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६७. प्रवेश करतां जोय, प्रधानपणो वैक्रिय तणो ।
तिण कारण अवलोय, जोग वैक्रिय मिश्र ए। ६८. इहां ओदारिक नों भेल, वैक्रिय पुदगल साथ जे । जे मनष्य तिर्यंच सुमेल, ओदारिक वैक्रिय मिश्र ॥
(ज० स०) ६६. जाव पर्याप्त जेह, सर्वार्थसिद्ध सूर प्रवर ।
जाव परिणत नहिं एह, वैक्रिय मिश्र प्रयोग प्रति । ७०. अपर्याप्त समीर, सव्वदृसिद्ध पंचेंद्रिय ।
वैक्रिय मिश्र शरीर, काय प्रयोगे परिणते ।। ७१. जो आहारक-तनु-काय-प्रयोग-परिणत द्रव्य ते ।
स्यू' मनुष्य आहारक थाय, कै मनुष्य बिना आहारक हुवै ?
७२. जिम ओगाहण संठाण, पन्नवण पद इकवीस में ।
यावत ऋद्धिपत्त जाण, प्रमत्तसंयत सम्यक्-दृष्टि ।। ७३. पर्याप्त संखेज्ज वास, आय तणो धणी तिको ।
आहारक शरीर तास, काय प्रयोगे परिणते ॥
६६. जाव नो पज्जत्तासम्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव
परिणए ७०. अपज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिदियवेउ
ब्वियमीसासरीरकायपयोगपरिणए। (श० ८।६१) ७१. जइ आहारगसरीरकायपयोगपरिणए कि मणुस्साहार
गसरीरकायपयोगपरिणए ? अमणुस्साहारग जाब
परिणए ? ७२,७३. एवं जहा ओगाहणसंठाणे (प० २११७२) जाव
इड्ढ़िपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय जाव परिणए ‘जहा ओगाहणसंठाणे' त्ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमपदे।
(वृ० प० ३३६) ७४. नो अणिढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तसंखेज्ज
वासाउय जाव परिणए। (श० ८।६२) ७५. जइ आहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए कि
मणुस्साहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए ?' ७६. एवं जहा आहारगं तहेव मीसग पि निरवसेसं भाणियब्वं ।
(श० ८।६३)
७४. रिद्ध पाम्या विण तास, प्रमत्त-संयत सम्यकदृष्टि ।
पर्याप्त संखेज्ज वास, आहारक जाव परिणत नहीं । ७५. जो आहारक मिश्र तन काय, प्रयोग करि परिणत हुई।
तो मनुष्य विषे कहिवाय, कै मनुष्य विना आहारक मिश्र? ७६. आहारक आख्यो जेम, तिमहिज आहारक-मिश्र पिण।
समस्त भणवो तेम, वृत्तिकार तिहां इम कह्म ॥ ७७. आहारक करत जगीस, पूर्ण न थये पूतलो ।
ओदारिक नों मीस, प्रधानपणो ओदारिक नों। ७८. आहारक तन निपजाय, ते कार्य करि पुनरपि ।
ओदारिक नां ताय, ग्रहण करै पुद्गल प्रतै ॥ ७६. प्रवेश में व्यापार, प्रधानपणों आहारक तणों ।
आहारक मिश्र तिवार, ऊदारिक सह मिश्रता ॥
५०. जो कार्मण शरीर काय-प्रयोग करि परिणत हई।
स्यू एकेंद्री थाय, कै यावत पंचेंद्रिय ?
७८,७६. यदा आहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौ
दारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदरिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत्सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति',
(वृ०प० ३३५) ८०. जइ कम्मासरीरकायपयोगपरिणए कि एगिदियकम्मा
सरीरकायपयोगपरिणए ? जाव पंचिदियकम्मासरीर
कायपयोगपरिणए ? ८१. गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायपयोगपरिणए, एवं
जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इह वि १. पृ० ३१८ के दूसरे पेराग्राफ में वृत्ति का यह अंश उद्धृत है । किन्तु यहां जोड़ की गाथाओं में वही प्रसंग उल्लिखित है। इसलिए वृत्ति का वही अंश यहां उद्धृत किया गया है।
८१. भाखै तब जगभाण, एकेंद्रिय कार्मण तन ।
जिम ओगाहण संठाण, भेद कार्मण तिम इहां ।।
३२२ भगवती-जोड़
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