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________________ सोरठा ६३. औदारिक तन तास, देश बंध नों आंतरो। जघन्य समय इक जास, तास न्याय निसुणो हिवै। ६४. देश बंध करि काल, अविग्रह-गति ऊपनो। प्रथम समय में न्हाल, सर्व बंध कारक वली ॥ ६५. दूजा समय मझार, देश-बंध छै ते भणी। __ जघन्य समय इक धार, देश-बंध - अंतरो॥ ६६. देश-बंध औदार, उत्कृष्ट अंतर तेहनों। तेतीस सागर धार, तीन समय करि अधिक किम ? ६७. देश-बंध करि काल, तेतीस सागर स्थितिपणें । उपनो तेह निहाल, काल करी वलि त्यां थकी ।। ६८. करि विग्रह समया तीन, उपनो औदारिकपणें । बे समय अणाहारक चीन, तृतिय समय थयो सर्व-बंध ।। ६६. तुर्य समय देश-बंध, इम सागर तेतीस ए। अधिक समय त्रिण संघ, उत्कृष्ट अंतर देश-बंध ।। ६३. देशबन्धान्तरं जघन्येनैकं समयं, कथं ? (वृ० प० ४०१) ६४. देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेणैवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम एव समये सर्वबन्धकः । (वृ० प० ४०१) ६५. द्वितीयादिषु च समयेषु देशबन्धकः सम्पन्नः, तदेवं देश बन्धस्य देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एक: समयः सर्वबन्धसम्बन्धीति। (वृ०प० ४०१) ६६. उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्धस्य देशबन्धस्यान्तरं भवतीति, कथं ? (वृ० प० ४०२) ६७. देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायु: सर्वार्थसिद्धादौ, (वृ० प० ४०२) ६८,६९. ततश्च च्युत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तराल देशबन्धस्य देशबन्धस्य च यथोक्त भवतीति । (वृ० प० ४०२) ७०. औदारिकबन्धस्य सामान्यतोऽन्तरमुक्तमथविशेषतस्तस्य तदाह (वृ० प० ४०२) ७१. एगिदियओरालियपुच्छा। ७०. औदारिक-बंध जाण, अंतर कह्यो सामान्य थी। विशेष थी हिव आण, कहियै छै अंतर तसु॥ ७१. *एकेंद्री औदारिक तनु, तास बंध नो हो अंतर कितो कहिवाय ? श्री जिन भाखै जूजुओ, सर्व-बंध न हो देश-बंध न ताय ।। ७२. सर्व-बंध न अंतरो, __ जघन्य क्षुल्लक भव हो ऊणा समया तीन। उत्कृष्ट बावीस सहस्र नों, एक समय वलि हो अधिको है सुचीन । सोरठा ७३. एकेंद्री तन औदार, सर्व-बंध नं अंतरो। जघन्य क्षल्लक भव धार, तीन समय करि ऊण किम ? ७२. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई। ७४. विग्रह त्रि समयेन, आयो पृथव्यादिक विषे । ते विग्रह वर्तेन, अणाहारक बे समय धर ।। ७५. तृतीय समय सर्व-बंध, तिहां क्षुल्लक भव ग्रहण ए। ऊण समय त्रिण संध, इतो काल रहिनै मओ। *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ७३. एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं ? (वृ० प० ४०२) ७४. त्रिसमयेन विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकः (वृ० प० ४०२) ७५. तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लकं भवग्रहणं त्रिसमयोनं स्थित्वा मृतः (वृ० प० ४०२) श०८, उ०६, ढा० १५८ ४६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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