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________________ ६२. "जाठ कर्म बंधे तेहने, किता परिसह ताय ? जिन कहै बावीस परिसह क्षुधा तृषा कहिवाय ॥ ६४. सीय उसिण दंसमसग नों, जाव अलाभ नों जाण । इम अठ विध बंधक अपि, सप्त बंधक जिम माण | सोरठा , ६५. पूर्वे समचे वाहि कला बावीस परीसहा च्यार कर्म रै मांहि, समवतरं ते पिण कह्या ॥ ६६. पाठ पिछाण, अंतराय कर्म न विधे। समवतरं ए जाण, एक अलाभ परीसह ॥ ६७. इम अलाभ लग ख्यात, सप्त कर्म बंधक तणें । ते सहु पाठ विख्यात, कहिवुं अठ बंधक तणें ॥ ६८. अबंधक रे एम कला बावीस परीसहा | च्यार कर्म में तेम, कहि पाठ अलाभ लग ॥ वा०--- इहां गोतम पूछयो - केतला परिसहा परूप्या ? भगवंत कोबावीस परिसहा परूप्या - भूख तृषा रो नाम लेइ जाव दर्शन परिसह कह्यो । वलि पूछयो केतना कर्मप्रकृति विए बावीस परिसहा समवतरे ? जद भगवंत कह्यो — च्यार कर्म प्रकृति नैं विषे समवतरे—ज्ञानावरणी नैं विषे दोय, वेदनी नैं विषे इग्यारे, दर्शण मोहणी रे विषे एक, चारित्र मोहणी रं विषे सात, अंतराय कर्म मैं विषे एक अलाभ परिसह, ए छेहड़े कह्यो । तिम इहां पिण गोतम पूछ्यो - आठविध बंधग र किता परिसहा परूप्या ? भगवंत कहै— बावीस परिसहा परूप्या | भूख, तृखा आदि पंच परिसहा नां नाम लेइ जाव अलाभ परीसह कह्यो । ए अंतराय कर्म नैं विषे एक अलाभ परिसह समवतरै ते पाठ पूर्वे छेहड़े का छे, ते पाठ इहां पिण आठ बंधगा नैं विषे पिण छेहड़े कहिवूं । ते भणी जाव अलाभ परिसहे कह्यो इति तत्वं । ताय । ६९. *मोह उस वर्ज नें, पढ् विध बंधक आउखो सूक्ष्म संपराय ने विषे, किता परिसह कहिवाय ॥ ७०. जिन कहै षट-बंधक तणें, द्वादश पिण वेदे अछै, चउदै परिसहा न्याय इम तास Jain Education International जोय । होय ॥ लय शिवपुर नगर महामो १. इस वार्तिक में जिस पाठ के आधार पर परीषहों की चर्चा की गई है; वह भगवती के आठवें शतक ( सूत्र ३१६- ३२२ ) का पाठ है। उस पाठ को इसी ढाल की गाथा ५ से ३७ तक की जोड़ के सामने उद्धृत किया जा चुका है । वहां जो प्रसंग चर्चित हुआ है, उसी को उपसंहार रूप में यहां स्पष्ट किया गया है । इसलिए इस वार्तिक के सामने उक्त पाठ नहीं लिया गया । ४६२ भगवती-जो ६३. अट्ठविहबंधगस्स णं भंते ! कति परीसहा प० गो० ! बावीस परीसहा, तं० छुहापरीसहे, पिवासापहे ६४. सीपपरीत उसणपरीस, समसगपरीसहे जान अलाभपरीस एवं अट्ठविहबंधगस्स वि । ( श० ८ ३२४ का पा० टि० ) ६९. छव्विहबंधगस्स णं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता ? षड्विधबन्ध कस्यायुर्मोहवर्जानां बन्धकस्य सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः । ( वृ० प० ३११) ७०. गोयमा ! चोद्दस परीसहा पण्णत्ता । बारस पुण वेदे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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