणदीधो नहिं भोगवां, अनुमोदा न अदत्त । हे आर्यो ! दीधो अम्है, आहार ग्रहां वच सत्त । ३६. वलि म्हैं दीधो भोगवां, दीधो अनुमोदंत । म्है दीधो ग्रहतां थकां, दीधो भोगवतां तंत ।। ३७. वलि दीधो अनमोदता, विविध-त्रिविध करि जाण । संजती व्रतधारी अम्है, पान तणां पचखाण ।। ३८. जिम सप्तम शतके कह्यो, जाव पंडित एकंत । द्वितिय उदेशा नै विषे, ते इहां पाठ कहंत ।। ३६. तिण अवसर अनउत्थिया, स्थविरां प्रति कहै एम । किण कारण आर्यो ! तुम्है, दीधो ग्रहो धर प्रेम ।। ४०. यावत अनमोदो दियो, दीधो ग्रहतां तिवार । जाव एकांत पंडित तुम्है, थावो छो अधिक उदार ।। ४१. ते थेरा भगवंत तदा, अनउत्थिया ने कहै एम । देवा लागा अम्ह भणी, ते दोधो कहां तेम ॥ ४२. ग्रहिवा मांड्यो ते ग्रह्यो, वलि पात्रा रै माय । प्रक्षेपवा मांड्या तिको, प्रक्षेप्यो कहिवाय ॥ ४२८ भगवती-जोड़ ३२. तए णं तुब्भे अदिन्नं गेहह, अदिन्न भुजह, अदिन्नं सातिज्जह। ३३. तए णं तुम्भे अदिन्नं गेण्हमाणा जाब एगंतबाला या वि भवह। (श० ८।२७७) ३४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं बयासी नो खलु अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, ३५. अदिन्नं भुजामो, अदिन्नं सातिज्जामो ! अम्हे णं अज्जो ! दिन्नं गेण्हामो, ३६. दिन्नं भुंजामो दिन्नं सातिज्जामो । तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा, दिन्नं भुजमाणा ३७. दिन्नं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजय-विरय पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा । ३८. जहा सत्तमसए जाव (सं० पा०) एगंतपंडिया या वि भवामो। (श० ८।२७८) ३६. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं बयासी केण कारणेणं अज्जो ! तुम्हे दिन्नं गेण्हह ४०. जाव दिन्नं सातिज्जह, जए णं तुम्भे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया या वि भवह ? (श० ८।२७६) ४१. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी ___-~-अम्हण्णं अज्जो ! दिज्जमाणे दिन्ने, ४२. पडिग्गाहिज्जमाणे पडिग्गाहिए, निस्सिरिज्जमाणे निसि? । Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. देवा मांड्यो अम्ह मणी, अंतराल विच वर्त्ततो, पात्र विषे पड्यो नांय । अपहरे को ले जाय ॥ ४४. आहार तिको छै अम्ह तणो, गाथापति नों नांय । इम दीधो ग्रहां छां अम्है, वलि दीधो भोगवाय ॥ ४५. वलि अनमोदा छ दियो, दीधो ग्रहतां ताम । दीघो भोगवतां चका, दियो अनुमोदतां आम ॥ ४६. विविध विविध करिने अम्हे, संजती विरती सोय । जावत एकति छ अम्हे, पंडित पिण अवलोय ॥ ४७. देवा मांड्यो अणदियो, तुझ मत लेखे न्हाल विविध-त्रिविध थे असंजती यावत एकांत बाल ॥ ४८. अन्यबू थिया कहै स्थविर में, त्रिविध-त्रिविध छो असंजती 1 , किण कारण म्हें न्हाल । यावत एकांत वाल ? ४६. ते थेरा भगवंत तदा, तुझ लेखे आर्यों! तुम्हे ५०. इम अणदीधूं भोगवो, अणदीधूं ग्रहता थकां ५१. अन्ययूबिका कहै स्थविर नं, किण कारण म्है न्हाल । अणदधू ग्रहां भोगवां, जाव एकांत बाल ।। , अन्ययुथिया ने कहै एम । अणदीधं ग्रहो तेम ॥ अदत्त अनुमोदो न्हाल । यावत एकांत बाल ॥ ५२. ते थेश भगवंत तदा अणउत्थिया ने कहै वाय हे आर्यों! अवलोकिये, तुम धद्धा रे न्याय ॥ ५३. देवा लागो तुझ भणी, अणदीधो कहो धार । तिमज जाव गृहस्थ तणो, नहि ते थांरो आहार ॥ ५४. इम तुझ लेखे इज तुम्है, अणदीधू ग्रहो न्हाल | तिमहिज पाठ सहु इहां, यावत एकांत बाल ।। ५५. अन्ययथिया कहे स्थविर नं, आर्यो! तुम्ह वलि भाल । त्रिविध- त्रिविध करि असंजती, यावत एकांत बाल ॥ २६. स्थविर कहे किण कारणे, हे आर्यों! म्हे न्हाल । विविध विविध करि असंजती यावत एकांत वाल ? ५७. अन्ययुथिया कहै स्थविर नैं, हे आर्यो ! तुम्ह देख । रीयं रीयमाणा छता, गमन करता विशेख ॥ ४३. हो ! दिव्यमाणं पडिह असंपतं, एत्थ णं अंतरा केइ अवहरेज्जा, ४४. अम्हणणं तं नो खलु तं गाहावइस्स, तए णं अम्हे दिन्नं हामी दिन्नं भुजामो 7 ४५. दिन्नं सातिज्जामो तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा, दिन्नं भुंजमाणा, दिन्नं सातिज्जमाणा ४६. तिविहं तिविहेणं संजय विरय-पडिय-पच्च वसायपावकम्मा जाव एगंतपंडिया या वि भवामो । ४७. तुब्भे णं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय विरय-पडिय-पच्चक्खायपावकम्मा एगंतबाला या वि भवह । जाव (०२०) ४८. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय विरय-पडिय-पच्चक्खायपावकम्मा एतबाला या वि भवामो ? जाव (० ०२०१) ४६. तए णं ते रा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीतुम अदिन्नं ह ५०. अदिन्नं भुजह, अदिन्नं सातिज्जह, तए णं तुब्भे अदिन्नं गेहमाणा जाव एगंतबाला या विभवह । (TO CIRER) ५१. तणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीकेण कारणेणं अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो जाव एगंतबाला या वि भवामो ? (४०८२०३ ) ५२. तए णं ते बेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीतुम्भणं अग्यो ! o , ५३. दिज्जमाणे अदिन्ने तं चैव जाव गाहावइस्स (सं० पा०) व तुमं । तं ५४. तए णं तुब्ने अदिन्नं गेण्हह जाव एगंतबाला या वि भवह । (२००२६४) ५५. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भेणं बज्यो । तिविहं तिविद्वेषं अस्संजय विरयपsि - पच्चक्खायपावकम्मा जाव एगंतबाला या वि भवह । (०८२८५) ५६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेण कारण अजो ! अम्हे तिविद्धं तिविहेणं जाय एगंतबाला या वि भवामो ? (०२०) ५७. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीतुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा 'रीयं रीयमाण' त्ति 'रीत' गमनं गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः रीयमाणाः' गच्छन्तो ( वृ० प० ३८१ ) श० ८, उ० ७, ढा० १४७ ४२६ 1 - Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ५८. पुवि ते पृथ्वी प्रतं पेच्चेह ते आक्रमंत । अभिहणह बिहु पग करि, सन्मुख करीनं हणंत ॥ ५६. वत्तेह पग करि नीचता, लेसेह भूमि संघातेह जीव ने, संघात एकत्र ६०. संघट्टेह फरसो अछो, परिताबेह पीड़ात । किलामेह ते किलामना मारणांतिक समुद्घात ॥ संत । । करत ॥ ६१. उवेह उपद्रव करो, जीव काया करो यार । पृथ्वी ऊपर चालता, हणो छो जीव अपार ॥ ६२. इम पृथ्वी आक्रमता, जाव उपद्रवता भाल | त्रिविध-त्रिविध थे असंजती यावत एकांत बाल ॥ " ६३. स्थविर भगवंत तिण अवसरे, अणउत्थिया ने कहै वाय । हे आर्यों! म्हे चालता, पृथ्वी आक्रमां नांव ॥ ६४. सन्मुख थइ हणां नहीं, यावत जीव काया न्यार । न करां पृथ्वी जंतु में एहनों नहीं आगार ॥ ६५. आय! हे मम चालता, काय आश्री सुविचार | कार्य से जे काय नां, उच्चारादिक अवधार ॥ 1 ६६. वली जोग आधी कह्यो, ग्लानादिक मुनिराय वेयावच प्रमुख तसु, व्यापार आश्री ताय ॥ ६७. ऋतं सत्य आधी बलि, अपकायादिक जीव । संरक्षण लक्षण तसु, संयम आश्री अतीव ॥ ६८. देदेसेणं वयामो, घणी भूमिका तास । जे वांछित देशे करी, गमन करां सुविमास ॥ ६९. विशेष समित थी छांड़ी सचित्त पृथ्वी देश अचित्त पृथ्वी देशे अम्हे, गमन करां सुविशेष ॥ ७०. बलि प्रदेश प्रदेशे करी, इम सचित पृथ्वी-प्रदेश ते छांड़ी चालां अम्हे, अचित्त प्रदेशे विशेष ।। ७१. देश तिको जे भूमि नों, मोटो खंड विचार । प्रदेश अति लघु खंड कह्यो, विमल न्याय अवधार ॥ ४३० भगवती - जोड़ ५८. पुढवि पेच्चेह अभिहणह 'पुवि पेह' पृथिवीमा कामत्वर्थः 'अभि' सि पादाभ्यामाभिमुख्येन व (बु० १० २०१) ५२. वत्तेह से संचाएह पादाभिघातेनैव 'वर्त्तयथ' श्लक्ष्णतां नयथ 'श्लेषयथ' भूम्यां श्लिष्टां कुरुथ 'संघातयथ' संहतां कुरुथ । ( वृ० प० ३०१ ) ६०. संघट्टेह, परितावेह, किलामेह 'सङ्घट्टयथ' स्पृशथ, 'परितापयथ' समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ, कलमयथ मारणान्तिकसमुद्धात मत्वर्थः ( वृ० प० ३८१) ६१. उद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढवि पेच्चमाणा 'उपद्रवयथ' मारयथेत्यर्थः ( वृ० प० २८१) ६२. अभिहणमाणा जाव उवेमाणा (सं० पा० ) तिविहं तिविहेणं अजय विश्य-पडियायपावकम्मा जाव एगंतबाला या विभवह । ( श० ८२८७ ) ६३. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीन खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढव पेच्चामो ६४. अभिगामी जाव उरमो ६५. अम्हे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा कार्य वा 'कार्य' शरीरं प्रतीत्योच्चारादिकायकार्यमित्यर्थः (०१० ३०१) ६६. जोयं वा 'जोगव' ति योग' ग्लानवैयावृत्यादिव्यापारं प्रतीत्य (५०१० ३०१) ६७. रियं वा प 'ऋतं सत्यं प्रतीत्य - अप्कायादिजीवसंरक्षणं संयममाश्रित्येत्यर्थः (१० १०३८१) ६८, ६६. देस देसेणं वयामो, प्रभूतायाः पृथिव्या ये विवक्षिता देशास्तव जामो नाविदोषेण । ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतनदेशपरिहारतोवेतनदेव जाम इत्यर्थः (० ० ३८१) ७०. पदेसं पदेसेणं वयामो, ७१. देशो –— भूमेर्महत्खण्डं प्रदेशस्तु — लघुतरमिति (०१०१०१) Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे गमन करता जाण । ७२. देश प्रते देशे करी प्रदेश प्रति प्रदेशे ७३. पृथ्वी नां जंतु प्रतै, " करी चालता सुविहाण ॥ नहीं आक्रमा ताहि । पकरी म्है नहीं हणां, जाव उपद्रव द्यां नांहि ॥ ७४. पृथ्वी अणआक्रमता, पगां न हणता जाव । उपद्रव अणदेता थका, नहीं हणवा रा भाव ॥ ७५. वलि एहनें हणवा तणो, नहीं आगार अत्यंत । त्रिविध त्रिविध करिने अम्हें, जाय पंडित एकंत ॥ सोरठा ७६. जयणा गुण जोगेण, अम्ह जिम तुम्ह नहि चालता । एहवा अभिप्रायेण, स्थविर कहै अन्ययुथिक प्रति ॥ ७७. पृथ्वी आक्रम आदि असंगत भावादि गुण । तेह तुम्हां में लाधि, यह विध स्थविर कहे हिये ॥ ७८. *आय! पोते इज तुम्है त्रिविध-त्रिविध करि न्हाल । असंजती नें अविरती, यावत एकांत बाल ॥ , ७९. तिग अवसर अन्यथिया स्थविर प्रते किण अर्थ आर्यों! अम्हे, यावत बाल भावंत । एकंत ? ८०. ते थे तब इम कहै, आर्यो ! तुम्ह आक्रमो पुढ़वी प्रतै, जाव उपद्रव ८१. इम पुढ़वी नै आक्रमता, जावत हणता जंत । त्रिविध- त्रिविध थे असंजती, जावत बाल एकंत ॥ चालत । हणंत ॥ , , ८२. तिण अवसर अन्यबूधिया स्थविरां प्रति कहै वाय हे आर्यो ! जे ताहरी श्रद्धा ए कहिवाय ॥ ८३. गम्यमान जातां थकां अणगया कहो छो ताम । व्यतिक्रमता ने पिण कहो, अव्यतिक्रम्या आम ॥ ८४. नगर राजगृह पामवा नीं इच्छा मारग मांहि । असंपते अणपामिया एम कहो छो ताहि ॥ ८५. स्थविर कहे आर्यो ! अम्हे, जाता यका मग मांय । निश्च न कहां अणगया, विमल बिचारी न्याय ॥ ८६. बलि व्यतिक्रमता थका, अव्यतिक्रम्या कहां नांय । इच्छा राजगृह पामवा नीं, अणपाम्या न कहाय ॥ ८७. हे आर्यो ! गमन करण म्है मांड्यो, गमन कियोज कहंत । व्यतिक्रमवा मांड्यो तिण ने व्यतिक्रम्योज वदंत ॥ लय: शिवयतिगामी जीवड़ा रे ७२. तेणं अम्हे देस देसेणं वयमाणा, पदेसं पदेसेणं वयमाणा ७३. नो पुढचेमो अभिहणामो जान उद्देमो ७४, नए अम्हे पुवि अपेमाणा अणमिणमाणा जाव अणोवेमाणा ७५. तिविहं तिविहेणं संजय - विरय-पडिय-पच्च क्खायपावकम्मा जाव एगंतपंडिया या वि भवामो ७६,७० अयोगयोगेन नास्माकमिवेषां गमनमस्तीत्यभिप्रायतः स्थविरा: यूयमेव पृथिव्याक्रमणादितोऽसंयतत्वादिगुणा इति प्रतिपादनायान्ययूथिकान् प्रत्याहुः ( वृ० प० ३८१) ७८. तुम्भेणं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय विर-पव-पच्चापावकम्मा एगंतबाला या वि भवत् । जाव ( श० ८२८८ ) ७६. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीकेण कारणे अजो ! अम्हे तिहिं तिविहे जाव एगंतबाला या वि भवामो ? (०२०) ८०. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीतुम्मे अजो री रीयमाणा पुचि पेच्नेह उद्दवेह णं १. तुम्मे पुवि पेच्चमाणा जाव उमाणा तिविहं तिविहे जाव एतबाला या विभ (श० ८२२०) ८२. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीतुम्भणं अज्जो ! ८३. गम्ममाणे अगते, वीतिक्कमिज्जमाणे अवतिक्कते ६४. रायसिंहं नगरं संपादिकामे असंपत्ते । (To Re?) एवं बवासी ८५ एषं ते बेरा भगवंती ते मोख अजो अहं गम्यमाणे अगते ८६. वीतिमिमाणे अभीतिस्ते रायसिंहं नगरं संपा विउकामे असंपत्ते ८७. म्हणं जो गम्ममा गए मीतकम बीतिक्कते, ०प, उ० ७, डा० १४७ ४३१ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते ८८. नगर राजगृह पामवा नीं, इच्छा मारग बीच । पुर संप्राप्त थया कहां म्है, वारू वचन समीच ।। ८९ हे आर्यो ! थे पोते कहो, जावा मांड्यो गयो नाय । व्यतिक्रमवा मांड्यो तिण नैं, अव्यतिक्रम्यो कहाय ।। ६०. नगर राजगृह पामवा नीं, इच्छा मारग मांहि । असंप्राप्त थया तुम्ह कहो, विन आलोच्यां ताहि ।। ६१. ते थेरा भगवंत तदा, अणयुथिया नैं भणी एम । गति-प्रवाद नामे भलो, अज्झयण परूपता तेम ।। ८६. तुब्भण्णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगते, वीतिकम्मिज्ज माणे अवीतिक्कते ९०. रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते ११. तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं पडिभणंति । पडिभणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पण्णव इंसु ।। (श० ८।२६२) सोरठा ६२. अन्ययुथियां नैं आम, प्रतिहणि जीती पाठान्तरे। गतिप्रवादज नाम, अज्झयण परूपता हुवा ।। ६३. परूपिये गति यत्र, ते गति-प्रवाद नाम है। गति विस्तारज तत्र, ते अध्येन कहिता हुवा ॥ १४. *हे प्रभुजी ! कतिविध कह्यो, गति-प्रवाद विचार ? श्री जिन भाखै सांभलो, तेहनां पांच प्रकार ॥ १५. प्रयोग-गति पिछाणिय, जोग पनर तसु जान । तत-गति ग्रामादिक विषे, पंथ गमन वर्तमान । ६६. आरंभो ए सूत्र थी, सूत्र पन्नवणा मांय । षट दशमां पद में कह्यो, जादत से तं विहाय ।। ६३. गतिः प्रोद्यते----प्ररूप्यते यत्र तद् गतिप्रवादं (वृ०प०३८१) ६४. कतिविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तं जहा६५. पयोगगई, ततगई तत्र प्रयोगस्य सत्यमनःप्रभृतिकस्य पञ्चदशविधस्य गति:---प्रवृतिः प्रयोगगतिः, 'ततगई' ति ततस्य ग्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन। (वृ० प० ३८१) ६६. एत्तो आरब्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं जाव सेत्तं विहायगई। (श० ८।२९३) इतः सूत्रादारभ्य प्रज्ञापनायां षोडशं प्रयोगपदं (वृ० ५० ३८१) ६७,६८. बंधणछेयणगई, तत्र बंधनच्छेदनगति:--बन्धनस्य कर्मणः संबंधस्य वा छेदने-अभावे गतिर्जीवस्य शरीरात शरीरस्य वा जीवाद् बन्धनच्छेदनगतिः । (वृ० प० ३८१) ६६. उववायगई उपपातगतिस्तु त्रिविधा-क्षेत्रभवनोभवभेदात् (वृ०प० ३८१) १००. तत्र नारकतिर्यग्नरदेवसिद्धानां यत् क्षेत्रे उपपातायउत्पादाय गमनं सा क्षेत्रोपपातगतिः । (वृ० प० ३८१, ३८२) ६७. बंधन-छेदन तीसरी, कर्म-बंधण जे छेद । शरीर थी जे जीव नी, गति इक समय संवेद ॥ १८. अथवा गति शरीर नीं, जीव थकी हुवो न्यार। बंधण छेदण तोसरी, ए बिहुं भेद विचार ।। ६६. चोथी गति उपपात छ, तेहनां तीन प्रकार । क्षेत्र-गती भव-गति कही, नो-भव-गति सुविचार ।। १००. नारक तिरि नर अमर नों, वलि सिद्ध-क्षेत्र आख्यात । ऊपजवा अर्थे करै, गमन क्षेत्र उपपात ॥ *लय : शिवगतिगामी जीवड़ा १. टीकाकार ने पाठान्तर का कोई उल्लेख नहीं किया है। अंगसुत्ताणि भाग २ में पडिभणंति का पाठान्तर दिया है 'पडिहणइ' । उक्त पद्य की जोड़ का आधार यही पाठ होना चाहिए। ४३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१. नरकादिक चिउं भव गति, भव नैं विषे उपपात । सिद्ध गति ने वरजी करी, क्षेत्र गति जिम स्यात ॥ १०२ नोभव गति द्विविध कही, सिद्ध पुद्गल नीं विख्यात । गमन मात्र ए गति कही, ते नोभव उपपात ।। १०३. विहाय ए गति पंचमी, तेहनां सतरै प्रकार । फुसमाणे आये करि जाव शब्द में धार ॥ आठमें सार । उदार ॥ निहाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जश' 'गल माल ॥ अष्टमशते सप्तमोद्देशकार्यः || ||७|| १०४ सेयं भंते । सेयं भंते! शतक सखर उदेशो सातमों, आख्या अर्थ १०५ इकसौ सैंतालीसमी ढाल रसाल ढाल : १४८ वहा १. सप्तमुदेशक स्थविर नां अष्टम गुरवादिक तणां प्रत्यनीक आख्यात | प्रत्यनीक दुख पात | २. नगर राजगृह नैं विषे, यावत गोतम स्वाम | भक्ति विनय करि वीर नों, इम बोलै सिर नाम ॥ *श्री वीर जिनेश्वर भार्स बारता (पद) ३. हे प्रभु ! गुरु आश्री केता कह्या, कांइ प्रत्यनीक पहिछाण ? जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, कांइ प्रतिकूल एह अयाण । ४. अर्थदाता आचार्य तेहनों, कांइ श्रुतदाय उवझाय । स्थविर ते जाति पर्याय श्रुते करि, ए त्रिविध कहिये ताय ॥ सोरठा ५. साठ वर्ष नों जात, तास कहीजे वय स्थविर | पर्याय स्थविरजख्यात, चरण लियां वर्ष बीस तसु ॥ ६. तृतीय स्थविर श्रुत जाण, ठाण अनं समवाय अंग । तसुधारक पहिछाण, स्थविर त्रिहुं ए दाखिया ॥ *लय : श्री वीर जिनेश्वर सुणजो मोरी वीनती १०१. या च नारकादीनामेव स्वभवे उपपातरूपा गतिः सा भवोपपातगतिः । ( वृ० प० ३८२ ) १०२. यच्च सिद्धपुद्गलयोर्गमनमात्रं सानोभवोपपातगतिः । ( वृ० प० ३८२) १०२. विहायग विहायोगतिस्तु स्पृशद्गत्यादिकाउनेकविधेति १०४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( वृ० प० ३०२ ) (TO KIPER) १. अनन्तरोद्देश स्वविरान् प्रत्यन्ययूथिकाः प्रत्यनीका उक्ता: अष्टमे तु गुर्वादिप्रत्यनीका उच्यन्ते । ( वृ० प० ३५२ ) २. राजिव एवं वयासी ३. गुरूणं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा४. आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, थेरपडिणीए । (TTO CIRCX) तत्राचार्यः - अर्थ व्याख्याता उपाध्याय: सूत्रदाता स्थविरस्तु जातिश्रुतपर्यायः । ( वृ० प० ३०२) ५, ६. तत्र जात्या षष्टिवर्षजातः श्रुतस्थविरः – समवायधरः पर्यायस्थविरो-वर्यायः । ( वृ० प० ३८२ ) ०८, ३०७,८, ढा० १४७, १४८ ४३३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. * प्रत्यनीक निंदक यां तीनू तणां, कांइ बोलै गुण सुण न गर्म छिद्रपेही घणो, कांइ अविनय नीं ८. 'दशाश्रुत-खंध में श्री जिन आखियो, कांइ आचार्य उवज्झाय । वियावच पूजा न करें मान थी, महामोहणी कर्म बंधाय ॥ ६. अध्येन सतरमें हो उत्तराध्येन में कांइ आचार्य उवज्झाय । हेले निर्दे श्रुत विनय दायक भणी, कांइ ते पापी साधु कहाय ॥ १०. तीजं ठाणं उदे तीसरे, कां राग अप्रीतिवंत अभक्त थी, कां ११. दशवैकालिक नवमा अध्येन में, प्रतिकूल आसातनाकारी तिको, १२. पंचम ठाउ दूसरे, कांद तेहनों अवर्णवादी अति दुख लहै, कांइ १३ आचार्य उवज्झाय ने स्थविर नों को तेहने प्रत्यनीक प्रभुजी ! इहां कह्यो, ते अवर्णवाद | असमाध ॥ २०. दोनूंद लोक ती प्रत्यनीक ते इह भव में पिण बघ बंधन लहै, गुरु-भक्ता ऊपर द्वेष । ते अविनीत विशेष || कांइ आचार्य नों जोय । कांइ अबोह - हेतु होय ॥ *लय : श्री वीर जिनेश्वर सुणजो मोरी वीनती ४३४ भगवती - जोड़ आचार्य उवझाय । दुर्लभबोधी थाय ॥ अवर्णवादी एह । नरकादिक दुख लेह ॥' १४. हे प्रभु! गति आधी देता का कांइ प्रत्यनीक पहिचान ? जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, कां गति मनुष्य गत्यादि जान ॥ १५. इह लोक प्रत्यक्ष नर पर्याय न कांइ प्रत्यनीक ए एम प्रतिकूलकारी इंद्रिय अर्थ नों, कांइ पंचाग्नि तपस्वी जेम ॥ सोरठा १६. पंचाग्नि सावंत, अग्नि आरंभ ते कर्मबंध अशुभ जोग वसंत, ते जिन आशा में नहीं ॥ १७. पिण रवि तप्त तपंत, वलि शीलादिक गुण भला । छठ अठमादिक तंत, ते करणी थी सुर हुवे || १८. ते माटै सुविमास, काम भोग इह भव तणां । प्रत्यनीक है तास, फल परभव १६. *परलोक देवादिक नां सुख तणो, वेश्यादिक काम भोग तत्पर बकी, ( ज० स० ) अल्प ते भणी ॥' (ज० स० ) कांइ प्रत्यनीक अवलोय । परलोके सुख नहि होय ।। कांइ चोरादिक कहिवाय । कांइ परभव दुरगति पाय ॥ ७. एतत् प्रत्यनीकता चैवम्--- जच्चाईहि अवन्नं भासइ वट्टइ न या वि उववाए । बहिओ छिप्पेही पवासवाई अणगुलोमो ॥ ( वृ० प० ३८२ ) ८. आयरियउवज्झायाणं सम्मं ण पडितप्पति अप्पडिपूए बढे, महामोहं पयति ( दशा० २।२५) ६. आरएहि, सुयं विषयं न गाहिए । ते व सिसई बाले, पावसमणि त्ति वृच्चाई ॥ ( उ० १७/४ ) १०. आराध्यतत्संमतेत रलक्षण ११. आयरियपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो । ( दसवेलियं | १|१० ) १२. हाजीबा दुल्लभबोधियत्ताए कम्म पकरैति आयरिय उवज्झायाणं अवण्णं वदमाणे... | ( ठाणं ५ | १३३) ( ठाणं वृ० ५० १४८) १४. गति णं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, 'गति' मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य । १५. जहा लोगपडिणीए (१० १०३८२) तस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपरिषद् इहलोकप्रत्यनीकः । ( वृ० प० ३८२ ) १६. पलोडिए परलोको जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकइन्द्रियार्थतत्परः । २०. बोलोगपडिए। ( वृ० प० ३०२ ) (०२२६) द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः ( वृ० प० ३८२) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. समूह आधी प्रभुजी ! केतला, कां आश्री जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, २२. कुल गण संघ त्रिहुं नो जे अरी, कां कुल ते गच्छ समुदाय । कुल नां समुदाय भणी जे गण कह्यो, कांइ संघ ते गण-समुदाय ॥ प्रत्यनीक कहिवाय ? कांइ समूह साधु-समुदाय ॥ सोरठा एहवो आख्यो वृत्ति में । अवर्णवादी ताय, इत्यादिक प्रतिकूलपणो ॥ तत्समूह गण आखियो । गण-समूह संघ वृत्ति में ॥ लक्षण आख्युं छे अपर । पिण भगवइ वृत्ति में ॥ संतति थी जे ऊपनां तसु कुल कह्यो समाज, ते त्रिणकुल नों एक गण ।। २३. समूह साधु समुदाय, २४. कुल चान्द्रादिक जाण, कोटिकादि पहिछाण, २५. कुलादि नो फुन तेच, सांभलज्यो धर चेत, ते २६. इक आचार्य नांज, २७. ज्ञान दर्शन चारित, गुणे विभूषित समण नों सह समुदाय पवित्त संघ कहीजे तेहने ॥ 1 २८. 'समूह साधु समुदाय, कुल गण संघ ए निकला। पण तीनूं रे मांय नहि वै श्रावक-धाविका ॥ २६. ठाणांग तोजे ठाण, तुर्य उदेशक नै विषे । समूह आधी जाण, कुल गण संघ नां अरि कह्या ॥ ३०. चांद्रादिक संवाद, कुल-समूह ने गण कह्य ं । गण ते कोटिक आद, वे त्रिण गणपति नांज शिष्य ।। ३१. घणा आचार्य नांज, सीस भणी संघ आखियो । + 1 प्रत्यनीक तज लाज, बोले अवर्णवाद तसु ॥' (ज० स० ) वा० तथा ठाणांग ठाणे पांच उदेशे एक वृत्ति में कह्यं ते कहै छे कुल ते चांद्रादिक साधु समुदाय विशेष रूप प्रसिद्ध गण ते कुल नुं समुदाय, संघ ते गण नुं समुदाय । तथा उववाई नी वृत्ति में कह्यं – कुल ते गच्छ नुं समुदाय, गण ते कुल नुं समुदाय, संघ ते गण नुं समुदाय तथा प्रश्नव्याकरण अ० १० वृत्ति में कह्यं – कुल ते गच्छ नुं समुदाय चंद्रादिक, गण ते कुल नुं समुदाय को टिकादिक, संघ ते गण नुं समुदाय रूप । इम अनेक ठामें कुल गण संघ ए तीन शब्द आवे । तिहां संघ नाम घणां साधां नां समुदाय ने कह्यं, पिण श्रावक नैं न कह्यं । प्रत्यनीक जे दीस ? जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, तपस्वी गिलाण सीस ॥ ३२. *अनुकंपा आधी प्रभुजी ! केसला *लय : श्री वीर जिनेश्वर सुणजो मोरी वीनती २१. समूहणं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा'समूह' साधुसमुदाय प्रतीत्य ( वृ० प० ३८२) २२. कुलपडिणी, गणपडिणीए, संघपडिणीए । (०२१७) २२. ० ० ० ३८२) २४. तत्र कुलं चाद्रादिकं तत्समूहों मगः:कोटिकादिस्तत्समूहः संघः ( वृ० प० ३८२ ) २५. कुमादिलक्षणं वेदम् ( वृ० प० १०२ ) २६. एत्थ कुलं विन्नेयं एगायरियस्स संतई जाउ । तिह कुलाण मिहोपुसावेक्खाणं गणो होइ ।। ( वृ० प० ३८२ ) २७. सोसणचरणगुगविहूसियाणसमणाणं । समुदाओ पुण संघो गणसमुदाओत्ति काऊणं ॥ ( वृ० प० ३०२ ) २६. समूहं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा -कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए । (ठाणं २०४६०) ( ठाणं वृ० प० २८९ ) ( औपपातिक वृ० प० ८१ ) ( प्रश्नव्याकरण वृ० प० १२६ ) ३२. अणुकंपं पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - तवस्सि - पडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए । (TTO FIRES) ०८, ३०८, ढा० १४८ ४३५ " Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३३. ए तीनं नी जोय, अनकंपा करवी अछै । ३३. अनुकम्पा–भक्तपानादिभिरुपष्टम्भस्तां प्रतीत्य । उपष्टंभ अवलोय, भात पाणी प्रमख करी ।। (वृ० प० ३८२) ३४. न करै तेहनी सार, अन्य पास नहिं कारवै । ते प्रत्यनीक विचार, उपष्टंभ न दिये तसु ।। ३५. *हे प्रभ ! श्रत आश्री केतला, कांइ प्रत्यनीक पहिछाण ? ३५. सुयण्णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता? जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, कांइ सूत्र अर्थ बिहुं जाण ॥ गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-सुत्त पडिणीए, अत्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए । सोरठा (श० ८।२६६) ३६. सूत्र पाठ सुविचार, अर्थ पाठ नों अर्थ ते । ३७-३६. काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पउभय बिहुँ अवधार, ए त्रिहं में दूषण कहै ।। माया य । ३७. पृथव्यादिक षट काय, षट व्रत अहिंसा प्रमुख । । मोक्खाहिगारियाणं, जोइस जोणीहिं किं कज्ज ।। जुदा कह्या किण न्याय ? छहुं काय धुर व्रत में ॥ इत्यादि दूषणोद्भावनं (वृ० प० ३८३) ३८. फुन प्रमाद नां स्थान, कूर्मादिक जे योनि छ । ज्योतिषि-चक्र पिछान, सूत्रे स्यूं अर्थे कह्य॥ ३६. शिव मग साधक ताय, ज्योतिषि चक्रर योनिन । स्यूं प्रयोजने कहाय ? इत्यादिक दूषण कहै ॥ ४०. *हे प्रभ ! भाव पडुच्च केता कह्या, काइ प्रत्यनीक प्रस्ताव ? ४०. भावण्णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ? जिन कहै तीन प्रकार परूपिया, कांइ शुद्ध जीव पर्याय सुभाव ॥ गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा४१. प्रत्यनीक ज्ञान दर्शन चारित्र तणो, कांइ करै परूपणा विपरीत । ४१. नाणपडिणीए, सणपडिणीए, चरित्तपडिणीए । अथवा ज्ञानादिक में दूषण कहै, कांइ बोल वचन अनीत ।। (श० ८।३००) भावान् ज्ञानादीन् प्रति प्रत्यनीकः तेषां वितथप्ररूपणतो सोरठा दूषणतो वा (वृ० प० ३८३) ४२. प्राकृत भाषा मांहि, मंद-बुद्धि सूतर रच्या । ४२. पाययसुत्तनिबद्ध को वा जाणइ पणीय केणेयं । अवगुण बोले ताहि, ज्ञान तणो प्रत्यनीक ते॥ (वृ० ५० ३८३) ४३. दान बिना स्यूं होय, सम्यक्त ने चारित्र थकी? ४३. किं वा चरणेणं तु दाणेण विणा उ हवइ त्ति । प्रत्यनीक ते जोय, दर्शन चरण तणां तिके। . (वृ० प० ३८३) ४४. 'आख्यो ए देश अठ्यासी अंक नो, कांइ इक सौ अड़ताली ढाल । भिक्ख भारीमाल मषिराय थी, कांइ 'जय-जश' मंगलमाल ।। *लय : श्री वीर जिनेश्वर सुणजो मोरी वीनती ४३६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १४६ १. ते प्रत्यनीकपणां प्रतै, अणकरिव करि तेह । उद्यमवंत थया तिके, शुद्ध योग्य छै जेह ।। २. ते ह्व शुद्ध व्यवहार थी, ते माटे व्यवहार । परूवणा ने काज हिव, कहिये अर्थ उदार ।। ३. जो व्यवहरण मुमुक्षु नों, प्रवृत्ति-निवृत्ति-रूप । तेहनों नाम कह्यो इहां, वर व्यवहार अनूप ॥ ४. तेहनो कारण ज्ञान जे, ते पिण छै व्यवहार । गोयम गणहर तेहनी, पूछा करै उदार ।। *श्री जिनराज तणां वच सरध्यां, जीव आराधक थावै । जीव आराधक थावे म्है वारी जाऊं । जन्म मरण मिट जावै, सम्यक्त दृढ़ चित्त भावै॥ हलकर्मी चित्त ल्यावै ।(ध्र पदं) ५. हे भगवंत ! व्यवहार केतला? जिन कहै पंच प्रकारं । आगम श्रत न आण धारणा, पंचम जीत उदारं ।। १. एते च प्रत्य नीका अपुनःकरणेनाभ्युत्थिताः शुद्धिमर्हन्ति । (वृ०प० ३८३) २. शुद्धिश्च व्यवहारादिति व्यवहारप्ररूपणायाह (वृ० प० ३८३) ३. व्यवहरणं व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः । (वृ० प० ३८४) ४. इह तु तन्निबन्धनत्त्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहारः । (वृ० प० ३८४) ५. कतिविहे गं भंते ! ववहारे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे, सुतं, आणा, धारणा, जीए। ६. केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः । (वृ० प० ३८४) ७. श्रुतं-शेषमाचारप्रकल्पादि। (वृ० ५० ३८४) ६. केवल मनपज्जव नैं अवधिधर, चउद पूर्व दस सारं । नव पूर्वधर ए षट-विध है, धुर आगम व्यवहारं ।। ७. आचार कल्प ते नशीत जघन्य, तास जाण सुविचारं । ___आठ पूर्वधर उत्कृष्ट कहिय, बीजो श्रत व्यवहारं ।। ८. नव दश प्रमख पूर्व श्रुत में छै, पिण अर्थ अतींद्रिय जेहो । तेहनै विषे विशिष्ट ज्ञान नों, हेतुपण करि एहो । है. अतिशय सहितपणे करि तेहने, आगम माहै आण्यो । केवलवत ए भेद आगम नां, इम वृत्तिकार वखाण्यो । १०. देशांतर जे रह्या गीतार्थ, तेहनै पासे तामो। जेह अगीतार्थ साधु नैं, मूकी ने तिण ठामो॥ ११. गूढ अर्थ पद करि दोषण नों, प्रायश्चित पूछावै । तास कहण थी दियै प्रायश्चित, आज्ञा तृतीय कहावै॥ १२. चोथो जे व्यवहार धारणा, गीतारथ वैरागी । द्रव्यादिक अपेक्षा किण में, दियो प्रायश्चित सागी। १३. ते दंडधारी ने कोइ मनिवर, तिणहिज विध पहिछाणी । __ अन्य संत ने प्रायश्चित देवै, तेह धारणा जाणी।। १४. अथवा वैयावच नों कारक, प्रायश्चित नहिं जाणे । तसु गण देखी ने आचारज, प्रसन्न हरष अति आण। *लय: पारस देव तुम्हारा दरसण ८. नवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन । (वृ०प०३८४) .. ६. सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति । (वृ० प० ३८४) १०,११. तथाऽज्ञा–यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तर स्थगीतार्थनिवेदनायातीचारालोचन इतरस्यापि तथैव शुद्धिदानं । __ (वृ० प० ३८४) १२. धारणा-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे , यथा या विशुद्धिः कृता। (वृ० प० ३८४) १३. तामवधार्य यदगुप्तमेवालोचनदानतस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते इति । (व० प० ३८४) १४. वैयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितस्य । (वृ० प० ३८४) श० ८, उ० ८, ढा० १४६ ४३७ Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. प्रायश्चित्तपदानां प्रशितानां धरणमिति । (वृ० प० ३८४) १६,१७. जीत द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवानुवृत्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत् प्रायश्चित्तदानं । __ (वृ० प० ३८४) १५. प्रायश्चित पद किता ऊधरी, तेहने आप धरावै । ते धारी दंड दिये अन्य ने, ते धारणा कहावै ।। १६. प्रवर जीत व्यवहार पंचमो, द्रव्य क्षेत्र काल भावो । दोषण सेवणहार तणुं वलि, देख संघयण सहावो ।। १७. द्रव्य क्षेत्र काल भाव संघयण, धीरज हाणि अवधारं । तास निभै तेहवो दंड देव, तेह जीत व्यवहारं ।। १८. अथवा जे किणहि गछ माहै, कारण विषयज भाव्यं । सूत्र थकी अधिको प्रायश्चित, आचार्ये प्रवर्ताव्युं । १६. वलतुं ते गच्छ मांहि परंपर, तेहिज दंड देवाई। ते पिण जीत व्यवहार वखाण्यो, वृत्तौ एम कहाई॥ १८,१६. यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्राय श्चित्तव्यवहारः प्रतितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तित इति । (वृ०प० ३८४) सोरठा २०. ठाणांग पंचम ठाण, द्वितीय उद्देशक नै विषे । पंच व्यवहार पिछाण, तास वृत्ति में इम कह्य ॥ २१. जे बहुश्रुत बहु वार, प्रवो वो नथी । वत्त वा लार, कार्य ह ए जीत करि॥ २०. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा—आगमे, सुते, आणा, धारणा, जीते। (ठाणं ५।१२४) २१. बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो नो निवारिओ होइ । __वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं हवइ एयं ॥ (ठाणं वृ० प० ३०७) २२. जं जस्स उ पच्छित्तं आयरिअपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविहीया एसो खलु जीयकप्पो उ ।। (ठाणं वृ० प० ३०७) २२. तथा आचार्य शुद्ध, परंपराए करि तिको । दिये दंड अविरुद्ध, जीत कल्प ए छै वली ।। २३. आचरियो सुविचार, सावज्ज रहित किणे किहां । अन्य गणपति अनिवार, बहु अणुमत ए आचरित ।। २४. *केवल अवधि अनै मनपर्यव, प्रत्यक्ष आगम जाणी । चउद पूर्व दश नव पूरवधर, परोक्ष आगम माणी ॥ २५. प्रत्यक्ष आगम सरिसो कहिये, परोक्ष आगम सोय । चंद्रमखी ते चंद्र जिसो मुख, तिम ए पिण अवलोय ॥ २६. यथा प्रकार करीनै तेहनें, पांच में पहिछाणं । आगम जे व्यवहार हुवै जद, तेहिज स्थापै जाणं ।। २७. आगम व्यवहारे आगम करि, तास प्रवृत्ति सूचीनं । अन्य श्रतादि चिउं न प्रवत्तँ, तेहथी ए अतिहीनं ।। २८. रवि प्रकाश थकी नहिं अधिको, दीप तणो सूप्रकाशं । रवि थी दीप प्रकाश हीन छ, तिम इहां पिण सुविमासं ।। २६. जो आगम व्यवहार न लाभ, हुवै श्रत सुखकारं । तो श्रत करि व्यवहार प्रवत्तै, तेहिज थापवं सारं ।। ३०. जो व्यवहार श्रत नहिं लाभ, ह त्यां आण उदारं । तो आज्ञा करि व्यवहार प्रवत्र्ते, तेहिज स्थापवू सारं ।। ३१. जो आज्ञा व्यवहार न लाभ, हुवै धारणा जेह । तो व्यवहार धारणा करिने, प्रवर्त्तवं गणगेह ।। २६,२७. जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। २६. णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा। ३०. णो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेज्जा। ३१. णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा। *लय : पारस देव तुम्हारा वरसण ४३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३२. जो व्यवहार धारणा नह्न हुवै जीत सुखकारं । तो जीत की व्यवहार प्रवर्ते अतीत वा नवो उदारं ॥ ३३. ए पांच प्रकार करिनैं स्थाप ए व्यवहारं । आगम श्रुत आज्ञा नें धारणा, जीत गणिकृत सारं ॥ सोरठा । २४. सामान्य करिके एह नियमन पूर्वे आखियो । जिम-जिम इत्यादेह, विशेष करि निगमन हिवे ।। ३५. *जिम जिम वे आगम श्रुत आशा, बलि धारणा जीवं । तिम तिम ते व्यवहार प्रते मुनि, स्वाएं अधिक पुनीतं ॥ सोरठा ३६. ए पांचू करि पेख, प्रवत्तं ते पुरुष ने। प्रश्न द्वार करि देख फल कहिये ते सांभली ॥ २७. *जय हे प्रभु! आगमबलिया, केवली प्रमुखज सोई । ए आगम व्यवहारवंत ते स्यूं आसे अवलोई ? ३५. ए व्यवहार पंचविध ते मुनि, जे जे काले जानं । जहिं जहि जे जे क्षेत्रे फुन, वलि प्रयोजने पिछानं ॥ सोरठा ३६. जे जे काले जोग, प्रयोजने क्षेत्रे वलि । जे जे उचित प्रयोग, ए रह्यो शेष वन इम वृत्ती ॥ ४०. तदा तदा ते ते काले मुनि अवसर विषे उदारं । हि तहिं ते ते क्षेत्रे फुन, वलि प्रयोजने विचारं ॥ सोरठा ४१. अद्धा क्षेत्र विषेह, तेह जोग व्यवहार प्रवर्त्ते गणगेह, ते व्यवहार व्यवहार छै सर्वाशंसारहित ४२. अनिश्रितोपासूत्य, ते मुनि अंगीकृत्य प्रायश्चित्तादिक तिको । 1 प्रति । हवं ? जे । मुनि । ४३ अथवा निथित सीस, उपाचित तेहिज पक्षपात रहितपणें ॥ व्यावच करें जगीस, तसु ४४. अथवा निथित राग, उपाधित ते द्वेष ए बिहं रहित सुमाग, प्रायश्चित्तादिक *लय : पारस देव तुम्हारा दरसण । कुन प्रवृत्ति ॥ ३२. णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएवं वबहार पटुवे ३३. इच्चे एहिं पंचहि ववहारं पट्टवेज्जा, तं जहा- आगमेणं सुएणं, आणाए, धारणाए, जीएणं । ३४. 'इच्एहिं इत्यादि नियमनं सामान्येन जहा जहा से इत्यादि तु विशेषनिगमनमिति । ( वृ० प० २८५) ३५. जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेज्जा । ३६. एतैर्व्यवहर्तुः फलं प्रश्नद्वारेणाह : - ( वृ० प० ३८५) ३७. से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा निम्गंथा ? ३८. इच्चेतं पंचविहं ववहारं जदा जदा जहिं जहि । ३६. यदा यदा यस्मिन् यस्मिन् अवसरे यत्र यत्र प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तमिति शेषः । ( वृ० प० ३८५ ) ४०. तदा तदा तहिं तहि तदा तदा काले तस्मिन् तस्मिन् प्रयोजनायो। ४२. अणिस्सिओस्सितं ४३. अथवा अनिश्रितैः सारहितै रुपाधितः अङ्गीकृतोऽनि पितातिस्तम्। (१० १० २८५) निश्रितश्च -- शिष्यत्वादि प्रतिपन्नः उपाश्रितश्च स एव वैयावृत्त्यादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ । (१० प० ३८५) ४४. अथवा निश्रितं रागः उपाश्रितं च-द्वेषस्ते । ( वृ० प० २०५) ( वृ० प० ३८५ ) - श०८, उ०प, ढा० १४६ ४३६ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. अथवा निथित जोय, आहारादिक मुझ आपस्यै । उपाश्रित शिष्य सोय, महाकुलवंतादिक अछै ।। ४६. इम पक्षपात रहीत, प्रायश्चित्तादि प्रवर्त्ततो । श्रमण निग्रंथ पुनीत, आण आराधक ते हुवै ॥ ४७. इहविध प्रश्न सुजोय, प्रश्न द्वार फल पूछियां । गरु कहै हंता होय, गम्यमान गुरु वच इहां ॥ वा०--हे भगवंत ! जे आगमवलिया श्रमण निग्रंथ केवली आदि ते इम कहै छै के ए पांच व्यवहार सम्यक् व्यवहरवा थकी आज्ञा नां आराधक थाय ? पाठ में तो इम प्रश्न रूपज छै । तिवारे गुरु-हता हां इम कहै छै । ए उत्तर गम्यमान छ । ४८. अन्य आचार्य ख्यात, आगमबलिया जिन प्रमुख । श्रमण निग्रंथ विख्यात, हे भदंत ! फल स्यूं कहै ।। ४६. कह्या पंच व्यवहार, स्यूं फल तसु ए शेष वच । इम पूछ सुविचार, आगल गुरु उत्तर दिये ।। ५०. इच्चेयं इत्यादि, प्रवर पंच व्यवहार प्रति । जे जे अवसर लाधि, जे जे क्षेत्र प्रयोजने ।। ५१. ते ते काल उचित्त, ते ते क्षेत्र प्रयोजने । अनिश्रित उपाश्रित्त, सम्यक प्रवर्ततो अछ ।। ५२. श्रमण तपी निग्रंथ, आण-आराधक ते हुवै । ए गुरु उत्तर तंत, अन्य आचार्य इम कहै । ५३. *वलि व्यवहार तणी टीका में, धुर च्यारू व्यवहारं । तीर्थ अंत तांई नहि रहिसी, जीत तीर्थ लग सारं ।। ५४. अंक अठ्यासी देश ढाल ए, एक सौ नवचालीसं । भिक्ख भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय' सूख विस्वावीसं ॥ ४५. अथवा निश्रितं च-आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा। (वृ० प० ३८५) ४६. सम्म ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ। (श० ८।३०१) सर्वथा पक्षपातरहितत्वेन यथावदित्यर्थः । (वृ० प० ३८५) वा०-आज्ञाया-जिनोपदेशस्याराधको भवतीति, हंत ! आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति । (वृ०प० ३८५) ४८. अन्ये तु से किमाहु भंते ! इत्याद्येवं व्याख्यान्ति अथ किमाहुर्भदन्त ! आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः ! पञ्चविधव्यवहारस्य फलमिति शेषः अत्रोत्तरमाह'इच्चेय' मित्यादि (वृ० ५० ३८५) ५३. सुत्तमणागयविसयं......"होहिंति न आइल्ला जा तित्थं ताव जीतो उ॥ आद्याश्चत्वारो व्यवहारा न यावत्तीर्थे च भविष्यन्ति जीतस्तु व्यवहारो यावत्तीर्थं तावद् भवितेति । (व्यव० भाष्य भाग १० १० १०) ढाल : १५० दूहा १. आण आराधकनांज फल, अशुभ क्षये शुभ बंध । ते माट हिव बंध नों, कहं निरूपण संध ।। २. द्रव्य बंध निगडादि नों, इहां न ते अधिकार । कर्म बंध जे भाव थी, कहियै ते विस्तार ॥ ३. कतिविध बंध कह्यो प्रभु ! जिन कहै द्विविध ताय । इरियावहि शुभ वेदनी, शुभाशुभ संपराय ॥ *लय : पारस देव तुम्हारा दरसण १. आज्ञाराधकश्च कर्म क्षपयति शुभं वा तद् बध्नातीति बन्धं निरूपयन्नाह (वृ० प० ३८५) २. द्रव्यतो निगडादिबन्धो भावतः कर्मबन्धः, इह च प्रक्रमात् कर्मबन्धोऽधिकृतः। (वृ०प० ३८५) ३. कतिविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-इरियावहियबंधे य, संपराइयबंधे य । (श० ८।३०२) ४४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. 'ग्यारम बारम तेरमें, केवल जोग निमित्त । इरियावहि नों बंध त्यां, एह कषाय रहित्त ।। ५. संपराय नो बंध जे, दशमां गुण लग होय । एह कषाय सहित नैं, शुभाशुभ अवलोय । ६. द्विविध सातावेदनी, इरियावहि संपराय । पन्नवणा पद तेवीसमें, प्रगट पाठ रै माय ।। ७. अनायुक्त गमनादिके, संपराय बंधाय । सप्तम शतक उदेश धुर, एह पाप-संपराय ।। ८. संपराय सकषाय नैं, इरियावहि अकषाय । सप्तम शतक उदेश धर, सप्तमद्देशक मांय ।। है. संपराय सकषाय नैं, इरियावहि अकषाय । दशम शतक वलि भगवती, द्वितीय उदेशक मांय ।। ४. ऐपिथिक-केवलयोगप्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धः स तथा। (वृ० प० ३८५) ५. साम्परायिकबन्धः कषायप्रत्यय इत्यर्थः । (वृ० प० ३८५) ६. सातावेदणिज्जस्स जहा ओहिया ठिती भणिया तहेव भाणियन्व। इरियावहियबंधयं पडुच्च संपराइयबंधयं (पण्णवणा २३।१७६) ७. अणगारस्स भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा. गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ। (भ० ७।२०) ....जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति""तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ । (भ० ७।२१) ६. ..."जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं इरियावहिया-किरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ। (भ० १०।१४) १०. ... एयंसि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिज्झिसु बुझिसु मुच्चिसु परिणिव्वाइंसु सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा । (सूयगडो २।८०) ११. ... अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो""तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ॥ (भ० १८।१५६) १२. जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ । (भ० ७.१२६) १३. पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? ..."जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्म बंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं.... (उत्तर० २६७१) १०. इरियावहिइं वर्त्ततां, सीज्झ्या सोझ ताय । काल अनागत सीज्झस्य, द्वितीय सूयगडांग मांय ।। ११. शुध उपयोगे चालतां, कूकूड पोत चंपाय । शतक अठारम आठमें, इरियावहि बंधाय ।। १२. तिहां सातमां शतक नों, सप्तमदेश भलाय । वीतराग ए बे भणी, उपशम-क्षीण कषाय ॥ १३. इरियावहि नो शुभ फरस, स्थिति बे समय सुसंध । उत्तराध्येन गणतीसमें, वीतराग रै बंध ॥ १४. ते माटै इरियावहि, सातावेदनी जाण । संपराय शुभ अशुभ है, समय न्याय पहिछाण ॥' (ज० स०) *वारी जाऊं रे जिन वचनां तणी ।(ध्र पदं) १५. इरियावहि कर्म हे प्रभु ! नरक तिर्यंच तिर्यंचणी बांधे जी? के मनुष्य मनुष्यणी नै बंधे, देवता देवी सांधे जी? १५. इरियावहियं णं भंते ! कम्मं किं नेरइओ बंधइ ? तिरिक्खजोणिओ बंधइ ? तिरिक्खजोणिणी बंधइ ? मणुस्सो बंधइ ? मणुस्सी बंधइ ? देवो बंधइ देवी बंधइ ? १६. गोयमा ! नो नेरइओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, नो देवो बंधइ, नो देवी बंधइ १६. जिन भाखै न बांधै नेरइयो, तिर्यंच बांधे नांही । तिर्यंचणी बांधे नहीं, देव देवी न बांधे ज्याही ॥ *लय : राम सोही लेवै सीता तणी थ०८,०८, डा० १५० ४४१ Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. पूर्व काल विषे रह्या, इरियावहि पणो जाणी । बंध द्वितीयादि समयवर्त्ती, बहु मनुष्य मनुष्यणी पिछाणी ॥ सोरठा १८. पूर्व प्रतिपन्न जेह, ते आश्री ए सदा केवली तेह, इरियावहि बंधक १६. घणां केवली मांहि, बहु मनुष्य बहु ए बेहुं पद ताहि, बहु वचने करिनें वचन है । घणां ॥ मनुष्यणी । कह्या ॥ २०. * पडिवजणहार आसरी, वर्त्तमान ए इरियावहि कर्म बंधनों, पढम समयवर्ती कालो । न्हालो । ॥ २१. तास विरह संभव थकी, किणहि वेला नर एको । किणहि वेला इक स्त्री हुवे, किणहि वेला बहु पेखो || सोरठा २२. कदा मनुष्य इक होय, तथा कदा इक तथा मनुष्य बहू जोय, तथा कदा बहु २३. इक संयोग सधीक, ए चिउं भांगा आखिया । हिव द्विक संयोगीक, चिउं भांगा कहिये अछे ॥ मनुष्यणी । मनुध्वणी ॥ २४. इक वचने नर एक वलि इक वचने मनुष्यणी । आखियो ॥ मनुष्यणी । प्रथम भंग ए पेख, द्विक्संयोगिक २५. अथवा नर इक जान, बहु वचने करि द्वितीय भंग पहिछाण, इरियावहि बंधक हुवै ॥ २६. अथवा बहु नर जोय, इक वचने इक मनुष्यी । तृतीय मंग ए होय, इरियावहि बंधकपणें ॥ २७. तथा मनुष्य बहु होय, बहु वचने यहु मनुष्यणी । तुर्य भंग अवलोय, द्विक्संयोगिक नौ को ॥ २८. संयोगिक प्यार, द्विक्संयोगिक पिण चिउँ । पडिवजमाण पडुच्च ए ॥ कला मनुष्य ने मनुष्यणी । हिव स्त्री पुरुष प्रमुख कहै || इरियावहि बंध घार, २६. लिंग अपेक्षा एह, वेद अपेक्षा जेह, , ३०. * इरियावहि बंधक प्रभु ! स्यूं इक स्त्री वेद बांधे ? इक पुं वेद बांधे अछे एक नपुंसक ३१. ए हिंद इक बच कला, बहु बहु पुं वेद बांधे अछे के बहु सांधे ? स्त्री वेद बांधे ? नपुंसक सांधे ? *लय : राम सोही लेवे सीता तणी ४४२ भगवती-जोड़ १७. पुव्व पडिवन्नए पडुच्च मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति । पूर्वं प्राक्काले प्रतिपन्नमर्या पथिकबन्धकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपन्न कास्तान्, तद्बन्धकत्वद्वितीयादिसमयवत्तिन इत्यर्थः । ( वृ० १०३८५) १८,१९. ते च सदैव बहवः पुरुषाः स्त्रियश्च सन्ति उभयेषां केवलिनां सदैव भावात् ( वृ० प० ३०५ ) २०. पडिवज्जमाणए पडुच्च प्रतिपद्यमानकान् ऐयपथिककम्वन्धनप्रथमसमय ( वृ० प० ३८५) २१. एषां सम्भवाद् ( वृ० प० ३८५) मस्सो वा बंद, मणुल्सी वा बंध, मणुस्सा वा वंत, मसीओ वा बंधति वत्तिन इत्यर्थः । २२, २३. एकदा मनुष्यस्य बहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः चत्वारः स्त्रियाश्चैकैकयोगे एकत्वद्विक्संयोगे तय ( वृ० प० ३८५ ) २४. अहवा मस्सो व मस्सी व बंध २४. अहवा मणुसो व मगुस्थीवो व बंधति २६. अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधति २७. अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधति । (श० ८१३०३) २२. एषां पुंस्त्वादि तत्तत्विक्षया न तु वेदापेक्षया अथ वेदास्त्रीत्वादधिकृत्याह ( वृ० प० ३८६ ) ३०. तं भंते ! कि इत्थी बंधइ ? पुरिसो बंधइ ? नपुंगो बंध? ३१. इत्थीओ बंधति ? पुरिसा बंधंति ? नपुंसगा बंधंति ? Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. नौइत्थी नोपुरिसो नो नपुंसगो बंधइ ? ३२. ए त्रिहु पद बहु बच कह्या, के तीनूइ वेद-रहीतो। तेह अवेदी बांधै अछ, इरियावहि सुवदीतो? ३३. जिन कहै स्त्री बांधै नहीं, इक पुं वेद न बांधै । जाव नो बहु नपुंसगा, ए षट पद बंध न सांधे । ३३. गोयमा ! नो इत्थी बंधइ, नो पुरिसो बंधइ, जाव (सं० पा०) नो नपुंसगा बंधंति । उत्तरे तु षण्णां पदानां निषेधः। (वृ० प० ३८६) ३४. पुव्वपडिवन्नए पडुच्च अवगयवेदा बंधंति ३४. पूर्वकाल विष रह्या, इरियावहि बंधकपणो जाणी। द्वितीयादि समयवर्ती तिके, बहु अपगतवेदा पिछाणी ॥ ३५. इरियावहि कर्म बंधकपणां ने जाणिय, बे त्रिण प्रमुख समय थयां तेह पिछाणियै । पूर्व प्रतिपन्न होय सदा बहु केवली, वेद रहित इहां वीतराग मुनि रंगरली ।। ३६. वेद रहित नवमें दशमें गणठाण ही, पिण इरियावहि बंध तास नवि जाण ही । इरियावहि बंध क्षीण-कषाई नैं कह्यो, तिण सूवेद रहित ए अकषाई ग्रह्यो। ३७. *पडिवजणहार आसरी, वर्तमान ए कालो । इरियावहि कर्म बंध नों, पढम समयवर्ती न्हालो ।। ३८. तास विरह संभव थकी, वेद रहित एक बांधे । तथा अवेदी बांध बहु, ए बे विकल्प सांधे ।। ३७,३८. पडिवज्जमाणए पडुच्च अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा वा बंधति (श० ८।३०४) प्रतिपद्यमानकानां तु सामयिकत्वाद् विरहभावेनैकादिसभ्भवाद्, विकल्पद्वयमत एवाह (वृ० प० ३८६) ३६, ४०. जइ भंते ! अवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा बंधति तं भंते ! कि इत्थीपच्छाकडो बंधइ ? ४१. स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं-भूतता नीतं येनावेदकेनासी स्त्री पश्चात्कृतः, एवमन्यान्यपि । (वृ० ५० ३८६.) ४२. पुरिसपच्छाकडो बंधइ ? नपुंसकपच्छाकडो बंधइ ? ३९. जो एक अवेदी बांधे प्रभ ! तथा घणां अवेदी बांधे । एक बहु वचने करी, ए बे विकल्प सांधै। ४०. जो एक अवेदी बांधे प्रभु ! तथा घणां अवेदी बांधै । तो स्य प्रभु ! इक स्त्री पच्छाकडो, इरियावहि बंध सांधै ? सोरठा ४१. स्त्री वेदे वर्तेह, थयो अवेदो श्रेणि चढ । स्त्री-पच्छाकड जेह, इमज अनेरा वेद पिण ।। ४२. *कै इक पुरुष-पच्छाकडो, इरियावहि बांधतो ? एक नपुंसक-पच्छाकडो, ए त्रिहुं इक वच हुतो ? ४३. कै बहु स्त्री-पच्छाकडा, बहु पुं-पच्छाकडा बांधै ? बहु नपुंसक-पच्छाकडा, इरियावहि बंध सांधे ? सोरठा ४४. इकसंयोगिक एह, इक वच बहु वच भंग षट । हिव द्विकसंयोगेह, कहियै द्वादश भंगका ।। लिय : नदी जमुना रै तीर उड़े *लय : राम सोही लेवै सीता तणी ४३. इत्थीपच्छाकडा बंधंति ? पुरिसपच्छाकडा बंधंति ? नपुंसगपच्छाकडा बंधंति ? ४४. इहैककयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां षड्विकल्पा: द्विक्योगे तु तथैव द्वादश । (वृ०प० ३८६) श० ८, उ० ८, ढा० १५० ४४३ Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. उदाहु इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ४६. अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडा य बंधति ४७. अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ४८. अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य बंधति ४६. अहवा इत्थीपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ५०. अहवा इत्थीपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ४५. *अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरुष-पच्छाकडो एको । इरियावहि बांधै अछ, प्रथम भंग ए पेखो।। ४६. अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, बहु पुरुष-पच्छाकडा जाणी। इरियावहि बांधै अछ, द्वितीय भंग ए ठाणी ॥ ४७. अथवा बहु स्त्री-पच्छाकडा, पुरुष-पच्छाकडो एको । इरियावहि बांधे अछ, तृतीय भंग सुविशेखो। ४८. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, बहु पुरुष-पच्छाकडा जेहो । इरियावहि बांधै अछ, तुर्य भंग छै एहो । ४६ अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, एक नपुंसक ताह्यो । पच्छाकडो बांधै अछ, ए पंचम भंग कहायो । ५०. अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, बहु नपुंसक वेदो । पच्छाकडो बांधे अछै? ए भंग छट्टो भेदो। ५१. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, एक नपुंसक जोयो । पच्छाकडो बांधे अछै? सप्तम भंगे सोयो । ५२. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, बहु नपंसक जाणी । पच्छाकडा बांध अछै ? अष्टम भंगे पिछाणी ॥ ५३. अथवा इक पुं-पच्छाकडो, एक नपुंसक भालो । पच्छाकडो बांधे अछ? नवमें भंगे न्हालो ।। ५४. अथवा इक पुं-पच्छाकडो, बहु नपुंसक मंतो । पच्छाकडा बांधै अछै? दसमों भंग दीपंतो॥ ५५. तथा बहु पुं-पच्छाकडा, एक नपुंसक संगो । पच्छाकडो बांधै अछै? एकादसमों भंगो ।। ५६. तथा बहु पु-पच्छाकडा, बहु नपुंसक जेही । पच्छाकडा बांधै अछ, द्वादसमों भंग एही। ५१. अहवा इत्थीपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ५२. अहवा इत्थीपच्छाकडा य नसगपच्छाकडा य बंधंति ५३. अहवा पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ५४. अहवा पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति ५५. अहवा पुरिसपच्छाकडा य, नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ५६. अहवा पुरिसपच्छाकडा य, नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ५७. त्रिकयोगे पुनस्तथैवाष्टौ (वृ० प० ३८६) सोरठा ५७. द्विक-संयोग सुघाट, द्वादश भंगा आखिया । त्रिक-संयोगिक आठ, प्रवर भंग कहिये हिवै।। *लय : राम सोही लेवे सीता तणी ढाल १५० गाथा ४६ से ६६ तक की जोड़ जिस पाठ के आधार पर की गई है, उसमें प्रत्येक विकल्प को स्वतन्त्र रूप से दिखाया गया है। अंगसुत्ताणि भाग दो, शतक ८।३०५ में पाठ संक्षिप्त है । वहां इस पाठ के छब्बीस भंगों में प्रथम छह भंगों को स्वतंत्र रूप से रखकर आगे के भंगों में चार-चार भंग एक साथ लिए गए हैं। इसके लिए प्रत्येक भंग के आगे ४ का अंक लगा दिया गया है। भगवती की जोड़ में सब भंग अलग-अलग हैं । इसलिए इन भंगों से सम्बन्धित गाथाओं के सामने पादटिप्पण में दिए गए पाठ को उद्धत किया गया है। मूल पाठ में भंग के प्रारंभ में 'उदाहु' पाठ है, किन्तु पाद टिप्पण में 'अहवा' है । अर्थ की दृष्टि से दोनों शब्दों में कोई अन्तर नहीं है। अतः जोड़ के सामने पाद-टिप्पण का पाठ यथावत् रख दिया गया है। ४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य नपुंसग पच्छाकडो य बंधइ ? ५६. एवं एते छब्बीसं भंगा जाव' ५८. *अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरुष-पच्छाकडो एको । इक नपुंसक-पच्छाकडो, बांधै धुर भंग देखो। सोरठा ५६. एवं एते जाण, छव्वीसं भंगा प्रवर । यावत अथवा माण, चरम भंग सूत्रे को॥ ६०. *अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरुष-पच्छाकड एको । बहु नपुंसक-पच्छाकडा, द्वितीय भंग सुविशेखो। ६१. अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरुष-पच्छाकडा बहु होई। एक नपुंसक-पच्छाकडो, तृतीय भंग अवलोई॥ ६२. अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरिस-पच्छाकडा बहु जाणी। बहु नपुंसक-पच्छाकडा, तुर्य भंग पहिछाणी ।। ६३. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, पुरिस-पच्छाकडो एको । एक नपुंसक-पच्छाकडो, पंचम भंग संपेखो। ६४. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, पुरिस-पच्छाकडो एको । बहु नपुंसक-पच्छाकडा, छठो भांगो देखो। ६५. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, पुरिस-पच्छाकडा बहु धारी । इक नपुंसक-पच्छाकडो, सप्तम भंग विचारी॥ ६६. तथा बहु स्त्री-पच्छाकडा, पुरिस-पच्छाकडा बहु कहिये । बहु नपुंसक-पच्छाकडा, अष्टम भंग सलहिये । ६७. इरियावहि बांधै अछ, एह छब्बीस प्रकारो। पडिवज्जमाण पडुच्च ए, पूछया गोयम गणधारो॥ ६८. जिन कहै इत्थि-पच्छाकडो, इक वचने पिण बांधै । वलि इक पुरिस-पच्छाकडो, ते पिण ए बंध सांधै ।। ६६. एक नपुंसक-पच्छाकडो, ते पिण बांधै एहो । वलि बहु इत्थि-पच्छाकडा, ते पिण ए बांधे हो । ७०. वलि बहु पुरिस-पच्छाकडा, ते पिण ए बांधता । बहु नपुंसक-पच्छाकडा, ते पिण ए सांधंता॥ ७१. अथवा इक स्त्री-पच्छाकडो, पुरिस-पच्छाकडो एको । द्विकसंयोगिक भंग ए, इम भंग छब्बीस संपेखो। ७२. जाव तथा भंग चरिम ए, बहु इत्थि-पच्छाकडा बांधे । बहु पुरिस-पच्छाकडा, बहु नपुंसग-पच्छाकडा सांधें । सोरठा ७३. इरियावहि बांधत, पडिवज्जमाण पडुच्च ए। ___ भंग छबीसे इंत, वर्तमान इक समय में । ६०. अहवा इत्थीपच्छाकडो य, पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ? ६१. अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ? ६२. अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ? ६३. अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ? ६४. अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ? ६५. अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ? ६६. उदाहु इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति' ? ६८. गोयमा ! इत्थीपच्छाकडो वि बंधइ, पुरिसपच्छाकडो वि बंधइ, ६६. नपुंसगपच्छाकडो वि बंधइ, इत्थीपच्छाकडा वि बंधंति, ७०. पूरिसपच्छाकडा वि बंधंति, नसगपच्छाकडा वि बंधंति, ७१. अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ, एवं एए चेव छव्वीसं भंगा भाणियब्वा ७२. जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति । (श० ८१३०५) *लय । राम सोही लेवै सीता तणी १,२. गाथा ५६ और ६६ के सामने उद्धृत पाठ पाद टिप्पण का नहीं, मूल का है। थ०८,०८, ढा० १५० ४४५ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. अथैर्यापथिककर्मबंधनमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह (वृ० प० ३८६) ७५. तं भंते ! किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? ७६. बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ? ७७. बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ? ७८. बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? न बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? ८०. न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ? ८१. न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ? ७४. इरियावहि बंध ईज, काल तीन करिने हिवै । विकल्प तास कहीज, पूछ गोयम गणहरू। ७५. *इरियावहि कर्म हे प्रभ स्य' बांध्यो गये कालो। वर्तमान बांधे अछ, बांधिस फेर विशालो ।। ७६. गये काले बांधै अछ, वर्तमान बांधंतो। अनागत नहीं बांधस्य ? दूजो भंग दीपंतो।। ७७. गये काले बांध्यो अछ, बांध्यो नहिं वर्तमानो । काल अनागत बांधस्य ? तृतीय भंग सुजानो।। ७८. गये काले बांध्यो अछ, बांधै नहिं वर्तमानो। अनागत नहीं बांधस्यै ? तुर्य भंग पहिचानो। ७६. गये काले बांध्यो नहीं, वर्तमान बांधतो । काल अनागत बांधस्य ? पंचम भंग कहंतो॥ ८०. गये काले बांध्यो नहीं, बांधै छै वर्तमानो। अनागत नहि बांधसी? छट्टो भंग पिछानो ।। ८१. गये काले बांध्यो नहीं, नहि बांधै वर्तमानो । काल अनागत बांधस्यै ? सप्तम भंग सुजानो। ८२. गये काले बांध्यो नहीं, बांध नहि वर्तमानो । अनागत नहीं बांधस्यै ? अष्टम भंग पिछानो ।। ८३. जिन कहै बहु भव में विषे, इरियावहि अपेक्षायो । बांध्या बांध बांधस्यै, केयक जीव कहायो ।। ५४. केइ अतीतज बांधियो, बांधै छै वर्तमानो। आगमिक नहिं बांधस्यै, इम तिमहिज सह जानो। ८५. जाव केयक नहिं बांधियो, सांप्रत बांधे नाही । आगमिक नहीं बांधस्यै, ए अष्टम भंग त्यांही ॥ सोरठा ५६. भवाकर्ष कहिवाय, जे अनेक भव नै विषे । उपशम आदिज ताय, श्रेणि पामवै करि तिको ।। ८७. इरियावहि जे कर्म, तेहनां अणु नो जे ग्रहण । भवाकर्ष ए मर्म, ते आश्री भंग अठ हुवै ।। ८८. भव पूर्व में उपशांतमोहे, बंध जे इरियावही । फुन वर्तमान भव मांहि बांध, मोह उपशम में रही। ८२. न बंधी न बंधइन बंधिस्सइ ? ८३. गोयमा ! भवागरिसं पडूच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ ८४. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सळां ८५. जाव अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ८६,८७. अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्त्या आकर्षः-ऐपिथिक___ कर्माणुग्रहणं भवाकर्षस्तं प्रतीत्य । (वृ० प० ३८६) ८८. पूर्वभवे उपशान्तमोहत्वे सत्यर्यापथिकं कर्म बद्धवान् वर्तमानभवे चोपशान्तमोहत्वे बध्नाति । (वृ० प० ३८६) ८९. अनागते चोपशांतमोहावस्थायां भन्त्स्यतीति (वृ० प० ३८६) ८९. वलि अनागत भव बाधस्य जे, क्षपकश्रेण विषे सही । बांध्यो रु बांध बांधस्यै, इम प्रथम भंग पिछाणही॥ वा०—इहां वृत्ति में कह्यो-पूर्व भवे ग्यारमें गुणठाणे बांध्यो, वर्तमान भव में पिण ग्यारमें गुणठाणे बांध, वलि अनागत पिण ग्यारमें गुणठाणे बांधसी । *लय : राम सोही लेवे सीता तणी लिय : पूज मोटा भांजे तोटा ४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०,६१. द्वितीयस्तु यः पूर्वस्मिन् भवे उपशान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्तमाने च क्षीणमोहत्वं प्राप्तः स पूर्व बद्धवान् वर्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुन नै भन्स्यतीति । (वृ० प० ३८६) ६३,६४. तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशान्तमोहत्वे बद्धवान् तत्प्रतिपतितो न बध्नाति अनागते चोपशान्तमोहत्त्वं प्रतिपत्स्यते तदा भन्त्स्यतीति । (वृ० प० ३८६) इहां अनागत शब्द में अनागत काल लेवै जद तो कोई अटकाव नहीं। जिम तिण भव में उपशमश्रेणी लेई बलि तिणहिजभव में अनागत काले उपशमश्रेणी लहीने इरियावहि बांधे । पर अनागतशब्दे अनागतभव लेवै तो बात मिल नहीं। कारण उपशमश्रेणी तीन भव में आवै नहीं। जिम भगवती शतक २५ उद्देशक ७ में इम कह्यो-सूक्ष्म सम्पराय चारित्र उत्कृष्ट नौ बार आवै, ते पिण उत्कृष्टो तीन भव में आवै । बे भव में तो उपशमश्रेणी थी आठ बार अनै तीजे भव में खपकश्रेणी थी एक बार । इण न्याय उपशमश्रेणी तीन भव में आवै नहीं।। ९०. बलि पूर्व भव गुण ग्यारमै, बांध्यो करम इरियावही । फुन वर्तमान भव मांहि बांधे, क्षीण मोह विषे रही। ६१. अरु अनागत नहिं बांधस्य ते, चवदमां गण में सही । बांध्यो रु बांध बांधस्यै नहि, द्वितीये भंगे वृत्ति ही। सोरठा ६२. बांध्यो ग्यारम मांहि, बांधे तेरम गण विषे । चवदम बांधस्य नांहि, फून सिद्धे इम 'धर्मसी' ।। ६३. *जे पूर्व भव गण ग्यारमें, बांध्यो करम इरियावही । फून वर्तमान भव में न बांधे, हेठले गणठाण ही। ६४. बलि अनागत भव बांधस्यै, गुण ग्यारमें इम वृत्ति हो। बांध्यो न बांध बांधस्यै, इम ततोय भंग विशेष ही ।। सोरठा ६५. बंध्यो ग्यारम ठाण', बांधै नहि दशमें गणे। पूर्व भव पहिछाण, पडतो उपशमश्रेणि जे ॥ ६६. आगल भव बांधेस, ग्यारम बारम तेरमें । त्रिहुं गुणठाण विशेष, तृतीय भंग कृत 'धर्मसी' । ६७. *जे पूर्व भव गुण' ग्यारमें, बांध्यो करम इरियावही । फुन वर्तमान भव नाहिं बांधे, चवदमें गुण ए सही ॥ १८. वलि अनागत नहिं बांधस्य ते, सिद्ध में पहिछाणियै । बांध्या न बांध बांधस्यै नहि, तुर्य भंग ए जाणिय। ६६. जे पूर्वभव नवि बांधियो, गुण ग्यारमों पायो नहीं । फुन वर्तमान भव मांहि बांध, ग्यारमें गण ए सही॥ १००. ते अनागत भव बांधस्यै वलि, ग्यारमा गण में रही। नहिं बंध्यो बांधे बांधस्यै, ए भंग पंचम वृत्ति ही। सोरठा १०१. पूर्व भवे अबंध, बंधै छै गण ग्यारमें । ___बंधस्यै त्रिहुं गुण संध, पंचम भंगे 'धर्मसी' ॥ *लय : पूज मोटा भांज तोटा १, २. गुणस्थान ६७,६८. चतुर्थस्तु शैलेशीपूर्वकाले बद्धवान् शैलेश्यां च न बध्नाति न च पुनर्भन्त्स्यतीति। (वृ० प० ३८६) ६६,१००. पञ्चमस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहत्वं लब्ध वानिति न बद्धवान् अधुना लब्धमिति बध्नाति पुनरप्येष्यत्काले उपशान्तमोहाद्यवस्थायां भन्त्स्यतीति पञ्चमः (वृ० प० ३८६) थ०८, उ०८, ढा०१५० ४७ Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२,१०३. षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवानिति न पूर्व बद्धवान् अधुना तु क्षीणमोहत्वं लब्धमिति बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति षष्ठः । (वृ० प० ३८६) १०४,१०५. सप्तमः पुनर्भव्यस्य, स ह्यनादौ काले न बद्ध वान् अधुनाऽपि कश्चिन्न बध्नाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति । (वृ० प० ३८६) गीतक-छंद १०२. गण क्षीणमोहपणादि न लह्य, पूर्व भव बांध्यो नहीं । भव वर्तमाने क्षीण मोहे, बंध छै इरियावही ।। १०३. वलि अनागत नहिं बांधस्यै, जे चवदमां गुण में रही । नहिं बंध्यो बांध बांधस्यै नहि, भंग षष्टम ए सही। १०४. जे भव्य अनादि अद्धा विषे, नहिं बांधियो पूर्वे सही । . भव वर्तमाने जीव कोइक, न बांधै इरियावही ।। १०५. फुन अनागत कालांतरे, ए बांधस्य आगामिही । नहिं बंध्यो न बंधै बांधस्यै, भव्य रास सप्तम धाम ही ।। सोरठा १०६. न बंध्यो न बंध तेण, सप्तम भांगे बांधस्य । उपशम क्षायक श्रेण, होणहार शिव 'धर्मसी'। गीतक-छंद १०७. वलि अष्टमज अभव्य पूर्वे, न बांध्यो इरियावही । फून वर्तमान भव में न बांधे, सदा धर ठाणे रही। १०८. जे अनागत नहिं बांधस्यै, शिव गमन योग्य जिको नहीं । नहिं बांधियो अरु नाहिं बांधे, बांधस्यै नहिं इम कही ॥ ___सोरठा १०६. भवाकर्ष रै मांय, काल त्रिहं नै पद विषे । विचलै पद जे पाय, कहियै छै भंग अष्ट ही ।। ११०. विचलै पद धुर भंग, उपशम श्रेणिज ग्यारमें । द्वितीय भंग सुचंग, क्षीणमोह बांधे अछ। १०७,१०८. अष्टमस्त्वभव्यस्य (वृ० प० ३८६) १११. न बंधै तो भंग, दशमें गुणठाणे का। उपशम श्रेणि सुचंग, पूर्व भव पड़तो छतो॥ ११२. न बंधै चउथै भंग, ए चवदमें गुणठाण में । पंचम भंग प्रसंग, बंध उपशांत ग्यारमें। १०६. इह च भवाकर्षापेक्षेष्वष्टसु भङ्गकेषु (वृ० ५० ३८७) ११०. 'बन्धी बन्धइ बन्धिस्सइ' इत्यत्र प्रथमे भने उपशान्तमोहः 'बन्धी बन्धइन बन्धिस्सई' इत्यत्र _ द्वितीये क्षीणमोहः : (वृ० ५० ३८७) १११. 'बन्धी न बन्धइ बन्धिस्सई' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमोहः । (वृ० प० ३८७) ११२. 'बन्धी न बन्धइ न बन्धिस्सई' इत्यत्र चतुर्थे शैलेशी गतः, 'न बन्धी बन्धइ बन्धिस्सई' इत्यत्र पञ्चमे उपशान्तमोहः (वृ० प० ३८७) ११३. न बन्धी बन्धइ न बन्धिस्सइ इत्यत्र षष्ठे क्षीणमोहः 'न बन्धी न बन्धइ बन्धिस्सइ' इत्यत्र सप्तमे भव्यः, 'न बन्धी न बन्धइ नबन्धिस्सइ' इत्यत्राष्टमेऽभव्यः । (वृ० प० ३८७) १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ११० से ११३ तक की जोड़ का आधार मूल पाठ है। उसके साथ थोड़ा अंश वृत्ति का है। वत्ति में मूल पाठ ज्यों का त्यों है। इसलिए यहां जोड़ का आधार वृत्ति को मान उसे ही उद्धृत किया गया है। ११३. बंधै षष्टम भंग, क्षीणमोह तेरम गणे। सप्तम भव्य शिव अंग, शिव अयोग्य अष्टम अभव्य । ४४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ११ में बांधस्य उपशांत मोह प्रथम १ २ भवाकर्ष रै सन्दर्भ में ईरियावहि कर्म-बन्ध नों यन्त्र बंधी बंधह बंधिस्सइ ११ में बांध्यो ११ में बांधै | ११ में बांधस्य भंगो १३ में बांध | १४ में, सिद्ध न क्षीण मोह बांधस्यै | १० में न बांधे ११,१२,१३ में उपशम थी पड्यां १० ३ बांधस्य में गुणठाणे १४ में न बांध सिद्ध न बांधस्यै । क्षीण मोह अजोगी न बांध्यो । ११ में बांध ११,१२,१३ में उपशांत मोह बांधस्यै १३ में बांध सिद्ध न बांधस्य क्षीण मोह न बांध ११,१२,१३ बांधस्यै ।। भव्य न बांधस्यै अभव्य ११६. गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ गीतक-छंद ११४. बहु भवां आश्री कर्म जे, इरियावही बंध आखियो । इम भंग आठ उदार सार, विचारवे इहां दाखियो । ११५. जे भवाकर्षज पाठ ए, बहु भवां आश्री जाणियै । ग्रहणाकर्षज पाठ ते, भव एक नो हिव आणियै ।। ११६. *ग्रहणाकर्ष एक भव विषे, कोइक जीव पिछाणी । बांध्या बांध बांधस्यै, प्रथम भंग ए जाणी। ११७. इम यावत कोइ जीवड़ो, नहिं बांध्यो काल अतीतो । बांधे नैं वलि बांधस्यै, ए पंचम भंग वदीतो।। ११८. गये काले बांध्या नहीं, वर्तमान बांधतो । अनागत नहिं बांधस्यै, ए छठो भांगो नहिं हंतो।। ११६. कोइ एक जे जीवड़ो, न बांध्यो अवलोयो । नहिं बांध में बांधस्यै, ए सप्तम भंगो होयो। १२०. कोइ एक जे जीवड़ो, न बांध्यो गये कालो। न बांधे नहिं बांधस्यै, ए अष्टम भंग न्हालो॥ ११७. एवं जाव अत्थेगतिए न बंधी बंधइ बंधिस्सइ ११८. नो चेव णं न बंधी बंधइ न बंधिस्सद ११६. अत्यंगतिए न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ १२०. अत्यंगतिए न बंधी न पंधइन बंधिस्सइ (श०८/३०६) १२१, १२२. एकस्मिन्नेव भवे ऐर्यापथिककर्मपृद्गलानां ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षः (वृ० प० ३८६) सोरठा १२१. ग्रहणाकर्षज ताय, जेह एक भव नैं विषे । उपशम आदि कहाय, श्रेणि पामवै करि तिको ।। १२२. इरियावहि जे कर्म, तेहनं आकर्ष बांधवो । वर्तमान भव मर्म, ते आश्री भंग सप्त ह॥ १२३. छठो भांगो नहिं होय, वक्तव्यता भंग सात नी । कहियै छै अवलोय, इक भव बंध इरियावही ॥ *लय : राम सोही लेब सीता तणी श०८, उ०८, ढा० १५० ४४९ Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४. * जे पूर्व काले इक भवे, उपशांत-मोहादिक मही । ए बांधियो इरियावहि, वलि वर्तमान बांधे सही ॥ १२५. फुन अनागत जे समय में, बलि बांधस्य ते भव रही। बांध्यो रु बांध बांधस्यै, ए प्रथम भांगे वृत्ति ही ॥ सोरठा १२६. बांध्यो व्यारम ठाण, फुन बंधे गुण व्यारमें। आगल बंधस्पे जाण, उपशांतमोहो 'धर्मसी' | १२७ तथा बारम गुणठाण, फुन गुणठाणे तेरमें। बांध्यो बांधे जाण, वलि बांधस्यै 'धर्मसी' | गीतक-नांद १२५. द्वितीवेज भांगे केवली, बांध्योज काल अतीत हो । बलि वर्तमान बांधेज तिण भव, तेरमो गुण में रही ।। १२. फुन अनागत नहि बांधस्यै, जे चवदमें गुणठाण ही । वायोरु बांध बांधस्यै नहि, द्वितीय भंगे वृत्ति ही ॥ सोरठा १३०. बंध्यो बारम ताहि, बंधे छे गुण तेरमें । चवदम बंधस्यै नाहि, क्षीणमोह ए 'धर्मसी' ॥ गोतक - छंद १३१. उपशांत मोहपणैज बांध्यो, पड़ी फुन बांधे नहीं । तिणहीज भव वलि बांधस्यै, जे श्रेणि-उपशम फुन लही ॥ १३२. इक भवे उपशम श्रेणि इम, बे वार प्राप्त व सही । बांध्यो न बांध बांधस्यै, इम भंग तृतीयो वृत्ति ही ॥ सोरठा १३३. ग्यारम बंध्यो कहेस पड़ी नहि बांध दशम गुण । फुन ग्यारम बांधेस, इक भव उपशम वार द्वय ॥ J 1 गीतक-छंद १३४. भंग तुर्य बांध्यो तेरमें, ते चवदमें बांधे नहीं । फुन चवदमें नहि बांधस्य जे एम आस्यो वृत्ति ही ॥ सोरठा १३५. बांध्यो तेरम मांहि, नहि बांधै गुण चवदमें | सिद्ध बांधस्यै नांहि, क्षीणमोह ए 'धर्मसी' ॥ *लय : पूज मोटा भांजे तोटा ४५० भगवती -जोड़ १२४,१२५. एक कश्विज्जीवः प्रथमकल्पिकः तथाहिउपशान्तमोहादिदा ऐवधिक कर्म बहना बनात ऐर्यापथिकं 'बद्ध्वा तदाऽतीतमयापेक्षया बद्धवान् वर्तमानसमयाबध्नाति अनागतसमयापेक्षया तु ( वृ० प० २०६) पेक्षया च भन्त्स्यतीति १२८१२८ द्वितीयस्तु केवली, सतीतकाले बढवान् वर्त्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति । ( वृ० प० ३८६ ) १३१,१३२.] तृतीयस्तूपशान्तमोहत्व बढवान् सत्प्रतिप तितस्तु न बध्नाति पुनस्तत्रैव भवे उपशमश्रेणी प्रतिपन्नो मन्त्स्यतीति, एकभये चीपशमश्रेणी द्विवरं प्राप्यत एवेति ( वृ० प० ३८६ ) १३४. चतुर्थः पुनः सयोगित्वे बद्धवान् शैलेश्यवस्थायां न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति । (१० १०३८६) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छन्द १३६. फुन भंग पंचम आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही। उपशांत मोहादिक न लाधू, ते भणी बंध्यो नहीं। १३७. जे वर्तमान कालेज लाध, ते भणी बांधे सही । तिण अद्धा नै आगले समये, बांधस्य इरियावही ।। १३८. बांध्यो नहीं बांधे अछ, वलि बांधस्यै ए जाणिये । इम भंग पंचम तणो न्यायज, वृत्ति मांहि पिछाणियै ।। १३६,१३७. पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोह त्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् अधुना तु लब्धमिति बध्नाति तद् अद्धाया एव चैष्यत्समयेषु पुनर्भन्त्स्यतीति (वृ०प० ३८६) सोरठा १३६. पूर्वे बांध्यो नाहिं, बांधै छै गुण ग्यारमें । बंधस्यै ग्यारम मांहि, उपशम-श्रेणे 'धर्मसी' । १४०. अथवा बांध्यो नांहि, बांधै बारसमें गणे । वलि बांधस्यै ताहि, बारम तेरम क्षपक ते ॥ गीतक छन्द १४१. नहिं बांधियो बांधे अछ, नहिं बांधस्य इक भव मही। ए भंग छट्ठो शून्य छै, इह रीत कोई ह नहीं । १४२. नहिं बांधियो बांधे अछै ए, दोय ऊपजता छता । नहिं बांधस्यै ए बोल तीजो, तिणज भव नहिं सर्वथा ॥ १४१. षष्ठस्तु नास्त्येव (वृ० प० ३८६) १४२. तत्र न बद्धवान् बध्नातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्त्स्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात्। (वृ०प० ३८७) १४३. तथाहि-आयुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् (वृ० ५० ३८७) १४४. तल्लाभसमये च बध्नाति ततोऽनन्तरसमयेषु च भन्त्स्यत्येव (वृ० प० ३८७) १४५. न तु न भन्त्स्यति, समयमात्रस्य बन्धस्यहाभावात् । (वृ० प० ३८७) १४३. तसु न्याय कहियै आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही । उपशांत-मोहादिक न लाधू, ते भणी बांध्यो नहीं । १४४. ते वीतराग धुर समय में, बांधे अछै इरियावही । तसु समय बीजै बांधस्य इज, वीतराग गुणे रही ।। १४५. पिण बांधस्यै नहिं इम न होवै, समय मात्र इरियावही । तसु बंधनोज अभाव छै, ते भणी बंध हुस्यै सही ।। वा०-न बांध्यो, बांधे, न बांधसी ए छठो भांगो शून्य छै, ते किम ? छठे भांगे कोइ एक जीव नहीं । ते छठा भांगा ने विष न बांध्यू, बांध छै—ए दोई उपजता थकां पिण 'न बांधस्य' ए तीजै बोल न ऊपज, ते देखाड़े छै-आउखा नां पूर्व भाग नै विषे उपशम-मोहत्वादि न लावू, एतला माटै न बांध्यू । ते लाभ समय नै विषे बांधस्यज पिण इम नहीं जे न बांधस्य, समय मात्र नां बंध नो इहां अभाव छै ते माट। १४६. जे ग्यारमें गणठाण में, इक समय रहि मरणे करी । सुर भवे इरियावहि न बंध, समय बंध इम उच्चरी॥ १४७. इम कहै तेहनों एह उत्तर, बे भवे ए आखियो । पिण ग्रहण आकर्षे भवे इक, भंग ए नहि भाखियो। १४६. यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेना पथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ षष्ठविकल्पहेतुः (वृ०प० ३८७) १४७. तदनन्तरर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य भवान्तरवत्तित्वाद् ग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रान्तत्वात् (वृ० प० ३८७) श०८, उ० ८, ढा० १५० ४५१ Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८. नहि बांधियो बांधै अछ, नहिं बांधस्यै इरियावहि । इक भवे बोलज बे हुवै, पिण तृतीय बोल हुवै नहीं। १४६. ते भणी भांगो एह छट्टो, ग्रहण आकर्षे नहीं । ते कारणे ए भंग नी छै, शन्यता इक भव मही।। १५०. नहिं बांधियो बांधै अछ, ए बोल बे नर भव मही । मरि सुर भवे नहिं बांधस्यै, ए ग्रहण आकर्षे नहीं। १५१. ते भणी ग्रहणाकर्ष ते भव, एक आश्री जाणिय । ए भंग छठा तणी शून्यता, प्रवर न्याय पिछाणिय ।। १५२. जो तेरमा नै चरम समय, बंधै अछ इरियावही । फुन समय बीज बांधस्यै नहिं, तास वांछा जो हुई। १५३. इम तदा जे गुण तेरमां ने, चरम समये बंध ही । तेह थी जे पूर्व समये, बांधियो इम संध ही। ए १५२. यदि पुनः सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोऽनन्तरं न भन्स्यतीति विवक्ष्येतः । (वृ० प० ३८७) १५३. तदा यत्सयोगिचरमसमये बध्नातीति तद्बन्ध पूर्वकमेव स्यान्नाबन्धपूर्वकं, तत्पूर्वसमये तस्य बन्धकत्वात् । (वृ० प० ३८७) १५४. एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यान्न पुनः षष्ठ इति । (वृ० प० ३८७) १५५. सप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य (वृ० प० ३८७) १५६. अष्टमस्त्वभव्यस्येति (वृ० प० ३८७) १५४. ते भणी ए भंग द्वितीय है, पिण भंग छट्रो ह नहीं। ___इम भंग षष्ठम शून्यता ए, ग्रहण आकर्षे कही। वा०-कोई कहै—अतीतकाले इरियावहि सकषाइपण न बांध्यो अनैं तेरमा गुणठाणा रै छेहलै समये बांध छै अन अजोगीपणे न बांधस्यै, इम छट्ठो भांगो किम न हुवै ? तेहनो उत्तर-इम दूजो हुवै, पिण छट्ठो न हुदै, ते किम ? जिवारे सयोगी चरम समये बांधे, ते चरिम समय थकी पूर्व समये इरियावहि नों बंध कहीजै, पिण पूर्व समये अबंधक नहीं । इम दूजो भांगो हीज हुई पिण छट्ठो नहीं। १५५. नहि बांधियो फुन नथी बांधे, बांधस्यै इरियावही । शिवगमन योग्यज भाव छै, ते आश्रयी सप्तम सही ।। १५६. नहि बांधियो फुन नथी बांध, बांधस्यै पिण ए नहीं । शिव गति अयोग्य अभव्य छै, ते आश्रयी अष्टम मही॥ १५७. जे ग्रहण आकर्ष एक भव में, बोल तीनूइ लहै । ते आश्रयी भंग सप्त लाथै, भंग षष्टम शन्य है। सोरठा १५८ ग्रहणाकर्ष रै मांय, काल त्रिहं नैं पद विषे । बिचलै पद जे पाय, अठ भंगे कहिये हिवै ॥ १५६. बांधे तेरम माण, क्षीण-मोह ए द्वितीय भंग । धुर भंग ग्यारम ठाण, अथवा बारम तेरमें ।। १६०. न बंधै दशमें ठाण, उपशम थी पड़ ततीय भंग । न बंध चउदम जाण, क्षीण-मोह ए तुर्य भंग ॥ १६१. बंध पंचम भंग, ग्यारम अथवा बिहुं गुणे । षष्ठम शून्य प्रसंग, भव्य सप्तम अष्टम अभव्य । १५८. ग्रहणाकर्षापेक्षेषु पुनरेतेष्वेव (वृ० प० ३८७) १५६. प्रथमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो बा, द्वितीये तु केवली। (वृ० प० ३८७) १६०. तृतीये तूपशान्तमोहः, चतुर्थे शैलेशीगतः । (वृ० प० ३८७) १६१. पञ्चमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा, षष्ठः शून्यः, सप्तमे भव्यो भाविमोहोपशमो भाविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य इति । (वृ० प० ३८७) ४५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहणाकर्ष रै सन्दर्भ में ईरियावहि कर्मबन्ध नों यन्त्र-- बंधी | बंधइ । बंधिस्सइ । ११ में बांध्यो ११ में बांध | ११ में बांधस्य ए उपशांत-मोह तथा १२, । १३ में बांध्यो, बांधै, बांधस्य १२ में बांध्यो | १३ में बांध १४ में न बांधस्य ए क्षीण मोह । ११ में बांध्यो । १० में न | ११ में बांधस्य उपशांत-मोह एक भव में बांधै दीय वार आव। १३ में बांध्यो । १४ में न सिद्ध न बांधस्य ए क्षीण-मोह शैलेशी बांध अवस्था। न बांध्यो ११ में बांध | ११ में बांधस्य | ए उपशांत-मोह तथा १२, १३ में बांध, बांधस्य। न बांध्यो बांधे । न बांधस्य | ए शून्य । न बांध्यो । न बांध बांधस्यै ए भव्य उपशम-मोह होणहार तथा क्षीण-मोह होणहार । न बांध्यो । न बांध न बांधस्यै | ए अभव्य । १६२. इरियावहि कर्म जाण, बंध आश्री कहिये हिवै। आदि अंत करि माण, चिउं भंगे करि प्रश्न ते॥ १६३. *हे प्रभु ! ते इरियावहि, कर्म नो बंध वदीतो। स्यू आदि सहित अंत सहित छै? के आदि सहित अंत रहीतो।। १६४. कै आदि-रहित अंत-सहित ते? कै आदि-रहित अंत रहीतो? इरियावहि बांधे प्रभु ! जिन कहै सुण धर प्रीतो॥ १६५. आदि-सहित अंत-सहित छ, इरियावहि कर्म बांधै । शेष तीन भांगे करी, तास बंध नहिं सांधै ।। १६२. अथैर्यापथिकबन्धमेव निरूपयन्नाह (वृ० ५० ३८७) १६३. तं भंते ! किं सादीयं सपज्जवसियं बंधइ ? सादीयं अपज्जवसियं बंधइ? १६४. अणादीयं सपज्जवसियं बंधइ ? अणादीयं अपज्जव सियं बंधइ? १६५. गोयमा ! सादीयं सपज्जवसियं बंधइ, नो सादीयं अपज्जवसियं बंधइ, नो अणादीयं सपज्जवसियं बंधइ, नो अणादीयं अपज्जवसियं बंधइ। (श० ८/३०७) १६६. तं भंते ! कि देसेणं देसं बंधइ ? 'देशेन' जीवदेशेन 'देश' कर्मदेशं । (वृ० ५० ३८७) १६७. देसेणं सव्वं बंधइ? सव्वेणं देसं बंधइ? १६६. ते प्रभ ! स्यू' इरियावहि, जीव देशे करि जोयो? __ कर्म ना देश प्रतै तदा, बांधै छै अवलोयो ? १६८. सव्वेणं सव्वं बंधइ ? १६७. के जीव तणे देशे करी, कर्म सर्व प्रतिबांधे । तथा सर्व जीवे करी, कर्म नां देश नैं सांधै ? १६८. तथा सर्व जीवे करी, सर्व कर्म बंध होयो ? ए चोभंगी पूछियां, हिव जिन उत्तर जोयो ? १६६. जीव तणे देशे करी, कर्म न देश न बांधै । जीव तणे देशे करी, सर्व कर्म नहिं सांधे ॥ १६६. गोयमा ! नो देसेणं देसं बंधइ, नो देसेणं सव्वं बंधइ *लय : राम सोही लेवै सीता तणी श०८,उ०८, ढा०१५० ४५३ Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धितो। बंध हुंतो ॥ एसो । १७० वले सर्व जीवे करी, कर्म देश सर्व जीव प्रदेश की सर्व कर्म १७१ जीव नां तथा स्वभाव थी, इरियावहि बंध अष्टम शतक तणो कह्यो, अष्टमुदेशा नों देशो ॥ १७२. एक सौ पचासमी, रूडी ढाल रसालो । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' मंगलमालो || ढाल १५१ वहा १. संपराय हिव कर्म नों, बंध पूछे गोयम गणहरू, उत्तर न २. संपराय ए कर्म * संपरायनों रे निर्णय सांभलो कहो प्रभु ! नारक स्यू बांधत? तिरिखजोणियो जाव देवी वलि, संपराय सांधत ? ३. श्री जिन भाखे बांधे नेरद्दयो, बलि बांधे तियंच । तिरिक्त जोणिणी पिण बांधे अछे, संपराय कर्म संच ॥ ४. मनुष्य मनुष्यणी पिण बांधे अछे बलि बांधे देव वलि देवी पिण ए बांधे अछे, ए सातू स्वयमेय ॥ निरूपण काज ! दे जिनराज ॥ *लय : सुमति जिनेश्वर साहिब ४५४ भगवती-जोड़ सोरठा ५. मनुष्य मनुष्यणी टाल, संपराय कर्म-बंधका निश्चे पंच निहाल, निहाल, सकषाई छै ते ६. मनुष्य मनुष्यणी मांय, सकवाई निश्चे बंध संपराय, अकबाई रं बंधे नहि ॥ (पदं) भणी ॥ तेहने ७. * ते संपराय कर्म हे भगवंत ! स्यूं बांधै इक स्त्री वेद ? एक पुरुष वेद एक नपुंसक, बलि जि बहु वच भेद ? ८. तथा अवेदो ते बांधे अछे ? तब भाखै जिनराय | एक इत्थि पिए बांधे अछे इक पुं वेद बंधाय ।। ६. एक नपुंसक पिण बांधे अछे, बहु स्त्री वेद बांधत । बहु पुरुष वेद बहू नपुंसका, यां रं पिण बंध त ॥ १०. इहां स्त्रियादिक त्रिश क वचन थी, बहु वचने पिण तीन । संपराय कर्म बांछे सदा, ए अर्थ वृत्ति में चीन ॥ । १७०. नो सव्वेणं देस बंधइ, सव्वेणं सव्वं बंधइ १७१. तथास्वभावत्वाज्जीवस्येति । १. अथ साम्परायिकबन्धनिरूपणायाह (२०८/३०८) ( वृ० प० ३८७ ) २. संपराइयं णं भंते ! कम्मं किं नेरइओ बंधइ ? तिरिक्खजोणिओ बंधइ ? जाव देवी बंधइ ? ३. गोयमा ! नेरइओ वि बंधइ, तिरिक्खजोणिओ वि बंध,तिरिक्तजीवि ४. म निबंध मरसी विबंद, देवो वि देवी वि बंधइ (श० ८ / ३०६ ) ६. मनुष्यमनुष्यी तू सामित्वे वनीतो न पुनरन्यदेति । ५. एतेषु च मनुष्यमनुषीवर्जाः पञ्च साम्परायिकबन्धका एव सकषायत्वात् ७. तं भंते! कि इत्थी बंधइ ? जाव ( वृ० प० ३८७ ) ( वृ० प०३८८ ) सति साम्परायिकं ( वृ० प० ३००) पुरिसो बंधइ ? तहेव ८. मोरिस मोनो बंध? गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ । ६. जाव नपुंसगा वि बंधंति । १०. इहस्त्रयादयो विवक्षितकत्वबहुत्वाः षट् सर्वदा साम्परायिकं बध्नन्ति । ( पृ० प०२८८) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ११. तथा स्त्रियादिक वेद रहित ते कदा एक तथा अवेदी बहु बांधे कदा, गुण नवमें सोरठा १२. पूर्व प्रतिपन्न जोय, इक वचने बंध कदा | बहुवचने पिण होय, इमहिज प्रतिपद्यमान बंध ॥ १३. वेद रहित संपराय, अल्पकाल छे तेहनों। ते मार्ट कहिवाय, इक बच बहु वच पिण बिहुं ॥ १४. * एक अवेदी प्रभु ! बांधे अच्छे, बहु अवेदी बांधत । ते स्यूं बांधै स्त्री-पच्छाकडो, पुरुष-पच्छाकडो हुंत ? वर्धित | दशमंत ॥ 1 १५. इम जिम इरियावहि-बंधक तणां भाख्या भांगा छब्बीस | भणवा भांगा तिम संपराय नां, बीस अनें षट दीस || १६. जावत भांगो ए छब्बीसमो, स्त्री - पच्छाकडा जोय | पुरिस-च्छा कडा नपुंसक पच्छाकडा, बहु वचने हिं होय ॥ सोरठा १७. हि कर्म संपराय, बंधन तणूंज काल विहं करि साय, विकल्प करतो १५. पूर्व माझ्या सोय विकल्प आठ विषेज पारू चरम हुवै संपराय कर्म अनाविपणे करि जाण, बांध्यो काल २०. पिण नहि बांध्यो जेह, भंग चरम प्रथम चि भंग लेह, तास २१. *संपय कर्म हे भगवंत स्यू, वाध्यं प्रथम चिहुं भंग होय, १६. जीवा तणें पिछाण, काल अतीत ? वर्तमान काले बांधे अछे ? बॉल बंध होस्यै वदीत ? २२. बांध्यो बांधे नं नहि बांधस्य जो भंग ए देख । बांध्यो नहि बांधै वलि बांधस्यै, तृतीय भंग संपेख ॥ २३. बांध्यो नहि बांधै नहि बांधस्यै, तुर्य भंग ए ताम । ए च्यारूई भंग करि पूछियां, उत्तर दे जिन स्वाम ॥ २४. जीव किताइक पूर्वे बांधियो, बांधै छै वर्त्तमान । काल अनागत में वलि बांधस्यै, प्रथम भंग ए जान ॥ २५. जे प्रथम भांगो जीव सगला, संसारिक ते जाणिवं । जथाख्यात पाम्यो नथी, ते काल लग पहिछाणियै ॥ *लय : सुमति जिनेश्वर साहिब + लय : पूज मोटा भांज तोटा जाणवू । पूछिये ॥ ते । नहीं ॥ बंध नौ अतीत में ।। निहि हुवे । प्रश्न गोयम करें ॥ ११. अहवा एते य अवगयवेदो य बंध, अहवा एते य अवयवेदा य बंधंति । (०८३१०) १२, १३. अपगतवेदत्ये साम्परायिकबन्धोऽल्पकालीन एव तत्र च योऽपगतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः साम्परायिकं नात्पसकोको वा स्यात् एवं प्रतिपद्यमानकोऽपीति । ( वृ० प० ३८८ ) १४. जइ भंते! अवगयवेदो य बंधइ, अवगयवेदा य बंधंति । तं भंते! किं इत्थीपच्छाकडो बन्धइ ? पुरिसपच्छाको ? १५. एवं जब हरियावहिपबंधगस्स वहेब निर १६. जाव अहवा इत्वीपच्छाकटा पपुरिसपच्छाका व नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति । ( श० ८३११) १७. अथ साम्परायिककर्म्मबन्धमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह - ( वृ० प० ३८८) १०. पूर्वोक्तेष्वष्टासु विकल्पेच्याद्याश्चत्वार एव संभवंति नेतरे । ( वृ० प० २००) १६. जीवानां साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन । ( वृ० प० ३८८ ) २०. 'न बन्धी' त्यस्यानुपपद्यमानत्वात् । ( वृ० प० ३८८ ) २१. तं भंते ! किं बन्धी बन्धइ बन्धिस्सइ ? २२. बंधी, बंधइ न बंधिस्सइ ? बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ? २३. बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? २४. गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ । २५. तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी यथाख्यातासंप्राप्तोपशमकक्षपकावसानः । ( वृ० प० ३८८ ) श०८, उ० ५ ढा० १५१ ४५५ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. स हि पूर्व बद्धवान् वर्तमानकाले तु बध्नाति अनागत कालापेक्षया तु भेन्त्स्यति । (वृ० प० ३८८) २७. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ । २८,२६. द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान् वत्तमानकाले तु बध्नाति भाविमोहक्षयापेक्षया तु न भन्त्स्यति। (वृ० प० ३८८) अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ। ३१,३२. तृतीयः पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्व बेद्धवान् उपशान्तमोहत्वे न बध्नाति तस्माच्च्युतः पुनर्भन्स्यतीति। (वृ० प० ३८८) २६. गये काल बांध्यो, वर्तमाने बांधे छै ते कारणे । वलि बांधस्यै जे जथाख्यात, पाम्यां विना ए धारणे ॥ २७. *बांध्यो बांध नै नहिं बांधस्य, संपराय कर्म जेह । दुजो भांगो ए जिनवर कह्यो, जीव किताइक एह ।। गीतक छन्द २८. जे मोह-क्षय थी पूर्व काले, बांधियोज अतीत हो। वलि वर्तमान कालेज बांधे, एह कषाय सहीत ही।। २६. फुन मोह कर्म क्षय पेक्षया, नहिं बांधस्य संपराय ही । बांध्यो रु बांध बांधस्यै नहि, द्वितीय भंग कहाय ही॥ ३०. बांध्यो नहिं बांधे में बांधस्य, संपराय कर्म जाण । जीव किताइक एहवा जिन कह्या, तेहनं न्याय पिछाण ॥ ३१. उपशंत मोह थकीज पुरव, संपराय बांध्यो सही। वर्तमान काले न बांधे, ग्यारमा गण में रही। ३२. ग्यारमा गण थी पड़ीने, बांधस्यै वलि ते सही । बांध्यो न बांध बांधस्य वलि, भंग तीजो इम लहो । ३३. *बांध्यो नहिं बांधै नहिं बांधस्यै, जीव किताइक देख । चोथो भांगो ए जिनवर कह्यो, तेहनों न्याय संपेख । ३४. जे मोह-क्षय थी पूर्व काले, संपराय बांध्यो सही। अथ मोह-कर्म नां क्षय विषे, जे वर्तमान बांधे नहीं। ३५. वलि अनागत नहिं बांधस्य ते, श्रेणि पाय पड़े नहीं । बांध्यो न बांध बांधस्यै नहि, तुर्य भांगो ए सही। __ सोरठा ३६. संपराय कर्म जाण, बंध आश्री कहिये हिवै । आद अंत करि माण, चिउं भंगे करि प्रश्न ते॥ ३७. *संपराय कर्म हे भगवंत ! स्य, तास बंध पहिछाण । आदि-सहित छै के अंत-सहित छ ? प्रथम भंग ए जाण ॥ ३८. आदि-सहित छै के अंत-रहित छ ? तथा अनादि सह अंत । आदि-रहित छै के अंत-रहित छ, ए चिहं भंग पूछंत ।। ३६. श्री जिन भादं आदि-सहित छै, अंत-सहित पिण हुंत । उपशम-णि थकी पड़ने वलि, उपशम क्षपक लहंत ॥ ४०. ग्यारमा गुण थी पड़ोने, संपराय बांधे सही । पामियै वलि ग्यारमों, अथवाज द्वादशमों लही ।। *लय : सुमति जिनेश्वर लिय : पूज मोटा भांजै तोटा ४५६ भगवती-जोड़ ३३. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । (श० ८।३१२) ३४,३५. चतुर्थस्तु मोहक्षयात्पूर्वं साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति । (वृ० प० ३८८) ३६. साम्परायिककमबन्धमेवाश्रित्याह- (वृ०प०३८८) - ३७,३८. तं भते ! कि सादीयं सपज्जवसियं बंधइ ? पुच्छा तहेव। ३६. गोयमा ! सादीयं वा सपज्जवसिय बंधइ उपशान्तमोहतायाश्च्युतः पुनरुपशान्तमोहतां क्षीणमोहतां वा प्रतिपत्स्यमानः । Jain Education Intemational Education Intermational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. *आदि रहित वलि अंत-सहित छै, क्षपक श्रेणि पेक्षाय । दशमां गुणठाणां यो बार में, ए भांगो इन न्याय ॥ ४२. आदि-रहित वलि अंत-रहित खं, अभव्य नीं अपेक्षाय । 1 ए त्रिहुं भांगा जिनजी आखिया, वारू निर्मल न्याय ॥ ४३. आदि सहित ने अंत-रहित जे निश्च करि न बंधाय । ग्यारम थी पड़ आदि सहित हुवै, तसु निश्चै अंत थाय ॥ ४४. +ग्यारमां थी पड़यां ए संपराय, आदि सहित अछे । अवश्य शिवगामी तिको, ते मणी अंत-रहित न ॥ ४५. *ते प्रभुजी ! स्यूं जीव देशे करी, कर्म में देश बांधत ? इम जिम इरियावहि बंध कह्यो, तिम त्रिहुं भंग न हुंत ॥ ४६. जाव जीव नां सर्व प्रदेश थी, सर्व कर्म बंध होय । संपराय कर्म इहविध जीवड़ो, बांधे अवलोय ॥ ४७. देश अवासी नो इकसो ऊपरे एकावनमीं ढाल । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल || हा १. कही कर्म नीं वारता, कर्म विषे इज जाण । अवतरवो परिसह तणो यथायोग्य पहिचान || २. करतां तास परूपणा, कर्म-प्रकृति कहिवाय । वली परीसह प्रति प्रथम, कहियै छै वर न्याय || २. कर्म प्रकृति प्रभु ! केतली ? आठ कहै जिनराय । ज्ञानावरणी आदि दे, जावत बलि अंतराय ॥ ४. ज्ञानावरणी कर्म धर, दर्शनावरणी ताय । वेदनी मोहणी आउलो, नाम गोत्र अंतराय ॥ ५. प्रभु! परीसह केतला ? जिन भाखे बाबोस । भूख तृषा जावत चरम, दर्शण परिसह दीस ॥ ६. भूख तृषा सी उष्ण वलि, डंसमंस चटकाय । अचेल अरति स्त्री तणो, चरिया गमन कराय ॥ *लय : सुमति जिनेश्वर लय: पूज मोटा भांज तोटा ढाल १५२ ४१. अणादीयं वा सपज्जवसियं बंधइ, आदितः क्षपकापेक्षमिदम् । ४२. अणादीयं वा अपज्जवसियं बंधइ, एताव्यापेक्षं । ( पृ० प० ३००) ४३. नो चेव णं सादीयं अपज्जवसियं बंधइ । | ४६. जाव सव्वेणं सव्वं बंधइ । ( वृ० प० ३८८ ) ४४. सादिसाम्परायिकबन्धो हि मोहोपशमाच्च्युतस्यैव भवति, तस्य चावश्यं मोक्षयायित्वात्साम्परायिकबन्धस्य व्यवच्छेदसम्भवः ततश्च न सादिरपर्यवसानः साम्परायिकबन्धोऽस्तीति । ( वृ० प० ३०) ४५. तं भंते! किं देसेणं देसं बंधइ ? एवं जहेव इरिया वयबंध (श० ८|३१३) (श० ८३१४) 7 १.२. नकोत अथ कम्स्वेव यथायो परीषहावतारं निरूपवितुमिच्छुः कर्मप्रकृती परीपांश्व तावदाह( वृ० प०३८८ ) ३, ४. कइ णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोमा ! अटुकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नाणावरणिज्जं दंसणावरणिज्जं वेदणिज्जं मोहणिज्जं आउगं नामं गोयं अंतराइयं । (१० ८२१५) ५. कइ णं भंते! परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीस परीसहा पण्णत्ता, 'जहासीतपरीसहे, ६. दिगिंच्छापरीस हे पिवासापरीसहे, उणिपरीसहे, दंसम सगपरीसहे, अचेलपरीसहे, अरइपरीसहे, इत्थिपरीसहे, चरियापरीस हे चर्या - ग्रामनगरादिषु संचरणं । ( वृ० प० ३९० ) तं श०८, उ०८, ठा० १५१,१५२ ४५७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सज्झाय भूमि वैसवूं सेज्या वध यष्ट्यादिक करि हर्णे, जाचण आक्रोसे | अलाभ जेह ॥ सतकार । 5. रोग अनें तृण फर्श नुं, जल मल नें प्रज्ञा ते मति बुद्धि नों, हरष सोग परिहार ॥ ६. ज्ञानमत्यादि विशिष्ट लही, नहि करिवू तसु मान । तास अभावे दीन नहि. ग्रंथांतरे अज्ञान । १०. दर्शण ते सम्यक्त्व विषे, शंक कंख परिहार | ए बावीस परीसहा, सहिवा हरष अपार ॥ *जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नौ ॥ (ध्रुपदं ) ११. ए बावीस परीसहा, किती कर्म प्रकृति मांव, प्रभुजी ! समवतरै वर्ते अछे ? तब भाखे जिनराय, प्रभुजी ! १२. च्यार कर्म प्रकृति नैं विषै, समवतार ते आय, हो गोयम ! ग्यानावरणी वेदनी विषे मोह अंतराय रे नांव, हो गोयम ! १३. ज्ञानावरणी कर्म नें विषे, किता परिसह वर्त्तत ? जिन कहै दोय परीसहा प्रज्ञा अनाग पामंत ॥ सोरठा १४. प्रज्ञा परिसह जाण, मति ज्ञानावरणी विषे । समवतरे से आण तास न्याय इम वृत्ति में ॥ १५. प्रज्ञा बुद्धि] अभाव, ज्ञानावरणी उदय श्री । दैन्य मान नहि साव, ते चरित्र मोह क्षयोपशमादि थी ॥ या बुद्धि नहीं पामी तेह तो ज्ञानावरणी कर्म नो उदय अनं बुद्धि नहीं पामवा थी दीनपणों नहीं करवो, बुद्धि पामवा थी मान नहीं करवो, ते चारित्र मोहणी कर्म नो क्षयोपशम उपशम क्षायक छै । *लय : शिवपुर नगर सुहामणो १. यहां अज्ञान परीषह ज्ञान परीषह के स्थान में है । भगवती में मूल पाठ में ज्ञान परीषह ही रखा गया है। उत्तराध्ययन में अज्ञान परीषह का उल्लेख है । संभव है जयाचार्य ने उसी संस्कार से यहां अज्ञान परीषह लिख दिया । अन्यथा इससे पहले गाथा 8 और आगे गाथा १६ में ज्ञानपरीषह का ही ग्रहण किया है । ४५८ भगवती जोड़ ७. निसीहियापरीसहे, सेज्जापरीस हे, अक्कोसपरीसहे, महपरोस, जायगापरीस अलाभपरीस वधो वा यष्ट्यादि --- नैषेधि की स्वाध्यायभूमिः ताडनं । ( वृ० प० २९० ) ८. रोगपरीसहे, तणफासपरीसहे, जल्लपरीसहे, सक्कारपुरस्कारपरीसहे पण्णापरीसहे प्रज्ञा मतिज्ञानविशेषस्तत्परिषहणं च प्रज्ञाया अभावे उद्वेगाकरणं तद्भावे च मदाकरणं । ( वृ० प० ३१०) ६. नाणपरीसहे ज्ञानंमत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जनं, ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरिषह इति पठ्यते । ( वृ० प० ३६० ) १०. सपपरीष ( श० ८३१६ ) दर्शनं तत्त्वश्रद्धानं तत्परिषहणं च जिनानां जिनोक्तसूक्ष्मभावानां चाश्रद्धानवर्जनमिति । ( वृ० प० ३६० ) ११. एए णं भंते! बावीसं परीसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ? १२. गोपी ममोयरंति तं जहा नाणावरणिज्जे पेत्रे, मोह, अंतराइए (श० ८।३१७) १३. नाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? יי गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा - पण्णापरीस नागपरीस व (श० ३१०) १४. प्रज्ञापरीषहो ज्ञानावरणे - मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति । (40 40 420) १५. प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवत्वात् यत्तु तदभावे दैन्यपरिवर्जनं तत्सद्भावे च मानवर्जनं तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादेरिति । ( वृ० प० ३६० ) Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. एवं ज्ञानपरीषहोऽपि नवरं मत्यादिज्ञानावरणेऽवतरति । (वृ० ५० ३६०) १७. वेदणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एक्कारस परीसहा समोयरंति, तं जहा-- १८. पंचेव आणुपुत्वी, चरिया सेज्जा बहे य रोगे य । तणफास जल्लमेव य, एक्कारस वेदणिज्जम्मि ।। (श० ८।३१६) १६. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीषहा इत्यर्थः एतेषु च पीडैव वेदनीयोत्था। (वृ० प० ३९०) २०. तदधिसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसम्भवं, अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति । (वृ० प० ३६०) १६. इमज परीसह ज्ञान, नवरं इतो विशेष छै । मत्यादि पहिछान, ज्ञानावरणी अवतरै ।। १७. *वेदनी कर्म विषे प्रभ! किता परिसहा वत्तंत । जिन कहै ग्यारै परिसहा, समवतरंत पामंत ।। १८. क्षुधा तृषा सी उष्ण नों, दंसमंस चरिया सेज । वध रोग तण फर्श जल तणो, ग्यारै वेदनी विषेज ॥ सोरठा १६. क्षधा पिपासा आद, तेह विष पीड़ा जिका । कर्म वेदनी वाद, तेह थकी जे ऊपनी॥ २०. क्षुधादि पीड़ा जेह, तेह तणो सहि तिको । चारित्रमोहणी तेह, क्षयोपशमादिक थी वृत्तौ ॥ २१. सहितां जे शुभ जोग, नाम कर्म नां उदय थी। बंधै पुन्य प्रयोग, कर्म तणी हुवै निर्जरा ॥ २२. *दर्शण मोह कर्म विषे, किता परिसह वर्तत । ___ जिन कहै एक परिसह, दर्शण समवतरंत ॥ सोरठा २३. दर्शण तत्व श्रद्धेह, दर्शण मोहणी कर्म नां । क्षयोपशमादि विषेह, तेह थकी सम्यक्त हुवै॥ २४. दर्शण मोह उदयेह, शुद्ध सम्यक्त पामै नहीं । इण कारण थी एह, दर्शण मोह में अवतरै ॥ २५. शुद्ध श्रद्धा में शंक, दर्शण मोह थी ऊपजै । तिण कारण ए अंक, दर्शण मोह में अवतरै ।। २६. *चारित्र-मोह कर्म विषे, किता परिसह वर्तत ? जिन कहै सात परिसहा, समवतरंत पामंत ॥ २७. अरति अचेल स्त्री निसीहिया, जाचना आक्रोश ख्यात । . सक्कार पुरक्कार सप्त ए, चारित्र मोह उदयात ॥ __ सोरठा २८. अरति परीसह जाण, अरति मोहनी नै विषे । समवतरै पहिछाण, अरति मोह थी ऊपनों। २६. वलि अचेल पिछान, मोह दुगंछा नै विषे । समवतरै छै जान, ए छै लज्जा अपेक्षया । ३०. स्त्री परीसह जेह, पुरुष वेद मोह नै विषे । स्त्री अपेक्षया तेह, पुरुष परीसह जाणवू । *लय : शिवपुर नगर सुहामणो २२. दसणमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एगे दंसणपरीसहे समोयरइ । (श० ८।३२०) २३. दर्शनं तत्त्वश्रद्धानरूपं दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमादी भवति । (वृ० प० ३६०) २४. उदये तु न भवतीत्यतस्तत्र दर्शनपरीषहः समवतरतीति । (वृ० प० ३६०) २६. चरित्तमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! सत्तपरीसहा समोयरंति, तं जहा-- २७. अरती अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कार-पुरक्कारे, चरित्तमोहम्मि सत्ते ते ॥ (श० ८।३२१) २८. तत्र चारतिपरीषहोऽरतिमोहनीये तज्जन्यत्वात् । (वृ० प० ३६०) २६. अचेलपरीषहो जुगुप्सामोहनीये लज्जापेक्षया । (वृ०प० ३६०) ३०. स्त्रीपरीषहः पुरुषवेदमोहे स्त्र्यपेक्षया तु पुरुषपरीषहः स्त्रीवेदमोहे। (वृ० प० ३६०) श०८, २०८, ढा० १५२ ४५६ Jain Education Intemational Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. पुरुष व जोय, अभिलाषा जे स्त्री तणो । फुन स्त्री नैं इम होय, अभिलाषा जे पुरुष नीं ॥ ३२. निसीहिया सुविचार, भव मोह विषेज अवतरं । उपसर्ग नो भय धार तेह तणीज अपेक्षया ॥ २२. बलि जायना जाण, मान मोहनी ने विषे समवतरै पहिछाण, जाचण दुक्कर पेक्षया ॥ ३४. फुन आक्रोश कहेह, क्रोध मोहनी ने विषे। समवतरै छै जेह, क्रोधोत्पत्ति अपेक्षया ।। ३५. सत्कार पुरस्कार, मान मोहनी नं विषे। समचतर सुविचार, मद उत्पत्ति अपेक्षया ॥ ३६. सामान्य थी सह एह, चारित्र मोहनीं नं विषे । समवतरे तेह, वृत्तिकार इम आलियो । ३७. *अंतराय कर्म विषे प्रभु! किता परिसह वर्त्तत । जिन कहै एक परिसह, अलाम समवतरंत ॥ सोरठा ३८. लाभांतराय उदेह लाभ अभाव बकीज फुन । तेहनु सहि तेह, चारित्र मोह क्षयोपशम वृत्ती ॥ ३६. सप्त कर्म बंधे तेहनें, किता परिसह कहंत ? जिन कहै बावीस परिसहा, वीस वलि वेदंत ॥ ४०. सीत वेदे जे समय में, उष्ण न वेदे उष्ण वेदं जे समय में वेदे नहीं ते 1 वदीत । सीत ॥ सोरठा करो । एकठा ॥ ४१ सीतोष्ण मांहोमांहि, अत्यंत ही विरोधे एक काल में ताहि, नहीं अपने ४२. जदपि बिहुं नुं जोय, एक वेलाई एकठो । संभव अवलोय, अत्यंत शीत चकाज ते ॥ छै ४२. अग्निसमीपे जेह समकाले इक पुरुष में 1 इक दिश सीत पड़ेह, बोजी दिशेज उष्ण छै ॥ ४४. इण रीते कहिवाय, सोत उष्ण परिसह तणो । संभव है इण न्याय, ए इहविध कहि नयी ॥ ४५. इहां कालकृत होज, शीत अने वलि उष्ण नां । आश्रय भाव थकीज, अधिकृत सूत्र विषे तिको ॥ ४६. तथा बहुलपणे सोय, जे इहविध व्यतिकर भण्यो । तपस्वी नैं नहि होय, ए सहु आख्यो वृत्ति में ॥ *लय : शिवपुर नगर सुहामणो ४५० भगवती-मोद ३१. तत्त्वतः स्त्र्याद्यभिलाषरूपत्वात्तस्य । ( वृ० प० ३६० ) ३२. नैषेधिकीपरीषहो भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया । ( वृ० प० १९० ) ३३. पाञ्चापरीसहो मानमोहे तदुष्करत्वापेक्षया । ( वृ० प० ३२० ) ३४. कोपरीप मक्षया । (१० १० २२० ) वृ० २१. सरकारपुरस्कारपरीपही मानमोहे मदोत्पा समवतरति । ( वृ० प० ३९०) सर्वेऽप्येते चारित्रमोहनीये समव( वृ० प० ३६० ) ३६. सामान्यतस्तु तरन्तीति । ३७. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोपमा ! एगे अलाभपरीस समोर | (श० ८३२२) 2 ३८. अन्तरायं चेह लाभान्तरायं तदुदय एव लाभाभावात् तदधिसहनं च चारित्रमोहनीयलयोपशम इति । ( वृ० १०३६०) २१. सत्तविहबंधगस्त में भते ! कति परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीस परीसहा पण्णत्ता । वीसं पुण वेदेव ४०. जं समयं सीयपरीसहं वेदेइ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेव, जं समयं उपरी वेदे तो तं समयं सीपपरीसहं वेदे । ४१. शीतोष्णयोः परस्परमत्यन्तविरोधेनंर्दासम्भवात् । (वृ० प० ३०) ४२. अथ यद्यपि शीतोष्णयोरेकर्दक त्रासम्भवस्तथाऽप्यात्यन्तिके । ( वृ० प० २२०, २२१) ४३४४ तथाविधानसन्निधौ युगपदेकस्य पुंस एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं द्वयोरपि शीतोष्णपरिषहयो रस्ति सम्भवः नैतदेवं । ( वृ० प० ३९१) ४५,४६. कालकृतीतोष्णाश्रयत्वादधिकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण तपस्विनामभावादिति । ( वृ० प० ३६१ ) Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. *चरिया वे ते समय में, निसीहिया वेदै नांहि । निसीहिया वेदं ते समय, चरियां न वेदे ताहि ॥ सोरठा ४८. चरिया का विहार, निसीहिया मास कल्पादि विवक्त उपाय सार, बेसे सरकायादि युत । हित ।। ४६. विहार अने अवस्थान, परस्पर ए बिहुं तनुं । विरोध थी पहिछान, एक काल नहि संभवे ॥ ५०. अथ सेज्या पिण ख्यात, निसीहिया परिसह नीं परै । चरिया र संघात, ए पिण विरोध हुवै अछे || ५१. तो चरिया हुने तिवार, सेज्जा निखीहिया नहि हुवे । तो उत्कृष्ट विचार, वेद एगुणवीस इम ॥ प्रति । तदा ॥ ५२. उत्तर तसु अवलोय जे ग्रामादि गमन प्रवृत्त खतेज जोय, जावा मांड्यु पिण ५३. कोयक उत्सुकथीज, चर्या थी नहि निवत्र्यो । तसु परिणामेहीज, वीसामो रास्ते लिये ॥ ५४. भोजनादिक ने अर्थ, अल्प काल सेज्या विषे । बस तास तदर्थ तदा विरोध न वि तणो ॥ ५५. गमन विषे सुविचार, अल्प काल सेज्जा रहे वेदे चरिया सार, सेज्जा पिण वेदं तदा ॥ ५६. तत्व की सुविचार, चर्या परिसह ने विधे असमाप्त थी धार, सेज्या नां आश्रयण थी ॥ ५७. जो यह विध ए हुंत, तो षड् विध बंधक किम कह्यो । जे समय चरिया वेदंत, सेज्या नहि वेदै तदा ॥ करि । विषे ॥ ५६. तर उत्तर से एम, पढ विध बंधक ने कहा । मोह अंश अल्प तेम, प्रवल मोह नं उदय नहि । ५१. सर्व कार्य मोहि, उत्सुक भाव अभाव रै सेज्जा काले ताहि बसें सेज्या मे ६०. नवमा गुण जिम जेह, सेज्या वेदे तिण उत्सुक भाव करेह, चरिया प्रति वेदं ६१. चर्या जब वेदंत, सेज्या नहि वेदै तदा । बिहुं समकाल नहिं हुंत, ए बिहुं तणो विरोध इम ॥ ६२. ते माटे इम जोय, जे सप्त कर्म बंधक तणें । परिया निसोहिया दोय, एक समय वेदं न बिहं ॥ *लय : शिवपुराण नगर सुहामणो समय । नयी ॥ ४७. जं समयं चरियापरीसह वेवेद, नो तं समयं निसीहियापरीसहं वेदेइ, जं समयं निसीहियापरीसहं वेदेइ नो सं समयं परियापरीसहं वेदेश | (० ०३२३) ४८. तत्र चर्या - ग्रामादिषु संचरणं नंषेधिकी चग्रामादिषु प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो विविक्तत रोपाश्रये गत्वा निषदनम् । ( वृ० प० ३९१ ) ४१. एवं चानयोविहारावस्थानरूपत्वेन परस्परविरोधान्नैकदा सम्भवः । ( वृ० प० ३६१ ) ५०. अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति (बु० [१०] १९१) ५१. न तयोरेकदा सम्भवस्ततश्चैकोनविंशतेरेव परीषहाणामुत्कर्षयेकदा वेदनं प्राप्तमिति । ( वृ० प० ३९१) ५२-५४ नेवं यतो प्रामादिगमनप्रवृत्तौ यदा कश्चिदत्गु क्यादनिवृत्ततत्परिणाम एवं विधामभोजनाय मित्रशय्यायां वर्त्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव । ( वृ० प० २२१) ५६. तत्त्वतश्चर्याया असमाप्तत्वाद् आश्रयस्य चाश्रयणादिति ( वृ० प० ३२१) ५७. चेवं तहि वयं पवित्रवन्धकमाथित्य वक्यति-जं समयं चरियापरीसह एति नो तं समयं सेज्जापरीसह एड इत्यादीति । ( वृ० प० ३९१ ) ५८. अत्रोच्यते, षड्विधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमान कल्पत्वात् ( वृ० प० ३९१) ५९. सर्वोत्सुक्याभावेन व्यायामेव वर्त्तते । ( वृ० प०३११) ६०, ६१. नतु बादरगवदीत्नवेन विहारपरिणामाविच्छेदाश्चर्यायामपि अतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधाचुगपदसम्भव: ( वृ० प० ३९१ ) ६२. ततश्च साध्वेव 'जं समयं चरिए' त्यादीति ( वृ० प० ३९१) श०८, उ०८, डा० १५२ ४६१ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. "जाठ कर्म बंधे तेहने, किता परिसह ताय ? जिन कहै बावीस परिसह क्षुधा तृषा कहिवाय ॥ ६४. सीय उसिण दंसमसग नों, जाव अलाभ नों जाण । इम अठ विध बंधक अपि, सप्त बंधक जिम माण | सोरठा , ६५. पूर्वे समचे वाहि कला बावीस परीसहा च्यार कर्म रै मांहि, समवतरं ते पिण कह्या ॥ ६६. पाठ पिछाण, अंतराय कर्म न विधे। समवतरं ए जाण, एक अलाभ परीसह ॥ ६७. इम अलाभ लग ख्यात, सप्त कर्म बंधक तणें । ते सहु पाठ विख्यात, कहिवुं अठ बंधक तणें ॥ ६८. अबंधक रे एम कला बावीस परीसहा | च्यार कर्म में तेम, कहि पाठ अलाभ लग ॥ वा०--- इहां गोतम पूछयो - केतला परिसहा परूप्या ? भगवंत कोबावीस परिसहा परूप्या - भूख तृषा रो नाम लेइ जाव दर्शन परिसह कह्यो । वलि पूछयो केतना कर्मप्रकृति विए बावीस परिसहा समवतरे ? जद भगवंत कह्यो — च्यार कर्म प्रकृति नैं विषे समवतरे—ज्ञानावरणी नैं विषे दोय, वेदनी नैं विषे इग्यारे, दर्शण मोहणी रे विषे एक, चारित्र मोहणी रं विषे सात, अंतराय कर्म मैं विषे एक अलाभ परिसह, ए छेहड़े कह्यो । तिम इहां पिण गोतम पूछ्यो - आठविध बंधग र किता परिसहा परूप्या ? भगवंत कहै— बावीस परिसहा परूप्या | भूख, तृखा आदि पंच परिसहा नां नाम लेइ जाव अलाभ परीसह कह्यो । ए अंतराय कर्म नैं विषे एक अलाभ परिसह समवतरै ते पाठ पूर्वे छेहड़े का छे, ते पाठ इहां पिण आठ बंधगा नैं विषे पिण छेहड़े कहिवूं । ते भणी जाव अलाभ परिसहे कह्यो इति तत्वं । ताय । ६९. *मोह उस वर्ज नें, पढ् विध बंधक आउखो सूक्ष्म संपराय ने विषे, किता परिसह कहिवाय ॥ ७०. जिन कहै षट-बंधक तणें, द्वादश पिण वेदे अछै, चउदै परिसहा न्याय इम तास जोय । होय ॥ लय शिवपुर नगर महामो १. इस वार्तिक में जिस पाठ के आधार पर परीषहों की चर्चा की गई है; वह भगवती के आठवें शतक ( सूत्र ३१६- ३२२ ) का पाठ है। उस पाठ को इसी ढाल की गाथा ५ से ३७ तक की जोड़ के सामने उद्धृत किया जा चुका है । वहां जो प्रसंग चर्चित हुआ है, उसी को उपसंहार रूप में यहां स्पष्ट किया गया है । इसलिए इस वार्तिक के सामने उक्त पाठ नहीं लिया गया । ४६२ भगवती-जो ६३. अट्ठविहबंधगस्स णं भंते ! कति परीसहा प० गो० ! बावीस परीसहा, तं० छुहापरीसहे, पिवासापहे ६४. सीपपरीत उसणपरीस, समसगपरीसहे जान अलाभपरीस एवं अट्ठविहबंधगस्स वि । ( श० ८ ३२४ का पा० टि० ) ६९. छव्विहबंधगस्स णं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता ? षड्विधबन्ध कस्यायुर्मोहवर्जानां बन्धकस्य सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः । ( वृ० प० ३११) ७०. गोयमा ! चोद्दस परीसहा पण्णत्ता । बारस पुण वेदे Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. सीत वेदै जे समय में, ते उष्ण वेदे जे समय में, ते ७२. चरिया वेदे जे समय सेज्या वेदै जे समय समय उष्ण समय सीत में, ते समय सेज्या में, ते समय चरिया सोरठा ७३. आठ परिसहा जेह, मोह कर्म थी ऊपजै । पट-बंधक ने तेह, ते आई नहि कया ॥ ७५. ते सामर्थ थी जान, नवमां मोह तणां पहिछाण, आठ ७४. इहां कोई पूछें सोव, दशम गुणठाणां म । चउद परीसह होय, मोह तणां आठूं टल्यां ॥ वेदै नांय । न वेदाय ॥ वेद नांय | न वेदाय ॥ तथा या ७६. मिले तास किम न्याय, दर्शण चिहुं अंतान' कषाय, त्रिहुं दर्शण ७७ तास अभावे जाण, जे दर्शण हुवै अभाव पिछाण, सप्त ७८. पिण आ नो नांय, सत्ता नीं अपेक्षाय, ७६. तो दशमें गुणठाण, मोह कर्म नीं छे सत्ता । तेहथि ऊपनां जाण, सर्व परीसह किम न ह्वै ॥ जो गुणठाणां मकै । परीसह संभवे ॥ दर्शण सप्तक तेहनों । मोह उपशम्यां ॥ परिसह तणो । परीसह संभव ॥ मोह नों हुवे ॥ दर्शण सप्तक उपशम्ये । ८०. तेहनों उत्तर एह, ऊपरहीज कहेह, छहड़ा छेहड़ा नां अद्धा विषे ॥ ८१. तेह नपुंसक - वेय, उपशम काल विषेज तब | नवमें गुण पामेय, त्यां दर्शण परिसह ऊपजे ॥ ८२. अन्य ग्रंथ रे मांहि, दर्शन त्रय नुं बृहत खंड । उपशमाया से ताहि सूक्षम खंडन उपशम्युं ॥ ८३. तथा नपुंसक देय, तिण साधे उपशमाविवा । उपक्रम जे अधिकेष, करिया ने मांड्यो जिणे ॥ ८४. ते वेद नपुंसक जाण, उपशम अवसर नें विषे । नवमो गुणठाण, उद बादर संपराव नों ॥ ८५. दर्शण मोहणी तास, किंचित उदय प्रदेश थी । ग्रंथ इम । दर्शण परिसह जास, ते प्रत्यय अन्य १. अनन्तानुबन्धी ७१. वं समयं सीयपरोस वेवेद्र नो तं समयं उसिपपरीसहं वेदेश, जं समयं उसपरोस वेदे न तं समर्थ सीयपरीसहं वेदे | ७२. जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदे समर्थ सेवापरीसहं वेदेश नो तं समयं बरियापरीसहं वेदे | (श० ८।३२५) ७२. अष्टानां मोहनीयसम्भवानां तस्य मोहाभावेनाभावादद्वाविशते शेषाश्चतुद्देशपरीया इति । ( वृ० प० ३९१) ७४. ननु सूक्ष्मपरायस्य चतुर्दशानामेवाभिधानान्मोहनीयसम्भवानामष्टानामसम्भव इत्युक्तं । ( वृ० प० ३९१ ) ७५. ततश्च सामर्थ्यादनिवृत्तिबादरसंपरायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः प्राप्तः । ( वृ० प० ३६१ ) ७६,७७. कथं चैतद् युज्यते ? यतो दर्शन सप्तकोपशमे बादरकषायस्य दर्शनमोहनीयोदयाभावेन दर्शनपरीषहाभावात्सप्तानामेव सम्भवः ( वृ० प० १९१) ७८. नाष्टानां अथ दर्शनमोहनीयसत्तापेक्षयाऽसावपीष्यत इत्यष्टावेव । ( वृ० प० ३९१ ) ७६. हि उपशमकत्वे सूक्ष्मसम्परायस्यापि मोहनीयसत्तासद्भावात्कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीषहा न भवन्ति ? ( वृ० प० ३६१ ) ०१. यस्मादर्शन सप्तकोपमस्योपवनपुंसक वेदाच्युपशमकालेऽनिवृत्तिवादसम्परायो भवति ( वृ० प० ३९१) , २. चावश्यादिव्यतिरिक्तप्रान्त रमतेन दर्शन त्रयस्य वृहति भागे उपशान्ते शेषे नानुपशान् एव स्यात् । ( वृ० प० ३९१) ८३. नपुंसकवेदं चासौ तेन सहोपशमयितुमुपक्रमते ( वृ० प० ३९१) ८४. ततश्च नपुंसक वेदोपशमावसरेऽनिवृत्तिबादरसम्परायस्य सतो ( वृ० प० ३६१ ) ५. दर्शनमोहस्य प्रदेश उदयोऽस्ति न तु सत्य ततस्त व्यत्ययो दर्शनपरिषहस्तस्यास्तीति । ( वृ० प० ३९१) ० उ०८, ढा० १५२ ४६३ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. तेह की अवलोय, अवलोय, परिसह इम टीका में जोय, सर्वज्ञ व ८७. सूक्ष्म संपराय सूत, मोह कर्म परिसह हेतूभूत, एह ८८. सूक्षम मात्र कहाय, मोह की उपजाय, ८६. ए सगलो विस्तार, बुद्धिवंत न्याय विचार आठई हुवे । तिकोज सत्य || विषे । नथी ॥ भणी । नहीं । आखियो । मानिये ॥ सत्ता मोह उदय मोह उदय छै ते मोह उदय चैते ते परिसह संभव टीका मांहे मिलतो हवे ते वा० - इहां कह्यो - मोह आउखो वर्जी छ कर्म बंधे ते सूक्ष्मसंपराय दशमें गुणठाणे सूक्ष्म लोभ तां जे अणु तेनां वेदवा की सरागी कहिये अने केवलज्ञान नथी ऊपनो ते मार्दै छद्मस्थ कहियें, तेहने चवदे परिसह कह्या आठ परिसह मोहणी थकी जे ऊपनां छे ते नथी । तेहनें मोहनी नां बंध तो अभाव छे। अने उदय पिण सूक्ष्म मात्र छै, ते भणी मोहनी थी ऊपनां आठ परिसह है ते दशमें गुणठाणे नथी । ते बावीस मांहि की आठ दूर कीर्ज तिवारे शेष रहे इम क " 1 वलि ते वचन नां सामर्थपणां थकी नवमैं गुणाठाणै मोहनी नां उदय थकी ऊपना आहूं परिसह नों संभव पामिये, ते किम मिले? जे भणी नवमैं गुणठाणे अनुतानबंधी क्रोध मान माया लोभ अनैं मिथ्यात मोहणी, मिश्र मोहणी, सम्यक्त्व मोहणी ए सातूं प्रकृति नैं दर्शण-सप्तक कहिये । तेहनों उपशम हुई। बादर-संपराय नां धणी ने दर्शन मोहगी तो उदय नमी, तिवारं दर्शण-परिसह पण नथी अर्ने चारित्र मोहणी नां उदय थी सात परिसह छे, ते हुवै पिण आठ किम हुवे ? अनेँ जो नवम गुणठाण दर्शन - मोहणी नीं सत्ता छै ते सत्ता नीं अपेक्षाय एवं छीए तो आठ पिण हुवे । इम जो नववें मोह- सत्ता नीं अपेक्षाय आठ परिसहा कहिईं तो दशमैं गुणठाण पिण मोहणी नीं सत्ता छै तिहां ए आठ किम न हुई । न्याय नां समानपणां थकी । अनैं दशमैं गुणठाणै तो मोहणी नां उदय नां आऊं परिसह वर्ज्या छै । अत्र उत्तरजे भणी दर्शण सप्तक उपशम नां ऊपरला बेहड़ा नां काल नैं विषेहीज नपुंसक वेद उपशमावान आदिनां काल नै विषे अनिवृत्ति बादरसंपराय नवमों गुणठाणो हुवै ते मार्ट गाणं दर्शण परिसह हुवे। तथा आवश्यकादिक व्यतिरिक्त ग्रंथांतर नैं मते इम का' छै ते कहै छै - मिथ्यात मोहणी, मिश्र - मोहणी, सम्यक्त्व - मोहणी-ए दर्शण त्रय नां बृहत भाग ते मोटा स्थूल भाग उपशांत कीधे छते अन शेष भाग ते लघु अत्यंत सूक्ष्म भाग उपशांत नहीं थया हुई नपुंसक वेद प्रत ते दर्शण मोह नां अत्यंत सूक्ष्म खंड साथै उपशमायवा में उपक्रम करे ते अणी ते नपुंसक वेद उपशम नां अवसर ने विषे अनिवृत्ति-वादर सूक्ष्मसंपराय नवमों गुणठाणो हुवै ते वेला दण-मोह में प्रदेश की उदय से पिण निकेवल सत्ता में ईज नवी ते प्रत्यय निमित्त कारण दर्शण परिसह नव गुणठाणं से, ते भणी आइ परिसह हुई इति । 1 अने सूक्ष्मसंपराय ने मोह-सत्ता ने वि पिण ते परिसह हेतुभूत नवी अनं सूक्ष्म मात्र पिण मोहनीय नो उदय छे ते भणी ते सूक्ष्म मात्र मोह नां उदय थी परिसह नों संभव न हुई । जे सूक्ष्म लोभ कीट्टिका नों उदय छे ते परिसह नो हेतुभूत ४६४ भगवती - जोड़ ८६. ततश्चाष्टावपि भवन्तीति (०१० ३९१) ८०. सूक्ष्मसम्परायस्व तु मोहसत्तायामपि न परषहहेतुभूतः ( वृ० प० ३९१ ) ८८. सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीषह( वृ० प० ३९१ ) सम्भवः । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं। लोभ-हेतुक नैं परिसह नां अणकहिवा थकीज तिहां मोह ना उदय ना परिसह नथी। अथवा कोइ पिण कथंचित किणहि प्रकार कर ए जो हुई तो तेहन इहां अत्यंत अल्पपण करी वंछयो नथी, एहq टीका मध्ये कह्य। ते बहुश्रुत विचारी न्याय मिलै ते प्रमाण करिये, वलि केवली वदै ते सत्य । अनै आठमै गुणठाणे उपशमसम्यक्त्व हुई, ए दर्शण मोह नां बडा खंड उपशमाया अनै लघु खंड उपशमावा लागो ते 'कडेमाणे कडे' ए वीतराग री सरधा रै लेखै उपशम सम्यक्त्व कहिये । उपशमावा लागो तेहनै उपशमायो कहिये । इण न्याय आठमै गुणाठाण उपशम-सम्यक्त्व वर्तमान काले आवै। अनै जो चोथा सूं लेइ सातमां गुणठाणां तांइ पिण उपशम-सम्यक्त्व छै, ते जो आगली उपशम-सम्यक्त्व हुई। पछै श्रेणि चढे तो बात न्यारी, एहवू पिण जणाय छै । वलि केवली वदै ते सत्य । ६०. *वीतराग छनस्थ जे, इकविध बंधक जाण । किता परीसह परूपिया, ग्यारम बारम ठाण? ११. जिन भाखै इमहीज छ, षट विध-बंधक जेम । चउद परीसह परूपिया, द्वादश वेदै तेम। ६०. एक्कविहबन्धगस्स णं भंते ! वीयरायछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता? ६१. गोयमा ! एवं चेव जहेव छव्विहबन्धगस्स । (श० ८।३२६) 'एवं चेवे' त्यादि चतुर्दश प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्वेदयतीत्यर्थः (वृ० ५० ३६२) ६२,६३. शीतोष्णयोश्चर्याशय्ययोश्च पर्यायेण वेदनादिति (वृ० ५० ३६२) ६२. सीत वेदै जे समय में, उष्ण न वेदै वदीत । उष्ण वेदै जे समय में, वेदै नहिं ते सीत ।। ६३. चरिया वेदै जे समय में, वेदै नहिं ते सेज । सेज्या वेदै जे समय में, चरिया अवेद कहेज ॥ ६४. एक कर्म बंधै तेहन, सजोगी केवली जाण । किता परीसह तेहनें, तेरसमें गणठाण || ६५. जिन कहै ग्यार परीसहा, नव पुण वेदै तेम । शेष सहु विस्तार ते, षटविध-बंधक जेम । ६६. कर्म न बंधै तेहन, अजोगी केवली एह । किता परीसह परूपिया, चोदशमै गण जेह॥ ६७. जिन भाखै सुण गोयमा ! तास परिसहा ग्यार । नव पुण ते वेदै अछ, ए जिन वयण उदार ॥ १८. सीत वेदै जे समय में, उष्ण न वेद वदीत । उष्ण वेदै जे समय में, वेदै नहि ते सीत ।। १४. एगविहबन्धगस्स णं भंते ! सजोगीभवत्थकेवलिस्स ___ कति परीसहा पण्णत्ता? ६५. गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। नव पुण वेदेह । सेसं जहा छविहबन्धगस्स । (श० ८।३२७) १६. अबन्धगस्स णं भंते ! अयोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णत्ता? ६७. गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। नव पुण वेदेइ१८. जं समयं सीयपरीसहं वेदेइ नो तं समयं उसिणपरी सहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ, ६६. जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेज्जापरी सहं वेदेइ, जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ। (श० ८।३२८) ९९ चरिया वेदै जे समय में, वेदै नहिं ते सेज । सेज्ज वेदै ते समय में, चरिया अवेद कहेज'। *लय : शिवपुर नगर सुहामणो १. कहां कितने परीषह होते हैं और जघन्यतः तथा उत्कर्षतः एक साथ कितने परीषह हो सकते हैं? कौन-कौन से परीषह एक साथ नहीं होते ? इन प्रश्नों १०६, ३.८,०१५२ ४६५ Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. देश अठ्यासी नों ए कह्य, इक सौ बावनमी ए ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ॥ ढाल : १५३ १. अनन्तरं परीषहा उक्तास्तेषु चोष्णपरीषहस्तद्हेतवश्च सूर्या इत्यतः सूर्यवक्तःव्यतायां निरूपयन्नाह (वृ० प० ३६२) दूहा १ कह्या परिसहा तेह विषे, उष्ण परीसह जाण । तसु हेतू रवि तास हिव, वक्तव्यता पहिछाण ॥ __ *प्रभु ! अरज करूं छू वीनती । (ध्रुपदं) २. हो प्रभ! जंबूद्वीप नामा द्वीप में, ए तो सूरज दोय सुजाण हो। हो प्रभु ! ऊगवाना जे काल नां, महूर्त विषे पहिछाण हो। ३. देखणहार जे मनुष्य छ, तेहनां स्थान तणी अपेक्षाय । दूर ते अलग रह्यो रवि, मूल ते निकट देखाय । २. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि : ४. मध्यांत मध्य विभाग में, ओ तो गगन तणो मध्य धार । ___ अथवा दिवस नां मध्य नां, तिण महत विषे विचार ॥ ३. दूरे य मूले य दीसंति ? 'दूरे च', द्रष्ट्रस्थानापेक्षया व्यवहिते देशे 'मूले च' आसन्ने (वृ० प० ३६३) ४. मझतियमुहुत्तंसि मध्यो---मध्यमोऽन्तो विभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः (वृ० प० ३६३) ५. मूले य दूरे य दीसंति ? 'मूले च' आसन्ने देशे द्रष्ट्रस्थानापेक्षया 'दूरे च' व्यवहिते देशे द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया (वृ० प० ३६३) ६. अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? ५. देखणहार नां स्थान अपेक्षया, मल कहितां नजीक छै एह । द्रष्टा-प्रतीति अपेक्षया, दूर कहितां ते अलग दीसेह॥ ८. द्रष्टा हि मध्याह्न उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसन्नं रवि पश्यति योजनशताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्त्वात्। (वृ० ५० ३६३) ६. आथमता महत ने विषे, रवि दूर रह्यो पिण जेह । ___अनेक सहस्र जोजन रह्यो, मूल कहितां ते निकट दीसेह ।। ७. जे ऊगतो आथमत भान, इहां थी अति दूर ही। ___ अनेक सहस्र जोजन पिण, भू थकी दीसै निकट ही। ८. मध्यान ही शत अष्ट जोजन, भू थकी तो निकट ही। रवि उदय अस्तम पेक्षया, ते दूर दीसै छ सही। के उत्तर प्रवचन सारोद्धार गाथा ६६० एवं ६९१ में उपलब्ध हैं। वे गाथाएं अविकल रूप से उद्धृत की जा रही हैं बावीसं बायरसंपराय चउदस य सुहम (संप) रायम्मि । छउमत्थ वीयरागे चउदस इक्कारस जिणम्मि ॥१॥ बीसं उक्कोसपए वट्टति जहन्नओ य एक्को य । सीओसिणचरिय निसीहिया य जुगवं न वट्ट ति ॥२॥ *लय : अहो प्रम चन्द जिनेश्वर लिय : पूज मोटा मांज तोटा ४६६ भगवती-जोड़ . . Jain Education Intemational Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६,१०. हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य तं चेव जाव (सं० पा०) अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति। (श० ८।३२६) ६. *अहो मनि जिन कहै हंता गोयमा ! जंबूद्वीप विषे रवि दोय । गोयम ! अलग छता उदय काल में, मनुष्य निकट दीसै सोय ॥ १०. तं चेव जाव कहीजिय, आथमै तेह महर्त मांय । दूर ते अलगा रह्यां रवि, इहां मनुष्य ने निकट देखाय ॥ ११. जंबूद्वीप नामा द्वीप में, रवि उदय मुहूर्त विष ताहि । मध्य महत दोपहर में, वलि आथमै ते महतं मांहि ।। समभूतला नी अपेक्षया, ऊंचो आठसै योजन जोय । सर्व ठाम सरिखा हुवै? कांइ जिन कहै हंता होय ।। १३. जंबूद्वीप में जो रवि, उदय मध्य आथमते काल । भ थकी सगलै सारिखो, कांइ ऊंचपणे करि न्हाल । ११. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उगमणमुहत्तंसि मज्झतियमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहत्तंसि य १२. सब्वत्थ समा उच्चत्तेणं ? हंता गोयमा ! .... (श० ८।३३०) समभूतलापेक्षया सर्वत्रोच्चत्वमष्टी योजनशतानीतिकृत्वा (वृ० प० ३९३) १३. जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उम्गमणमुहुत्तंसि मतियमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, १४. से केणं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? १५. गोयमा ! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुतंसि दूरे य मूले य दीसंति १४. किण अर्थे प्रभ ! इम कह्यो, उदय आथमतो रवि एह । दूर रह्यो दीस निकट ही, मध्य निकट पिण दूर दीसेह? १५. वीर कहै लेश्या तणां, प्रतिघात करिने एह । रवि ऊगवा नां महर्त विषे, दूर रह्यो पिण निकट दीसेह॥ १६. तेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वात् तद्देशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः। (वृ० प० ३६३) १७. लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन दूरस्थोऽपि स्वरूपेण सूर्य आसन्नप्रतीति जनयति । (वृ० ५० ३६३) १८. लेसाभितावेणं मझतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति सोरठा १६. रवि दूरपणां थी जाण, तेज तणां प्रतिघात कर । तेह देस में माण, प्रसरण न हवे तेज नों॥ .थयो लेश प्रतिघात, दूर रह्यो पिण एह रवि । सुखे दीसवो थात, नजीक दीसै ते भणी॥ १५. *तेज नै प्रबलपण करी, मध्य दिवस महत ते काल । रवि ठुकड़ो निकट रह्यो थको, दूर अलग दोसतो न्हाल ।। सोरठा १६. प्रबल तेज करि ताय, सूर्य निकट रह्यो छतो। दुखे दीसवो थाय, अलगो दीसै ते भणी॥ २०. *लेश्या ते रवि नां तेज नां, प्रतिघात करीने हंत । आथमता महत – विषे, दूर रह्यो पिण निकट दीसंत ।। २१. तिण अर्थे करि गोयमा ! रवि ऊगता मुहूर्त माय । दूर थकी दीसै ढकड़ा, जाव अस्तम जाव देखाय ।। १६. तेजः प्रतापे च दुर्दश्यत्वेन प्रत्यासन्नोऽप्यसो दूरप्रतीति जनयतीति । (व.० ५० ३६३) २०. लेसापडिघाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति । २१. से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति । (श० ८।२३१) *लय : अहो प्रभु चन्द जिनेश्वर म०८, उ० ८, दा० १५३ ४६७ Jain Education Intemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सुरिया कि तीयं खेत्तं गच्छंति? पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति ? अणागयं खेत्तं गच्छंति ? २३. गोयमा ! नो तीयं खेत्तं गच्छंति पडुप्पन्न खेतं गच्छंति, नो अणागयं खेत्तं गच्छति। (श० ८।३३२) २४. इह च यदाकाशखण्डमादित्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत् क्षेत्रमुच्यते (वृ० प० ३६३) २२. जंबूद्वीप में बे रवि, स्य जावै छै खेत्र अतीत । वर्तमान-खेत्रे जावै अछ, अनागत खेत्रे जावै रीत ? २३. श्री जिन भाखै सांभलो, गया क्षेत्र प्रति नहिं जाय । वर्तमान खेत्र प्रति जाय छै, अनागत प्रति जावै नांय ।। सोरठा २४. जेह खंड आकाश, तेह खंड प्रति जे रवि । निज तेजे करि तास, व्याप ते खेत्रज कह्य॥ २५. 'गयो क्षेत्र नहिं जाय, अतीत खेत्र उलंघियो । जाय वर्तमान मांय, जावा लागो ते भणी ॥ २६ अनागत जे खेत, ते प्रति पिण जावै नहीं। उद्योत न करै तेथ, ए पिण वो ते भणी । २७. जावै छै ए जान, वर्तमान वाची शबद । ते माटै वर्तमान, क्षेत्र प्रतै जावै रवि ॥ २८. गयो ए शब्द अतीत, जास्य काल अनागते । ए बिहुँ प्रश्न संगोत, पूछा न करी छै इहां'। (ज० स०) वा०-इहां पाठ में पूछा इम करी-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया कि तीयं खेत्तं गच्छंति ? पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति ? अणागयं खेत्तं गच्छंति ? इहां गच्छंति ए शब्द वर्तमान काल वाची छ । वर्तमान काल में सूर्य जे खेत्रे जाय तेहनी पूछा करी ते माट गच्छंति पाठ कह्यो। गये काल नीं पूछा हुवै तो गच्छंसु पाठ हुवे, ते इहां नहीं। आगमिया काल नी पूछा में गच्छिस्संति पाठ हुवे, ते पिण इहां नहीं। ते माट गच्छंति ए वर्तमान काल में सूर्य जाय, तेहनींज पूछा करी, जद भगवान वर्तमान नों ज जाब दियो । २६. *जंबूद्वीप में बे रवि, कांइ गया क्षेत्र प्रति ताय । अवभासै छै ते सही, कांई थोड़ो उद्योत कराय? ३०. तथा वर्तमान जे खेत्र नै, अवभासै करै अल्प उद्योत । अथवा खेत्र अनागत प्रतै, अवभास करै अल्प जोत ? ३१. जिन भाख गया खेत्र में, नहिं अवभासै छै ताहि । __ अवभासै खेत्र वर्तमान में, अनागत अवभासै नांहि ॥ ३२. स्यफर्यो तेजे करी, अवभासै अल्प अद्योत ? ___ के तेजे अणफर्शियो, अवभासै अल्पज जोत ? ३३. जिन भाखै फों थको, अवभासै अल्प उद्योत । अणफर्यो अवभास नहीं, जाव नियमा छ दिशि अल्प जोत ।। २६. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया कि तीयं खेत्तं ओभासंति ? अवभासयतः ईषदुद्द्योतयतः (वृ०प० ३६३) ३०. पडुप्पन्न खेत्तं ओभासंति? अणागयं खेत्तं ओभासंति? ३१. गोयमा ? नो तीयं खेत्तं ओभासंति, पड़प्पन्नं खेत्तं ओभासंति नो अणागयं खेत्तं ओभासंति । (श० ८।३३३) ३२. तं भंते ! किं पुटुं ओभासंति ? अपुटु ओभासंति ? ३३. गोयमा ! पुट्ठ ओभासंति, नो अपुट्ठ ओभासंति जाव नियमा छद्दिसि (श० ८।३३४) *लय : अहो प्रभु चन्द जिनेश्वर ४६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. जंबूद्वीप में वे रवि, गये खेत्रे अधिक उद्योत । इम जावत नियमा छ दिशे, कांइ अतिशय करि अति जोत ।। 1 ३५. इम तपै छै उष्ण किरण थकी, इम भासंति शोभे जेह । बाबत नियमा छ दिशे विहं सूर्य नीं बात एह ॥ ३६. कह्यो तेहिज अर्थ जेह, शिष्य ने हित अयें बलि प्रकारांतरे कहेह, वक्तव्यता सूरज स्पू खेत्र अतीत मांय । ₹ कज्जद ते भवति कहाय ॥ तणी ॥ ३७. *जंबूद्वीप में वे रवि, अवभासनादि क्रिया हुवे ३८. तथा वर्तमान क्षेत्र में विषे, अवभासनादि क्रिया होय ? तथा क्षेत्र अनागत ने विधे, क्रिया अवभासनादिक जोय ? ३६. जिन भा गया क्षेत्र में अवभासनादि क्रिया नाय । क्रिया वर्त्तमान खेत्रे हुवै, खेत्र अनागत नहिं थाय ॥ ४०. अवभासनादि तिका क्रिया, स्वं तेजे अथवा क्रिया तेजे करी, अगफ ४१. जिन भाखं तेजे फर्शी हवं, पिण जावत नियमा छ दिशे, पाठ ४२. जंबूद्वीप में बे रवि, खेत्र केवलो खेच हेठो वर्प, तिरछो करि फर्स्था होय । थी हवे सोव ? अणफर्शी नहि होय । इहां लग कहिवो जोय ॥ केतलो ऊर्द्ध तपंत ? क्षेत्र कितो तर्प अंत ! ४३. सूर्य तणां विमाण थी, इकसौ जोजन ऊर्द्ध तपंत । ऊंचो ताप क्षेत्र एक्लोज छं. नीचो जोजन अठारसौ त ।। सोरठा समभूतलो । विजय ॥ ४४. रवि-मंडल थी हेठ, अठसौ जोजन तेहथी नीचो नेठ, सहस्र जोजन कंडो ४५. अधोलोक तेह, त्यां ग्रामादिक जे हुई। छै जिहां उद्योत करेह, अठदश सौ तल इम कला ॥ ४६. * तिरछो सैंताली सहस्र जोजन तपै, वलि दोय सौ तेसठ जाण । जोजन नां साठिया भाग महिला, एकवीस भाग पहिछाण ॥ सोरठा दिन एह, चक्षु फर्श पूनम आसाढी जेह, सूर्य भितर ४७. सर्वोत्कृष्ट * लय : अहो प्रभु चंद जिनेश्वर अपेक्षया । मंडले || ३४. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया कि तीयं खेत्त उम्नोति ? एवं चैव जाव नियमा छद्दि सिं । (०२३५) ३५. एवं तवेंति, एवं भासंति जाव नियमा छद्दिसि । (श० ८।३३६ ) २६. उक्तमेवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेणाह( वृ० प० ३९३) ३७. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जइ ? किरिया कज्जइ' त्ति अवभासनादिका क्रिया भवतीत्यर्थः (बृ० प० ३९३) ३८. पप्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ ? अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ ? २२. गोवमा ! नो ती येते किरिया कद, पपन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ, नो अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ । (० बा३३७) ४०. सा भंते! किं पुट्टा कज्जइ ? अपुट्टा कज्जइ ? 'पुटु' त्ति तेजसा स्पृष्टात् ( वृ० प० ३९३ ) ४१. गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव नियमा छि (श० ८|३३८) ४२. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उड्ढ तवंति ? के वतियं खेत्तं अहे तवंति ? केवतियं खेत्तं तिरियं तवति ? ४२. गोमा ? एवं जोयगसवं उद्धं तयंति, बारस जोयणसयाई आहे तवंति । ४४, ४५. सूर्यादष्टासु योजनशतेषु भूतलं भूतलाच्च योजनसहयलोकमा भवन्ति तांश्व यावदुद् द्योतनादिति । (० ०३२३) ४६. सीयालीस जोयणसहस्साई दोणिय वट्ठे जण एक्कबीच सभाए जोयणस्स तिरियं तवति । (० ०३३९) ४७. एतच्च सर्वोत्कृष्टदिवसे चक्षुः स्पर्शापेक्षयाऽवसेयमिति । ( वृ० प० ३१३) श०८, उ०८, ढा० १५३ ४६९ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. आणी पूर्वे एह, वक्तव्यता सूरज तणी । तसु सामान्यपणेह, हिव जोतिषी नीं कहै ॥ ४९. * मानुषोत्तर गिरि तणें कांइ मितर व चंद्र सूर्य ग्रहण लगो, कांद नक्षत्र ५०. ते सुर स्पू ऊ अपना ? जिम जीवाभिगम तिमहि कहि सर्व ही, जाव उत्कृष्ट विरह छ मास ॥ 1 ५१. मानुषोत्तर बाहिरं, बाहिरे, जिम जीवाभिगमे जीवाभिगमे जोय । जाव इंद्र स्थान ऊपजवा तणो, प्रभु ! विरह केतलो होय ? ५२. जिन कहै घर इक समय नुं उत्कृष्ट छ मास कहेस । सेवं भंते! सेवं भंते! कहा, अष्टम शतक नौ अष्टमुदेश || ५३. एक सो तेपनमीं कही, आ तो ढाल रसाल उदार । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, 'जय जश' सुख संपति सार ॥ अष्टमशते अष्टमोद्देकार्थः || ढाल : १५४ दूहा १. अष्टम उद्देशक विषे, देव वक्तव्यता तेहनी कही, तिका २. ते मार्ट हिये बीससा, तथा अनूप । तारारूप ॥ विमास । कहियै छै वर्णन तसु, जिन वच अमल अमंद ॥ ३. कतिविध बंध को प्रभु ! जिन कहै दो प्रकार प्रयोग-बंध प्रथम कह्यो, द्वितीय वीससा धार ॥ ४. जीव प्रयोगे बंध कर बंध स्वभाव थकी प्रयोग बंध ते पेल थयो, तेह वीससा देख || + जय-जय वाणी जिन तणी ॥ ( ध्रुपदं ) ५. वीससा - बंध प्रभु ! कतिविधे ? जिन कहै द्विविध रीत । आदि सहित बंध वीससा, दूजो आदि-रहीत || *लय : अहो प्रभु चन्द जिनेश्वर +लय : वीरमती कहै चंद नं ४७० भगवती-जोड़ जोतिषी जोय । स्वभाविक होय ॥ प्रयोगिक बंध | ४८. अनन्तरं सूर्यवक्तव्यतोक्ता, अथ सामान्येन ज्योतिष्कवक्तव्यतामाह( वृ० १० २८३) ४६. अंतो णं भंते! माणुसुत्तरपव्वयस्स जे चंदिम-सूरियगहगण णक्खत्त ताराख्वा ५०. ते णं भंते! देवा कि उड्ढोववन्नगा ?. जहा जीवाभिगमे ( ३ ) तहेव निरवसेसं जाव (१० ८३४०) ......... उक्को सेणं छम्मासा । ( श० ८|३४१) ५१, ५२. बहिया णं भंते! माणुसुत्तरपव्वयस्स...... जहा जीवाभिगमे (३) जाव - इंदापे में भंते! केवतिमं का पण्णत्ते ? गोयमा ! जहणणं ( श० ८ ३४२ ) उपवाएणं विरहिए एक्कं समयं उक्कोसे (४० ०२४३) (४० २३४४) छम्मासा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १.२. अष्टमद्देश ज्योतियां वक्तव्यतोक्ता सा च defeatति वैrसिकं प्रायोगिकं च बन्धं प्रतिपिपादयिषुर्नवमोद्देशक माह ( वृ० प० ३९४ ) ३. कतिविहे णं भंते! बन्धे पणते ? गोयमा दुविहे बंधे पण तं य वीससाबंधे य । ४. जहा—पयोग बंधे (श० ८ ३४५) गति जीवप्रयोगकृतः बीसाबंधे ' त्ति स्वभाव सम्पन्नः । ( वृ० प० ३९४ ) ५. ते कतिविहे पण ? गोपमा ! दुविहे पण्यते तं जहा-सादीयवीससाबंधे य अणादीयवीससाबंधे य । ( श० ८ ३४६ ) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-यथासत्तिन्यायमाश्रित्याह (वृ० प० ३६४) ६. अणादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिबिहे पण्णते ? ___ गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा७. धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, वा० --जिम आसन्न ते नजीक बीससा-बंध छ, ते माटै प्रथम वीससा-बंध कहै छै-- ६. आदि-रहित बंध वीससा, कतिविध भगवान ? जिन कहै त्रिविध परूपिया, सुण सूरत दे कान । ७. धर धर्मास्तिकाय नां, प्रदेशां नो कहाव । माहोमांहि बंध छै तिको, आदि-रहित स्वभाव । ८. फुन अधर्मास्ति काय नां, प्रदेशां नो कहाव । माहोमांहि बंध छ तिको, आदि-रहित स्वभाव ।। ६. वलि आगासत्थिकाय नों, प्रदेशां नो कहाव । माहोमांहि बंध छै तिको, आदि-रहित स्वभाव ।। १०. प्रभु ! धर्मास्तिकाय नों, बंध प्रदेशां नो संध । आदि-रहित वीससा तिको, देश-बंध सर्व-बंध ।। ८. अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, ६. आगासत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे । (श० ८।३४७) १०. धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबन्धे णं भंते ! कि देसबन्धे ? सव्वबन्धे ? ११. देशतो—देशापेक्षया बन्धो देशबन्धो यथा सङ्कलिकाकटिकानां, (वृ० ५० ३६५) १२. सर्वतः सर्वात्मना बन्धः सर्वबन्धो यथा क्षीरनीरयोः । __ (वृ० प० ३६५) १३. गोयमा ! देसबन्धे, नो सम्वबन्धे सोरठा ११. देश थकी जे होय, देश तणीज अपेक्षया । बंध तिको अवलोय, सांकल कटका नी परे । १२. सर्व थकी जे थाय, सर्वात्माइं बंध ते । सर्व-बंध कहिवाय, क्षीर नीर जिम जाणज्यो॥ १३. *जिन भाखै देश बंध है, सर्व बंध न होय । न्याय कहूं छू एहनों, सुणजो सहु कोय ।। सोरठा १४. जे धर्मास्तिकाय, तेहनां प्रदेशां तणो । कहिये मांहोमांय, संफर्श करि देश बंध ॥ १५. सर्व बंध नहिं थात, तिहां जे एक प्रदेश नों। अन्य सहु प्रदेश साथ, अन्योऽन्य मिलिया नहीं। १६. एक प्रदेश में जोय, सर्व प्रदेश मिल्यां छतां । धर्मास्ति नों सोय, एक प्रदेशपणुंज ह॥ १७. असंखेज्ज जे ताय, प्रदेशपणे हुवे नहीं । . ते भणी देश बंध थाय, पिण नहिं छै ते सर्व बंध ॥ १८. *इम अधर्मास्तिकाय नों, इम आकास्तिकाय । आदि-रहित बंध वीससा, देश-बंध कहाय ।। १४. धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शेन व्यवस्थि तत्वाद्देशबन्ध एव। . (वृ०प० ३६५) १५-१७. न पुनः सर्वबन्धः तत्र हि एकस्य प्रदेशस्य . प्रदेशान्तरैः सर्वथा बन्धेऽन्योऽन्यान्तर्भावनैकप्रदेशत्वमेव स्यात् नासंख्येयप्रदेशत्वमिति । (वृ० प० ३६५) १८. एवं अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबन्धे वि, एवं आगासत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबन्धे वि। (श० ८।३४८) १६. धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबन्धे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? १६. प्रभ! धर्मास्तिकाय नों, अन्योऽन्य अनाद । वीससा बंध अद्धा कितो, रहै काल थी वाद ? लय : बीरमती कहै चंद ने श०८, उ०८, ढा. १५४ ४७१ Jain Education Intemational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. श्री जिन भासं गोषमा ! सदा काल रहाव । इस अधर्मास्तिकाय है, इम आगासत्विकाय ॥ " २१. आदि सहित प्रभु! बीससा, बंध केवल भेद ? जिन कहै त्रिविध परूपिया, सुणजो आण उमेद ॥ २२. बंधन- प्रत्यय घर को भाजन-प्रत्यय बीजो। परिणाम प्रत्ययं तीसरो, तसु अर्थ सुणीजो || २३. बांधिये जे एणे वांछित स्निग्ध आदि २४. भाजन आधारभूत जे, जेहनें विषे असे तसु २५. परिणाम ते अन्य रूप में, तेहिज प्रत्यय हेतु ज्यां, दूहा तेह ॥ हेतु । करी, बंधन तेह कहेह । गुण, प्रत्यय हेतु तेहिज प्रत्यय भाजन प्रत्यय गमन जायवो परिणाम प्रत्यय वेतु ॥ जाण । माण | २६. *बंधन प्रत्ययस्यूं प्रभु! तब भाखे जिनचंद । जे परमाणु-पोग्गला, दुप्रदेशिया बंध | २७. तीन प्रदेशिया जाव ते दश प्रदेशिया देख | संख असंख प्रदेशिया, अनंत प्रदेशिया पेख ॥ २८. विषम भाषा जेहने विषे ते बेमात्रा कहीजं । तेहिज से चींगटापणं, बेमायणिद्ध लीजे ॥ , २६. विषम मात्रा जेहनें विषे, ते बेमात्रा कहीजै । तेहिन से लूखापणुं, बेमाय लुक्ल लीजे ॥ ३०. विषम मात्रा जेहने विषे, ते बेमात्रा प्रत्यक्ख । तेहिज निद्ध लुक्लापणु बेमायणिद्धलुक्ख ॥ ३१. सम गुण निद्ध बंधे नहीं, सम गुण निद्ध साथ । सम गुण लुक्ख बंधे नहीं, सम गुण लुक्ख संघात ॥ ३२. विषम मात्रा निद्ध ते, निद्ध साथ बंधात । विषम मात्रा लुक्ख ते बंधे लुक्ख विषमात ॥ ३३. बे गुण निद्ध जे चींगटो, अन्य बे गुण निद्ध । ते साचे बंध दुवै नहीं, सम गुण मार्ट प्रसिद्ध ॥ ३४. ये गुण लुक्लो जेह छै, बली अनेरो जेह । बे गुण लुक्खो तेह थी, ए पिण नहिं बंधेह ॥ ३५. इणविध बंध वे नहीं, तो हिव किणविध होय ? चित्त लगाई सांभलो, वारू जिन वच जोय ॥ *लय : वीरमती कहै चंद ने ४७२ भगवती जोड़ २०. गोयमा ! सव्वर्द्ध एवं अधम्मत्थिकाय अण्णमण्णअणादीयवीससाबन्धे वि एवं आगासत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीस साबन्धे वि । ( ० ८१४९) २१. सासवणं भंते! कतिविहे गोवमा ! तिथिटे पण तं जहा ? २२. बन्धणपच्चइए, भायणपच्चइए, परिणामपच्चइए । (०८३५०) २३. बन्धनं विवक्षितस्निन्तादिको गुणः स एव प्रत्ययो हेतुर्यत्र सः । ( वृ० प० ३९५ ) २४, २५. एवं भाजनप्रत्ययः परिणामप्रत्ययश्च, नवरं भाजनं आधारः परिणामो—रूपान्तरगमनं । (२००३२५) २६. से किं तं बन्धणपच्चइए ? बन्धणपच्चइए – जण्णं परमाणुपोग्गल दुप्पदेसिय - २७. तिप्पदेसिय जाव दसपदेसिय संखेज्जपदेसिय असंखेज्जपदेसिय अणतपदेसियाणं खंधाणं २८. वेमायनिद्धयाए विषमा मात्रा यस्यां सा विमात्रा सा चासौ स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता । ( वृ० प० ३६५) २६. २०. मानिनुक्याए ३१,३२. समनिपाए बम्बो न हो इसखाए विन हो। मायनिद्धलुक्खत्तणेण बन्धो उ खंधाणं || (बृ० प० ३१५) ३३. समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाणुद्व्यणुकादिना बन्धो न भवति । (५०० ३९५) ( वृ० प० ३६५ ) ३४. समगुणरूक्षस्यापि समगुणरूक्षेण Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः । (वृ० प० ३६५) ३७,३८. निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, (वृ०प० ३६५) ३६,४०. लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं। (वृ० प० ३६५) ३६. विषम मात्रा चींगटो, चींगटा थी बंधे । इमज लक्ख लुक्ख थी बंध, खंध नों बंध संधै ॥ ३७. निद्ध गण परमाण आदि जे, अन्य निद्ध गण साथ । बंध हुवै तो निश्चै करि, गण बे आदि अधिकात ॥ ३८. एक परमाण आदि जे, इक गुण निद्ध जोय । बे गुण निद्ध बीजो अण, ते साथै बंध होय ॥ लक्ख गण परमाणु आदि जे, अन्य लक्ख गण साथ । बंध हुवै तो निश्चै करि, गण बे आदि अधिकात ॥ ४०. एक परमाणु आदि जे, इक गुण लक्ख जोय । बे गुण लुक्ख बीजो अणु, ते साथै बंध होय ।। ४१. इम विषम मात्रा करि, निद्ध निद्ध साथ बंधात । वलि विषम मात्रा करि, लक्ख बंधै लक्ख साथ ॥ ४२. हिव निद्ध लुक्ख बिहुं तणो, बंध हुवै माहोमाय । ते आश्री कहिये अछ, सुणज्यो चित्त ल्याय ।। ४३. बंधै लुक्खो नैं चींगटो, एक जघन्य गुण वरजी । विषम तथा सम नैं विषे, बंध कह्यो इम जिणजी। ४४. इक गुण निद्ध ते चींगटो, इक गण लक्ख संघात । एह जघन्य गुण नहिं बंधै, अन्य विषे बंध थात । ४५. इक पुद्गल निद्ध इक गणे, दूजो पुद्गल ताय । लुक्ख बे त्रिण गुण आदि दे, विषम गुण इम बंधाय ॥ ४६. इक पुद्गल निद्ध बे गणे, अन्य पुद्गल जोय । ___बे गुण लुक्ख साथे बंधै, ए सम गुण बंध होय ॥ ४७. इक पुद्गल निद्ध त्रिण गुणे, तोन गुण लक्ख साथ । इत्यादिक सम गुण नै विषे, बंध कह्यो जगनाथ ।। ४८. इम निद्ध लक्ख बंधै अछ, सम विषम संघात । निद्ध लुक्ख पिण गुण जघन्य ते, एक गुण न बंधात ॥ ४६. बंधन नो पूरव कह्यो, प्रत्यय कहितां हेतु । विमात्र स्निग्ध आदि थी, बंध ऊपजै वेतु ॥ ४३,४४. निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो, जहन्नवज्जो बिसमो समो वा॥ (वृ०प० ३६५) ५०. एक समय रहै जघन्य थी, उत्कृष्ट थी जेह । काल असंख्यातो रहै, असंख कालचक्र एह ॥ (बंधन-प्रत्यय ए कह्यो) ५१. भाजन-प्रत्यय कवण ते? भाजन कहिये आधार । प्रत्यय हेतु जेह छै, भाजन-प्रत्यय विचार ॥ ५२. जे जीर्ण जूनी सुरा तणो, जाडी थावा नों जेह । तेहिज लक्षण रूप में, बंध भाख्यो एह ।। ४६. बन्धणपच्चएणं बन्धे समुप्पज्जइ, बन्धनस्य-बन्धस्य प्रत्ययो-हेतुरुक्तरूपविमात्रस्निग्ध तादिलक्षणो बन्धनमेव वा... (वृ० प० ३६५) ५०. जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । से तं बन्धणपच्चइए। (श० ८।३५१) असंख्येयोत्सपिण्यवसप्पिणीरूपं (वृ०प० ३६५) ५१. से किं तं भायणपच्चइए? भायणपच्चइए५२. जण्णं जुण्णसुर तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो बन्धः । (वृ० प० ३६५) श०८, उ०८, ढा० १५४ ४७३ Jain Education Intemational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. जूना गुल नो तथा बलि, जूनो जीर्ण तंदूल । पिंडी रूप थावा तनो लक्षण बंध पूल । ५४. ते भाजन प्रत्यय तिण अन्तर्मुह जघन्य थी, कवण ५५. परिणाम प्रत्यय अ यात को, ५६. जाव अमोघा जाणियं ए परिणाम प्रत्यय करि ५७. एक समय रहे जघन्य थी, परिणाम प्रत्यय ए को ५८. एतले आदि सहित ए करि बंध अपने तेज | उत्कृष्ट काल संखेज ॥ (भाजन - प्रत्यय ए कह्यो) ते ? अन संध्याकाल । तीजा शतक विचाल || उत्कृष्ट छ विभास ॥ तीजो भेद वीससा-बंध एतले बीससा-बंध ए. देश नम्यासीनों बारूपो ॥ आस्यो । दिशि दाह जणाय । बंध ऊपजे ताय ॥ ढाल विशाल । मिक्लु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' मंगलमाल || ५९. एक सौ चोपनमीं कही, वारू लय सीता सुन्दरी ४७४ भगवती-जोड़ वहा १. प्रयोग बंध ते कवण है ? जिन प्रयोग जीव व्यापार करि, २. अथवा जीव व्यापार करि, बहु पुद्गल नों बंध ते, २. आदि-रहित अंत-रहित घर आदि सहित अंत- सहित ए, मास । ढाल : १५५ कहे त्रिण विघ संघ । जीव- प्रदेश नों बंध | औदारिक जे आद । प्रयोग-बंध संवाद ॥ आदि सहित अंत-रहित तृतीय भंग कथित ॥ ४. तिहां जे आदि रहित छ रे, अठ मध्य जीव ५. असंख प्रदेशिक अंत-रहित है जह छे । प्रदेश नों रे, बंध कह्यो छे तेह कै ॥ जीव नां. अष्ट जे मध्य प्रदेश | तेहनों बंध अनादि है, अंत-रहित सुविशेष ॥ * गोयम सांभलै रे । (ध्र ुपदं ) ५३. जुण्णगुल - जुण्णतं दुलाणं जीर्णस्य जीर्णतन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः । ( वृ० प० ३६५ ) ५४. भायणपच्चएणं बन्धे समुप्पज्जइ, जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं भायणपच्चइए । (०२३५२) ५५. से किं तं परिणामपच्चइए ? परिणामपच्चइए – जण्णं अब्भाणं, अब्भरुक्खाणं जहा तति (०२२५३) ५६. जाव अमोहा परिणामपचाए बन्धे समुप्पज्जर, ५७. जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सेत्तं परिणामपचइए ५८. सेत्तं सादीयवीससाबन्धे । सेत्तं वीससाबन्धे । (श० ८।३५३) १२. से किं तं पयोगबन्धे ? पयोगबन्धे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा 'ओगबन्धे' त्ति जीवव्यापारबन्धः स च जीवप्रदेशानामौदारिकादिकपुद्गलानां वा । ( वृ० प० ३९०) ३. अणादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए । ४. तत्व मंजे से अणादीए अपनयसिए से णं अहं जीवमसा ५. अस्य किल जीवस्यासंख्येय प्रदेशिकस्याष्टौ ये मध्यप्रदेशास्तेषामनादिरपर्यनतो बन्धः (०० ३२० ) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जीव जिवारे लोक ने, व्यापी ने तिण काले पिण बंध ए. ७. अठ प्रदेश विण अन्य जे, विपरिवर्तमानपणां थकी, ८. तेहनी ए स्थापना, तल सम ब्यार प्रदेश । तेहनें ऊपर पुण वलि, च्यार प्रदेश कहेस । ६. इम ए अष्ट प्रदेश है, इम समुदाय आस्यु बंध आछू तनुं, सखर न्याय १०. तास विषे एक एक जे, बंध परस्पर जिता ११. ते अठ जीव प्रदेश तिष्ठत । रीत रहंत ॥ तिणहिज जीव- प्रदेश नों बंध । अनादि अनंत न संध ॥ आत्म- प्रदेश तणो, में तीन-तीन नें हुबै तास , इक इक साथै बंध ते. अनादि अनंत बे-बे पसवाड़ा तणां, १५. उपरला परतर तणो, तल परतर नां तीन जे, १६. तल न जे परतर तणो ऊपर परतर नां तीन जे, दूहा 3 १२. तल परतर प्रदेश चिउं ऊपर चिह्न प्रदेश इम अठ मध्य प्रदेश- बंध, बिहु परतर सुविशेष ॥ १३. ऊपरला परतर तो वांछित प्रदेश एक बे प्रदेश पासे तसु, एक हेठलो देख ॥। १४. शेष ऊपरला तीन जे हम त्रिण त्रिण बंधात । इक इक हेठलुं ख्यात ॥ इक प्रदेश न बंधाय । प्रदेश बंध्या नांय ॥ एक प्रवेश न बंधाय । प्रदेश बंध्या नांय ॥ थकीज । सलहीज ॥ संघात । १८. तल परतर नां जे विहूं, १७. परतर बलि जे हेठलो, तिण नां प्यार प्रदेश । इक इक प्रदेश तेहनों, त्रिण-त्रिण साथ बंधेस ॥ पाश्ववति वे प्रदेश बंध्या छै सुविशेष ॥ इक ऊपरलो इम त्रिहूं, अवदात || ताम । पांग ॥ हा १६. चूर्णिकार व्याख्यान ए, वृत्तिकार व्याख्यान | दुरवगम थी परहरघो, इम टीका में वान ॥ एक प्रदेश संबंध, ते आदि-रहित अंतरहित बंध जा - आठ जीव नां मध्य प्रदेश नै विषे पिण तीन-तीन प्रदेश नों एक *लय सोता सुन्दरी रे : हिवँ जे जीव नां आठ मध्य प्रदेश नैं एक-एक प्रदेश संघाते अनेरा तीन-तीन ६. यदाऽपि लोकं व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽप्यसौ तथैवेति । ( वृ० प० ३६८ ) ७. अन्येषां पुनर्जीव प्रदेशानां विपरिवर्तमानत्वान्नास्त्यनादिरपर्यवसितो बन्धः ( वृ० प० ३९०) • एतेषामुपन्ये चत्वारः ८. तत्स्थापना ( वृ० प०३६८) १. एवमेतेष्ट एवं तावत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्तः । ( वृ० प० २२८) १०. अथ तेष्वेकैकेनात्मप्रदेशेन सह यावतां परस्परेण संबन्धो भवति नापा ( वृ० प० ३६८ ) ११. तत्थ विणं तिन्हं तिण्हं अणादीए अपज्जवसिए १२. पूर्वोक्तप्रकारेणावस्थितानामष्टानाम् (० ० ३९८) १२, १४. उपरितनः प्रतरस्य यः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववनिनावेकरचावर्ती ( वृ० प० ३६८) १५. शेषस्त्वेक उपरितनस्त्रयश्चाधस्तना न संबध्यन्ते व्यवहितत्वात् । ( वृ० प० ३६८ ) (बु०प०२२८) १६. एवम रापेक्षयाऽपीति । १९. भूविकारव्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु दुखगमत्वातुपरितेति । ( वृ० प० ३६८) श० उ० ६, डा० १५५ ४७५ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश नों बंध किम हुई, ते देखाड़े छे― च्यार प्रदेश नों ऊपरलो प्रतर, प्यार प्रदेश नों हेठलो प्रतर, तेहनी स्थापना मांडी ओलखणा । इम पूर्वोक्त प्रकार करिकै आठ प्रदेश रह्या, तेहनों ऊपरलो प्रतर च्यार प्रदेश नों छै । ते ऊपरला प्रतर मांहिला च्यार प्रदेशां मांहिलो मन मानै जिकोइ एक प्रदेश वांछिये । तेहने अन्य तीन प्रदेश नों बंध हुई। ऊपरला प्रतर नां व्यार प्रदेश महिला दोय प्रदेश तो पसवाड़े रह्या तेनुं बंध । अने हेठला प्रतर नां च्यार प्रदेश मांहिलो एक प्रदेश हेठै रह्यो तेहनुं बंध छै । इम ऊपरला प्रतर में प्यार प्रदेश ते एक एक प्रदेश तीन-तीन प्रदेश साथे बंध्या छै। एक एक प्रदेश तो मूलगो अन तेहनें साथे तीन प्रदेश बंध्या एवं च्यार थया । अनें बाकी रह्या च्यार प्रदेश तिके ते प्रदेश साथे न बंध्या एक एक तो ऊपरला प्रतर नों न बंध्यो, खूर्ण रह्यो ते मार्ट । अनैं हेठला प्रतर नां तीन-तीन प्रदेश ते पिण न बंध्या । ए फर्शणा मात्र हुई, पिण ए च्याखं बंध्या नथी । ए प्यार प्रदेश नों ऊपरला प्रतर नों लेखो को इमहिज च्यार प्रदेश नों हेठलूं प्रतर छ । तेहनों लेखो पिण कहै छै – जे हेठला च्यार प्रतर महिला च्यार प्रदेशां मांहिलो मन माने जिको को एक प्रवेश वांछिये तेहनुं तीन-तीन प्रदेश नों बंध हुई । जे हेठला प्रतर नां च्यार प्रदेश महिला जे दोय प्रदेश तो पसवाड़े रह्या, 1 तेहनुं बंध अनैं ऊपरला प्रतर नां व्यार प्रदेश महिला जे एक प्रदेश ऊपर रह्यो तेहनुं बंध छै । इम हेठला प्रतर में च्यार प्रदेश ते एक प्रदेश तीन प्रदेश साथे बंध्या छै । एक एक तो हेठला प्रतर नों प्रदेश अनैं तीन-तीन ऊपरला प्रतर नां प्रदेश, एवं च्यार न बंध्या । २०. आठ प्रदेश बिना जिके अन्य प्रदेश नं बंध आदि सहित सूत्रे ह्य ू, जिन वच अमल अमंद ॥ वा०—आदि रहित अन्तरहित प्रथम भांगो को अनं बीजो भांगो आदि रहित, अन्तसहित ते इहां न संभवै । जीव नां आठ मध्य प्रदेश नो बंध ते आदि-रहित छै, अपरिवर्तमानपण करी ते बंध नुं अंत-सहितपणुं न ऊपजै ते माटै बीजो भांगो न संभवे । हिवं तीजो भांगो आदि सहित अंत-रहित उदाहरणे करी कहै छै - २१. आदि सहित अंत-रहित ते सिद्ध नां जीव प्रदेश 3 तसु बंध सादि अनंत है, चलण अभाव विशेष ॥ २२. देश नव्यासी एक सौ ए पचावनमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' मंगलमाल ॥ *सय सीता सुम्बरी ४०६ भगवती-जोड २०. शेषाणां मध्यमाष्टायोज्येषां सादिविपरिवर्तमानत्वात् । ( वृ० प० ३१८ ) वा०-- एतेन प्रथमभङ्ग उदाहृतः, अनादिसपर्यवसित इत्यं तु द्वितीय भङ्ग यह न संभवति, अनादिसंवदानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्त्तमानत्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति अथ तृतीयो । भङ्ग उदयते । ( वृ० प० ३९८ ) २१. सिद्धानां सादिरपवति जीवप्रदेश वस्थायां संस्थापित प्रदेशानां सिद्धत्वेऽपि चलनाभावादिति । (५०१० ३२८) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल १५६ हा १. विहां जे आदि सहित है, अंत सहित अवलोय तेह्नां व्यार प्रकार है, सांभलजो सङ्घ कोय ॥ २. आलीग कीजे जिण करी ते आलावण बंध जिम छोरी करि बांधियो, तृणादि बंध सुसंध ॥ , ३. एक द्रव्य अन्य द्रव्य करि, श्लेषादिक करि सोय । तास एकठा मेलबो, अल्लिवावण-बंध होय ॥ ४. समुद्घात कीधे छते, तेहिज जीव प्रदेश नों, ५. ते जीव प्रदेश संबंध नां तंजस आदि शरीर नां, वा०—अनेरा आचार्य कहै छै - शरीरी — जीव नो समुद्घात नै विषे संकोचन छते शरीरी नो जे बंध, ते शरीरी बंध | ६. जीव तणां व्यापार करि, तेहनां जे पुद्गल ग्रहे विस्तार्या छै जेह । एकत्र करिवो तेह ॥ विशेष बंध थी संध प्रदेश तणो संबंध ॥ । नाण । ७. अथवा शरीर रूप ही, प्रयोग नुं जे शरीर-प्रयोग बंध ते, ए चोथो बंध * जिनेश्वर धिन धिन आप रो संशय तिमिर निवारवा जी जाणक ऊगो माण (ध. पद) स्थू आलावण-बंध जी? भावे जिन गुण-गेह तृणकाष्ठक-भारो बांधिये जी, पत्र नुं भारो बांधेह ॥ *लय धिन भगवंत रो जो ज्ञान : औदारिकादिक बंध । शरीर-प्रयोग संध ॥ ९. अथवा भारो पलाल नों, वेत्रलता जल-वंश । तिण करिने बांधे तिको, पूर्व भारो कहंस ॥ १०. बाग ते वल्क त्वचा करी, वरत चर्म नीं नाहि । सग प्रमुख नीं रासड़ी, तिण करि बांधे भारि ॥ बंध | संघ ॥ १. तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से णं चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा २. आलावणबंधे मालाप्यते आसीनं क्रियत एभिरित्यालापनानि ज्यादनिबंधस्तुगादीनामालापनबंध ( वृ० प० ३१०) ३. अल्लियावणबंधे अल्लियावणं-द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषादिनाऽऽलीनस्य यत्करणं तद्रूपो यो बन्धः स तथा ( वृ० प० ३६८ ) ४,५. सरीरबंधे समुद्घाते सति यो विस्तारितसङ्कोचितजीवप्रदेशसम्बन्धविशेषवशातैजसादिशरीरवेशानां सम्बन्ध विशेषः स शरीरबन्धः । ( वृ० प० ३६८) वा० - शरीरिबन्ध इत्यन्ये तत्र शरीरिणः समुद्घाते विक्षिप्तजीव प्रदेशानां सोचने यो बन्धः स शरीरिबन्ध इति ( पृ० १० २६०) ६. सरीरप्पयोगबंधे । ( ० ८३५४) शरीरस्य औदारिकादेवः प्रयोगेण वीर्यातक्ष पशमादिजनितव्यापारेण बन्धः तद्द्युद्गलोपादानम् ( वृ० प० २२८) ७. शरीररूपस्य वा प्रयोगस्य यो बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः । ( वृ० प० ३९८ ) ८. से किं तं आलावणबंधे ? आलावणबंधे - जणं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा पत्तभाराण वा ६. पलालभाराण वा, वेत्तलता वेत्रलता जलवंशकम्बा ( वृ० प० ३६८ ) १०. वाग व रत्त-रज्जु 'वाग' त्ति वल्कः वरत्रा - चमयी रज्जुः— सनादिमयी ( वृ० प० ३२८) ० ८ ० ६ ढा० १५६ ४७७ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मूल । स्थूल ॥ ११. वल्ली ऋषी अर्कादि करि, कुश ते दर्भ दर्भ ते मूल सहित छै, तिण करि बांधे १२. आदि शब्द थी जाणवो, वस्त्रादिक थी बंधेह । अन्तर्मुहूर्त जघन्य थी, उत्कृष्ट काल संखेह । (मुनीश्वर ! आलावण-बंध एह ।) १३. स्यूं अल्लियावण-बंध ? जिन कहै प्यार प्रकार | लेसणा उच्चय समुच्चय, साहणणा बंध धार ॥ दूहा १४. श्लेष ढीला द्रव्ये करि, चूनादिक यी संघ । संबंध जे अन्य द्रव्य नों, तेह लेसणा-बंध ॥ १५. ढिगलो बहु पुद्गल तणो, करवी ऊंची राश। तेह रूप जे बंध ते उच्चय-बंध विभास ॥ १६. सम्यक् प्रकारे करि, विशेष ऊंची राश। तेह रूप जें बंध ते, समुच्चय-बंध विभास ॥ १७. बहु अवयव नो एकठो, करिवो जे संघात । तेह रूप जे रूप जे बंध ते, साहणणा-बंध थात ॥ १८. हिव स्वं लेसणा-बंध ? तब भाले जिनराय । कूट कोट्टिम मणिभूमिका नों यंत्र प्रासाद नों ताय ॥ १६. काष्ठ अ वलि चर्म नों, घट पट कट नों विशेष । चूनां चिक्खल कादै करि, वज्र लेप ते सिलेस ॥ २०. लाख अनैं वलि मैण थी, आदि शब्द थो संध । गूगल राल ढीला द्रव्य थी ऊपजै लेखणा-बंध || २१. जधन्य अंतर्मुहूर्त्त रहे, उत्कृष्ट काल संस्थात | लेसणा-बंध कह्यो तसु, वर जिन वयण विख्यात ॥ २२. हिव स्यूं उच्चय-बंध ? जिन कहै जे तृण राक्ष राशि काष्ठ नैं पत्र नीं, तुस नी राशि विमास ॥ २३. बलि भूस राशिज छाण नीं, गोवर कचरा नीं राश ऊंचो चिणवै करि ऊपजै, उच्चय-बंध प्रकाश ॥ अवलोय । २४. जघन्य अंतर्मुहूर्त्त रहै, उत्कृष्टो काल संख्यातो ते रहे, उच्चय-बंध ए होय ॥ *लय : घिन भगवंत रो जी ज्ञान ४०८ भगवती-जोड़ ११,१२. वल्लि - कुस - दब्भमादी एहि आलावणबंधे समुप्पज्जइ, जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं आलावणबंधे । ( ० ८३५५) वल्लीपुष्यादिका कुशा-निर्मूनवः दर्भास्तु समूला: आदिशब्दाच्चीवरादिग्रहः १३. से किल्ला ? आधे चउबिहे पयले त जहालेसणा ( वृ० प० ३६८ ) 7 बंधे उच्चबंधे समुच्चयबंधे, साहगणाबंधे। ( श० ८।३५६ ) १४. '' तिपणा जपद्रव्येण इव्ययोः संबन्धनं तद्रूपो यो बन्धः स तथा । ( वृ० प० ३६८ ) १५. उच्चयः ऊर्ध्वं चयनं - राशीकरणं तद्रूपो बन्ध ( वृ० प० १२९) १६. सङ्गतः — उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुच्चयः ( वृ० प० ३९९ ) तद्रूपो यो बन्धः स उच्चयबन्धः । ( वृ० १० २९६) J स एव बन्धः समुच्चयबन्धः । १७. संहननं - अवयवानां सङ्घातनं संहननबन्ध: । १८. से किं तं लेसणाबंधे ? लेसणाबंधे – जणं कुड्डाणं, कोट्टिमाणं, खंभाणं, पासावार्ण, 'कुट्टिमाणं' ति मणिभूमिकानां । ( वृ० प० ३६६ ) १६. कट्ठाणं, चम्माणं, घडाणं, पडाणं, कडाणं छुहा चिक्खल्ल-सिलेसश्लेषो वज्रलेपः ( वृ० प० ३९९ ) २०. समाएहि नेसणएहि बंधे समुपज्जइ । आदिशब्दात्म्युलराजात्यादिग्रहः । वृ० (go to see) २१. अन्तत उनको संवेवं कालं सेतं सणावंधे । ( ० ८३५७) २२. से किं तं उच्चयबंधे ? उच्चयबंधे जण्णं तणरासीण वा, कट्ठरासीण वा, पत्तरासीण वा, तुसरासीण वा, २३. सरासी ना, गोमयरासीण वा अयगररामीण वा उच्चतेषं बंधे समुप्पन्न। 'अवगररासीग वत्ति कचराशीनाम् । ( वृ० प० ३९९ ) २४. जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं उन्नबंधे। (श० ८१३५८) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. से कि तं समुच्चयबंधे ? समुच्चयबंधे-जण्णं अगड-तडाग२६. नदी-दह-वावी-पुक्खरिणी-दीहियाणं, गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं २७. सरसरपंतियाणं, बिलपंतियाणं देवकुल-सभ-प्पव २८. थूभ-खाइयाणं, फरिहाणं, पागारट्टालग-चरिय-दार २६. गोपुर-तोरणाणं, पासाय-घर-सरण-लेण-आवणाणं, २५. बंध समच्चय स्यू कह्यो ? जिन भाखै तसु भाव । अगड सरोवर अणखण्यो, पाल सहित ते तलाव ॥ २६. नदी द्रह नै बावडी, पुक्खरणी कमलंत । दीपिका ने गंजालिका, सर वलि सर नीं पंत ॥ २७. पंक्ति वलि सर-सर तणी, वलि बिल-पंक्ती जाण । देवकुल देहरो नैं सभा, वलि पो-देवा नो स्थान ॥ २८. थूभ खाई परिहा वलि, गढ कोट ते प्राकार। अट्टालग कहि बरज नैं, चरिय अने वलि द्वार । २६. गोपुर में तोरण वलि, प्रासाद घर सामान । शरण लेण पिण घर अछ, हाट-श्रेणि पहिछाण ॥ ३०. संघाडा ने आकारै बलि, त्रिक चोक पंथ एह । चच्चर बहु पंथ बहु गली, चोमुख स्थानक जेह ।। ३१. महापंथ ए आदि दे, छुहा ते चूनो पिछाण । तिण करिने ए बंधिय, वलि कर्दम करि जाण ।। ३२. सिलेस ते वज्र लेप थी, विशेष ऊंच करेह । बंध ऊपजै बंध जुड़े, समुच्चय-बंध कहेह ॥ ३३. जघन्य अंतर्मुहुर्त रहै, उत्कृष्ट काल संख्यात । समुच्चय-बंध कह्यो तसु, जगतारक जगनाथ ॥ ३४. स्य' साहणणा बंध छै? जिन कहै द्विविध संध । देश-साहणणा बंध कह्यो, सर्व-साहणणा बंध ।। ३०. सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह ३१. महापह-पहमादीणं, छुहा-चिक्खल्ल ३२. सिला-समुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ ३३. जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सखेज्ज काल । सेत्तं ससुच्चयबंधे। (श० ८।३५६) ३४. से कि तं साहणणाबंधे ? साहणणाबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–देससाहणणाबंधे य, सव्वसाहणणाबंधे य। (श० ८।३६०) दहा ते ३५. देश करीने देश नों, संहनन बंध संबंध । देश-साहणणा बंध ते, शकट अंगादिक संध ।। ३६. सर्व करीने सर्व नों, संहनन बंध संबंध । सर्व-साहणणा बंध ते, क्षीर नीर जिम संध । ३७. *देश-साहणणा बंध स्यू? जिन कहै जेह पिछाण । शकट गाडी ने रथ वलि, लघु गाडी ते जाण ॥ ३५. देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः-सम्बन्धः शक टाङ्गादीनामिवेति देशसंहननबन्धः। ३६. सर्वेण सर्वस्य संहननलक्षणो बन्धः-सम्बन्धः क्षीर नीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः । (वृ०प० ३६६) ३७. से किं तं देससाहणणाबंधे ? - देससाहणणाबंधे-जण्णं सगड-रह-जाण'सगड' त्ति गन्त्री 'रह' त्ति स्यन्दनः 'जाण' त्ति यानंलघुगन्त्री। (वृ० प० ३६६) ३८, जुग्ग 'जुग्ग' ति युग्यं गोल्लविषयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितं जम्पानं । (वृ० प० ३६६) ३६. गिल्लि-थिल्लि 'गिल्लि' त्ति हस्तिन उपरि कोल्लरं यन्मानुषं गिलतीव 'थिल्लि' त्ति अड्डपल्लाणं। (वृ० प० ३६६) ३८. जुग्ग प्रसिद्ध गोल देश में, ते दोय हस्त प्रमाण । उपशोभित वेदिका करि, एह विशेष जंपान ।। ३६. गिल्लि अंबाडी गज तणी, थिल्लि तुरंग पिलाण । अथवा अंबाड़ी ऊंट नीं, ते पिण थिल्लि पिछाण ॥ *लय : धिन भगवंत रो जी ज्ञान थ. उ. दा.१५६ ४७९ Jain Education Intemational Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. शिविका कूट आकार छ, आच्छादित जंपान । पुरुष प्रमाण जंपान ने, संदमाणी कहि जान ।। ४१. लोही ते मंडकादिक भणी, पचवा नों भाजन एह। वलि कडाहा लोह नां, वलि कुड़छा छै जेह ।। ४२. आसण शयन थंभा वलि, भंड माटी नों जन्य । अमत्र भाजन विशेष छ, उपकरण तेहथी अन्य ।। ४३. ए सहु नां देशे करि, देश नं बंध है ताय । देश-साहणणा बंध ते, ऊपजै छै इम आय ।। ४४. जघन्य अंतर्मुहर्त रहै, उत्कृष्ट काल संख्यात । देश-साहणणा बंध ए, भाख्यो श्री जगनाथ ।। ४५. सर्व-साहणणा बंध स्यू? क्षीर नीर आदि देह । सर्व-साहणणा-बंध कह्य, अल्लियावण-बंध एह॥ ४०. सीय-संदमाणी 'सीय' त्ति शिबिका-कूष्टाकारेणाच्छादितो जम्पानविशेष: 'संदमाणिय' त्ति पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः । (वृ० प० ३६६) ४१. लोही-लोहकडाह-कच्छ्य 'लोहि' ति मण्डकादिपचनभाजनं 'लोहकडाहे' त्ति भाजनविशेष एव 'कडच्छुय' त्ति परिवेषणभाजनम् (वृ० प० ३६६) ४२,४३. आसण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणमादीणं देससा हणणाबंधे समुप्पज्जइ। 'भंड' ति मुन्मयभाजनं 'मत्त' त्ति अमत्रं भाजनविशेष: 'उवगरणत्ति' नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति । (वृ० प० ३६६) ४४. जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं । सेत्तं देससाहणणाबंधे। (श० ८।३६१) ४५. से किं तं सव्वसाहणणाबंधे ? सव्वसाहणणाबंधे-से णं खीरोदगमाईणं । से तं सव्वसाहणणाबंधे । ... सेत्तं अल्लियावणबंधे । (श० ८।३६२) ४६. से किं तं सरीरबंधे? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुब्बपयोगपच्चइए य, पडुप्पन्नपयोगपच्चइए य। (श० ८।३६३) ४७. प्राक्कालासेवित: प्रयोगो-जीवव्यापारो वेदनाकषायादिसमुद्घातरूपः (वृ०प० ३६६) ४८. प्रत्यय:-कारणं यत्र शरीर बन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः (वृ०प० ३६९) ४६. हिवै स्यू शरीर-बंध छै? जिन कहै दुविध अमोघ । पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय कह्यो, प्रत्यय वर्तमान-प्रयोग । सोरठा ४७. आसेवित प्राक्काल, प्रयोग जीव व्यापारमय । वेदना कषाय न्हाल, आदि देई समद्घात जे ॥ ४८. प्रत्यय कारण तेह, जे शरीर-बंध में विषे । ते बंध भणी कहेह, पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय ॥ ४६. बीखरिया प्रदेश, पाछो लेवो तेहनों। बंध रचना सुविशेष, बंध कहीजै जेहनें ॥ ५०. पूर्व काले जान, कदेइ जिण पाम्यो नथी। ते कहियै वर्तमान, प्रयोग-प्रत्यय जे विषे ।। ५१. ते शरीर नो बंध, बीखरिया प्रदेश नों। संहरवो फिर संध, समद्घात केवल विषे॥ ५२. प्रयोग तसु व्यापार, प्रत्यय कारण जे विषे। समय पंचमें सार, प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्यय ॥ ५३. *पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय किसुं ?जिन कहै नेरइया आदि । संसार भव नै विषे रह्या, सर्व जीव नै लाधि । ५०-५२. प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः प्रयोग:-केवलिसमुद्घातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स तथा स एव प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः । (वृ०प० ३६६) ५३. से किं तं पुन्वपयोगपच्चइए ? पुवपयोगपच्चइए-जण्णं नेरइयाणं संसारत्थाणं सव्वजीवाणं *लय : धिन भगवंत रो जी ज्ञान ४८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. तत्थ तत्थ कहितां तिहां-तिहां समद्घात करै तास । क्षेत्र नों बहुलपणों कह्यो, आधारभूत विमास ॥ ५५. तेसु-तेसु इण शब्द थी, समुद्घात नों जाण । कारण नों बहुलपणो कह्यो, अखिल न्याय दिल आण। ५४. तत्थ तत्थ 'तत्थ तत्थ' त्ति अनेन समुद्घातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह-- (वृ० प० ३६६) ५५. तेसु तेसु कारणेसु 'तेसु तेसु' त्ति अनेन समुद्घातकारणानां वेदनादीनां बाहुल्यमुक्तं। (वृ० प० ३६६) ५७. समोहण्णमाणाणं जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्पज्जइ। सेत्तं पुवपयोगपच्चइए। (श० ८।३६४) .. समुद्भन्यमानानां समुद्घातं शरीराद् बहिर्जीवप्रदेश प्रक्षेपलक्षणं गच्छताम् । (वृ० प० ३६६) वा०-'जीवपएसाणं' ति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीरबन्धाधिकारात्तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति न्यायेन जीवप्रदेशाश्रिततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं, शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य सङ्कोचितानामुपसर्जनीकृततैजसादिशरीरप्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति । (वृ० प० ३६६) ५६. से किं तं पडुप्पन्नपयोगपच्चइए ? पडप्पन्नपयोगपच्चइए-जण्णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्धाएणं समोहयस्स ५६. तिहां तिहां क्षेत्र में विषे, ते ते कारण विषे न्हाल । शरीर थी बाहिर काढ़िया, जीव प्रदेश विशाल । ५७. समद्घाते करि बीखरया, संकोचे जीव प्रदेश । तसु बंध रचना ऊपजै, पूर्व-प्रयोग कहेस ॥ . ५८. ते जीव प्रदेशां नैं विषे, तेजस कार्मण शरीर । तास प्रदेश नों बंध हुवै, ते ग्रहिवू सुण धीर ।। वा०-'जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्पज्जई' इहां जीव प्रदेश नों बन्ध ऊपज, एहवू पाठ कह्य । पिण शरीर-बंध नां अधिकार थकी जीव प्रदेश नै विष रह्या तेजस कार्मण शरीर नां प्रदेश नों बंध कहिवू, इहां शरीर-बंध नों अधिकार छै ते माट। शरीर-बंध इण पक्षे तो समुद्घाते करि बीखरिया जीव नां प्रदेशां नैं संकोचै तिहां बंध उपज, ते भणी जीव-प्रदेश नों बंध कह्यो । पिण जीव नां प्रदेशां नै विषे तेजसादिक शरीर नों बंध छ, ते इहां ग्रहिवू । शरीर बंध नों अधिकार छै, ते माटै ए पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय शरीर बंध कह्यो। ५६. वर्तमान-प्रयोग-प्रत्यय किसो? जिन कहै केवली संत । केवल समुद्घाते करि, सर्व लोक पूरंत ॥ ६०. दंड कपाट – मंथ करी, अंतर पूरै सोय । __ जीव प्रदेशां नैं चिउं समैं, विस्तारत सर्व लोय॥ ६१. तठा पछै समद्घात थी, निवर्तमानपणेह । पंचम आदि समा विषे, किस समय हुवै एह ? ६२. पंचमा समय विषे तिको, अंतर प्रति संहरंत । तेजस ने कार्मण तणो, बंध तदा उपजंत ॥ ६३. स्य कारण हेतू थकी? कहिये उत्तर तास । समद्घात थी केवली, निवर्त्त-काले जास ॥ ६४. पोता नां जीव प्रदेश नों, एकपणं अवलोय । तेह संघात पाम्या हुई, पंचम समये होय ॥ ६५. तेहनी अनवृत्ति करी, तेजस कार्मण दोय । शरीर प्रदेश नों बंध तदा, उपजै छै अवलोय ॥ ६६. शरीर-बंध अधिकार थी, तेजस कार्मण बंध । उपजै इम कह्यो पाठ में, श्री जिन-वयण अमंद ॥ १. इस ढाल में गाथा ६० से ६८ तक कई गाथाएं वृत्ति के आधार पर रची गई हैं। फिर भी इनके सामने वृत्ति उद्धृत नहीं की गई है। इसका करण इन गाथाओं से आगे की वार्तिका में अविकल रूप से वृत्ति का वह अंश उद्धृत किया गया है। ६१,६२. ताओ समुग्घायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ । ६३. किं कारणं? ताहे से ६४. पएसा एगत्तीगया भवंति श०८,०६, डा० १५६ ४०१ Jain Education Intemational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. यदपि छठादि समय विषे, तेजसादि बंध किण कारण ते नहिं कह्यो ? उत्तर आगल ६८. अभूतपूर्वपणे करी, पंचम समयज षष्टम प्रमुख समय विषे भूतपूर्वपर्ण वा० - वर्तमान प्रयोग शरीर-बंध किणनै कहिये ? तेहनों उत्तर केवल समुद्घाते करि प्रथम समय दंड, द्वितीय समय कपाट, तृतीय समय मंथकरण, चतुर्थे समय अंतरा पूरै । इण लक्षणे करि बिस्तरिया जीव रा प्रदेश छै। केवल समुद्घात थकी निवर्तमान छते तेह प्रदेशां ने पाछा संहर ते वर्तमान प्रयोग-प्रत्यय शरीर-बंध हुई । होय । जोय ॥ इहां शिष्य पूछे - स्वामी ! समुद्घात प्रति निवर्तमानपणुं तो पंचमादिक च्यारूं समय नै विषे छे, तो ए वर्त्तमान प्रयोग-प्रत्यय किसा समय नै विषे हुई ? जद गुरु कहै -- निवर्तन क्रिया नैं मध्य पंचमें समये मंथ नै विषे वर्तमान छ, ते समय वर्त्तमान प्रयोग - प्रत्यय शरीर बंध हुई । | J बलि शिष्य पूछे - स्वामी ! छठादिक समय नैं विषे पिण तेजसादिक शरीर संघात पर्ज देणे समये किम न हुई ? गुरु की अभूतपूर्वपर्ण कर पंचम समय ने विषेज ए बंध हुई, पंचमे समय नैं विषे तेजस कार्मण नो बंध थयो । तेहवो बंध गये काले कदेइ नथी थयो, ते भणी पंचमें समयेज ए बंध हुई, अनें छठादिक समय नै विषे भूतपूर्वपर्णेज हुवें । जे पंचम समय नैं विषे तेजस कार्मण शरीर नो बंध कियो, हिज छठादि समय नै विषे होवे, पिण अनेरो नहीं ते माटै । होय । जोय ॥ 'अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ' एहवो पाठ कह्यो । मध्य मंथ नैं विषे वर्तमान नैं तेजस कार्मण ए बिहुं नो बंध कहितां संघात ऊपजै इत्यर्थः । ४८२ भगवती-जोड़ afe शिष्य पूछे - स्यूं कारण थकी – स्यूं हेतु थकी ए बंध ऊपजै ? तिवार गुरु कहै — तिवारं समुदघात निवृत्ति काल नैं विषे ते केवली नां जीव नां प्रदेश एकपणुं पायां- संघात पाम्या हुई ते जीव प्रदेशां नीं अनुवृत्ति करके तेजसादिक शरीर प्रदेश नों बंध ऊपजै 'तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ' । तेजस कार्मण ते जीव नां प्रदेश विषे रह्या छे । ते तेजस कार्मण शरीर तेहनो बंध ऊपजै, इसो बखाण करिवो । शरीर-बंध इति अत्र पक्षे 'तेयाक म्माणं बंधे समुप्पज्जइ' तेजस कार्मण आश्रयभूतपणां थकी तेजस कार्मण शरीर वाला जीव नां प्रदेश, तेहनों बंध ऊपजै, इम कहियो । ६६. वर्त्तमान- प्रयोग ए बंध कह्यो, शरीर-बंध कहेस । आठमा शतक नों आखियो, नवम उदेशक देश ॥ ७०. एक सौ छप्पनमीं कही, ढाल विशाल उदार । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति सार ॥ वा०--- केवलसमुदपातेन दण्डरूपाटमधिकरणान्तरपूरणलक्षणेन समुपहतस्य' विस्तारितजीवप्रदेशस्य 'सतः समुद्घातात् प्रतिनिवर्तमानस्य प्रदेशान संहरतः, समुद्घातप्रतिनिवर्त्तमानत्वं च पञ्चमादिष्वनेकेषु समयेषु स्यादित्यतो विशेषमाह अन्तरामंये वट्टमाणस्स' त्ति निवर्त्तनक्रियाया अन्तरे मध्येऽवस्थितस्य पञ्चमसमय इत्यर्थः । यद्यपि षष्ठादिसमयेषु पद्यते तथाऽप्यभूतपूर्वतया पञ्चमसमय एवासौ भवति शेषेषु तु भूतपूर्वतयैवेति कृत्वा । नादिरातः समुर 'अन्तराचे वट्टमाणसे' त्युक्तमिति 'तेयाम्माणं बंधे समुपति जसकार्मणयोः शरीरयोः बन्धः सात समुत्पद्यते। 'किं कारणं' कुतो हेतोः ? उच्यते- 'ताहे' त्ति तदा समुद्घातनिवृत्तिकाले 'से' त्ति तस्य केवलिनः 'प्रदेशा: ' जीवप्रदेशाः 'एमसीगव' ति एकत्वं गताः संघात - मापन्ना भवति, तदनुवृत्त्या च तैजसादिशरीरप्रदेशानां बन्धः समुत्पद्यत इति प्रकृतम् । शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ' त्ति तेजसकार्मणाश्रयभूतत्वात्तैजसकार्मणाः शरीरप्रदेशास्तेषां बन्धः समुत्पद्यत इति व्याख्येयम् । ( वृ० प० ३६६,४०० ) ६१. सेत्तं पदुप्पचपयोगपच्चइए। सेतं सरीरबंधे। (०२३६२) Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १५७ दूहा १. हिवरूप शरीर-प्रयोग बंध ? शरीर औदारिकादि । तसु प्रयोग जीव व्यापार थी, बंध हुवै अविवादि ॥ २. जिन कहै शरीर प्रयोग बंध, पंच प्रकारे जाण औदारिक शरीर जे, प्रयोग बंध पिछाण ॥ २. वैक्रिय ने आहारक बलि, तेजस कार्मण ताय । शरीर प्रयोग-बंध ए. सर्व ठाम ठाम कहिवाय ॥ किते प्रकार कहाय ? जिन कहै पंच प्रकार ते सांभलजे चित स्थाय ॥ ४. औदारिक तनु प्रयोग-बंध, ५. एकेंद्री बे० ते ० चउ०, पंचेंद्रिय पिछाण । औदारिक-तनु-प्रयोग बंध, सहु ठामे वच जाण ॥ ६. एकेंद्री औदारिक तन-प्रयोग-बंध विचार | fe प्रकार को प्रभु ? जिन कहै पंच प्रकार ।। ७. पृथ्वी काय एकेंद्रिय, इण आलावे जाण । भेद औदारिक तनू तणां पद अवगाहण संठाण ॥ ८. तिम इहां पिण कहिया सह, जाव पर्याप्त जेह गर्भज मनु पंचेंद्रिय औदारिक तनु तेह || १. अपर्याप्ता गर्भेज नां मनुष्य पंचेंद्री जान। तसु औदारिक तनु तणो प्रयोग-बंध पिछान ॥ , 申 (प्र. पर्व) गुणगेहा गुणिजन ! प्रभु वचन रस पीजिये १०. औदारिकादि तनु प्रयोग-बंध प्रभु ! किण कर्म उदय करि होयो ए ? जिन कहै वीर्य अंतराय क्षवादिक, शक्ति लही अवलोयो ए ॥ ११. ते वीर्य जोग सहित व जं. जोग मन वच काया नां जाणी । वीर्य संजोग को तिण कारण, ए प्रथम बोल पहिचानी ॥ १२. छै बहु द्रव्य तथाविध पुद्गल, जे जीव ₹ ताह्यो । ते मासद्द्रव्य ह्या छे, ए द्वितीय बोल कहिवायो || लय: सस्नेहा भवियण परम नाण खप कीजिए १. से किं तं सरीरप्पयोगबंधे ? २३. सरीरपयोग पंचविहे पण्णत्ते तं जहा बोराaियसरीरप्पयोगबंधे, यसरी रपयोग तेयासरीरप्पयोगबंधे, आहारगसरी रप्पयोगबंधे, कम्मासरी रप्पयोगबंधे । ४. ओरालियस रीरप्पयोगबंधे णं भंते ! पण्णत्ते ; गोमा (श० ८३६६ ) कतिविहे पंचविहे पण्णत्ते तं जहा ५. एगिदियओरालियस रीरप्पयोगबंधे, बेइंदियओराविसरीरययोगबंधे जाव पंचिदियओरालिय सरीरप्पयोगबंधे । (50 1750) भंते | कति ६. एगिदियओलसरीरययोगबंधे विहे पणते ? गोयमा पंचविहे पत्ते तं जहा एवं ७. पुढक्काइएनिदियोरा लियस री रपयोगबंधे एएवं अभिलाषं भेदो वहा ओगाहणसंठा ओरालियसरी रस्स 4. तहा भाणियो जाय पत्तागन्भवस्कंठियगगुस्स पाँचदियओरालियरीरप्पयोगबंधे य १. पानकंतियमणुस्सर्पच दिवओोरातिय सरीरप्पयोगबंधे य । (श० ८।३६८) १०. ओरालियस रीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! वीरिय ११. सजोग १२. सद्दव्वयाए श०८, उ० ६, ढा० १५७ ४८३ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रहा १३. जीव सवीर्यपणे करी, सजोगपणां करि धार । सद्व्यपणे करि वलि, एम कह्या वृत्तिकार ॥ १४. प्रथम वीर्य सजोग ते, सदद्रव्य करिकै ताय । अर्थ धर्मसी इम कियो, ए बिहुँ बोल कहाय ॥ १५. *तथा प्रमाद-प्रत्यय कारण करि, वलि कमें करि कहिये। १५. पमादपच्चया कम्मं च एकेंद्री जाति प्रमख कर्म ते, उदयवत्ति संग्रहिये ।। १६. जोगं च कहितां जोग कायादिक, वलि भव तिर्यंचादि । १६. जोगं च भवं च आउयं च वलि आउखो तिर्यंचादिक नों, उदयवति इम लाधि। १७. ए वीर्य सजोग प्रमुख पद आश्री, औदारिक तनु ताह्यो। १७. पडुच्च ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मस्स उदएणं प्रयोग नाम कर्म उदय करीने, औदारिक-तनु-प्रयोग बंधायो॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।३६६) वा०-वीर्य ते वीर्यांतराय क्षयादिके कीधी शक्ति, योग ते मन प्रमुख योग, ते वा०-वीरियसजोगसद्दव्वयाए' त्ति वीर्य-वीर्यान्तसहित वधै ते सयोग कहिये सद्-विद्यमान, द्रव्य तथाविध पुद्गल जेह जीव नै तेह रायक्षयादिकृता शक्ति: योगा:-मन:प्रभृतयः सह योगसद्रव्य कहिये । वीर्य-प्रधान सयोग ने वीर्य सयोग, तेहिज जे सद्रव्य तेहनों भाव वर्तत इति सयोगः सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणितिण करी । एतलै सवीर्यपण सजोगपणे सद्रव्यपण जीव नै । तथा 'पमादपच्चय' त्ति तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ सव्व्यः बीर्यप्रमाद-प्रत्यय थकी, प्रमाद लक्षण कारण थकी। 'कम्मं च' त्ति-कर्म ते एकेंद्रिय जात्या प्रधान: सयोगो वीर्यसयोग: स चासौ सद्व्यश्चेति दिक उदयवत्ति । 'जोगं च' त्ति--जोग ते कायजोगादिक । 'भवं च' त्ति-भव ते विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्व्यतया, तिथंच भवादिक अनुभूयमान । 'आउयं च' त्ति-आउखो ते तिथंच आयुषादिक उदय सवीर्यतया सयोगतया सद्व्यतया जीवस्य, तथा वत्ति । पडच्च आश्रयी नै 'ओरालिय' ति-औदारिक शरीर प्रयोग संपादक जे नाम 'पमायपच्चय' त्ति 'प्रमाद-प्रत्ययात्' प्रमादलक्षणकार णात् तथा 'कम्मं च' त्ति कर्म च एकेन्द्रिय-जात्याते औदारिक शरीर प्रयोग नाम, ते कर्म नां उदय करीनै औदारिक शरीर प्रयोग दिकमुदयत्ति, 'जोगं च' ति योगं च' काययोगादिक' नाम । ते कर्म नां उदय करीनै औदारिक शरीर-प्रयोग-बंध हुई, इति शेष । 'भवं च' त्ति भवं च' तिर्यग्भवादिकमनुभूयमानम् ए पूर्वे कह्या ते सवीर्य सजोग सद्व्यतादिक पद औदारिक शरीर प्रयोग नाम 'आउयं च' ति 'आयुष्कं च' तिर्यगायुष्काद्युदयत्ति कर्म उदय नां विशेषणपणे वखाणवा । पडुच्च' ति 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'ओरालिए' त्यादि औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं व तदौदारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्मण उदयेनौदारिकशरीरप्रयोग बन्धो भवतीति शेषः, एतले जीव नै सवीर्यपण सजोगपण सद्दव्यपण तथाविध औदारिक शरीर प्रयोग एतानि च वीर्यसयोगसव्व्यतादीनि पदान्यौदारिकपुद्गल नै हेतुभूतपण करि तथा प्रमाद-प्रत्यय तथा कर्म एकेंद्रिय जात्यादिक उदयत्ति, शरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेषणतया व्याख्येजोग काया-जोगादिक, भव तिर्यंचादिक, अनुभूयमान ते भोगवतां छता, आउखो तिर्यच यानि । आउखादिक उदयत्ति, एतलां नैं आश्रयी नै औदारिक शरीर प्रयोग-बंध ऊपजै । वीर्यसयोग सद्रव्यता कारणभूत है जैहने विषे, एहवो विवक्षित कर्मोदय इत्यादि वीर्यसयोगसव्यतया हेतुभूतया यो विवक्षितकर्मोप्रकार थी अथवा औदारिक-शरीर प्रयोग बन्ध में ते स्वतंत्र रूप में कारणभूत बणे दयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण, स्वतंत्राणि वैतान्यौदारिकतिहां मूल प्रश्न तो औदारिक शरीर प्रयोग बन्ध किण कर्म ना उदय थी हवे ? ए छ। शरीरप्रयोगबन्धस्य कारणानि, तत्र च पक्षे यदौदारिक *लय : सस्नेहा भवियण ! परम नाण खप कीजिये १. इस ढाल में गाथा ११ से १६ तक प्रायः गाथाओं में मूल पाठ का विस्तार वृत्ति के आधार पर किया गया है, किन्तु वृत्ति का वह अंश यहां उद्धृत नहीं किया गया है । इसका कारण इन गाथाओं से आगे वार्तिका में उस अंश को अविकल रूप से उद्धृत कर दिया गया है। ४८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने उत्तर में अन्यान्य अनेक कारणां नो अभिधान करे छे, ए किम ? विवक्षित कर्मोदय अ सहकारी कारणरूप गिणाय छै । इण अपेक्षा थीज ते कारणां नां अभिधान किया छै । अन धर्मसी एवं बी, सजोग, सद्द्दवप करिनं प्रमाद प्रत्यय करि, कर्म, जोग, अन आउखा ने आश्रयी ने औदारिक प्रयोग शरीर नाम कर्म नैं उदय करी ए सर्व अपर्याप्त वेलाई जाणवूं । तेणे समय औदारिक शरीर बांधे, पांच क्रिया लागे छे । पांच शरीर बांधतां पांच क्रिया लागें, इस धर्मसी को इत्यर्थ: । १८. एकेंद्री औदारिक तनु प्रयोग-बंध, किण कर्म उदै प्रभु ! होयो ? जिन कहै एवं चैव इमज ए पूरववत अवलोयो ॥ वा० - इहां एकेंद्री सूत्र नैं पूर्व सूत्र सरिखु का तो पिण इहां पुच्छा मेंएगिदियओरालियस रीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? ७ इम एकेंन्द्री को नाम लेइ औदारिक शरीर नीं पूछा कीधी, ते भणी उत्तर में पण एकेंद्री नो नाम कहानिदियो रानिपरीरययोगबंधे इसो कहियो । एकेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बंध नां अधिकार थकी । इम आगल पिण विचार कहियो । १६. पृथ्वीकाय एकेंद्री ओदारिक-तनु प्रयोग इम लेवू । एवं जाव वनस्पतिकाइया, बे० ते ० चउरिद्रो इम कहेवूं ॥ २०. हे प्रभुजी तिथंच-पंचेंद्री औदारिक तन लेवो प्रयोग बंध किए कर्म उदय करि ? जिन कहै एवं चेवो ॥ २१. हे प्रभु! मनुष्य केंद्री ओदारिक शरीर प्रयोग बंध जाणी । किसा कर्म ने उदय करि ने ? हिव जिन भारखे वाणी ।। २२. वीर्य सजोग सद्द्रव्यपणे करि, प्रमाद- प्रत्यय कहायो । जाय मनुष्य आढलो उदयनत, ते आथवी ने ताह्यो । २३. मनुष्य पंचेंद्री ओदारिक तनु, प्रयोग संपादक जेहो । संपादक उपजावणहारा ते नामकर्म उदय करि एहो । २४. मनुष्य-पंचेंद्रिय ओदारिक-तनु, प्रयोग-बंध इम होयो । तास विशेष अर्थ पूर्व वखाण्यो, तिम इहां पिण अवलोयो || २५. अंक नव्यासी नं देश का ए. इकसी सतावनमीं ढालो। भिक्ख भारोमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय जश' मंगलमालो । शरीरप्रयोगबन्धः कस्य कम्मण उदयेन ? इति पृष्टे दम्याम्यपि कारणान्यभिधीयन्ते त‌द्विवक्षितक मौदयः । ( वृ० प० ३७८ ) १८. एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? एवं चेव । १९. पुढविक्काइएगिदियओरालियस रीरप्पयोगबंधे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया । एवं बेइंदिया, एवं इंदिया एवं चरिदिया। (०८३७०) २०. तिरिणयचिदिवओरालियस रीरप्पयोगबंधे पं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? एवं चेव । , (०८११७१) रप्पयोगवं पं भंते ! २१. मदिरालय कस्स कम्मस्स उदएणं ? २२. गोमा वीरसाए जाव (सं० पा० ) आउयं च पडुच्च २३. मस्तपंचिदियओ रालियस रीरप्पयोगनामकम्मस्स उदां २४. पंचिदियो रातियसरीरययोगबंधे। पमादपच्चया ( ० ८२७२) श०८, उ० ६, ढा० १५७ ४५५ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १५८ २. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे ? ३. गोयमा ! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि । (श० ८।३७३) ४. तत्र यथाऽपूपः स्नेहभृततप्ततापिकायां प्रक्षिप्तः । (वृ० प० ४००) ५. प्रथमसमये घृतादि गृह्णात्येव (वृ० ५० ४००) दूहा १. हिव पांचंइ शरीर नां, देश-बंध सर्व-बंध । पूछ गोयम गणहरू, उत्तर दे जिनचंद ॥ २. हे प्रभु ! औदारिक तन-प्रयोग-बंध पिछाण । देश-बंध स्य एह छ ? तथा सर्व-बंध जाण? ३. जिन भाखै सुण गोयमा ! देश-बंध पिण होय । सर्व-बंध पिण जे हुई, न्याय तास इम जोय ।। ४. तेल तपायो तेहनी, भरी कडाही मांहि । तिण माहै ते पूड़लो, प्रथम प्रक्षेपे ताहि ॥ ५. तेल ग्रहै पहिलै समय, पिण मकै नवि कोय । पूर्व तेल ग्रह्यो नहीं, ते माटै अवलोय ॥ ६. बीजी तीजी वार वलि, शेष समय घालेह । नवो तेल ग्रहै पूड़लो, पूर्व ग्रह्यो मकेह। ७. इण रीते ए जीवड़ो, पूर्व भव नुं तेह॥ छांडी नै अन्य भव तणो, प्रथम शरीर बंधेह ॥ ८. उत्पत्ति स्थानक नै विषे, शरीर अर्थे सोय । प्रथम समय पुद्गल ग्रहै, सर्व बंध ए होय ॥ ६. द्वितीय आदि जे समय में, पुदगल ग्रहै मूकंत । देश-बंध तिणनें कह्यो, पूवा नै दृष्टत ॥ *जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नों। (ध्र पदं) १०. हे भगवंत ! एकेंद्रिय औदारिक हो तन-प्रयोग-बंध । स्यूं देस-बंध सर्व-बंध छै? हिव जिन भाखै हो एवं उभय कहंद ॥ ११. इमहिज पृथ्वीकाइया, जाव मनुष्य लग हो दस दंडक जोय। जेह औदारिक तनु तणां, देशबंध पिण हो सर्व-बंध पिण होय ॥ ६. शेषेषु तु समयेषु गृह्णाति विसृजति च । (वृ० प० ४००) ७,८. एवमयं जीवो यदा प्राक्तनं शरीरकं विहायान्यद्गृह्णाति तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान् शरीरप्रायोग्यपुद्गलान् गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबन्धः । (वृ० प० ४००) ६. ततो द्वितीयादिषु समयेषु तान् गृह्णाति विसृजति चेत्येवं देशबन्धः। (वृ० ५० ४००) १०. एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे ? एवं चेव । १२. हे प्रभ ! औदारिक-तन-प्रयोग-बंध हो काल थकी सुविचार । केतलो काल अछ तसु? जिन भाखै हो हिव उत्तर सार॥ १३. सर्व-बंध एक समय ते, देश-बंध हो जघन्य समयो एक । उत्कृष्ट तीन पल्योपम, समय ऊणो हो कहीजै सुविशेख ॥ ११. एवं पुढविक्काइया एवं जाव- (श० ८।३७४) मणुस्सपंचिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे ? गोयमा ! देशबंधे वि, सव्वबंधे वि । (श० ८।३७५) १२. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? १३. गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई समयूणाई। (श० ८।३७६) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १४. सर्व-बंध ए तास, एक , पूवा दृष्टांत जास प्रथम १५. देश बंध अवलोय, एक समय तास न्याय दम होय, चित्त १६. वाऊकाय जिवार, मनुष्य वैक्रिय करी तिवार ते तन १७. औदारिक नुं तेह, बलि तेहनं इम केह, १८. समय रही मृत्यु पाय, देश- बंध कहिवाय, 1 १६. समय ऊण पल्प तीन देश बंध ओदारिक नीं चीन, तास न्याय २०. औदारिक नीं जोय, उत्कृष्ट स्थिति पल्य तास विषे अवलोय, सर्व-बंध पहिले इम समय आख्यो अछे । समय ते सर्व बंध ॥ नों जघन्य थी । लगाई सांभली ॥ तिरि छांडी में सर्व-बंध इक देशबंध तदा जघन्य औदारीक समय करतो पंचेंद्रिय | बलि ॥ करि । तो ॥ थी समय इक । शरीर नों ॥ २१. ते मार्ट इम न्हाल, समय ऊण पल्य देश - बंध नो काल, उत्कृष्ट औदारिक उत्कृष्ट स्थिति । सांभलो ॥ तीन नीं । समय ॥ तीन जे । तणो ॥ २२. * एकेंद्रिय औदारिक तणो, प्रयोग बंध हो प्रभु ! काल थी संघ । केतली काल हुवे अछे, जिन भाव हो एक समय सर्व-बंध || २३. देश बंध ते जघन्य थी, तसु कहिये हो एक समय सुविचार | उत्कृष्ट काल इतो हुवै, समय ऊणो हो वर्ष बावीस हजार ॥ सोरठा २४. जघन्य समय इक केम, वायू औदारिक जिको । वैक्रिय करि फुन तेम, तेम, औदारिक जदारिक पडिवचतां ॥ समय रहि । इक समय ॥ २५. सर्व-बंध थइ तेह, देश-बंध इक मरण लह्यां थी एह, देश-बंध पिण २६. उत्कृष्ट सहस्र बावीस, प्रथम समय में सर्व-बंध | शेष समय सुजगीस, देश- बंध पृथ्यो । २७. "पृथ्वीका एकेंद्रिय औदारिक तनु हो कितो काल रहे एह ? श्री जिन भाले गोयमा ! सर्व-बंध हो एक समय रहेह ॥ २८. देश बंध ते जघन्य थी, सुहाग भव हो त्रि " समपूर्ण विचार | बावीस हजार ॥ उत्कृष्ट थी रहै एतलु, समय ऊणो हो वर्ष *लय : वीर सुणो मोरी वीनती १४. 'सव्वबंधं एक्कं समयं ति अपूपदृष्टान्तेनैव तत्सर्वबन्धकस्यैकसमयत्वादिति । ( वृ० प० ४०० ) १५.दि. ( वृ० [० प० ४०० ) १६. तदा वायुमनुष्यादिर्वा वैकियं कृत्वा विहाय न । १७, १८. पुनरोदारिकस्य समयमेकं ( वृ० प० ४०० ) सर्वयन् कृत्वा पुनस्तस्य देशबन्धं कुर्वन्ने कसमयानन्तरं म्रियते तदा जघन्यत एकं समयं देशबन्धोऽस्य भवतीति । ( वृ० प० ४०० ) १६. उक्को तिन्ति पनिओवमा समयलाई वि कथं ? ( वृ० प० ४०० ) २०. यस्मादौदारिकशरीरिणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थिति:, तेषु च प्रथमसमये सर्वबन्धकः इति । ( वृ० प० ४०० ) २१. समयन्यूनानि त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षत औदारिकशरीरिणां देशबन्धकालो भवति ( वृ० प० ४०० ) २२. एदिओनिसरपयोग भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं णं २२. 1 एकं समयं उनकोसेणं बावीस वाससहस्साइं समयूणाई । (०८२७७) २४. बंधेज एक समर्थ ति कथं वायुदा रिकशरीरी वैक्रियं गतः पुन रौदारिकप्रतिपत्तौ ( वृ० प० ४०० ) २५. सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धकश्चकं समयं भूत्वा मृतः इत्येवमिति ( वृ० प० ४०० ) २६. एकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि स्थितिस्तत्रासी प्रथमसमये सर्वबन्धकः शेषकालं देशबन्धः । ( वृ० प० ४०० ) २७. पुढविक्काइएगिदिय पुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, २८. सबंधे जहणेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमपूणं, उक्कोसेणं बावीस वाससहस्साइं समयूणाई | श०८, उ० ६, ढा० १५८ ४८७ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २६. बे सौ छप्पन जाण, इतली आवलिका तणो। खड्डाग भव पहिछाण, अल्प आउखो एह छै ।। ३०. पैंसठ सहस्र सुजोय, वली पंच सय तीस षट । खुड्डाग भव ए होय, अंतर्मुहर्त नै मझे। ३१. उस्वास निःस्वास मांय, जाझा सतरै क्षल्लक भव । तास अंश कहिवाय, तेरसौ पंचाणूए॥ वा०-इहां उक्त लक्षण 'पैसठ हजार पांच सौ छत्तीस' एक मुहर्त गत क्षुल्लक-भव ग्रहण-राशि नै ३७७३ एक मुहर्तगत उस्वास-राशि नों भाग दीधां जेतला आवै, तेतला एक उस्वास में क्षुल्लक भव हुवे अन शेष रहै ते अंश राशि हुवै। २६. दोन्नि सयाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ होति । __ आवलियपमाणेणं खुड्डागभवग्गहण मेयं ।। (वृ० प० ४००) ३०. पणसट्ठि सहस्साई पचेव सयाई तह य छत्तीसा। खुड्डागभवग्गहणा हवंति अंतोमुहुत्तेणं ।। (वृ० ५० ४००) ३१. सत्तरस भवग्गहणा खुड्डागा हुंति आणुपाणंमि । तेरस चेव सयाई पंचाणउयाइं अंसाणं ।। (वृ० प० ४००, ४०१) वा० - इहोक्तलक्षणस्य ६५५३६ मुहूर्तगतक्षुल्लकभवग्रहणराशेः सहस्रत्रय-शतसप्तकत्रिसप्ततिलक्षणेन ३७७३ मुहुर्तगतोच्छ्वासराशिना भागे हृते यल्लभ्यते तदेकत्रोच्छ्वासे क्षुल्लकभवग्रहणपरिमाणं भवति, तच्च सप्तदशः, अवशिष्टस्तूक्तलक्षणोंऽशराशिर्भवतीति, अयमभिप्रायः--येषामंशानां त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्च त्रिसप्तत्यधिकशतैः क्षुल्लकभवग्रहणं भवति तेषामशानां पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदशशतानि अष्टादशस्यापि क्षुल्लकभवग्रहणस्य तत्र भवन्तीति । तत्र यः पृथिवीकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणागतः स तृतीयसमये सर्वबन्धकः शेषेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुल्लकभव ग्रहणं मृतः, मृतश्च सन्नविग्रहेणागतो यदा तदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च ये ते विग्रहसमयास्त्रयस्तैरूनं क्षुल्लकमित्युच्यते। (वृ० ५० ४०१) इहां ए अभिप्राय-६५५३६ नै ३७७३ नों भाग दीधा १७ तो पूर्ण आव अनै अठारमा नां १३६५ अंश रहै । तिण कारण एक श्वासोश्वास में १७ भव झाझरा कहिये । तिहां जे ए पृथ्वीकायिक तीन समय विग्रहे करी आयो, ते त्रीजे समये सर्व बन्धक शेष नै विषे देश-बन्ध थइ नै क्षुल्लक भव ग्रहण अभिव्यापी मूओ थको अविग्रहे करी आव्यो जिवार, तिवारै सर्व बन्धक ईज हुई। इम जे विग्रह समय तीन ते ऊणो क्षुल्लक कहिये । ३२. तिहां थी पृथ्वीकाय, तीन समय विग्रह करी । आयो तास कहाय, तीजे समये सर्व-बंध ॥ ३३. शेष समय रै माय, देश-बंध भव क्षलक में । मूओ थको कहिवाय, त्रिसमयूणज क्षलक भव ।। ३४. बावीस सहस्र सुसंध, उत्कृष्ट स्थिति पृथ्वी तणी । प्रथम समय सर्व-बंध, शेष समय छै देश-बंध ।। ३५. देश-बंध इण न्याय, वर्ष बावीस हजार ते । समय ऊण कहिवाय, पृथ्वीकाय तणोज ए॥ ३६. *सर्व विषे सर्व बंध, इम कहिये हो इक समय प्रमाण । देश बंध नों अर्थ ए, हिव आगल हो सुणज्यो वखाण ॥ ३७. वैक्रिय शरीर जेहनें नहीं, अप तेउ हो वनस्पति विकलिंद । तास औदारिक तन तणो, प्रयोग-बंध हो तेहनी स्थिति कथिद । *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ३६. एवं सब्वेसि सव्वबंधो एक्कं समयं, ३७,३८. देसबंधो जेसि नत्थि वेउब्बियसरीरं तेसि जहण्णेणं खुड्डागं भवरगहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा सा ठिती सा समयूणा कायव्वा, अयमर्थः-अप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां ४८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. इहां सहु नो देश-बंध ते, जघन्य क्षल्लक भव हो ऊणी समया तीन । उत्कृष्ट थी जे यां तणी, स्थिति उत्कृष्टी हो समय ऊण सुचीन ॥ क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषां वैक्रियशरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यतः औदारिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति। (वृ० प० ४०१) सोरठा ३६. अप वर्ष सात हजार, तेउ नी त्रिण दिवस निशि । वनस्पती नी धार, उत्कृष्ट स्थिति दश सहस्र वर्ष ॥ ४०. बेंद्री द्वादश वास, तेंद्री गणपच्चास दिन । चउरिंद्री षट मास, ए उत्कृष्टी स्थिति कही। ४१. एक समय सर्व-बंध, तेह समय करि ऊण जे । देश-बंध स्थिति संध, ए उत्कृष्टपणे करी ।। ४२. *वलि जसु वैक्रिय तनु अछ, वाउकाय नै हो पंचेंद्री तिर्यंच । मनष्य तणे वैक्रिय वलि, जघन्य देश बंध हो समय एक सुसंच॥ सोरठा ४३. वैक्रिय करिनै ताय, वायु तिरि पं० मनुष्य ए। औदारिक में आय, सर्व बंध पहिलै समय ।। ४४. वलि इक समय विचार, देश बंध रहिने मरै । इण न्याये अवधार, देश बंध इक समय स्थिति ।। ४५. *पंचेंद्री तिरि वायु मनुष्य नै, स्थिति उत्कृष्टी हो देश बंध नी एम। स्थिति जिका छै जेहनी, समय ऊणी हो कहिवी ए तेम ॥ ३६. तत्रापां वर्षसहस्राणि सप्तोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसामहोरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां वर्षसहस्राणि दश, (वृ० १०४०१) ४०. द्वीन्द्रियाणां द्वादशवर्षाणि त्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः। (वृ० प० ४०१) ४१. तत एषां सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिर्भवतीति (वृ० प० ४०१) ४२. जेसि पुण अत्थि वेउव्वियसरीरं तेसिं देसबंधो जहण्णेणं एक्कं समयं, ते च वायवः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च, (वृ० प० ४०१) ४५. उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायव्वा जाव मणूस्साणं देसबंधे जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई समयूणाई। (श० ८।३७८) सोरठा ४६. वायू तीन हजार, तिरि पंचेंद्रिय मनुष्य नीं। तीन पल्य सुविचार, ए उत्कृष्टी स्थिति तम् ॥ ४७. समय एक सर्व-बंध, तेह समय ऊणी जिका। देश-बंध स्थिति संध, ए उत्कृष्टपणे करी॥ ४८. कह्यो औदारिक तास, प्रयोग बंध नों काल ए। हिव तेहनोंज विमास, कहिये छै अंतर प्रति ॥ ४६. *औदारिक तन-बंध नों, कितो आंतरो हो प्रभु ! काल थी होय ? *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६. तत्र वायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थितिः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयम्, (वृ० प० ४०१) ४७. इयं च स्थितिः सर्वबंधसमयोना उत्कृष्टतो देशबंधस्थितिरेषां भवति । (वृ० प० ४०१) ४८. उक्त औदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कालोऽथ तस्यवान्तरं निरूपयन्नाह (वृ० प० ४०१) ४६. ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? श० ५, उ०६, ढा० १५८ ४६९ Jain Education Intemational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोलेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडिसमयाहियाई। हिव जिन भाखै जूजुओ, सर्व-बंध नों हो देश-बंध नों सोय ॥ ५०. सर्व-बंध नों आंतरो, जघन्य क्षुल्लक भव हो ऊणो समया तीन । उत्कृष्ट सागर तेतीस नों, पूर्व कोड़ी हो समय अधिक सुचीन ।। सोरठा ५१. सर्व-बंध नो जाण, जघन्य थकी ए आंतरो। खड्डाग भव पहिछाण, तीन समय कर ऊण किम ? ५२. तीन समय नी ताहि, विग्रह गति करि आवियो । औदारिक ₹ मांहि, अणाहारक बे समय धर ॥ ५३. तृतीय समय सर्व-बंध, ते खुडाग भव रहि मुओ। औदारिक तन संध, तेह विषे वलि ऊपनो॥ ५४. प्रथम समय सर्व-बंध, इम सर्व-बंध नं आंतरो। त्रि समयूण कथंद, सुड्डाग भव नों इह विधे ।। ५५. उत्कृष्ट अंतर तास, सागरोपम तेतीस नों। पूर्व कोड़ प्रकाश, एक समय वलि अधिक किम ? ५६. मनष्य आदि भव मांय, अविग्रह गति आवियो। प्रथम समय कहिवाय, सर्व बंध कारक तसु ॥ ५७. त्यां रहि पूरव कोड़, नरक सातमी ऊपनों। तथा सव्वदसिद्ध जोड़, वलि त्रिण समय विग्रहे । ५८. औदारिक में आय, विग्रह नां बे समय धुर । अणाहारिक कहिवाय, सर्व बंध तृतीय समय। ५६. अणाहारिक नां जेह, दोय समय ते मांहि थी। एम समय काढेह, घाल्यो पूरव कोड़ में। ५१. सर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं कथं ? (वृ० प० ४०१) ५२. त्रिसमयविग्रहेणौदारिकशरीरिष्वागतस्तत्र द्वौ समयावनाहारकः । (वृ०प० ४०१) ५३. तृतीयसमये सर्वबन्धकः क्षुल्लकभवं च स्थित्वा मृत औदारिकशरीरिष्वेवोत्पन्नः (वृ० प० ४०१) ५४. तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चान्तरं क्षुल्लकभवो विग्रहगतसमयत्रयोनः, (वृ० प० ४०१) ५५. उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटे: समयाभ्यधिकानि सर्वबन्धांतरं भवतीति, कथं ? (बृ०प०४०१) ५६. मनुष्यादिष्वविग्रहेणागतस्तत्र च प्रथमसमय एव सर्वबन्धको भूत्वा, (वृ०प० ४०१) ५७,५८. पूर्वकोटि च स्थित्वा त्रयस्त्रिशत्सागरोपमस्थिति रिकः सर्वार्थसिद्धको वा भूत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणीदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौ समयावना हारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकः (वृ० प० ४०१) ५६. औदारिकशरीरस्यैव च यौ तौ द्वावनाहारसमयो तयोरेकः पूर्वकोटीसर्वबन्धसमयस्थाने क्षिप्तः, (वृ०प० ४०१) ६०. ततश्च पूर्णा पूर्वकोटी जाता एकश्च समयोऽतिरिक्तः, (वृ० प० ४०१) ६१. एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टमन्तरं यथोक्तमानं भवतीति । (वृ० प० ४०१) ६२. देसबंधंतरं जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाईतिसमयाहियाई। (श०.८।३७६) ६०. पूरव कोड़ सर्व बंध, तेह स्थानके घालियो। बध्यो समय इक संध, निमल न्याय अवलोकियै ।। ६१. इम सर्व बंध नों जान, अंतर उत्कृष्टो कह्यो। तेतीस सागर मान, पूर्व कोड़ समय अधिक ॥ ६२. *औदारिक देश बंध नं, __ जघन्य आंतरो हो इक समय न जाण । उत्कृष्ट सागर तेतीस नों, तीन समया हो अधिका पहिछाण ।' *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ६३. औदारिक तन तास, देश बंध नों आंतरो। जघन्य समय इक जास, तास न्याय निसुणो हिवै। ६४. देश बंध करि काल, अविग्रह-गति ऊपनो। प्रथम समय में न्हाल, सर्व बंध कारक वली ॥ ६५. दूजा समय मझार, देश-बंध छै ते भणी। __ जघन्य समय इक धार, देश-बंध - अंतरो॥ ६६. देश-बंध औदार, उत्कृष्ट अंतर तेहनों। तेतीस सागर धार, तीन समय करि अधिक किम ? ६७. देश-बंध करि काल, तेतीस सागर स्थितिपणें । उपनो तेह निहाल, काल करी वलि त्यां थकी ।। ६८. करि विग्रह समया तीन, उपनो औदारिकपणें । बे समय अणाहारक चीन, तृतिय समय थयो सर्व-बंध ।। ६६. तुर्य समय देश-बंध, इम सागर तेतीस ए। अधिक समय त्रिण संघ, उत्कृष्ट अंतर देश-बंध ।। ६३. देशबन्धान्तरं जघन्येनैकं समयं, कथं ? (वृ० प० ४०१) ६४. देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेणैवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम एव समये सर्वबन्धकः । (वृ० प० ४०१) ६५. द्वितीयादिषु च समयेषु देशबन्धकः सम्पन्नः, तदेवं देश बन्धस्य देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एक: समयः सर्वबन्धसम्बन्धीति। (वृ०प० ४०१) ६६. उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्धस्य देशबन्धस्यान्तरं भवतीति, कथं ? (वृ० प० ४०२) ६७. देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायु: सर्वार्थसिद्धादौ, (वृ० प० ४०२) ६८,६९. ततश्च च्युत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तराल देशबन्धस्य देशबन्धस्य च यथोक्त भवतीति । (वृ० प० ४०२) ७०. औदारिकबन्धस्य सामान्यतोऽन्तरमुक्तमथविशेषतस्तस्य तदाह (वृ० प० ४०२) ७१. एगिदियओरालियपुच्छा। ७०. औदारिक-बंध जाण, अंतर कह्यो सामान्य थी। विशेष थी हिव आण, कहियै छै अंतर तसु॥ ७१. *एकेंद्री औदारिक तनु, तास बंध नो हो अंतर कितो कहिवाय ? श्री जिन भाखै जूजुओ, सर्व-बंध न हो देश-बंध न ताय ।। ७२. सर्व-बंध न अंतरो, __ जघन्य क्षुल्लक भव हो ऊणा समया तीन। उत्कृष्ट बावीस सहस्र नों, एक समय वलि हो अधिको है सुचीन । सोरठा ७३. एकेंद्री तन औदार, सर्व-बंध नं अंतरो। जघन्य क्षल्लक भव धार, तीन समय करि ऊण किम ? ७२. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई। ७४. विग्रह त्रि समयेन, आयो पृथव्यादिक विषे । ते विग्रह वर्तेन, अणाहारक बे समय धर ।। ७५. तृतीय समय सर्व-बंध, तिहां क्षुल्लक भव ग्रहण ए। ऊण समय त्रिण संध, इतो काल रहिनै मओ। *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ७३. एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं ? (वृ० प० ४०२) ७४. त्रिसमयेन विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकः (वृ० प० ४०२) ७५. तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लकं भवग्रहणं त्रिसमयोनं स्थित्वा मृतः (वृ० प० ४०२) श०८, उ०६, ढा० १५८ ४६१ Jain Education Intemational Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव भवति तदा सर्वबन्धयोर्यथोक्तमंतरं भवतीति । (वृ० प० ४०२) ७७. उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाधिकानि भवन्ति, कथम् ? (वृ० प० ४०२) ७८. अविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वागतः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकः, (वृ० प० ४०२) ७६,८०. ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयो नानि विग्रहगत्या त्रिसमयाऽन्येषु पृथिव्यादिषूत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धक: सम्पन्न:, (वृ० प० ४०२) ८१. अनाहारकसमययोश्चैक: (वृ० प० ४०२) ८२. द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु समयोनेषु क्षिप्तस्तत्पूरणार्थम्, (वृ० प० ४०२) ७६. अविग्रह करि तेह, उपजी में सर्व-बंध थयो। यथोक्त अंतर एह, सर्व-बंध न जाणवू॥ ७७. एकेंद्री तन औदार, उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध । वर्ष बावीस हजार, एक समय करि अधिक किम ? ७८. अविग्रह करि कोय, आयो पृथ्वी नै विषे । प्रथम समय ते होय, सर्व-बंधकारक तदा ॥ ७६. पछै बावीस हजार, वर्ष समय ऊणो रही। काल कियो तिण वार, तीन समय विग्रह करी।। ८०. अन्य पृथव्यादिक मांहि, उपनो तिहां बे धर समय । अणाहारक थइ ताहि, सर्व-बंध तीजै समय ।। ८१. अणाहारक नां जोय, दोय समय पूर्व कह्या । तेह मांहिलो सोय, समयो इक काढी करी ॥ ८२. समय ऊण बावीस, सहस्र वर्ष जे देश बंध । ते माहै सुजगीस, एक समय ते घालतां ॥ ८३. वर्ष बावीस हजार, पूरा ए इहविध थया । एक समय रह्यो लार, अधिकेरो इम जाणिय ।। ८४. एकेंद्री तनुं औदार, सर्व-बंध - अंतरो। वर्ष बावीस हजार, समय अधिक उत्कृष्ट इम ।। ८५. *एकेंद्रि तनु औदारिक नां देश-बंध नों हो जघन्य अंतर जाण । एक समय तसु आखियो, उत्कृष्टो हो अंतर्महत आण । सोरठा ८६. एकेंद्री तन औदार, देश-बंध नं अंतरो। जघन्य थकी सुविचार, एक समय ते किम हुई ? ५७. देश-बंध करि काल, अविग्रह करि ऊपनों । पहिले समय निहाल, सर्व-बंध थइनै पछै ।। ८८. दूजे समये देख, देश-बंध वलि ते थयो। एक समय इम पेख, देश बंध नों अंतरो॥ ८६. एकेंद्री तन औदार, देश बंध नों अंतरो। उत्कृष्टो सुविचार, अंतर्मुहुर्त किम हुई ? ६०. वाऊ औदारीक, देश-बंधकारक थको। वैक्रिय पाय सधीक, त्यां अंतर्मुहुर्त रही। ६१. तन औदारिक तेह, सर्व-बंध रहिनं वलि । देश-बंध ह जेह, उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त इम ।। ८४. ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयश्चकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमन्तरं भवतीति । (वृ०प० ४०२) ८५. देसबन्धंतरं जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श० ८।३८०) ८६. तत्रैकेन्द्रियौदारिक देशबन्धान्तरं जघन्येनैक समयं, कथम् ? (वृ० प० ४०२) ८७. देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वबन्धको भूत्वा एकस्मिन् समये, (वृ० ५० ४०२) ८८. पुनर्देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एकः समयोऽन्तरं भवतीति । (वृ० ५० ४०२) ८६. 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' ति कथम् ? (वृ० प० ४०२) ६०. वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियं गतस्तत्र चान्तर्मुहूत्तं स्थित्वा (वृ० प० ४०२) ६१. पुनरौदारिकशरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति । (वृ० प० ४०२) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. * पृथ्वीका एकेंद्रिय, तेहनीं पूछा हो कीधी गोयम जाण । श्री जिन भार सांभलो, सर्व-बंधनों हो उत्तर दम आण ।। ३. जिम एकेंद्री सर्व-बंध नों, अंतर आख्यो हो पूर्वे पहिछाण । तिमहिज पृथ्वीकाय नों, सर्व-बंध न हो अंतर ए जाण ॥ ४. पृथ्वीका एकेंद्रिय, देश- बंधनों हो अंतर अवलोय । जघन्य थकी इक समय से उत्कृष्ट हो तीन समया होय ॥ सोरठा अंतरो । ५. एकेंद्री पृथ्वी काय, तास देश-बंध जपन्य थकी कहिवाय, एक समय ते किम हुई ? मूजो पको ॥ ९६. पृथ्वीकायिक जेह, देश बंध अविग्रह करि तेह, ६७. एक समय अवलोय, सर्व बंध देश- बंध ते होय, इम अंतर इक पृथ्वीपर्णेज ऊपनों ॥ थइनें वलि । समय ह ॥ । देश-बंध नाँ अंतरी । उत्कृष्टो कहिवाय, त्रिण समया ते किम हुई ? देश-बंध मूओ छतो । विग्रह गति करिन तिको ।। अणाहारक बे धुर समय । सर्व-बंध थइ नै वलि ॥ विध त्रिण समयां तणो । उत्कृष्टो अवलोय, देश -बंध नुं अंतरो ॥ १८. एकेंद्री पृथ्वीकाय, ६६. पृथ्वी कायिक जेह, तीन समय नीं तेह, १००. उपनो पृथ्वी मांहि, तीजे समये ताहि, १०१. देश- बंध ते होय, इह १०२. *जिम कह्या पृथ्वीकाइया, इमहिज कहिवा हो जाव चउरिंद्री देख | वायूकाय वर्जी करी, णवरं कहिवो हो एतलोज विशेष || १०३. सर्व बंधनों अंतरों, उत्कृष्टो हो कहिये इम जोय । जिका स्थिति जेहनीं समयाधिक हो कहिबू अवलोय ॥ सोरठा 1 १०४. पृथ्वी जिम कहिवाय अप थी नउरिद्री लगे। तेह देखाई न्याय, चित्त लगाई सांभलो ॥ १०५ अपकाय नों जोय, जघन्य सर्व-बंध अंतरो । खुड्डाग भव अवलोय, तीन समय ऊगो का ॥ १०६. वलि अपकाय मकार, सर्व-बंध नों अंतरो । उत्कृष्ट अवधार, सप्त सहस समय अधिक ॥ १०७. देश बंध अपकाय, जघन्य समय इक अंतरो । उत्कृष्टो कहिवाय, तीन समय नुं जाणिव ॥ *लय : वीर सुणो मोरी वीनती २. पुट विकाइदियपृच्छा। २२. व्यंतरं हे एगिदियरस तब भाषिय ४. सबंधंतरं जणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तिण्णि 1 समया । १५. पुढविकाइए' 'स्यादि सबंध जहने एकं समयं त्ति कथं ? ( वृ० १०४०२ ) मृतः सन्नविग्रहा १६. पृथिवीकविको बन्धको पृथिवीका बोत्पन्नः ( वृ० प० ४०२ ) ६७. एकं समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः एवमेकसमयो देशबन्धयोजघन्येनान्तरं । (बु०प०४०२) त्यादि... उक्को सेणं तिन्नि समय ६८. 'पुढविकाइए' ति कथम्? २६. तथा पृथिवीकाधिदेव विग्रहेग ( वृ० प० ४०२ ) मुतः सन् त्रिसमय ( वृ० प० ४०२ ) १००. तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकः तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा पुनः ( वृ० प० ४०२ ) १०१. देशबन्धको जातः, एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो देशबन्ध योरन्तरमिति । (बु०प०४०२) १०२. जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चउरिदियाणं वाउवकाइयवज्जाणं, नवरं - १०३. सव्वबंधंतर उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायन्वा । १०४. अथाप्कायिकादीनां बन्धान्तरमतिदेशत आह-( वृ० प० ४०२) १०५. अप्कायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं ( वृ० ५० ४०२ ) १०६. उत्कृष्टं तु सप्त वर्षसहस्राणि समयाधिकानि ( वृ० प०४०२) १०७. देशबन्धान्तरं जघन्यमेकः समय उत्कृष्टं तु त्रयः (बु०प०४०२) समयाः ० उ० ६, ढा० १५८ ४६३ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८. वाऊ वर्जी एम, तेऊ प्रमुख तणोज पिण। कहिवं सगलो तेम, णवरं विशेष एतलं॥ १०६. सर्व-बंध नो सोय, उत्कृष्टो इम अंतरो। निज-निज स्थिति अवलोय, समय अधिक सर्व स्थान जे॥ ११०. वर्जी वाऊकाय, ते माटै वाऊ तणो। भेद जुदो कहिवाय, आगल कहियै छै हिवै।। १०८. एवं वायुवर्जानां तेजः प्रभृतीनामपि, नवरम् (वृ० ५० ४०२) १०६. उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्वकीया स्थितिः समयाधिका वाच्या। (वृ०प० ४०२) ११०. अथातिदेशे वायुकायिकवर्जानामित्यनेनातिदिष्ट बन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति वायुबन्धान्तरं भेदेनाह- (वृ० प० ४०२) १११. वाउक्काइयाणं सव्वबंधंतरं जहण्णणं खुड्डागं भवग्ग हणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई समयाहियाई। ११२. देसबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। (श० ८।३८१) १११. *वाऊ सर्व-बंध अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव हो ऊणा समया तीन। उत्कृष्ट अंतर एतलो, तीन सहस्र वर्ष हो समय अधिक सुचीन ।। ११२. वाऊ देश-बंध अंतरो, जघन्य थकी ते हो कहिये समयो एक। उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त नों, वारू कहियै हो तेहनों न्याय विशेख ॥ सोरठा ११३. वाऊ तन औदार, देश-बंध कारक छतो। वैक्रिय पाय तिवार, अंतर्महत रहि वलि ॥ ११४. औदारिक सर्व-बंध, द्वितीय समये देश-बंध । उत्कृष्ट अंतर संध, अंतर्मुहूर्त इह विधे ॥ ११३. वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियबन्धमन्तमहूर्त कृत्वा (वृ० प० ४०२) ११४. पुनरोदारिकसवंबन्धसमयानन्तरमौदारिकदेशबन्धं यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति । (वृ० ५० ४०२) ११५. पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा। श्री ११५. *पंचेंद्री तिर्यंच नों, औदारिक नों हो बंध-अंतर पूछत। श्री जिन भाखै जूजुओ, सर्व-बंध न हो देश-बंध नुं विरतंत ॥ ११६. सर्व-बंध नों अंतरो, जवन्य क्षल्लक भव हो उणा समया तीन । उत्कृष्ट अंतर एतलो, पूर्व कोड़ी हो समय अधिक सुचोन ॥ ११६. सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी समयाहिया । ११७. तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्य भावितमेव (वृ०प० ४०२) ११८. उत्कृष्टं तु भाव्यते दूहा ११७. सर्व-बंध नुं अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव जाण । तीन समय ऊणो तिको, पूर्ववत पहिछाण ।। ११८. तिरि पंचेंद्री सर्व-बंध, उत्कृष्ट अंतर तास । पूर्व कोड़ समयाधिक, तसु इम न्याय प्रकाश ।। ११९. पंचेंद्री तिर्यंच जे, अविग्रह उत्पन्न । सर्व-बंधकारक तदा, पहिले समय सुजन्न ॥ १२०. पाछै पूर्व कोड़ जे, समय ऊण रहि सोय। विग्रह-गति त्रिण समय करि, तिरि पंचेंद्री होय ॥ १२१. दोय समय धुरला जिके, अनाहारक नां जाण । तीजा समय विषे थयो, सर्व-बंध पहिछाण ॥ १२२. अनाहारक नां बे समय, पूर्वे आख्या पेख । तेह मांहिलो समय इक, काढी नै सुविशेष ।। ११६. पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् अविग्रहेणोत्पन्नः प्रथम एव च समये सबर्वन्धकः (वृ० प० ४०२) १२०. ततः समयोनां पूर्वकोटि जीवित्वा विग्रहगत्या त्रिसमयया तेष्वेवोत्पन्नः (वृ०प० ४०२) १२१. तत्र च द्वावनाहारकसमयौ तृतीये च समये सर्व बन्धकः संपन्नः (व०प० ४०२,४०३) १२२. अनाहारकसमययोश्चैक: (वृ० प० ४०३) *लय : वीर सुणो मोरी विनती ४६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३. एक समय ऊणो तिको, पूर्व कोड ते मांहि । घाल्यां एक समय बध्यो अनाहारक नों ताहि ॥ १२४. इतले पूर्व कोड़ में, एक समय अधिकाय । उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध तिरि-पंचेंद्री ताय ॥ 7 १२५. तर पंचेंद्री नौ बलि देश-बंध न हो अंतर अवलोय | जिम एकेंद्री नुं का, तिम कहिवो हो तिरि-पंचेंद्री नों जोय ॥ सोरठा १२६. तिरि-पंचेंद्री जघन्य थकी १२७. देश बंध कर ताय, कहिवाय, काल, थयो देश-बंध न्हाल, १२. तिरि-पंचेंद्री ताय, औदारिक उत्कृष्ट अंतर पाय, अंतर्मह १२६ औदारिक तन तेह, देश - बंध एक समय ते किम सर्व-बंध घर समय एक समय अंतर्मुहूर्त रहेह, वलि * लय: वीर सुणो मोरी वीनती + लय : पूज मोटा भांजे तोटा वैक्रिय तन मूं अंतरो । हुवै ? रहि । अंतरो ॥ इम देश- बंध किम प्रतिपत्र दारि नौं । तसु ? समया विषे । १३०. प्रथम समय सर्व-बंध, समय सर्व-बंध, द्वितीयादि देश - बंध नों संध, अंतर्मुहूर्त इम हुई । थयो । ॥ १३१. *जिम तिरि-पंचेंद्री कह्यो, ए तो अंतर हो सगलो सुविचार | तेम मनुष्य 'नों अंतरी, जाव उत्कृष्टो हो अंतर्मुहूर्त्त धार ॥ १३२. औदारिक बंध तणो अंतर, प्रकारान्तरई करी । आखिये ते सांभलो हिय परम प्रीत हिये धरी ॥ १३३. *प्रभु ! एकेंद्रीपणां थकी, नोएकेंद्री हो बेंद्रियादिक मांहि । भव करिनं जे जीवड़ो, वलि पाम्यो हो एकेंद्रिपणुं ताहि ॥ १३४. एम एकेंद्रिय नों जिके, तनु ओदारिक हो तेहनों अंतरो जान । काल थी केतली काल ह ? इम पूछ्यो हो गोयम गुणवान || १३५. सर्व-बंध नैं सर्व-बंध, संघात अंतर आखियै । देश-वंध नों देश बंध, संघात उत्तर दासिये ॥ १३६. श्री जिन भावे सांभलं सर्व बंधन हो अंतर जघन्य थी जोय । दोय शुल्लक भव ग्रहण ते त्रिण समया हो ऊणो अवलोय ॥ १३७. हिव अंतर उत्कृष्ट थी, सागरोपम हो कह्या दोय हजार । संख्याता वर्ष अधिक बलि, हिव बिनों हो वारू न्याय विचार ॥ १२३,१२४. समयोनायां पूर्व क्षिप्तस्तत्पूरणार्थमेकरत्वधिक इत्येवं यथोक्तमन्तरं भवतीति (ब.०१० ४०३) १२५. सबंधंतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिदियतिरिक्खजोणिया, १२६. जघन्यमेकः समयः, ? कथम् १२७ देशको मृतः जात इत्येवं, १२. उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहतं कथम् ? (बु०प०४०३) सर्वबन्धसमयानन्तरं देवको ( वृ० प० ४०३) ( वृ० प० ४०३) १२६. औदारिकशरीरी देशबन्धकः सन् वैक्रियं प्रतिपन्नस्तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरीदारिकशरीरी जातः ( वृ० प० ४०३) १३०. तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु तु देशबन्धक इत्येवं देशबन्धयोरन्तर्महतंमन्तरमिति ( वृ० प० ४०३) १३१. एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोमेणं अंगोमूत (श० ८ ३८२) १३२. औदारिकबन्धान्तरं प्रकारान्तरेणाह ( वृ० प० ४०३) १३३, ११४. जीवसा व भंते! एगिदियते, नोएदते रवि दिएपनि रपयोग बंध तरं कालओ केवच्चिरं होइ ? 'नो एगिदियत्ते' त्ति द्वीन्द्रियत्वादी ( वृ० प० ४०३) १२६. गोमा ! सव्यत होणं दो भा गाई तिसमयूणाई, १३७. उक्कोले दो सागरीयमसहस्साई सेवासम हियाई ० प उ० ६, ढा० १५८ ४६५ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १३८. सर्व-बंध नों अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव दोय । तीन समय ऊणो कह्यो, तास न्याय हिव जोय ॥ १३९. जे तीन समया विग्रह करिनें, एकेन्द्रियपणुं लह्य। अनाहारक बे समय धुर, वाट वहितां ते थयु ॥ १४०. समय तृतीये सर्व बंधक, क्षल्लक भव ऊणो तदा । जीवितव्य भोगवी मैं ते, मरण पाम्यो छै यदा॥ १४१. पछै नोएकेंद्रिय ते, बेंद्रियादिक त्रसपणें । इक क्षुल्लक भव ग्रहणजीवी, मरण पाम्यो छै तिणें ॥ १४२. अविग्रह गति एकइंद्रिय, वली आवी ऊपनों। इम प्रथम समये सर्व-बंधक, तेह भव नों नीपनों॥ १४३. इम सर्व-बंधक अ. जे वलि, सर्व-बंध नों अंतरो। तीन समया ऊण जे, बे क्षल्लक भव भाख्यो खरो॥ १३८. यत् सर्वबन्धान्तरं तज्जघन्येन द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे ___ त्रिसमयोने, कथम् ? (वृ० प० ४०३) १३६. एकेन्द्रियस्त्रिसमयया विग्रहगत्योत्पन्नस्तत्र च समय द्वयमनाहारको भूत्वा, (वृ० प० ४०३) १४०. तृतीयसमये सर्वबन्धं कृत्वा तद्नं क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः (वृ० ५० ४०३) १४१. अनेकेन्द्रियेषु क्षुल्लकभवग्रहणमेव जीवित्वा मृतः । (वृ० प० ४०३) १४२. अविग्रहेण पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जात: (वृ० प० ४०३) १४३. एवं च सर्वबन्धयोरुक्तमन्तरं जातमिति (वृ० प० ४०३) १४४. उत्कृष्टो जे अंतरो, सागर दोय हजार । १४४. उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भसंख्याता वर्ष अधिक छ, तसु हिव न्याय विचार ।। __ हियाई' ति, कथम् ? (वृ० प० ४०३) १४५. अविग्रह गति एकइन्द्रिय, ऊपनो धुर समय ही। १४५. अविग्रहेणकेन्द्रियः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमयं सर्वसर्व बंधक थइ वरस, बावीस सहस्र तिहां रही। बन्धको भूत्वा द्वाविंशति वर्षसहस्राणि जीवित्वा (वृ० प० ४०३) १४६. मरी त्रस में ऊपनों, इह उदधि दोय हजार ही। १४६. मृतस्त्रसकायिकेषु चोत्पन्न: तत्र च संख्यातवर्षावर्ष संख्या अधिक ए त्रस-काय स्थिति उत्कृष्ट ही। भ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयरूपामुत्कृष्टत्रसकायिककायस्थितिमतिवाह्य (वृ० प० ४०३) १४७. वलि इकेंद्रिय विषे उपनों, सर्व-बंधक ते थयो । १४७. एकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धत्रसपणे बिच जे रह्यो, उत्कृष्ट अन्तर ते कह्यो। योर्यथोक्तमन्तरं भवति । (वृ० प० ४०३) १४८. जे सर्व-बंधज समय-हीनज, एकेंद्रिय पहिलै भवै । १४८. सर्वबन्धसमयहीनएकेन्द्रियोत्कृष्टभवस्थितेस्त्रसकायउत्कृष्ट भवस्थिति नै विषे, प्रक्षेप कीधां पिण हवै॥ स्थितौ प्रक्षेपणेऽपि, (वृ० प० ४०३) १४६. संख्यात स्थानज तणां जे, वलि भेद संख्याता सही। १४६. संख्यातस्थानानां संख्यातभेदत्वेन संख्यातवर्षाभ्यधिकते भणी वर्ष संख्यात अधिका, कह्या तेह विरुध नहीं। त्वस्याव्याहतत्वादिति (वृ० प० ४०३) १५०. *देश-बंध नों अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव हो अधिको समयो एक। १५०. देसबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उत्कृष्ट बे सहस्र उदधि छ, वर्ष संख्याता हो कह्या अधिक विशेख॥ उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भ हियाई (श० ८।३८३) सोरठा १५१. एकेंद्रिय कहाय, देश-बंध करतो मरी । १५१. एकेन्द्रियो देशबन्धकः सन् मृत्वा द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकबेंद्रियादिक मांय, खुड्डाग-भव जीवी वलि ॥ भवग्रहणमनुभूय (वृ० प० ४०३) 'लय : पूज मोटा भांजे तोटा *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ain Education International Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. एकेंद्रिय में आय, अविग्रह धर समय में । १५२. अविग्रहेण चागत्य प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा . सर्व-बंध जे थाय, देश-बंध द्वितिये समय। द्वितीये देशबन्धको भवति। (वृ० प० ४०३) १५३. ते माट कहिवाय, खडाग भव इह विध हुई। १५३. एवं च देशबन्धान्तरं क्षुल्लकभवः सर्वबन्धसमयातिएक समय अधिकाय, जघन्य देश-बंध अंतरो॥ रिक्तः। (वृ० प० ४०३) १५४. उत्कृष्ट दोय हजार, वर्ष संख्याता अधिक वलि । १५४. 'उक्कोसेण' मित्यादि सर्वबन्धान्तरभावनोक्तप्रकारेण विच त्रस भव स्थितिकार, तास भावना पूर्ववत ॥ भावनीयमिति । (वृ० प० ४०३) १५५. *प्रभ ! पृथ्वीकायपणां थकी, ते नोपृथ्वी हो अपकायादि मांय । १५५. जीवस्स णं भंते ! पुढविक्काइयत्ते, नोपुढविक्काइयत्ते, ऊपजी मैं ते जीवड़ो, वलि ऊपज हो पृथ्वोकाय में आय॥ पुणरवि पुढविक्काइयत्ते १५६. पृथ्वीकाय एकेंद्रिय, तन औदारिक हो प्रयोग-बंध नों जाण। १५६. पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीप्पयोगबंधंतरं काल थी अंतर केतलो? जिन भाख हो सूणजो वर वाण ।। कालओ केवच्चिरं होइ ? १५७. सर्व-बंध जघन्य अंतरो, दोय क्षल्लक भव हो ऊणा समया तीन। १५७. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं दो खुड्डाइं भव पुरवली पर भावना, उत्कृष्टो हो काल अनंतो चीन ॥ गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं अणतं काल दूहा १५८. काल अनंतपणुं इहां, वनस्पती नी जाण । १५८. कालानन्तत्वं वनस्पतिकायस्थितिकालापेक्षयाऽनन्तकाय-स्थिति नां काल नी, अपेक्षया पहिछाण॥ कालमित्युक्तं (वृ० प० ४०३) १५६. *तास विभजन अर्थे कहै, अनंत काल नां हो समया नीं राश। १५६. तद्विभजनार्थमाह- (वृ०५० ४.३) अवसप्पिणी उत्सत्पिणी, तेण समय करि हो अपहरतां तास ॥ अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ कालओ, अयमभिप्रायः-तस्यानन्तस्य कालस्य समयेषु अवस प्पिण्युत्सप्पिणीसमयैरपह्रियमाणेषु (व०प०४०३) १६०. अनंती ते अवसर्पणी, वलि अनंती हो उत्सप्पिणी होय । १६०. अनन्ता अवसप्पिण्युत्सप्पिण्यो भवन्तीति काल अपेक्षाय मान ए, क्षेत्र अपेक्षा हो हिव आगल जोय।। (वृ०प० ४०३) १६१. क्षेत्र थी लोक अनंत ही, तास अर्थ इम हो सुणजो सह कोय। १६१, १६२. खेत्तओ अणंता लोगा अणंत काल नां समय नीं, राशि भेली करि हो तसु अपहरै जोय ॥ अयमर्थः-तस्यानन्तकालस्य समयेषु लोकाकाशप्रदेश१६२. लोक तणां आकाश नां, प्रदेशे करि हो समय अपहरै तेह । रपह्रियमाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति । अनंता लोक हुवै तदा, ए चरचा में हो विरला समझेह ।। (वृ० ५० ४०३) सोरठा १६३. अनंत लोक नां जोय, जिता आकाश प्रदेश छै । तिता समय नी होय, अवसप्पिणी उत्सत्पिणी।। १६४. *पूदगल परावर्तन तिके, असंख्याता हो होवै तिण मांहि । १६४. असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, एक पुद्गलपरावर्त विषे, कालचक्र हो अनंता हुवै ताहि ॥ १६५. दस कोड़ाकोड़ सागर तणो, अवसप्पिणी हो काल होवै एक । १६५. दशभिः कोटीकोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं सागरोपमं दस कोडाकोड़ सागर तणो, उत्सप्पिणी हो काल एक संपेख। दशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिरवसप्पिणी उत्सप्पिण्य प्येवमेव । (वृ० प० ४०३) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती थ०८,०६, ढा० १५८ ४६७ Jain Education Intemational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६. बीस कोड़ाकोड़ सागर तणो, कालचक्र हो एक हवच सत्त। १६६. ता अवप्पिण्युत्सप्पिण्योऽनन्ता: पुद्गलपरावर्तः कालचक्र अनंता तणो, एक होवै हो पुद्गलपरावत्त ॥ (वृ० ५० ४०३) १६७. हिवै पुद्गलपरावर्त्त नों, असंख्याता नों जान । १६७. पुद्गलपरावर्तानामेवासंख्यातत्वनियमनायाहनियम प्रमाण कहै हिवै, जिन बच अमिय समान । (वृ० प० ४०३) १६८. *आवलिका में भाग असंख्यातमो, १६८. ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो। . असंख्याता हो समया जे दृष्ट । असंख्यातसमयसमुदायश्चावलिकेति पुद्गलपरावर्त्त एतला, सर्व-बंध नों हो अंतर उत्कृष्ट । (वृ० प० ४०३) १६६. देश-बंध नों अंतरो, १६६. देसबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, जघन्य क्षुल्लक भव हो समय अधिक ए माग । उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइउत्कृष्ट काल अनंत नों, जाव आवलिका हो असंख्यातमें भाग।। भागो। सोरठा १७०. पृथ्वीकायिक ताहि, देश-बंध करतो मरी। १७०. पृथिवीकायिको देशबंधकः सन्मृतो नोपृथिवीकायिकेषु नोपृथ्वी रै मांहि, खुड्डाग भव जीवी मओ। क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः सन् । (वृ० ५० ४०३) १७१. वली अविग्रह संध, पृथ्वी विषेज ऊपनों। १७१. पुनरविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः, तत्र च सर्व - प्रथम समय सर्व-बंध, देश-बंध द्वितीय समय ॥ बन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः (वृ० ५० ४०३) - १७२. सर्व-बंध नो जेह, एक समय ते अधिक ए। १७२. एवं च सर्वबन्धसमयेनाधिकमेकं क्षुल्लकभवग्रहणं क्षल्लक भवे करि तेह, जघन्य देश बंध अंतरो॥ देशबन्धयोरन्तरमिति । (वृ० प० ४०३) १७३. *जिम कडा पृथ्वीकाइया, १७३. जहा पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइयवज्जाणं इमहिज कहिव हो वनस्पति वर्जी जाण । जाव मणुस्साणं। जाव मनुष्य नां दंडक लगे, वनस्पति र्नु हो भेद जुदो हिव आण ॥ १७४. वनस्पति नै जघन्य थी, सर्व बंधंतर हो दोय क्षल्लक भव होय। १७४. वणस्सइकाइयाणं दोण्णि खुड्डाई एवं चेव, एवं चेव ए पाठ थी, तीन समय करि हो ऊणो अवलोय ॥ एवं चेव' त्ति करणात् त्रिसमयोने इति दृश्यम् (वृ० प० ४०४) सोरठा १७५. तीन समय नी ताहि, विग्रह गति करि जीवड़ो। १७५. वनस्पतिकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पन्नः वनस्पती रै मांहि, आवी – उपनो तदा।। (व०प० ४०४) १७६.धर बे समया संध, अनाहारक नां जाणवा । १७६. तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीये समये च तृतीय समय सर्व-बंध, खड्डाग भव जीवी करी॥ सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा। (वृ० प० ४०४) १७७. वलि पृथव्यादिक मांहि, खुड्डाग भव रहिनै वलि । १७७. पुनः पृथिव्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरवि- अविग्रह करि ताहि, वनस्पती में ऊपनो॥ ग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः (वृ०प०४०४) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४९ भगवती-जोड़. . dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८. प्रथम समय सर्व-बंध, इम सर्व-बंध नों अंतरो। १७८. प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयोस्त्रिदोय क्षल्लक भव संध, तीन समय करि ऊण जे ॥ समयोने द्वे क्षुल्लक भवग्रहणे अन्तरं भवत इति । (वृ० प० ४०४) १७६. *वनस्पती सर्व-बंध नों, उत्कृष्टो हो असंख्यातो काल । १७६. उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं--असंखेज्जाओ ओस्सप्पि असंख्याती अवसप्पिणी, असंख्याती हो उत्सप्पिणी न्हाल । णीओ उम्सप्पिणीओ कालओ, १८०. क्षेत्र थकी कहियै हिवै, असंख्याता हो लोकाकाश प्रदेश। १८०. खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोइता कालचक्र जाणवो, देश-बंध नों हो एवं चेव कहेस ।। सेणं पुढविकालो। (श० ८।३८४) सोरठा १८१. वनस्पती नों ताहि, उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध । १८१. 'उक्कोसेण' मित्यादि, अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिपृथ्वी प्रमुख मांहि, कायस्थिति अद्धा जितो।। काल: (वृ० प० ४०४) १८२. देश बंधंतर एम, एहवू पाठ मझे कह्य। १८२, १८३. 'एवं देसबंधंतरंपि' त्ति यथा पृथिव्यादीनां ___ तास न्याय धर प्रेम, वृत्ति थकी कहिये अछ ।। देशबन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि, तच्च क्षुल्लक१८३. पृथिव्यादिक नो जेम, देश बंधंतर जघन्य छै । भवग्रहणं समयाधिक। (वृ० प० ४०४) वनस्पती नों एम, खड्डाग भव समयाधिकं ॥ १८४. वनस्पती भव छह, देश-बंध करतो मरी । पृथिव्यादिक हुवै तेह, खुड्डाग भव जीवी वलि ।। १८५. वनस्पती ते होय, सर्व-बंध पहिलै समय । द्वितीय देश-बंध जोय, समयादिक भव क्षुल्लक इम ।। १८६. उत्कृष्ट पृथ्वी-काल, तरु देश-बंध अंतरो । १८६. उत्कर्षेण वनस्पतेर्देशबन्धान्तरं 'पृथिवीकाल:' पृथिवीन्याय पूर्ववत न्हाल, काल असंख्याता तणो। कायस्थितिकालोऽसंख्यातावसप्पिण्युत्सप्पिण्यादिरूप इति । (वृ०प० ४०४) १८७. *हे भदंत ! बहु जीव नैं, औदारिक नां हो देश-बंधगा कहेस। १८७. एएसि णं भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधसर्व-बंधगा अबंधगा? कुण कूण सेती हो यावत अधिक विशेष॥ गाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? १८८. जिन कहै सर्व थोड़ा अछ, औदारिक नां हो सर्व-बंधगा सोय। १८८. गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स उत्पत्ति समय विषेज ह, सव्वबंधगा, एक समय न हो तास काल अवलोय ॥ तेषामुत्पत्तिसमय एव भावात् (वृ० प० ४०४) १८६. अबंधगा विसेसाहिया, विग्रहगतिया हो अथवा सिद्ध विचार। १८६. अबंधगा विसेसाहिया सर्व-बंधग नी अपेक्षया, अबंधगा ते हो विसेसाहिया धार ॥ यतो विग्रहगतौ सिद्धत्वादी च ते भवन्ति, ते च सर्व बन्धकापेक्षया विशेषाधिका: (वृ० ५० ४०४) १६०. देश-बंधगा असंखगुणा, देश-बंधग नों हो असंखगुणो छ काल । १६०. देसबंधगा असंखेज्जगुणा। (श० ८।३८५) भावना एह नी विशेष थी, देशबन्धकालस्यासंख्यातगुणत्वात्, एतस्य च सूत्रस्य आगल कहिस हो इम टीका में निहाल ।। भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति (वृ०प०४०४) १६१. अंक नव्यासी नों देश ए, एकसौ नै हो अठावनमीं ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी, . सुखदायक हो 'जय-जश' हरष विशाल । *लय : वीर सुणो मोरी वीनती प.८,०६,डा०१५८ ४९६ Jain Education Intemational Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध स्थिति-सूचक यन्त्र प्रथम यंत्र सर्व बंध | देश बंध स्थिति स्थिति | एक | जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक समय बंध नी स्थिति समय ऊणा तीन पल्योपम । एकद्रिय-औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध | एक | जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक समय नी स्थिति। समय | ऊणा बावीस हजार वर्ष । पथ्वीकाय औदारिक-शरीर-प्रयोग- । |जघन्य तीन समय ऊणो खडाग भव, बंध नी स्थिति। समय उत्कृष्ट एक समय ऊणा बावीस हजार (वर्ष। आउ तेउ वनस्पति बेइंद्रिय तेइंद्रिय | एक | जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग भव, चरिद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग- समय | उत्कृष्ट जेहन जेतली उत्कृष्टी स्थिति बंध नी स्थिति । । छै ते एक समय ऊणी कही। बाउ औदारिक-शरीर प्रयोग-बंध | एक | जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक समय नी स्थिति । समय | ऊणा तीन हजार वर्ष । तिर्यंच पंचेंद्री मनुष्य औदारिक-। एक जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक समय शरीर-प्रयोग-बंध नी स्थिति। | समय | ऊणा तीन पल्योपम । औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध नो अंतर-सूचक यन्त्र द्वितीय यंत्र सर्व बंध नों अंतर | देश बंध नों अंतर समुच्चय औदारिक-शरीर-1 जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग | जघन्य एक समय, प्रयोग-बंध नों अंतर काल | भव, उत्कृष्ट तेतीस सागर पर्व | उत्कृष्ट तीन समय थकी केतलो काल ? कोडि एक समय अधिक । अधिक तेतीस सागर। एकेंद्री औदारिक-शरीर-7 जघन्य तीन समय ऊणो खडाग जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग | जघन्य एक समय, प्रयोग-बंध नों अंतर काल भव, उत्कृष्ट एक समय अधिक उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त । थकी केतलो काल? बावीस हजार वर्ष । पथ्वीकाय औदारिक- | जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग | जघन्य एक समय, शरीर प्रयोग-बंध नो- | भव, उत्कृष्ट एक समय अधिक | उत्कृष्ट तीन समय। अंतर काल थकी केतलो बावीस हजार वर्ष । काल? आउ, तेउ, वनस्पति, बेंद्री, जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग | जघन्य एक समय, तेंद्री, चरिद्री औदारिक- | भव, उत्कृष्ट एक समय अधिक | उत्कृष्ट तीन समय । शरीर-प्रयोग-बंध नों अंतर जेहनै जेतली उत्कृष्ट स्थिति । काल थकी केतलो काल? | बाउ औदारिक-शरीर- | जघन्य तीन समय ऊणो खुडाग | जघन्य एक समय प्रयोग-बंध नों अंतर | भव, उत्कृष्ट एक समय अधिक | उत्कृष्ट अंतमंहतं । काल थकी केतलो काल? | तीन हजार वर्ष । तिर्यंच पंचेंद्री मनुष्य | जघन्य तीन समय ऊणो खडाग जघन्य एक समय, औदारिक-शरीर-प्रयोग- | भव, उत्कृष्ट पूर्व-कोडि एक | उत्कृष्ट अंतर्महर्त्त । बंध नों अंतर काल थकी समय अधिक । तिर्यंच-पंचेंद्रि केतलो काल ? | मरी आंतरा रहित तियंच पंचेंद्रीपण ऊपज ते मारी पूर्व कोड़ समयाधिक । इमहिज | मनुष्य। जीव एकेंद्रियपण हुतो ते नोएकेंद्रियपणे ऊपजी ने वलि एकेंद्रियपणे हुइं हम एकेंद्रिय शरीर प्रयोग बंध - अंतर काल थकी केतलो काल ? तेहनों उत्तर ५०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजा यंत्र नां प्रथम कोठा नै विष छ-- तृतीय यंत्र । सर्व-बंध ते सर्व-बंध नों अंतर | देश-बंध ते देश-बंध नों अंतर एकेंद्रियपणे नो- | जघन्य तीन समय ऊणा बे| जघन्य एक समय अधिक एकद्रियपण वलि | खडाग भव, उत्कृष्ट दो हजार | खडाग भव, उत्कृष्ट बे सहस्र एकेंद्रियपणे । सागर संख्याता वर्ष अधिक । सागर संख्याता वर्ष अधिक। पृथ्वी, अप, तेउ, | जघन्य तीन समय ऊणा बे | जघन्य एक समय अधिक वाउ, तीन विक- खडाग भव, उत्कृष्ट वनस्पति- खडाग भव, उत्कृष्ट अनंतो लेंद्री, तिर्यच- | काल-असंख्यात पुद्गल- काल-वनस्पति नों काल । पंचेंद्री, मनुष्य। | परावर्तन । वनस्पति जघन्य तीन समय ऊणा बे | जघन्य एक समय अधिक खडाग भव, उत्कृष्ट असंख्याता | खंडाग भव, उत्कृष्ट असं अवप्पिणी उत्सप्पिणी। । ख्याती अवसप्पिणी उत्सप्पिणी। ए औदारिक-शरीर नां देश-बंधका सर्व-बंधका अबंधका में कुण कुण थकी अल्प बहुत्व तुल्य विशेषाधिकचतुर्थ यंत्र सर्वबंधका | देशबंधका अल्पबहुत्व सर्व थी थोड़ा विसेसाहिया असंख्यात गुणा ढाल : १५६ १. अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाह-- (वृ० प० ४०४) १. हिव आगल वैक्रिय-तनु-प्रयोग-बंध पिछाण । तास निरूपण नैं अरथ, कहिये जिनवच जाण ॥ ___ *श्री जिन एहवो भाख्यो जी। परम प्रीतवंता गोयम नै भिन-भिन दाख्यो जो ॥ (ध्र पदं) . २. वैक्रिय-तन-प्रयोग-बंध प्रभु ! कितै प्रकार कहीजे ? जिन कहै दोय प्रकार प्ररूप्या, तास भेद इम लीजै ॥ ३. एकेंद्री-वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध कहीजे ॥ वलि पंचेंद्रि-वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध लहीजै ॥ ४. जो एकेंद्रिय-वैक्रिय-शरीर, तो स्यं वाऊकायो ? के अवाऊ-एकेंद्रि-तनु-प्रयोग-बंध कहायो ? २. वे उब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा३. एगिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य। (श० ८।३८६) ४. जइ एगिदियवे उब्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्का इयएगिदियसरीरप्पयोगबंधे ? अवाउक्काइयएगिदियसरीरप्पयोगबंधे ? ५. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्विय सरीरभेदो तहा भाणियव्वो। ५. इम एणे आलावे करि जिम, अवगाहण संठाणो । वैक्रिय तन नां भेद कह्या तिम, इहां पिण कहिवा जाणो॥ *लय : सतगुरु एहवो भाख्यो जी श०८, उ०९, ढा० १५६ ५०१ Jain Education Intemational Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जाव पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध देव-अनुत्तर अपर्याप्ता सर्वार्थसिद्ध नां, यावत ७. हे भदंत ! वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध किस कर्म ने उदय करि ? हिव जिन ८. वीर्य सजोग सद्द्रव्यपर्णं करि, जाव आऊ तथा वैक्रिय करण लब्धि प्रति आधी वैकिय सोरठा ६. जाव शब्द रै मांहि, जोग अनें भव ताहि ते लब्धि पडुच्च कहाय, बलि मनुष्य पेक्षाय, एह १०. संधो । प्रयोग-बंधो ॥ पहिचाणी । उत्तर जाणी ॥ आश्री जे । लीजे ॥ ११. तिरि पं० वाकाय बलि लब्धि पहुन्चज थाय, आगल १२. सूत्र नरक सुर साधि, लब्धि शब्द छांडी वीरिय सजोग आदि, आगल पाठ इसो प्रमाद - प्रत्यय कर्म वलि । सगला कहिवा इहां ॥ तिरि पंचेंद्रिय । सूत्र आयो इहां ॥ वाऊ *लय : सतगुरु एहवो भाख्यो जी ५०२ भगवती जोड़ होवो ॥ १३. "वाऊ एकेंद्रिय तनु पूछा, भाखं श्री वीर्य सजोग सद्द्रव्यपणें करि तिमज पाठ १४. यावत वैक्रिय करण लब्धि, आश्रयी नें एकेंद्रिय क्रिय शरीर प्रयोग-बंधन १५. रत्नप्रभा पृथ्वी नारक प्रभु ! पंचेंद्रिय अवलोयो । वैक्रिय-तनुप्रयोग बंध, किन कर्म उदय करि होयो ? १६. जिन कहै वोर्य सजोग सद्द्रव्यपणें जाव कहिवायो । आयू आश्री रत्नप्रभा नां, वैक्रिय जाव बंधायो || मनुष्य नां सूत्र में । पाठ इसो अछे । करी । अर्थ ॥ भेवो । तनु चेवो ॥ वाऊ जोयो । १७. एवं वावत अधो सातमी, पृथ्वी लगे पिछाणी । तिरि पंचेंद्रिय वैक्रिय पूछा, हिव जिन भाखै वाणी ॥ १८. वीर्य संजोग सद्द्रव्य वाऊकाय कही तिम मनुष्य पंचेंद्रि वैक्रिय शरीर, इणहिज रीते कहिये । लहियं ॥ जिन बंधो। १६. असुरकुमार देव पंवेंडी, वैक्रिय यावत रत्नप्रभा जिम एवं यावत, थणियकुमारा संधो ॥ य, सासव्य सिद्धत्तववाश्यकम्पालीय वेमाणियदेवपंचिदिय वे उब्वियस री रप्पयोगबंधे अपज्जत्तासम्बद्धसिद्ध जाव (सं० पा०) पयोगबंधे य (श० ८३८७ ) ७. वे उब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? ८. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए, जाव (सं० पा० ) आउयं च लद्धि वा पडुच्च वेउव्वियसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउब्वियसरी रप्पयोग बंधे । (०८) ६. पमादपच्चया कम्मं ज जोगं च भवं च । ६. जाव १०. 'लद्धि व' त्ति वैक्रियकरणलब्धिं वा प्रतीत्य, एतच्च वायुपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्यानपेक्ष्योक्तम् । ( वृ० प० ४०६) ११. तेन वायुकायादिसूत्रेषु लब्धिं वैक्रियशरीरबन्धस्य प्रत्ययतया वक्ष्यति, १२. नारदेवसूत्रेषु पुनस्तां विहाय तादीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीवि ( ० १०४०६) बीसयोगसद्रव्य ( वृ० प० ४०६ ) १३. वाउक्काइयएगिदियवे उब्विय सरीरप्पयोगपुच्छा । गोवमा ! बीरिय-सजोन सदस्याए एवं चैव १४. जाव लद्धि पडुच्च वाउक्काइय एगिदियवे उब्वियसरीरप्पयोगबंधे । (श० ८1३८६ ) १५. यापुढविने रयपंचिदियवेयिसरी रपयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? १६. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जाव आउयं वा पडुच्च रयणप्पभापुढविने रइयपंचिदिय वेउब्विय सरीरप्पयोगबंधे, १७. एवं जाव असत्तमाए । (TO KIR20) तिरिक्तणयचिदिने उन्निसरीरपुच्छा । १८. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जहा वाउक्काइयाणं । मणुस्सर्पाचिदियवेउब्वियसरी रप्पयोगबंधे एवं चेव । १२. सुकुमारभवगवासिदेवपचिदियवे उव्वियसरीरणयोगबंधे जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं । एवं जाव थणयकुमारा । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. एवं व्यंतर अनें जोतिषी, द्वादश कल्पज एवं । कल्पातीत नव-ग्रीवेयक, बली अनुत्तर देव ॥ २१. देश नव्यासी डाल एकसो गुणसठमी ए ताजी । भिक्खु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे 'जय जय' संपति जाझी ॥ हा १. वेत्रिय शरीर पूछे गोयम २. हे प्रभुजी ! देश -बंध वा सर्व-बंध ह्न ? जिन कहै दोनूं जोय ॥ नीं हिवे, देशबंध गणहरू, उत्तर दे वैक्रिय-तनु- प्रयोग-बंध अवलोय । ढाल : १६० * जिन-वच थी थी ए ३. वाऊकाय एकेंद्रिय, कहिये एवं चेव । रत्नप्रभा नारक इमज, जाव अनुत्तर देव ॥ लीजै रे, सतगुरु सीखड़ली । मोठी नाह सेरे, साकर सूखड़ली ॥ (प्र. पदं) ४. वैकिय-शरीर प्रयोग-बंध प्रभु ! काल थकी कितो काल ? जिन भाखै सर्व-बंध जघन्य थी, एक समय लग न्हाल ॥ सोरठा सर्व-बंध | जिनचंद ॥ ५. वैक्रिय शरीर मांहि, ऊपजतो धुर तथा लब्धि थी ताहि वैषिय करतो घर ६. * उत्कृष्टा बे समया कहिये, औदारिक तनु वैकिय पड़िवजतां धुर समये, सर्व-बंध ७. द्वितीय समय मरि देव प्रथम समय सर्व-बंध *लय चौरासी में भमतां रे भ्रमतां : समय जे । समय ।। । , नरक वैक्रिय तनु बांधत कहीजै, इम बे समया हुंत ॥! न्हालो । भालो ॥ ८. वैक्रिय तनु नों देश बंध ए जघन्य समय इक जाणी । उत्कृष्टो तेतीस सागर है, समय ऊण पहिचाणी ॥ २०. एवं वाणमंतरा एवं जोइसिया एवं मोहम्मरुप्पो क्या माजिया एवं जान अन्यगेवेज्जकरणातीया वेगाणिवा अनुत्तरोववाइयरूपातया वैमानिया एवं चेव । ( श० ८ ३९१ ) २. वेडव्वियसरी रपयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे ? सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि सव्वबंधे वि । ३. वाउक्काइयएगिदियवे उब्वियसरी रप्पयोगबंधे वि एवं चेव । रयणप्पभापुढविनेरइया एवं चेव । एवं जाव अणुत्तरोववाइया । (०२२) ४. वे उव्वियसरी रप्पयोगबंधे केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! समयं णं भंते ! कालओ सव्वबंधे जहणणं एक्कं ५. वैक्रियशरीरिषूत्पद्यमानो लब्धितो वा तत् कुर्वन् समयमेकं सर्वबन्धको भवतीत्येवमेकं समयं सर्वबन्ध इति । ( वृ० प० ४०६ ) ६,७. उक्कोसेणं दो समया । औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमान: सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्नारकत्वं देवत्वं वा यदा प्राप्नोति तदा प्रथमसमये वैक्रियस्य सर्वबन्धक एवेतिकृत्वा वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धक उत्कृष्टतः समयद्वयमिति । (०१० ४०६ ) ८. बंधे होणं एवकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोदमाई समाद (० ०३२३) श० ८, उ० ६, ढा० १६० ५०३ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ६. वैक्रिय तन सुविचार, देश-बंध धर समय किम ? औदारिक तन धार, वैक्रिय पडिवजतो छतो॥ १०. प्रथम समय सर्व बंध, देश बंध द्वितीय समय । पाम्यो मरणज मंद, जघन्य थकी इक समय इम ।। ११. उत्कृष्टो अवलोय, तेतीस सागरोपम रहै । समय ऊण ते होय, ते किण रीत कहीजिये ? १२. नरक तथा सुर मांय, उत्कृष्टी स्थिति में विषे । ऊपजतो कहिवाय, समय ऊण तेतीस उदधि ।। ६. 'देसबंधे जहण्णणं एक्कं समयं' ति, कथं ? औदारिक शरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः (वृ० प० ४०६) १०. प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति द्वितीयसमये देशबन्धो भूत्वा मृत इत्येवं देशबन्धो जघन्यत एक समयमिति । (वृ० प० ४०६) ११. 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयऊणाई' ति, कथम ? (वृ० प० ४०६) १२. देवेषु नारकेषु चोत्कृष्टस्थितिषूत्पद्यमान: प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धकसमयेनोनानि त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशबन्ध इति (वृ० प० ४०६) १३. वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियपुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, १४,१५. वायुरौदारिकशरीरी सन वैक्रियं गतस्तत: प्रथम समये सर्वबन्धकः द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृतः इत्येवं जघन्येनैको देशबन्धसमयः। (वृ० प० ४०६) १३. *वाऊकाय एकेंद्री पूछा, तब भाखै जिनराय । सर्व-बंध स्थिति एक समय नीं, हिव तसु कहियै न्याय ।। सोरठा १४. वाऊ तन औदार, तेह थकी वैक्रिय गयो । प्रथम समग सुविचार, सर्वबंधकारक थयो । १५. दूजे समये संध, देश-बंध थइ नै मओ । जघन्य थकी सर्व-बंध, एक समय वैक्रिय पवन ॥ १६. *वाऊ वैक्रिय देश-बंध ते, जघन्य समय इक लहिये । उत्कृष्टो अंतर्मुहुर्त ते, न्याय तास इम कहियै ।। सोरठा १७. वाऊ तन औदार, तेह थकी वैक्रिय गयो । अंतर्महुर्त धार, उत्कृष्टो रहै जीवतो॥ १८. लब्धी वैक्रिय वाय, अंतर्मुहुर्त थी अधिक । वैक्रिय नहिं रहिवाय, अवश्य औदारिक फुन हुई ।। १६. देसबंधे जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श० ८।३६४) १७. वैक्रियशरीरेण स एव यदाऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रमास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धोऽन्तर्मुहुर्तम् (वृ० ५० ४०६) १८. लब्धिवैक्रियशरीरिणो जीवतोऽन्तर्मुहुर्तात्परतो न वैक्रियशरीरावस्थानमस्ति, पुनरौदारिकशरीरस्या वश्यं प्रतिपत्तेरिति। (वृ०५० ४०६) १६. रयणप्पभापुढविनेरइयपुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, २०. देसबंधे जहण्णेणं दसवाससहस्साई तिसमयूणाई १६. *रत्नप्रभा नारक नीं पूछा, तब भाखै जगभाण । सर्व-बंध कारक स्थिति तेहनी, एक समय पहिछाण ॥ २०. देश-बंधकारक ते जघन्य थी, दस सहस्र वर्ष विचार । तीन समय ऊणाज कहीय, तास न्याय इम धार॥ सोरठा २१. तीन समय नी जाण, विग्रह-गति करि ऊपनों । रत्नप्रभा में आण, जेह जघन्य स्थिति में विषे॥ *लय : चौरासी में ममता रे ममता २१. त्रिसमयविग्रहेण रत्नप्रभायां जघन्यस्थिति रकः समुत्पन्न:, (वृ० प० ४०६) ५०४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. धुरला समया दोय, अनाहारक नां जाणवा । तृतीय समये सोय, सर्व-बंधकारक थयो । २३. वैक्रिय नुं इम देस, घर त्रिण समया ऊण जे । वर्ष सहस्र दस पेख, देश- बंध स्थिति जघन्य थी ॥ २४. * रत्नप्रभा नारक नों देश बंध, उत्कृष्टो जे काल । समय ऊण इक सागर कहियै, न्याय तास इम न्हाल ॥ सोरठा २५. रत्नप्रभा में संध, अविग्रह उत्कृष्ट प्रथम समय सर्व-बंध, शेष समय ए २६. * एवं यावत अधो सप्तमी, णवरं देश बंध चीन । जेहनीं जेतली जघन्य स्थिति छ, ऊणी समया तीन ॥ सोरठा 1 २७. विग्रह समया तीन ते ऊणो जे जपन्य सर्व नरक में लीन, जघन्य देश बंध स्थिति । देश- बंध | स्थिति | काल ए ॥ नौ काल । ते न्हाल ॥ २८. "जाय सर्व नारक उत्कृष्टो, देश बंध उत्कृष्टी स्थिति जेह नरक में, समय ऊण २६. पंचेंद्री - तिर्यंच मनुष्य में जिम कहि वाऊकाय । तिमहिज पाठ सर्व इहां कहिवा, निमल विचारी न्याय ॥ सोरठा । कहूं ३०. वैक्रिय तनु सर्व-बंध तिरि-पं० मनु इक समय छे। देश -बंध इम संध, जघन्य थकी इक समय हृ ॥ ३१. उत्कृष्टो अवलोय, अंतर्मुहूर्त काल जे । जाव शब्द में जोय, तास न्याय वृत्ति थी । ३२. नारक मुहूर्त्त भिन्न, चिउं तिर्यंच मनुष्य विषे । सुर अर्द्ध मास प्रपन्न, उत्कृष्ट विकुर्वण बढा' ।। हा सामर्थ थी, अंतर्मुहूर्त प्यार । देश-बंध नों काल ते, मतंतरे इम ३३. एह वचन धार ॥ *लय : चौरासी में ममतां रे भमतां १. इस संदर्भ में जीवाभिगम ( ३।१२६) की गाथा इस प्रकार हैभित्तो नरमु तिमि होत बत्तारि । देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विन्वणा भगिया ॥ २२. तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकः ( वृ० प० ४०६ ) २३. ततो देशबन्धको वैक्रियस्य तदेवमाद्यसमय त्रयन्यूनं वर्षसहस्रदशकं जघन्यतो देशबन्ध:, २४. उक्कोसेणं सागरोवमं समयूणं । ( वृ० प० ४०६, ४०७) २५. अविग्रहेण रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिर्नारकः समुत्पन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीस्य ततः परं देशवन्धकः ( वृ० प० ४०७ ) २६. एवं जाव अहे सत्तमा, नवरं — देसबंधे जस्स जा जणिया दिती या तिसमा कायल्या २७. देव जघन्यो विप्रमत्रयन्नो निजनिजघन्यस्थितिप्रमाणो वाच्यः । ( वृ० प० ४०७ ) २८. जाव उक्कोसिया सा समयूणा । २१. दितिजोगिया वाक्कायाणं मणुस्साण य जहा १०. द्रियमनुष्याणां वैयिसर्वजन्ध एक समर्प देशबन्धस्तु जधन्यतः एक समय ( वृ० प० ४०७ ) ३१. उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहुर्तम् । ( वृ० १०४०७) ३२. अंतमुहुत्तं निरएसु होइ चत्तारि तिरियमणुएसु । देवे अद्धमासो उक्कोस विउब्वणा कालो || ( वृ० प० ४०७ ) २२. इति वचनसामर्थ्यादन्तचतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते तन्मतान्तरमित्यवसेयमिति । ( वृ० प० ४०७) श० उ० ६, डा० १६० ५०५ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. ते माटै पंचेंद्री तिरि, मनुष्य विषे अवधार । देश-बंध उत्कृष्ट थी, अंतर्मुहूर्त च्यार ॥ ३५. *असुर नाग जावत सुर अनत्तर, जिम नारक तिम जाणं । णवरं जेहनें स्थिति जिका छै, तेहिज भणी पिछाणं ॥ ३६. जाव अनुत्तरवासी सुरवर, वैक्रिय तास शरीरं । सर्व-बंध नों काल समय इक, भाखै जिन महावीरं ॥ ३७. देश-बंध जघन्य इकतीस सागर, ऊणी समया तीन । उत्कृष्टी सागर तेतीसज, एक समय छ हीन । ३८. अंक नव्यासी नों देश कह्य ए, एक सौ साठमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ॥ ३५. असुरकूमार-नागकुमार जाव अणत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं, नवरं-जस्स जा ठिती सा भाणियन्वा ३६. जाव अणुत्तरोववाइयाणं सव्वबंधे एक्कं समयं । ३७. देशबंधे जहणणं एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमयूणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयूणाई । (श० ८।३६५) ढाल : १६१ १. उक्तो वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धस्य कालः, अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह- (वृ० प० ४०७) २. वे उब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचि चरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं दूहा १. वैक्रिय तन प्रयोग-बंध, आख्यो तेहनों काल । हिव तेहनां अंतर प्रतै, कहिये वचन रसाल । जिन जी जयवंता ॥ (ध्र पदं) २. वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध नों, प्रभु ! काल थी अंतर कितनो रे? जिन कहै अंतर सर्व-बंध नों, जघन्य थी एक समय नों रे ॥ सोरठा ३. औदारिक तन जेह, वैक्रिय शरीर पाय कै । प्रथम समय में तेह, सर्व-बंधकारक थयो। ४. द्वितीये समये ताहि, देश-बंध थइ नैं मुओ। सुर तथा नारक मांहि, वैक्रिय शरीर नै विषे ॥ ५. अविग्रह उत्पन्न, प्रथम समय सर्व-बंध कहै । इम इक समय वचन्न, सर्व-बंध नों अंतरो॥ ६. उत्कृष्ट काल अनंत पिछाणी, कालचक्र अनंता जाणी। जाव आवलिका में भाग असंख, पुद्गलपरावर्त पंक ।। सोरठा ७. औदारिक तन ताहि, वैक्रिय शरीर प्रति गयो । तथा वैक्रिय मांहि, देवादिक में ऊपनों॥ *लय : चौरासी में भमतां रे ममतां लिय : समझू नर विरला ५०६ भगवती-जोड़ ३. औदारिकशरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धकः (वृ० प० ४०७) ४. द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीरिषु (वृ० प० ४०७) ५. अविग्रहेणोत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति (वृ० प० ४०७) ६. उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ जाव (सं० पा०) आवलियाए असंखेज्जइभागो। ७. औदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवादिषु समुत्पन्नः (वृ०प०४०७) Jain Education Intemational Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. प्रथम समय सर्व-बंध, पछै देश - बंध करि मरी । वनस्पत्यादिक संघ, काल अनंतो त्यां रही ॥ उपजी ९. वैक्रिय शरीरवंत, तेहमें सर्व-बंध ते हुत, बनंत काल १०. *देश - बंध पिण इमहिज होय, जघन्य समय इक जोय । उत्कृष्ट काल अनंती कहिये न्याय पूर्ववत सहिये || ११ वाकाय वैक्रिय-तन् पृच्छा, जिन कहै सुण घर इच्छा । सर्व बंधनं अंतर जाने जघन्य अंतर्मुहुर्त मानं ॥ , सोरठा १२. बाऊन्तन् औदार ते वैक्रिय सर्व-बंध अवधार, मर वलि धुर समय । इम अंतरी ॥ गति १२. वाकाय वैयि तनु सर्व-बंध तणो जिण २०. तिरि पंचेंद्रिय वैक्रिय सर्व-बंध नुं अंतर वाऊ १२. त अपर्याप्त काल, वैक्रिय शक्ति न तेहमें । अंतर्मुहूर्त्त न्हाल, पछै पर्याप्त ते १४. ते वैक्रिय प्रारंभ, सर्व-बंध पहिले अंतर्मुहूर्त्त लंभ, अंतर इम सर्व-बंध नों ॥ थइ ॥ समय । *लय : समझू नर विरला १५. * वाकाय वैयि तन् दृष्ट, अंतर सर्व-बंध उत्कृष्ट । पल्य तणो असंख्यातमों भाग, तास न्याय इम माग || सोरठा १६. वाक तनु औदार, वैकिय-गत सर्व-बंध अवधार, पछै देश- बंध धुर समय । इज थयो । भव १७. पर्छ औदारिक वाय, तेह विषे बहु पस्य तणोंज कहाय, असंख्यातमों भाग १८. वैयि अवश्य करंत तत्र सर्व-बंध घुर यथोक्त अंतर हंत, सर्व-बंध नों इह पहिले थइ यह समय । मुओ ॥ किया। रही ॥ समय । विधे ॥ जाणी, देश-बंध नों पिछाणी । रीत, जघन्य उत्कृष्ट संगीत ॥ पृच्छा, जिन कहे गुण धर इच्छा । जन्य, अंतर्मुहूर्त जघन्य ॥ ८. स च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धं च कृत्वा मृतः ततः परमनन्तं कालमौदारिकशरीरिषु वनस्पत्यादिषु स्थित्वा ( वृ० प० ४०७ ) ९. वैयिशरीरवत्सूत्पन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति ( वृ० प० ४०७ ) (श० ३९६) जघन्येनैकं समयमुत्कृष्टतोऽनन्तं कालमित्यर्थः, भावना चास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति ( वृ० प० ४०७ ) ११. वाक्कायवे उब्वियसरीरपुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणणं अंतोमुहुत्तं, १०. एवं देसबंधंतरं पि । १२. वायुरौदारिकवारी वैश्विमापन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातः । ( वृ० प० ४०७ ) १३. तस्य चापर्याप्तकस्य वैक्रियशक्तिर्नाविर्भवतीत्यन्तर्मुहूर्तमात्रेणासौ पर्याप्तको भूत्वा । ( वृ० प० ४०७ ) १४. वैक्रियशरीरमारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धान्तरमंतर्मुहूर्त्तमिति । ( वृ० प० ४०७ ) १५. उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं । १६. वायुरौदा रिकशरीरी वैक्रियं गतः, तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा मृतः । ( वृ० प० ४०७ ) १७. ततः परमोदारिकशरीरि वा पस्योपमासंस्थेयभागमतिवाडा १८. अवश्यं वैक्रियं करोति, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति ( वृ० प० ४०७ ) (श० ८ ३९७ ) १६. एवं सबंधंतरं पि । २०. यदि वे उदियस योगबं पुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, श०५, उ० १, ढा० १६१ ५०७ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. उक्कोसेणं पुब्बकोडीपुहत्तं । एवं देसबंधंतरं पि । एवं मणूसस्स वि। (श० ८।३६८) २१. उत्कृष्ट पृथक पूर्व-कोडि, आगल न्याय सुजोड़ि । देश-बंध अंत र पिण एम, मनुष्य तणों पिण तेम ।। सोरठा २२. पंचेंद्रिय तिर्यंच, वैक्रिय तन सर्व-बंध नों। अंतर जघन्य सुसंच, अंतर्महत किण विधे? २३. तिरि पंचेंद्री जोय, वैक्रिय गत पहिले समय । सर्व-बंध ते होय, पछै देश-बंधकारकः ॥ २२. 'तिरिक्खें' त्यादि, सव्वबन्धंतरं जहन्नेणं 'अंतोमुहत्तं' ति, कथं ? (वृ० प० ४०७) २३. पञ्चेन्द्रियतियंग्योनिको वैक्रियं गतः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धकः (वृ० प० ४०७) २४. अन्तर्मुहुर्तमानं तत औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्वा (वृ० प० ४०७) २५,२६. समयं देशबन्धको जातः पुनरपि श्रद्धेयमुत्पन्ना वैक्रियं करोमीति पुनक्रियं कुर्वतः प्रथमसमये सर्वबन्धः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति (वृ० प० ४०७) २४. अंतर्मुहुर्त काल, देश-बंध वैक्रिय रही । वलि औदारिक न्हाल, सर्व-बंधकारक थई ।। .. २५. समय विषेज जगीस, देश-बंधकारक हुवो। तिहां अंतर्महत रहीस, वलि वैक्रिय मन ऊपनी॥ २६. वैक्रिय वली करंत, सर्व-बंध पहिलै समय । बिहुं सर्व-बंध नो हंत, अंतर्महत अंतरो॥ वा०-इहां तिथंच वैक्रिय नों सर्व-बंध नों अंतर अंतर्मुहूर्त नों कह्यो, ते अंतर्मुहूर्त ना असंख्याता भेद छै । तेहथी बे अंतर्मुहुर्त नै पिण अंतर्मुहूर्त कहियै । २७. पंचेंद्रिय तिर्यंच, वैक्रिय तन सर्व-बंध नों। उत्कृष्ट अंतर संच, पृथक पूर्व कोड़ किम ? पंचेंद्री तिर्यंच, पूर्व कोड स्थिति नों धणी । वैक्रिय करतां संच, सर्व-बंध पहिलै समय ।। २६. पछै देशबंध सोय, कालांतर पामी मरण । तिरि-पंचेंद्री होय, कोडि-पूर्व नै आउखै ।। ३०. पूर्व जनम सहीत, सप्त वार अथवाज अठ । तिरि पंचेंद्री लभीत, कोडि-पूर्व नै आउखै । ३१. सप्तम भव में तेह, तथा आठमां भव विषे । वैक्रिय तनू करेह, सर्व-बंध पहिलै समय । ३२. पर्छ देश-बंध होय, इम दोनें सर्व-बंध नों। उत्कृष्ट अंतर जोय, पृथक पूर्व-कोड़ि वरस । ३३. देश बंधंतर एम, कहिवो पूरव भावना । तिरि-पंचेंद्री जेम, कहिवो इमहिज मनुष्य नैं। ३४. हिव वैक्रिय तन जेह, प्रयोग-बंध नं अंतरो । ____ अन्य प्रकारे तेह, कहियै छै निसुणो तिको । ३५. 'हे भगवंत ! जीव नैं ताम, वाउकायपणुं पाम । पछ हुवो अवाउकाय, ऊपनो पृथव्यादिक मांय ॥ ३६. ते वलि थयो वाउ एकेंदी, वैक्रिय तन प्रयोग बंधी । तसु वैक्रिय अंतर तनु केतो? जिन कहै सुण धर चेतो । २७. 'उक्कोसेणं पुन्वकोडिपुहुत्तं' ति कथम् ? (वृ० प० ४०७) २८. पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः (वृ० प० ४०७) २६, ३०. ततो देशबन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतस्तत्र पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यवेवोत्पन्नः पूर्वजन्मना सह सप्ताष्टौ वा वारान् (वृ०प० ४०७) ३१, ३२. ततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धं कृत्वा देशबन्धं करोतीति, एवं च सर्वबन्धयोरुत्कृष्टं यथोक्तमन्तरं भवतीति । (वृ०प०४०७) ३३. 'एवं देशबंधंतरंपि' ति, भावना चास्य सर्वबन्धान्त रोक्तभावनानुसारेण कर्त्तव्येति । (वृ०प०४०७) ३४. वैक्रियशरीरबन्धान्तरमेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह (वृ० प० ४०७) ३५. जीवस्स णं भंते ! वाउक्काइयत्ते, नोवाउकाइयत्ते ३६. पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउक्काइयएगिदियवेउव्विय पुच्छा । __ *लय : समझ नर बिरला ५०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. सर्व बंधनों अंतर जघन्न अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट थकी अनंत काल, वनस्पति अद्धा प्रपन्न । | न्हाल ॥ सोरठा ३५. बाउ अवाऊ वाय, वैक्रिय सर्व-बंधक अंतर जघन्य कहाय, अंतर्मुहर्त किण ३६. वाऊ वैक्रिय पाय, सर्व-बंध पहिले समय मरि हुवै पृथ्वीकाय, खुड्डाग भव रहिनें तिको ॥ तणो । विधे ? ४०. वलिवाऊकाय, त्यां पिण केइक क्षुलक भव । रही वैक्रिय वाय, सर्व-बंध पहिले समय ॥ ४१. वैक्रिय तन् नों जोय, अंतर बेहं सर्व-बंध नों पण लक भव होय, इम बहू अंतर्मुहूर्त हं ॥ ४२. अंतर्मुहूर्त्त मांय, घणां क्षुलक भव जिन का । ते माट कहिवाय, अंतर्मुहूर्त्त जपन्य थी ॥ ४३. उत्कृष्ट काल अनंत, वाक वैक्रिय तन् छतो । वनस्पत्यादिक हुत काल अनंत विहां रही ।। ४४. बलि हर्ष वाककाय, वैक्रिय शरीर लास्यै 1 ४५. वाउ अवाऊ वाय, इणहिज रीत कहाय, अनंत काल इम थाय, उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध || सर्व-बंध अंतर कह्यो । देशबंध पिण जाणवं ।। ४६. हे प्रभुजी ! जीव रत्नप्रभाई, नारकपणे ते थाई नोरत्नप्रभा ने विषे उपजंत, वलि रत्नप्रभा में गच्छंत ? ४७. जिन कहै सर्व बंधंतर तास, जघन्य सहस्र दश वास । अंतर्मुहूर्त्त अधिक वलि न्हाल, उत्कृष्ट वणस्सइ-काल ।। सोरठा रत्नप्रभा ४८. रत्न प्रभा में संघ वर्ष सहस्र दश स्थिति विषे । प्रथम समय सर्व-बंध, पर्छ देशबंध थइ मरी ॥ ४९. पचेंडी तिर्यंच, सन्नी विषेज ऊपनो । अंतर्मुहूर्त्त संच, रहि वलि गयो ॥ ५०. प्रथम समय सर्व-बंध, इम बेहुं सर्व-बंध नों । यथोक्त अंतर संध, जघन्य थकी ए जाणवो ॥ ५१. प्रथम रत्नप्रभा मांहि, त्रिसमय विग्रह तो पण दस सहस्र ताहि, तीन समय ऊणी न ॥ *लय : समझू नर विरला थयो । ३७. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो । - ३८. 'सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति कथम् । ( वृ० प० ४०८) ३६. वायुर्वै क्रियशरीरं प्रतिपन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा मृतस्ततः पृथिवीकायिकेषूत्पन्नः तत्रापि शुल्लकभवग्रहणमात्रं स्थित्वा ( वृ० प० ४०८ ) ४०. पुनर्यायुतः, तत्रापि कतिपयान् भवान् स्थित्वा वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातः ( वृ० प० ४०८ ) ४१. ततश्च वैक्रियस्य सर्वबन्धयोरन्तरं बहवः क्षुल्लकभवास्ते च बहवोऽप्यन्तर्मुहूर्त, (बृ० प० ४०८ ) ४२. अन्तर्मुहूर्त्ते बहूनां क्षुल्लकभवानां प्रतिपादितत्वात्, ततश्च सर्वबन्धान्तरं यथोक्तं भवतीति ( वृ० प० ४०८ ) ४३. वायुर्वेरीभवन् मृतो वनस्पत्यादिष्वनन्तकाल स्थित्वा, ( वृ० प० ४०८ ) ४४. वैक्रियशरीरं पुनर्यदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति ( वृ० प० ४००) (श० ८1३९९ ) ४५. एवं देसबंधंतरं पि । ४६. जीवस भंते । व्यभाविनेर - पुच्छा । ४७. गोपमा ! सव्यबंधंतरं जयेगं दसवामसहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो । भाविने नोरयणपुगरवि रयगण्यभापुढविनेरइयत्ते ४८. रत्नप्रभानारको दशवर्षसहस्रस्थितिक उत्पत्ती सर्वबन्धकः, ततः उद्धृतस्तु ( वृ० प० ४०८) स्थित्वा रत्नप्रभायां ४६. गर्भजपञ्चेन्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्त्त पुनरप्युत्पन्नः ( वृ० प० ४०८ ) ५०. तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवं सूत्रोक्तं जघन्यमन्तरं सर्वबन्धयोरिति, ( वृ० प० ४०८ ) ५१. अयं च यदापि प्रवमोत्पत्ती त्रिसम तदापि न दशवर्षसहस्राणि त्रिसमयन्यूनानि भवन्ति ( पृ० प० ४०० ) श० प, उ० ६, डा० १६१ ५०९ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. अन्तर्मुहुर्त काल, तेह मांहि थी समय त्रिण । ___ दस सहस्र वर्ष में न्हाल, प्रक्षेप्यां पूरण हुवै ।। ..५३. अंतर्महत काल, तो पिण ते विगट नहीं । भेद असंख निहाल, अंतर्मुहूर्त नां अछै ।। ५४. उत्कृष्ट काल अनंत, रत्नप्रभा धुर समय में । सर्व-बंधको हंत, नीकल तिरि-पं० मनुष्य ह॥ ५५. वनस्पत्यादिक मांय, काल अनंत रही वलि । रत्नप्रभा में जाय, सर्व-बंधकारक हुवै ॥ ५६. *देश-बंध नुं अंतर तास, जघन्य अंतर्मुहूर्त विमास । उत्कृष्ट काल अनन्त निहालो, वनस्पती नों कालो॥ सोरठा ५७. रत्नप्रभा रै माय, देश-बंध करतो मरी। तिरि-पंचेंद्री थाय, अंतर्महर्त्त आउखै ।। ५८. ते मरि नै उपजंत, रत्नप्रभा नारक विषे । द्वितीय समय में हंत देश-बंधकारक तदा ॥ ५६. जघन्य थकी इम जोय, देश-बंध न अंतरो । __अंतरर्मुहूर्त होय, उत्कृष्ट पूर्व भावना ॥ ५२. अन्तर्मुहुर्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्रक्षेपात् (वृ० प० ४०८) ५३. न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहूर्तस्यान्तर्मुहूर्तत्वव्याघातस्तस्यानेक भेदत्वादिति (वृ० प० ४०८) ५४, ५५. रत्नप्रभानारक उत्पत्ती सर्वबन्धकस्तत उद्धृत श्चानन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्वबन्धक इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति, (वृ० प० ४०८) ५६. देसबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं -वणस्सइकालो ५७. रत्नप्रभानारको देशबन्धकः सन् मृतोऽन्तर्महायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्तयोत्पद्य (बृ०प०४०८) ५८. मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोत्पन्नः, तत्र च द्वितीयसमये देशबंधक: (वृ० प० ४०८) ५६. इत्येवं जघन्यं देशबन्धान्त रमिति, “उक्कोसेण' मित्यादि, भावना प्रागुक्तानुसारेणेति। (वृ० प० ४०८) ६०. एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं-जा जस्स ठिती जहणिया ६०. *एवं यावत सातमी जोय, णवरं विशेष ए होय । सर्व नरक में विषे पहिछाणी, जेहनी जघन्य स्थिति जिका जाणी॥ ६१. सर्व-बंध नों अंतर तास, कांइ जघन्य थकी सुविमास । अंतर्मुहर्त अधिको कहिवो, शेष थाकतो तिमहिज लहिवो ॥ ६१. सा सव्वबंधंतरं जहण्णेण अंतोमुत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव। ६२. द्वितीयादिपृथिवीषु च जघन्या स्थितिः क्रमेणैकं त्रीणि सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति । (वृ० ५० ४०८) सोरठा ६२. सकरप्रभा थी जाण, एक तीन अरु सप्त दश । सतर बावीस पिछाण, सागर ए स्थिति जघन्य है। ६३. जघन्य स्थिति थी जोय, अंतरमहत अधिक ही। सर्व-बंध नों होय, जघन्य थकी अंतर कह्यो। ६४. उत्कृष्टो इम न्हाल, सर्व-बंध नों अंतरो। वनस्पती नों काल, असंखेज्ज पुद्गल परा॥ ६५. सकरप्रभा थी मन्य, देश-बंध नों अंतरो। अंतर्महत जघन्य, उत्कृष्ट वनस्पति अद्धा॥ ६६. *पंचेंद्री-तिर्यंच मनुष्य नों पेख, वाउकाय जिम देख । जघन्य अंतर्मुहर्त अंतर हुंत, उत्कृष्ट काल अनंत ॥ *लय : समझू नर विरला ४१० भगवती-जोड़ ६६. पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साण य जहा बाउ क्काइयाणं Jain Education Intemational Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. असुरकुमार ने नागकुमार, यावत सुर सहसार । रत्नप्रभा जिम कहिवो संपेख, णवरं इतरो विशेख ॥ ६८. सर्व-बंध नों अंतर एह, जेहनी जघन्य स्थिति जेह । अंतर्मुहूर्त अधिक कहेव, शेष विस्तार तं चेव ॥ ६७. असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं-एएसि जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं, नवरं६८. सब्वबंधंतरं जस्स जा ठिती जहणिया सा अंतोमुहुत्त मब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव। (श० ८।४००) सोरठा ६६. असुर जाव सहसार, सुर उत्पत्ति पहिलै समय । सर्व-बंध अवधार, जघन्य स्थिति निज भोगवी ॥ ७०. तिरि-पंचेंद्री मांय, अंतर्मुहर्त भव करी । मर त्यां उपजै आय, सर्व-बंध वलि ते हुवो ॥ ७१. इम वैक्रिय नों तास, सर्व बंधंतर जघन्य थी । तसु स्थिति जघन्य विमास, अंतर्मुहर्त अधिक इम ॥ ६६. असुरकुमारादयस्तु सहस्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वा स्वकीयां च जघन्यस्थितिमनुपाल्य (वृ० प० ४०८) ७०. पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्येनान्तमहूर्त्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका जाता: (वृ० प० ४०८) ७१. एवं च तेषां वैक्रियस्य जघन्यं सर्वबन्धान्तरं जघन्या तत्स्थितिरन्तर्महाधिका वक्तव्या, . (वृ० प० ४०८) ७२. तत्र जघन्या स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यन्तराणां च दशवर्षसहस्राणि (वृ० प० ४०८) ७३-७५. ज्योतिष्काणां पल्योपमाष्टभागः सौधर्मादिषु तु 'पलियमहियं दो सार साहिया सत्त दस य चोद्दस य सत्तरस य' इत्यादि। (वृ० प० ४०८) ७२. असुरादिक नी जोय, जघन्य स्थिति ओलखावियै । वर्ष सहस्र दस होय, भवनपती व्यंतर तणी॥ ७३. देव जोतिषि मांहि, भाग आठमों पल्य तणो । सौधर्म स्वर्गे ताहि, जघन्य स्थिति छ एक पल्य ॥ ७४. साधिक पल्ल ईशाण, सणंतकूमारे बे उदधि । महेन्द्र कल्पे माण, सागर बे जाझी कही। ७५. ब्रह्म सप्त दधि सार, दस सागर लंतक विषे । महाशुक्र दस च्यार, अष्टम सतरै जघन्य स्थिति ॥ ७६. जघन्य स्थिति ए जोय, अंतर्मुहुर्त अधिक ही । जघन्य थकी अवलोय, सर्व-बंध नों अंतरो॥ ७७. उत्कृष्ट-काल अनंत, न्याय पूर्ववत जाणवू । श्री जिन वचन सोहंत, शंका मूल म आणवू ॥ ७८. *हे भगवंत ! जीव जे ताहि, आनत सुरपणे थाइ । नोआनत थइ वलि सुर आनत, अंतर कितो कहावत ? ७६. जिन कहै सागर अठारै तास, अधिका है पृथक वास । उत्कृष्ट काल अनंत प्रसिद्धा, वनस्पति नों अद्धा ॥ सोरठा ८०. आनत कल्पे देव, ऊपजतां पहिलै समय। ए सर्व-बंध कहेब, उदधि अठार तिहां रही। ८१. चवी मनुष्य में आय, आयु पृथक-वर्ष रही। वलि आनत सुर थाय, सर्व-बंध पहिलै समय । ७७. उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, यथा रत्नप्रभानारकाणामिति (वृ० १०४०८) ७८. जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते, नोआणयदेवत्ते पुणरवि आणयदेवत्ते पुच्छा। ७६. गोयमा ! सव्वबंधतरं जहणणं अट्ठारससागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालंवणस्सइकालो। ८०. आनतकल्पीयो देव उत्पत्तौ सर्वबन्धकः, स चाष्टादश सागरोपमाणि तत्र स्थित्वा (वृ० १० ४०८) ८१. ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवो त्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धकः (वृ० ५० ४०८) *लय : समभू नर विरला श०५, २०६, दा० १६१ ५११ Jain Education Intemational Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. बिहुं सर्व-बंध नों धार, जघन्य थकी तसु अंतरो। ५२. इत्येवं सर्वबन्धान्तरं जघन्यमष्टादश सागरोपमाणि आख्या उदधि अठार, अधिका पृथक-वर्ष इम ॥ वर्षपृथक्त्वाधिकानीति (वृ० प० ४०८) ८३. उत्कृष्ट काल अनंत, आनत सुर चव नर थई । ८३. उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, कथम् ? स एव तस्माच्युतोऽवनस्पत्यादिक हुंत, वलि आनत सुर सर्व-बंध ॥ नन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवमिति (वृ० प० ४०८) ५४. *आनत नोआनत वलि आनत, देश-बंध नों पावत । ८४. देशबंधंतरं जहणणं वासपुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं जघन्य पृथक-वर्ष अंतर न्हाल, उत्कृष्ट वणस्सइ-काल ॥ कालं-वणस्सइकालो सोरठा ८५. आनत सुर भव छह, देशबंध करतो चवी। ८५. स एव देशबन्धकः संश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुमनुष्यपणे ऊपजेह, वर्ष-पथक मैं आउखै । (वृ० प० ४०८) ८६. वलि आनत सुर थाय, सर्व-बंध थइ देश-बंध । ५६. पुनस्तत्र व गतस्तस्य च सर्वबन्धानन्तरं देशबन्ध जघन्य थकी इम पाय, देश बंधांतर पृथक-वर्ष । इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति । (वृ० प० ४०८) ८७. इहां यद्यपि सर्व-बंध, समयाधिक वर्ष-पृथक ह्र । ८७. इह च यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिकं वर्षपृथक्त्वं भवति तथापि तेहनों संध, वर्ष-पृथक में वंछियै ।। तथापि तस्य वर्षपृथक्त्वादनन्तरत्वविवक्षया न ८८. उत्कृष्ट काल अनंत, आनत सुर चव नर थइ । भेदेन गणनमिति, (वृ० प० ४०८) वनस्पत्यादिक हुँत, वलि आनत सर्व देश-बंध ॥ ८९. *इम जाव अच्च नवरं स्थिति जास, तिका सर्व बंधांतरे तास । ८६. एवं जाव अच्चुए, नवरं-जस्स जा ठिती सा सव्वजघन्य पृथक-वर्ष अधिकज कहिवं, शेष पूर्ववत लहिवं ॥ बंधंतरं जहणणं वासपुहत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव । (श० ८।४०१) ६०. ग्रैवेयक कल्पातीत नीं पृच्छा, सर्व-बंधांतर इच्छा।। ६०. गेवेज्जाकप्पातीतापुच्छा। जघन्य बावीस उदधि पृथक-वास, उत्कृष्ट अनंत काल तास ॥ गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेण बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो। ६१. देश-बंधांतर जघन्य थी ताय, वास-पृथक कहिवाय । ६१. देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइउत्कृष्ट वनस्पति नों काल, न्याय पूर्ववत न्हाल ॥ कालो (श० ८।४०२) सोरठा ६२. हरिभद्र सूरि कृत तेह, 'जीव-समास' विषे कह्म। तृतीय कल्प सू लेह, सहसार नां सुर जिकै ॥ ६३. जघन्य थकी आख्यात, नव दिन मन आय थकी। तृतीय कल्प उपपात, यावत अष्टम कल्प में। ६४. आनतादिक कल्प चार, नवमासाय मन थकी। उपजे इम वृत्तिकार, कह्य मतांतर तेहनें। ६५. 'सूत्र थकी ए विरुद्ध, 'जीव-समास' विषे कह्य । बातां विविध असुद्ध, प्रकरण टीका में कही। ६२-६४. अथ सनत्कुमारादिसहस्रारान्ता देवा जघन्यतो नवदिनायुष्केभ्यः आनताद्यच्युतान्तास्तु नवमासायुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसमासेऽभिधीयते,..... केवलं मतान्तरमेवेदमिति । (वृ० प० ४०८, ४०६) *लय : समझू नर विरला ५१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६, ६७. जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति ? मणुरसाणं जहेव सक्करप्पभाए उववज्जमाणाणं तहेव नव वि गमा भाणियव्वा, नवरं सणंकुमारद्विति संवेहं च जाणेज्जा'। (भ० श० २४१३५१) ६६. चउवीसम शतकेह, चउवीसम उद्देशके । मनुष्य थकी उपजेह, सनतकुमारादिक विषे। ६७. जघन्य थकी तो जोय, पृथक-वायु मन थकी। उत्कृष्टो अवलोय, पूर्व-कोड़ आय थकी। १८. ते कारण थी जेह, जीव-समास विषे कही। नव दिन नव मासेह, एह सूत्र थी नहिं मिलै'। (ज० स०) . ६६. *अनुत्तर विमान नीं पूछा सुजन्न, सर्व बंधांतर जघन्न । इकतीस उदधि पृथक-वर्ष थात, उत्कृष्ट सागर संख्यात ॥ १००. देश-बंध नों अंतर तास, जघन्य थी पृथक वास । उत्कृष्ट सागरोपम संख्यातं, विमल न्याय अवदातं ।। ६६. जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइयपुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं एक्कतीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई। १००. देसबंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाई। (श० ८।४०३) सोरठा १०१. अनुत्तर विमान नों जोय, सर्व-बंध देश-बंध नों। उत्कृष्ट अंतरो सोय, संख्याता सागर कह्यो। १०२. अनुत्तर विमान थीज, चवी अनंतो काल जे। निश्चै रुल नहींज, तिण सू संख्याता उदधि ।। १०३. हिवै वैक्रिय जेह, देश बंधगादिक तणो। अल्पबहुत्व कहेह, चित्त लगाई सांभलो॥ १०४. *ए प्रभु ! जीव वैक्रिय तनु केरा, * देश सर्व-बंध घणेरा। अबंधगा कुण कुण थी पेख, यावत अधिक विशेख ? १०५. सर्व थी थोड़ा वैक्रियवंत, सर्व-बंधगा जंत। एक समय नों काल छै ताय, तिण सू सर्व थी थोड़ा कहाय ।। १०१. अनुत्तरविमानसूत्रे तु 'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशबन्धान्तरं च संख्यातानि सागरोपमाणि, (वृ० प० ४०९) १०२. यतो नानन्तकालमनुत्तरविमानच्युतः संसरति । (वृ०प०४०६) १०३. अथ वैक्रियशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह (वृ० प० ४०६) १०४. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्वियसरीरस्स देसबंध गाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? १०६. देश बंधगा असंखगुण पाय, काल असंखगुणा रै न्याय। अबंधगा अनंतगुणा कहाय, सिद्ध वनस्पत्यादि पेक्षाय ।। १०७. अंक निव्यासी नो देश निहाल, एक सौ इकसठमीं ढाल। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, 'जय-जश' हरष अह्लाद ॥ १०५. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा बेउव्वियसरीरस्स सब्व बंधगा, तत्र सर्वस्तोका वैक्रियसर्वबन्धकास्तत् कालस्याल्पत्वात् (वृ० प० ४०६) १०६. देसबंधगा असंखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा । (श०८।४०४) देशबन्धका असंख्यातगुणास्तत्कालस्य तदपेक्षयाऽसंख्येय गुणत्वात, अबन्धकास्त्वनन्तगुणा सिद्धानां वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षयाऽनन्तगुणत्वादिति । (वृ०प०४०६) १. इस ढाल की ६६ एवं ६७ वी गाथा के सामने उद्धृत भगवती के पाठ में स्थिति के बारे में सनतकुमार देवों की भोलावण दी गई है, किन्तु सनतकुमार देवों के प्रसंग में शक्रप्रभा नारकी की भोलावण दे दी गई है। इसलिए इस सन्दर्भ में चौवीसवें शतक का १०८ वा सूत्र द्रष्टव्य है। *लय : समझ नर विरला श० ८, उ०६, ढा० १६१ ५१३ Jain Education Intemational Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैत्रिय-शरीर प्रयोग-बन्ध स्थिति-सूचक यन्त्र : प्रथम यंत्र सर्वबंध स्थिति समुच्चय वैक्रिय शरीर प्रयोग-बन्ध जघन्य उत्कृष्ट नी स्थिति १ समय । २समय बाउ वैक्रिय शरीर प्रयोग-बन्ध... जघन्य-उत्कृष्ट १ समय रत्नप्रभा वैक्रिय शरीर प्रयोग-बन्ध... जघन १ समय १ समय देशबंध स्थिति उत्कृष्ट ३३ सागर १ समय ऊण अंतर्मुहूर्त ३ समय ऊण दस हजार | १ समय ऊण १ सागर वर्ष अंतर्मुहर्त शेष ६ नरक अन १० भवनपति, ३ समय ऊणी जेहन जेतली १ समय ऊण जेहनै व्यंतर जोतिषि वैमानिक.... स्थिति छ तेतली जेतली स्थिति छ तेतली तिर्यंच पंचेंद्री मनुष्य... १ समय अंतर्मुहुर्त वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बन्ध नो अंतर-सूचक यन्त्र द्वितीय यन्त्र सर्वबंध अंतर देशबंध अंतर वैक्रिय अंतर जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट १ समय अनंत वणस्सइ काल १ समय अनंत वणस्सइ काल बाउ-वक्रिय अंतर अंतर्मुहूर्त पल्य नों असंख्यातमों भाग पल्य नों असंख्यातमों भाग पंचेंद्री तिर्यंच, मनुष्य अंतर्मुहूर्त । प्रत्येक पूर्व कोडि अंतर्मुहूर्त प्रत्येक पूर्व कोडि वैक्रिय अंतर जीव वाउकायपणे ऊपजी पछै नोवाउकायपणे थइ पुनरपि वाउकायपणे ऊपज तेहन अंतर नो यंत्र । इमहिज तिर्यञ्च पंचेन्द्री, मनुष्य, नारकी अनै देवता नो पिण जाणवो तृतीय यंत्र सर्वबंध अंतर देशबंध अंतर वाउ, तिर्यंच पंचेंद्री, | जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट मनुष्य अंतर्मुहूर्त अनंतकाल- अंतर्मुहूर्त अनंत काल-- वनस्पति काल वनस्पति काल रत्नप्रभा नोरत्नप्रभा | अंतर्महत अधिक वनस्पति काल अंतर्मुहर्त्त वनस्पति काल पुनरपि रत्नप्रभा १० हजार वर्ष शेष छह नरक, भवन- | अंतर्महर्त अधिक वनस्पति काल - अंतर्मुहुर्त वनस्पति काल पत्यादि जाव सहसार | जेहनै जेतली स्थिति देवलोक आणतादिक जाव नव प्रत्येक वर्ष अधिक वनस्पति काल प्रत्येक वर्ष वनस्पति काल अवेयक जेहनै जेतली स्थिति चार अनुत्तर विमान प्रत्येक वर्ष ३१ सागर । संख्याता सागर प्रत्येक वर्ष संख्याता सागर नां सुरपण वैक्रिय शरीर नां देशबंधक सर्वबंधक अबंधक में अल्पबहुत्व यंत्र चतुर्थ यंत्र सर्वबंधक देशबंधक अबंधक अल्पबहुत्व सर्व थी थोड़ा असंखगुणा अनंतगुणा ५१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १६२ १. आहारक-तन-प्रयोग-बंध, हे प्रभ ! कितै प्रकार? जिन भाखै सुण गोयमा ! कह्यो एक आकार ॥ १. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। (श० ८।४०५) २. जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणस्साहारगसरीरप्पयोग बंधे ? अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? ३. गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे नो अमणु स्साहारगसरीरप्पयोगबंधे । ४. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे २. जो एक आकार परूपियो, तो स्यू मनुष्य मझार । __ आहारक-तनु-प्रयोग-बंध, के अमनुष्य विचार ? ३. श्री जिन भाखै मनष्य में, आहारक शरीर थाय । ___ मनुष्य विना अन्य जीव में, आहारक तनु नहिं पाय । ४. इम इण आलावे करी, जिम अवगाहण संठाण । पन्नवण' पद इकवीस में, आख्यो तिम पहिछाण ॥ ५. जावत आहारक लब्धिवंत, प्रमत्तसंजती सोय। सम्यकदुष्टि पज्जत्त ते, वर्ष संख्याय होय ॥ ६. कर्मभूमि गर्भज मन, आहारक शरीर थाय। लब्धि बिना जे प्रमत्त में, यावत आहारक नाय ।। ७. हे भगवंत ! ते आहारक-तन-प्रयोग-बंध ताय । किसा कर्म उदय है? तब भाखै जिनराय ॥ ८ वीर्य सजोग सद्व्यपणे, जाव इहां लग जाण । आहारक लब्धि प्रतै वलि, आश्रयी नै पहिछाण ॥ ६. आहारक-तन-प्रयोग ते, नाम कर्म है तास । • उदय करि आहारक-तन-प्रयोग-बन्ध विमास ॥ __ *हरष धर सांभलो गोयमजी ।। (ध्र पदं) १०. हे प्रभुजी ! आहारक तन साहिबजी, स्य देश-बंध सर्व-बंध हो निस्नेही। जिन भाखै देश-बन्ध छ गोयमजी ! सर्व-बन्ध पिण संध हो गणधारी॥ ११. बन्ध आहारक शरीर प्रयोग नों, काल थकी कितो काल होय? जिन भाखै सर्व-बंध नों, एक समय अद्धा जोय ॥ १२. देश-बंध ते जघन्य थी, अंतर्मुहूर्त न्हाल । उत्कृष्टो पिण तेहनों, अंतर्मुहुर्त काल ।। *लय : घोड़ी तो आई थारा देश में १. पण्ण. २११७३,७४ ५, ६. जाव इढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्रिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमागब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे नो अणिढिपत्तपमत्त जाव (सं० पा०) आहारगसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४०६) ७. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? ८. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जाव (सं० पा०) लद्धि वा पडुच्च ६. आहारगसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४०७) १०. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि सव्वबंधे वि । (श० ८।४०८) ११. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं १२. देसबंधे जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । (श० ८।४०६) थ०८,०६, ढा०१६२ ५१५ Jain Education Intemational Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जपन्य अनं उत्कृष्ट, अंतर्मुहूर्त्त मात्र इज । आहारक शरीर इष्ट पर्छ ओदारिक अवश्य ग्रहै ॥ १४. ते अंतर्मुहूर्त्त मांहि प्रथम समय में उत्तर काले ताहि, देशबंधकारक १५. अथ हिव आहारक तेह, शरीर प्रयोग-बंध अंतर- काल कहेह, चित्त लगाई सांभलो ॥ सर्व-बन्ध | कह्यं ॥ नुं । सोरठा १६. हे प्रभुजी ! तेहनुं अंतर काल आहारकतनु- प्रयोग-बंध सुजोय । थी, कितो काल ते होय ? ( परम गुण आगला प्रभुजी ) गोयमा ! सर्व-बन्ध नुं न्हाल | यी अंतर्मुहूर्त काल ॥ सोरठा समय १५. मन आहारक तन पाय सर्व-बंध पहिले पर्छ देशबंध पाय, अंतर्महर्स रही करी ॥ १७. जिन भाखै सुण अंतर आख्यो जघन्य १२. प ओदारिक बात, त्यां पिण अंतर्मुहर्त रही। बलि आहारक अवदात करिया नों कारण थयो । २०. प्रथम समय सर्व-बंध इम बेहूं सर्व-बन्ध नों। अंतरकाल अंतर्मुहूर्त नों थयो । कहंद २१. आहार तन् नों आंतरो उत्कृष्ट काल अनंत । अनंतीज अवसर्पिणी, बलि उत्सपिणी हुंत ॥ २२. क्षेत्र की कहिये हिवं, लोक अनंता जोय। अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्त है, देश ऊण अवलोय ॥ *लय : घोड़ी तो आई थांरा देश में ५१६ भगवती जोड़ " सोरठा २३. अपार्द्ध पुद्गल ख्यात, अर्द्ध मात्र ने आखियो । ते अर्द्ध पूर्ण विण बात, तिथ सूं अर्द्ध देश ऊण ए ॥ उत्कर्षतश्चान्तर्ममा वमेवाहारकरीरी परत औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात् ( वृ० प० ४०६ ) १४. तत्र चान्तर्मुहूर्त आवसमये सर्वबन्धः उत्तरकाल देशबन्ध इति । (०१० ४०६) १५. अाहारशरीरप्रयोगस्वान्तरनिरूपणायाह १३. जघन्यतः भवति, ( वृ० प० ४०९ ) णं भंते! कालओ १६. आहारमसरी रपयोगवंतर केवच्चिरं होइ ? १७. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं । १०. मनुष्य आहारकशरीरं प्रतिपत्रस्तमसम सर्वबन्धकस्ततोऽन्तर्मुहुर्त्तमात्रं स्थित्वा ( वृ० प० ४०१ ) ११. दार गतस्तत्राप्यन्तर्मुह स्थितः पुनरपि चतस्य संवादि आहारकशरीरकरणकारणमुत्पन्नं ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णाति । ( वृ० प० ४०९ ) २०. तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक एवेति एवं च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्तं द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्त्तयोरेकत्वविवक्षणादिति । ( वृ० प० ४०९) २१. उक्कोसेणं अनंतं कालं -अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ कालओ २२. खेत्तओ अनंता लोगा - अवड्ढपोग्गलपरियटं देसूणं । २३. पार्थम् अपगतार्द्धममात्रमित्यर्थः मुद्गलपरावर्त' प्रागुक्तस्वरूपं भागध्ययंत पूर्ण स्वादत आह देशोनमिति (१० १०४०२) वृ० Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. देश- बन्ध नुं सम्यक्त चरण वहा अंतरो, उत्कृष्ट काल गमाय नें, वनस्पती में २५. हे प्रभुजी ! आहारक तनु देशबन्धगा देख सर्व-बन्धगा अबन्धमा, कुण-कुण जाब विशेख ? २६. जिन क है थोड़ा सर्व थी, आहारक तनु नां जोय । नां अल्पपणां बकी, सर्व-बंधगा काल सोय ।। २७. संख्यातगुणा देश बंधगा, असंख्यातगुणा तो हुवै नहीं, पंच । २८. अबंधगा छै अनंतगुणा, सिद्ध अरु स्थावर त्रस मांहै पिण जीवड़ा, आहारक विण जे संच ॥ २६. हिव तेजस शरीर गोयम प्रश्न गंभीर, अनंत । जंत ॥ ३०. हे प्रभुजी ! तेजस कि प्रकार परूपिया ? ३१. एकेंद्रिय तेजस तनु वे० पंचेंद्रिय तेजस तनु, सोरठा प्रयोग बंधने आश्रयी । उत्तर जिन आपे तसु ॥ तनु, प्रयोग बंध जिन कहे पंच ते० चरिद्री प्रयोग-बंध काल । बहुलपणो जे श्रमण संख्याता न्हाल || *लय : घोड़ी तो आई थांरा देश में विचार । प्रकार ॥ ३२. एकेंद्रिय तेजस तन्, किर्त प्रकारे जाण ? इम इण आलावेकरी, जिम ओगाहण संठाण ॥ जान। पिछाण || । ३३. जाव पज्जत सव्वदुसिद्धगा, कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय तेजस तनु, प्रयोग-बन्ध कहेब | ३४. अपज्जत्तगा सव्वट्टसिद्धगा, कल्पातीत अनुत्तर पंचेंद्रिय तेजस तनु, प्रयोग-बंध देव ॥ कहेव ॥ २४. एवं सबंधंतरं वि । (14051880) जघन्येनान्तर्महतंमुत्कर्षतः पुनरपा पुलपरावर्त देशोनं । ( वृ० प० ४०१ ) २५. एएस जीवाण आहारगसरीरस्स देशबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? २६. गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्वबंधगा तत्र सर्वस्तोका आहारकस्य सर्वबन्धकास्तत्सर्वबन्ध कालस्याल्पत्वात्, ( वृ० प० ४०९ ) २७. सबंधगा संखेज्जगुणा देशबन्धकाः संख्यातगुणास्तद्देशबंधकालस्य बहुत्वात्, असंख्यातगुणास्तु ते न भवन्ति यतो मनुष्या अपि संख्याताः किं पुनराहारकशरीरदेशबन्धकाः ? ( वृ० प० ४०६) २८. अबंधगा अनंतगुणा । ( श० ८४११ ) आहारकशरीरं हि ततश्च सिद्धवनस्पत्यादीनामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति ( वृ० प० ४०६ ) २२. जसरी योगकृत्याह ( वृ० प० ४०६ ) ३०. वासरोगणं भंते! कतिविहे पण ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा --- ३१. एगिंदियतेयास रीरप्पयोगबंधे बेइंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे जाव पंचिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे । (म० ८४१२ ) ३२. निदास पयोगबंधे पं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? एवं एएणं अभिलावेण भेदो जहा ओगाहणसंठाणे ३३. जाव जादुत्तरोत वेमाणियदेव पंचिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य । ३४. पासिद्धअतरोववाइयकप्पातीतमाथि देवपचिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य । (श० ०२४१३) श० ८, उ० ६, ढा० १६२ ५१७ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. हे भगवंत ! तेजस तनु, प्रयोग-बन्ध पहिचान । किसा कर्म ने उदय करी ? तब भाखै जगभाण ॥ ३६. वीर्य सजोग सद्द्रव्यपर्णे यावत पाठ सुजोय । अथवा आउखा आश्रयी, तेह तणो बंध होय ॥ ३७. तेजस शरीर प्रयोग ते, नाम कर्म उदय करि सोय । तेजस नाम शरीर नों, प्रयोग-बंध इम होय ॥ ३८. तेजस-तनु-प्रयोग-बंध ते, स्यूं देशबंध सर्व-बंध ? जिन भासं देशबंध पिण सर्व-बंध न कहंद ॥ सोरठा ३६. तेजस शरीर शरीर जाण, तेह अनादिपणां थकी । देशबंध पहिचान, सर्व-बंध कहिये नहीं ॥ ४०. सर्व-बंध ने सोय, पुद्गल नो पहिलो समय । उपादान अवलोय, तिण सूं ए नहि सर्व-बंध ॥ ४१. हे भगवंत ! तेजस तनु, प्रयोग-बंध विचार । कितो काल हुवे काल थी ? जिन कहै दोय प्रकार ।। " ४२. आदि-रहित अंत-रहित ते, अभव्य ने अवलोय । आदि-रहित अंत सहित जे ए भवसिद्धिक जोय ॥ 1 ४३. हे प्रभुजी ! तेजस तनु, प्रयोग-बंध नं पेस अंतर काल थी केतलो ? हिव जिन भाखे विशेख ॥ ४४. आदि-रहित अन्त-रहित नों अंतरो नहि अवलोय । तेजस तनु अभव्य तणो, सदा काल रहै सोय ॥ ४५. आदि-रहित अंत- सहित ने, एहनों पिण अन्तर नाहि । ए सिद्ध तेजस क्षय करो, फिर नहि पाने ताहि ॥ ४६. हे भगवंत ! ए जीवड़ा, तेजस तनु नां पेख । देश बंधगा अबंधना, कुण-कुणयी जाव विशेष ? ४७. जिन कहै थोड़ा सर्व थी तेय-अबंधना देशबंधना अनंतगुणा, सर्व संसारिक * लय: घोड़ी तो आई थांरा देश में ५१८ भगवती-जोड़ सिद्ध । लिद्ध ॥ ३५. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? ३६. गोमा ! पीरिय-सजोगाए जाव (मं० पा०) आउयं वा पडुच्च ३७. तेयासरी रप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएण तेयासरीरप्पयोगबंधे । (श० ८४१४) ३८. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देशबंधे ? सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे, नो सब्वबंधे । (श० ८४१५ ) ३६. जसरीरस्वानादित्वा सर्वबन्धोऽस्ति । ( वृ० प० ४१० ) ४०. तस्य प्रथमतः पुद्गलोपादानरूपत्वादिति । ( वृ० प० ४१०) ४१. तेयारी रख्पयोगबंधे णं भंते! कालओ केवच्चिरं हो ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा ४२. गादी वा अपरजयसिए, मणाीए वा सजव सिए । (०८२४१६) तत्रायं अनादिः सपर्यवसितस्तु भव्यानामिति । ( वृ० प० ४१० ) ४३. तेयासरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिरं हो ? तेजसशरीरबन्धोऽनादिरपर्यवसितोऽभव्यानां अपज्जवसियस्स नत्थि ४४. गोयमा ! अणादीयस्स अंतरं । ४५. अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं । (wo airto) ४६. एस भंते! जीवाणं तयावरीरस्स देशबंधनाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ४७. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा, देशबंधा ता (श० ८४१८) तत्र सर्वस्तोकाजसरीरस्यावन्धकाः सिद्धानामेव तदबन्धकत्वात्, देववन्धकास्त्वनन्तगुणास्तद्देश्यन्धकामां सकलसंधारण नियन्तगुणत्वादिति । ( वृ० प० ४१०) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. देश नव्यासी नों अंक ए, इकसौ बासठमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ॥ ढाल : १६३ १. कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा२. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४१६) दूहा १. हे भदंत ! कार्मण तन, प्रयोग-बंध विचार। कितै प्रकार कह्यो अछै? जिन कहै अष्ट प्रकार ॥ २. ज्ञानावरणी कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध । जाव अंतराय कार्मण, तन प्रयोग-बंध संध। ३. ए आठूइं कर्म नैं, इण अक्षरे करि जान । __कार्मण तन प्रयोग-बंध, आख्या श्री भगवान ।। ४. कर्म अष्ट बंधवा तणी, जूजुइ करणी जेह । पूछ गोयम गणहरू, श्री जिन उत्तर देह ॥ ५. पाप कर्म बंधवा तणी, करणी सावज जोय । पुन्य कर्म बंधवा तणी, करणी निरवद्य होय ॥ ६. तास विस्तार सुणो हिवै, श्री जिन वच अवलोय । सावज निरवद्य ओलखो, प्रगट पाठ ए जोय ।। *तीर्थ-नायक पुण्य पाप री करणी प्रकासी ॥ (ध्र पदं) ७. ज्ञानावरणी कर्म-शरीर प्रयोग-बंध, किण कर्म उदय करी थूल ? जिन कहै ज्ञान नै ज्ञानवंत थी सामान्यपणे प्रतिकूल ॥ ८. श्रुतज्ञान श्रुतज्ञान नां दाता, त्यांरो णिण्हवण ते अपलापं । ज्ञान नहीं तथा ए नहिं सतगुरु, इम करिवै करि थापं ॥ ७. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्त कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! नाणपडिणीययाए ज्ञानस्य श्रुतादेस्तदभेदात् ज्ञानवतां वा या प्रत्यनीकता -सामान्येन प्रतिकूलता सा तथा तया । (वृ० प० ४११) ८. नाणणिण्हवणयाए, ज्ञानस्य-श्रुतस्य श्रुतगुरूणां वा या निलवताअपलपनं (वृ० प० ४११) ६. नाणंतराएणं, नाणप्पदोसेणं, 'नाणंतराएण' त्ति ज्ञानस्य--श्रुतस्यान्तरायः तद्ग्रहणादौ विघ्नो यः स तथा तेन, 'नाणपओसेण' त्ति ज्ञाने--श्रुतादौ ज्ञानवत्सु वा यः प्रद्वेषः-अप्रीतिः (वृ० प० ४११) है. श्रतज्ञान नी अंतराय पाई, पढतां नैं विघ्न करेह । श्रतज्ञान तथा ज्ञानवंत थी, अप्रीति द्वेष धरेह ।। *लय : राजा राघव १० ८, उ०६, ढा० १६२,१६३ ५१६ Jain Education Intemational Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञान तणो तथा ज्ञानवंत नीं, करै आशातना मति-हीन । हेल निंदै खिसै करै अवज्ञा, पाप कर्म में लीन ।। हेले निखि शातना मति-हीन । ११. ज्ञान ज्ञानी नों विसंवाद जोग कर, ज्ञान तणो व्यभिचार । देखाड़वा नै अर्थे प्रजंझ, मन वचन काया नां व्यापार ॥ १०. नाणच्चासातणयाए, ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा याऽत्याशातना-हीलना (वृ० प० ४११) ११. नाणविसंवादणाजोगेणं ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा विसंवादनयोगो—व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स तथा तेन । (वृ० प० ४११) १२. सूत्र में किहांइक दया कही छै, किहां हिंसा कही सूत्र माय । इत्यादिक विसंवाद बतायां, ज्ञानावरणी कर्म बंधाय । सोरठा १३. 'नदी प्रमख नी आण, कामी नहिं हणवा तणो। तिण कारण पहिछाण, तसु हिंसा कहियै नहीं। १४. *कृष्ण बारमों जिन अंतगड में, तेरमो समवायंग मझार । समझ पड़यां विण वोर वचन में, कहै विसंवाद व्यभिचार ।। सोरठा १५. अनागत चोवीस, पूरव भव नां नाम में । कृष्ण नाम सुजगीस, समवायंगे तेरमो ॥ १६. आगल बार नाम, इम पच्चीस तिहां नाम छै । इक द्रव्य जिन नां ताम, दोय नाम छै ते भणी॥ १७. आनंद सुनंद ताम, कृष्ण नाम पहिला अछ। एक तणां बे नाम, एह बड़ां नी धारणा ॥ १५-१७. सेणिय' सुपास' उदए' पोट्ठिल' अणगारे तह दढाऊ' य । कत्तिय संखे' य तहा नंद' सुनंदे सतएय बोद्धव्वा ॥१॥ देवई" चेव सच्चई २, तह वासुदेव बलदेवे"। रोहिणी" सुलसा चेव, तत्तो खलु रेवई चेव ॥२॥ तत्तो हवइ मिगाली," बोद्धव्वे खलु तहा भयाली" । दीवायणे य कण्हे, तत्तो खलु नारए चेव ॥३॥ अंबडे दारुमडे" य, साई५ बुद्धे य होइ बोद्धव्वे । उस्सप्पिणी आगमेस्साए, तित्थगराणं तु पुव्वभवा* ॥४॥ (समवाओ, प० स० २५२) १८. कण्हाइ! अरहा अरिटुणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-""अममे नाम अरहा भविस्ससि । (अंतगडदसाओ ॥१८) १८. अंतगड रै मांहि, अरिष्टनेम जिन इम कह्यो। कृष्ण होसी तूं ताहि, अमम नाम जिन बारमों। १६. ते माट इम जाण, अमम नाम रै स्थानके । कृष्ण नाम पहिछाण, इण न्याये जिन बारमों' ।। (ज० स०) २०. *ए छ प्रकार करि ज्ञानावरणी कर्म, शरीर-प्रयोग-बंध सोय। नाम कर्म नै उदय करीने, ज्ञानावरणो प्रयोग-बंध होय ॥ २०. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४२०) उक्त नामों में 'वासुदेवे' कृष्ण का नाम है । उसकी संख्या तेरहवीं है । उससे पहले नन्द और सुनन्द-ये दो नाम एक ही तीर्थंकर के हैं। इस दृष्टि से कृष्ण का नाम बारहवां ही प्रमाणित होता है। * लय : राजा राघव ५२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २१. 'ए षट कारण धार, ज्ञानावरणी बंध नां। सावज आज्ञा बार, तिण कारण ए पाप कर्म । २२. शरीर नाम कर्म ताहि, तास उदय जोग प्रवः । मोह उदय ए मांहि, अशुभ जोग तिण कारण ।।' (ज० स०) २३. *दर्शणावरणी कर्म शरीर-प्रयोग-बंध, किण कर्म उदय करि थूल ? जिन कहै दर्शण दर्शणवंत थी, सामान्यपणे प्रतिकूल ॥ २४. इम जिम ज्ञानावरणी कह्यो, तिम दर्शणावरणी अहिवं । णवरं इतो विशेष जाणवो, दर्शण नामज कहिव। २५. जाव दर्शण नों विसंवाद जोग करि, दर्शण नो व्यभिचार । देखाड़वा नै अर्थे प्रजू भै, मन वचन काया नां व्यापार ॥ २६. ए छ प्रकार करि दर्शणावरणी कर्म, शरीर-प्रयोग-बंध सोय। नाम कर्म नैं उदय करिने, दर्शणावरणी प्रयोग-बंध होय ॥ २३. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! दसणपडिणीययाए । २४. एवं जहा नाणावरणिज्जं, नवरं दसणनाम घेतव्वं २५. जाव (सं० पा०) दंसणविसंवादणाजोगेणं २६. सणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए . कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे ।' (श० ८।४२१) २७. इह दर्शनं-चक्षुर्दर्शनादि। (व०प० ४११) सोरठा २७. इहां दर्शण पहिछाण, चक्षु-दर्शण आदि नों। प्रत्यनीकादि जाण, वृत्ति मझे ए वारता॥ वा०-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवलदर्शण नों प्रत्यनीक । तीन दर्शण तो क्षयोपशम भाव अनै केवलदर्शण खायिक भाव । तेहनी अवज्ञा करै-ए देखवा में स्यूं छै ? ते सिद्धां में केवलदर्शण टुगटुगापुरी छै । तथा केवल-दर्शणवंत नी प्रत्यनीकादिकपणों कर तथा चक्ष दर्शन थी जिन तथा साधां रा दर्शण करै तेहनों प्रत्यनीकादिकपणों अवज्ञा करै, हेलणा कर, तेहथी दर्शणावरणी कर्म बन्छ । २८. 'ए षट कारण धार, दर्शणावरणी बन्ध नां। सावज आज्ञा बार, तिण कारण ए पाप कर्म । २६. शरीर नाम कर्म ताहि, तास उदय जोग प्रवर्त। मोह उदय ए मांहि, अशुभ जोग तिण कारणै' । (ज० स०) ३०. *सातावेदनी कर्म शरीर प्रयोग-बंध, प्रभ ! किस कर्म उदयेण? जिन कहै प्राण नी अनुकंपा करि, भत नी अनुकंपा करेण ।। ३०. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए। ३१. एवं जहा सत्तमसए दुस्समउद्देसए ३१. जिम सप्तम शत' दुःषम उदेशे, छठे उदेशे ताहि । तिहां साता असाता वेदनी नों, वर्णन छै तिण मांहि ॥ *लय : राजा राघव १. भ. श०७।११४ ४०८, उ०६, ढा० १६३ ५२१ Jain Education Intemational Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सोरठा तेहनों आर, ३२. दुःषमदुषमा छठा उदेश मझार, तसु ॥ ३३. *यावत परितापना न उपावे सातावेदनी कर्म ताय । शरीर प्रयोग नाम कर्म उदय करि, सातावेदनी जाव बंधाय ॥ दुषम विस्तार है। भाख ३४. असातावेदनी कर्म नीं पूछा, तब जिनराय । पर नें दुख नों देवो तिणे करि, पर नैं सोग पमाय ॥ ३५. जिम सप्तम शत दुषम उदेशे, छठा उदेशा मांय । यावत पर ने परितापना दे तो असातावेदनी बंधाय ॥ 1 सोरठा ३६. 'कर्म वेदनी तास, साता असाता भेद तिण कारण सुविमास पुन्य पाप कहियै कहिये ३७. सातावेदनी पुन्य, तसु करणी निरवद्य कर्म असात जबुन्य, तसु करणी सावज ३५. सातावेदनी बंध, शरीर नाम कर्म उदय शुभ जोग प्रवर्त संघ, मोह-रहित छै ते जो उदेशो उदेशो नाम ३६. असातावेदनी बंध, नाम उदय जोग मोह उदय ए संध, अशुभ जोग इ लय : राजा राघव ५२२ भगवती-जोड़ बे । तसु ॥ प्रवर । कही ॥ करि । (ज० स० ) ४०. * मोह कार्मण शरीर प्रयोग बंध, प्रभु किसा कर्म उदयेण ? श्री जिन भाखे तीव्र क्रोध करि, तीव्र मान माया लोभेण ॥ भणी || प्रवर्ते । कारणं ॥ ४१. तीव्र मिथ्यात मोह उदय करिनं तीव्र चारित्र मोह उदयेण । मोह कर्म तन प्रयोग नाम कर्म, उदय जाव बंध तेण ॥ सोरठा ४२. पूर्वे तीव्र क्रोधादि, कषाय नीं प्रकृति चारित्र मोहे लाधि, ए नोकषाय ४३. मोह कर्म ए पाप, नाम उदय तिका । प्रकृति ॥ नव जोग प्रवर्त्ते । कार्य मोह मिलाप, अशुभ सावज इण ४४. सप्तम अष्टम जाण, कारणें ॥ नवमें वलि । इहां शुभ जोग पिछाण, प्रथम शतक उद्देश धुर ॥ २२. जाव (सं० पा०) अपरिवावणयाए सायायेवणिज कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मासरी रप्पयोगबंधे । (०२१४२२) ३४. असावावेणिपुण्डा (संपा० ) गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए । १५. जहा सत्तमसए दुस्समा उसए (७११६) जाव परियाबनवाए असाधावेयणिज्यम्मासरीरप्पयोग नामाए कम्मस्स उदएणं असायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे । (० ०१४२३) ४०. मोहजिम्मासरीरपयोगबंधे भंते! कम्मस्स उदएणं ? गोपमा तिव्यकोयाए तिव्वमाणयाए तिव्वमाक्याए, तिब्बलोभवाए कस्स ४१. तिव्यगमोहनियाए तिव्यपरितमोहणिज्यदाए मोहणिज्नकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मर उद मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे । ( श० ८|४२४) तीव्रमिथ्यात्वतयेत्यर्थः ( वृ० प० ४१२) ४२. कषायव्यतिरिक्तं नोकपायलक्षणमिह चारित्रमोहनीयं ग्राह्यं तीव्रक्रोधयेत्यादिना कयायचारित्रमोहनीयस्य प्रागुक्तत्वादिति । ( वृ० प० ४१२ ) ४४. तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । (४०४० २०३४) Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. तिहां पिण पाप बंधाय, कपाय थकी कहाय, शुभ दशमें जोगे बन्धे कर्म करि पुन्य षट | ४६. * नरकायु कार्मण शरीर प्रयोग बंध, प्रभु ! किस कर्म उदयेण ? जिन है अपरिमित कृष्यादि महारंभ करि, महापरिग्रह करि जेण ॥ बंध' ॥ (ज० स० ) | ४७. पंचेंद्रिय वध मंस भोजन करि, नरकायु कर्म तन् प्रयोग | नाम उदय नरकायु कर्म तनु, जाव प्रयोग-बन्ध जोग || ४५. तिचायु कार्मण तनु पूछा, तब भाखे जिनराय । परवंचन नीं बुद्धिपणें करि ते माइल्लयाए कहाय ॥ ४६. नियडिल्लयाए ते माया ढांकण अन्य माया कहै एक अन्य आचार्य कहै अस्यादर करि, परबंधन थी पेख ॥ * लय राजा राघव ५०. अलियवयण ते झूठ बोलवे, कूड-जोल फूड-माप । तिर्यंचायुं कर्म जाव प्रयोग-बंध, एम कहै जिन आप || ५१. मनुष्या कार्मण शरीर नीं पूछा, जिन कहै स्वभाव थी भद्र। स्वभाव थकी विनोतपर्ण करि अनुकंपा सहित असुद्र ॥ ५२. मच्छर-भाव ते पर गुण न राहे, तसु निषेध अमच्छर भाव । मनुष्यायु कार्मण जाव प्रयोग-बंध, ए शुभ म आयु कहाव ॥ ५३. देवायु कार्मण शरीर नीं पूछा, तब भाखे जगभाण । सगपणे करि चारित्र पालवे, देश विरति करि माण | ५४. बाल तपोकर्म अज्ञान कष्ट थी, अकाम निर्जरा करीनें । देवायु कार्मण जाव प्रयोग-बन्ध, हिंसा रहित आदरी नें ॥ ४६. नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! महारंभयाए, महापरिग्गहयाए 'महारंभयाए ति अपरिमितकृष्यावारम्भतयेत्यर्थः ( वृ० प० ४१२) ४७. पाँचदिव कुणिमाहारेण नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे । (०८४२५) 'कुणिमाहारेणं' ति मांसभोजनेनेति ( वृ० प० ४१२ ) ४८. तिजगियाउयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा० ) गोयमा ! माइल्लयाए, 'माइल्लयाए' त्ति परवञ्चनबुद्धिवत्तया, ( वृ० प० ४१२ ) ४९. निडिलवाए निकृतिः वञ्चनार्थं चेष्टा मायाप्रच्छादनार्थं मायान्तरमित्येके अत्यादरकरणेन परवञ्चनमित्यम्ये, ( वृ० प० ४१२) ५०. अलियवयणेणं, कूडतुल- कूडमाणेणं तिरिक्खजोणियाकम्मा जाव (संपा० ) पयोगबंधे । (०८४२६) ५१. मथुरामावरीरपुच्छा (सं० पा०) गोवमा ! पराइयाए, पराइविषयमाए, सास्कोसयाए, ५२. अमछरियाए मस्सा उयक्रम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदरणं मणुस्सा उयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। (४०८४२७) मत्सरिक: परगुणानामसोडा तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता तया ( वृ० प० ४१२) ५३. देवाउयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा० ) गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमा संजमेणं ५४. लोकम्मे, अकामनिज्जराए देवाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे । (१० ८४२८) श० ८, उ० ६ ढा० १६३ ५२३ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा कारण पाप ५५. 'नरकायू नां धार, कारण चिहुं सावज चिहूं जिन आशा बार, पाप प्रकृति है ते ५६. तिरि आयु नां धार ते पिण ए सावज आशा बार ए पिण प्रकृति ५७. तिर्यंच युगलिया जंत, तेह तणो जे पुन्य प्रकृति दीसंत, निश्च जाण वा० - जघन्य आउखा वाला तिर्यंच, मनुष्य उत्कृष्ट कोड़ पूर्व स्थितिक तिर्यच नैं विषे ऊपजतां ए छठा गमा नैं विषे अध्यवसाय माठा कह्या, शतक २४ उदेशे २० में । ते माठा अध्यवसाय थी कोड़ पूर्व तिर्यचाय बांध्यो । इण लेखे ए कोड़ पूर्व स्थिति तिर्यंचायु पाप री प्रकृति छे, अशुभ अध्यवसाय थी बन्ध्यो ते मार्ट । खोटा अध्यवसाय थी पुन्य री प्रकृति बंधे नहीं । छै हुने ते पुन्य प्रकृति री कोइ नैं पाप री प्रकृति अने को पूर्व अपरं तिथंच युगलियानो भाउ छै ? कै पाप री प्रकृति है ? एहवूं सूत्रे खोल्यो नथी । भ्यास ते पिण निश्च न कहै । अर्ने कोइ ने पुन्य री प्रकृति भ्यासै ते पिण निश्च न कहै । ते पिण कहै - निश्चय केवली जाणै । कह्या । मणी ॥ कर्म ग्रन्थ मां कर्मा री प्रकृत, पुण्य पाप री प्रकृत तिण मांहे पिण छँ झूठ अनेक, ते पिण विकलां ने इण पाखंड मत चिहुं नीं ॥ । ५८. मनुष्य आयु नां ताहि, बहुलपणे कारण चिहूं। निरवच आज्ञा मांहि पुन्य प्रकृति एते भणी ॥ ५९. असनी मनुष्य नों जोय, आयु पाप प्रकृति अ तेह तणो अवलोय, कथन इहां कीधो नहीं ॥ ६०. देव आयु नां देख, कारण चिहुं निरवद्य चिडं आज्ञा में पेस पुन्य प्रकृति ए ते आउयो । केवली ॥ १. चार गति पुण्य की प्रकृति है या पाप की ? इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं हैं । जयाचार्य ने इस सन्दर्भ में स्वतंत्र रूप से लम्बी चौड़ी समीक्षा की है। अपने अभिमत को संवादी प्रमाण से पुष्ट करने के लिए उन्होंने आचार्य भिक्षु द्वारा कृत 'श्रद्धा निर्णय री चोपाई' की दसवीं ढाल से आठ गाथाएं १०।४३-५० उद्धृत की हैं। उनको उसी रूप में यहां दिया जा रहा है कह्या । भनी ।।' न्यारी ठहराइ । खबर न कांइ ॥ रो निरणो कीजो ॥ तिजंच ने मिनष तणो आउषो, तिण ने कहै छे एकंत पुन । तिण में असनी मनुष्य तणो आउषो, आ तो पाप तणी प्रकृत छ जबुन ॥ पांच स्थावर सुषम अप्रज्यापता छँ, त्यांरा पिण आउषा ने कहै छै पुन । यांरो पिण छै तिजंच रो आउषो, पाप री प्रकृत जाबक जबुन ॥ पांच स्थावर ने वले तीन विकलंद्री, त्यां अप्रज्यापता रो आउषो जबुन । आ पिण पाप री प्रकृत उघाड़ी, सूतर में कठेय न दीसे पुन || इत्यादिक तिनंच से आउदो विविध प्रकार को विनराय स्यां में कैकां रो आउषो पाप री प्रकृत, कैकां रो आउषो दीसे पुन रे मांय ॥ ५२४ भगवती-जोड़ ―― वा०सो देव अध्यापकाद्वितीयो जातो जहणेणं अंतोमुहुत्तट्टतीएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडीआउएसु उववज्जेज्जा''। (० ० २४२६७) सो चेव अप्यणा जम्मकालाद्वितीयो जाओ, जहा सणिपचिदियतिरिखखजोविरस भ० ( भ० श० २४/२७६ ) Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. आयुकर्म अवलोय, पुण्य पाप कहियै बिहं। सावज निरवद सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखलो॥ ६२. पुन्य आयु कर्म जेह, तन नाम कर्म नै उदय करि। जोग भला प्रवत्तेह, मोह रहित कारंज अछ । ६३. पाप आउखो पेख, तन नाम उदय जोग प्रवत्” । मोह सहित सुविशेख, ते माट अशुभ जोग छै'। (ज० स०) ६४. *शुभ नाम कर्म शरीर नीं पूछा, तब भाखै जिनराय। काया सरल ते काय करीन, अन्य भणी ठगै नांय ॥ ६५. भाव सरल ते अन्य ठगवा नों, मन प्रवर्ते नांहि । भाषा सरल ते वचन करीने, ठगै नहिं कोइ ताहि ॥ ६६. जेहवो करै तेहवो इज बोले, न करै विपरीत मंद । ते अविसंवादन जोग करीने, शुभ नाम कर्म जाव बन्ध ।। ६४. सुभनामकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०) गोयमा ! काउज्जुययाए कायर्जुकतया परावञ्चनपरकायचेष्टया __ (वृ० प० ४१२) ६५. भावुज्जुययाए, भासुज्जुययाए भावर्जुकतया परावञ्चनपरमनःप्रवृत्त्येत्यर्थः, भाषर्जु कतया भाषाऽऽर्जवेनेत्यर्थः (वृ० प०४१२) ६६. अविसंवादणाजोगेणं सुभनामकम्मा जाव (सं० पा०) पयोगबंधे। (श०८।४२६) विसंवादन-अन्यथाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं तद्रूपोयोगो-व्यापारस्तेन वा योगःसम्बन्धी विसंवादनयोग स्तन्निषेधादविसंवादनयोगस्तेन (वृ० प० ४१२) ६७. इह च कायर्जुकतादित्रयं वर्तमानकालाश्रयं, अविसंवादनयोगस्त्वतीतवर्तमानलक्षणकालद्वयाश्रय इति (वृ० प० ४१२) ६८. असुभनामकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०) गोयमा ! कायअणुज्जुययाए ६६. भावअणुज्जुययाए, भासअणुज्जुययाए ६७. काय सरल भाव सरल भाषा सरल, वर्तमान काल आश्री धार। अविसंवाद जोग अतीत वर्तमान, बे काल आश्री विचार ॥ ६८. अशुभ नाम कर्म शरीर नीं पूछा, तब भाखै जिनराय । काया तणो पिण सरल नहीं ए, काया करी ठगै अन्य ताय । ६६. भाव तणो पिण सरल नहीं जे, ठगवा नों प्रवर्तं मन्न । भाषा तणो पिण सरल नहीं ए, वचन करि ठगै अन्न। *लय : राजा राघव वा०-इहां केयक तिथंच रो आउखो पुन्य री प्रकृति दीसे इम कह्य। ते तिर्यंच युगलिया नो पुन्य प्रकृति हुवं ते पिण केवली जाणे अनै युगलिया विना अनेरा तिथंच रो आउखो तो पाप री प्रकृति छै। च्यारे प्रकारे बांधे तिजंच रो आउषो, ते च्यारूइ बोल सावज नहिं रूड़ा । त्यां सूं तो पाप री प्रकृत बंध छ, त्यांरो आउषो पुन कहै ते कूड़ा ॥ तिजंच पुगलिया रो शुभ आउषो, ते तो पुन री प्रकृत दीसती जाणो । अन्य तिर्जच रो आउषो पाप री प्रकृत, ते सूतर सू बुद्धिवंत करसी पिछाणो॥ माठा माठा अधवसाय सूं बंधै आउषो, ते आउषो फाप री प्रकृत जाणो। शंका हुवै तो भगोती सूतर में जोवो, चोवीसमैं शतक गमां तूं पिछाणो । श०८, उ०६ ढा० १६३ ५२५ Jain Education Intemational Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. जेहवो करै तेहवो नहिं बोल, जे करै विपरीत मंद। ते विसंवादन जोग करीन, अशुभ नाम कर्म जाव बन्ध । ७०. विसंवादणाजोगेणं असुभनामकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं असुभनामकस्मासरीरप्पयोगबंधे । (श० ८।४३०) सोरठा ७१. 'नाम कर्म अवलोय, पुण्य पाप कहियै बिहुँ । सावज निरवद्य सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखलो॥ ७२. शुभ नाम कर्म जेह, तन नाम कर्म नैं उदय करि। जोग भला प्रवत्तेह, मोह रहित कारज अछ। ७३. अशुभ नाम कर्म सोय, तन नाम उदय जोग प्रवः । मोह सहित ए होय, ते माटै अशुभ जोग छै॥ (ज० स०) ७४. *ऊंच गोत्र कर्म शरीर नीं पूछा, तब भादं जगतार । जाति तणो मद अणकरिव करि, न करै कूल-अहंकार ॥ ७५. वलि बल नों मद अणकरिव करि, रूप नों मद निवार । तप तणो पिण मद करै नहीं, लाभ नों मद परिहार। ७६. श्रत भण्यां नों पिण मद न करै, ठकुराइनों तजै अहंकार । या करिक ऊंच गोत्र कर्म तन, जाव प्रयोग-बन्ध धार ॥ ७७. नीच गोत्र कार्मण तन पूछा, जाति मदे करि संध । कूल बल जाव ऐश्वर्य मदे करि, नीच गोत्र कर्म जाव बंध ।। ७४. उच्चागोयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०) गोयमा ! जातिअमदेणं, कुलअमदेणं ७५,७६. बलअमदेणं, रूवअमदेणं, तवअमदेणं, सुयअमदेणं, लाभअमदेणं, इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं उच्चागोयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४३१) ७७. नीयागोयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०) गोयमा ! जातिमदेणं, कुलमदेणं, बलमदेणं जाव (सं० पा०) इस्सरियमदेणं नीयागोयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नीयागोयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४३२) सोरठा ७८. 'गोत्र कर्म अवलोय, पुन्य पाप कहियै बिहुँ । सावज निरवद्य सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखलो॥ ७६. ऊच गोत्र कर्म जेह, तन नाम कर्म नैं उदय करि । जोग भला प्रवत्तेह, मोह रहित कारज अछ ।। ८०. नीच गोत्र कर्म न्हाल, तन नाम उदय जोग प्रवत्तें । मोह सहित ए भाल, ते माटै अशुभ जोग छै॥ (ज० स०) ५१. *अन्तराय कर्म तन नीं पूछा, तब भाखै जिनराय। दान तणी अन्तराय देवा थी, लाभ नी दे अन्तराय॥ ८२. भोग उवभोग नै वीर्य नीं पिण, अन्तराय दे अन्ध । शरीर नाम कर्म उदय करीने, अन्तराय कर्म नो बन्ध ।। जनराय। लाभ नी ये नी ८१. अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०) गोयमा ! दाणंतराएणं, लाभंतराएणं, ८२. भोगतराएणं, उवभोगंतराएणं, वीरियंतराएणं अंतरा इयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगपंधे। (श० ८।४३३) *लय : राजा राघव १. अंगसुत्ताणि भाग दो ८।४३१ में तपमद के बाद श्रुतमद और लाभमद, ऐसा पाठ है । जोड़ में तप के बाद लाभ और फिर श्रुत का ग्रहण किया है। अंगसुत्ताणि में यह क्रम उक्त पाठ के पाठान्तर में रखा गया है। जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही क्रम होगा। सामने उद्धृत पाठ अंगसुत्ताणि के आधार पर है। ५२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ucation international Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८३. 'अन्तराय बन्ध धार, दानादिक अन्तराय दै। ए करणी आज्ञा बार, अन्तराय कर्म पाप इम' । (ज० स०) ८४. * अंक नव्यासी ने देश कह्य ए, एकसौ – तेसठमीं ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल । ढाल: १६४ दहा १. नाणावरणिज्जकम्मास रीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे? २. गोयमा ! देसबंधे, नो सव्वबंधे ! एवं जाव अंतराइयं । (श० ८।४३४) १. ज्ञानावरणी कार्मण-शरीर-प्रयोग-बंध । देश-बंध स्यू छै प्रभ ! कै सर्व-बंध कथियंद ? २. जिन भाखै देशबंध ह, सर्वबंध नहिं होय । एवं यावत अंतराय-कर्म कहीजै सोय ।। ३. कार्मण अनादिपणां थकी, सर्व-बंध नहिं होय । सर्व-बंध नैं प्रथम समय, पुद्गल ग्रहण सुजोय ॥ स्वाम ! थारा ज्ञान तणी बलिहारी, ए तो भिन-भिन भेद उचारी। नाथ ! थांरी करणी री बलिहारी, शुद्ध न्याय छाण्या तंतसारी॥ स्वाम ! थारो ज्ञान अपरंपर भारी ॥(ध्र पदं) ४. हे प्रभुजी ! ज्ञानावरणी कार्मण-शरीर-प्रयोग-बंध । काल थकी केतलो काल होवै ?जिन कहै द्विविध संध।। ४. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा५. अणादीए वा अपज्जवसिए, अणादीए वा सपज्ज वसिए। ६. एवं जाव अंतराइयस्स । (श० ८।४३५) ५. आदि-रहित अरु अंत-रहित, ए तो कर्म अभव्य नां धारी। ___ आदि-रहित अरु अंत-सहित, भवसिद्धिया कर्म नै जारी॥ ६. इम जिम तेजस शरीर तणो, संचिटणा काल उचारी। तिमहिज ज्ञानावरणी कर्म क हिवो, जाव अंतराय धारी। ७. प्रभुजी ! ज्ञानावरणी कार्मण, तनु प्रयोग बंध धारी। अंतर काल थी होवै केतलो? जिन कहै दोय प्रकारी॥ ८. आदि-रहित अंत-रहित अभव्य कर्म, अंतर नथी विचारी। आदि-रहित अंत-सहित भव्य कर्म, अंतर नहीं लिगारी॥ . *लग : राजा राघव लिय : गावत मेरी ७. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? ८. गोयमा! अणादीयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं, अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं । श०८, उ०६, ढा० १६३,१६४ ५२७ Jain Education Intemational Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. इम जिम तेजस शरीर तणो कह्यो, अंतर नों अधिकारी । तिमहिज ज्ञानावरणी कर्म कहिवो, जाव अंतराय धारी ॥ १०. ए प्रभु जीवां ने ज्ञानावरणी, कर्म नां देश बंध कर्त्तारी । वलि अबंधक ने कुणकुण थी, जाव अल्प बहुत्व धारी ॥ ११. इम जिम तेजस तन् नों आस्यो, तिम ज्ञानावरणी उचारी । इम आयु वर्जी जाव अंतराय, आउखा नीं पूछा न्यारी ॥ १२. सर्व थी थोड़ा जीव आयु कर्म नां, देश बंध कर्त्तारी । आयु बंधनों काल थोड़ो छै, ते मार्ट थोड़ा उचारी ॥ १३. तेह की आयु कर्म अबंधगा, संख्यातगुणा विचारी । अबंध काल ते बहु गुणपणां थी, संख्यातगुणा उचारी ॥ सोरठा 1 १४. इहां प्रेरक पूत, देशबंधक थी अबंधना संसेज्जगुणा कहत असंखगुणा किम नो का ? १५. मनुष्य अने तिर्वच तीन-तीन पल्प आउलो । देव नारकी संच, तेतीस सागर त्यां लगे ॥ १६. अबंध काल असंख्यात जीवतव्य प्रति आभयो । आश्रयी । असंख्यात गणो पात ते न कह्यो किन कारण ? १७ उत्तर तास कहेह, अनंतकायिका जीव जे । ते आधी सूत्र एह संख्यात जीवित होज ते ॥ १५. ते आउ तणां अबंध, अनंतकायिका जोवडा । देश-बंध थी संघ, संख्यातगुणा होवे अछे । १६. आउ तणां अबंध, सिद्धादिक जो तेह विषे । प्रक्षेपिये सुखकंद, तो पिण संखगुणाज ह ॥ २०. अनंत सिद्धादि अबंध, ते पिण अनंतकाय नों। आयु बंधका संध, तेहनें भाग अनंतमें || २१. वलिको कहिसे एम, जो आउला कर्म नां अबंधक छता तेम, बंधकारक होवे तदा ॥ २२. सर्व-बंध नौ तास संभव किम नहि तेहने ? उत्तर तास विमास, चित्त लगाई सांभलो || 2 ॥ नवो आयु बंधे ते २३. सहु आयू परकत्त, अछती नहिं छै तेहनें । औदारिकादिक वत्त, तिण कारण नहिं सर्वबंध । वा०- - पूर्व आउखो बंध्यो, ते भोगवतां आगला भव नों माटे सर्व बंध नहीं किंचित मात्र पिप आउवा री प्रकृति पूर्वे बंधी अने नवो आखो बांधे तो सर्वबन्ध हुई, औदारिक शरीर नो नयो निर्माण करें तेहने सबंध हुने इण रीते किमही जीव जाखा नों बंध हुवे नहीं, ते मार्ट सर्व बंध नहीं । ₹ ५२८ भगवती-जोड़ ६. एवं जाव अंतराइयस्स । (०४३९) १०. एएसि णं भंते ! जीवाणं नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स सबंध गाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो जाव (सं० पा०) अप्पाबहूगं ११. जहा तेयगस्स (सं० पा० ) एवं आउयवज्जं जाव अंतराइयस्स । (०२१४२७) १२. आउयस्स पुच्छा । गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधगा, सर्वस्तीकरवमेषामायुर्वन्धाद्वायाः स्तोकत्वात् (० ० ४१२) (४०८२४३८) १२. अधा गुणा। अवन्धाद्धायास्तु बहुगुणत्वात् तदबन्धकाः संख्यातगुणाः ( वृ० प० ४१२) १४. संख्यातास्तदबन्धकाः कस्याः? (बृ० प० ४१२) १६. तदबन्धाद्वाया असंख्यात जीवितानाश्रित्यासंख्यातगुणत्वात् (००४१२) १७. उच्यते — इदमनन्तकायिकानाश्रित्य सूत्रं तत्र चानन्तकायिकाः संख्यातजीविता एव । (५० ५० ४१२) १८. धकास्तद्देशयन्धकेभ्यः संवगुणा एव भवन्ति । (० ० ४१२) १९. यद्यबन्धकाः सिद्धादयस्तन्मध्ये क्षिप्यन्ते तथाऽपि तेभ्यः संख्यातगुणा एव ते, ( वृ० प० ४१२ ) २०. सिद्धाद्यबन्धकानामनन्तानामप्यनन्तकायिकायुर्बन्धकापेक्षयानन्तभागत्वादिति । (बृ० प० ४१२) २१. ननु यदायुषोऽबन्धकाः सन्तो बन्धकाः भवन्ति ( वृ० प० ४१२) २२. तदा कथं न सर्वबन्धसंभवस्तेषाम् ? उच्यते, (०१० ४१२) २३. नहि आयुः प्रकृतिरसती सर्वा निबध्यते मदारिकादिशरीरवदिति न सर्वबन्धसंभव इति । ( वृ० प० ४१२) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. पूरव आय कर्म, बंध्यो छतोज छै तम् । तिण कारण ए मर्म, सर्व-बंध कहियै नथी। २५. अन्य प्रकारे जाण, औदारिकादिक मैं हिवै। २५. प्रकारान्तरेणौदारिकादि चिन्तयन्नाहचितवियै सुविहाण, कहियै छै विस्तार ते॥ (वृ० प० ४१२) *हे प्रभु ! जे औदारिक तन नों, जसु सर्व-बंध हुवै सारी। २६. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स सव्वबंधे, से णं ते प्रभु ! वैक्रिय नुं स्यू बंधक, अथवा अबंधक धारी? भंते ! वेउव्वियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? २७. श्री जिन भाखै बंधक नहि छै, एह अबंध विचारी। २७. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एक समय औदारिक वैक्रिय नं, बंधक नहिं हं तिवारी॥ न ह्येकसमये औदारिकर्वक्रिययोर्बन्धो विद्यत इति कृत्वा नो बन्धक इति (वृ०प०४१३) २८. हे प्रभु ! जे औदारिक तन नों, जसु सर्व-बंध हसारी । २८. आहारगसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? ते प्रभु!आहारक तन नोंस्यं बंधक, अथवा अबंधक सारी? २६. श्री जिन भाखै बंधक नहि छै, एह अबंध विचारी। २६. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। - एक समय औदारिक आहारक नों, बंधक नहिं हतिवारी ।। एवमाहारकस्यापि (व०प०४१३) ३०. हे भगवंत ! ओदारिक तनु नों, जसुं सर्व-बंध ह सारी।। ३०. तेयासरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? ते प्रभु ! स्य तेजस नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ३१. श्री जिन भाख एह बंधक छ, विरह-रहित ए धारी। ३१. गोयमा ! बंधए नो अबंधए। सदा सहचारीपणां थी बंधक, अबंधक नहिं छै लिगारी॥ तेजसस्य पुनः सदैवाविरहितत्वाद् बन्धको देशबन्धकेन, (वृ०प० ४१३) ३२. जो प्रभु ! बंधक तो स्यू देश-बंध, अथवा सर्व-बंध कारी? ३२. जइ बंधए कि देसबंधए ? सव्वबंधए ? श्री जिन भाख देश-बंध ह्व, सर्व-बंध परिहारी ॥ गोयमा ! देसबंधए नो सव्वबंधए? ३३. हे प्रभजी ! औदारिक तणो जसु, सर्व-बंध ह सारी। ३३. कम्मासरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? ते प्रभु ! स्यू कार्मण नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ३४. श्री जिन भाखै एह बंधक छ, विरह-रहित ए धारी। ३४. गोयमा ! बंधए, नो अबंधए। सदा सहचारीपणां थी बंधक, अबंधक नहिं छै लिगारी॥ ३५. जो प्रभु ! बंधक तो स्यू देशबंध, अथवा सर्व-बंध कारी? ३५. जइ बंधए कि देसबंधए? सव्वबंधए ? श्री जिन भाखै देश बंध ह, सर्व-बंध परिहारी॥ गोयमा! देसबंधए नो सव्वबंधए। (श० ८।४३६) ३६. हे प्रभुजी ! औदारिक तणो जसु, देश-बंध कर्तारी। ३६. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स देसबंधे, से णं ते प्रभु ! वैक्रिय नों स्यू' बंधक, अथवा अबंधक धारी? भंते ! वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए? अबंधए ? ३७. जिन कहै बंधक नहिं छै अबंधक, जिम सर्वबंध करि उचारी। ३७. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एवं जहेव सव्वतिमज देशबन्ध करिक भणवो, जाव कार्मण धारी ॥ बंधणं भणियं तहेव देसबंधण वि भाणियन्वं जाव कम्मगस्स।. (श० ८।४४०) ३८. हे प्रभु ! वैक्रिय शरीर तणो जसू, सर्व-बन्ध कारी। ३८. जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधे, से णं ते प्रभु ! स्यू औदारिक नों बंधक, अथवा अबन्धक धारी ? भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? ३६. श्री जिन भाखै बन्धक नहीं छ, एह अबन्धक धारी। ३६. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। आहारगसरीरस्स आहारक तन नों पिण इम कहिवो, पूर्व रीत प्रकारी॥ एवं चेव ४०. जेहन वैक्रिय तन नों सर्व-बंध, तसु तेजस कार्मण धारी। ४०. तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं जेहन वैक्रिय तसु औदारिक नों भणियो, तिमहिज कहिवं विचारी॥ तहेव भाणियव्वं । *लय : गावत मेरी श०८,०६, ढा० १६४ ५२६ Jain Education Intemational Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. जाब देसबंधए नो सब्वबंधए। (श० ८।४४१) ४१. जाव वैक्रिय नों सर्व-बंध जसू, तेजस कर्म नों धारी। देश-बन्ध पिण सर्व-बन्ध नहि, पूर्व न्याय प्रकारी । ४२. हे प्रभ ! वैक्रिय शरीर तणो जसू, देश-बन्ध कर्तारी। ते प्रभ !स्य औदारिक नों बन्धक, अथवा अबन्धक धारी ? ४३. जिन कहै नहिं बंधक छ अबंधक, जिम सर्व-बंध करि उचारी। तिमज देश-बन्ध करिक भणवो, जाव कार्मण धारी। ४४. हे प्रभ ! आहारक शरीर तणो जस्, सर्व-बन्ध कर्तारी। ते प्रभु ! स्य औदारिक नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ४५. जिन कहै नहिं बंधक छ अबंधक, वैक्रिय नों पिण धारी। इणहिज रीत विचारी कहिवो, आहारक साथ विचारी॥ ४६. आहारक नों सर्व-बंध जसू वलि, तेजस कर्म नं धारी। जिम औदारिक संघाते भणियो, तिमहिज भणवो विचारी॥ ४७. हे प्रभु ! आहारक शरीर तणो जसु, देश-बंध कर्तारी। ते प्रभ ! स्य औदारिक नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ४८. इम जिम आहारक शरीर तणां सर्व-बंध संघात उचारी। तिम देश-बंध संघाते भणवो, जाव कार्मण धारी॥ ४२. जस्म णं भंते ! उब्वियसरीरस्स देसबंधे, से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स कि बंधए ? अबंधए ? ४३. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एवं जहेव सन्व बंधणं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स । (श० ८।४४२) ४४. जस्स णं भंते ! आहारगसरीरस्स सब्वबंधे, सेणं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? ४५. गोयमा ! नो बंधए अबंधए। एवं वेउव्वियस्स वि। ४६. तेया-कम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियव्वं । (श० ८४४३) ४७. जस्स णं भंते ! आहारगसरीरस्स देसबंधे, से णं ___ भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? ४८. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एवं जहा आहार गस्स सव्वबंधणं भणियं तहा देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स । (श० ८।४४४) ४६. जस्स णं भंते ! तेयासरीरस्स देसबंधे, से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? गोयमा ! बंधए वा, अबंधए वा। ४६. तेजस नों प्रभु ! देश-बंध जसू, औदारिक नों ते धारी। स्यूं प्रभु ! बंधक अथवा अबंधक? जिन कहै दोनू विचारी ।। सोरठा ५०. विग्रह गति वर्तमान, कह्यो अबंधक तेहनें । रह्यो अविग्रह जान, वलि बंधक हुवै इण विधे॥ ५१. तेहिज उत्पत्ति खेत, प्राप्ति सर्व-बंध धुर समय । देश-बंध इण हेत, द्वितीयादि समया विषे॥ ५२. *जो होवै बंधक तो स्यू देशबंध, अथवा सर्व-बंधकारी ? जिन कहै देश-बंध कारक ह, सर्व-बंध कर्तारी ।। ५३. वैक्रिय नों स्यू बंधक अबंधक, एवं चेव उचारी। इमहिज आहारक तनु नों होवै, पूर्व रीत प्रकारी॥ ५४. तेजस नों देशबंध होवै जेहने, कार्मण नों स्यं धारी? जिन कहै बंधक पिण न अबंधक, विरह-रहित विचारी॥ ५५ जो बंधक तो स्य' देश-बंधक, कै सर्व-बंध कर्तारी? श्री जिन भाखै देश-बंधक ह, सर्व-बंधक परिहारी ।। ५०. तत्र विग्रहे वर्तमानोऽबन्धकोऽविग्रहस्थः पुनर्बन्धकः । (वृ० प० ४१३) ५१. स एवोत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबंधक द्विती___ यादौ तु देशबन्धक इति । (वृ०प० ४१३) ५२. जइ बंधए कि देसबंधए ? सव्वबंधए ? गोयमा ! देसबंधए वा सव्वबंधए वा । ५३. वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? एवं चेव । एवं आहारगस्स वि। ५४. कम्मगसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? गोयमा ! बंधए, नो अबंधए। ५५. जइ बंधए कि देसबंधए ? सव्वबंधए ? गोयमा ! देसबंधए, नो सव्वबंधए। (श० ८।४४५) ५६. जस्स णं भंते ! कम्मासरीरस्स देसबंधे, से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा ! नो बंधए अबंधए। जहा तेयगस्स बत्तव्वया भणिया तहा कम्मगस्स वि भाणियव्वा जाव ५६. प्रभ ! कर्म शरीर नों देश-बंधक जसू, स्य औदारिक नं धारी? जिम तेजस नी वक्तव्यता कही, तिम कार्मण नीं विचारी।। *लय : गावत मेरी ५३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. तेयासरीरस्स जाव (सं० पा०) देसबंधए, नो सव्वबंधए। (श० ८।४४६) ५७. कार्मण नों देश-बंधक ह जसु, तेजस नों सुविचारी। जाव देश-बंध कारक होवै, सर्व-बंधक परिहारी॥ सोरठा ५८. हिवं औदारिक आदि, देश-बंध सर्व-बंधगा। अबंधगा संवादि, अल्पबहुत्व कहिये तसु॥ ५६. *प्रभु ! जीवां रै औदारिकादि पांच तनु, देश-सर्व-बंध कारी? अबंधगा में कुण-कुण सेती, जाव विशेष विचारी? ६०. सर्व थी थोड़ा आहारक तन नां, सर्व-बंधगा विचारी। चउद पूर्वधर कर प्रयोजने, प्रथम समय अद्धा धारी॥ ५८. अथौदारिकादिशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह (वृ० प० ४१३) ५६. एएसि णं भंते ! जीवाणं ओरालिय-वेउब्विय-आहारग तेयाकम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? ६०. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्व बंधगा यस्मात्ते चतुर्दशपूर्वधरास्तथाविधप्रयोजनवन्त एव भवन्ति (वृ० प० ४१३) ६१. तस्स चेव देसबंधगा संखेज्जगुणा देसबन्धकालस्य बहुत्वात् (वृ०प० ४१४) ६२. वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधगा असंखेज्जगुणा, तेषां तेभ्योऽसंख्यातगुणत्वात् (वृ० प० ४१४) ६३. तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा, सर्वबन्धाद्धापेक्षया देशबन्धाद्धाया असंख्यातगुणत्वात् (वृ० प० ४१४) ६१. ते आहारक नां देश-बंधगा, संख्यातगणा विचारी। देश-बंधक नों काल घणो छै, ते माटै एम उचारी ॥ ६२. वैक्रिय तन नां सर्व-बंधगा, असंखगणा सुविचारी । आहारक थी असंख्यातगणा छै, वैक्रिय नां कर्तारी'। ६३. तेहिज वैक्रिय नां देश-बंधगा, असंखेज्जगुणा धारी। सर्व-बंध नां काल थकी ए, असंखगणा सुविचारी॥ सोरठा ६४. अथवा सर्व-बंधकार, प्रतिपद्यमानका जिका। देश-बंधगा धार, पूर्व प्रतिपन्नाज ह॥ ६५. प्रतिपद्यमान थकीज, पूर्व प्रतिपन्ना बहु । वैक्रिय सर्व-बंध थीज, असंखगणा देश बंध इम॥ ६६. *तेहथी तेजस कार्मण नां अबंधगा, अनंतगणा अवधारी । वनस्पति वर्जी सर्व जीवां थी, सिद्ध अनंतगुणा सारी॥ ६४. अथवा सर्वबन्धकाः प्रतिपद्यमानकाः देशबन्धकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः, (वृ० प० ४१४) ६५. प्रतिपद्यमानकेभ्यश्च पूर्वप्रतिपन्नानां बहुत्वात्, वैक्रियसर्वबन्धकेभ्यो देशबन्धका असंख्येयगुणाः, (वृ० ५०.४१४) ६६. तेयाकम्मगाणं अबंधगा अणंतगुणा वनस्पतिवर्जसर्वजीवेभ्यः सिद्धानामनन्तगुणत्वादिति (वृ० प० ४१४) ६७. ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा अणंतगुणा, ते च वनस्पतिप्रभृतीन् प्रतीत्य प्रत्येतव्याः (वृ० प० ४१४) ६७. तेहथी औदारिक नां सर्व-बंधक, अनंतगणा सुविचारी। तेह वनस्पति प्रमुख जाणवा, अनंत जीव अवधारी। *लय : गावत मेरी १. सर्व थोड़ा आहारक नां सर्वबंधगा। २. आहारक नां देशबंधगा संख्यातगुणा । ३. वैक्रिय नां सर्वबंधगा असंख्यातगुणा । ४. वैक्रिय नां देशबंधगा असंख्यातगुणा । ५. तेजस कार्मण नां अबंधगा अनंतगुणा । ६. औदारिक नां सर्वबंधगा अनंतगुणा । श०८, उ०६, ढा० १६४ ५३१ Jain Education Intemational Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. तस्स चेव अबंधगा विसेसाहिया एते हि विग्रहगतिकाः सिद्धादयश्च भवन्ति, तत्र च सिद्धादीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाविवक्षा (वृ० प० ४१४) ७०. तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा ७१. तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसेसाहिया ७२. यस्मात् सर्वेऽपि संसारिणस्तैजसकार्मणयोर्देशबन्धका भवन्ति (वृ०प० ४१४) ७३. तत्र च ये विग्रहगतिका औदारिकसर्वबन्धका वैक्रियादिबन्धकाश्च (वृ० ५० ४१४) ७४. ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति ते विशेषाधिका इति । (वृ०प० ४१४) ७५. वेउब्वियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ६८. तेहनां अबंधगा विसेसाहिया, ए विग्रह गति कारी । सिद्ध अत्यंतज अल्पपणे करि, वंझ्या नहिं इहवारी ॥ सोरठा ६६. वनस्पती सर्व बंध, अति बहु छै तिण कारण । तास अबंधक संध, विशेष अधिक कह्या अछ' । ७०. *तेहथी औदारिक नां देस-बंधगा, असंखेज्जगणा धारी। असंख्यातगुणो काल ते माट, असंखगणाज उचारी॥ ७१. औदारिक नां देश-बंधगा थी, तेजस कर्म नां धारी । . देस-बंधगा विसेसाहिया, आगल न्याय उचारी ॥ सोरठा ७२. सह संसारी जंत, तेजस नैं कार्मण तणां । देश-बंधगा हुंत, पिण ते संसारी विषे॥ ७३. विग्रहगतिया जाण, औदारिक सर्व-बंधगा । वैक्रिय आदि पिछाण, तास बंधगा पिण वलि ॥ ७४. औदारिक देश-बंध, तेह थकी ए अधिक छ । ते माटै ए संध, विसेसाहिया जाणवा'। ७५. *तेजस कर्म नां देश-बंध थकी, वैक्रिय तन नां विचारी । अबंधगा विसेसाहिया आख्या, तास न्याय इम धारी ॥ - सोरठा ७६. वैक्रिय नों बंधकार, बहुलपणे सुर नारका । शेष अबंधक धार, सिद्धा वलि अबंधगा। ७७. तिहां सिद्धा सुविचार, तेजसादि देश-बंध थी। विशेष अधिका धार, वैक्रिय अबंधक छै तिके । ७८. वैक्रिय बंध विण जाण, तेजस कर्म बंधक तिके । वैक्रिय अबंध पिछाण, सिद्ध पिण तास अबंधगा। ७६. ते माटै पहिछाण, तेजस नै कार्मण तणां । देश-बंधक थी जाण, वैक्रिय अबंध सिद्ध बध्या ॥ ८०. *वैक्रिय तणां अबंधगा थी, आहारक तणां सुविचारी । अबंधगा विसेसाहिया आख्या, हिव तसु न्याय उचारी" ॥ *लय : गावत मेरी १. औदारिक नां अबंधगा विसेसाहिया । २. औदारिक नां देशबंधगा असंख्यातगुणा । ३. तेजस कार्मण नां देशबंधगा विसेसाहिया । ४. वैक्रिय नां अबंधगा विसेसाहिया । ५. आहारक ना अबंधगा विसेसाहिया। ५३२ भगवती-जोड ७६. यस्माद्वैक्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव शेषास्तु तदबन्धकाः सिद्धाश्च (वृ०प० ४१४) ७७. तत्र च सिद्धास्तैजसादिदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्ते इति ते विशेषाधिका उक्ताः (वृ० प० ४१४) ८०. आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया । (श० ८।४७) Jain Education Intemational Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८१. आहारक मनुष्य मझार, वैक्रिय अन्य में पिण हुवै । वैक्रिय बंध थी धार, अल्प आहारकबंधगा ॥ ५२. वैक्रिय अबंधकार, तेह थकी अधिका अछ । आहारक अबंध धार, ते माटै विसेसाहिया ॥ ८३. *सेवं भंते ! अंक नव्यासीन, ढाल इकसौ चोसठमी भारी। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति सारी ।। अष्टमशते नवमोद्देशकार्थः ।।८।। ८१. यस्मान्मनुष्याणामेवाहारकशरीरं वैक्रिय तु तदन्येषा मपि, ततो वैक्रियबन्धकेभ्य आहारकबन्धकानां स्तोकत्वेन । (वृ० प० ४१४) ५२. वैक्रियाबन्धकेभ्य आहारकाबन्धका विशेषाधिका इति । (वृ०प० ४१४) ८३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० ८।४४८) ढाल : १६५ १. नवम उदेशक नै विषे, कह्या अर्थ बंधादि । शील श्रत संपन्न पुरुष, तेह विचार साधि । २. ते माटै श्रुतादि करि, संपन्न पुरुष विशेष । प्रभूत वस्तु विचारणा, आखै दशमुद्देश ।। ३. राजगृह यावत इमज, वदै गोयम धर प्रेम । अन्यतीर्थिक प्रभ इम कहै, जाव परूपै एम।। ४. इम निश्च करि शील श्रेय, क्रिया थकी शिव पाय । ज्ञान तणों कारण नहीं, ए धर मत कहिवाय ।। १,२. अनन्तरोद्देशके बन्धादयोऽर्था उक्ताः, तांश्च श्रुतशीलसम्पन्नाः पुरुषा विचारयन्तीति श्रुतादिसम्पन्नपुरुषप्रभृतिपदार्थविचारणार्थो दशम उद्देशकः (वृ० प० ४१७) ३. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति४. एवं खलु सील सेयं इहान्ययूथिकाः केचित् क्रियामात्रादेवाभीष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न च किञ्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनम् (वृ० प० ४१७) ५. सुयं सेयं अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न क्रियात: (वृ० प० ४१७) ६. सुयं सील सेयं । (श० ८।४४६) ५. एक कहै श्रुत हीज श्रेय, ज्ञान थकी शिव थाय । ___क्रिया नों कारण नहीं, ए मत द्वितीय कहाय ॥ ६. इक कहै केवल शील थी, केवल श्रुत थी मुक्त । ए बिहुं ग्रहै पिण एक पक्ष, ए तीजो मत उक्त । ७. ते किम हे प्रभु ! एह इम, तब भाखै जिनराय । जे अन्यतीर्थी इम कहै, यावत मिथ्या वाय ॥ ७. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु । ८. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा ८. हूं पिण गोतम इम कहूं, जाव परूपू एम । च्यार जाति नां पुरुष म्है, आख्या कहिये जेम । *लय: गावत मेरी थ०८,०६,१०, ढा० १६४,१६५ ५३३ Jain Education Intemational Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञानी देव नों जग जश छायो, यां तो भिन- भिन भेद बतायो । हनुकर्मी सुन हरषायो, प्रभु शासण तिलक कहायो ॥ (प्र.पर्द) ६. शील क्रिया करि सहित एक पिण, श्रुत ज्ञान सम्यक्त नांह्यो हां रे लाला । शान सम्यक्त सहित एकपिण, शील क्रिया नहि पावो, भंग दूजो कहा ॥ १०. शील क्रिया करी सहित एक पिण, श्रुत ज्ञान सम्यक्त पायो । शील क्रिया करि रहित एक बली, श्रुत ज्ञान सम्यक्त नह्यो । चतुर्थी भंग बतायो । पुरुष कहिवायो । अश्रुतवंत कहायो । ज्ञान सम्यक्त न पायो ॥ ११. तत्र प्रथम पुरुष जाति प्रकारज तेह शील क्रिया करि सहित छे पिण, १२. स्व बुद्धि करके निवत्य पाप थी, धर्म एह पुरुष म्है गोतम आस्यो न जाण्यो ताह्यो । देश आराधक मांह्यो । वृत्ती बाल- तपस्वी फलायो । वा०---अनेरा आचार्य कहै – गीतार्थ री नेश्राय बिना अगीतार्थं तप करिवा तत्पर, इम वृत्ति में कह्यो, ते लेखे । पिण ए गीतार्थ री आज्ञा बिना अपछंदो अगीतार्थ प्रथम गुणठाणे संभव । जे जे भांगे अविरति सम्यग्दृष्टि नैं देश विराधक कह्यो अन एहनें प्रथम भांगे देश- आराधक कह्यो ते मार्ट ए सम्यक्त्व-रहित क्रिया करिया तत्पर साधु वेषे अपछंदो जाणवो । १३. 'देश थोड़ो सो अंश आराधे, मोक्ष मारग नों ताह्यो । वृत्ति मध्ये इह रीत कह्यो, शुद्ध करणी निरवद्य इण न्यायो । प्रथम गुणठाणे कहायो ॥ आस्यो एकिन न्यायो । श्री जिनवर फुरमायो । करणी ए आज्ञा मांह्यो । १५. असोचा केवली र अधिकारे, विभंग अज्ञानी राताह्यो । शुभ अध्यवसाय परिणाम कह्या छै, विशुद्ध लेस्या कहायो । धर्म ध्यान अर्थ रे मांह्यो । १४. देश आराधक प्रथम गुणठाणे, विरति नहीं पिण निर्जरा लेख, १६. तामली सोमल ऋषि नीं कही, अनित्य-चितवणा पाठ मांह्यो । वीर नीं अनित्य-चितवणा भगवती में, सूत्र उववाई ₹ मांह्यो । भेद धर्म ध्यान ने आयो ॥ *लय : ज्ञानी गुरुजी रो जग जश छायो ५३४ भगवती-जोड़ ९. सपने नाम एने नो सुसंपन्ने सुपसंपन्ने नाम एगे तो सीलसंप १०. एगे सीलसंपन्ने वि, सुयसंपन्ने वि । एगे नो सीलसंपन्ने नो सुसंपन्ने ११. तत्थ णं जे से पढ़मे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं १२. उवरए, अविण्णायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते । 'उपरत निवृत्तः स्वत्रुया पापात् 'अविज्ञातधर्मा भावोऽधिगतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः । वा० ( वृ० प० ४१०) गीतार्थानिश्रिततपश्चरणनिरतोऽगीतार्थं इत्यन्ये ( वृ० प० ४१८) १३. देश — स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यग्बोधरहितत्वात् क्रियापरत्वाच्चेति ( वृ० प० ४१८ ) १५. तस्स णं छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं.. अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहि विसुक्षमणीहि विभमाणीहि विभंगे नामं अण्णाणे समुप्पज्जइ । ( भ० श० २०२३) १६. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्ताव रत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागर - (भ० श० ३।३६) माणस्स.. Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. प्रथम गणठाणे सुव्रती कह्या, उत्तराध्येन सातमां मांह्यो। __ मनुष्य मरीनें मनुष्य हुवै ते, सुव्रती निर्जरा न्यायो। व्रत संबर नहिं पायो॥ १८. शुभ पराक्रम थी व्यंतर सुख पाया, जंबूद्वीपपन्नत्ति मांह्यो। व्यंतर में मिथ्यातीज ऊपज, शुभ करणी इण न्यायो । प्रथम गुणठाणा मांह्यो। १६. सुमुख गाथापति सुदत्त मुनि ने, असणादिक वहिरायो। दायक जोग करण शुद्ध दाख्या, परीत्त संसारज पायो। ___ मनुष्य नों आयु बंधायो॥ २०. गज भव सूसला री दया पाली ने, परीत संसारज पायो। मनष्य तणो आउखो बांध्यो, तो मिथ्यादृष्टि इण न्यायो। सूत्र ज्ञाता रै मांडो॥ २१. खंधक संन्यासी ने जिन-वंदन रो, आज्ञा गोयम दीधी ताह्यो । सूत्र भगवतो रा बोजा शतक रै, प्रथम उदेशा मांह्यो । शुद्ध करणी इण न्यायो॥ १७. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुब्बया । उति माणुसं जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ (उत्तर० ७।२०) १८. तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य... सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं पच्चणुभवमाणा विहरंति विहरंति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृ० ५० ३१) १६. तए णं तस्स सुमुहस्रा गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं गाहगसुद्धेणं दायगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकए, मणुस्साउए निबद्धे, (विवागसुयं २।१।२३) २०. तए णं तुम मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए माणुस्साउए निबद्धे, (नाया० १११८२) २१. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव पज्जुवासामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । - (भ० श० २।३६) २२. चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साणुक्को सयाए, अमच्छरिताए। (ठाणं ४।६३०) २३. चउहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहा--सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए। (ठाणं ४१६३१) २२. प्रकृति भद्र अरु प्रकृति विनीतज, दया अमच्छर भायो। च्यार प्रकार मनुष्य आयु बांधे, तो मनुष्य मरी मनुष्य थायो। ए पिण धुर गुणठाणा मांह्यो । २३. सरागसंजम संजमासंजम, बालतपे करि ताह्यो। अकामनिर्जरा करि सुर होवै, ए च्यारुइ निरवद्य पायो । चिउं जिन आज्ञा मांह्यो। २४. सरागसंजम संजमासंजम, बिहुँ कहै आज्ञा माह्यो । बालतप अकामनिर्जरा, आज्ञा बार किम थायो । विचारी जोवो न्यायो' । (ज० स०) २५. सर्वविरति साधु सर्व-आराधक, मोक्षमारग नां बतायो । तीजा भांगा नां आगल कहिस्य, वीर वचन वर न्यायो । प्रवर ए आज्ञा मांह्यो। २६. तत्र ते बीजो पुरुष-प्रकारज, तेह पुरुष कहिवायो। अशीलवंत ते क्रिया-रहित छै, पिण श्रुतवंत सवायो । ज्ञान समदृष्टि ए मांह्यो। २७. पाप थकी ते निवो नहीं छ, धर्म जाणपणो पायो। एह पुरुष म्हैं गोतम ! भाख्यो, देश-विराधक माह्यो । चोथे गुणठाणे कहायो॥ ते बीजो हित छ, २६. तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं tष्ट ए माह २७. अणुवरए, विण्णायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । 'अणुवरए विनायधम्मे' त्ति पापादनिवृत्तो विज्ञातधर्मा चाविरतिसम्यग्दृष्टिरितिभावः (वृ० प० ४१८) श०८, २०१०, ढा० १६५ ५३५ Jain Education Intemational Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २५. चारित्र पाय विराध तथा चरण पायो नथी । देश -विराधक लाघ, वृत्तिकार इणविध कह्यो । २६. * तत्र जे तीजा पुरुष नों प्रकारज, तेह पुरुष कहिवायो । शीलवंत क्रियावंत असे ए, बलि धतवंत सवायो । ज्ञान समदृष्टि ए मह्यो । ३०. पाप थकीज निवत्त्र्यो छे ते, विज्ञात-धर्म शोभायो । एह पुरुष हैं गोतम ! भाख्यो, सर्व आराधक पायो । संत मुनिवर सुखदायो ॥ तेह पुरुष कहिवायो । अश्रुतवंत कहायो । ज्ञान समदृष्टि न पायो ॥ ३२. पाप थकी निवत्य नहीं ते, धर्म जाणपणो न आयो । एह पुरुष म्है गोतम ! भाख्यो, सर्व-विराधक मांह्यो । मिध्याती क्रिया विनताह्यो । ३१. तत्र जे चतुर्थ पुरुष प्रकारज, शीलवंत क्रियावंत नहीं ए सोरठा ३३. श्रुतशब्दे करि माण, ज्ञान दर्शण बिहुं संग्रह्मा । धर्म तणोज अजाण, मिथ्यादृष्टी तत्व थी ॥ ३४. श्रावक नैं पिण ताहि, व्रतां तणी अपेक्षया । तीजा भांगा मांहि, एहवूं न्याय जणाय छै ॥ ३५. "अष्टम शत देश दशम उदेशक, इकसी पैंसठ ढाल मांह्यो । भिक्षु भारीमात ऋषिराय प्रसावे, 'जय-जश' हरष सवायो । सरस सुख संपति पायो । ढाल : १६६ सोरठा १. सर्व आराधक ताम, तीजा भांगा में कह्यो । आराधना अभिराम, तास विस्तार कहे हिवै ॥ बूहा २. आराधना प्रभु ! कतिविधा ? जिन कहै तीन प्रकार । ज्ञान दर्शन चारित्र तणी, आराधना सुविचार ॥ *लय : ज्ञानी गुरुजी को जग जश छायो ५३६ भगवती - जोड़ २८. 'देसविराहए' त्ति देशं चारित्रं विराधयतीत्यर्थः प्राप्तस्य तस्यापालनादप्राप्ते व ( वृ० प० ४१०) २६. तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से सुयवं - णं पुरिसे सीलवं ३०. उवरए, विष्णायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वा राहए पण्णत्ते । ३१. सत्य पंजे से उत्थे पुरिसजाए से पुरिये बसीलवं असुयवं ३२. अणुवरए, अविणायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सम्बविराहए पष्णते । (श० ८४५०) ३३. श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयोः संगृहीतत्वात् न हि मिथ्यादृष्टिविज्ञाततत्त्वतो भवतीति ( वृ० प० ४१८) १. अथाराधनामेव भेदत आह ( वृ० प० ४१८ ) २. कतिविहा णं भंते आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, नाणाराहणा, दंसणाराहणा, चरिताराहणा । तं जहा (श० ८।४५१) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पंच प्रकारे ज्ञान है, तथा ज्ञान श्रुत नाण । आराधना कालादिके, भणे पवर गणखाण ।। ४. दर्शण ते सम्यक्त्व नी, आराधना सुखकार । निःसंकितपणं आदि दे, पालै तसु आचार ॥ ५. चारित्र सामायक प्रमख, तसु आराधन सार । निरतिचारे पालवो, धर उपयोग उदार ।। ६. ज्ञान तणी आराधना, कतिविध हे भगवन्न ! जिन कहै तीन प्रकार है, उत्कृष्ट मझिम जघन्न । ७. उत्कर्षा ज्ञान-आराधना, ज्ञान कार्य अनुष्ठान ।। तास विषे प्रयत्न अति, गाढो उद्यम आन ।। ८. तास विषे प्रयत्न अति, गाढो उद्यम नाय । तिम बहु हीणो पिण नहीं, ते मज्झिम कहिवाय ॥ ६. ज्ञान कृत्य कार्य विषे, अतिहि अल्प प्रयत्न । अति थोड़ो उद्यम करै, कहिये तास जघन्न । १०. दर्शण तणी आराधना, कतिविध हे भगवन्न ! जिन कहै तीन प्रकार है, उत्कृष्ट मझिम जघन्न ।। ३. तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारं श्रुतं वा तस्याराधना-कालाधुपचारकरणम्, (वृ० प० ४१६) ४. दर्शन-सम्यक्त्वं तस्याराधना-निश्शंकितत्वादितदाचारानुपालनम् (वृ० प० ४१६) ५. चारित्रं-सामायिकादि तदाराधना-निरतिचारता (वृ० ५०४१६) ६. नाणाराहणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–उक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा । (श० ८।४५२) ७. 'उक्को सिय' ति उत्कर्षा ज्ञानाराधना ज्ञानकृत्या नुष्ठानेषु प्रकृष्टप्रयत्नता (वृ० ५० ४१६) ८. 'मज्झिम' त्ति तेष्वेव मध्यमप्रयत्नता (वृ० प० ४१६) है. 'जहन्न' त्ति तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता _ (वृ० प०४१६) १०. दसणाराहणा णं भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-उक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा। (श० ८।४५३) ११. चरिताराहणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-उक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा। (श० ४५४) १२. अथोक्ताऽराधनाभेदानामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाह (वृ० प० ४१६) ११. चरित्र तणी आराधना, कतिविध हे भगवन्न ! जिन कहै तीन प्रकार है, उत्कृष्ट मझिम जघन्न ।। १२. आखी तीन आराधना, हिव आराधन भेद । मांहोमांहि फलाविय, सुणजो आण उमेद ॥ *जोयजो रे जिन-वचनामृत वारू ॥(ध्र पदं) १३. जेहन हे भगवन ! उत्कृष्टी, ज्ञान आराधना होइ हो । तेहनै उत्कृष्टी दर्शण नीं, आराधना अवलोइ हो ? १४. जेहनै उत्कृष्टी दर्शण नीं, आराधना हुवै सोइ । तेहनै ज्ञान तणी आराधन, उत्कृष्टी अवलोइ ? १५. जिन भाखै उत्कृष्ट ज्ञान नीं, आराधना जसु होइ । तेहने दर्शन नी आराधना, उत्कृष्ट मझिम सुजोइ । १३. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दसणाराहणा? १४. जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा? १५. गोयमा ! जस्स उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स दंस.णाराहणा उक्कोसा वा अजहण्णुक्कोसा वा, सोरठा १६. उत्कृष्ट ज्ञान आराध, तसु दर्शण आराधना । उत्कृष्ट मझिम सुलाध, जघन्य न हुवै स्वभाव थी। १७. *जेहनें वलि उत्कृष्ट दर्शण नीं, आराधना ह सोइ । ज्ञान आराधना तसं उत्कृष्टी, जघन्य मझिम पिण होइ॥ *लय : रामजी नार गमाई हो १६. उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि आये द्वे दर्शनाराधने भवतो न पुनस्तृतीया, तथास्वभावत्वात्तस्येति । (वृ० प० ४१६) १७. जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुक्कोसा वा। (श० ८।४५५) १०८, उ० १० ढा० १६६ ५३७ Jain Education Intemational Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १८. उत्कृष्ट दर्शन आराध, तेह तणे जे ज्ञान नी । आराधना त्रिहुं लाध, संभव त्रिहं प्रयत्न नों। १६. जेहनें प्रभ ! उत्कृष्ट ज्ञान नीं, आराधना छै ताहि । तेहनै उत्कृष्टी चारित्र नीं, आराधना ए थाइ? २०. जेहनै उत्कृष्टी चारित्र नीं, आराधना ए थाइ । तेह तणे उत्कृष्ट ज्ञान नीं, आराधना सुखदाइ ? २१. जिन भाखै उत्कृष्ट ज्ञान नीं, आराधना जसु पाइ । तेहनें चारित्र नी आराधन, उत्कृष्ट मज्झिम कहाइ ।। २२. उत्कृष्ट ज्ञान आराधवंत नै, पवर चरण प्रभाव थी। तसु जघन्य उद्यम चरण नों नहि, तथाविध स्वभाव थी। २३. *तेहनें उत्कृष्टी चारित्र नीं, आराधना सुखदाइ । ज्ञान आराधना तसु उत्कृष्टी,जघन्य मज्झिम पिण थाइ। २४. उत्कृष्ट चरण आराधवंत ने, ज्ञान नी त्रिहं जाणिय । जघन्य मज्झिम उत्कृष्ट त्रिहं नों, उद्यम तास वखाणिय ।। २५. *जेहनें प्रभु ! उत्कृष्ट दर्शण नीं, आराधना घट मांहि । तेहने चारित्र नी आराधना, उत्कृष्टी वरदाइ ? २६. जेहनै उत्कृष्टी चारित्र नीं, आराधना वरदाइ । तेहने उत्कृष्टी दर्शण री, आराधना ए थाइ ? २७. जिन कहै जसु उत्कृष्ट दर्शण नीं, आराधना सुखदाइ । तेहन चरित्र आराधना, भजना कर त्रिहुं पाइ॥ १८. उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञान प्रति त्रिप्रकारस्यापि प्रयत्नस्य सम्भवोऽस्तीति, (वृ०प० ४१९) १६. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा? २०. जस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा? २१. गोयमा ! जस्स उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा अजहण्णुक्कोसा वा । २२. उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि चारित्रं प्रति नाल्पतमप्रयत्नता स्यात् तत्स्वभावात्तस्येति । (वृ० प० ४१६) २३. जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स नाणारा हणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुक्कोसा वा। (श० ८।४५६) २४. उत्कृष्टचारित्राराधनावतस्तु ज्ञानं प्रति प्रयत्नत्रयमपि भजनया स्यात् । (वृ० प० ४१६) २५. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा ? २६. जस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स उक्कोसिया दसणाराहणा? २७. गोषमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्ण मणुक्कोसा वा। २८. उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयत्नस्य त्रिविधस्याप्यविरुद्धत्वादिति (वृ० प० ४१६) २६. जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स दंसणारा___हणा नियमा उक्कोसा। (श० ८।४५७) ३०. उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टव दर्शनाराधना __(वृ० ५० ४१६) ३१. प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगतत्वादिति (वृ० प० ४१६) २८. उत्कृष्ट दर्शणवंत नें, चारित्र नी त्रिहं जाणिय । उत्कृष्ट मज्झिम जघन्य, चारित्र तणों उद्यम आणिय ।। २६. *वलि जेहनै उत्कृष्ट चारित्र नीं, आराधना अधिकाइ । दर्शण आराधना तसु उत्कृष्टी, निश्चै करिने थाइ।। ३०. उत्कृष्ट चरण आराधवंत ने, दर्शण तणी आराधना । जघन्य मज्झिम नहिं हुवै, उत्कृष्ट ईज सुसाधना ॥ ३१. प्रकृष्ट ' चरण केड़े अछ, प्रकृष्ट दर्शण निर्मलो । उत्कृष्ट चारित्रवंत नैं, उत्कृष्ट दर्शण छै भलो॥ *लय : रामजी नार गमाई हो लिय : पूज मोटा भांजे तोटा ५३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३२. हिवै आराधन भेद, तसु फल गोयम प्रश्न उमेद, उत्तर श्री ३२. उत्कृष्ट ज्ञान आराधन प्रति प्रभु ! कति भव ग्रहण करीनें सी, देखाड़वा अरथ । जिन आखियै ॥ आराधी ने तेही । यावत अंत करेई ? ३४. जिन कहै कितलाइक तिणहिज भव, सीभै शिवपुर जाइ । उत्कृष्ट चरण आराधना तिण में, तिण सूं ए फल पाइ ॥ ३५. कोइक दूजो भव करि सी, यावत अंत करेइ । ए बोजा नर भव नीं अपेक्षा, न्याय जणावे एही ॥ ३६. कोइ कल्प सौधर्म प्रमुख में, उपजै सुर पद पाई । अथवा कोई कल्पातीते, ऊपजवूं तसु थाई ॥ ३७. उत्कृष्ट दर्शण आराधना प्रभुजी ! आराधी नें तेही । केतला भव ग्रहणे करि सी, एवं चैव कहेई । सोरठा ३८. उत्कृष्ट ज्ञान आराध, आखी छै तिण रीत सूं । दर्शण नीं तिम साध, उत्कृष्टी आराधना ॥ ३९. हे प्रभु! उत्कृष्ट चारित्र आराधना, आराधी ने जेही । एवं चैव पूर्ववत कहिव ं, णवरं विशेष एही ॥ ४०. तिहां कह्यो केइ कल्प में ऊपजै, ते इहां कहिवूं नांही । कस्पातीत विषे केइ ऊपजे इम कहिवूं इन मांहि ॥ सोरठा , ४१. उत्कृष्ट चारित्रवंत, सौधर्मादिक कल्प में । उपजबू नहि हुत कल्पातीते ऊपजै ॥ ४२. उत्कृष्ट चरण आराध, जो शिव पद तिण भव नहीं । पंच अणुत्तर साध, तेह विषे जे ४३. उत्कृष्ट चरण आराध, कोइक तिण भव कोइक बीजे भव लाध, नर भव तणी ४४. कोइक कल्पातीत, पंच अणुत्तर ऊपजे || शिव लहै । अपेक्षया ॥ सुरवं । सहु कहिवू इण रीत, कल्प विषे कहिवूं नथी ॥ वा०-- कोई पूछे इहां कह्यो– उत्कृष्ट चारित्र नीं आराधना वालो कल्पातीत में ऊपजै तो जघन्य चारित्र नीं आराधना वालो कल्पातीत में ऊपजै के नहीं? *लय : रामजी नार गमाई हो ३२. अधाराधनाभेदानां फलप्रदर्शनावाह ( वृ० प० ४१९ ) ३३. उनकोसियणं मते नागा राहणं बाराहेता कतिहि भवम्यहमेहि सिकसि जाव सम्बलार्थ अंत करेति ? ३४. गोमा ! अत्येतिए तेमेव भवमगमेणं सिम्भति जाब साणं अंत करेति, उत्कृष्टचारित्राराधनायाः सद्भावे, ( वृ० प० ४२० ) ३५. अत्येतिए दोषं भवन्महर्षणं सम्मति जाय अंत करेति (पा० टि० ४) ३६. अत्येतिए कप्पो एसु वा कप्पातीएम वा उपवनति । ( ० ८४५) 'कप्पोवर व तिसौधर्मादिदेवलोकोपनेषु.... ( वृ० प० ४२० ) ३७. उक्कोसियण्णं भंते! दंसणाराहणा आराहेत्ता कतिहि भवग्ग्रहणेहि सिज्झति एवं चेव (सं० पा० ) (श० ८४५६) ३१. उनकोसियणं ते! परिताराहणा आराहेता एवं मेव नवरे (सं० पा० ) ४०. अत्येतिए कप्पातीएस उवयज्जति । (८०८४६०) ४१. उत्कृष्टचारित्राराधनावतः सौधर्मादिकत्वेष्वगमनाद् । (बु०प०४२०) ४२. सिगमनाभावे तस्यानुत्तरमुरेषु गमनात् (बु० १०४२०) श० उ० १०, डा० १६६ ५३९ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेहनों उत्तर-जिम उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो तिण भव तथा तीजै भव मोक्ष जाय । अनै तीजै भव मोक्ष जाय, तेहनी उत्कृष्टी आराधना पिण हुइं अनै जघन्य मज्झिम पिण हुई। तथा जिम असन्नी नरक जाय तो पहिली नरक नै विषेहीज जाय, आगल न जाय । अनै पहिली नरके जाय ते सन्नी पिण जाय असन्नी पिण जाय । तिम उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो तो सिद्ध तथा कल्पातीत नै विषेईज ऊपज, कल्प नै विषे न ऊपजै । अनै कल्पातीत नै विषे ऊपज ते उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो पिण ऊपज अन जघन्य मज्झिम वालो पिण ऊपजै । अभव्य मुनि-लिंगे अधिक तप थी कल्पातीत-नवमा अवेयक मैं विषे ऊपजै छै, तो जघन्य चारित्र नी आराधना वालो किम न ऊपजै ? इण न्याय जघन्य चारित्र वालो पिण कल्पातीत नै विषे ऊपजतो दीस छ। (ज० स०) ४५. *मज्झिम ज्ञान आराधना प्रभजी ! आराधी ने तेही। केतला भव ग्रहणे करि सीम, यावत अन्त करेई ? ४६. जिन कहै केइक बीजा भव में, सीझै-मक्ति सिधावै। वर्तमान नर भव नी अपेक्षा, दूजो नर भव पावै ।। सोरठा ४७. जे जाये निर्वाण, ते उत्कृष्ट ज्ञान बिन । उत्पत्ति कदेय म जाण, तिण सू भव दूजो कह्यो ।। ४८. मज्झिम ज्ञान आराध, एहनें सुर पद छै सही। उत्कृष्ट ज्ञान न लाध, तिण सतिण भव शिव नहीं। ४६. *मज्झिम ज्ञान आराधन वालो, तीजो भव न उलंधे। वर्तमान नर भव नी अपेक्षा, तीजे नर भव चंगे। ४५. मज्झिमियण्णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव सम्बदुक्खाणं अंतं करेति ? ४६. गोयमा ! अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व-दुक्खाणं अंतं करेति, अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन (वृ० प० ४२०) ४७. भावे पुनरुत्कृष्टमवश्यम्भावीत्यवसेयं, निर्वाणान्यथाऽनुपपत्तेरिति (वृ० प० ४२०) ४६. तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ। (श० ८।४६१) अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं मनुष्यभवग्रहणाम, (वृ० प० ४२०) ५०. मज्झिमियण्णं भंते ! दसणाराहणं आराहेत्ता एवं ५०. मज्झिम दर्शन आराधना प्रभजी ! आराधी ने तेही। मज्झिम ज्ञान आराधना नों फल, भाख्यो तेम कहेई ।। ५१. मज्झिम चरित्त आराधना पिण इम, मज्झिम ज्ञान दर्शण नीं। वलि मज्झिम चारित्र नी आराधना, एक सरीखी वरनी। ५१. एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि (सं० पा) (श० ८।४६२,४६३) सोरठा ५२. पूर्वे भाखी एह, मज्झिम ज्ञान दर्शण तणी। आराधना गुणगेह, ते सहु चारित्र सहित छै॥ ५३. *हे प्रभ ! ज्ञान नी जघन्य आराधना, आराधी ने तेहो। केतना भव ग्रहणे करि सीझ, यावत अन्त करेई ? ५४. जिन कहै तीजै भव केइ सीझ, सत्त अठ भव न उलंघे । जघन्य दर्शण आराधना पिण इम, सुर नर पनर उमंगे। ५३. जहण्णियण्णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करेति ? ५४. गोयमा ! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति, सत्तट्ट भवम्गहणाई पुण नाइक्कमइ। (श० ८।४६४) एवं दसणाराहणं पि, * लय : रामजी नार गमाई हो ५४. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५५. चरित आराधन सार तेहनों इज ए फल को इस को टीकाकार, ते थी चारित्र सहित ए ॥ ५६. अठ भव चरित्त प्रधान, श्रुत सम्यक्त्व देश व्रत नां । असंख्यात भव जान, एहवो आख्यो छै तिहां ॥ ५७. चरण आराधन रहीत, ज्ञान दर्शण आराधना | भव असंख पिण रीत, अष्टईज भव नहिं वृत्तौ ॥ ५८. 'चरम रात्रि गोशाल, सम्यक्त पायो शतक पनरमें हाल, लाखां भव तेहनां भगवती । कह्या ॥ ५६ सर्व थी थोड़ा ताहि, जीव चरित-आतम तणां । संख्याता अर्थ मांहि दशमुद्देश शत बारमें ॥ ६०. पंच चारित्र थी जाण, चरित्ताचरित्त को जुदो । ते मार्ट पहिचान, अधिक तास भव संभवै ॥ ६१.इत्यादिक वर न्याय, वली वृत्ति अवलोकतां । भव असंस जणाय, समदृष्टी श्रावक श्रावक तणां ॥' (ज० स० ) बा० – कोई पूछ – जघन्य चारित्र नों आराधना वालो कल्पातीत नैं विषे 01 ऊपजे के नहीं ? तेहनुं उत्तर सूत्रे करी कहै छै - पन्नवणा पद पन्द्रह में कह्योविजय विमाण न देवता अनागत का करिस्यै ? हम पूछयो जद भगवंत को करिस्यै, इम कह्यो । जो संख्याती में चार भव प्रथम देवलोक नां देवता सौधर्म देवलोके सुरप केतली इंद्रिय पांच, दस पन्द्रह तथा संख्याती इंद्रिय एक भव नीं पांच इंद्रिय लेखवं तो पिण नां अनें चार भव मनुष्य नां- एवं आठ एक भव विजय विमाण नों-नव, एक भव पूर्व भव मनुष्य मरी विजय विमाण में ऊपनों ते दस अने एक भव मनुष्य नों-ग्यारह । एवं ग्यारह भव तो थया अन संख्याती इंद्रिय कही तिण में अधिक भव लेखवं तो पन्द्रह भव तांइ री नां नहीं । अन इहां जघन्य चारित्र नीं आराधना वाला रा उत्कृष्ट पन्द्रह भव कह्या अ ममि चारित्र न आराधना वालो तीजो नर भव उल्लंघे नहीं, इम कह्या मार्ट तेहनां पांच भव हुई । पांच भव उपरंत वाला रै जघन्य चारित्र नीं आराधना संभवे । इण न्याय जघन्य चारित्र नो आराधना वालो पिण तप रूप अधिक करणी थकी विजय विमाण ऊपजतो दीस छ । ६२. * जघन्य चारित्र नीं आराधना पिण इम, केइक शिव भव तीजै ॥ सात आठ भव पुण न उलंघे, एम इहां पिण लीजे। *लय : रामजी नार गमाई हो ५५. यतश्चारित्राराधनाया एवेदं फलमुक्तम् ( वृ० १०४२० ) ५६. अनुभवा चरिते' त्ति सम्यमत्यदेशविरति भवास्त्वसंख्येया उक्ताः । ( वृ० प० ४२०) ५७. ततश्चरणाराधनारहिता ज्ञानदर्शनाराधना असंख्येयभविका अपि भवन्ति, न त्वष्टभविका एवेति । ( वृ० प० ४२० ) २. लए पं तस्य गोपालस्य मंचलितरस सततंसि परिणममासि पति-सम्मा अयमेवास्ये अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था । (भ० ज० १५१४१) --------.. ५६. एयासि णं भंते ! ....... गोयमा ! सव्वत्थोवाओ चरितायाओ.........। ( भ० श० १२/२०५ ) 'सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ' त्ति चारित्रिणां संख्यातत्वात् । (भग० ० ५० ५११) अतीवा वा० - विजय वैजयंत- जयंत अपराजियदेवस्स अनंता । बद्धेला पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा । ............. (पण्णवमा १२१३९) ६२. एवं चरिताराहणं पि (सं० पा० ) (पा० टि० १) ० उ० १०५ डा० १६६ ५४१ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. देश अष्टम शत दशम उदेशो, ढाल इकसौ छासठमीं आखी । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय जश' संपति राखी ॥ ढाल : १६७ वहा १. चारित्र जीव परिणाम ते पुद्गल नों परिणाम हिव, २. कितले भेदे हे प्रभु ! । पूर्वे आख्या ताम । कहिये अर्थ अमाम ॥ पुद्गल परिणाम जाण ? जिन कहै पंचविध वर्ण गंध, वलि रस फर्श संठाण || ३. कतिविध वर्ण परिणाम प्रभु ! जिन कहै पंच प्रकार काल-वर्ण- परिणाम है, जाव शुक्ल वर्ण सार ॥ ४. एणे आलावे करि, द्विविध पंचविध रस- परिणाम है, फर्श ५. कतिविध प्रभु संठाण है? जिन ! परिमंडल वट्ट स चतुरंस गन्ध - परिणाम | आठविध ताम ॥ कहे पंचविध जाण । आयत संठाण ॥ सोरठा ६. पुद्गल नों अधिकार, आख्यो छै वलि पुद्गल नोंज विचार कहिये ते छै *भंग पुद्गल तणां सांभलो तेहथी । सांभलो ।। (पदं) ७. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय नों, एक प्रदेश परमाणु जी । पुद्गल राशि तेहनों, प्रदेश निरंश अंश जाणु जी ॥ सोरठा ८. इक अणुकादि प्रसंस, पुद्गलराशि तणो तिको । प्रदेश निरंश निरंश अंश, अंश, प्रदेश परमाणू कह्यो ॥ * लय: मम करो काया माया कारमी २४२ भगवती-जोड़ १. अनन्तरं जीवपरिणाम उक्तोऽथ पुद्गलपरिणामाभिधानायाह( वृ० प० ४२० ) २. कविते । पोलपरिणामे पत्ते ? गोयमा पंचविहे पोमालपरिणामे पण्णत्ते तं जहावण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे । (२०८४६७) ३. यष्णपरिणामेवं भंते! कतिविहे पण्णले ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - कालवण्णपरिणामे जाव सुक्किलवण्णपरिणामे । ४. एवं एएवं अभिलावेण गंधपरिणामे दुबिहे, रसपरिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अट्ठविहे । (०८४६८) ५. संावपरिणामे णं भंते । कतिविहे पयते ? गोपमा ! पंचविहे पण तं महापरिमंडलापरिणामे जाव आयतसंठाणपरिणामे । (२०६१४६९) यावत्करणाच ठाणपरिणामे तंसमंठाणपरिणामे चउरंससं ठाणपरिणामे' त्ति दृश्यम् ६. पुद्गलाधिकारादिवमाह (०१० ४२० ) ( वृ० प० ४२० ) ७. पुद्गलास्तिकायस्य एकाकादि निरंशोऽधा पुद्गलास्तिकायप्रदेशः परमाणुः । प्रदेशो ( वृ० प० ४२१) Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पुद्गल राशि नों ताय, परमाणु संध घी मिल्यो । ।। नहि मिल्यो । जाणवो ॥ तसु प्रदेश कहिवाय, जदो नहीं तिण कारणें ॥ १०. पुद्गल राशि नों जाग, खंध थकी जे ते परमाणु पिछाण ए प्रदेश तुल्य ११. जे परमाणू होय, प्रदेस करिकै ते मार्ट ए जोय, प्रदेश करि १२. भूत भविष्यत काल, ते नय वचन करी इहां । परमाणू पिण म्हाल, प्रदेश संज्ञा कर कहा ॥ १३. वर्तमान जे काल, तेह तणीज अपेक्षया । परमाणू में म्हाल, अप्रदेश बहु ठामें तुल्य है । बोलावियो ॥ कहा ॥' (ज० स० ) १४. * पुद्गलास्तिकाय नों हे प्रभु! एक प्रदेश छै ताय । एक द्रव्य तास कहियै अछे ? ए धुर भंग कहिवाय ॥ १५. गुण सोरठा पर्याय सहीत, द्रव्य कहीजै कहीजं तेहने । आश्रयभूत प्रतीत, द्रव्य गण पर्याय न ॥ वा० यद्यपि परमार्थ थकी गुण पर्याय नि एकपणों हीज हुवै, परन्तु सहभावी तो गुण अनं क्रमभावी पर्याय इण लक्षणे करि नैं भेद हुवे । आगम में कह्यो छै गुणाणमासम दयं एगव्यस्तिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ॥ गुण नों आश्रय द्रव्य अनें एक केवल द्रव्य नै विषे रहे ते गुण अनै पर्याय नों लक्षण ते द्रव्य, गुण वि ने विषे रहे। अत्र टीका-उभयाथितं द्रव्यगुणाश्रित मित्यर्थः । एतले द्रव्य गुण नैं आश्रित पर्याय छै । १६. के द्रव्य नौ इक देश छ ? द्रव्य नों अवयव जेह इक वच भंग ए बेह ॥ वे, तसु बहु द्रव्य कहिवाय । के द्रव्य नां देश कहियै घणां, ए बहु वच भंग बे थाय ॥ १८. ए त्रिहुं भंग एक संजोगिया, हिवै दोय देश कहीजे छे तेहने १७. तिम बहु वचन नां भंग संजोगिया च्यार । एक वचन बहुवचन यी कहिये से अधिक उदार ॥ १६. अथवा द्रव्य एक नें द्रव्य नों, एकज देश कहिवाय । ए विकल्प को पंचमो, हिवं छठा तनों सुणो न्याय ॥ २०. अथवा द्रव्य एक ने द्रव्य नां, देश घणां कहिवाय । छट्टो ए विकल्प आखियो, सातमां नों हिवै न्याय ।। २१. अथवा बहु द्रव्य ने द्रव्य नों, एकज देश कहिवाय । विकल्प ए को सातमों, आठमां नो हि स्वाय ॥ *लय मम करो काया माया कारमी १४. एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसे कि दव्वं ? १५. द्रव्यं गुणपर्याययोगि, १६,१७. दव्वदेसे ? दव्वाई ? दव्वदेसा ? द्रव्यदेशो द्रव्यावयवः एवमेकत्वत्वाच्या प्रत्येकविकल्पाश्चत्वारः ( वृ० प० ४२१) १८. द्विक्संयोगा अपि चत्वार एव ? ( वृ० प० ४२१ ) १६. उदाहु दव्वं च दव्वदेसे य ? २०. उदाहु दव्वं च दव्वदेसा य ? २१. उदाहु दव्वाई च दव्वदेसे य ? ( वृ० प० ४२१ ) - ० ५ ३० १० वा० १६७ ५४३ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. उदाहु दव्वाइं च दव्वदेसा य? २२. अथवा बहु द्रव्य नैं द्रव्य नां, देश बहु कहिवाय । विकल्प ए कह्यो आठमों, उत्तर दे जिनराय ।। २३. कदा एक द्रव्य कहिये तसु, द्रव्य अनेरा थी जाण । अलग रह्योज परमाणुओ, इक द्रव्य कहियै पिछाण ॥ २४. कदाचित द्रव्य नों देश इक, अन्य द्रव्य सूमिल्यो जाय । द्रव्य नों देश कहिये तसु, विकल्प द्वितीय ए पाय॥ २३. गोयमा ! सिय दव्वं, स्याद्रव्यं द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति, (वृ० प० ४२१) २४. सिय दव्वदेसे, स्याद्रव्यदेशो द्रव्यान्तरसम्बन्धे सति, (वृ० ५० ४२१) २५. नो दव्वाइं, नो दव्वदेसा, नो दव्वं च दब्बदेसे य, नो दव्वं च दव्वदेसा य, नो दव्वाइं च दव्वदेसे य, नो दव्वाई च दव्वदेसा य । (श० ८।४७०) शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधः, परमाणोरेकत्वेन बहुत्वस्य द्विकसंयोगस्य चाभावादिति ।। (वृ० प० ४२१) २५. शेष षट भंग पावै नहीं, एक परमाणु मांय । इक बचने धर भंग बे, तेह लहै इण न्याय ॥ सोरठा २६. इकसंयोगिक धार, बहु बचने कर भंग बे। द्विकसंयोगिक च्यार, ए षट नहिं परमाणु में। २७. *पुद्गलास्तिकाय नां हे प्रभ ! दोय प्रदेश विशेष । स्य द्रव्य के द्रव्य देश इक ? तिमज अठ भंग पूछेस । २८. जिन कहै कदाचित द्रव्य इक, दोय परमाणुआ ताय । द्विप्रदेशिक खंधपणे परिणम्या, एक द्रव्य तास कहिवाय ॥ (प्रथम भांगो हुवै इह विधे) २६. कदा द्रव्य नों इक देश छ, द्विप्रदेशिक खंध ताय । अन्य द्रव्य मांहि जाये मिल्यो, ए द्वितीय भंग कहिवाय ।। ३०. दोय प्रदेशियो खंध ते, थया जूजुआ परमाणु दोय । कदाचित बहु द्रव्य इह विधे, भंग तीजो इम होय ॥ ३१. तेहिज दोय परमाणआ, द्विप्रदेशिया खंध थया नांय । अन्य द्रव्य साथ संबंध करै, द्रव्य नां बहु देश इण न्याय ॥ (ए भंग चतुर्थो इम ब कदा) ३२. तेहिज दोय परमाणुआ, परमाणपणे रह्यो एक। एक अन्य द्रव्य माह मिल्यो, तदा द्रव्य इक देश इक देख । (पंचम भंग इम ह कदा) २७. दो भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा कि दव्वं ?दव्वदेसे? - पुच्छा । २८. गोयमा ! सिय दव्वं, यदा तो द्विप्रदेशिकस्कन्धतया परिणती तदा द्रव्यं, (वृ०प० ४२१) २६. सिय दव्वदेसे, यदा तु द्वयणुकस्कन्धभावगतावेव तौ द्रव्यान्तरसम्बन्ध मुपगतौ तदा द्रव्यदेशः (वृ० प० ४२१) ३०. सिय दवाई, यदा तु तो द्वावपि भेदेन व्यवस्थितौ तदा द्रव्ये (वृ० प० ४२१) ३१. सिय दव्वदेसा, यदा तु तावेव द्वयणुकस्कन्धतामनापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्धमुपगती तदा द्रव्यदेशाः। (वृ० प० ४२१) ३२ सिय दव्वं च दव्वदेसे य । यदा पुनस्तयोरेक: केबलतया स्थितो द्वितीयश्च द्रव्यान्तरेण सम्बन्धस्तदा द्रव्यं च द्रव्यदेशश्चेति पञ्चमः (वृ० प० ४२१) ३३. सेसा पडिसेहेयव्वा। (श० ८।४७१) शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधोऽसम्भवादिति (वृ० ५० ४२१) ३४. तिण्णि भंते ! पोग्गल त्थिकायपदेसा कि दव्वं ? दव्वदेसे?-पुच्छा। ३३. शेष त्रिण भंग होवै नहीं, असंभव थकी अवलोय । ते भणी चरम चिहुं भंग नों, करिव निषेध सुजोय ।। ३४. पुदगलास्तिकाय नां हे प्रम ! तीन प्रदेश विशेष । स्यू' द्रव्य के द्रव्य देश इक, तिमज अठ भंग पूछेस ।। 'लय : मम करो काया माया कारमी ५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. जिन कहै द्रव्य एक ते कदा तीन परमाणुआ ताय । त्रि प्रदेश संधपणें परिणम्या द्रव्य इक इण न्याय ॥ ( प्रथम भंगो इमल कथा ) ३६. द्रव्य नों देश इक छे कदा, त्रिप्रदेशिक खंध ताय । अन्य द्रव्य मांहे जाइ मिल्यो, ए द्वितीय भंग कहिवाय ॥ ३७. तीन प्रदेशियो बंध ते थया जुजुआ परमाणु तीन बहु द्रव्य तास कहिये कदा, भंग तीजो इम लीन ॥ ३८. अथवा जे तीन परमाणुआ, वे द्विप्रदेशिक संधपणे बाय एक परमाणुपण रह्यो, बहु द्रव्य पिण इम थाय ॥ ( अन्य प्रकार भंग तृतीय इम) ३६. तेहिज तीन परमाणुआ, अन्य द्रव्य मांहै मिल्या जाय । द्रव्य नां देश बहु इम, ए भंग चोथो कहिवाय ॥ ४०. अथवा बे द्विप्रदेशिक छता, एक केवल छतो ताय । ए बिहूं अन्य द्रव्य सू मियां, देश बहू इम चाय ॥ (भंग चोथो वलि इम हुवे ) ४१. तेहिज तीन परमाणुआ, परमाणुपणे रह्यो एक बे अन्य द्रव्य मांहे मिल्या इक देशपणें सुविशेख ॥। (द्रव्य इक देश इक पंचमो ) ४२. अथवा जे तीन परमाणुआ, द्विप्रदेशिक खंध देख । इक अन्य द्रव्य मांहे मिल्यो, द्रव्य इक देश इक पेख || (भंग पंचम पिण इम हुवे ) ४३. तेहिज तीन परमाणुआ, परमाणुवर्ण भेद करिबे अन्य द्रव्य मिल्यां, द्रव्य इक देश (भंग छठो इम कदा ) ४४. तेहिज तीन परमाणुआ, परमाणुपणे रह्या दोय । एक अन्य द्रव्य मांहे मिल्यां, द्रव्य बहु देश इक होय ॥ ( सप्तम भंग इहविध हुवै ) ४५. अष्टम भंग न संभवे तोन प्रदेश तिण न्याय द्रव्य ने द्रव्य नांदेश ते बहु वचने नहि थाय ॥ ४६. पुद्गलास्तिकाय नां हे प्रभु! प्यार प्रदेश विशेष स्यूं द्रव्य के द्रव्य-देश इक, तिमज अठ भंग पूछेस ॥ रह्यो एक बहु देख ॥ १. गाथा ३६ में सिय दव्वदेसे' के अनुसार दूसरा भंग बतलाया गया है । उसके बाद भगवती में - एवं सत्तभंगा भाणियव्वा जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसे य, नो दव्वाई च दव्वदेसाय ( ८।४७२ ) इस प्रकार संक्षिप्त पाठ देकर सातों भंगों की सूचना दी गई है। भगवती की जड़ (३७ से ४४ ) में प्रत्येक भंग को स्वतन्त्र रूप में निरूपित किया गया है। इसलिए जोड़ के समानान्तर उक्त पाठ को न रखकर वृत्ति को उल्लिखित किया गया है । ३५. गोयमा ! सियदव्वं, यदा त्रयोsपि त्रिदेशिकस्कन्धतया परिणतास्तदा द्रव्यं (० ० ४२१) २६. सिदबदेसे यदा तु त्रिप्रदेशिक स्कन्धता परिणता एव द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतास्तदा द्रव्यदेश: ( वृ० प० ४२१) ३७. यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यवस्थिता, (० ० ४२१) ३८. द्वौ वा यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवं स्थितस्तदा 'दव्वाई' ति ( वृ० प० ४२१) ३६. यदा तु ते त्रयोऽपि स्कन्धतामनागता एव, ४०. द्वौ वा यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवेत्येवं द्रव्यान्तरेण संबद्धास्तदा 'दव्वदेसा' इति । ( वृ० प० ४२१) ४१. अथक: केवल एव स्थितो द्वौ तु द्व्यणुकतया परिणम्य द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दव्वं च दव्वदेसे य' त्ति ( वृ० प० ४२१) ४२. यदा तु तेषां द्वौ द्व्यणुकतया परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्ध: ( वृ० प० ४२१) ४३. यदा तु तेषामेकः केवल एव स्थितो द्वौ च भेदेन द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दव्वं च दव्वदेसा य' त्ति (०१० ४२१) ४४. यदा पुनस्तेषां द्वौ भेदेन स्थितावेकरच द्रव्यान्तरेण संबद्धस्तदा 'दव्वाई च दव्वदेसे य' त्ति, ( वृ० प० ४२१) ४५. अष्टमविकल्पस्तु न संभवति उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचनाभावात्, ( वृ० प० ४२१ ) ४६. चत्तारि भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा कि दव्वं ? पुच्छा । , श०८, उ० १०, ढा० १६७ ५४५ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. गोयमा ! सिय दवं, सिय दव्वदेसे, अट्ट वि भंगा भाणियव्वा जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसा य ।। प्रदेशचतुष्टयादौ त्वष्टमोऽपि संभवति, उभयत्रापि बहुवचनसद्भावादिति । (वृ० ५० ४२१) ४७. जिन कहै भंग आ हुवै, सप्त पूर्ववत न्याय । बहु वच दोनू स्थानक विषे, अष्टम भंग कहिवाय ॥ सोरठा ४८. दो परमाणू होय, अन्य द्रन्य में बे मिल्यो । द्रव्य देश बहु जोय, बहु द्रव्य ने बहु देश इम ।। ४६. *च्यार प्रदेश विषे रह्यां, विकल्प आठ सुख्यात । पंच षट सप्त प्रदेश इम, जाव प्रदेश असंख्यात ।। ५०. पुद्गलास्तिकाय नां हे प्रभ ! अनंत प्रदेश विशेष । स्य द्रव्य प्रश्न उत्तर तस्, अठ भंग आख्या जिनेश॥ ५१. अष्ट शत दशम नों देश ए, इकसौ सतसठमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ४६. जहा चत्तारि भणिया एवं पंच, छ, सत्त जाव असंखेज्जा। (श० ८।४७३) ५०. अणंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा कि दव्वं? एवं चेव जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसा य । (श० ८।४७४) ढाल : १६८ १. परमाणु प्रमुख तणी, वक्तव्यता कही एह । लोकाकाशे ते भणी, लोकाकाश कहेह ।। २. हे प्रभु ! लोकाकाश नां, किता प्रदेश कहेस ? जिन कहै लोक आकाश नां, असंख्यात प्रदेश । १. अनन्तरं परमाण्वादिवक्तव्यतोक्ता, परमाण्वादयश्च लोकाकाशप्रदेशावगाहिनो भवन्तीति तद्वक्तव्यतामाह (वृ० प० ४२१) २. केवतिया णं भंते ! लोयागासपदेसा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा लोयागासपदेसा पण्णत्ता। (श० ८।४७५) ३. प्रदेशाधिकारादेवेदमाह- (वृ० प० ४२१) ३. प्रदेश नां अधिकार थी, प्रदेश नोंज विचार । कहियै छै अधिकार ते, सांभलजो धर प्यार ॥ ४. इक-इक जीव तणां प्रभु ! किता जीव प्रदेश ? जिन कहै लोकाकाश नां, इता प्रदेश कहेस ।। ५. समधात केवल विषे, सर्व लोक आकाश । व्यापी नैं रहै ते भणी, लोक प्रमाण तास ॥ ४. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवपदेसा पण्णत्ता? गोयमा ! जावतिया लोयागासपदेसा, एगमेगस्स णं जीवस्स एवतिया जीवपदेसा पण्णत्ता। (श० ८।४७६) ५. यस्माज्जीवः केवलिसमुद्घातकाले सर्व लोकाकाशं व्याप्यावतिष्ठति तस्माल्लोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्त इति (वृ०प० ४२१) ६. जीवप्रदेशाश्च प्रायः कर्मप्रकृतिभिरनुगता इति तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह- (वृ० प० ४२१) ६. जीव प्रदेश बहलपणे, कर्म प्रकृति करि जेह । ' अनगत सहित ते भणी, वक्तव्यता कहूं तेह ।। *लय : मम करो काया माया कारमी ५४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गोयम ! सांभल चित स्याय ॥ (पर्व) ७. कर्म प्रकृति प्रभु । किसी परूपी ? तद भासे जिनराय । अष्ट कर्म नीं प्रकृति कही है, ज्ञानावरणी जाव अंतराय ॥ ८. नारक ने किसी कर्म-प्रकृति प्रभु! जिन कहे आठ विचार । इम कर्म प्रकृति अठ सर्व जीवां रै, जाव वैमानिक धार ॥ ६. हे प्रभु! ज्ञानावरणी कर्म नां, अविभाग पलिछेद । तला आप परूप्या प्रभुजी ! जिन कहै अनंता सुवेद ॥ १०. ज्ञानावरणी कर्म, पलिच्छेद प्रति मर्म, सोरठा ज्ञान तणां अविभाग जे । जिता आवरं तेतला || ११. तथा दलिक पेक्षाय, कह्या अनंता ताय, १२. परिच्छेद ते अंश, निरंश अंश कहंस, अविभाग पलिछेद ते परमाणू रूप विभाग खंड रहित अविभाग पलिछेद ते । है ॥ जसु । ते ॥ , १२. * नारकी ने ज्ञानावरणी कर्म नां केतला हे भगवंत ! अविभाग-पलिछेदा परूप्या ? जिन कहै गोयम अनंत ॥ १४. इमहि कहि सर्व जीवां ने, जाव वैमानिक पृच्छा । अनंता अविभाग-पलिछेदा छै, ए जिन उत्तर इच्छा ॥ १५. ज्ञानावरणी नां अविभाग-पलिछेदा कथा, तिम आठ कर्म नां भणवा । जाव वैमानिक नैं अंतराय नां, इणहिज रीते थुणवा ॥ १६. इक इक जीव नं हे भगवंत जी ! इक इक जीव प्रदेशे । तेह प्रदेश तर्णेज विषे जे कर्म तूं वींट्यो विशेषे ॥ १७. ज्ञानावरणी नां किता अविभागज पनिछेद प्रवेश करेह । आवेदिय परिवेदिए कहितां अत्यंत वयो एह ॥ वा० - अथवा आवेढिय कहितां वींटी ने परिवेढिए कहितां परिवेष्टित इति वृत्तौ । अनेँ टबा में कह्यो — आवेढिए कहितां अत्यंत वींटी रह्यो । * लय । आधाकर्मी थानक में ७. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । (श० ८२४७७) ८. नेरइयाणं भंते ! कति कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ । एवं सव्वजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयव्वाओ जाव वैमाणियाणं । (श० ८/४७८) ६. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता । (TO RIVOR) १०. ज्ञानावरणीयं यावतो ज्ञानस्याविभागान् भवान् आवृणोति तावन्त एव तस्याविभागपरिच्छेदः ( वृ० प० ४२२ ) ११. दलिकापेक्षया वाऽनन्ततत्परमाणुरूपाः (बु०प०४२२) १२. परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा-अंशास्ते च सविभागा अपि भवन्त्यतो विशेष्यन्ते अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्वेत्यविभागपरिच्छेदा: निरंशा अंशा इत्यर्थः (६० प० ४२२) १३. नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता । (श० ८(४८० ) १४, एवं सञ्चजीवाणं जाव वेमाणियाणं पुच्छा । गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता । १५. एवं जहा नागावणिज्जरस अविभागलिन्छे भणिया तहा अट्टह वि कम्मपगडीणं भाणियव्वा जाव वैमाणियाणं अंतराइयस्स । ( ० ८२४०१) १६,१७. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपदेसे नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिएहि अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए ? आवेष्टितपरिवेष्टितोऽत्यन्तं परिवेष्टित इत्यर्थः । ( वृ० प० ४२२ ) वा० - आवेष्ट्य परिवेष्टित इति वा (बु० प० ४२२) श०८, उ० १०, ढा० १६० ५४७ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. गोयमा ! सिय आवेढ़िय-परिवेढिए, सिय नो आवे - ढिय-परिवेढिए। १८. जिन कहै कदा समस्त प्रकारे, वलि अत्यंत वींटाणो । कदा समस्त अत्यंत न वीट्यो, तेहनों न्याय पिछाणो ॥ सोरठा १६. केवलज्ञानी जेह, ज्ञानावरणी कर्म करि । __ वींट्या नहिं छै तेह, तिण सू नहिं वींट्या कदा।। २०. *जो आवेष्टित परिवेष्टित ह, तो निश्चै करि न्हाल । ज्ञानावरणी नां अनंत अंश करि, ए वीर वचन सूविशाल ।। २१. इक-इक नारक नैं हे भगवंत ! इक-इक जीव प्रदेशे । ज्ञानावरणी नां किता अविभागज-पलिछेदी वीटेसे ? २२. जिन कहै निश्चै अनंते करिक, जेम नारक नैं कहीव । एवं जाव वैमानिक कहिवो, णवरं मनष्य जिम जीव ।। २३. इक-इक जीव नैं हे भगवंत जी, इक-इक जीव प्रदेशे । दर्शणावरणी कर्म नै कितलै, प्रदेश करि वींटेसे ? १६. केवलिनं प्रतीत्य तस्य क्षीणज्ञानावरणत्वेन तत्प्रदेशस्य ज्ञानावरणीयाविभागपलिच्छेदैरावेष्टनपरिवेष्टनाभावादिति (वृ० प० ४२२) २०. जइ आवेढिय-परिवेढिए नियमा अणंतेहिं । (श० ८।४८२) २१. एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपदेसे नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिएहि अविभाग पलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए ? २२. गोयमा ! नियम अणंतेहिं । जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं-मणूसस्स जहा जीवस्स । (श० ८।४८३) २३. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपदेसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिएहि अविभाग पलिच्छेदेहि आवेढिय-परिवेढिए ?.... २४. एवं जहेव नाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियब्वो जाव वेमाणियस्स । एवं जाव अंतराइयस्स भाणियव्वं, २५. नवरं-वेयणिज्जस्स, आउयस्स, नामस्स, गोयस्स एएसि चउण्ह वि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणियव्वं । सेसं तं चेव। (श०८।४८४) वा०-वेदनीयायुष्कनामगोत्रेषु पुनर्जीवपद एव भजना वाच्या सिद्धापेक्षया, मनुष्यपदे तु नासो, तत्र वेदनीयादीनां भावादित्येतदेवाह-'नवरं वेयणिज्जस्से' त्यादि। (वृ० ५० ४२२) २४. इम जिम ज्ञानावरणीने आख्यं, तिमहिज दंडक भणवा। जाव वैमानिक नै इम जावत, अंतराय मैं थणवा । २५. णवरं वेदनी आयु नाम गोत्र फुन, चिहुं कर्म ने जाणी। मनष्य नै नारक जिम भणवं, शेषं तं चेव पिछाणी॥ वा०-वेदनी आयु नाम गोत्र नै विष वलि जीव पद हीज भजनाई करि कहिवो । सिद्ध नी अपेक्षा करिक । अनै मनुष्य पद नै विषे भजना नहीं ते मनुष्य नै विषे वेदनीयादिक चार कर्म नियमा पावै छ, ते माट। णवरं वेयणिज्जस्स इत्यादि पाठ कहिवू । सोरठा २६. ज्ञानावरणी एह, शेष कर्म संघात हिव । चितवियै छै तेह, चित्त लगाई सांभलो। २७. *हे प्रभ ! जेहनै ज्ञानावरणी, दर्शणावरणी तास । जेहने दर्शणावरणी कर्म तसुं, ज्ञानावरणी विमास । २६. अथ ज्ञानावरणं शेषैः सह चिन्त्यते (वृ० प० ४२२) २७. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावर णिज्ज? जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावर णिज्जं? २८. गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स दंसणावर णिज्ज नियमं अत्थि, जस्स णं दरिसणावरणिज्जं तस्स वि नाणावरणिज्ज नियमं अत्थि । (श० ८।४८५) २८. जिन कहै जसुं ज्ञानावरणी तसु, निश्चै दर्शणावरणी। जसं दर्शणावरणी तसं निश्चै, ज्ञानावरणी उच्चरणी ।। *लय : आधाकर्मी थानक में ५४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. हे प्रभु ! जेहन ज्ञानावरणी, तेहन वेदनीय होय । जेहनै वेदनी कर्म अछ, तसं ज्ञानावरणी जोय? ३०. जिन कहै जेहनें ज्ञानावरणी, नियमा वेदनी ताहि । जसु वेदनी तसुं ज्ञानावरणी, कदा होवै कदा नांहि ॥ सोरठा ३१. कर्म वेदनी जाण, तेरम चउदम पिण गणे । ज्ञानावरणी माण, केवलज्ञानी रै नथी॥ २६. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं? जस्स वेयणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? ३०. गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियम अत्थि जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि । (श० ८।४८६) ३२. *हे प्रभ ! जेहने ज्ञानावरणी, मोहणी कर्म है तास । जेहन मोहणी कर्म छै तेहने, ज्ञानावरणी विमास ? ३३. जिन कहै ज्ञानावरणी तास मोहणी, कदा होवै कदा नांहि । जसु मोहणी तसु ज्ञानावरणी, निश्चैई छै ताहि ॥ सोरठा ३४. ज्ञानावरणी जोय, बारम गणठाणा लगे। कर्म मोहणी सोय, बारम गुणठाणे नथी॥ ३१. अकेवलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीयं चास्ति, केवलिनस्तु वेदनीयमस्ति न तु ज्ञानावरणीयमिति । (वृ० प० ४२४) ३२. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं? जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? ३३. गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्ज सिय अत्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं नियमं अत्थि। (श० ८।४८७) ३४. अक्षपकस्य हि ज्ञानावरणीयं मोहनीयं चास्ति, क्षपकस्य तु मोहक्षये यावत् केवलज्ञानं नोत्पद्यते तावज्ज्ञानावरणीयमस्ति न तु मोहनीयमिति । (वृ० प० ४२४) ३५. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्जं तस्स आउयं? एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा आउएण वि समं भणियव्वं (सं० पा०) ३६. एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं, ३५. *हे प्रभु ! जेहनै ज्ञानावरणी, तेहने आयु विख्यात । जिम ज्ञानावरणी कह्यो वेदनी साथे, तिम कहिवो आयु संघात ।। ३६. इमहिज ज्ञानावरणी कर्म ते, कहिवो नाम संघात । इम हिज गोत्र संघाते भणवो, ते इम कहिवो विख्यात ॥ ३७. ज्ञानावरणी जसु आयु नाम गोत्र, निश्चैइ कहिवाइ । जेहने आयु नाम नै गोत्र छ, तेहने ज्ञानावरणी भजनाई।। ३८. जेहन ज्ञानावरणी तेहने, ह निश्चै अंतराय । जेहने अन्तराय तेहन, ज्ञानावरणी निश्च पाय ।। ३६. हे प्रभ ! जेहनें दर्शणावरणी, कर्म वेदनी तास? जेहनै वेदनी कर्म अछ तस्, दर्शनावरणो विमास? ४०. ज्ञानावरणी जिम क ह्या ऊपरला, सात कर्म संघात । दर्शणावरणी पिण तिम कहिवू', ऊपरला छ कर्म साथ । ४१. जेहने दर्शणावरणी कर्म छै, वेदनी तसु नियमाई । जेहनै वेदनी कर्म छ तेहने, दर्शणावरणी भजनाई ।। ४२. जेहनें दर्शणावरणी कर्म छै, मोहणी तसु भजनाई। जेहनें मोहणी छै तसु निश्चै, दर्शणावरणी थाइं। ४३. जसु दर्शणावरणी तसं आयु, नाम गोत्र नियमाई । जेहनें आयु नाम गोत्र तसु, दर्शणावरणी भजनाइं॥ *लय : आधाकर्मी थानक में ३७. उक्तप्रकारेण भजनायाः सर्वेषु तेषु भावात् (बृ०प० ४२४) ३८. अंतराइएण जहा दरिसणावरणिज्जेण समं तहेव नियम परोप्परं भाणियब्वाणि। (श० ८।४८८) ३६. जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं? जस्स वेयणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं? ४०-४४. जहा नाणावरणिज्ज उवरिमेहि सत्तहि कम्मेहि सम्मं भणियं तहा दरिसणावरणिज्जं पि उवरिमेहि छहि कम्मेहि सम भाणियव्वं जाव अंतराइएणं । (श० ८।४८६) श०८, उ०१०, ढा० १६८ ५४९ Jain Education Intemational Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. जेहनें दर्शणावरणी तेहनें, निश्चै ह अन्तराय । अंतराय जसु दर्शणावरणी, निश्चै करिने थाय ॥ ४५. हे भगवंतजी! जेहनें वेदनी, कर्म मोहणी तास । जेहनैं मोहणी कर्म छै तेहन, वेदनी कर्म विमास? ४६. जिन कहै जसु वेदनी तसु मोहणी, कदा होवै कदा नाय । जेहन मोहणी तेहने वेदनी, निश्चै करिनै थाय ।। ४५. जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स मोहणिज्ज? जस्स मोहणिज्ज तस्स वेयणिज्जं? ४६. गोयमा ! जस्स बेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियम अस्थि । (श० ८।४६०) सोरठा ४७. कर्म वेदनी जाण, चवदम गणठाणा लगै । ___ मोह कर्म पहिछाण, धुर ग्यारा गुणठाण में । ४८ *हे प्रभ ! जेहन वेदनी छ तसु, आयु नाम गोत्र होय । जेहनै आयु नाम गोत्र छ, तेह. वेदनी जोय? ४६. जिन कहै जसु वेदनी तसु आयु, नाम गोत्र नियमाई। जेहने आयु नाम गोत्र तसु, वेदनी निश्चै थाई ।। ४७. अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति, क्षीणमोहस्य तु वेदनीयमस्ति न तु मोहनीयमिति (वृ० प० ४२४) ४८,४६. जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं? जस्स आउयं तस्स वेयणिज्जं? एवं एयाणि परोप्परं नियमं । जहा आउएण समं एवं नामेण वि गोएण वि समं भाणियव्वं । (श० ८।४६१) ५०. जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं? जस्स अंतराइयं तस्स वेयणिज्ज ? ५१. गोयमा ! जस्स बेयणिज्ज तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेयणिज्ज नियमं अत्थि । (श० ८।४६२) ५०. हे प्रभ ! जेहने कर्म वेदनी, तेहने छै अन्तराय । जेहने अन्तराय कर्म छै तेहन, वेदनी पिण कहिवाय? ५१. जिन कहै जेहन वेदनी छै तसु, अन्तराय भजनाई। जेहने अन्तराय कर्म छ तेहन, वेदनी निश्चै थाई॥ सोरठा ५२. कर्म वेदनी जोय, चवदम गणठाणा लगे । ___अन्तराय अवलोय, धुर द्वादश गुणठाण में॥ ५३. *हे प्रभु ! जेहन मोहणी कर्म छ, तास आउखो कहाय । जेहनै कर्म आउखो तेहनें, मोहणी कहिये ताय ? ५४. जिन कहै जेहन मोह कर्म तसु, आयु निश्चै थाय । जेहनै आयु तेह. मोहणी, कदा होवै कदा नाय॥ ५२. वेदनीयं अंतरायं चाकेवलिनामस्ति केवलिनां तु वेदनीयमस्ति न त्वन्तरायं, (वृ० प० ४२४) ५३. जस्स णं भंते ! मोहणिज्जं तस्स आउयं ? जस्स आउयं तस्स मोहणिज्ज? ५४. गोयमा ! जस्स मोहणिज्जं तस्स आउयं नियम अत्थि, जस्स पुण आउयं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि, सिय नस्थि । ५५. एवं नामं गोयं अंतराइयं च भाणियव्वं । (श० ८।४९३) यस्य मोहनीयं तस्य नाम गोत्रमन्तरायं च नियमादस्ति, यस्य पुनर्नामादित्रयं तस्य मोहनीयं स्यादस्त्यक्षीणमोहस्येव, स्यान्नास्ति क्षीणमोहस्येवेति । यतोऽक्षीणमोहस्यायुर्मोहनीयं चास्ति क्षीणमोहस्य त्वायुरेवेति । (वृ०प० ४२४) ५५. इम जसु मोहणी तास नाम गोत्र, अन्तराय नियमाई। नाम गोत्र अन्तराय छै जेहनें, तेहन मोह भजनाई॥ सोरठा ५६. मोह ग्यारम लग जाण, अन्तराय बारम लगे। चवदम लग पहिछाण, नाम गोत्र नैं आउखो।। * लय : आधाकर्मी यानक ५५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. जस्स णं भंते ! आउयं तस्स नामं? जस्स नाम तस्स आउयं ? ५७. *हे प्रभ! जेहने आयु कर्म छै, तेहनें नाम कहाई? जेहन नाम कर्म छ तेहन, कर्म आउखो थाइं? (हो प्रभुजी ! मया करो महाराज) ५८. जिन कहै जेहन आयु कर्म तसु, नाम कर्म नियमाई । जेहनै नाम छ तेहन आयु, ए पिण निश्चै थाई॥ ५८. गोयमा ! दो वि परोप्परं नियमं । जस्स आउयं तस्स नियमा नाम जस्स नामं तस्स नियमा आउयं इत्यर्थः । (व० प० ४२४) ५६. एवं गोतेण वि समं भाणियव्वं । (श० ८।४६४) ५६. इमहिज जेहन आयु कर्म छै, गोत्र तास नियमाइं। जेहनै गोत्र छै तेहने आयु, ते पिण निश्चै थाइं॥ ६०. हे प्रभ ! जेहन आयु कर्म छै, तेहनै छै अन्तराय । जेहनें अन्तराय कर्म छै तेहने, आयु कर्म कहाय? ६१. जिन कहै जेहन आयु कर्म तसु, अन्तराय भजनाई। जेहने अन्तराय तेहने आयु, निश्चै करिने थाइं॥ ६२. हे प्रभ! जेहन नाम कर्म छै, तेहनें गोत्रज होय । जेहनें गोत्र कर्म छै तेहने, नाम कर्म अवलोय ।। ६३. जिन कहै जेहन नाम कर्म तसु, गोत्र कर्म नियमाई । जेहन गोत्र कर्म छै तेहने, निश्चै नाम कहाई॥ ६०. जस्स णं भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं ? जस्स अंतराइयं तस्स आउयं ? ६१. गोयमा ! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स आउयं नियम अत्थि । (श० ८।४६५) ६२. जस्स णं भंते ! नामं तस्स गोयं जस्स गोयं तस्स नामं? ६३. गोयमा ! दो वि एए परोप्परं नियमा अत्थि । (श० ८।४६६) यस्य नाम तस्य नियमाद् गोत्रं यस्य गोत्रं तस्य नियमान् नाम। (वृ० प० ४२४) ६४. जस्स णं भंते ! नाम तस्स अंतराइयं ? जस्स अंत राइयं तस्स नामं? ६५. गोयमा ! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नामं नियम अत्थि । (श० ८।४६७) ६६. जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं ? जस्स अंतराइयं तस्स गोयं ? ६७. गोयमा ! जस्स गोयं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियम अत्थि । (श० ८।४६८) ६४. हे प्रभु ! जेहनै नाम कर्म छै, तेहनै छै अन्तराय ।। जेहनें अन्तराय कर्म अछ तसू, नाम कर्म कहिवाय? ६५. जिन कहे जेहन नाम कर्म तसु, अन्तराय भजनाइं।। जेहनें अन्तराय कर्म अछै तसु, नाम कर्म नियमाई॥ ६६. हे प्रभ ! जेहनें गोत्र कर्म छै, तेहनै छै अन्तराय । जेहने अन्तराय कर्म छ तेहन, गोत्र कर्म कहिवाय? ६७. जिन कहै जेहनें गोत्र कर्म तसु, अन्तराय भजनाई। ____ जेहन अन्तराय कर्म अछ तसु, गोत्र कर्म नियमाई ॥ सोरठा ६८. पूर्वे कर्म आख्यात, पुद्गलात्मक अछै तिके । ते माट हिव आत, पुद्गल शब्दे जीव नैं। ६९. *जीव प्रभ! स्यपोग्गली पोग्गले ! तब भाखै जिनराय । ____ जीव भणी पोग्गली पिण कहिये, पोग्गल पिण कहिवाय ॥ सोरठा ७०. इन्द्रिय सहित कहीव, जीव भणी कह्यो पोग्गली । पुद्गल संज्ञा जीव, इन्द्रिय रहित जीव छै॥ *लय : आधाकर्मी थानक ६८. अनन्तरं कर्मोक्तं तच्च पुद्गलात्मकमतस्तदधिकारादिदमाह (वृ० प० ४२४) ६६. जीवे णं भंते ! कि पोग्गली ? पोग्गले? गोयमा! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। (श० ८।४६६) ७०. पुद्गलाः-थोत्रादिरूपा विद्यन्ते यस्यासौ पुद्गली, 'पुग्गले वि' त्ति पुद्गल इति सज्ञा जीवस्य ततस्तद्योगात् पुद्गल इति। (वृ० प० ४२४) श० प, उ०१०, ढा० १६८ ५५१ Jain Education Intemational Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. किण अर्थ प्रभजी इम कहिये जीव पोग्गली जाण । " ७ पोग्गल पिण बलि जीव में आरुयो ? जिन कहै सांभल दान | ७२. यथा दृष्टांते छत्र सहित नर, छत्री तास कहीजे । दंड संयुक्त ने दंडी कहिय, न्याय हिये धारीजै ॥ ७२. घढ़ संयुक्त ने घड़ी कहीजे, पट सहित पटी पेख । कर शुण्डे करिने संयुक्त, करो हस्ती सुविशेस ॥ ७४. इन दृष्टान्ते करी जीव पिण, श्रोतादि इन्द्रिय-सहीत | तेह इन्द्रिय आश्रयी जीव नै पोम्गली कहिये वदीत ॥ । J ७५. वलि ते जीव प्रति तिण अर्थे गोतम ! 1 " ७६. हे प्रभु! नारक स्यू ई पोग्गली, अथवा पोग्गल कहिये ? श्री जिन भाख दोनू कहिये न्याय पूर्ववत लहिये ॥ ७७. एवं जाव वैमानिक कहिवूं णवरं इतलो विशेख । जेहन जेतला इन्द्रिय तसु तेता इन्द्रिय पेख ॥ ७८. सिद्ध प्रभु ! स्यू पोग्गली पोग्गल ? जिन कहै पोग्गली नांय । पोग्गल संज्ञा तास कहीजं, किण अर्थ इम वाय ? ७६. जिन कहै जाव पडुच्च पोग्गल छै, तिण अर्थे ए कहंत । सिद्ध न पोम्बली पोल कहिये, सेवं भंते । सेव अंत ! ॥ 1 आश्रयी नै पुद्गल संज्ञा कहीव । इम आख्यो, पोग्गली पोग्गल जीव ॥ , ८०. अष्टम शतके दसम उदेशो, इक सौ अड़सठमी ढाल । भिक्खू भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरख विशाल ॥ गीतक छन्द ५५२ भगवती-जोड़ १. पार्श्वदेव प्रसाद वह्नि प्रदीप्त भक्त्याऽऽहूति बल नाममंत्रोच्चरणविधि स्य दग्ध विघ्नेन्धन प्रवल ॥ २. अनवशान्ति क्रियाच अष्टम शतक व्यास्यामंदिरम् । विरचितं शिल्पी यथा अतिकुशलक्षेमकरं चिरम् ॥ । अष्टमशते दशमोद्देशकार्थः ॥ ८॥१०॥ ७१. सेते एवं वृण्वदजीये पोली वि, पोग्गले वि ? ७२. गोमा ! से जहानामए छत्ते छत्ती, दंडेणं दंडी, ७३. घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी, ७४. एवामेव गोवमा जीवे वि सोइंदिय पविखंदिय पाणिदिदियासिदिया पहुच पोली ७५. जीवं पडुच्च पोग्गले । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ – जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि । ७६. नेरइए णं भंते! कि पोग्गली ? पोग्गले ? एवं चेव । ( श० ८५०० ) ७७. एवं जाव वेमाणिए नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तइ भाणियव्वाई | (श० ८५०१ ) ७८. सिद्धे णं भंते! कि पोग्गली ? पोग्गले ? गोयमा ! णो पोग्गली, पोगले । (०८५०२) से केणट्ठेषणं भंते! एवं वृच्चइ सिद्धे गो पोली पोग्गले ? -- ७६. गोयमा ! जीवं पडुच्च । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सिद्धे नो पोग्गली, पोग्गले । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । (श० ८५०३, ५०४ ) १.२. विमापाप्रसादग्निगा तन्नामाक्षरमंत्रजप्तिविधिना विघ्नेन्धनप्लोषितः । समयमेषशान्तिकरचे क्षेमादहं नीतवान्, सिद्धि शिल्पितमतव्याख्यानसम्मन्दिरम् ॥ ( वृ० पृ० ४२५ ) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. सूर्य का उदयास्त-विधि चित्र' २. तापक्षेत्र का चित्र' ३. तमस्काय का चित्र' ४. कृष्णराजि का चित्र ५. गणना कालबोधक यन्त्र १. देखें पृष्ठ १ गाथा १० २. देखें पृष्ठ ३ गाथा ३८ ३. देखें पृष्ठ १५६ गाथा २, वहां परिशिष्ट संख्या सूचक अंक छूट गया है । ४. देखें पृष्ठ १६२ गाथा २, वहां परिशिष्ट संख्या सूचक अंक छूट गया है। ५. देखें पृष्ठ १७७ गाथा ५४ Jain Education Intemational Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य का उदयास्त-विधि चित्र ईशाण ईशाज कुठे ऊगे अग्नि कुणे आयमै अग्नि भरत आश्री १ अग्नि कूण ऊ ए नील पर्वत ईशाण 507 आधमै पूर्व महा विदेह आश्री ॥ ४ ॥ उतर दिशि वायुव्य कूर्णे ऊगै वायव्य र्त्र दिशि (मेरू) पश्चिम दिशि दक्षिण दिशि नैकृत्य कृणे आथम पश्चिम सहा विदेह आश्री २ वायव्य कूणे आधेमैं. एरवत आश्री ३ इति प्रथम यंत्र नैऋत्त कूण ऊगै ए निषद पर्वत नैकृत Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापक्षेत्र का चित्र 000bTEEEEEE जगत 35 मरुतः अभ्यंतर सूर्यलाप क्षेत्र लण समुद्र LEY८६१ 10823 लवण समुद्र सूर्य तापक्षेत्र लवण* Aणसमूद बूद्वीप . द्वापा सूार्य 4/ JEEEEEE1000na. लापक्षेत्री बाहा हाऽभ्यंतर तापक्षेत्र बाहा बाहाऽभ्यन्तर भाजन भागबाहय ८६१४/१०माहरला बाहा६३२४५ ६३२४ योजना महातर हाभ्यन्तरबाहा मागबाहिरली । योजना भाग - ६ ५ योजन६भाग १० बाहा ६३२४५१५ अधकार क्षेत्र बाहार४८६यान बाहाः४८६० Jain Education Intemational Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमस्काय का चित्र Sarm आँचमामाबिमान भारम्बनटेग अच्याचारादेवरगेयदेवयुपांतरभ काभविमान0विमान...देनरिap . CERE . सान हिदेव . रिटामदेव चिमारना निशान विमानना आदित्यदद थन देव परिचारयुगान७००देवसे परिवार का वि . आष्टाभानमान वन्द्रदचपुभकामानाKRIT MAP युआन २४000 का | hen AMERACREEN LER jhatee ट्रितीयपतरकन्य पथमपता d माहेन्द्र म . साधर्म - पदाधकाररुपछ असत्यानाही नादायममूटरनधारी विस्तारमाम्याने महान ताजाजन प्रमाणात नतीजपतर असशा जिवारेमापदरसमुद्र २acters HERheuaire pirs P4Indean2by Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णराजि का चित्र त्रिकोण कृष्णराजी ८. सुप्रतिष्ठाभ ६. सूराम चतुष्कोण कृष्णराजी चतुष्कोण कृष्णराजी ७. शुक्राम १. मर्षि पश्चिमा है.रिष्ट षट्कोण कृष्णराजी 'षट्कोण कृष्णराजी 16 ५. चंद्राभ चतुष्कोण कृष्णराजी ३. वैरोचन चतुष्कोण कृष्णराजी २. अर्चिमाली ४. प्रभंकर त्रिकोण कृष्णराजी दक्षिणा Jain Education Intemational Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणना कालबोधक यन्त्र orrmy or ur 9 2 १२ समय प्रमाण सर्वेभ्य: सूक्ष्मतर: समय: असंख्यातः समयैरावलिका संख्यातावलिकाभिरुच्छ्वास: त एव संख्येया निःश्वासः द्वयोरपि कालः प्राणुः सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः सप्तभिः स्तोकैलव: सप्तसप्तत्या लवानां मुहूर्तः त्रिंशता मुहूर्तेरहोरात्रः १० तैः पंचदशभिः पक्षः द्वाभ्यां पक्षाभ्यां मास: मासद्वयेन ऋतु ऋतुत्रयेण अयनम् अयनद्वयेन संवत्सरः तै: पंचभिर्युगम् विंशत्या युग वर्षशतम् तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् तेषां शतेन वर्षलक्षम् तेषां चतुरशीत्या पूर्वांगम् पूर्वम् त्रुटितांगम् त्रुटितम् अडडांगम् २४ अडडम् अववांगम् अववम् हूहूकांगम् हूहूकम् उत्पलांगम् उत्पलम् पांगम पद्मम् अंका: ४ बिदवः १० " २३ १० १२ , २५ , ३० २५ नलिनांगम् ८४००००० अत्रांकद्वयं बिंदव: पंच ७०५६०००००००००० ५६२७०४००००००००००००००० ४६७८७१३६०००००००००००००००००००० ४१८२११६४२४ ३५१२६८०३१६१६ २६५०६०३४६५५७४४ २४७८७५८६११०८२४९६ २०८२१५७४८५३०६२६६६४ १७४६०१२२८७६५९८०६१७७६ १४६६१७०३२१६३४२३९७०९१८४ १२३४१०३०७०१७२७६१३५५७१४५६ १८३६६४६५७८६४५११९५३८८००२३०४ ८७०७८३१२६३१३६००४१२५६२१६३५३६ ७३१४५७८२६१०३६७६३४६५७७४४२५७०२४ ६१४४२४५७३६०७०८८१३११२५०५१७५६००१६ ५१६११६६४२०६८७५४०३०१४५०४३४७७५६१३४४ ४३३५३७६३६२६५३३८५३२१८३६५२११५१५२०६६ ३६४१७१६०२६६४८८०८४३६७०३४२६७७७६७२८४३२६ ३०५६०४३६८२३८४६९९०८६५३०८७८४६३२४५१८८३४१७६ २५६६५६६९४५२०३३६६२३२६३७६३७६३४३२५६५८२०७०७८४ २१५८४६१४३३६७०८५५३५५६६७८६७८६४८३३८०४८६३६४५८५६ १८१३१०७६०४५३५५१८४९८७६१००६००६४६०३६६११०६१४५१६०४ १५२३०१०३८७८०६८३५५३०६५६२४७५६५४२६७३२७३३१६८१६५६६३६ १२७६३२८७२५७६०२६१८५२७२५७६७६५४६५८४५५४६५८६१२८४६३४६२४ १०७४६३६१२६६३८६१६६५६२८९६४५०८२१६५१०२६१६५२३४७६०६३०८४१६ ६०२६६४३४८८६६४४०७६३२८३३०१८६६०१८६८६१६७८७६७२२४३८१९०६६४४ ७५८२६३२५०७३०१०२४११५७६७३५६६६७५६६६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ O XO XO XO XO O XO XO XO XO XO XO XOXO ३८ ३६ नलिनम् ३५ अर्थनिपुरांगम् अर्थनिपुरम् अयुतांगम् अयुतम् नयुतांगम् नयुतम् प्रयुतांगम् प्रयुतम् चूलिकांगम चूलिका | शीर्षप्रहेलिकांगम् ४६ ] शीर्षप्रहेलिका ४१ ४३ Jain Education Intemational Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internation For Pale & Resoral Use Only प्रज्ञापुरुष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटेछोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा- यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व । अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अन्तःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के स प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्फबल और मनोवल से सम्पन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ- यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व । तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति और मेधा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्घायु बना दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा मे पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमे ५०१ गीतिकाए हैं। उसका प्रथमान है-साठ हजार पद्य प्रमाण । • जन्म- १६६० रोयट (पाली मारवाह) ० दीक्षा- १०६६ जयपुर • युवाचार्य पद- १०६४ द्वारा ० अग्रणी - १००१ ० आचार्य पद- १६०८ बीदासर ० स्वर्गवास - १६३० जयपुर 16 निर्वाण-शताब्दी- २०३७.३० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nelibrary.org