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५१. आख्यो
वैक्रिय
णवरं
एम,
।
है।
वैक्रिय जेम, कहिवो वैक्रिय-मित्र तिम विशेष वैक्रिय-मिश्र केहन ? ५२. सुर नारकी अपज्जत, मिश्र वैक्रिय तेह में शेष तज पज्जत्त, जोग वैक्रिय - मिश्र ५३. 'इहां वैकिय-मीस, देव नारको नैं विषे । अपर्याप्त कहीस, पर्याप्ता में ५४. अपज्जत्त उत्पत्ति ताहि, मिश्र कार्मण पूर्ण वैक्रिय नांहि वैकिय-मिय पर्याप्त वेक्रिय तन्
नहि कह्यो ।
जोग करि । त्यां लगे ॥
भवधारणी ।
५५. नारक सुर उत्तर वैक्रिय व्याप्त करता ने बलि पेसतां ॥ ५६. भवधारणी तद्रूप, करतां उत्तर वैक्रिय । पूर्ण न थयो रूप, त्यांलग क्रियनुं मिश्र ॥ ५७. उत्तर-वैक्रिय धार, भवधारणी में उत्तर-किय नं विचार, करतां
पेसतां । मिश्र ॥
कहिये तिणवार, छै ५८. भवधारणी
उत्तर - वैक्रिय ।
नुं मिथ ॥ वचन रा ।
सदा ॥
वलि पेसतां धार, कहिये वैकिय ५९. नारक सुर सुजगीस, चितं मन ने चि वैक्रिय वैक्रियमीस, वैकियमीस, ए दस बहु बचने ६०. उत्पत्ति विरह निहाल, तिण वेला पिण ए दसू । पन्नयण सूत्र विशाल सोलम पद में आखियो' । पर्याप्त वैक्रिय मिश्र है । तास कथन इहां नांय, अप्रधानपणो ते ६२. भवधारण
६१. सुर नारकी इण न्याय,
वेत्रैह, उत्तर वैक्रिय तिण
वैक्रिय बिहुं कहेह, तिण सूं प्रधानपणो ६३. कार्मण जोगे मीस, तास प्रधानपणें अपर्याप्त कहीस, पर्याप्ता में ए ६४. नारक सुर इण न्याय, कार्मण करि नहीं पर्याप्त माय, तिण आश्रमी ए ६५. मनष्य तिर्यच पर्याप्त वैक्रिय शरीर करे तिको। करिया लागो वैक्रिय ॥
वैक्रिय
पाठ
है ॥
पूर्व ओदारिक व्याप्त, ६६. पूर्ण वैक्रिय नाहि, ओदारिक मिश्र यां लगे। ओदारिक नो ताहि, प्रधानपणुं छै ते भणी ।
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भणी ॥ कियो ।
नहीं ॥
करी ।
नहीं ॥
मिश्र ।
१. प्रयोग गति के पन्द्रह प्रकार बतलाए गए हैं । नारक और देवों में उन पन्द्रह प्रकारों में से ग्यारह प्रकार पाए जाते हैं। यह उल्लेख पण्णवणा १६।२० में है । प्रस्तुत ढाल के ५६ वें और ६० वें पद्यों में जयाचार्य ने नारक और देवों के योग के दस प्रकार बतलाए हैं। यह विसंगति नहीं, विवक्षा है । नारक और देवों में कार्मण योग अपर्याप्तावस्था में ही होता है, उसके बाद नहीं । उसकी विवक्षा न करने के कारण यहां उनमें दस योग बतलाए गए हैं ।
२१. एवं जातिहा मी वि नवरं
५२. देवनेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पज्जत्तगाणं ।
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श० ८०० १, डा० १३१
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