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________________ १३४. गोयम! बारले (समुद्र) सोय, उदक-जोणिया जीव बहु । पुद्गल पिण अवलोय, उदकपणे उपजै अछ । १३४. गोयमा ! बाहिरगेसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्क मंति, चयंति, उवचयंति । १३५. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-~-बाहिरया णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्ट माणा । १३६. वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, १३५. तिण अर्थे इम जाण, द्वीप समुद्र जे बारला । पूर्णा पूर्ण-प्रमाण, वोलट्टमाणा पिण कह्या ।। १३६ वोसट्टमाणा पेख, प्रचरपणे वर्धमान जल । सम जल मृत घट देख, तेहनी परि तिष्ठे तिके ॥ १३७ *संठाण थी इकविध कह्या, रथ चक्रवाल आकार । विधान तेह स्वरूप नों, करिवू जसु अवधार' ॥ १३८. जावत तिरछा लोक में, असंख द्वीपोदधि हंत । स्वयंभूरमण छेहड़े कह्यो, अहो श्रमण आउखावंत ! १३६. हे प्रभु! द्वीप समुद्र नां, किता परूप्या नाम ? जिन कहै शुभ नाम लोक में, स्वस्तिकादिक अभिराम ॥ १४०. रूप अछै शुभ जेतला, शुक्ल पीतादिक अथवा जे रूपवंत छ, देवादिक १४१. गंध अछै सुभ जेतला, सुगंध ना बहु अथवा कपूरादिक कह्या, ए गंधवंत जेह । वर्णेह ।। भेद । संवेद ।। १३७. संठाणओ एगविहिविहाणा, एकेन 'विधिना' प्रकारेण चक्रवाललक्षणेन विधानंस्वरूपस्य करणं येषां ते एकविधिविधानाः । (वृ०प०२८२) १३८. जाव अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो! (श० ६।१५६) १३६. दीवसमुद्दा णं भंते ! केवतिया नामधेज्जेहि पण्णत्ता ? गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, स्वस्तिकश्रीवत्सादीनि (वृ० प० २८२) १४०. सुभा रूवा, शुक्लपीतादीनि देवादीनि वा। (वृ०५०२८२) १४१. सुभा गंधा, सुरभिगन्धभेदा: गन्धवन्तो वा कर्पूरादयः । (वृ० प० २८२) १४२. सुभा रसा, मधुरादयः रसवन्तो वा शर्करादयः । (वृ०प० २८२) १४३. सुभा फासा, मृदुप्रभृतयः स्पर्शवन्तो वा नवनीतादयः । (वृ०प० २८२) १४४. एवतिया णं दीवसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता । एवं नेयव्वा सुभा नामा उद्धारो, परिणामो, सव्व जीवाणं (उप्पाओ) (श० ६।१६०) . १४२. रस अछै शुभ जेतला, मधुरादिक रस स्वाद । अथवा रसवंत जाणवा, साकर प्रमुख अहलाद ।। १४३. फर्श अछै शुभ जेतला, मृदु प्रमुख सुविशाल । अथवा फर्शवंत जाणवा, माखण प्रमुख निहाल । १४४. नाम इता द्वीप समुद्र नां, जाणवा इम शुभ नाम । उद्धार में परिणाम ते, सहु जीव ऊपनां ताम ।। * लय : धीज कर सीता सती रे लाल १. प्रस्तुत ढाल की १३७ वीं गाथा जिस पाठ के आधार पर है, अंगसुत्ताणि भाग २ श०६।१५६ में उसके आगे यह पाठ है . 'वित्थारओ अणेगविहिविहाणा दुगुणा दुगुणप्पमाणा' संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में यह पाठ नहीं था, इसलिए इस पाठ की जोड़ नहीं है। १९२ भगवती-जोर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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