SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 531
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७. असुरकुमार ने नागकुमार, यावत सुर सहसार । रत्नप्रभा जिम कहिवो संपेख, णवरं इतरो विशेख ॥ ६८. सर्व-बंध नों अंतर एह, जेहनी जघन्य स्थिति जेह । अंतर्मुहूर्त अधिक कहेव, शेष विस्तार तं चेव ॥ ६७. असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं-एएसि जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं, नवरं६८. सब्वबंधंतरं जस्स जा ठिती जहणिया सा अंतोमुहुत्त मब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव। (श० ८।४००) सोरठा ६६. असुर जाव सहसार, सुर उत्पत्ति पहिलै समय । सर्व-बंध अवधार, जघन्य स्थिति निज भोगवी ॥ ७०. तिरि-पंचेंद्री मांय, अंतर्मुहर्त भव करी । मर त्यां उपजै आय, सर्व-बंध वलि ते हुवो ॥ ७१. इम वैक्रिय नों तास, सर्व बंधंतर जघन्य थी । तसु स्थिति जघन्य विमास, अंतर्मुहर्त अधिक इम ॥ ६६. असुरकुमारादयस्तु सहस्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वा स्वकीयां च जघन्यस्थितिमनुपाल्य (वृ० प० ४०८) ७०. पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्येनान्तमहूर्त्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका जाता: (वृ० प० ४०८) ७१. एवं च तेषां वैक्रियस्य जघन्यं सर्वबन्धान्तरं जघन्या तत्स्थितिरन्तर्महाधिका वक्तव्या, . (वृ० प० ४०८) ७२. तत्र जघन्या स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यन्तराणां च दशवर्षसहस्राणि (वृ० प० ४०८) ७३-७५. ज्योतिष्काणां पल्योपमाष्टभागः सौधर्मादिषु तु 'पलियमहियं दो सार साहिया सत्त दस य चोद्दस य सत्तरस य' इत्यादि। (वृ० प० ४०८) ७२. असुरादिक नी जोय, जघन्य स्थिति ओलखावियै । वर्ष सहस्र दस होय, भवनपती व्यंतर तणी॥ ७३. देव जोतिषि मांहि, भाग आठमों पल्य तणो । सौधर्म स्वर्गे ताहि, जघन्य स्थिति छ एक पल्य ॥ ७४. साधिक पल्ल ईशाण, सणंतकूमारे बे उदधि । महेन्द्र कल्पे माण, सागर बे जाझी कही। ७५. ब्रह्म सप्त दधि सार, दस सागर लंतक विषे । महाशुक्र दस च्यार, अष्टम सतरै जघन्य स्थिति ॥ ७६. जघन्य स्थिति ए जोय, अंतर्मुहुर्त अधिक ही । जघन्य थकी अवलोय, सर्व-बंध नों अंतरो॥ ७७. उत्कृष्ट-काल अनंत, न्याय पूर्ववत जाणवू । श्री जिन वचन सोहंत, शंका मूल म आणवू ॥ ७८. *हे भगवंत ! जीव जे ताहि, आनत सुरपणे थाइ । नोआनत थइ वलि सुर आनत, अंतर कितो कहावत ? ७६. जिन कहै सागर अठारै तास, अधिका है पृथक वास । उत्कृष्ट काल अनंत प्रसिद्धा, वनस्पति नों अद्धा ॥ सोरठा ८०. आनत कल्पे देव, ऊपजतां पहिलै समय। ए सर्व-बंध कहेब, उदधि अठार तिहां रही। ८१. चवी मनुष्य में आय, आयु पृथक-वर्ष रही। वलि आनत सुर थाय, सर्व-बंध पहिलै समय । ७७. उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, यथा रत्नप्रभानारकाणामिति (वृ० १०४०८) ७८. जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते, नोआणयदेवत्ते पुणरवि आणयदेवत्ते पुच्छा। ७६. गोयमा ! सव्वबंधतरं जहणणं अट्ठारससागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालंवणस्सइकालो। ८०. आनतकल्पीयो देव उत्पत्तौ सर्वबन्धकः, स चाष्टादश सागरोपमाणि तत्र स्थित्वा (वृ० १० ४०८) ८१. ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवो त्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धकः (वृ० ५० ४०८) *लय : समभू नर विरला श०५, २०६, दा० १६१ ५११ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy