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बारातियमिस्सा सरीरकावयओगपरिणए ओदारिकन उत्पत्ति काल ने विषे असंपूर्ण छतो मिश्र कार्मण करिकै ते ओदारिक मिश्र, तेहीज ओदारिक- मिश्रक, ते लक्षण शरीर ते ओदारिक मिश्रक शरीर । तेहीज काय, तेहनों के प्रयोग अथवा ओदारिक-मिन शरीर नों जे काय प्रयोग ते दारिक मिश्रक- शरीर काय प्रयोग । तिण करिकै परिणत जे ते ओदारिक-मिश्रक-शरीरकाय प्रयोग - परिणत । ए बली ओदारिक- मिश्रक- शरीर- काय प्रयोग उत्पत्ति काले ह से अपर्याप्त में हीज जाणवो ।
जीव, अतर कहितां व्यवन भी अनंतर ते अंतर रहित एतले प उत्पत्ति समय कार्मण जोगे करी आहार लिये तिण उपरंत मिश्र करिके आहार लिये ज्यां लगं शरीर नीपजे त्यां लगे इति गाथार्थः ।
इम प्रथम कार्मण करिकै ओदारिक शरीर नों मिश्र उत्पत्ति आश्री कह्यो, तेनां प्रधानपणां थकी । वली जिवारे ओदारिकशरीरी वैक्रिय-लब्धि सहित मनुष्य अन पंचेंद्रिय तिर्यञ्च तथा पर्याप्त बादर-वायुकायिक वैक्रिय करें, तिवार ओदारिक काययोग होग वर्तमान प्रदेशां पते विक्षेपी ने मंत्रिय शरीर योग्य पुद्गल प्रतं ग्रही नैं ज्यां लगे वैक्रियशरीर सम्पूर्ण न थयो त्यां लगे वैक्रिय करिकै ओदारिक शरीर नों मिश्रपणो । प्रारम्भकपणे करी ते ओदारिक ने प्रधानपणां थकीज ओदारिक मिश्र कहिये । इम आहारक करिकै पिण ओदारिक शरीर नों मिश्रपणो जाणवो ।
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वेव्वियसरी रकायप्पओगपरिणए - वैक्रिय शरीर काय प्रयोग- परिणत 1 इहाँ वृत्तिकार को—त्रिय वारीर काय प्रयोग क्षेत्रिय पर्याप्त हुए पिण विरुद्ध । इण वैक्रिय नैं अधिकारे हीज वैक्रिय शरीर काय प्रयोग देवता नां पर्याप्तक, अपर्याप्त विद्धं मैं कह पुं तिहां हवं एह पाठ -
जाव पज्जत्तासम्बद्वसिद्धअणुत्तरोववाइय कप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिदिययेउसिरीरकायपयोगपरिणाए वा अपजत्ता सव्यद्धसिद्ध जाव कापपयोगपरिणते
वा ।
इहां कह युं - सर्वार्थसिद्धि नां देवता पर्याप्ता, अपर्याप्ता बिहु में वैक्रिय शरीर काय प्रयोग हुवे । ते माटै वृत्ति में वैक्रिय शरीर काय प्रयोग पर्याप्तक में हीज कह, युं, ते विरुद्ध ।
'वे उव्वियमीसासरीरकायपयोगप्परिणए ।' ए वैक्रिय - मिश्रक-काय प्रयोग देवता नारकी नैं विषे ऊपजता छता अपर्याप्ता नैं । तेहनों मिश्रपणो वैक्रिय शरीर नैं कार्मण करके ही ह
अनं देवता नारकी नां पर्याप्ता ने कार्मण करिकै वैकिय नों मिथन हुवै, माटे देवता नारकी नां पर्याप्ता नैं वैकिय नुं मिश्र न कह्यं । अनै देवता नारकी भवधारणी उत्तर वैक्रिय करें, तिवारै पर्याप्ता नै वैक्रिय नुं मिश्र पन्नवणा सूत्रे कह्यं, छै, पिण ते अप्रधानपणां थकी तेहनुं कथन इहां कह्यं नथी ।
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औदारिकमुत्पत्तिका सम्पूर्ण सत् मिथं कार्म्मणेनेति औदारिकमिश्रं तदेवौदारिकमिश्रकं तल्लक्षणं शरीरमौदारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिक मिश्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीरका प्रयोगस्तेन परिषत यत्तत्तवा, अयं पुनरीधारिक मिकसरी रकावप्रयोगो पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः ।
जोएण कम्मएवं बहारे अनंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्पत्ती ॥ उत्पत्त्यनन्तरं जीवः कार्मणेन योगेनाहारयति ततो यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः (शरीरपर्याप्तिः) तावदोदारिकमिश्रेणाहारयति ।
एवं तावत् कार्म्मणेनौदारिक शरीरस्य मिश्रता उत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात् यदा पुनरौदारिकशरीरी वेंक्रियलब्धिसंपन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादरवाकादिको वा जिय करोति तदा औदारिककाययोग एवं वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य शरीरयोग्यान्तानुपादाय याबद् पर्यायान पर्याप्त गच्छति ताणीदारिकशरीरस्य मिता प्रारम्भकत्वेन तस्य प्रधानत्वात्, एवमाहारकेणाप्पीदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति ।
इह शिरकावायोगो पिर्याप्तकस्येति
इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेषूत्पद्य मानस्यापर्याप्तकस्य मित्रता ने त्रिशरीरस्य कार्मनैव । ( ० प० २३५) उत्तरक्रियामे च भवधारणीयं वक्रयमिषं तद्वलेनीत्रियारम्भात् भवधारणीयप्रवेशे पोसरयत्रियमिश्र, उत्तरक्रियबलेन भवधारणीये प्रवेशात् ।
(प्रज्ञा० ० ० ३२४)
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श० प ० १ ठा० १३१ ३१७
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