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३८. इहां सहु नो देश-बंध ते,
जघन्य क्षल्लक भव हो ऊणी समया तीन । उत्कृष्ट थी जे यां तणी,
स्थिति उत्कृष्टी हो समय ऊण सुचीन ॥
क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषां वैक्रियशरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यतः औदारिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति।
(वृ० प० ४०१)
सोरठा ३६. अप वर्ष सात हजार, तेउ नी त्रिण दिवस निशि ।
वनस्पती नी धार, उत्कृष्ट स्थिति दश सहस्र वर्ष ॥
४०. बेंद्री द्वादश वास, तेंद्री गणपच्चास दिन ।
चउरिंद्री षट मास, ए उत्कृष्टी स्थिति कही। ४१. एक समय सर्व-बंध, तेह समय करि ऊण जे ।
देश-बंध स्थिति संध, ए उत्कृष्टपणे करी ।। ४२. *वलि जसु वैक्रिय तनु अछ, वाउकाय नै हो पंचेंद्री तिर्यंच । मनष्य तणे वैक्रिय वलि, जघन्य देश बंध हो समय एक सुसंच॥
सोरठा ४३. वैक्रिय करिनै ताय, वायु तिरि पं० मनुष्य ए।
औदारिक में आय, सर्व बंध पहिलै समय ।। ४४. वलि इक समय विचार, देश बंध रहिने मरै ।
इण न्याये अवधार, देश बंध इक समय स्थिति ।। ४५. *पंचेंद्री तिरि वायु मनुष्य नै,
स्थिति उत्कृष्टी हो देश बंध नी एम। स्थिति जिका छै जेहनी,
समय ऊणी हो कहिवी ए तेम ॥
३६. तत्रापां वर्षसहस्राणि सप्तोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसामहोरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां वर्षसहस्राणि दश,
(वृ० १०४०१) ४०. द्वीन्द्रियाणां द्वादशवर्षाणि त्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः।
(वृ० प० ४०१) ४१. तत एषां सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिर्भवतीति
(वृ० प० ४०१) ४२. जेसि पुण अत्थि वेउव्वियसरीरं तेसिं देसबंधो
जहण्णेणं एक्कं समयं, ते च वायवः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च,
(वृ० प० ४०१)
४५. उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायव्वा जाव
मणूस्साणं देसबंधे जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई समयूणाई। (श० ८।३७८)
सोरठा ४६. वायू तीन हजार, तिरि पंचेंद्रिय मनुष्य नीं।
तीन पल्य सुविचार, ए उत्कृष्टी स्थिति तम् ॥
४७. समय एक सर्व-बंध, तेह समय ऊणी जिका।
देश-बंध स्थिति संध, ए उत्कृष्टपणे करी॥ ४८. कह्यो औदारिक तास, प्रयोग बंध नों काल ए।
हिव तेहनोंज विमास, कहिये छै अंतर प्रति ॥ ४६. *औदारिक तन-बंध नों,
कितो आंतरो हो प्रभु ! काल थी होय ? *लय : वीर सुणो मोरी वीनती
४६. तत्र वायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थितिः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयम्,
(वृ० प० ४०१) ४७. इयं च स्थितिः सर्वबंधसमयोना उत्कृष्टतो देशबंधस्थितिरेषां भवति ।
(वृ० प० ४०१) ४८. उक्त औदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कालोऽथ तस्यवान्तरं निरूपयन्नाह
(वृ० प० ४०१) ४६. ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवच्चिरं
होइ ?
श० ५, उ०६, ढा० १५८ ४६९
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