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२०. श्री जिन भाखे नेरइया, जिम कर्म किया तिम वेदंत । ते वेदे एवंभूत वेदना. न्याय २१. जेनेराजेम कर्म किया, तिण विघ ते वेदं अनेवंभूत नें तिण अर्थ
पूर्ववत् संत ॥ नहि भोगवंत । बिहू हु ॥
२२. इम जाव वैमानिक लगे, वैमानिक लगे, संसार-मंडल संसारी जीव चक्रवाल ने कहियो सर्व
वक्तव्यता
दोसेत ॥
२२. वृत्तिकार को अथवा इहां वाचनांतरे हुत कुलगर तीर्थकरादि नी. २४. जिनागम में प्रसिद्ध एहवा, संसार-मंडल ते आगल कहिये
शब्देन ।
रे
सूचित करी इहां संभवे
1
२५. हे प्रभु! जंबूद्वीप में इन अवसविणी काल में,
एन ॥
भरत क्षेत्र
मांहि । किता कुलगर हुवा ताहि ?
२६. जिन कहै सात कुलकर थया तीर्थंकर चउवीस । मात पिता पउवीस नां प्रथम शिष्यणी सुजगीत ||
२७ बारे पत्रवत्ति में माता पिता
द्वादश स्त्री रत्न ताम । नाम वलि नव बलदेव नां, नव वासुदेव नां नाम ॥ २८. बल-वासुदेव नां माता पिता, नव प्रतिवासुदेव । जिम समवायांग ने विषे, नाम परिपाटी तेम कहेव' ॥
जाण । पिछाण ||
२६. सेवं भंते ! सेवं भंते! कही, जाव विचरै गोतम स्वाम । अर्थ पंचमा शतक नों, पंचम उदेशा नों पाम ॥ ३० ढाल पिच्यासीमीं कही, भिक्खु भारीमाल ऋषराय । 'जय जय' संपति साहिबी, गण-वृद्धि हरष सवाय ॥
पंचमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥ ५५ ॥
१. पंचमुदेशे जीव खट्ठे कर्म सगूंज
ढाल : ८६
हा
नं, कहा हिव,
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कर्म
निबंधन
वेदन्न ।
जन्न ॥
बंध
१. २५ से २८ तक चार गाथाओं की जोड़ जिस पाठ के आधार पर की गई
है, वह पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ में नहीं है । उस पाठ को वहां पाठान्तर
के रूप में पादटिप्पण में उद्धृत किया है। जोड़ के सामने वही पाठ लिय गया है ।
५२ भगवती - जोड़
२०. गोयमा ! जे गं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति, ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति । २१. जे गं नेरइया जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं वेदेति, ते पं नेरइया अणेवंभूयं वेदणं वेदेति
से
(०५ / १२० )
( श० ५ / १२१ ) (204/899) कुलकरतीर्थंकरादिवक्त
२३. अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे
व्यता दृश्यते,
( वृ० प० २२५)
२४. ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसञ्ज्ञया सेह सूचितेति संभाव्यत इति ।
२५. जंबूद्दीवे णं भंते ! इह भारहे वासे पीए समाएका कुलगरा होगा ?
२६. गोयमा ! सत्त । एवं तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीओ ।
२७. चकपट्टिमायरो इरिथरणं बलदेवा, वासुदेवा
२२. एवं जाव वैमाणिया ।
संसारमंडल नेयव्वं ।
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( वृ० प० २२५ )
इमीसे ओसप्पि -
२८. वासुदेवमायरो, पियरो, एएसि पडिसत्तू जहा सम बाए मनाओ २१०-२४६) नामपरियाडीए तहा नेयव्वा ।
२६. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । ( श० ५ / १२३ )
१. अनन्तरोद्देश के जीवानां कर्मवेदनाक्ता, षष्ठे तु कर्म्मण एवं बन्धनिबन्धनविशेषमाह- ( वृ० प० २२५ )
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