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५३. *अंक छिहतर देश कह्यो ए, एक सौ अठारमीं ढाल ।
भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशाल ।
ढाल : ११६
दूहा १. परितापना उपजायवै, दुख पीड़ा अवलोय ।
.. १. दुःखप्रस्तावादिदमाह- (वृ० ५० ३०५) ते दुख नां प्रस्ताव थी, दुस्समदुसमा जोय ॥
*गोयम पूछ वीर नै रे । ए तो वीर प्रभु वडवीर, हरण पर पीड़ ने रे । (ध्र पदं) २. जंबूद्वीप में हे प्रभु ! रे, भरत मध्य सुविचार ।
२. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्समइण अवसप्पिणी काल में रे, दुस्समदुसमा आर ।।
दुस्समाए समाए ३. उत्तम जे उत्कृष्ट ही, काष्ठ अवस्था धार ।
३. उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभरत तणो केहवो हुसी, आकार भाव प्रकार ?
भावपडोयारे भविस्सइ ? सोरठा ४. उत्तम काष्ठज प्राप्त, उत्तम ते उत्कृष्ट दुख ।
४. 'उत्तमकट्ठपत्ताए' त्ति परमकाष्ठाप्राप्तायाम्, उत्तमाकाष्ठ अवस्था आप्त, ते उत्तम अवस्था नै विषे ।।
वस्थायां गतायामित्यर्थः, ((वृ० ५० ३०५) ५. अथवा उत्तम कष्ट, परम कष्ट पाम्या विषे ।
५. परमकष्टप्राप्तायां वा । (वृ० प० ३०५) भरत क्षेत्र नो दृष्ट, केहवो भाव आकार प्रभु ?
_ *प्रभ कहै सांभलो रे । दुस्समदुसमा काल नो करड़ो मामलो रे॥ (ध्र पदं) ६. जिन कहै काल इसो हुसी, दुखार्त्त लोक कुसुत ।
६. गोयमा ! कालो भविस्सइ हाहाभूए, हाहाकार करिस्यै बहु, काल तिको हाहाभूत ॥
हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं हाहोच्यते तद्भूतः-प्राप्तो यः काल: स हाहाभूतः ।
(वृ०प० ३०५) ७. गाय प्रमुख दुख पीड़िया, भां भां शब्द करीस ।
७. भंभब्भूए, तिण कारण ए काल नै, भांभांभूत सरीस ।।
भां भां इत्यस्य शब्दस्य दुःखार्तगवादिभिः करणं भंभोच्यते तद्भूतो यः स भंभाभूतः।
(वृ०प० ३०६) ८. अथवा भंभा भेरि ते, अंतर्शन्य जिम काल ।
८. भंभा वा भेरी सा चान्तःशून्या ततो भम्भेव यः जन-क्षय थी शून्य छै तिको, ते भंभाभूत निहाल ।
कालो जनक्षयाच्छून्य: स भंभाभूत उच्यते ।
(वृ०प०३०६) *लय: परम गुरु ऊभा थे रहिजो *लय : करेलणा नी (कोड़ी चाली सासरै रे) २५४ भगवती-जोड़
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