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________________ वनीतपणे करी एकदा प्रस्तावे शुभ अध्यवसाये करी शुभ परिणामे करी विशुद्ध लेश्याई करी तदारणी कर्म नां क्षयोपशम करी हापोहमम्गणनवेसणं करेमाणस्स हा हितां अर्थ- चेष्टा - ज्ञान सन्मुख विचारवो । अपोह नों अर्थ वृत्तिकार तो विपक्ष कियो अन बड़ा टब में कह्यो — धर्म ध्यान बीजा पक्ष रहित निर्णय करवो । मग्गण कहितां तेहिज धर्म नीं आलोचना । गवेषणं कहितां अधिक धर्म नीं आलोचना करतां छतां विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पज्जति - विभंग नामैं अज्ञान ऊपजै । जघन्य आंगुलनों असंख्यातमो भाग उत्कृष्ट असंख्याता हजार जोजन जाणें, देखें ते विभंग ज्ञान करिकै जीव पिण जाणै, अजीव पिण जाण । पाखंड ने विषे रह्या ते महाआरंभी ने संक्लिश्यमान जाण । तेहनी अपेक्षाये अल्पआरंभी ने विशुद्धमान जाणै | जद प्रथम समक्त्व पामै साधु धर्म प्रतै रोचर्व, सद्दहै, बांछे, चारित्र परिवर्ज, लिंग परिवर्ज— 3 तस्म णं तेहि छिन परिमाणेहि परिहायमानेहि सम्मदंसणपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहि परिवड्ढमाणेहि से विब्भंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ- तिथे मिथ्यात्व पर्याय करी परिहीयमान होवे करी, सम्यन् दर्शन नां पर्याय तिग करी परिवर्तमान होते थके, ते विभंग नामा अज्ञान सम्यग्दर्शन परिगृहीत छतो उतावलो हीज अवधिज्ञान हुई । इहां प्रत्यक्ष पाठ में कह्यो - विभंग नामे अज्ञान ऊपजै । वलि कह्यं सम्यक्त पाम्ये छते 'विभंगे अण्णाणे' विभंग अज्ञान शीघ्र अवधि हुवै । इहां 'लुक्’ सूत्रे करी पाछला स्वर नों लुक् नथी थयुं । बहुलपणै लुक् कह्यं. छै ते मार्ट इहां लुक् न थयुं । 9 अनं विभंग नाण शब्द हुवै तिहां गकार मांहिला अकार नो लुक् हुवै पिण अनाण शब्द नां अकार नों लुक् न थयुं ते मार्ट विभंग नामैं अज्ञान कहीजै पिण ज्ञान न कहीजे जो विभंग में अकार नो अर्थ हुई तो विभंगे अनाणे एहयो सूत्रे क्यूं कह्यो ? तथा इहां सूत्रे बाल तपस्वी नैं विभंग ऊपजै ते विभंग ऊपजवा नो कारण सूत्रे कहां, निरंतर छठ छठ तप, सूर्य की आतापना, भद्रिक, विनीत, क्रोधादिक पातला, मृदुमार्दव, आलीन एहवा गुण कह्या । वलि भला अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या की तदावरणी कर्म नां क्षयोपशमे करी भली विचारणा करी (अयं में कह्यो) धर्म ध्याने करी विभंग अज्ञान ऊपजै । ए विभंग उपजवा नां कारण कह्या । विभंग विरुद्ध हुये तो शुभ अव्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध-लेश्या तदावरणी नों क्षयोपशम ए अभितर शुद्ध ऊपजवा नां कारण क्यूं कह्या ? वली को विभंग अज्ञान करी जीव पिण जाणें, अजीव पिण जाणे, पाखंड्यां न जाणे, सम्यक्त्व पामैं, जो ए विभंग विरुद्ध थी जीव अजीव किम जाणें ? पाखंड्यां नै किम ओलखे ? सम्यक्त्व किम पामै ? ते मार्ट ए विरुद्ध नथी । कर्म नां क्षयोपशम थी ए उपजे ते उज्जल जीव विरुद्ध नथी । अज्ञानी रा भाजन मार्ट विभंग अज्ञान कह्य ु अनैं सम्यक्त्व पामे ज्ञान रा भाजन मार्ट तेहने अवधिज्ञान कहियै । सम्यग् दृष्टि पूर्व भण्यो तेहन ज्ञानी रा भाजन माटे ज्ञान कहिये अने ते एक बोल कंधो श्रद्ध्यां छतां ते पूर्व नां ज्ञान नैं अज्ञानी रा भाजन माट श्रुत अज्ञान कहियै । एक बोल ऊंधो श्रद्ध, यो ते मिथ्यात आश्रव छे, पिण तेहने अज्ञान न कहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only श० ८, उ० २, ठा० १३४ ३३९ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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