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________________ ११. यदकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेs नाहारको द्वितीये त्वाहारकः। (वृ०प० २८७) १२. यदा वऋद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽद्ययोरनाहा रकस्तृतीये त्वाहारकः। (वृ० प० २८७) १३. यदा तु वक्रत्रयेण चतुभिःसमयरुत्पद्यते, तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारकः । (वृ० प० २८७) ११. इक वक्र करि पेख, दोय समय करि ऊपजै । अनाहारक धर एक, द्वितीय समय आहारक सही ।। १२. बे वक्र करि सोय, तीन समय करि ऊपजै । अनाहारक धर दोय, तृतीय समय आहारक हुवै ॥ १३. त्रिण वक्र करि धार, च्यार समय करि ऊपज । प्रथम चरम बे आ' र, समय मज्झिम बे आ' र नहिं । वा०-ए च्यार समय करि ऊपजै, तिहां प्रथम समय आहारक कह्य । ते समय पाछला भव न छेलं समय देशबंध जणाय छ । जिण स्थानक ऊपजे, ते भव न ए समय होवै, ते स्यू सर्व बंध के देश बंध ? चोथै समय उत्पत्ति क्षेत्रे आहार ले ते सर्व बंध हुदै, पिण ए च्यार समय में प्रथम समय सर्व बंध नहीं। एकेद्रिय में तीन समय ऊणी क्षुल्लक भव देश बंध नी स्थिति जघन्य कही । ते भणी च्यार समय में प्रथम समय, ए एकेंद्रिय नां भव नुं न लेखव्यो । ते मार्ट ए समय पूर्व भव नों देश बंध संभव । (ज० स०) १४. वृत्ति मझे इम वाय, अन्य आचार्य इम कहै । पंच समय उपजाय सूत्रे कथन न इम कह्य॥ १४. अन्ये त्वाहुः-वक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य समणि प्रतिपद्यते पञ्चमेन तूत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति, तत्र चाये समयचतुष्टये वक्रचतुष्टयं स्यात्, तत्र चानाहारक इति, इदं च सूत्रे न दर्शितम्। (वृ० प० २८७, २८८) १६. छउमत्थअणाहारए णं भंते ! छउमत्थए कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समथा। (पन्नवणा १८६८) १५. अणाहारक नां जेह, समय तीन केई कहै। पाठ मझे नहिं तेह, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ।। १६. पन्नवण' में तहतीक, अठारमा पद में विषे । छद्मस्थ अणाहारीक, स्थिति कही बे समय नीं॥ वा०--तथा शतक छह, सू० वेसठ मध्ये कालादेसे अणाहारक सप्रदेश के अप्रदेश ? तिहां छह भांगा बस अणाहारक ने कह्या । तिहां प्रथम भांगे सगला सप्रदेश अणाहारक कह्या, सप्रदेश ते केहनै कहिय ? एक समय सूधी अप्रदेश । ते उपरांत समय थया हुवै, तेहनै सप्रदेश कहियै । इण न्याय जोतां त्रस नै दोय समय अणाहारक कह्यो छ । १७. तिण सू सूत्रे वाय, आखी तेहिज सत्य छै । विरुद्ध बहु वृत्ति मांय, ते किण रीते मानिये ? १८. *दंडक इह विध आखियै, जीव एकेंद्री कथीक । चोथा समय विषे हवै, निश्चै ते आहारीक ॥ १८. एवं दंडो-जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए, जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयैव चतुर्थे समये नियमादाहारक इति वाच्यम्। (वृ० प० २८८) १. चार समय वाली अन्तराल गति में जीव तीन समय तक अनाहारक रहता है । टीकाकार का यह अभिमत जयाचार्य के मंतव्य से भिन्न है। इसका उल्लेख स्वयं जयाचार्य ने इसी ढाल की पन्द्रहवीं गाथा में कर दिया है। * लय: किण किण नारी सिर घड़ो रे श०७, उ० १, ढा० १११ २०५ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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