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________________ २५. तठा पज प्रपन्न, ऊपर जे तमुका है। असंख्यात जोजन्न, विस्तरपणें अच्छे विका २६. *तिहा संखेज्ज विस्तरपणे ते संख्याता जोजन हजार । विस्तंभ पहुलपणे एत परिधि असंख जोजन सहस्र हजार ।। सोरठा छं ॥ २७. जोजन ते ते संख्यात, विस्तरपणेज तास परिधि कही जगनाथ, असंखेज जोजन २८. तमस्काय नैं जाण, असंख्यातमा द्वीप अति बृहत प्रमाण, तिण सूं परिधि असंस २९. तमस माहिलो जेह, अथवा विभाग वारलो । इहां न बांधतेह, अपणो विहं नो अई ॥ ३०. *तिहां असंख विस्तारपण तिका, ते असंख्याता जोजन हजार । विभपलपणं एत परिधि असंख जोजन सहस्र धार ॥ " ३१. हे प्रभुजी ! तमस्काय ते केतली मोटी कहाय ? जिन कहै ए जंबूद्वीप के सर्व द्वीप समुद्र रं मांय ॥ पिण । सहस्र ॥ ३२. जाव परिधि त्रिगुणी तसु, जाभी अधिक कहाव सुर इक महाऋद्धि नों धणी, जावत धणी, जावत महाअनुभाव । ३२. जाव इणामेव एह शब्द कही दो बार। जाव शब्द इणामेव नैं, तात्पर्यार्थ विचार ॥ ३४. सुर नीं महाऋद्धि आदि नं एह विशेषण ताय । प्रकर्ष समर्थपणां तणो ए अभिप्राय ।। गमन ३७. अर्थ केवल नुं जान कल्प परिपूर्ण मान, ते । ३५. इणामेव इणामेव इम कही, इतलो मुझ जावूरंज । अति शीघ्रपणे कर-व्यापार नीं, चिबठी मांही प्रजूंझ ॥ २६. इम कहिने ते देवता, केवलकल्प जंबूद्वीप ताय तीन चिठी में इकवीस वार ते, दोलो फिरी झट आय || सोरठा Jain Education International केवलज्ञान कही जियै । टीकाकार को इसो ॥ *लय : जाणपणो जग दोहिलो रे लाल १. यह जोड़ वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है इसलिए इस गाथा के सामने उसी पाठ को उद्धृत किया गया है । अंगसुत्ताणि में इसके स्थान पर विस्तृत पाठ है । १२० भगवती-जोड़ 1 २६. तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्वं भेण असंखेाई जोनसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते । २७,२८. संख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽपि तमस्कायस्थासंख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिक्षेपस्यासंख्यातयोजन सहस्रप्रमाणत्वम् ०१० २६६ ) २६. आन्तरवहिः परिवभास्तुनोक्तः । उभय० ० २६९) स्वायत्वादिति ३०. तत्थ णं जे से असंखेज्जवित्थडे से णं असंखेज्जाई जोयणसहसा विषमेणं असंलाई जो 1 सहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ( श० ६ | ७४ ) ३१. तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वभंतराए ३२. जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । देवे गं महिदी जाय महाणुभावे ( वृ० प० २६८ ) ३३. इणामेव इणामेवत्ति कट्टु इह यावच्छब्द ऐदम्पर्यार्थः, ( ० १० २६६ ) ३४. यतो देवस्य महर्यादिविशेषणानि गमनसामर्थ्य - प्रकर्ष प्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि । (० ० २६४) ३५. 'इणामेवति कट्टु इदं ममेवम् अतिशीघ्राबा वेदक- पप्पुटिकास्तव्यापारोपदर्शनपरम् । ( वृ० १० २६९) ३६. केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं तिहि अच्छरानिवाएहि तितो अपरिवहिता में हन्यमाना For Private & Personal Use Only ३७. "केवलति केवलज्ञानकल्प परिपूर्णमित्यर्थः, ( वृ० प० २६९) www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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