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३. गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि ।
(श० ६।६४)
४. सव्व जीवाणं एवं पुच्छा।
गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी, ५. जाव चउरिदिया (सेसा दो पडिसेहेयव्वा) ।
३. जिन कहै जीवा पचखाणी पिण, वलि छै अपचखाणी । पचखाणा-पचखाणी पिण छै, बोल तीनइ जाणी ।
(रे गोयम ! सांभलज चित ल्याय । चवदेइ गणस्थान तीनू में, निर्मल कहीजै न्याय) । ४. सर्व जीवां नीं पूछा इहविध, उत्तर दे जिनराय ।
नेरइया अपचखाणी अविरती, चिउं गणठाणां पाय॥ ५. जाव चोइंदिया अपचखाणी, पचखाणी नहिं होय ।
पचखाणा-पचखाणी पिण नहीं, बोल न पावै दोय ।। ६. तिर्यंच-पंचेंद्री नोपचखाणी, अपचखाणी जाण ।
पचखाणा-पचखाणी पिण छ, पावै पंच गणठाण ।। ७. मन पचखाणी अपचखाणी, पचखाणा-पचखाणी । व्यंतर ज्योतिषि वैमानिक ते, नरक जेम पहिछाणी ॥
सोरठा ८. पचखाणी तो होय, प्रत्याख्यान जाण्ये छते ।
ते माटै अवलोय, ज्ञान-सूत्र कहियै हिवै। ६. *जीव प्रभु ! पचखाण जाणै स्यू अपचखाण नैं जाणै ?
पचखाणापंचखाण नैं जाण ? हिव जिन उत्तर आण ।।
६. पंचिदियतिरिक्ख जोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्च
क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि । ७. मणूसा तिण्णि वि । सेसा जहा नेरइया ।
(श० ६।६५)
८. प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्रम्
(वृ०प० २६७) ९. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणं जाणंति ? अपच्चक्खणं जाणंति ? पच्चक्खाणापच्चक्खाणं
जाणंति? १०. गोयमा ! जे पंचिदिया ते तिण्णि वि जाणंति,
"पञ्चेन्द्रियाः, समनस्कत्वात् सम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानादित्रयं जानन्तीति,
(वृ० प० २६७)
१०. पंचेंद्रिया तीन प्रति जाण, पंचेंद्री दंडक मांय ।
सन्नी विशिष्ट विज्ञान अपेक्षा, जाण ते जीव कहाय ।।
११. शेष तीनूइ प्रति नहिं जाणे, त्यां में विशिष्ट जाणपणो नाही।
थावर विकलेंद्री असन्नी मनुष्य तिरि, मन नहीं ते मांही ।।
११. अवसेसा पच्चक्खाणं न जाणंति, अपच्चक्खाणं न जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं न जाणंति ।
(श० ६।६६) एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः प्रत्याख्यानादित्रयं न जानन्त्यमनस्कत्वादिति ।
(वृ० प० २६७)
सोरठा १२. कीधो ह पचखाण, अणकीधो होवै नहीं ।
ते माटै पहिछाण, करण-सूत्र कहिये हिवै। १३. *जीवा प्रभ ! पचखाण करै स्य, अपचखाण करै छै ?
पचखाणापचखाण करै छै ? हिव जिन उत्तर दै छ ।।
१२. कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्रम्
(वृ० प० २६७) १३. जीवा णं भंते ! कि पच्चक्खाणं कुब्वति ?
अपक्चक्खाणं कुब्बति? पच्चक्खाणापच्चक्खाणं
कुव्वंति ? १४. जहा ओहिओ तहा कुब्वणा ।
(श० ६।६७)
१४. जिम औधिक-सूत्रे नरकादिक आख्या तिमहिज जाणो ।
करिवा नों अधिकारज कहिवो, प्रवर न्याय पहिछाणो ।। *लय : सेवो रे साध सयाणा
१५४ भगवती-जोड़
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