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________________ आठ वर्ष ऊणा भणी, दीक्षा कल्पै नांहि । आठ वर्ष जाझे चरण, ववहार दसमा मांहि ॥ असोच्चा केवली तणों, आयू जघन्य कहेस । आठ वर्ष जाझो भगवती, नवम इकतीसमुद्देश ।। शुक्ल लेश उत्कृष्ट स्थिति, ऊणी नव वर्षेण । पूर्व कोड उत्तरज्झयण, चोतीसम अज्झेण ॥ आऊ आठ वरस अधिक, शिवपद पामै ताम । सूत्र उववाई में कह्यो, इत्यादिक बहु ठाम । वृत्तिकार के अभिमत से अपनी असहमति प्रकट करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिख दिया तिण कारण टीका मझे, अइमुत्त नां षट् वास । आख्या तेह विरुद्ध छै, समय वचन थी तास ।। इस गाथा से आगे की आठ गाथाओं में उक्त तथ्य की समीक्षा करते हुए जयाचार्य ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि यदि छह वर्ष में दीक्षा हो सकती तो इसी अवस्था में केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्ति की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता। शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख मिलता नहीं है। इसलिए दीक्षा का कल्प आठ वर्ष से कुछ अधिक होने पर ही मान्य किया गया है। जयाचार्य को जहां कहीं वृत्तिकार का अभिमत ठीक नहीं लगा, उन्होंने विस्तार के साथ उसकी समीक्षा कर दी। समीक्षा के लिए उन्होंने दो प्रकार की शैली काम में ली-१. पद्यात्मक और गद्यात्मक । पद्य शैली में की गई समीक्षा की भांति वार्तिका नाम से गद्यशैली की कई समीक्षाएं काफी विस्तृत और गंभीर हैं। आठवें शतक में ज्ञान और अज्ञान के प्रसंग में अज्ञान के तीन प्रकारों का उल्लेख हुआ है-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान । विभंगज्ञान का अर्थ करते हुए वृत्तिकार ने लिखा-विरुद्धा भंगा-वस्तुविकल्पा यस्मिस्तद्विभङ्ग... अथवा विरूपो भंग:अवधिभेदो विभङ्ग १.... ।' जयाचार्य ने विभंगज्ञान का अर्थ विरुद्ध विकल्पों वाला ज्ञान स्वीकृत नहीं किया । अपने अभिमत को विस्तार से प्रस्तुति देने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी वातिका' लिखी है। उसका निष्कर्ष यह है कि अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में वस्तूबोध की दृष्टि से अन्तर नहीं है। इनमें अन्तर है पात्रता का। सम्यक् दृष्टि का जो अतीन्द्रिय ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है, वही मिथ्यात्व के योग से विभंगज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के पृ० ३१६ पर गद्यात्मक वार्तिका में वृत्तिकार के अभिमत की विस्तृत समीक्षा की गई है। उसे पढने से ऐसा लगता है कि जयाचार्य एक तटस्थ और निर्भीक समीक्षक थे। उनकी सभी समीक्षाएं ज्ञान चेतना के आवत द्वारों को खोलने वाली हैं। इसी क्रम में शतक ८, ढाल १५२ में परीषह-वर्णन का प्रसंग लिया जा सकता है। उक्त ढाल की गाथा ७३ से ५८ तक जयाचार्य ने वृत्तिकार का मत उद्धृत किया है उसके बाद उन्होंने उक्त मन्तव्य की यथार्थता को स्वीकारने या नकारने का दायित्व पाठकों को देते हुए लिख दिया ए सगलो विस्तार, टीका मांहे आखियो। बुद्धिवंत न्याय विचार, मिलतो हुवै ते मानिय' । इस पद्य के बाद एक लम्बी वातिका लिखकर आपने पाठकों को चिन्तन करने का पर्याप्त अवकाश दे दिया। ऐसे अनेक स्थल हैं, जो जयाचार्य की बहुश्रुतता और अनाग्रही वृत्ति के उदाहरण बन सकते हैं। भगवती की जोड़ का सृजन करते समय जयाचार्य को मूल ग्रंथ से सम्बन्धित जितनी सामग्री मिली, उसका उन्होंने मुक्त मन १.३०प० ३४४ । २. पृ० ३३८-३४०, ढा० १३४ । ३ पृ०४६४, ढा० १५२, गा० ८६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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