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________________ १४८. नहि बांधियो बांधै अछ, नहिं बांधस्यै इरियावहि । इक भवे बोलज बे हुवै, पिण तृतीय बोल हुवै नहीं। १४६. ते भणी भांगो एह छट्टो, ग्रहण आकर्षे नहीं । ते कारणे ए भंग नी छै, शन्यता इक भव मही।। १५०. नहिं बांधियो बांधै अछ, ए बोल बे नर भव मही । मरि सुर भवे नहिं बांधस्यै, ए ग्रहण आकर्षे नहीं। १५१. ते भणी ग्रहणाकर्ष ते भव, एक आश्री जाणिय । ए भंग छठा तणी शून्यता, प्रवर न्याय पिछाणिय ।। १५२. जो तेरमा नै चरम समय, बंधै अछ इरियावही । फुन समय बीज बांधस्यै नहिं, तास वांछा जो हुई। १५३. इम तदा जे गुण तेरमां ने, चरम समये बंध ही । तेह थी जे पूर्व समये, बांधियो इम संध ही। ए १५२. यदि पुनः सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोऽनन्तरं न भन्स्यतीति विवक्ष्येतः । (वृ० प० ३८७) १५३. तदा यत्सयोगिचरमसमये बध्नातीति तद्बन्ध पूर्वकमेव स्यान्नाबन्धपूर्वकं, तत्पूर्वसमये तस्य बन्धकत्वात् । (वृ० प० ३८७) १५४. एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यान्न पुनः षष्ठ इति । (वृ० प० ३८७) १५५. सप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य (वृ० प० ३८७) १५६. अष्टमस्त्वभव्यस्येति (वृ० प० ३८७) १५४. ते भणी ए भंग द्वितीय है, पिण भंग छट्रो ह नहीं। ___इम भंग षष्ठम शून्यता ए, ग्रहण आकर्षे कही। वा०-कोई कहै—अतीतकाले इरियावहि सकषाइपण न बांध्यो अनैं तेरमा गुणठाणा रै छेहलै समये बांध छै अन अजोगीपणे न बांधस्यै, इम छट्ठो भांगो किम न हुवै ? तेहनो उत्तर-इम दूजो हुवै, पिण छट्ठो न हुदै, ते किम ? जिवारे सयोगी चरम समये बांधे, ते चरिम समय थकी पूर्व समये इरियावहि नों बंध कहीजै, पिण पूर्व समये अबंधक नहीं । इम दूजो भांगो हीज हुई पिण छट्ठो नहीं। १५५. नहि बांधियो फुन नथी बांधे, बांधस्यै इरियावही । शिवगमन योग्यज भाव छै, ते आश्रयी सप्तम सही ।। १५६. नहि बांधियो फुन नथी बांध, बांधस्यै पिण ए नहीं । शिव गति अयोग्य अभव्य छै, ते आश्रयी अष्टम मही॥ १५७. जे ग्रहण आकर्ष एक भव में, बोल तीनूइ लहै । ते आश्रयी भंग सप्त लाथै, भंग षष्टम शन्य है। सोरठा १५८ ग्रहणाकर्ष रै मांय, काल त्रिहं नैं पद विषे । बिचलै पद जे पाय, अठ भंगे कहिये हिवै ॥ १५६. बांधे तेरम माण, क्षीण-मोह ए द्वितीय भंग । धुर भंग ग्यारम ठाण, अथवा बारम तेरमें ।। १६०. न बंधै दशमें ठाण, उपशम थी पड़ ततीय भंग । न बंध चउदम जाण, क्षीण-मोह ए तुर्य भंग ॥ १६१. बंध पंचम भंग, ग्यारम अथवा बिहुं गुणे । षष्ठम शून्य प्रसंग, भव्य सप्तम अष्टम अभव्य । १५८. ग्रहणाकर्षापेक्षेषु पुनरेतेष्वेव (वृ० प० ३८७) १५६. प्रथमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो बा, द्वितीये तु केवली। (वृ० प० ३८७) १६०. तृतीये तूपशान्तमोहः, चतुर्थे शैलेशीगतः । (वृ० प० ३८७) १६१. पञ्चमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा, षष्ठः शून्यः, सप्तमे भव्यो भाविमोहोपशमो भाविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य इति । (वृ० प० ३८७) ४५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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