SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३७. *भाषा मन पर्याप्ति में, सन्नी जिम कहिवाय । सर्व पदे भंग तीन छै, दंडक पंचेंद्री पाय ॥ यतनी २३८. भाषा मन पर्याप्ति एक, किणहि कारण थी सुविशेख । बहुश्रुत कही छै ताय, इम वृत्ति विष छै वाय ।। २३७. भासा-मणपज्जत्तीए जहा सपणी। सर्वपदेषु भङ्गकत्रयमित्यर्थः, पञ्चेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि, (वृ० प० २६५) २३८. इह भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामन:पर्याप्तिः, भाषा मनःपर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, (वृ० प० २६५). २३६. आहार-अपज्जत्तीए जहा अणाहारगा, २३६. *आहार अपर्याप्ति विषे, अनाहारका जेम। निर्णय वृत्ति विषे कह्यो, सुणज्यो धर प्रेम ।। यतनी २४०. जीव एकेंद्री इक भंग एसा, बहु सप्रदेशा अप्रदेशा । निरंतर विग्रहगति बहु पाय, शेष में षट भंगा कहाय ।। २४०. इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशा श्चेत्येक एव भङ्गकोऽनवरतं विग्रहगतिमतामाहारपर्याप्तिमतां बहूनां लाभात्, शेषेषु च षड्भङ्गाः पूर्वोक्ता एवाहारपर्याप्तिमतामल्पत्वात्, (वृ० प० २६६) २४१. सरीर-अपज्जत्तीए, इंदिय-अपज्जत्तीए, आणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, (वृ० प० २६६) २४२. नेरइय-देव-मणुएहि छन्भंगा, २४१. *शरीर इन्द्री आणपाण ए, अपर्याप्ति त्रिहं जाण । जीव एकेंद्रिय वर्ज नै, भंग तीन पहिछाण ॥ २४२. नारक देव मनुष्य विषे, षट भांगा होय । न्याय कहूं हिव वृत्ति थी, सुणज्यो सहु कोय । यतनी २४३. जीव एकेंद्री में भंग एक, सप्रदेशा अप्रदेशा देख । अन्य विषे भंग त्रिण पाय, तिण रो न्याय सूणो चित ल्याय ।। २४४. शरीरादि अपर्याप्ति तीन, काल थी सप्रदेशा सुचीन । सदा काल लाभ छै ताय, अप्रदेशा कदाचित थाय ।। २४५. तिके एक आदि पिण पाय, तिण सं तीन भांगा कहिवाय । बले नारकी सुर नर मांहि, षट भांगा कहीजै ताहि ॥ २४६. *भाषा मन अपर्याप्ति विषे, जीवादिक त्रिण भंग । नारक सुर अरु मनुष्य में, षट भंग प्रसंग ॥ यतनी २४७. भाषा मन पर्याप्ति अबंध, तेह अपर्याप्ति नी संध। पंचेंद्रिय जाति प्रसंग, तिण सं जीवादिक विण भंग ॥ २४३. इह जीवेष्वेकेन्द्रियेषु चैक एव भङ्गोऽन्यत्र तु त्रयं, (वृ० प० २६६) २४४, २४५. शरीराद्यपर्याप्तकानां कालतः सप्रदेशानां सदैव लाभात् अप्रदेशानां च कदाचिदेकादीनां च लाभात्, नारकदेवमनुष्येषु च पडेवेति, (वृ० प० २६६) २४६. भासामणअपज्जत्तीए जीवादिओ तियभंगो, नेरइयदेव-मणुएहि छन्भंगा। (श० ६।६३) २४७. भाषामनःपर्याप्त्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पंचेन्द्रिया एव, (वृ० प० २६६) *लय : प्रभवो मन मांहे चितवै १५२ भगवती-जोड़ Jain Education International Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy