________________
३६. रायप्रश्रेणी में कला, भेद कह्या,
ज्ञान नां जाण । तिमहिज इहां भणवा सहु, यावत केवलनाण ॥
३७. कतिविध प्रभु ! अज्ञान से ? जिन कहे तीन प्रकार । मति अरु श्रुत अज्ञान छे, विभंगनाण
अवधार ॥
वा०विभंग नाग ए पाठ नो अर्थवृत्ति में विषे तथा विरूप अवधि नों भेद ते विभंग । इम अकार करी विभंग ज्ञान का, ते अर्थ मिलतुं नथी । विभंग तो अयोगवार (सू० २०५) में क्षयोपशम भाव कह्यो है, ते उज्जल जीव छे' तेहनां विरुद्ध भांगा नथी । वले अवधिज्ञान अनैं विभंग नुं दर्शण एक छे, ते मार्ट ए विरुद्ध नथी । अनं विरूप पिण नथी । विभंग विरुद्ध हुवै तो ए विभंग नो दर्शन अवधि ते पण विरुद्ध विरूप हुवै। अनैं जो अवधि-दर्शन विरुद्ध विरूप हुवै तो अवधि ज्ञान नों पिण एहिज दर्शन छै, ते भणी अवधि ज्ञान पिण विरुद्ध विरूप हम अवधिज्ञान विरुद्ध विरूप नहीं तो अवधि दर्शन अनं विभंग अज्ञान ए विरुद्ध विरूप नहीं ।
?
तेहनों उत्तर
-
जद कोई पूछे – ए विरुद्ध नहीं तो विभंग नों अर्थ स्यूं इहांइज लद्धी में क ु - विभंग नाणे कतिविधे ? जद भगवान कहै- - अनेकविध । ते भणी विविधा मंगा जेहने विषे ते विभंग इम अर्थ संभव, ते विरुद्ध गंगा गो अर्थ न संभव | जद कोइ पूछें — ठाम ठाम विभंगनाण सूत्र में क्यूं कह्यो ? तेहनो उत्तरहे माचार्य कृत प्राकृत व्याकरण में सूत्र नां शब्द साध्या । तिहां एहवुं सूत्र छ, ते कहै 'लुक' 'स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लु भवति' एहनों अर्थ- स्वर परे हो तो पाउला स्वर नो बहुप विहाक तुहियक नवं ते मार्ट बहुत शब्द कह्यो ।
कहा- विरुद्धा गंगा जेहन विशेषित विभंग में स्थापित
विभंग अनाण इसो शब्द हुंतो । इहां 'लुक्' सूत्रे करी गकार मांहिला अकार नुं लुक् थयुं अनैं स्वर हीन गकार अनाण शब्द नां अकार में मिल्यां विभंगनाण शब्द सिद्ध थयुं ।
यसी पंच वर्णा फूल में सूत्रे दसवण्णकुसुम पाठ कहां रहा पण दस अद्ध शब्द हंतो 'लुक' सूत्रे करी सकार मांहिला अकार नों लुक् थयुं । स्वर हीन सकार अद्ध शब्द नां अकार में मिल्यां दसद्ध शब्द सिद्ध थयुं ।
तथा सर्वार्थ सिद्ध नै 'सव्वट्टसिद्ध' पाठ कहां । इहां पिण सव्वअट्ठसिद्ध शब्द हुंतो । 'लुक' सूत्रे करी व्वकार मांहिला अकार नुं लुक् थयुं । स्वरहीन व्वकार अट्ठ शब्द नां अकार में मिल्यां सव्वट्ट शब्द सिद्ध थयुं । इत्यादिक अनेक ठामे 'लुक' सूत्र करी पाछला स्वर नों लुक् हुवै छं । तिम विभंग नाण शब्द पिण जाणवो ।
--
तिवारे कोई पूछे - विभंग अनाण इसो पाठ किहांइ कह्यो छे ? तेहनों उत्तरभगवती शतक ९ । ३३ में असोच्चा नै अधिकारे कह्यो - निरंतर छठ छठ तप, सूर्य • स्हामी आतापना, प्रकृति भद्रक, स्वभावे उपशांत, स्वभावे पतला क्रोध मान मायालोभ, तिणे करी मृदु-- कोमल, मार्दवसंपन्न, अल्लीण इन्द्रियां वश्य करी, भद्रिक,
२३८ भगवती-जोह
Jain Education International
२६. एवं जहा रावप्यसेगरजे (७१२-०४६) नागाणं भेदो तहेव इह भाणियव्वो जाव सेत्तं केवलनाणे । ( श० ८ / ६८ ) ३७. ते कतिविहे पणते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - मइअण्णाणे, सुरणाचे, विभंगनाथे । ( श० ८ / ६६ ) विरुद्धा भङ्गा - वस्तुविकल्पा यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच्च तज्ज्ञानं च अथवा विरूपो भङ्गः – अवधिभेदो विभङ्गः स चासो ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम् । ( वृ० प० ३४४ )
---
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org