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१६६. बीस कोड़ाकोड़ सागर तणो, कालचक्र हो एक हवच सत्त। १६६. ता अवप्पिण्युत्सप्पिण्योऽनन्ता: पुद्गलपरावर्तः कालचक्र अनंता तणो, एक होवै हो पुद्गलपरावत्त ॥
(वृ० ५० ४०३)
१६७. हिवै पुद्गलपरावर्त्त नों, असंख्याता नों जान । १६७. पुद्गलपरावर्तानामेवासंख्यातत्वनियमनायाहनियम प्रमाण कहै हिवै, जिन बच अमिय समान ।
(वृ० प० ४०३) १६८. *आवलिका में भाग असंख्यातमो,
१६८. ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो। .
असंख्याता हो समया जे दृष्ट । असंख्यातसमयसमुदायश्चावलिकेति पुद्गलपरावर्त्त एतला, सर्व-बंध नों हो अंतर उत्कृष्ट ।
(वृ० प० ४०३) १६६. देश-बंध नों अंतरो,
१६६. देसबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, जघन्य क्षुल्लक भव हो समय अधिक ए माग । उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइउत्कृष्ट काल अनंत नों, जाव आवलिका हो असंख्यातमें भाग।। भागो।
सोरठा १७०. पृथ्वीकायिक ताहि, देश-बंध करतो मरी। १७०. पृथिवीकायिको देशबंधकः सन्मृतो नोपृथिवीकायिकेषु नोपृथ्वी रै मांहि, खुड्डाग भव जीवी मओ। क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः सन् ।
(वृ० ५० ४०३) १७१. वली अविग्रह संध, पृथ्वी विषेज ऊपनों। १७१. पुनरविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः, तत्र च सर्व
- प्रथम समय सर्व-बंध, देश-बंध द्वितीय समय ॥ बन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः (वृ० ५० ४०३) - १७२. सर्व-बंध नो जेह, एक समय ते अधिक ए। १७२. एवं च सर्वबन्धसमयेनाधिकमेकं क्षुल्लकभवग्रहणं
क्षल्लक भवे करि तेह, जघन्य देश बंध अंतरो॥ देशबन्धयोरन्तरमिति । (वृ० प० ४०३) १७३. *जिम कडा पृथ्वीकाइया,
१७३. जहा पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइयवज्जाणं इमहिज कहिव हो वनस्पति वर्जी जाण । जाव मणुस्साणं। जाव मनुष्य नां दंडक लगे,
वनस्पति र्नु हो भेद जुदो हिव आण ॥ १७४. वनस्पति नै जघन्य थी, सर्व बंधंतर हो दोय क्षल्लक भव होय। १७४. वणस्सइकाइयाणं दोण्णि खुड्डाई एवं चेव, एवं चेव ए पाठ थी, तीन समय करि हो ऊणो अवलोय ॥ एवं चेव' त्ति करणात् त्रिसमयोने इति दृश्यम्
(वृ० प० ४०४) सोरठा १७५. तीन समय नी ताहि, विग्रह गति करि जीवड़ो। १७५. वनस्पतिकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पन्नः वनस्पती रै मांहि, आवी – उपनो तदा।।
(व०प० ४०४) १७६.धर बे समया संध, अनाहारक नां जाणवा । १७६. तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीये समये च तृतीय समय सर्व-बंध, खड्डाग भव जीवी करी॥
सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा।
(वृ० प० ४०४) १७७. वलि पृथव्यादिक मांहि, खुड्डाग भव रहिनै वलि । १७७. पुनः पृथिव्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरवि- अविग्रह करि ताहि, वनस्पती में ऊपनो॥
ग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः (वृ०प०४०४)
*लय : वीर सुणो मोरी वीनती
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भगवती-जोड़.
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