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________________ ३०. *जी हो हे प्रभुजो ! नारक तणे, नरक विषे रह्या ने सोय । जी हो जेणे करीनै जाणिय, एहवी प्रज्ञा तेहनें होय ।। ३१. जी हो समय आवलिका पिण वलि, जाव अवसर्पिणी छै एह । जी हो उत्सपिणी पिण एह छै, एहवं नरक विषे जाणेह ? ३२. जी हो जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, कांइ किण अर्थे भगवान ? जी हो जिन कहै समयादिक तणो, इण मनुष्यखेत्र में मान । ३०. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायए, तं जहा-- ३१. समया इ वा, आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्स प्पिणी इ वा ? ३२. णो तिणठे समझें । (श० ५।२४८) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइयाणं तत्थगयाणं नो एवं पण्णायए, तं जहा-समया इ वा, आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा? गोयमा ! इहं तेसिं माणं, ३३. इहं तेसि पमाणं, (श० ५।२४६) आदित्यगतिसमभिव्यंग्यत्वात्तस्य, (वृ० प० २४७) ३४. आदित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्र एव भावात् नरकादौ त्वभावादिति, (वृ० प० २४७) ३५,३६. प्रमाण-प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः, तत्र मुहूर्तस्तावन्मानं तदपेक्षया लवः सूक्ष्मत्वात् प्रमाणं तदपेक्षया स्तोकः प्रमाणं लवस्तु मानमित्येवं नेयं यावत् समय इति, (वृ० प० २४७) ३३. जी हो इण मनुष्य वेत्र नै विषे वलि, समयादिक तणोंज प्रमाण । जी हो आदित्य गति करि जाणिय, समयादिक नै पहिछाण ।। ३४. जी हो मनुष्यक्षेत्र नै विषेज छ, कांइ समयादिक नों ज्ञान । जी हो नारकादिक नै विषे नहीं, तिण सं इहांइज मान प्रमान । ३५. प्रकृष्ट मान प्रमाण सूक्षम, महर्त मान कहीजिये । तसु अपेक्षा लवज सूक्षम, तेह प्रमाण लहीजिये ।। ३६. लव मान कहिये तसु अपेक्षा, थोव प्रमाण पिछाणिय । थोव मान तेहनी अपेक्षा, प्रमाण पाण जाणिय ।। ३७. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । (श० ५।२५०) ३८. अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इगयाणं एवं पण्णा यते, ३६. समया इ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा ? ३७. *जी हो नरक तणी पर जाणवा, कांइ जाव पंचेंद्री तिर्यच । जी हो मनुष्य तणी पूछा हिवै, तसुं सांभलज्यो सुभ संच ।। ३८. जो हो छै भगवंत ! जे मनुष्य नैं, कांइ इहां रह्या नै ताम । जी हो जेणे करीने जाणिय, एहवी प्रज्ञा बुद्धि अभिराम ।। जी हो समय आवलिका पिण वलि, जाव अवप्पिणी छ एह । जी हो उत्सप्पिणी पिण एह छ, एहवं मनुष्य विषे जाणेह ? ४०. जी हो जिन कहै अर्थ समर्थ अछै, कांइ किण अर्थे भगवान । जी हो जिन कहै समयादिक तणो, इण मनुष्य क्षेत्र में मान । ४१. जी हो इण मनुष्यखेत्र नै विषे वलि, समयादिक तणो प्रमाण । जी हो आदित्य गति करि जाणिय, समयादिक नै पहिछाण ॥ जो हो मनुष्यखेत्र में विषेज छै, काइ समयादिक नों ज्ञान । जी हो तिण अर्थ करि इम कह्य, कांइ इहां इज मान प्रमान । जो हो बाणव्यंतर नैं जोतिषि, वलि बंभानिक नै ताम । जो हो कहिय नरक तणो परै, काइ सहु विरतंत तमाम ।। ४४. जी हो समयखेत्र बाहिर रह्या, कांइ सर्व तणे अवलोय । जी हो समयादिक पूर्वे कह्या, तेहनें जाणै नहिं ते कोय ।। *लय : चतुर नर पोषो पात्र विसेख १. अंगसुत्ताणि में 'इह तेसि पमाणं' के बाद उपसंहारात्मक रूप में पूरा पाठ है। पर उस पाठ की जोड़ न होने के कारण उसे यहां उद्धृत नहीं किया गया। लय: पूज मोटा मांज...... ४०. हंता अत्यि। (श० ५।२५१) से केणटेणं ? गोयमा ! इहं तेसिं माणं, ४१,४२. इहं तेसि पमाणं, इहं चेव तेसि एवं पण्णायते, तं जहा-समयाइ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा । से तेण?णं । (श० ५।२५२) ४३. वाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । (श० ०२५३) ४४. इह च समयक्षेत्राबहिर्वत्तिनां सर्वेषामपि समयाद्यज्ञानमवसेयम्, (वृ० प० २४७) श०५, उ०६, ढाल ६४ १०५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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