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३६. यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः ।
(वृ० प० ३६५) ३७,३८. निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, (वृ०प० ३६५)
३६,४०. लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं। (वृ० प० ३६५)
३६. विषम मात्रा चींगटो, चींगटा थी बंधे ।
इमज लक्ख लुक्ख थी बंध, खंध नों बंध संधै ॥ ३७. निद्ध गण परमाण आदि जे, अन्य निद्ध गण साथ ।
बंध हुवै तो निश्चै करि, गण बे आदि अधिकात ॥ ३८. एक परमाण आदि जे, इक गुण निद्ध जोय ।
बे गुण निद्ध बीजो अण, ते साथै बंध होय ॥ लक्ख गण परमाणु आदि जे, अन्य लक्ख गण साथ ।
बंध हुवै तो निश्चै करि, गण बे आदि अधिकात ॥ ४०. एक परमाणु आदि जे, इक गुण लक्ख जोय ।
बे गुण लुक्ख बीजो अणु, ते साथै बंध होय ।। ४१. इम विषम मात्रा करि, निद्ध निद्ध साथ बंधात ।
वलि विषम मात्रा करि, लक्ख बंधै लक्ख साथ ॥ ४२. हिव निद्ध लुक्ख बिहुं तणो, बंध हुवै माहोमाय ।
ते आश्री कहिये अछ, सुणज्यो चित्त ल्याय ।। ४३. बंधै लुक्खो नैं चींगटो, एक जघन्य गुण वरजी ।
विषम तथा सम नैं विषे, बंध कह्यो इम जिणजी। ४४. इक गुण निद्ध ते चींगटो, इक गण लक्ख संघात ।
एह जघन्य गुण नहिं बंधै, अन्य विषे बंध थात । ४५. इक पुद्गल निद्ध इक गणे, दूजो पुद्गल ताय ।
लुक्ख बे त्रिण गुण आदि दे, विषम गुण इम बंधाय ॥ ४६. इक पुद्गल निद्ध बे गणे, अन्य पुद्गल जोय । ___बे गुण लुक्ख साथे बंधै, ए सम गुण बंध होय ॥ ४७. इक पुद्गल निद्ध त्रिण गुणे, तोन गुण लक्ख साथ ।
इत्यादिक सम गुण नै विषे, बंध कह्यो जगनाथ ।। ४८. इम निद्ध लक्ख बंधै अछ, सम विषम संघात ।
निद्ध लुक्ख पिण गुण जघन्य ते, एक गुण न बंधात ॥ ४६. बंधन नो पूरव कह्यो, प्रत्यय कहितां हेतु ।
विमात्र स्निग्ध आदि थी, बंध ऊपजै वेतु ॥
४३,४४. निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो,
जहन्नवज्जो बिसमो समो वा॥ (वृ०प० ३६५)
५०. एक समय रहै जघन्य थी, उत्कृष्ट थी जेह । काल असंख्यातो रहै, असंख कालचक्र एह ॥
(बंधन-प्रत्यय ए कह्यो) ५१. भाजन-प्रत्यय कवण ते? भाजन कहिये आधार ।
प्रत्यय हेतु जेह छै, भाजन-प्रत्यय विचार ॥ ५२. जे जीर्ण जूनी सुरा तणो, जाडी थावा नों जेह ।
तेहिज लक्षण रूप में, बंध भाख्यो एह ।।
४६. बन्धणपच्चएणं बन्धे समुप्पज्जइ,
बन्धनस्य-बन्धस्य प्रत्ययो-हेतुरुक्तरूपविमात्रस्निग्ध
तादिलक्षणो बन्धनमेव वा... (वृ० प० ३६५) ५०. जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । से तं बन्धणपच्चइए।
(श० ८।३५१) असंख्येयोत्सपिण्यवसप्पिणीरूपं (वृ०प० ३६५) ५१. से किं तं भायणपच्चइए?
भायणपच्चइए५२. जण्णं जुण्णसुर तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो बन्धः ।
(वृ० प० ३६५) श०८, उ०८, ढा० १५४ ४७३
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