________________
२४. पूरव आय कर्म, बंध्यो छतोज छै तम् ।
तिण कारण ए मर्म, सर्व-बंध कहियै नथी। २५. अन्य प्रकारे जाण, औदारिकादिक मैं हिवै। २५. प्रकारान्तरेणौदारिकादि चिन्तयन्नाहचितवियै सुविहाण, कहियै छै विस्तार ते॥
(वृ० प० ४१२) *हे प्रभु ! जे औदारिक तन नों, जसु सर्व-बंध हुवै सारी। २६. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स सव्वबंधे, से णं
ते प्रभु ! वैक्रिय नुं स्यू बंधक, अथवा अबंधक धारी? भंते ! वेउव्वियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? २७. श्री जिन भाखै बंधक नहि छै, एह अबंध विचारी। २७. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एक समय औदारिक वैक्रिय नं, बंधक नहिं हं तिवारी॥ न ह्येकसमये औदारिकर्वक्रिययोर्बन्धो विद्यत इति
कृत्वा नो बन्धक इति
(वृ०प०४१३) २८. हे प्रभु ! जे औदारिक तन नों, जसु सर्व-बंध हसारी । २८. आहारगसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ?
ते प्रभु!आहारक तन नोंस्यं बंधक, अथवा अबंधक सारी? २६. श्री जिन भाखै बंधक नहि छै, एह अबंध विचारी। २६. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। - एक समय औदारिक आहारक नों, बंधक नहिं हतिवारी ।। एवमाहारकस्यापि
(व०प०४१३) ३०. हे भगवंत ! ओदारिक तनु नों, जसुं सर्व-बंध ह सारी।। ३०. तेयासरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ?
ते प्रभु ! स्य तेजस नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ३१. श्री जिन भाख एह बंधक छ, विरह-रहित ए धारी। ३१. गोयमा ! बंधए नो अबंधए। सदा सहचारीपणां थी बंधक, अबंधक नहिं छै लिगारी॥
तेजसस्य पुनः सदैवाविरहितत्वाद् बन्धको देशबन्धकेन,
(वृ०प० ४१३) ३२. जो प्रभु ! बंधक तो स्यू देश-बंध, अथवा सर्व-बंध कारी? ३२. जइ बंधए कि देसबंधए ? सव्वबंधए ?
श्री जिन भाख देश-बंध ह्व, सर्व-बंध परिहारी ॥ गोयमा ! देसबंधए नो सव्वबंधए? ३३. हे प्रभजी ! औदारिक तणो जसु, सर्व-बंध ह सारी।
३३. कम्मासरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? ते प्रभु ! स्यू कार्मण नों बंधक, अथवा अबंधक धारी? ३४. श्री जिन भाखै एह बंधक छ, विरह-रहित ए धारी। ३४. गोयमा ! बंधए, नो अबंधए।
सदा सहचारीपणां थी बंधक, अबंधक नहिं छै लिगारी॥ ३५. जो प्रभु ! बंधक तो स्यू देशबंध, अथवा सर्व-बंध कारी? ३५. जइ बंधए कि देसबंधए? सव्वबंधए ?
श्री जिन भाखै देश बंध ह, सर्व-बंध परिहारी॥ गोयमा! देसबंधए नो सव्वबंधए। (श० ८।४३६) ३६. हे प्रभुजी ! औदारिक तणो जसु, देश-बंध कर्तारी।
३६. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स देसबंधे, से णं ते प्रभु ! वैक्रिय नों स्यू' बंधक, अथवा अबंधक धारी? भंते ! वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए? अबंधए ? ३७. जिन कहै बंधक नहिं छै अबंधक, जिम सर्वबंध करि उचारी। ३७. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। एवं जहेव सव्वतिमज देशबन्ध करिक भणवो, जाव कार्मण धारी ॥ बंधणं भणियं तहेव देसबंधण वि भाणियन्वं जाव
कम्मगस्स।.
(श० ८।४४०) ३८. हे प्रभु ! वैक्रिय शरीर तणो जसू, सर्व-बन्ध कारी। ३८. जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधे, से णं
ते प्रभु ! स्यू औदारिक नों बंधक, अथवा अबन्धक धारी ? भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए ? ३६. श्री जिन भाखै बन्धक नहीं छ, एह अबन्धक धारी। ३६. गोयमा ! नो बंधए, अबंधए। आहारगसरीरस्स आहारक तन नों पिण इम कहिवो, पूर्व रीत प्रकारी॥
एवं चेव ४०. जेहन वैक्रिय तन नों सर्व-बंध, तसु तेजस कार्मण धारी। ४०. तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं
जेहन वैक्रिय तसु औदारिक नों भणियो, तिमहिज कहिवं विचारी॥ तहेव भाणियव्वं । *लय : गावत मेरी
श०८,०६, ढा० १६४ ५२६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org