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________________ ३७. वणेण वा लछणेण वा मसेण वा तिलएण वा । (अणु० ५२०) ३७. श्वान हिड़कियो आदि, खाधा करिवू दाह नू । तेह वर्ण संवादि, मस लछन तिलकादि जे॥ ३८. तिण करि जाणे जेह, माहरू ए अंगज अछै । ते अनुमान करेह, निर्णय करियै तेहन् । ३६. शेषवत पंच भेदि, कार्य करि कारण करि । गण करिने संवेदि, अवयव करि आश्रय करि । ४०. कार्य करिने जाण, जाणे शंखज शब्द करि । भेरी ताडवै माण, धड़कवै करि वृषभ नै । २६. से कि त सेसव ? सेसव पचविहं पण्णत्त, त जहा-कज्जेण कारणेण गुणेणं अवयवेणं आसएणं । (अणु०५२१) ४०. से किं तं कज्जेणं ? कजण-संखं सद्देण, भेरि तालिएण, वसभ ढिकि एण। ८१. मोर केकाइएण, हयं हेसिएण, हत्थिं गुलगुवाइएण, रह घणघणाइएणं । से तं कज्जेणं (अण० ५२२) ८२. से कितं कारणेणं ? कारणेणं-तंतवो पडस कारण न पडो नतु कारण, ८३. वीरणा कडस्स कारणं न कडो वीरण कारण, ४१. मोर केकारव साज, हय हींसारव शब्द करि । गुलगुलाट गजराज, घणघणाट करि रथ प्रत।। ४२. कारण करिके सोय, पट नों कारण तांतूवा । पिण तांतव नों जोय, कारण पट-वस्तर नथी। ४३. इमहिज चटाई नाम, कट नों कारण वीरणा । पिण वीरण नों ताम, कारण नहि छै तेह कट ।। ४४. घट नों कारण देख, माटी नों जे पिंड छ । मत-पिड नों जे पेख, कारण नहि छै ते घडो ।। ४५. तोजो गण करि जाण, सुवर्ण रेखज कसवटी । दश वानी न मान, ए पंचवानी न सुबन्न ।। ४६. पुष्प गंध करि जान, शतपत्रादिक पुष्प ए । लवण रसे करि मान, विविध भेद जे लवण ना ।। ४७. आस्वादे करि सोय, ए मदिरा छै अमकडो । स्पर्श करो अवलोय, एह फलाणो वस्त्र छै ।। ४८. अवयव करि जाणेह, सींग देखवै महिष प्रति । शिखा देखवै लेह, कुकट प्रति जाणे बलि ।। ४६. दांते करि गज भूर, सूयर दाढाई करी । पांखे करो मयूर, खर देख्यां थो अश्व प्रति ।। ५०. नख करि बाघ विचार, वालाग्र धड करि चमरि प्रति । पूंछ देखवै धार, बंदर' छै इम जाणियै ।। ८४. मपिडो घटस्स कारण न घडो मपिडकारण । से तं कारणेण । (अणु० ५२३) ४५. से कि तं गुणेणं ? गुणेणं-सुवण्णं निकसेण, ४६. पुष्पं गंधेणं, लवणं रसेण, ४७. मइर आसाएण, वत्थ फासेण । से तं गुणेण । (अणु० ५२४) ४८. से कि तं अवयवेण ? अवयवेणं-महिसं सिगेण, कुक्कुड सिहाए, ४६. हत्थिं विसाणेण, वराह दाढाए, मोरं पिछेण, आस खुरेणं, ५०,५१. वग्घ नहेण, चमरि बालगुंछण, दुपय मणुस्स यादि, चउप्पयं गवमादि, बहुपयं गोम्हियादि, 'वानरं नंगुलेणं', १ यहां अणुओगद्दाराई में 'वालगुंछेणं' पाठ है। वालग्गेणं पाठ पाठान्तर में लिया २ मूलसूत्र में 'चमरिं वालगुंछेणं' के बाद 'दुपयं मणुस्सयादि' पाठ है । पाठान्तर में इसके स्थान पर 'वानरं नंगलेणं' पाठ है । जयाचार्य ने जोड़ में इसी क्रम को स्वीकार किया है। उन्हें उपलब्ध आदर्श में यही पाठ रहा होगा। इस जोड़ के सामने जो पाठ उद्धृत किया गया है वह वर्तमान में सम्पादित 'अणुओगदाराई' का पाठ है, इसलिए उसमें क्रम का व्यत्यय है। श०५, उ०४, ढाल ८३ ३७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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