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७०. जेहवो करै तेहवो नहिं बोल, जे करै विपरीत मंद।
ते विसंवादन जोग करीन, अशुभ नाम कर्म जाव बन्ध ।
७०. विसंवादणाजोगेणं असुभनामकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं असुभनामकस्मासरीरप्पयोगबंधे ।
(श० ८।४३०)
सोरठा ७१. 'नाम कर्म अवलोय, पुण्य पाप कहियै बिहुँ ।
सावज निरवद्य सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखलो॥ ७२. शुभ नाम कर्म जेह, तन नाम कर्म नैं उदय करि।
जोग भला प्रवत्तेह, मोह रहित कारज अछ। ७३. अशुभ नाम कर्म सोय, तन नाम उदय जोग प्रवः । मोह सहित ए होय, ते माटै अशुभ जोग छै॥
(ज० स०) ७४. *ऊंच गोत्र कर्म शरीर नीं पूछा, तब भादं जगतार ।
जाति तणो मद अणकरिव करि, न करै कूल-अहंकार ॥ ७५. वलि बल नों मद अणकरिव करि, रूप नों मद निवार ।
तप तणो पिण मद करै नहीं, लाभ नों मद परिहार। ७६. श्रत भण्यां नों पिण मद न करै, ठकुराइनों तजै अहंकार ।
या करिक ऊंच गोत्र कर्म तन, जाव प्रयोग-बन्ध धार ॥ ७७. नीच गोत्र कार्मण तन पूछा, जाति मदे करि संध ।
कूल बल जाव ऐश्वर्य मदे करि, नीच गोत्र कर्म जाव बंध ।।
७४. उच्चागोयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०)
गोयमा ! जातिअमदेणं, कुलअमदेणं ७५,७६. बलअमदेणं, रूवअमदेणं, तवअमदेणं, सुयअमदेणं,
लाभअमदेणं, इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं उच्चागोयकम्मासरीरप्पयोगबंधे।
(श० ८।४३१) ७७. नीयागोयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०)
गोयमा ! जातिमदेणं, कुलमदेणं, बलमदेणं जाव (सं० पा०) इस्सरियमदेणं नीयागोयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नीयागोयकम्मासरीरप्पयोगबंधे।
(श० ८।४३२)
सोरठा ७८. 'गोत्र कर्म अवलोय, पुन्य पाप कहियै बिहुँ ।
सावज निरवद्य सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखलो॥ ७६. ऊच गोत्र कर्म जेह, तन नाम कर्म नैं उदय करि ।
जोग भला प्रवत्तेह, मोह रहित कारज अछ ।। ८०. नीच गोत्र कर्म न्हाल, तन नाम उदय जोग प्रवत्तें । मोह सहित ए भाल, ते माटै अशुभ जोग छै॥
(ज० स०) ५१. *अन्तराय कर्म तन नीं पूछा, तब भाखै जिनराय।
दान तणी अन्तराय देवा थी, लाभ नी दे अन्तराय॥ ८२. भोग उवभोग नै वीर्य नीं पिण, अन्तराय दे अन्ध ।
शरीर नाम कर्म उदय करीने, अन्तराय कर्म नो बन्ध ।।
जनराय।
लाभ नी
ये नी
८१. अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा (सं० पा०)
गोयमा ! दाणंतराएणं, लाभंतराएणं, ८२. भोगतराएणं, उवभोगंतराएणं, वीरियंतराएणं अंतरा
इयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगपंधे। (श० ८।४३३)
*लय : राजा राघव १. अंगसुत्ताणि भाग दो ८।४३१ में तपमद के बाद श्रुतमद और लाभमद, ऐसा पाठ है । जोड़ में तप के बाद लाभ और फिर श्रुत का ग्रहण किया है। अंगसुत्ताणि में यह क्रम उक्त पाठ के पाठान्तर में रखा गया है। जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही क्रम होगा। सामने उद्धृत पाठ अंगसुत्ताणि के आधार पर है।
५२६ भगवती-जोड़
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