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________________ अगुत्तर पर्याप्त सव्वट्ट-अणुत्तर उत्पन्न जाव सुर । पंचिदि-कम्मत दिद्रु काय प्रयोगे परिणते ॥ ३. अपर्याप्ता विचार, सव्वदुसिद्ध तणां । जाव परिणते धार, विकल्प करि इक द्रव्य ते ॥ वा० - 'इहां सर्वार्थसिद्ध नां देवता में पर्याप्ता में अथवा अपर्याप्ता में कार्मण का ते कार्मण शरीर जाणवो । पिण कार्मण जोग नो इहां कथन नथी । जे भणी तेहना अपर्याप्ता में कार्मण न हुवै, ते मार्ट इहां कार्मण जोग नो कथन न संभवे । पन्नवणानां इक्कीसमा पद नै विषे पिण कार्मण शरीर की शरीर इह सेखवणो।' ( ज० स० ) ८४. जो मीसा-परिणत होय, स्वं मन मीसा-परिणते ? वच मिश्र-परिणत जोय, काय-मिश्र-परिणत हुई ? श्री जिनराय, ५. भा मन मीसा-परिणत हुई । तथा वचन-मिश्र थाय, काय मिश्र-परिणत तथा ॥ ८६. जो मन मिश्र जगीस, जमीस, स्वं सत्य-मन-मीसा हुई ? के असत्य-मन-मीस के मिश्र मनपरिणत हुई ॥ ८७. प्रयोग- परिणत जेम, मीसा-परिणत पिण तिमज । भणवो समस्त एम, जाव पज्जत्ता सम्वसिद्ध | ८८. अणुत्तर उत्पन्न जोय, जाव देव पंचेंद्रिय । कर्मशरीरा सोय, मीसा-परिणत ह ह्वं तथा ॥ ८९. अपयता अपर्याप्ता विचार, सर्वार्थसिद्ध जाव ते । परिणत छै इक द्रव्य तथा ॥ परिणत ए स्वभाव करि । गंध रस फर्श संठाण ते ? वर्ण - परिणत द्रव्य इक । अथवा रस-परिणत हुई । ८२. जाव aε. करि । कर्म मिश्र अवधार, १०. जदि वीससा जोय, तो वर्ण- परिणत होय, ६१. आखे जिन अवितत्थ, तथा गंध-परिणत, ६२. अथवा परिणत फास, अथवा ठाणे परिणत होवे तास, एक द्रव्य पुद्गल तणो ॥ ६३. जो वर्ण- परिणत होय, तो स्यूं परिणत कृष्ण वर्ण । नील पीत अवलोय, रक्त शुक्ल परिणत हुई ? ४. भाखै श्री जिनराय, कृष्ण वर्णं परिणत हुई । अथवा जाव कहाय, शुक्ल वर्ण परिणत अछै ॥ ६५. जो गंध-परिणत होष, सुगंध दुर्गंध परिणत ? जिन कहै सुगंध जोय, अथवा दुर्गंध परिणते ॥ १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ८६ में मिश्र-परिणत मन के तीन भेद स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। सामने उद्धृत पाठ में समर्पण का पाठ है । इससे मूल प्रतिपाद्य में कोई अन्तर नहीं आता । २. यहां जोड़ में पाठ पूरा है, किन्तु अंगाणि में संक्षिप्त पाठ है, इसलिए सामने उसी को उद्धृत किया है। अगली गाथा में जोड़ भी संक्षिप्त पाठ के आधार पर है । Jain Education International २.व्यसिद्धअत्तरोषवाय कप्पातीतवैमाणियदेवचिदियकम्मास कपयोग परिषए था। ८३. अपज्जत्तासव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाहय जाव परिणए (श० ८/६४ ) वा । ८४. जइ मीसापरिणए कि मणमीसापरिणए ? वइमीसापरिणए ? कायमीसापरिणए ? ८५. गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वइमीसापरिणए वा, कायमीसापरिणए वा । (०८६५) ६. ज मणमीसापरिणए कि सच्चमणमीसापरिणए ? मोसम मी सापरिणए ? ८७८८. जहा पयोगपरिणए तहा मीसापरिणए वि भाषियन्वं निश्वसेस जाव पज्जन्तासम्बद्धसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देव ंचिदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा १. अपजतासिद्धअणुतरोयवाश्य जाय कम्मासरीरमीसापरिणए वा । (श०६६) १०. जर बीचसापरिषए कि वष्णपरिणए ? परिणए ? रसपरिणए ? फासपरिषए ? संठाणपरिणए ? ६१. गोयमा ! यणपरिगए वा गंधपरिए वा रसपरिपए वा १२. फासपरि वा संठाणपरिणए या (०८६०) ६३. जइ वण्णपरिणए कि कालवण्णपरिणए जाव सुक्कि लवण्णपरिणए ? २४. गोयमा ! कालवण्णपरिणए वा जाव सुक्किलवण्णपरिणए वा । (To Cite) ६५. ए कि मुब्धिपरिणए ? मगंध परिष? गोयमा ! सुब्भिगंधपरिणए वा दुब्भिगंध परिणए (०८६१) वा । For Private & Personal Use Only ० उ० १, ढा० १३१ ३२३ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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