SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थं आचार्य श्रीमज्जयाचार्य विलक्षण पुरुष थे । उन्होंने अपनी प्रज्ञा के द्वार खोले और ऊर्जा का भरपूर उपयोग किया । एक ओर संघ के अन्तरंग व्यवस्था पक्ष में क्रान्तिकारी परिवर्तन, दूसरी ओर साहित्य के आकाश में उन्मुक्त विहार । एक ओर प्रशासन, दूसरी ओर साहित्य सृजन । उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसे तत्त्व थे कि एक साथ कई मार्गों की यात्रा करने पर भी वे श्रान्त नहीं हुए। साहित्यिक यात्रा में तो उन्हें अपरिमित तोष मिलता था इसलिए छोटे-बड़े दार्शनिक व्यावहारिक, संदान्तिक संघीय किसी भी प्रसंग पर उनकी लेखनी बराबर चलती रहती थी। किशोर वय में उन्होंने लिखना शुरू किया । यौवन की दहलीज पर पांव रखने से पहले ही उनके लेखन में निखार आ गया । परिपक्वता बढ़ती गई और वे अपने युग में असाधारण शब्द -शिल्पियों की श्रेणी में आ गए । जयाचार्य की प्रत्येक रचना महत्त्वपूर्ण है । पर भगवती की जोड़' अद्भुत है। इसे गंभीरता से पढ़ा जाए तो पाठक आत्मविभोर हो जाता है । आचार्यश्री तुलसी के मन में तो इसका स्थान बहुत ही ऊंचा है । आपने समय-समय पर इसके सम्बन्ध में जो भावना व्यक्त की, उसका सारांश इस प्रकार है- मैं जब जब 'भगवती की जोड़' को देखता हूं, मेरा मन आह्लाद से भर उठता है । इसके अध्ययन, मनन और समीक्षण काल में कालबोध समाप्त हो जाता है । इसकी विशद व्याख्याएं और गहरी समीक्षाएं मन को पूरी तरह से बांध लेती हैं । ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को बार-बार प्रणाम करने की इच्छा होती है। इसके रचनाकार की अनूठी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्पशक्ति का चित्र तो इसके बृहत्तम आकार को देखते ही उभर आता है । कैसी थी उस महान् शब्द-शिल्पी की धृति, बुद्धि और वैचारिक स्थिरता । रचनाधर्मिता के प्रति संपूर्ण समर्पण बिना ऐसी कृतियों के सृजन की संभावना भी नहीं की जा सकती ।" . इतिहास का सृजन संसार में तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं— उत्तम, मध्यम और अधम । कुछ लोग काम की दुरूहता की कल्पना मात्र से आहत हो जाते हैं । वे किसी बड़े या महत्त्वपूर्ण काम का प्रारंभ भी नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति तीसरी श्रेणी में आते हैं । कुछ व्यक्ति इतने उत्साही होते हैं कि कोई भी नई योजना सामने आते ही उसकी क्रियान्विति में जुट जाते हैं । किन्तु विघ्न, बाधाओं की बौछार से वे विचलित हो जाते हैं और शुरू किए हुए काम को बीच में ही छोड़ देते हैं । ऐसे व्यक्ति मध्यम श्रेणी में आते हैं । उत्तम कोटि के व्यक्ति वे होते हैं, जो कठिन से कठिन काम को भी पूरे मन से सम्पादित करते हैं। प्रतिकूलताओं और बाधाओं से प्रताड़ित होकर भी जो अकम्प भाव से चलते रहते हैं, काम को पूरा करके ही विराम लेते हैं । जयाचार्य इस उत्तम श्रेणी के व्यक्ति थे । ' क्रियासिद्धिः सत्वे भवति साधन सामग्री से भी इतना काम कर गए कि इतिहास पुरुष बन गए। उन्होंने एक ऐसे इतिहास का सृजन किया है, जिसे दोहराना मुश्किल है। ऐसी आलोक रश्मि है, जो संस्कृत और प्राकृत भाषा नहीं जानने वाले लाखों-लाखों लोगों का मार्ग प्रशस्त कर रही है । महतां नोपकरणे' – इस उक्ति के अनुसार वे न्यूनतम भगवती सूत्र का राजस्थानी भाषा में पद्यात्मक भाष्य करके उनकी यह कृति साहित्य के क्षेत्र में कीर्तिमान ही नहीं है, एक 'भगवती की जोड़' का प्रथम खण्ड सम्पादित होकर मुद्रित हो चुका है । उसमें प्रथम चार शतक की जोड़ है । प्रस्तुत ग्रंथ उस श्रृंखला में दूसरा खण्ड है । इसमें भी चार शतक - पांचवें से लेकर आठवें तक, समाविष्ट हैं । प्रथम खण्ड की भांति इस खण्ड में भी जोड़ के सामने 'भगवती' के मूल पाठ और वृत्ति को उद्धृत किया गया है। कुछ स्थलों पर पादटिप्पण भी दिए गए हैं । यत्र-तत्र प्राप्त अन्य ग्रन्थों की सूचना के अनुसार उनके प्रमाण देने का प्रयत्न भी किया गया है। Jain Education International खण्ड की भगवती की सम्पूर्ण जोड़ को एक ही श्रृंखला में अनेक खण्डों में सम्पादित करके जनता तक पहुंचाने की योजना है। दूसरे पृष्ठ संख्या प्रथम खण्ड से कुछ अधिक है। एक ही सीरीज के सब खण्ड आकार-प्रकार में भी एकरूप होते तो इनका सौन्दर्य बढ़ता । किन्तु सौन्दर्य के लिए सत्य को विखण्डित करना भी उचित प्रतीत नहीं होता । मूल आगम में शतक छोटे-बड़े हैं । पृष्ठ संख्या में बांधकर उन्हें पूरी-अधूरी प्रस्तुति देने से रचनाकार और पाठक दोनों के साथ ही न्याय नहीं होता । इस दृष्टि से प्रत्येक खण्ड की पृष्ठ संख्या समान नहीं रह सकेगी। प्रस्तुत खण्ड के सभी शतक दस-दस उद्देशक वाले हैं। प्रत्येक शतक के प्रारंभ में संग्रहणी गाथा के आधार पर उसके प्रतिपाद्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy