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________________ २१. छविच्छेदं वा करेइ ? णो तिणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । (श० ८।२२३) २१. अथवा जीव नीं चामड़ी, तेहनो छेदज होयो ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, करण समर्थ न कोयो।। २२. जीव तणां प्रदेश में, शस्त्र अग्न्यादिक जाणी। संक्रमै नहीं निश्चै करी, वारू ए जिन वाणी।। सोरठा २३. कच्छप प्रमुख जीव, तेह तणो अधिकार जे । पूर्वे कह्य अतीव, प्रदेश नी श्रेणी करी॥ २४. जंतु उत्पत्ति खेत, रत्नप्रभादिक ने हिवै। चरिमाचरिम कहेत, विभाग देखाड़ण अरथ ॥ २५. *पृथ्वी कही प्रभु ! केतली, जिन कहै पृथ्वी आठो। रत्नप्रभा जाव सातमी, इसिपब्भारा सुघाटो॥ २३,२४. कूर्मादिजीवाधिकारात्तदुत्पत्तिक्षेत्रस्य रत्नप्रभादेश चरमाचरमविभागदर्शनायाह- (वृ०प० ३६५) २६. रत्नप्रभा पृथ्वी प्रभु ! स्यू चरिमा के अचरिमा ? चरम पद दशमों कह्यो, सर्व विस्तारज वरिमा ॥ ___वा०—पृथ्वी स्यूं एक वचने चरिम छै—-पर्यंतत्ति छै—चरमशरीरवत छ ? के एक वचने अचरिम छै—मध्यवर्ती छै? कै ते पृथ्वी नां तथाविध एकत्व परिणाम रूप द्रव्य चरिम-पर्यंतवति सर्व छै कै अचरिम सर्व मध्यवर्ती छ ? ए बे प्रश्न बहुवचनांत जाणिवा । कै चरिमांत-प्रदेश छ ? के अचरिमांत-प्रदेश छ ? ए बे प्रश्न पृथ्वी प्रदेशाश्रयी बहुवचनांत जाणवा । हे गोतम ! ए रत्नप्रभा पृथ्वी चरिम-अंत्यवर्ती नथी। कोइक वस्तु नीं अपेक्षाई चरिम, अचरिम कहिवाइ। पिण अपेक्षा बिना काइ कहिवाइ नहीं। अने इहां तो अपेक्षा रहित केवल रत्नप्रभा पृथ्वी नुं प्रश्न पूछ्यूँ छ, ते माटै चरिमा नहीं । तिम इणज' युक्ते अचरिम.....मध्यवर्ती पिण नहीं । तिम रत्नप्रभा पृथ्वी नैं विष तथाविध एकत्व परिणाम रूप बहु वचने घणां द्रव्य छ, ते पिण सर्व चरिम---- अंत्यवर्ती नथी, अपेक्षा रहित माट। तिम अचरिम-मध्यवर्ती पिण नथी, अपेक्षा रहित माटै । तिम ते पृथ्वी नां प्रदेश असंख्याता छ, ते प्रदेश पिण चरिमअंत्यत्ति नथी, पृथ्वी अपेक्षा रहित माटै । तेहनां प्रदेश नुं प्रश्न पिण अपेक्षा रहित केवल पूछ्यूं छै, ते माटै । तिम इणिज युक्त ए पृथ्वी अचरिमांत प्रदेशे पिण नथी, कल्पना नां असंभव माट। तो हिवै ए रत्नप्रभा पृथ्वी कहवी छ ? ते कहै छै—निश्चज एक वचने अचरिम अनै बहु वचने चरिम-अंत्यत्ति छै । ते किम तेहनो स्थापना यंत्र ए आकारे छै.. २५. कइ णं भंते ! पुढ़वीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ पुढ़वीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा ईसीपब्भारा । (श० ८।२२४) २६. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढ़वी कि चरिमा ? अचरिमा ? चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं, वा०-"इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढ़वी कि चरिमा अचरिमा ? चरिमाई अचरिमाइं? चरिमंतपएसा अचरिमंतपएसा? तत्र किं चरिमा अचरिमा ? इत्येकवचनांतः प्रश्नः 'चरिमाइं अचरिमाइं' इति बहुवचनांतः प्रश्नः । ‘गोयमा ! नो चरिमा नो अचरिमा' चरमत्वं ह्येतदापेक्षिकं, अपेक्षणीयस्याभावाच्च कथं चरिमा भविष्यति ? अचरमत्वमप्यपेक्षयैव भवति ततः कथमन्यस्यापेक्षणीयस्याभावेऽचरमत्वं भवति ? यदि हि रत्नप्रभाया मध्येऽन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्याश्चरमत्वं युज्यते, न चास्ति सा, तस्मान्न चरमासौ, तथा यदि तस्या बाह्यतोऽन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्या अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमाऽसाविति.... कि तहि नियमात् नियमेनाचरमं च चरमाणि च । | च । अच । *लय : सल कोई मत राखजो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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