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________________ ११. इम जाव वैमानिक लग कहिवो, नारकादिक ने संज्ञा रहिवो। ११. एवं जाव वेमाणियाणं। (श० ७.१६०) तस संज्ञा सत्र हिवै आणी। नारकादयश्च सजिन इति सञ्ज्ञा आह----- (वृ०प०३१४) १२. केतली प्रभु ! संज्ञा' भाखी, जिन भाखै दश संज्ञा दाखी। १२. कति णं भंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ? आहार भय मिथुन परिग्रह जाणी॥ गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहार सण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, १३. क्रोध मान माया नै लोभ वली, ओघ संज्ञा--दर्शनोपयोग मिली। १३. कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगज्ञानोपयोग लोक संज्ञा माणी॥ सण्णा, ओहसण्णा'। ततश्चौधसज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसञ्ज्ञा तु ज्ञानोपयोग इति । (वृ० ५० ३१४) १४. नवमी लोक संज्ञा अन्य गणि भाखै, ओघ संज्ञा नै दशमी दाखै। १४. व्यत्ययं त्वन्ये । (वृ० प० ३१४) एहवी वृत्तिकार कहि छै वाणी। १५. फून अन्य आचारज इम आखे, ओघ संज्ञा सामान्य प्रवृत्ति दाखै। लोक संज्ञा लोक दृष्टी ठाणी॥ १६. इम जाव विमानिक नै कहिवी, दश संज्ञा सर्व दंडक लहिवी। प्रवर प्रभू वच पहिछाणी ॥ १५. अन्ये पुनरित्थमभिदधति-सामान्यप्रवृत्तिरोघसज्ञा लोकदृष्टिस्तु लोकसञ्जा। (वृ० प० ३१४) १६. एवं जाव वेमाणियाणं । (श० ७।१६१) १. जयाचार्य ने वृत्तिकार द्वारा व्याख्यात पाठ के क्रम से जोड़ लिखी है तथा अन्य आचार्यों का मत प्रदर्शित करते हुए पहले लोक संज्ञा और बाद में ओघ संज्ञा होने का निर्देश किया है। अंग सुत्ताणि (भाग २ श०७।१६१) में वृत्तिकार के 'व्यत्ययं त्वन्ये'-अन्य आचार्यों द्वारा सम्मत पाठ को ही मान्य किया है। इसलिए जोड़ के सामने जो पाठ उद्धृत है, उसमें नौवीं एवं दशवीं संज्ञा के नामों में विपर्यय है। १. संसार के बहसंख्यक प्राणियों में पाई जाने वाली एक विशेष प्रकार की वृत्ति का नाम संज्ञा है । संज्ञा की अनेक परिभाषाएं हो सकती हैं, उनमें से कुछ परिभाषाएं ये हैं• जिससे जाना जाता है, संवेदन किया जाता है, वह संज्ञा है। • मानसिक ज्ञान अथवा समनस्कता का नाम संज्ञा है । • भौतिक वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु के संरक्षण की व्यक्त अथवा अव्यक्त अभिलाषा का नाम संज्ञा है। • वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी में आहार आदि की प्राप्ति के लिए जो स्पष्ट या अस्पष्ट व्यग्रता अथवा सक्रियता रहती है, वह संज्ञा है। • मनोविज्ञान की भाषा में प्राणी जगत् की जो मूल वृत्तियां हैं, उन्हीं को जैन सिद्धान्त संज्ञा के रूप में प्रतिपादित करता है। ज्ञान, संवेदन, अभिलाषा, चित्त की व्यग्रता या मूल वृत्ति किसी भी शब्द का प्रयोग हो, वह जैन दर्शन में संज्ञा कहलाती है। भगवती ७।१६१ में उसके दस प्रकार बतलाए हैं । दस संज्ञाओं में आठ संज्ञाएं ऐसी हैं, जो अपने नाम से ही अपने स्वरूप का बोध करा देती हैं । शेष दो संज्ञा-लोक संज्ञा और ओघ संज्ञा का स्वरूप उनकी परिभाषा से स्पष्ट होता है । ___ लोक संज्ञा वैयक्तिक चेतना की प्रतीक है और ओघ संज्ञा सामुदायिक चेतना की । भगवती में सामान्य प्रवृत्ति को ओघ संज्ञा और लोक दृष्टि को लोक संज्ञा कहा गया है। संज्ञा के दस प्रकारों में प्रथम आठ संज्ञाओं को संवेगात्मक और अंतिम दो संज्ञाओं को ज्ञानात्मक माना गया है। श०७, उ०८, ढा० १२३ २७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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