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तेहनों उत्तर-जिम उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो तिण भव तथा तीजै भव मोक्ष जाय । अनै तीजै भव मोक्ष जाय, तेहनी उत्कृष्टी आराधना पिण हुइं अनै जघन्य मज्झिम पिण हुई। तथा जिम असन्नी नरक जाय तो पहिली नरक नै विषेहीज जाय, आगल न जाय । अनै पहिली नरके जाय ते सन्नी पिण जाय असन्नी पिण जाय । तिम उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो तो सिद्ध तथा कल्पातीत नै विषेईज ऊपज, कल्प नै विषे न ऊपजै । अनै कल्पातीत नै विषे ऊपज ते उत्कृष्ट चारित्र नी आराधना वालो पिण ऊपज अन जघन्य मज्झिम वालो पिण ऊपजै । अभव्य मुनि-लिंगे अधिक तप थी कल्पातीत-नवमा अवेयक मैं विषे ऊपजै छै, तो जघन्य चारित्र नी आराधना वालो किम न ऊपजै ? इण न्याय जघन्य चारित्र वालो पिण कल्पातीत नै विषे ऊपजतो दीस छ। (ज० स०) ४५. *मज्झिम ज्ञान आराधना प्रभजी ! आराधी ने तेही।
केतला भव ग्रहणे करि सीम, यावत अन्त करेई ?
४६. जिन कहै केइक बीजा भव में, सीझै-मक्ति सिधावै। वर्तमान नर भव नी अपेक्षा, दूजो नर भव पावै ।।
सोरठा ४७. जे जाये निर्वाण, ते उत्कृष्ट ज्ञान बिन ।
उत्पत्ति कदेय म जाण, तिण सू भव दूजो कह्यो ।। ४८. मज्झिम ज्ञान आराध, एहनें सुर पद छै सही।
उत्कृष्ट ज्ञान न लाध, तिण सतिण भव शिव नहीं। ४६. *मज्झिम ज्ञान आराधन वालो, तीजो भव न उलंधे।
वर्तमान नर भव नी अपेक्षा, तीजे नर भव चंगे।
४५. मज्झिमियण्णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं
भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव सम्बदुक्खाणं अंतं
करेति ? ४६. गोयमा ! अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति
जाव सव्व-दुक्खाणं अंतं करेति, अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन
(वृ० प० ४२०) ४७. भावे पुनरुत्कृष्टमवश्यम्भावीत्यवसेयं, निर्वाणान्यथाऽनुपपत्तेरिति
(वृ० प० ४२०)
४६. तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ। (श० ८।४६१)
अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं मनुष्यभवग्रहणाम,
(वृ० प० ४२०) ५०. मज्झिमियण्णं भंते ! दसणाराहणं आराहेत्ता एवं
५०. मज्झिम दर्शन आराधना प्रभजी ! आराधी ने तेही।
मज्झिम ज्ञान आराधना नों फल, भाख्यो तेम कहेई ।। ५१. मज्झिम चरित्त आराधना पिण इम, मज्झिम ज्ञान दर्शण नीं।
वलि मज्झिम चारित्र नी आराधना, एक सरीखी वरनी।
५१. एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि (सं० पा)
(श० ८।४६२,४६३)
सोरठा ५२. पूर्वे भाखी एह, मज्झिम ज्ञान दर्शण तणी।
आराधना गुणगेह, ते सहु चारित्र सहित छै॥ ५३. *हे प्रभ ! ज्ञान नी जघन्य आराधना, आराधी ने तेहो।
केतना भव ग्रहणे करि सीझ, यावत अन्त करेई ?
५४. जिन कहै तीजै भव केइ सीझ, सत्त अठ भव न उलंघे ।
जघन्य दर्शण आराधना पिण इम, सुर नर पनर उमंगे।
५३. जहण्णियण्णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं
भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव सम्वदुक्खाणं अंतं
करेति ? ५४. गोयमा ! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति
जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति, सत्तट्ट भवम्गहणाई पुण नाइक्कमइ।
(श० ८।४६४) एवं दसणाराहणं पि,
* लय : रामजी नार गमाई हो
५४. भगवती-जोड़
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