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*जय जशकारी हो ज्ञान जिनेन्द्र नो (ध्र पदं)॥ ११. आभिनिबोधिक श्रुतज्ञानी धुरे,
अंतर्मुहुर्त काल हो, भविकजन ! छासठ सागर जाझेरो कह्यो,
उत्कृष्ट काल निहाल हो, भविकजन !
११, आभिणिबोहियनाणी णं भंते ! आभिणिबोहियनाणी
ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा एवं चेव ।
(श०८।१६३) एवं सुय नाणी वि।
(श० ८।१६४) आभिनिबोधिकज्ञानादिद्वयस्य तु जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकाणि षट्षष्टिः सागरोपमाणि ।
(वृ० ५० ३६१) १२. ओहिनाणी वि एवं चेव, नवरं-जहणणं एक्क समयं ।
(श० ८।१६५) यदा विभंगज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत् प्रथमसमय एव विभङ्गमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते ।
(वृ० प०३६१)
१२. अवधिज्ञानी इक समय जघन्यपणे,
विभंग तणो अवधि होय । समय एक रही ते पाछो पड़े, इम इक समय सुजोय ॥
सोरठा १३. अवधिज्ञान विलाय, पिण समकित जाती नथी।
जघन्य स्थिति पिण ताय, अंतर्महतं नी तेहथी। १४. अवधिज्ञान जसु होय, मति श्रुत नियमा ह तसु ।
इक समय अवधि रहि जोय, मति श्रुत ज्ञान विषे रहै । वा०-विभंग अज्ञानी नो अवधिज्ञानी किम हुवै ? अन तेहनी एक समय नी थिति किम ? देवता, नारक, मनुष्य, तिथंच-पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टि तेहनै तीन अज्ञान हुवै । हिवै मिथ्यादृष्टि नो समदृष्टि थयो, तिवारे तीन अज्ञान नां ज्ञान थया, विभंग नो अवधि थयो। तिवारै एक समय पछज तेहनो आयु पूर्ण थयो अथवा अनेरे प्रकारे एक समय ते अवधि रही पाछो पड़ यो, पिण सम्यक्त नहीं गई । कारण मति, ध्रुत ज्ञान नी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त नी छ, सम्यक्त नीं पिण एतलीज छै । इण न्याय अवधिज्ञान नी स्थिति जघन्य एक समय नीं। १५. *अवधिज्ञान उत्कृष्टपणे रहै, छासठ सागर देख ।
जामो काल कह्यो ते ऊपरे, न्याय पूर्ववत पेख ॥ १६. मनपज्जव इक समय जघन्य रहै, अप्रमत्त में उपजत।
समय एक रही तेह विनष्ट ह, इम वृत्तिकार कहंत ॥
१५. अवधिज्ञानिनामप्येवं नवरं जघन्यतो विशेषः ।
(वृ० ५० ३६१) १६. मणपज्जवनाणी णं भंते ! मणपज्ज्जवनाणी ति काल
ओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं । संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्न तत उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं चेत्येवमेकं समयं ।
(वृ०प० ३६१) १७. उक्कोसेणं देसूणं पुश्वकोडिं। (श० ८.१९६)
तथा चरणकाल उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी, तत्प्रतिपत्तिसमनन्तरमेव च यदा मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नमाजन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति।
(वृ० प० ३६१)
१७. मनपर्यवज्ञानी उत्कृष्ट थी, देसूण पूर्व कोड़।
चरण लियां मनपर्यव ऊपजै, जावजीव लग जोड़।
* लय : पूजजी पधारो हो नगरी
श०८, उ० २, ढा० १३६ ३७१
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