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से उपयोग किया है। उस सामग्री में मूल सूत्र की वृत्ति तो है ही, उसके साथ मुनि धर्मसी के यन्त्र या टबों और बृहत् टबे का भी स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है
को धर्मसी ताहि भवनपति विगलिदिया। तिरि पंचेन्द्री मांहि, मनुष्य व्यंतर ज्योतिषि ।।
धर्मसी का यंत्र, टबा और बृहत् टबा आदि अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं। जयाचार्य को वे ग्रंथ कहां से मिले और उनके द्वारा काम में लिए जाने के बाद वे अप्राप्त कैसे हो गए ? इस सम्बन्ध में अन्वेषण की अपेक्षा है ।
पूर्व भवे अबन्ध, बन्धे छे गुण ग्यारमें । बन्धस्यै त्रिहुं गुण संध, पंचम भंगे धर्मसी ॥ बृहत् टबे इम वाय, शंका त्रस उत्पत्ति तणी । वृत्ति पण भांजी नांव जिन भावं तेहीज सत्य ॥
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मननीय स्थल : समोक्षाएं
"भगवती की जोड़" भगवती सूत्र का पद्यात्मक अनुवाद मात्र नहीं है । इसकी रचना शैली के आधार पर इसे "भगवती” का भाष्य कहा जा सकता है । जयाचार्य ने सूत्रकार, वृत्तिकार तथा सम्बन्धित प्रसंगों पर अन्य आचार्यों के अभिमत का अनुवाद तो पूरी दक्षता के साथ किया ही है, उसके साथ प्रत्येक विवादास्पद विषय पर अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षाएं लिखी हैं । समीक्षाएं पद्य और गद्य दोनों शैलियों में लिखी गई हैं । प्रत्येक समीक्षा मनन पूर्वक पठनीय है। उनके सम्बन्ध में कुछ सूचनाएं
"श्रावक की आत्मा सामायिक में भी अधिकरण है" आचार्य भिक्ष द्वारा मान्य इस सिद्धान्त की पुष्टि में १११ वीं ढाल में लम्बी समीक्षा है ।*
मिथ्यावी मोक्ष का देश आराधक है । उसकी करणी भी निरवद्य हो सकती है। मिथ्यात्वी के प्रत्याख्यान को दुष्प्रत्याख्यान माना गया है, यह संवर धर्म की अपेक्षा से है, निर्जरा धर्म की अपेक्षा से नहीं । इस सम्बन्ध में ११५ वीं ढाल में बहुत अच्छी समीक्षा है ।
विपरीत
प्राण, भूत, जीव और सत्व को दुःख न देने से साता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है, यह कथन आगमानुमोदित है । इसके कुछ लोग सुख 'देने से साता वेदनीय कर्म का बन्ध मानते हैं । इस सन्दर्भ में ११८ वीं ढाल में समीक्षा लिखी गई है ।" न्याय का मिलान
भगवती सूत्र में कुछ स्थल ऐसे हैं, जहां तथ्यों का संकेत मात्र है अथवा संक्षेप में वर्णन किया गया है। वहां पाठक के सामने कठिनाई उपस्थित हो सकती है। पर जयाचार्य ने अनेक स्थानों पर यौक्तिक ढंग से उन तथ्यों को विश्लेषित कर दिया है। पांचवें शतक की ६७ वीं ढाल की कुछ गाथाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है
मूल पाठ के आधार पर वहां जोड़ की एक गाथा है
५. पृ० २२८, ढा० ६. पृ० २५३, ढा०
इस गाथा में अस्पष्ट तथ्य को स्पष्ट करते हुए जयाचार्य ने लिखा है
चदश गुणठाण, अल्पवेदना तसु कही । बहुलपण करि जाण, एहवं न्याय जणाय छै ।।
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सेलेसी मुनि मोटका, चउदसमें गुणठाणे । अल्पवेदनात ते महानिर्जरा माणे ॥
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१. पृ० १७२, ढा० १०५ गा० ४५ ।
२. पृ० ४४७, ढा० १५०, गा० १०१ ।
३. पृ० १६२, ढा०
४. पृ० २०८, ढा०
१०३, गा० ७८ । १११, गा० ३६ - ६८ । ११५, गा० १६-२६ । ११८, गा० ७४-८२ ।
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