________________
(१०) का संकेत दे दिया गया है । संग्रहणी गाथा को जोड़ भी कितनी मूलस्पर्शी है
चम्पा रवी उदस्थ, पवन जाल ग्रंथिक बलि । चंप-रवि अनिल गंठिय, सद्दे छउमाउ एयण नियंठे । शब्द विषय छद्मस्थ, आयू पुद्गल कंपवो ॥ रायगिहं चंपा-चंदिमा य, दस पंचमम्मि सए। निग्रंथ पुत्र अनगार, किणन कहिये राजगृह' । चंपा चंद्र विचार, दस उदेश पंचम शते । XXX-- -----------xxx पुगदल नुं पहलू का, आशीविष नों जाण । पोग्गल आसीविस रुक्ख किरिय, आजीव फासुक मदत्ते । वृक्ष तणो तीजो अख्यो, घउथो क्रिया बखाण ॥ पडिणीय बंध आराहणा य, दस अट्ठमंमि सते॥ आजीवका नो पांचमो, छट्ठो प्रासुक दान । अदत्त विचारण सप्तमो, प्रत्यनीक पहचान । नवमों बंध तणों कह्यो, आराधना नो अर्थ ।
उद्देशक दस आखिया, अष्टम शते तदर्थ ॥ गुजराती का प्रभाव
जयाचार्य की भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। जयाचार्य न तो गुजरातीभाषी थे और न ही कभी गुजरात उनका विहार क्षेत्र रहा । फिर भी उनकी रचनाओं पर गुजराती का प्रभाव सहेतुक है। आचार्य भिक्षु ने आगमों का अध्ययन टबों के आधार पर किया था । जयाचार्य के अध्ययन का क्रम भी यही था । आगमों के टबों की भाषा गुजराती है । आचार्य भिक्षु ने उस भाषा को नहीं पकड़ा। फलतः उनका साहित्य शुद्ध मारवाड़ी बोली में है। जयाचार्य अपनी ग्रहणशीलता को यहां भी छोड़ नहीं सके। इस कारण उनकी भाषा गुजराती मिश्रित हो गई ।
भगवती की जोड़ में किसी भी ढाल की रचना पर गुजराती का प्रभाव ज्ञात किया जा सकता है, पर वहां प्रवाह में बहुत साफ-साफ परिलक्षित नहीं होता। जोड़ के मध्य जहां-जहां वार्तिकाएं लिखी हुई हैं, उन्हें पढ़ने से प्रतीत होता है कि जयाचार्य की रचनाओं में अनायास ही गुजराती भाषा के प्रयोगों की बहुलता है । बहुश्रतता के साक्ष्य
जयाचार्य बहुश्रुत आचार्य थे। उन्होंने शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। विदेशी संस्कृति में उस व्यक्ति को विशिष्ट माना जाता है, जो अपना जीवन यायावरी में नियोजित कर देता है । भारतीय संस्कृति में 'वेल ट्रेवेल्ड' के स्थान पर 'वेल लर्नेड' व्यक्ति को महत्त्वपूर्ण माना गया है । 'वेल लर्नेड' का ही अर्थ है बहुश्रुत । बहुश्रुत शब्द का एक अर्थ यह भी हो सकता है जिसने बहुत सुना है, वह बहुश्रुत । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह अर्थ असंगत नहीं है, किन्तु 'बहुश्रुत' शब्द की प्रवृत्ति उक्त अर्थ का बोध नहीं देती है। इसलिए इसका प्रचलित अर्थ ही मान्य होना चाहिए। उसके अनुसार बहुश्रुत वह होता है जो अपने और दूसरे सम्प्रदायों के शास्त्रों का पारगामी विद्वान् होता है।
जयाचार्य की बहुश्रुतता का साक्ष्य उनकी अपनी रचनाएं हैं। जहां कहीं किसी बात को प्रमाणित करने के लिए उन्हें साक्षी रूप में आगम पाठ उद्धृत करने की अपेक्षा हुई, एक ही प्रसंग में दसों आगमों को प्रस्तुत कर दिया। कहीं-कहीं तो ऐसा प्रतीत होता है मानों सब आगम उनकी आंखों के सामने अंकित थे।
पांचवे शतक में अतिमुक्तक मुनि की दीक्षा का प्रसंग है। वहां वृत्तिकार ने छह वर्ष की अवस्था में उनकी दीक्षा का उल्लेख किया है । यह तथ्य आगम सम्मत नहीं है । आगमों में यत्र-तत्र सातिरेक आठ वर्ष की अवस्था को दीक्षा के लिए उचित ठहराया गया है । इस सन्दर्भ में जयाचार्य ने व्यवहार', भगवती, उत्तराध्ययन और औपपातिक सूत्रों के प्रमाण देकर वृत्तिकार के मत का निरसन किया है१.पृ० १, ढा०७४।२,३ । २.पृ० ३०२, ढा० १३०१४-६ । ३-६. पृ० २८, ढा० ८१, गा०४-७ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org